नारी और क्रांति-(प्रवचन-06)

नारी और क्रांति–(छठवां प्रवचन)

और नाराजगी में देवताओं ने उस आदमी को अभिशाप दिया कि आज से तेरी छाया खो जाएगी। धूप में भी चलेगा तो तेरी छाया नहीं बनेगी। वह आदमी अपने मन में बहुत हंसा कि छाया से मेरा क्या बिगड़ जाएगा। और देवता कैसे नासमझ हैं, अभिशाप भी दे रहे हैं तो छाया के खोने का दे रहे हैं। वह समझ ही न सका कि छाया के खोने से क्या नुकसान हो सकता है? आप भी नहीं समझ सकेंगे कि छाया के खोने से क्या नुकसान है? लेकिन जैसे ही वह आदमी अपने गांव में आया उसे पता चला कि बहुत नुकसान हो गया, जिस आदमी ने भी देखा कि धूप में उसकी छाया नहीं बन रही है वही आदमी उससे भयभीत हो गया। Continue reading “नारी और क्रांति-(प्रवचन-06)”

नारी और क्रांति-(प्रवचन-05)

नारी और क्रांति–(पांचवां प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!

“नारी और क्रांति’ इस संबंध में बोलने का सोचता हूं, तो पहले यही खयाल आता है कि नारी कहां है?नारी का कोई अस्तित्व ही नहीं है, मां का अस्तित्व है, बहन का अस्तित्व है, बेटी का अस्तित्व है, पत्नी का अस्तित्व है, नारी का कोई भी अस्तित्व नहीं है। नारी जैसा कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। नारी की अपनी कोई अलग पहचान नहीं है। नारी का अस्तित्व उतना ही है जिस मात्रा में वह पुरुष से संबंधित होती है। पुरुष का संबंध ही उसका अस्तित्व है उसकी अपनी कोई आत्मा नहीं है।

यह बहुत आश्चर्यजनक है, लेकिन यह कड़वा सत्य है कि नारी का अस्तित्व उसी मात्रा और उसी अनुपात में होता है, जिस अनुपात में वह पुरुष से संबंधित होती है। पुरुष से संबंधित नहीं हो, तो ऐसी नारी का कोई अस्तित्व नहीं है। और नारी का अस्तित्व ही न हो, तो क्रांति की क्या बात करनी है? Continue reading “नारी और क्रांति-(प्रवचन-05)”

नारी और क्रांति-(प्रवचन-04)

नारी और क्रांति–(चौथा प्रवचन

एक आश्चर्यजनक भूल हो गई है। मनुष्य की पूरी सभ्यता, संस्कृति, उसी भूल के ऊपर खड़ी है। और इसीलिए हजारों साल के श्रम के बाद भी न तो एक ऐसा समाज बन पाया जो सुख और शांति के केंद्र पर निर्मित हो और न हम ऐसे मनुष्य को जन्म दे पाए जो कि जीवन की धन्यता को और आनंद को अनुभव कर सके। एक अत्यंत उदास, हारा हुआ, दुखी मनुष्य पैदा हुआ है और एक ऐसा समाज पैदा हुआ है जो प्रतिपल युद्धों से, संघर्षों से और विनाश से गुजरता रहा है। कोई तीन हजार वर्ष के इतिहास में आदमी ने पंद्रह हजार युद्ध लड़े। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध! प्रतिवर्ष पांच युद्धों का संघर्ष चलता रहा है! Continue reading “नारी और क्रांति-(प्रवचन-04)”

नारी और क्रांति-(प्रवचन-03)

नारी और क्रांति–(तीसरा प्रवचन)

प्रिय बहनों!

