(एक अभुतपूर्व यात्रा)

कठोपनिषदओशो

आज हम एक ऐसी यात्रा पर चले है। जो पथ हजारों साल बाद भी उतना ही….साफ सुथरा और रमणीक है। वैसे तो भारत के अध्‍यात्‍म जगत में न जाने कितने हीर-मोती-पन्‍ने…भरे पड़े है। न जाने कितने चाँद सितारे जो संत बन कर चमक रहे है। जिनका प्रकाश सदियों से मनुष्‍य को पथ दिखाता रहा है….ओर करोड़ो सालों तक दिखाता रहेगा।

लेकिन उन सब में उपनिषद अदुत्‍य है। बेजोड़ है….जिनका कोई सानी नहीं है। आज से आप जगमगाते उन उपनिषदों को ओशो के वचनों से जीवित होता हुआ पाओगे। जो सालों से उन पर पड़ धूल-धमास। हटा को उनका अर्थ हमारे सामने लाये है मानों वो दोबारा जीवित हो गये है। आज कि यात्रा सुखद तो होगी ही इसके साथ हम आध्यात्मिक के उन गहरे रहस्यों को भी बार-बार छूते चले जायेंगे।

      नचिकेता और यम का संवाद। Continue reading “(एक अभुतपूर्व यात्रा)”

तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-10

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-दसवां-(केवल एक स्मरण ही)

दिनांक 10 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

      पहला प्रश्न:

      प्यारे ओशो!

ऐसा क्यों हैं? जब कभी भी मैं आपके प्रवचन के बाद आपको छोड़कर जाता हूं, तो जो कुछ आपको सुनते हुए मुझे सुंदर और प्रभावी लगा था, वह मुझे शीघ्र ही निराशा करने लगता है। क्योंकि मैं स्वयं को उन आदर्शों को जी पाने में, जो आपके अपने प्रवचन में सामने रखे थे अपने को असमर्थ पाता हूं।

तुम किसके बारे में बात कर रहे हो? आदर्शों के? ठीक यही वह चीज़ है जो मैं नष्ट किये चले जाता हूं। मैं तुम्हारे सामने कोई भी आदर्श नहीं रख रहा हूं। मैं तुम्हें भविष्य के बारे में कोई कल्पनाएं और कथाएं नहीं दे रहा हूं, मैं तुम्हें किसी भी प्रकार का कोई भी भविष्य गारंटी नहीं दे रहा हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि भविष्य वर्तमान को स्थगित करने की एक तरकीब है। यह तुम्हें स्वयं से बचाने की एक तरकीब है, यह स्वयं से पलायन कर जाने का एक तरीका है। कामना करना एक धोखा है और आदर्श, कामनाएं सृजित करते हैं। मैं तुम्हें कोई भी ‘चाहिए’ अथवा कोई भी ‘नहीं चाहिए’ नहीं दे रहा हूं। मैं न तो तुम्हें कुछ विधायक दे रहा हूं और न नकारात्मक। मैं सामान्य रूप से तुमसे सभी आदर्शों को छोड़ने और होने के लिए कह रहा हूं।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-09

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-नौवां-(अमन ही द्वारा है)

दिनांक 09 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

सरहा के सूत्र

एक बार पूरे क्षेत्र में जब वह पूर्णानन्द छा जाता है

तो देखने वाला मन समृद्ध बन जाता है।

सबसे अधिक उपयोगी होता है।

जब भी वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है

वह स्वयं से पृथक से पृथक बना रहता है।

प्रसन्नता और आनंद की कलियां

तथा दिव्य सौंदर्य और दीप्ति के पत्ते उगते हैं।

यदि कहीं भी बाहर कुछ भी नहीं रिसता है

तो मौन परमानंद फल देगा ही।

जो भी अभी तक किया गया है

और इसलिए स्वयं में उससे जो भी होगा

वह कुछ भी नहीं है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-08

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-आठवां-(प्रेम कोई छाया निर्मित नहीं करता है)

दिनांक 08 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

      पहला प्रश्न:

      प्यारे ओशो!

कल जब आप बुद्धिमत्ता को ध्यान बनाने के संबंध में बोले, तब वहां मेरे अंदर बहुत वेग से दौड़ भाग हो रही थी। ऐसा अनुभव हुआ जैसे मानो मेरे ह्रदय में विस्फोट हो जायेगा। वह ऐसा था, जैसे मानो आपने कुछ ऐसी चीज़ कहीं जिसे सुनने की मैं प्रतीक्षा कर रहा था। क्या आप इसे विस्तारपूर्वक स्पष्ट कर सकते है?

बुद्धिमत्ता जीवन की सहज स्वाभाविक प्रवृति है। बुद्धिमत्ता जीवन का एक स्वाभाविक गुण है। ठीक जैसे कि अग्नि उष्ण होती है। वायु अदृश्य होती है और जल नीचे की और बहता है। ठीक इसी तरह जीवन में भी बुद्धिमत्ता होती है।

बुद्धिमत्ता कोई उपलब्धि नहीं है, तुम बुद्धि के साथ ही जन्म लेते हो। अपनी तरह से वृक्ष भी बुद्धिमान हैं, उनके पास अपने जीवन के लिए प्रर्याप्त बुद्धिमत्ता होती है। पक्षी बुद्धिमान हैं और इसी तरह से पशु भी। वास्तव में, धर्मों का परमात्मा से जो अर्थ है वह केवल यह है कि पूरा ब्रह्माण्ड ही बुद्धिमान है। वहां हर कहीं बुद्धिमत्ता छिपी हुई है, और तुम्हारे पास देखने के लिए आंखें हैं, तो तुम उसे हर कहीं देख सकते हो।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-07

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-सातवां-(बुद्धिमत्ता ही ध्यान है )

दिनांक 07 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

सरहा के सूत्र-

मन, बुद्धि और मन के ढांचें की सभी अंर्तवस्तुएं,

इसी तरह यह संसार भी, और वह सभी कुछ जैसा प्रतीत होता है,

वे सभी वस्तुएं जिनका मन के द्वारा अनुभव किया जा सकता है,

और वह जानने वाला भी, जड़ता, द्वेष, घृणा, कामना और बुद्धत्व भी,

जो ‘वह’ है, उससे भिन्न है।

अध्यात्म के अनजाने अंधकार में जा एक दीपक के समान प्रकाशित है,

वह मन के सारे अंधकार और धूमिलता को दूर करता है।

बुद्धि का एक बम्ब की भांति विस्फोट होने से जितनी टुकड़े,

इधर-उधर बिखर जाते हैं, उनसे क्या प्राप्त होता है?

स्वयं कामना विहीन के होने की कौन कल्पना कर सकता है?

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-06

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-छठवां-(मैं अकेला हूं)

दिनांक 06 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न :

प्यारे ओशो! जब आप मुझसे बोलते हैं तो मेरी आवाज़ को न जाने क्या हो जाता है? यह खेल आखिर क्या है?

