चौथा-प्रवचन-(प्रवेश
मेरे प्रिय आत्मन्!
सत्य के संबंध में, परमात्मा के प्रेम के संबंध में कुछ बीज आपके भीतर बो सकूं, कोई प्यास आपके भीतर जग जाए, कोई असंतोष आपके भीतर पैदा हो जाए, इसकी चेष्टा करता हूं। संतोष के लिए नहीं, असंतोष आपके भीतर पैदा हो, इसका प्रयास करता हूं। आप अशांत हो जाएं परमात्मा के लिए, सत्य के लिए एक, एक लपट की भांति, आग की भांति आपके भीतर कोई अभीप्सा चलने लगे। जो असंतुष्ट होता है, वह कभी संतुष्ट भी हो जाता है। लेकिन जो कभी असंतुष्ट ही नहीं होता, उसके संतोष के द्वार सदा के लिए बंद हैं। और जो प्यासा होता है उसे कभी पानी भी मिल जाता है और जो प्यासा ही नहीं होता वह पानी से सदा को वंचित रह जाता है। इन चार दिनों में उसी प्यास के संबंध में थोड़ी सी बातें कहीं हैं। Continue reading “जीवन की खोज-(प्रवचन-04)”