मैं अत्यंत आनंदित हूं। अपने हृदय की थोड़ी सी बातें आपसे कह सकूंगा। जीवन में बहुत लोग इतनी नासमझी, इतने अज्ञान, इतने भूल भरे ढंग से जीते हैं कि न तो उन्हें जीवन के आनंद का अनुभव हो पाता और न वे उस संगीत से परिचित हो पाते हैं जो उनकी हृदय की वीणा पर बज सकता था; और न वे उन फूलों की सुगंध को ही उपलब्ध होते हैं जो कि उनके प्राणों को सुभाषित कर सकती थी। बहुत कम लोग, बहुत थोड़े से लोग, करोड़ों और अरबों लोगों में कोई एकाध जीवन के अर्थ और अभिप्राय को उपलब्ध होता है। Continue reading “नारी और क्रांति-(प्रवचन-03)”

नारी और क्रांति-(प्रवचन-02)

नारी और क्रांति-(दूसरा प्रवचन)

मैं थोड़े विचार में पड़ गया हूं, क्योंकि मुझे कहा गया कि विशेष रूप से स्त्रियों के जीवन के संबंध में कुछ कहूं।

जैसा मैं देखता हूं, स्त्री और पुरुष का आधारभूत जीवन भिन्न-भिन्न नहीं है। मनुष्य के जीवन की जो समस्याएं हैं, वे पुरुष और स्त्री की दोनों की समस्याएं हैं। और जब हम इस भांति सोचने लगते हैं कि स्त्रियों के जीवन के लिए कुछ विशिष्ट दिशा होगी, तभी भूल शुरू हो जाती है।

जीवन की जो मौलिक समस्या है अशांति की, दुख की, पीड़ा की, वह स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग नहीं है। पहले तो मैं उस मौलिक समस्या के संबंध में थोड़ी सी बात आपसे कहूं जो सभी की है। और फिर कुछ प्रश्न पूछे हुए हैं जो शायद स्त्रियों के लिए ही विशेष अर्थ के होंगे, उनकी भी बात करूंगा। Continue reading “नारी और क्रांति-(प्रवचन-02)”

नारी और क्रांति-(प्रवचन-01)

नारी और क्रांति–(पहला प्रवचन

नारीः दीनता से विद्रोह

मेरे प्रिय आत्मन्!

इस देश की जिंदगी में बहुत से दुर्भाग्य गुजरे हैं। और बड़े से बड़े जिस दुर्भाग्य का हम विचार करना चाहें वह यह है कि हम हजारों वर्षों से विश्वास करने वाले लोग हैं। हमने कभी सोचा नहीं है, हमने कभी विचारा नहीं है, हम अंधे की तरह मानते रहे हैं। और हमारा अंधे की तरह मानना ही हमारे जीवन का सूर्यास्त बन गया। हमें समझाया ही यही गया है कि जो मान लेता है वह जान लेता है।

इससे ज्यादा कोई झूठी बात नहीं हो सकती। मानने से कोई कभी जानने तक नहीं पहुंचता। और जिसे जानना हो उसे न मानने से शुरू करना पड़ता है। संदेह के अतिरिक्त सत्य की कोई खोज नहीं है। संदेह मिटता है, लेकिन सत्य को पाकर मिटता है। और जो पहले से ही संदेह करना बंद कर देते हैं वे अंधे ही रह जाते हैं, वे सत्य तक कभी भी नहीं पहुंचते हैं।

लेकिन हमें समझाया गया है विश्वास, बिलीफ, फेथ। हमें कभी नहीं समझाया गया डाउट, हमें कभी नहीं समझाया गया संदेह। इसलिए देश का मन ठहर गया और रुक गया है और गुलाम बन गया है।

और ध्यान रहे, शरीर के ऊपर पड़ी हुई जंजीरें इतनी खतरनाक नहीं होतीं, आत्मा के ऊपर पड़ी हुई जंजीरें बहुत खतरनाक सिद्ध होती हैं। इस देश की आत्मा गुलाम है। शरीर से तो हम शायद मुक्त हो गए हैं, लेकिन आत्मा से मुक्त होने में हमें बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। आत्मा की गुलामी तोड़े बिना इस देश के जीवन में सूर्य का उदय नहीं होगा। और इस संबंध में ही थोड़ी बात मैं आपसे कहना चाहूंगा कि आत्मा की गुलामी के आधार क्या हैं और हम उन गुलामियों को कैसे तोड़ सकते हैं।