जब तुम वास्तव में मेरे साथ संवाद में होते हो तो तुम बोल नहीं सकते। जब तुम वास्तव में मुझे सुन रहे हो, तो तुम अपनी आवाज़ खो दोगे, क्योंकि उस क्षण में मैं तुम्हारी आवाज़ होता हूं। जो अंतर्तम संवाद मेरे और तुम्हारे मध्य होता है, वह दो व्यक्तियों के मध्य नहीं होता है। वह कोई तर्क-वितर्क नहीं हे, वह एक संवाद भी नहीं है। अंर्तसंवाद केवल तभी घटता है, जब तुम खो जाते हो, जब तुम वहां नहीं होते हो। सर्वोच्च शिखर पर यह ‘मैं-तू’ का भी संबंध नहीं होता। यह किसी भी प्रकार से कोई संबंध होता ही नहीं मैं नहीं हूं, और तुम्हारे लिए भी एक क्षण ऐसा आता है, जब तुम नहीं होते हो। उस क्षण में दो शून्यता एक दूसरे में लुप्त हो जाती हैं।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-05

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-पांचवां-(कुछ नहीं से शून्यता तक)

दिनांक 05 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

सरहा के सूत्र-

          विस्मृति एक परम्परागत सत्य है

          और मन जो अ-मन बन गया है, वही अंतिम सत्य है।

          यही कार्य का पूरा हो जाता है, यही सर्वोच्च शुभ और मंगलमय है।

          मित्र! इस शुभ और मंगल मय स्थिति के प्रति सचेत बनो।

          विस्मृति में मन विलुप्त हो जाता है

          ठीक तभी एक पूर्ण और विशुद्ध भावनात्मक या हृदय ऊर्जा उत्पन्न होती है,

          जो अच्छे और बुरे के सांसारिक भेद से अप्रदूषित होती है।

          जैसे एक कमल का फूल उस कीचड़ से जिसमें वह उगता है, अप्रभावित होता है।

          जब नींद और स्वप्नों की काली चादर से मुक्त होकर

तुम्हारा मन निश्चल अ-मन हो जाता है।

तब तुममें आत्म सचेतनता होगी,

जो विचारों के पार अ-मन होगी

और तुम अपने मूल स्त्रोत पर होगे।

यह संसार जैसा दिखाई देता है, प्रारम्भ ही से

वह वैसे रंग रूप में दीप्तिवान कभी नहीं रहा।

वह बिना किसी आकृति का है,

उसने रूप का परित्याग कर दिया है।

वह अ-मन है, वह विचारों के धब्बों से रहित निर्विचार का ध्यान है—और अमन है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-04

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-चौथा-(आस्था विश्वासघाती नहीं बन सकती)

दिनांक 04 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

          पहला प्रश्न:

          प्यारे ओशो!

मैं हमेशा विवाहित स्त्रियों में ही अभिरुचि क्यों लेता हूं?

इस बारे में वहां विशिष्ट कुछ भी नहीं हैं—यह बहुत सामान्य बीमारी है, जो लगभग एक व्यापक रोग के रूप में विद्यमान है। लेकिन इसके लिए वहां कारण भी हैं। लाखों लोग जिनमें स्त्री और पुरूष दोनों ही हैं। विवाहित लोगों की और कहीं अधिक आकर्षित होते हैं। पहली बात-व्यक्ति का अविवाहित होना यह प्रदर्शित करता है कि अभी तक उसकी कामना किसी भी स्त्री अथवा पुरूष ने नहीं की हैं,  और विवाहित व्यक्ति से यह प्रदर्शित होता है कि किसी व्यक्ति ने उसे चाहा है। और तुम इतने अधिक अनुकरण शील हो कि तुम अपनी और से प्रेम भी नहीं कर सकते। तुम एक ऐसे गुलाम हो कि जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम करता है, केवल तभी तुम उसका अनुसरण कर सकते हो। लेकिन यदि व्यक्ति अकेला है और कोई भी व्यक्ति उसके साथ प्रेम में नहीं है, तब तुम्हें संदेह होता हैं। हो सकता है वह व्यक्ति इस योग्य न हो, अन्यथा उसे क्यों तुम्हारे लिए प्रतीक्षा करना चाहिए? विवाहित व्यक्ति के पास अनुकरण करने वालों के लिए बहुत बड़ा आकर्षण होता है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-03

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-तीसरा-(चार मुद्राओं अर्थात चार तालों को तोड़ना)

दिनांक 03 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

सूत्र-

वो अपने अंदर जो भी अनुभव करते हैं,

उसे वे उच्चतम सचेतनता की स्थिति बतलाते हुए,

उसकी ही शिक्षा वे देते हैं,

वे उसकी को मुक्ति कह कर पुकारेंगे,

एक हरे रंग कम मूल्य का कांच का टुकड़ा ही

उसके लिए पन्ने-रत्न जैसा ही होगा।

भ्रम में पड़कर वे यह भी नहीं जानते है

कि अमूल्य रत्न को कैसा होना चहिए?

सीमित बुद्धि के विचारों के कारण,

वे तांबे को भी स्वर्ण की भांति लेते हैं,

और मन के शूद्र-विचारों को वे अंतिम सत्य की तरह सोचते हैं।

वे शरीर और मन के सपनों जैसे सुखमय अनुभवों को ही

सर्वोच्च अनुभव मानकर वहीं बने रहते है,

और नाशवान शरीर और मन के अनुभवों को ही शाश्वत आनंद कहते है।

‘इवाम’ जैसे मंत्रों को दोहराते हुए वे सोचते हैं कि वे आत्मोपलब्ध हो रहे हैं।

जब कि विभिन्न स्थितियों से होकर गुजरने के लिए चार

मुद्राओं को तोड़ने की जरूरत होती है,

वे अपनी इच्छानुसार सृजित की गई सुरक्षा की चार दीवारी

तक वे स्वयं तक पहुंच जाना कहते है,

लेकिन यह केवल दर्पण में प्रतिबिम्बों को देखा जैसा है।

जैसे मरूस्थल में भ्रमवश जल समझ कर हिरणों का झुंड उसके पीछे भागेगा

वैसे ही दर्पण में झूठा प्रतिबिम्ब देखकर वे मृगतृष्णा के जल की भांति

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-02

प्रवचन-दूसरा-(स्वतंत्रता है उच्चतम मूल्य)

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-दूसरा-(स्वतंत्रता है उच्चतम मूल्य)

दिनांक 02 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्न सार:

पहला प्रश्न: प्यारे ओशो!

      मेरे अंदर प्रेम का होना बाहर के संसार पर आश्रित है। इसी समय इसके साथ मैं देखता और समझता हूं कि आप, स्वयं तो हमें अंदर पूर्ण रूप से बने रहने के बारे में भी कहते हैं। ऐसे प्रेम के साथ क्या होता है, यदि वहां पर न कोई भी चीज़ हो और न कोई भी व्यक्ति हो जो उसे पहचान सके और उसका स्वाद ले सके?

बिना शिष्यों के आपका क्या अस्तित्व हैं?

पहली बात: इस जगह दो तरह के प्रेम हैं। सी. एस. लेविस ने प्रेम को दो किस्मों में विभाजित किया हैं—‘जरूरत का प्रेम’ और ‘उपहार का प्रेम’। अब्राहम मैसलो भी प्रेम को दो किस्मों में बांटता है। पहले को वह जरूरी प्रेम अथवा कमी अखरने वाला प्रेम कहता है, और दूसरे तरह के प्रेम को ‘आत्मिक प्रेम’ कहता है। यह भेद अर्थपूर्ण है और इसे समझना है। जरूरत का प्रेम और कमी अखरने वाला प्रेम दूसरे पर आश्रित होता है। यह एक अपरिपक्व प्रेम होता है। वास्तव में यह सच्चा प्रेम न होकर एक जरूरत होती है। तुम दूसरे व्यक्ति का प्रयोग करते हो, तुम दूसरे व्यक्ति का एक साधन की भांति प्रयोग करते हो; तुम उसका शोषण करते हो, तुम उसे अपने अधिकार में रखकर उस पर नियंत्रण रखते हो। लेकिन दूसरा व्यक्ति आधीन होता है और लगभग मिट जाता है; और दूसरे के द्वारा भी ठीक ऐसा ही समान व्यवहार किया जाता है। वह भी तुम्हें नियंत्रण में रखते हुए तुम्हें अपने अधिकार में रखना चाहता है और तुम्हारा उपयोग करना चाहता है। किसी दूसरे मनुष्य को उपयोग करना बहुत ही अप्रेम पूर्ण है। इसलिए वह केवल प्रेम जैसा प्रतीत होता है, लेकिन यह एक नकली सिक्का है। लेकिन ऐसा ही लगभग निन्यानवे प्रतिशत लोगों के साथ होता है, क्योंकि प्रेम का यह प्रथम पाठ तुम अपने बचपन में ही सीखते हो।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-01