पहला मनुष्य की आत्मा की गुलामी का आधार है..विश्वास, श्रद्धा, फेथ, बिलीफ। जो आदमी भी किसी पर भरोसा और विश्वास कर लेता है अंधे की तरह वह सदा के लिए गुलाम हो जाता है। जो आदमी भी संदेह करना नहीं सीख पाता वह कभी स्वतंत्रता की यात्रा पर नहीं निकल पाता है। संदेह का अर्थ? संदेह का अर्थ है कि जो स्वीकृत है, जिसे हमने माना हुआ है, उस पर प्रश्न उठाने की क्षमता, उसके ऊपर प्रश्न खड़े करने की क्षमता।

इस देश में विज्ञान पैदा नहीं हुआ, क्योंकि हमने प्रश्न नहीं उठाए। हम प्रश्न उठाने में बहुत कमजोर हो गए हैं। हमने जो उत्तर एक बार मान लिए हैं, हम उन्हें माने ही चले जाते हैं। हजारों साल बीत जाते हैं, हमारी किताबें नहीं बदलती हैं। हजारों साल बीत जाते हैं, हमारी श्रद्धाएं नहीं बदलती हैं। हजारों साल बीत जाते हैं, हमारा मन ऐसा हो गया है जैसे कोई तालाब बन जाए..बंद; सड़ता है, लेकिन बहता नहीं। नदी की तरह हम नहीं रह गए हैं, हम तालाब की तरह बंद हो गए हैं। और जिंदगी है बहने में, और जिंदगी है रोज नये की खोज में, और जिंदगी है रोज अनजाने रास्तों की तलाश में।

निश्चित ही, जिंदगी में खतरे हैं, और जिंदगी में जोखिम हैं, और जिंदगी में अपरिचित मार्गों पर भटक जाने की संभावना है। लेकिन अपरिचित मार्गों पर भटकने की संभावना से ही हम नये मार्गों को बनाने में सफल भी हो पाते हैं। जिन कौमों ने विकास किया है वे वे कौमें हैं जो संदेह करती हैं। और जिन कौमों ने कोई विकास नहीं किया वे वे कौमें हैं जो विश्वास करती हैं। जिन्होंने संदेह किया वे चांद पर पहुंच गए हैं और जिन्होंने विश्वास किया है वे जमीन पर भी रहने के योग्य नहीं रह गए हैं।

हम विश्वास करने वाले लोग, हमारे मस्तिष्क की सारी शक्ति सोई पड़ी रह जाती है। उस पर चोट नहीं पड़ती। उस पर चुनौती भी नहीं होती, उसको चैलेंज भी नहीं मिलता। न हमारे शिक्षक चाहते हैं कि बच्चे पूछें; न हमारे मां-बाप चाहते हैं कि बेटे और बेटियां पूछें; न हमारे नेता चाहते हैं कि अनुयायी पूछें। कोई भी नहीं चाहता कि प्रश्न उठाए जाएं। क्योंकि प्रश्न पुरानी पीढ़ी को मुश्किल में डाल देते हैं। पुरानी पीढ़ियां चाहती हैं कि चुपचाप भरोसा किया जाए। पुरानी पीढ़ियों को भरोसा करने में सुविधा है, क्योंकि उनके ज्ञान पर संदेह पैदा नहीं होता।

लेकिन अगर सभी नई पीढ़ियां पुरानी पीढ़ियों को मानती चली जाएं, तो फिर दुनिया में नई पीढ़ियों की जिंदगी खतम हो जाती है, पुरानी पीढ़ियां ही जीती हैं नये के नाम से। इस देश में पुरानी पीढ़ी बहुत भयभीत पीढ़ी है। कोई मां नहीं चाहती कि बेटी ऐसे सवाल उठाए जिसके मां उत्तर न दे सके।

अभी मैं आया तो आपके पिं्रसिपल ने मुझे कहा कि पिछली बार आप आए थे, आप ऐसी बातें उठा गए कि लड़कियां बड़े प्रश्न उठाने लगीं। आप जरा आज ऐसी बातें कहिए कि किसी के मन में दुविधा पैदा न हो।

मैंने कहा, यह असंभव है। यह असंभव है, क्योंकि मेरे आने का कोई अर्थ नहीं है अगर मैं थोड़े से प्रश्न न उठा पाऊं। अगर मैं चिंतन को पैदा न कर पाऊं तो मेरा आना फिजूल है। मैं आपके मन को मारने के लिए यहां नहीं आया हूं; आपके मन को जगाने के लिए आया हूं। और जगता है मन प्रश्नों के साथ।

लेकिन आपके शिक्षकों को परेशानी होगी। मैं उनको परेशानी देना चाहता हूं। असल में मैं चाहता हूं इस मुल्क का एक-एक शिक्षक परेशानी में पड़ जाए, बच्चे इतने प्रश्न उठा दें। उनकी परेशानी से रास्ता निकल आएगा। क्योंकि जब हम प्रश्न पूछते हैं और शिक्षक को परेशानी में डालते हैं और बेटे सवाल पूछते हैं और बाप मुश्किल में पड़ जाता है, तो हमें जवाब खोजने पड़ते हैं। फिर पुराने जवाब काम के नहीं रह जाते, नये जवाब खोजने पड़ते हैं। नये जवाबों की खोज ही विकास है। पुराने जवाब पर प्रश्न मत उठाओ, तो हम रुके रह जाते हैं, राजी रह जाते हैं, वहीं ठहरे रह जाते हैं, फिर आगे कोई गति नहीं हो पाती। हालांकि कोई भी नहीं चाहता कि कोई परेशानी में पड़े। कोई भी नहीं चाहता। जिंदगी चुपचाप जैसी है वैसी ठीक है। इसलिए हमने न मालूम कितनी नासमझियों की बातें स्वीकार कर रखी हैं जिन पर हम सवाल नहीं उठाते।

अब जैसे, चूंकि यह तो लड़कियों का कालेज है, यह सवाल उठाने जैसा है। हमने यह स्वीकार कर रखा है कि पुरुष जो है वह स्त्री से श्रेष्ठ है। इस पर कोई सवाल नहीं उठाया जाता। इसे हमने चुपचाप मान रखा है।

यह खतरनाक बात है। क्योंकि जिस देश में आधी स्त्रियां हों..सभी देशों में आधे से स्त्रियां थोड़ी ज्यादा हैं..अगर उस देश में मनुष्यता का आधा हिस्सा अपने को नीचा मानता हो और आधा हिस्सा अपने को ऊंचा मानता हो तो उस देश में विकास नहीं हो सकता। और बड़े मजे की बात है कि जिस देश में स्त्री अपने को नीचा मान ले उस देश में पुरुष कभी ऊंचा नहीं हो सकता, क्योंकि सब पुरुषों को स्त्री से ही जन्म लेना पड़ता है। और जिस मुल्क में मां दीन हो उस मुल्क में बेटे बहुत गौरवशाली नहीं हो सकते। यह असंभव है। असल में स्त्री जब तक गौरवान्वित नहीं होती तब तक पुरुष कभी गौरवान्वित हो नहीं सकता, क्योंकि स्त्री से ही सभी पुरुषों को जन्म लेना पड़ता है। और वैज्ञानिक तो कहते हैं कि बहुत जल्दी ऐसा वक्त आ जाएगा शायद बच्चे के जन्म के लिए पुरुष की उतनी जरूरत न रह जाए। अभी भी बहुत थोड़ी ही जरूरत है, उतनी भी जरूरत न रह जाए। स्त्री सीधे ही बच्चे को जन्म देने में समर्थ हो सकती है बीस साल के भीतर। पुरुष बिल्कुल गैर-जरूरी हो सकता है।