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-पहला-(तंत्र का मानचित्र)

दिनांक 01 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

सरहा के सूत्र:

          स्त्री और पुरूष एक दूसरे का चुम्बन लेकर

          रस-रूप और स्पर्श का इन्द्रिय सुख

पाने की लालसा के लिए

एक दूसरे को धोखा देकर भ्रमित कर रहे हैं

वे इन्द्रियों के विषय-सुख को ही

प्रमाणिक र्स्वोच्च परमआनंद मान कर

उसे पाने की उच्च घोषणा कर रहे हैं।

वह व्यक्ति उस पुरूष की भांति है,

जो अपने अंदर स्थित स्त्री और पुरूष के मिलन

अपने अंतरस्थ रूपी घर को छोड़कर,

इन्द्रिय रूपी द्वारों पर बाहर खड़ा है।

और बाहर की स्त्री से विषय भोग के आनंद की चर्चा करते हुए

उससे विषय सुख के बारे में आग्रह पूर्वक पूंछ रहा है।

जो योगी शून्यता के अंतराल में रहते हुए मन के पर्दे पर

जैविक उर्जाओं से आंदोलित होकर कल्पना में अनेक तरीको से

विकृत सुखों को सृजित करके उनका प्रक्षेपण करते हैं;

ऐसे योगी काल्पनिक वासना से प्रलोभित होकर

अपनी शक्ति खोकरकष्ट भोगते है,

           वे अपने दिव्य स्थान से पतित होते हैं।

जैसे ब्राह्मण जो यज्ञ की अग्नि की लपटों में

अन्न और घी की आहुति देकर

मंत्रो चार आदि का अनुष्ठान करता है

कामना करता है कि वह स्वर्ग में स्थान पा जाएगा

और वह स्वप्न देखते हुए, कल्पना में पुण्य रूपी पात्र को सृजित करता है।

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पोनी-एक कुत्ते की आत्म कथा

पोनी–एक कुत्ते की आत्म कथा (सारांश)

समय-पोनी की आत्म कथा लिखने में मुझे 2006 से 2022 यानि की 16 साल लगे।

पहले मैं ‘’पोनी-एक कुत्ते की आत्म कथा’’ सबसे पहले मैं अपने छोटे बेटे को माध्यम बना कर इस आत्म कथा को लिखना चाहता था। फिर सोचा बच्चे से गहरी ध्यान की बात ठीक नहीं होंगी। या हो सकता बड़ा हो कर बच्चा ध्यान ही न करें। तब अचानक मेरे मस्तिष्क में विचार कौंधा की क्यों न सोचा की पिरामिंड को खूद ही अपनी कथा कहता हुआ दिखलाता हूं। परंतु कुछ क्षण बाद ही वह विचार थिर हो गया। क्योंकि वह तो थिर था। चल फिर नहीं सकता था। तब इसका नाम होता ‘’एक पिरामिंड की आत्म कथा’’-

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-00

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत)-भाग-दूसरा

दिनांक 01 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

(सरहा के राज गीतों पर दिये गये ओशो के बीस अमृत प्रवचनों में दस का संकलन जो उन्होंने पूना आश्रम में दिनांक 01 मई 1977 से 10 मई 1977 में ओशो आश्रम पूना के बुद्धा हाल में दिए थे।) 

भूमिका:

ओशो कहते है कि तंत्र एक खतरनाक दर्शन और धर्म है। मनुष्य के पर्याप्त साहसी न होने के कारण ही बड़े पैमाने पर अभी तक तंत्र के प्रयोग और प्रयास नहीं किये गए। केवल बीच-बीच में कुछ प्रयोग और प्रयास वैयक्तिगत लोगों द्वारा ही तंत्र के आयाम को छेड़ा गया। लेकिन यह अधुरा प्रयास बहुत ही खतरनाक बन गया। अधुरी बात हमेशा गलत और खतरनाक होती ही है। लेकिन समाज द्वरा स्वीकृति न मिलने से उन लोगों को अनेक यातनाएं झेलनी पड़ी। उन्हें गलत समझा गया।

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दसघरा की दस कहानियां—मनसा-मोहनी

दसघरा की दस कहानियां—

हमारा गांव करीब 14वीं शताब्दी में दिल्ली के इस बीहड़ इलाके में आकर बसा था। जहां आज हम रहते है वो दसघरा गांव। इससे पहले कहते है कहीं सिंध प्रांत से चल कर दोनों भाई आये थे। पहले कुछ दिन ये दोनों भाई पास के बिजवासन गांव में रहे परंतु वहां के जाट भाई राणा है वह भी बहुत लड़के है इस लिए एक म्यान में दो तलवार से बेहतर है वो दोनों भाई आगे आ गए। एक यहां रह गया जिसका नाम मामन था हमारा पूरा गांव एक ही भाई की सन्तान है। दूसरा आगे चला गया। नंगली गांव जहां कभी मनोज कुमार की उपकार फिल्म की शूटिंग हुई थी। दिल्ली के आस पास हम दो ही गांव है जहां पर तुसीड़ गौत्र है। वरना तो आस पास, दहिया, दलाल, डबास, सौलंकी या राणा ही पाये जाते है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-10

तंत्रा-विजन—(भाग-एक)

दसवां—प्रवचन—(हिंगल डे जिबिटी डांगली जी)

दिनांक-30 मार्च 1977

पहला प्रश्न: यह प्रभा का प्रश्न है: प्रिय ओशो, हिंगल डे जे, विपिटी डांग जांग—डो रन नन, डे जुन बुंग।

हिंगल डे जिबिटी डांगली जी?  

     यह अत्यंत सुंदर है, प्रभा! यह सौन्दर्य पूर्ण है। यह बहुत बढियां है, बच्ची। मैं तुम्हें स्थिर बुद्धि बनाए जा रहा हूं। बस एक कदम और…और संबोधि

दूसरा प्रश्न: क्या प्रार्थना उपयोगी है? यदि हां, तो मुझे सिखादें कि कैसे करूं। मेरा तात्पर्य है, प्रार्थना ईश्वर के प्रेम को प्राप्त करने के लिए, उसके प्रसाद को अनुभव करने के लिए।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-09

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision—(सरहा के गीत)-भाग-पहला

नौवां—प्रवचन—(अपने में थिर निष्कलंक मन)

दिनांक-29 मार्च 1977 ओशो आश्रम पूना)  

सुत्र:

जब (शिशिर में) छेड़ता है निश्चल जल को समीर

बन हिम ग्रहण कर लेता है वह

आकृति और बनावट किसी चट्टान सी

जब होता मन व्यथित है व्याख्यात्म विचारों से

जो अभी तक था एक अनाकृत सौम्य सा

बन वही जाता है कितना ठोस और कठोर।

अपने में थिर निष्कलंक मन कभी नहीं होगा दूषित

संसार या निर्वाण की अपवित्रताओं से भी

कीचड़ में पड़ा एक कीमती रतन ज्यों

चमकेगा नही यद्यपि है उसमें कांति।

ज्ञान चमकता नहीं है अंधकार में,

पर अंधकार जब होता है प्रकाशित,

पीड़ा अदृश्य हो जाती है(तुरंत)

शाखाएं-प्रशाखएं उग आती है बीज से

पुष्प पल्वित होते नुतपात शाखाओं से।

जो कोई भी सोचता-विचारा है

मन को एक या अनेक, फेंक देता है

वह प्रकाश को और प्रवेश करता है संसार में

जो चलता है (प्रचण्ड) अग्नि मे खुली आंख

तब किस और होगी करूण की आवश्यकता अधिक।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-08

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision—(सरहा के गीत)-भाग-पहला

(आठवां—प्रवचन) प्रेम के प्रति सच्चे रहो

दिनांक-28 मार्च 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

सुत्र:

पहला प्रश्न: ओशो, मैं एक मेढक हूं: मैं जानता हूं कि मैं एक मेढक हूं, क्योंकि मैं धुंधले, गहरे पानी में तैरना और चिपचिपी कीचड़ में उछलना-कूदना पसंद करता हूं। और यह मधु क्या होता है? यदि एक मेढक अस्तित्व की एक अनादृत दशा में हो सके, क्या वह एक मधुमक्खी बन जाएगा?