लेकिन स्त्री की दीनता हमने स्वीकार कर ली है। पुरुषों ने स्वीकार कर ली है, यह तो समझ में आता है। स्त्रियों ने भी स्वीकार कर ली है। वे भी मन के भीतर इस बात को मान कर राजी हो गई हैं कि कहीं पुरुष से वे कुछ कम हैं।

भिन्न हैं जरूर, कम जरा भी नहीं हैं। लेकिन भिन्नता और असमानता में फर्क है। स्त्रियां पुरुष से भिन्न हैं, यह सच है। उनमें बहुत भेद हैं, यह भी सच है। लेकिन असमान वे नहीं हैं। और हीन तो बिल्कुल नहीं हैं। बल्कि कुछ मामलों में तो पुरुष से ज्यादा उनकी क्षमताएं हैं।

जैसे, यह बहुत आश्चर्य की बात है कि स्त्रियों को आमतौर से हम समझते हैं कि वे शरीर से कमजोर हैं। यह थोड़ी दूर तक सच है। स्त्रियां पुरुष के मुकाबले शरीर से एक अर्थ में कमजोर हैं कि उनके पास मस्कुलर पावर, मसल्स की ताकत नहीं है। लेकिन एक दूसरे अर्थ में स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा शक्तिशाली हैं, उनके पास रेसिस्टेंस की ताकत पुरुष से ज्यादा है। अगर एक ही बीमारी स्त्री और पुरुष दोनों को लग जाए तो पुरुष जल्दी टूट जाता है, स्त्री देर से टूटती है। स्त्रियां पुरुषों से कम बीमार पड़ती हैं और स्त्रियों की उम्र पुरुषों से सारी दुनिया में ज्यादा है। इसलिए हम पुरुष और स्त्री के विवाह में थोड़े उम्र का फासला रखते हैं। अगर लड़का बीस वर्ष का होता है तो लड़की हम सत्रह और सोलह वर्ष की चुनते हैं। क्यों? नहीं तो दुनिया विधवाओं से भर जाए। पुरुष चार-पांच साल पहले मर जाते हैं, स्त्रियां पांच साल ज्यादा देर तक जिंदा रहती हैं।

स्त्री के पास शरीर में रेसिस्टेंस की, प्रतिरोध की ताकत पुरुष से ज्यादा है। स्वभावतः प्रकृति ने उसे यह ताकत दी है, क्योंकि उसे नौ महीने बच्चे को पेट में रखना पड़ता है। जो कि कोई पुरुष को भी रखना पड़े तो पुरुष जिंदा रहने से इनकार कर दे। नौ महीने एक जीवित व्यक्तित्व को अपने भीतर विकसित करने के लिए उसे जितनी पीड़ा झेलनी पड़ती है, उतनी पीड़ा झेलने की शक्ति भी उसके पास है। उसे प्रसव की जितनी पीड़ा झेलनी पड़ती है, उसको भी झेलने की शक्ति उसके पास है। और बच्चे को पैदा करना तो ठीक ही है, बच्चे को बड़ा करना भी एक बहुत बड़ा संघर्ष है। अगर पुरुष के पास रात को बच्चों को सोने के लिए छोड़ा जाए तो या तो बच्चों की गर्दन पुरुष दबा देंगे या अपनी गर्दन दबा लेंगे। तब उनको पता चलेगा कि एक बच्चे को रात भर सुलाए रखना पास कैसे उपद्रव की घटना है। स्त्री के पास पीड़ा को झेलने की क्षमता पुरुष से ज्यादा है।

यह जान कर आप हैरान होंगे कि एक सौ पंद्रह लड़के पैदा होते हैं जन्म के समय और सौ लड़कियां पैदा होती हैं। जन्म के समय लड़कों की संख्या पंद्रह ज्यादा होती है, लड़कियों की पंद्रह कम होती है। लेकिन विवाह की उम्र पाते-पाते सौ लड़कियां रह जाती हैं, सौ लड़के रह जाते हैं। पंद्रह लड़के खत्म हो जाते हैं। लड़कों की मृत्यु दर लड़कियों से ज्यादा है। इसलिए प्रकृति को पंद्रह लड़के ज्यादा पैदा करने पड़ते हैं। क्योंकि शादी की उम्र तक पंद्रह लड़के तो जा चुके होंगे।