निश्चय ही! मधुमक्खी बन जाना हर किसी की संभावना है। हर कोई मधुमक्खी हो जाने में विकसित हो सकता है। एक अनावृत, जीवंत, स्वस्फूर्त जीवन, क्षण-क्षण वाला जीवन, इसका द्वार है, इसकी कुंजी है। यदि कोई ऐसा जी सके कि वह जीना अतीत से न हो, तब वह मधुमक्खी है, और तब चारों तरफ मधु ही मधु है।

‘मेढक’ से सराह का तात्पर्य एक ऐसे व्यक्ति से है जो अतीत से जीता है, जो अपनी अतीत की स्मृतियों के पिंजड़े में कैद रहता है। जब तुम अतीत में जीते हो, तुम बस जीने का आभास मात्र देता है। वास्तव में तुम जीते नहीं हो। जब तुम अतीत में जीते हो, तुम एक यंत्र की भांति जीते हो। एक मनुष्य की भांति नहीं। जब तुम अतीत से जीते हो, यह जीना एक पुनरावृति होता है। एक नीरस पुनरावृति–तुम जीवन और अस्तित्व के आह्लाद से, आनंद से चूक रहे होते हो। वहीं तो ‘मधु’ है: जीवन का आनंद, बस यहां-अभी होने का माधुर्य, बस होने में समर्थ हो पाने की मधुरता। वह आनंद ही मधु है…और चारों तरफ लाखों फूल खिल रहे हैं। सारा अस्तित्व फूलों से भरा है।

मैं जानता हूं कि किसी मेढक को यह बात समझा पाना कठिन है। प्रश्न सही है: ‘और यह मधु क्या होता है?’ मेढक ने इसके विषय में कभी जाना नहीं होता। और वह ठीक उसी पौधे की जड़ के समीप रहता है, जहां कि फूल खिलते हैं, और मक्कियाँ मधु एकत्रित करती है, पर वह कभी उस आयाम में गया ही नहीं है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-07

तंत्रा-विजन-(सरहा के गीत)-भाग-पहला

सातवां प्रवचन-(सत्य न पवित्र है न अपवित्र)

(दिनांक 27 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

सूत्र:

यह है प्रारंभ में, मध्य में, और अंत में

फिर भी अंत व प्रारंभ हैं नहीं और कहीं

जिनके मन भ्रमित हैं, व्याख्यात्मक विचारों से

वह सब हैं दुविधा में, इसीलिए

शून्य और करूणा को वे दो समझते है।

मधु-मक्खियां जानती है, मधु मिलेगा फूलों में

कि नहीं हैं दो, संसार और निर्वाण

भ्रमित लोग समझेंगे पर कैसे यह

भ्रमित कोई जब झांकते हैं किसी दर्पण में

प्रतिविम्ब नहीं, देखते हैं, वे एक चेहरा

वैसे ही जिस मन ने सत्य को नकारा हो

भरोसा वह करता है उस पर जो नहीं है सत्य

यद्यपि छू सकता नहीं कोई सुगंध फूलों की

है यह सर्वव्यापी और एकदम अनुभवगम्य

वैसे ही अनाकृत मन स्वतः

पहचान जाते हैं रहस्यपूर्ण वृतों की गोलाई को

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-06

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत)-भाग-पहला  

छठवां—प्रवचन (मैं एक विध्वंसक हूं)  

(दिनांक 26 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

पहला प्रश्न: ओशो, मैंने इधर हाल ही में संबोधि के विषय में दिव्य-स्वप्न देखने शुरू किए हैं, जो कि प्रेम व प्रसिद्धि के दिव्य-स्वप्नों से भी अधिक मनोरम हैं। क्या आप दिव्य-स्वप्न देखने के ऊपर कुछ कहेंगे?

यह प्रश्न प्रेम पंकज का है। जहां तक प्रेम और प्रसिद्धि का संबंध है, दिव्य-स्वप्न देखना पूर्णता सही है–वे स्वप्न-संसार के ही अंग है। तुम जितने चाहो स्वप्न देख सकते हो। प्रेम एक स्वप्न है, ऐसे ही प्रसिद्धि भी, वे स्वप्न के विपरीत नहीं हैं। सच तो यह है कि जब स्वप्न देखना बंद हो जाता है, तो वे भी गायब हो जाते है। उनका असित्व उसी आयाम में है, सपनों के आयम में।

सपना तो अंधकार की भांति है। यह तभी तक रहता है जब तक कि प्रकाश नहीं होता है। जब प्रकाश फे लता है, अंधकार बस वहां से विलीन हो जाता है, वह पल भर भी वहां रह नहीं सकता। सपना इसलिए है क्योंकि जीवन अंधकार पूर्ण, फीका और उदासीन है। सपना तो तुम्हारी एक पूरकता जैसा होता है। क्योंकि असली प्रसन्नता तो हमारे पास है ही नहीं। इसलिए उसके विषय में हम केवल सपना ही तो देख सकते है। क्योंकि सच में हमारे पास जीवन में कुछ है ही नहीं, यह सत्य हमें बड़ी पीड़ा देता है, तब इस सत्य को हम कैसे सहन कर पाएगे? यह एकदम असहनीय हो जाता है। सपने इसे सहनीय बना देते है। सपने हमारी सहायता करते है। वे हमसे कहते हैं, ‘ठहरो! जरा आज सब कुछ ठीक नहीं है? परंतु तुम चिंता मत करो, कल देखना हर चीज ठीक हो जाएगी। हर कार्य तुम्हारी सोच की तरह से होगा। बस कुछ तुम्हें प्रयत्न करना होगा, शायद अभी उतना प्रयास न किया जितना की करना चाहिए था, चलों कोई बात नहीं, तुम्हारे भाग्य ने तुम्हारा साथ न दिया होगा। कुछ परिस्थियां तुम्हारे विपरित रही होंगी। परंतु तुम घबड़ाओ मत, सदा तो ऐसा नहीं होगा। और देखना ईश्वर बड़ा करुणावान है, दयालु है, संसार के सभी धर्म कहते है कि ईश्वर बड़ा दयालु है, बड़ा करुणावान है। यह आशा की धुंधलका तुम्हें घेरे ही रहता है। तुम उससे बाहर देख ही नहीं सकते।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-05

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत) भाग-पहला

पांचवां-प्रवचन-(मनुष्य एक कल्पना है)

(दिनांक 25 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

सूत्र:

सड़े मांस की गंध पर रीझने वाली मक्खी को

चंदन की सुगंध भी, जान पडती है दुर्गंध

प्राणी जो तज देते है निर्वाण

लोलुप हो जाते हैं क्षुद्र संसारिक विषयों के

जल से भरे ताल में बैल के पदचिंह

जल्दी ही हो जाते हैं शुष्क, वैसे ही वह दृढ़ मन

जो भरपूर है उन गुणों से जो है अपूर्ण

शुष्क हो जाएंगी ये अपूर्णताएं समय पर

समुद्र का नमकीन जल जैसे हो जाता है मधुर,

जब पी लेते है मेघ उसे

वैसे ही वह स्थिर मन, काम जो करता है

औरों के हेतु बना देता है अमृत

उन एंन्द्रिक-विषयों के विष को

यदि वर्णनातित घटे, कभी नहीं रहता कोई असंतुष्ट

यदि अकल्पनिय, होगा यह स्वयं आनंद ही

यद्यपि भय होता है मेघ से तड़ित का

फसलें पकती है जब यह बरसता है जल

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-04

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत)-भाग-पहला

चौथा-प्रवचन-(प्रेम एक मृत्यु है)  

(दिनांक 24 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

पहला प्रश्न: ओशो, आप में वह सब-कुछ हैं जो मैंने चाहा था, या जो मैंने कभी चाही या मैं कभी चाह सकती थी। फिर मुझ में आपके प्रति इतना प्रतिरोध क्यों है?

शायद इसी कारण–यदि तुममें मेरे प्रति गहन प्रेम है तो गहन प्रतिरोध भी होगा। वे एक-दूसरे को संतुलित करते हैं। जहां कहीं पर प्रेम है, वहां प्रतिरोध तो होगा ही। जहां कहीं भी तुम बहुत अधिक आकर्षित होते हो, तुम उस स्थान से, उस जगह से भाग जाना भी चाहोगे–क्योंकि अत्यधिक आकर्षित होने का अर्थ है कि तुम अतल गहराई में गिरोगे, जो तुम स्वयं हो वह फिर न रह सकोगे।

प्रेम खतरनाक है। प्रेम एक मृत्यु है। यह स्वयं मृत्यु से भी बड़ा घातक है, क्योंकि मृत्यु के बाद तो तुम बचते हो लेकिन प्रेम के बाद तुम नहीं बचते। हां, कोई होता है परंतु वह दूसरा ही होता है, आपमें कुछ नया पैदा होता है। परंतु तुम तो चले गए इसलिए भय है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-03

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के राजगीत) (भाग-एक)

तीसरा प्रवचन—(मधु तुम्हारा है)  

(दिनांक 23 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।)  

एक मेध की तरह, जो उठता है समुंद्र से

अपने भीतर समाएं वर्षा को,

करती हो आलिंगन घरती जिसका,

वैसे ही, आकाश की भांति

समुंद्र भी उतना ही रहता है,

न बढ़ता, न घटता है।

अतः, उस स्वच्छंदता से जो कि है अद्वितीय

बुद्ध की पूर्णमाओं से भरपूर

जन्मती हैं चेतनाएं सभी

और आती है विश्राम हेतु वहीं

पर यह साकार है न निराकार है

वे करते हैं विचरण अन्य मार्गों पर

और गंवा बैठते हैं सच्चे आनंद को

उद्धीपक जो निर्मित करते है, खोज में उन सुखों की

मधु है उसके मुख में, इतना समीप…

पर हो जाएंगा अदृश्य, यदि तुरंत ही न करले वे उसका पान

पशु नहीं समझ पाते कि संसार है दुख,

पर समझते हैं वे विद्वान तो

जो पीते हैं इस स्वर्मिक अमृत को

जबकि पशु भटकते फिरते हैं

एंद्रिंक सुखों के लिए 

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision -भाग-01)-प्रवचन-02

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision: (सरहा के गीत) भाग-पहला

दूसरा प्रवचन-The goose is out!-(हंस बाहर है)

(दिनांक 22 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

प्रश्नचर्चा-

पहला प्रश्न: ओशो, शिव का मार्ग भाव का है, हृदय का है। भाव को रूपांतरित करना है। प्रेम को रूपांतरित करना है ताकि यह प्रार्थना हो जाए। शिव के मार्ग में तो भक्त और मूर्ति रहते हैं, भक्त और भगवान रहते हैं। आत्यंतिक शिखर पर वे दोनों एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं। इसे ध्यान से सून लो: जब शिव का तंत्र अपने आत्यंतिक आवेग में पहुंचता है, ‘मैं’ ‘तू’ में विलीन हो जाता है, और ‘तू- मैं’ में विलीन हो जाता है–वे साथ-साथ होते हैं, वे एक इकाई हो जाते हैं।

जब सरहा का तंत्र अपने आत्यंतिक शिखर पर पहुंचता है, तब यह पता चलता है: न तुम हो, न तुम सत्य हो, न तुम्हारा अस्तित्व है, न तुम सही हो, न तुम्हारा अस्तित्व है, और न ही मेरा, दोनों ही वहां विलीन हो जाते हैं। दो शून्य मिलते हैं–मैं नही, तू नहीं, न तू न मैं। दो शून्य, दो रिक्त आकाश एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि सरहा के मार्ग पर सारा प्रयास यही है, कि विचार को कैसे विलीन किया जाए, और मैं और तू दोनों विचार के ही अंग हैं।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision -भाग-01)-प्रवचन-01

तंत्रा-विजन-(सरहा के गीत)-भाग-पहला

पहला-प्रवचन–(One whose arrow is shot) (जिसका एक तीर नीशाने पर)

(सरहा के पदों पर दिए गए ओशो के अंग्रेजी प्रवचनों का दिनांक 21 अप्रैल, 1977 ओशो सभागार, पूना में दिये गए बीस अमृत प्रवचनों में से पहले दस प्रवचनों तथा उसके शिष्यों द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के उत्तरों का हिंदी अनुवाद)

सूत्र:

महान मंजुश्री को मेरा प्रणाम,

प्रणाम हैं उन्हें

जिन्होंने किया सीमित को अधीन

जैसे पवन के आघात से

शांत जल में उभर आती है, उतंग तरंगें,

ऐसे ही देखते हो सरहा

अनेक रूपों में, हे राजन!

यद्यपि है वह एक ही व्यक्ति।

भेंगा है जो मूढ़

दिखते उसे एक नहीं, दो दीप,

जहां दृश्य और द्रष्टा नहीं दो,

अहा! मन करता संचालन

दोनों ही पदार्थगत सत्ता का।

गृहदीप यद्यपि प्रज्वलित,  जीते अंधेरे में नेत्रहिन,

सहजता से परिव्याप्त सभी,

निकट वह सभी के,

पर रहती सब परे मोहग्रस्त के लिए।

सहजता से परिव्याप्त सभी, निकट वह सभी के,

पर रहती सदा परे मोहग्रस्त के लिए।

सरिताएं हो अनेक, यद्यपि,

सागर मे मिल होती है एक,

हों झूठ अनेक परंतु

होगा सत्य एक, विजयी सभी पर।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-ओशो

तंत्रा-विजन-(Tantra Vision)-भाग-पहला (हिन्दी अनुवाद)

(सरहा के पदों पर दिए गए ओशो के अंग्रेजी प्रवचनों Tantra Vision का दिनांक 21 अप्रैल, 1977 ओशो सभागार, पूना में दिये गए बीस अमृत प्रवचनों में से पहले दस प्रवचनों तथा उसके शिष्यों द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के उत्तरों का हिंदी अनुवाद)

……….  तंत्र कहता है: किसी चीज की निंदा न करो, निंदा करने की वृत्ति ही मूढ़तापूर्ण है। निंदा करने से तुम अपने विकास की पूरी संभावना रोक देते हो। कीचड़ की निंदा न करो, क्योंकि उसी में कमल छिपा है। कमल पैदा करने के लिए कीचड़ का उपयोग करो। माना कि कीचड़ अभी तक कीचड़ है कमल नहीं बना है, लेकिन वह बन सकता है। जो भी व्यक्ति सृजनात्मक है, धार्मिक है, वह कमल को जन्म देने में कीचड़ की सहायता करेगा, जिससे कि कमल की कीचड़ से मुक्ति हो सके।

सरहा तंत्र-दर्शन के प्रस्थापक हैं। मानव-जाति के इतिहास की इस वर्तमान घड़ी में जब कि एक नया मनुष्य जन्म लेने के लिए तत्पर है, जब कि एक नई चेतना द्वार पर दस्तक दे रही है, सरहा का तंत्र-दर्शन एक विशेष अर्थवत्ता रखता है। और यह निश्चित है कि भविष्य तंत्र का है, क्योंकि द्वंदात्मक वृत्तियां अब और अधिक मनुष्य के मन पर कब्जा नहीं रखा सकतीं। इन्हीं वृत्तियों ने सदियों से मनुष्य को अपंग और अपराध-भाव से पीड़ित बनाए रखा है। इनकी वजह से मनुष्य स्वतंत्र नहीं, कैदी बना हुआ है। सुख या आनंद तो दूर इन वृत्तियों के कारण मनुष्य सर्वाधिक दुखी है। इनके कारण भोजन से लेकर संभोग तक और आत्मीयता से लेकर मित्रता तक सभी कुछ निंदित हुआ है। प्रेम निंदित हुआ, शरीर निंदित हुआ, एक इंच जगह तुम्हारे खड़े रहने के लिए नहीं छोड़ी है। सब-कुछ छीन लिया है और मनुष्य को मात्र त्रिशंकु की तरह लटकता छोड़ दिया है ।

मनुष्य की यह स्थिति अब और नहीं सही जा सकती। तंत्र तुम्हें एक नई दृष्टि दे सकता है, इसीलिए मैंने सरहा को चुना है। मुझे जिससे बहुत प्रेम है सरहा उनमें से एक है, यह मेरा उनके साथ बड़ा पुराना प्रेम-संबंध है। तुमने शायद सरहा का नाम भी न सुना हो, परंतु वे उन व्यक्तियों में से हैं जिन्होंने जगत का बड़ा कल्याण किया हो ऐसे अंगुलियों पर गिने जाने वाले दस व्यक्तियों में मैं सरहा का नाम लूंगा, यदि पांच भी ऐसे व्यक्ति गिनने हों तो भी मैं सरहा को नहीं छोड़ पाऊंगा।

सरहा के इन पदों में प्रवेश करने से पहले कुछ बातें सरहा के जीवन के विषय में जान लेनी आवश्यक हैं। सरहा का जन्म विदर्भ महाराष्ट्र…का ही अंग है, पूना के बहुत नजदीक। राजा महापाल के शासनकाल में सरहा का जन्म हुआ। उनके पिता बड़े विद्वान ब्राह्मण थे और राजा महापाल के दरबार में थे। पिता के साथ उनका जवान बेटा भी दरबार में था। सरहा के चार और भाई थे, वे सबसे छोटे परंतु सबसे अधिक तेजस्वी थे। उनकी ख्याति पूरे देश में फैलने लगी और राजा तो उनकी प्रखर बुद्धिमत्ता पर मोहित सा हो गया था।

चारों भाई भी बड़े पंड़ित थे परंतु सरहा के मुकाबले में कुछ भी नहीं। जब वे पांचों बड़े हुए तो चार भाइयों की तो शादी हो गई, सरहा के साथ राजा अपनी बेटी का विवाह रचाना चाहता था। परंतु सरहा सब छोड़-छाड़ कर संन्यास लेना चाहते थे। राजा को बड़ी चोट पहुंची, उसने बड़ी कोशिश की सरहा को समझाने की–वे थे ही इतने प्रतिभाशाली और इतने सुंदर युवक। जैसे-जैसे सरहा की ख्याति फैलने लगी वैसे राजा महापाल के दरबार की भी ख्याति सारे देश में फैलने लगी। राजा को बड़ी चिंता हुई, वह इस युवक को संन्यासी बनते नहीं देखना चाहता था। वह सरहा के लिए सब-कुछ करने को तैयार था। परंतु सरहा ने अपनी जिद न छोड़ी और उसे अनुमति देनी पड़ी। वह संन्यासी बन गया, श्री कीर्ति का शिष्य बन गया।………

ओशो

मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-11

सजग,शांत और संतुलित बने रहोप्रवचन-ग्याहरवां

मनुष्य होने की कला–(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

कथा: –

भिक्षु जुईगन अपना प्रत्येक दिन स्वयं अपने आप मैं जोर-जोर से-

यह कहते हुए ही शुरू करता था- ”मास्टर! क्या तुम हो वहां?’’

और वह स्वयं ही उसका उत्तर भी देता था- ” जी हां श्रीमान? मैं हूं। ”

तब वाह कहता- ” अच्छा यही है- सजग, शांत और संतुलित बने रहो।”

और वह लौट कर जवाब देता—‘’जी श्रीमान? मैं यही करूंगा ”

तब वह कहता- ”और अब देखो वे कहीं तुझे बेवकूक न बना दें।‘’

और वह ही उसका उत्तर देता- ”अरे नहीं श्रीमान? मैं नहीं बगूंगा

मैं हरगिज नहीं बनूंगा?

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मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-10

मौन का सदगुरुप्रवचन-दसवां

मनुष्य होने की कला–(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

कथा: –

बुद्ध को एक दिन अपने प्रवचन के द्वारा एक विशिष्ट सन्देश देना

था और चारों ओर मीलों दूर से हजारों अनुयायी आए हुए थे) जब

बुद्ध पधारे तो वे अपने हाथ में एक फूल लिए हुए थे। कुछ समय बीत

गया लेकिन बुद्ध ने कुछ कहा नहीं वह बस फूल की ही ओर देखते

रहे। पूरा समूह बेचैन होने लगा, लेकिन महाकाश्यप बहुत देर तक

अपने को रोक न सका, हंस पड़ा। बुद्ध ने हाथ से इशारा कर उसे

अपने पास बुलाया। उसे वह फूल सौंपा और सभी भिक्षुओं के समूह

से कहा- ” मैंने जो कुछ अनुभव किया, उस सत्य और सिखावन

को जितना शब्द के द्वारा दिया जाना सम्भव था, वह सब कुछ तुम्हें दे

दिया लेकिन इस फूल के साथ, इस सिखावन की कुंजी मैंने आज

महाकाश्यप करे सौंप दी।

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मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-09

बिल्ली को बचाओ-प्रवचन-नौवां

मनुष्य होने की कला–(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

कथा: –

नानसेन ने भिक्षओं के दो समूह, को, एक बिल्ली के स्वामित्व के

लिए आपस में शोर करते और झगड्‌ते हुए पाया नानसेन उस घर में

गया और एक तेज धार की छुरी लेकर लौटा उसने बिल्ली को हाथ

में उठाकर भिक्षओं से कहा– ”तुममें से कोई भी यदि कोई अच्छा

और भला शब्द कहे तो तुम इस बिल्ली को बचा सकते हो

कोई भी ऐसे शब्द को न कह सका इसलिए नानसेन ने बिल्ली के

दो टुकड़े कर दिए और आधा-आधा भाग प्रत्येक समूह को दे दिया

शाम को जब जोशू मठ में लौटा तब जो कुछ भी हुआ कु नानसेन

ने उसे उसकी बाबत बताया

जोशू ने कुछ भी नहीं कहा:

उसने बस अपनी चप्पलें अपने सिर पर रखीं और चला गया

नानसेन से कहा– ” यदि तुम वहां रहे होते तो तुमने बिल्ली को बचा लिया होता ”

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मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-08

झेन का शास्त्र है कोरी किताब-प्रवचन-आठवां

मनुष्य होने की कला–(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

कथा: –

झेन सदगुरू मूनान का एक ही उत्तराधिकारी था, उसका नाम था-शोजू

जब शोजू झेन का प्रशिक्षण और अध्ययन पूरा कर चुका, मू-नान ने

उसे अपने कक्ष में बुलाकर कहा- ” मैं अब बूढ़ा हुआ और जहां तक

मैं जानता हूं, तुम्हीं अकेले ऐसे हो जो इस प्रशिक्षण को विकसित कर

आगे ले जाओगे। यहां मेरे पास एक पवित्र ग्रंथ है- जो सात पीढ़ियों

से एक सद्‌गुरु से दूसरे सदगुरु को सौपा गया है, मैंने भी अपनी समझ

के अनुसार-उसमें कुछ जोड़ा है यह ग्रंथ बहुत कीमती है और मैं इसे

तुम्हें सौंप रहा जिससे मेरा उत्तराधिकारी बन कर तुम मेरा प्रतिनिधित्व

शोजू? ने उत्तर- ” कृपया अपनी यह किताब अपने पास रखिए मैंने

तो आपसे अनलिखा झेन पाया है और मैं उसे ही पाकर आंनदिन हूं,

आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

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मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-07

हैं साधारण होने का चमत्कार-प्रवचन-सातवां

मनुष्य होने की कला–(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

कथा:

जापानी सदगुरु इकीदो एक कठोर शिक्षक थे और उनके शिष्य
उससे डरते थे एक दिन उनका एक शिष्य दिन का समय बताने के
लिए मठ का घंटा बजा रहा था। समय के अनुसार वह घंटे पर एक
चोट करना भूल गया क्या? क्योंकि वह द्वार से गुजरती हुई एक सुंदर लड़की
को देख हाथ’ उस शिष्य की जानकारी में आए बिना इकीदो उसके
पीछे ही खड़ा था। इकीदो ने अपने डंडे से उस शिष्य पर प्रहार किया
इस आघात से उस शिष्य की हृदयगति रुक गई और वह मर गया
पुरानी परंपरा के अनुसार शिष्य अपना जीवन सदगुरू के नाम लिखकर
अपने हस्ताक्षर करके दे देने के लेकिन अब यह परंपरा समाप्त होते
हुए औपचारिकता रह गई है, सामान्य लोगों के द्वारा इकीदो की निंदा
की गई लेकिन इस घटना के बाद इकीदो के दस निकट शिष्य बुद्धत्व
को उपलब्ध हुए जो इकीदो के उत्तराधिकारी बने एक सदगुरू के
निकट बोध को प्राप्त होने वालों की यह संख्या असाधारण रूप से
काफी अधिक थी।

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मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-06

हैं साधारण होने का चमत्कार-प्रवचन-छठवां

मनुष्य होने की कला–(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

कथा:

एक दिन झेन सदगुरू बांके अपने शिष्यों के साथ शांति से बैठा

कुछ चर्चा- परिचर्चा कर रहा था, तभी एक दूसरे पंथ के धर्माचार्य ने

उसकी बात चीत में विध्न डाल दिया, यह पंथ चमत्कारों की शक्ति में

विश्वास रखता था और उसका मानना था कि मुक्ति पवित्र मंत्री के

निरंतर उच्चारण से मिलती है बांके ने चचा-परिचर्चा रोककर उस

धर्माचार्य से पूछा- ” आप क्या कहना चाहते है?”

उस धर्माचार्य ने शेखी बधारते हुए कहा- ” उसके धर्म के संस्थापक

नदी के एक किनारे पर खड़े होकर अपने हाथ में लिए हुए बुश से?

नदी के दूसरे किनारे पर खड़े अपने शिष्य के हाथ में थमे कोरे कागज

पर पवित्र नाम लिख सकते हैं।

फिर उस धर्माचार्य ने बांके से पूछा– ” आप क्या चमत्कार कर सकते हें?”

बांके ने उत्तर दिया- ” केवल एक हुई चमत्कार में जानता हूं, जब

मुझे भूख लगती है? मैं भोजन करता हूं और जब मुझे कम लगती है? मैं पानी पीता है।”

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मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-05

नए मठ के लिए सदगुरु कौन?-(प्रवचन-पांचवां) 

मनुष्य होने की कला–(The bird on the wing)-ओशो की बोली गई झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

कथा:

ह्याकूजो ने अपने सभी भिक्षुओं, को एक साध बुलाया वह उनमें

से एक को नए मठ के संचालन के लिए भेजना चाहता था जमीन पर

पानी से भरा एक जग रखते हुए उसने कहा- ” बिना इसका नाम

प्रयोग किए हुए कौन बता सकता है कि यह क्या है?”

प्रधान भिक्षु ने कहा- जिसे उस पद करे प्राप्त करने की आशा थी।

उसने कहा- ” कोई भी इसे लकड़ी कर खड़ा के तो नहीं कह सकता।”

दूसरे भिक्षु ने कहा– ” यह कोई तालाब नहीं है? क्योंकि इसे कहीं

भी ले जाया सकता है।

भोजन बनाने वाला भिक्षु जो पास ही खड़ा था, आगे बड़ा, उसने

जग को एक ठोकर मारी और चला गया।

ह्याकूजो मुस्कुराया और उसने कहा, ” भोजन बनाने वाला भिक्षु

ही नए मत का सदगुरु होगा

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मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-04

एक प्याला चाय पीजिए-(प्रवचन-चौथा) 

झेन बोध कथाएं-( A bird on the wing) 

मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing) “Roots and Wings” –0-06-74 to 20-06-74 ओशो द्वारा दिए गये ग्यारह अमृत प्रवचन जो पूना के बुद्धा हाल में दिए गये थे।  उन झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

कथा:

झेन सदगुरू जोशू मठ में आए।

एक नए भिक्षु से पूछा- क्या मैंने तुमको पहले कभी देखा है?”

उस नए भिक्षु ने उत्तरदिया- जी नहीं श्रीमान? ”

जोशू ने कहा- तब आप एक कला चाय पीजिए।

जोशू ने फिर दूसरे भिक्षु की ओर मुड़कर पूछा- क्या मैंने तुमको

पहले कभी देखा है?”

उस दूसरे भिक्षु ने उत्तर दिया जी क्या श्रीमान? आपने वास्तव में

मुझे देखा है

जोशू ने कह?- ” तब आप एक प्याला चाय पिजिए

कुछ देर बाद मठ में भिक्षुओ  के प्रबंधक ने जोशू से पूछा- आपने

कोई भी उत्तर मिलने पर दोनों को ही चाय पीने का समान आमंत्रण

क्यों दिया?”

यह सुनकर जाशू चीखते हुए बोला- मैनेजर? तुम अभी भी यही

हरे?”