एक दृष्टि से पुरुष ताकतवर है, क्योंकि उसके पास मस्कुलर ताकत है, वह ज्यादा बड़ा पत्थर उठा सकता है। लेकिन दूसरे अर्थों में पुरुष कमजोर है, वह ज्यादा बड़ी पीड़ा नहीं झेल सकता। और ध्यान रहे, इसलिए स्त्रियों का भविष्य पुरुष से ज्यादा उज्ज्वल है। क्योंकि मसल्स का काम तो मशीन करने लगी है, लेकिन पीड़ा झेलने का काम अभी कोई मशीन नहीं कर सकती। पुरुष की ताकत रोज बेमानी होती जा रही है। इसलिए पुरुष की मसल्स खोती जा रही हैं। क्योंकि अब पत्थर किसी पुरुष को नहीं उठाना है, वह क्रेन उठा देती है। और किसी बड़े वृक्ष को पुरुष को नहीं काटना है, वह आरा काट देता है। पुरुष के मसल्स की ताकत तो मशीन ने ले ली है। इसलिए पुरुष की शक्ति का अब भविष्य में बहुत उपयोग नहीं है। न उसे तलवार चलाने की जरूरत है, न उसे लकड़ी चीरने की जरूरत है, न पत्थर फोड़ने की जरूरत है। लेकिन अभी स्त्री की शक्ति मशीन लेने में असमर्थ है। इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूं कि भविष्य में स्त्री रोज ताकतवर होती जाएगी और पुरुष रोज कमजोर होता जाएगा।

लेकिन पुरुष ने स्त्रियों को सिखा रखा है कि स्त्रियां कमजोर हैं। और स्त्रियां यह मान कर बैठ गई हैं कि वे कमजोर हैं और पुरुष यह मान कर बैठ गया है कि वह ताकतवर है।

असमान नहीं हैं दोनों, भिन्न हैं जरूर। पुरुषों के पास निश्चित ही तर्क करने की क्षमता स्त्रियों से थोड़ी ज्यादा है। वह थोड़ा ज्यादा तर्क कर सकता है। क्योंकि उसके पास भावना की क्षमता थोड़ी कम है। भावना की क्षमता स्त्रियों के पास ज्यादा है। वे ज्यादा प्रेम कर सकती हैं, ज्यादा संवेदनशील हो सकती हैं, ज्यादा अनुभूतिपूर्ण हो सकती हैं। पुरुष ज्यादा तर्क कर सकता है, ज्यादा गणित कर सकता है।

लेकिन इस वजह से कोई नीचा और ऊंचा नहीं है। और शायद लंबे अर्से में गणित उतना कीमती नहीं है जितना प्रेम कीमती है। शायद गणित से दुकान चल जाए, लेकिन जिंदगी नहीं चलती। और गणित से हो सकता है कि विज्ञान की लेबोरेटरी चल जाए, लेकिन जिंदगी की प्रयोगशाला में गणित बिल्कुल बेकार हो जाता है। और हम बिना प्रयोगशाला के जी सकते हैं, लेकिन बिना हृदय के नहीं जी सकते।

लेकिन पुरुष ने यह समझाया है कि स्त्रियां मस्तिष्क के लिहाज से पिछड़ी हुई हैं। इसमें थोड़ी सच्चाई है, लेकिन इसमें झूठ भी है। अगर हम स्त्रियों की खोपड़ी का वजन नापें तो स्त्रियों की खोपड़ी का वजन पुरुष की खोपड़ी से कम है। लेकिन अभी तक हृदय को नापने का कोई उपाय नहीं हो सका, नहीं तो हम पाएंगे कि स्त्रियों के पास पुरुष से बड़ा हृदय है। हमने अब तक जो आंकड़े बनाए हैं वे पुरुष को नापने के आंकड़े हैं। हमने इंटेलिजेंस कोशंट तो बना लिया है, हम आदमी का बुद्धि अंक नाप लेते हैं कि आई क्यू कितना है आदमी का। लेकिन उसका लव कोशंट कितना है, उसका एल क्यू कितना है, उसकी प्रेम करने की क्षमता कितनी है, उसको नापने का हमने कोई उपाय नहीं किया। असल में पुरुष को उसकी फिकर नहीं है।