मैनेजर ने उत्तरदिया जी श्रीमान? ”

जोश ने कह?- ” तब आप भी एक प्याला चाय पीजिए।

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अजनबी तुम अपने से लगते हो-(कविता)-मनसा मोहनी  

अजनबी तुम अपने से लगते हो-(कविता)  

तड़प है परंतु दर्द कहां है उसमें,

वो तो एक एहसास है, पकड़ कहां है उसमें।

वो दूर है मगर दूर कहां है हमसें।

तार बिंधे है विरह के, राग कहां है इनमें।

पीर ने घेरा हमको, दर्द कहां है दिलमें

कुछ लोग कितने अनजान से होते है

परंतु कितने करीब होते है आपने

मानों वो मैं हूं और वो उसकी परछाई

कैसे एक याद की बदली घिर आई

मानों अभी वा पास आकर बैठ जाऐगा

और मिलेगे ह्रदय से ह्रदय के तार

तब बहेगे धार-धार आंसू के झरने Continue reading “अजनबी तुम अपने से लगते हो-(कविता)-मनसा मोहनी  “

मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-02

न मन न सत्य-(प्रवचन-दूसरा) 

झेन बोध कथाएं-( A bird on the wing) 

मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing) “Roots and Wings” – 10-06-74 to 20-06-74 ओशो द्वारा दिए गये ग्यारह अमृत प्रवचन जो पूना के बुद्धा हाल में दिए गये थे।  उन झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

कथा:

डोको नाम के नए साधक ने सदगुरु के निकट आकर पूछा-

किस चित्त-दशा में मुझे सत्य की खोज करनी चाहिए?”

सदगुरू ने उत्तर दिया- वहां मन है ही नहीं, इसलिए तुम उसे

किसी भी दशा में नहीं रख सकते और न वहां कोई सत्य है? इसलिए

तुम उसे खोज नहीं सकते

डोको ने कहा- यदि वहां न कोई मन है और न कोई सत्य फिर

यह सभी शिक्षार्थी रोज आपके सामने क्यों सीखने के लिए आते हैं

सदगुरू ने चारों ओर देखा ओर कहा- में तो यहां किसी को भी

नहीं देख रहा। 

पूछने वाले ने अगला प्रश्न क्रिया- तब आप कौन है? जो शिक्षा

दे रहे है?”

सदगुरू ने उत्तर दिया- मेरे पास कोई जिह्वा ही नहीं फिर मैं

कैसे शिक्षा दे सकता हूं?”

तब डोको ने उदास होकर कहा- मैं आपका न तो अनुसरण

कर सकता हूं और न आप करे समझ सकता हूं

झेन सदगुरु ने कहा- मैं स्वयं अपने आपको नहीं समझ पाता।  

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मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-01

पहले अपना प्याला खाली करो-(प्रवचन-पहला)

झेन बोध कथाएं-( A bird on the wing)  

मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing) “Roots and Wings” –0-06-74 to 20-06-74 ओशो द्वारा दिए गये ग्यारह अमृत प्रवचन जो पूना के बुद्धा हाल में दिए गये थे। उन झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

 कथा:

 जपानी सदगुरु ‘नानहन ने श्रौताओ से दर्शन शस्त्र के एक प्रोफेसर का परिचय कराया और तब अतिथि गृह के प्याले में वह उनके लिए चाय उड़ेलते ही गए।

भरे प्याले में छलकती चाय को देख कर प्रोफेसर अधिक देर अपने करे रोक न सके। उन्होंने कहा- ” कृपया रुकिए प्याला पूरा भर चुका है। उसमें अब और चाय नहीं आ सकती।”

नानइन ने कहा- ”इस प्याले की तरह आप भी अपने अनुमानों और निर्णयों से भरे हुए हैं जब तक पहले आप अपने प्याले को खाली न कर लें, मैं झेन की ओर संकेत कैसे कर सकता हूं?”

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मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-ओशो

झेन बोध कथाएं-( A bird on the wing)-ओशो   

मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing) “Roots and Wings” – 10-06-74 to 20-06-74 ओशो द्वारा दिए गये ग्यारह अमृत प्रवचन जो पूना के बुद्धा हाल में दिए गये थे। उन झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

इस पुस्तक से:

ज़ेन सदगुरू हाकुई के निकट आगर एक समुराई योद्धा ने पूछा—‘क्या यहां स्वर्ग और नर्क जैसी कुछ चीज है?’

हाकुई ने पूछा: ‘तुम कौन हो?’

उस योद्धा न उत्तर दिया-‘मैं सम्राट की सुरक्षा में लगा समुराई योद्धाओं का प्रधान हूं।’

हाकुई ने कहा: ‘तुम और समुराई? अपने चेहरे से तो तुम एक भिखारी अधिक लगते हो।’ Continue reading “मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-ओशो”

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-10

भूत, भविष्य और वर्तमान के पार-(प्रवचन-दसवां) ओशो

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)–ओशो

(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 

सूत्र:

यहां शून्यता? कहा शून्यता

लेकिन असीम ब्रह्मांड सदा तुम्हारी आंखों के सामने रहता है
असीम रूप से बड़ा, असीम रूप से छोटा;

कोई भेद नहीं है

क्योंकि सभी परिभाषाएं तिरोहित हो गई हैं

और कोई सीमाएं दिखाई नहीं देतीं।

होने और न होने के साथ भी ऐसा है।

उन संदेहों और तर्कों में समय को मत गंवाओ

जिनका इसके साथ कोई संबंध नहीं है।

 एक वस्तु, सारी वस्तुएं

बिना किसी भेदभाव के एक- दूसरे में गति करती हैं और
घुल- मिल जाती हैं।

इस बोध में जीना अपूर्णता के विषय में चिंतारहित होना है।
इस आस्था में जीना अद्वैत का मार्ग है

क्योंकि अद्वैत व्यक्ति वह है जिसके पास श्रद्धावान मन है।

 अनेक शब्द।

मार्ग भाषा के पार है

क्योंकि उसमें न बीता हुआ कल है
न आने वाला कल है न आज है।
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शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-09

अद्वैत-(प्रवचन-नौवां) ओशो

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)–ओशो

(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद)

सूत्र:

 तथाता के इस जगत में न तो कोई स्व है और न ही स्व के अतिरिक्त कोई और।

इस वास्तविकता से सीधे ही लयबद्ध होने के लिए-जब संशय उठे, बस कहो, ‘अद्वैत।

इस ‘अद्वैत’ में कुछ भी पृथक नहीं है कुछ भी बाहर नहीं है।

कब या कहा कोई अर्थ नहीं रखता; बुद्धत्व का अर्थ है इस सत्य में प्रवेश।

और यह सत्य समय या स्थान में घटने- बढ़ने के पार है;

इसमें एक अकेला विचार भी दस हजार वर्ष का है।

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शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-08

सच्ची श्रद्धा का जीवन-(प्रवचन-आठवां) ओशो

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)–ओशो

(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 

 सूत्र:

 गति को स्थिरता और स्थिरता को गतिमय समझो,

और गति और स्थिरता की दशा दोनों विलीन हो जाती हैं।
जब द्वैत नहीं रहता, तो अद्वैत भी नहीं रह सकता।

इस परम अंत की अवस्था पर कोई नियम,

या कोई व्याख्या लागू नहीं होती।

मार्ग के अनुरूप हो चुके अखंड मन के लिए

सभी आत्म- केंद्रित प्रयास समाप्त हो जाते हैं।

संदेह और अस्थिरता तिरोहित हो जाते हैं

और सच्ची श्रद्धा का जीवन संभव हो जाता है।

एक ही प्रहार से हम बंधन से मुक्त हो जाते हैं;

न हमें कुछ पकड़ता है और न हम कुछ पकड़ते हैं।

मन की शक्ति के प्रयास के बिना,

सभी कुछ शून्य है स्पष्ट है स्व-प्रकाशित है।

यहां विचार, भाव, ज्ञान, और कल्पना का कोई मूल्य नही

गति को स्थिरता और स्थिरता को गतिमय समझो,

और गति और स्थिरता की दशा दोनों विलीन हो जाती हैं। Continue reading “शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-08”

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