स्त्रियों को यह सिद्ध करना पड़ेगा कि बुद्धि उतनी कीमती नहीं है जितना हृदय कीमती है और अंततः मनुष्य हृदय से जीता है। बुद्धि से ज्यादा से ज्यादा जीने के उपाय खोज सकता है, लेकिन जीना हृदय में पड़ता है। और आजीविका और जीवन में बड़ा फर्क है। दुकान चलाना जीवन का साधन खोजना है। हिसाब लगाना जीवन का साधन खोजना है। मकान बनाना जीवन का साधन खोजना है। लेकिन ये साधन हैं, ये साध्य नहीं हैं। ये मीन्स हैं, एंड नहीं हैं। आखिर में उस मकान के भीतर रहना है; और उस दुकान से जो कमाया गया है उसे जीना है; और गणित से जो हिसाब लगाया गया है उस हिसाब के भीतर बेहिसाब प्रेम करना है। वह पुरुष के पास क्षमता बहुत कम है।

पुरुष के पास एक क्षमता है..गणित की, विचार की, तर्क की। स्त्री के पास एक क्षमता है..प्रेम की, हृदय की, भाव की। कहना मुश्किल है कि इनमें श्रेष्ठ किसको कहें। लेकिन अब तक पुरुष यही समझाता रहा है कि वह श्रेष्ठ है।

मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा गणितज्ञ हुआ। उस गणितज्ञ ने पहली दफा एवरेज का सिद्धांत निकाला, औसत का सिद्धांत निकाला। अब हम सब औसत के सिद्धांत से परिचित होंगे। जैसे कि हम कह सकते हैं कि लुधियाना में औसत ऊंचाई का आदमी कौन है। तो हम नाप सकते हैं सारे लोगों की ऊंचाई, फिर सारे लोगों की संख्या से भाग दे सकते हैं, तो जो आएगा अंक वह औसत ऊंचाई, एवरेज हाइट होगी। हालांकि एवरेज हाइट का आदमी एक भी नहीं मिलेगा लुधियाना में। बिल्कुल झूठा होगा एवरेज। एवरेज से ज्यादा झूठी कोई बात नहीं होती। एवरेज हाइट का आदमी मिलेगा ही नहीं। सब लोग अलग-अलग ऊंचाई के होंगे। सब लोगों की ऊंचाई का जोड़ और भाग जो होगा वह एवरेज है।

जिस आदमी ने पहले एवरेज का सिद्धांत निकाला वह यूनान का एक गणितज्ञ था। वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसकी सारे यूनान में ख्याति हो गई। एक दिन छुट्टी के दिन अपनी पत्नी और अपने बच्चों को लेकर वह पिकनिक के लिए नदी के तट पर गया। जब वह नदी पार कर रहा था, उसकी पत्नी ने कहा कि तुम जरा ठीक से देख लो, नदी गहरी न हो, कोई बच्चा डूब न जाए!

उसने कहा कि ठहरो! मैं बच्चों की ऊंचाई नापे लेता हूं और नदी की औसत गहराई नापे लेता हूं। उसने अपने फुटे को निकाला और जाकर नदी की औसत गहराई नापी। कहीं नदी बहुत गहरी थी, कहीं नदी बहुत उथली थी। कहीं छह फीट पानी था, कहीं छह इंच पानी था। उसने औसत गहराई नाप ली। उसके पांच बच्चे थे। कोई बच्चा दो फीट का था, कोई तीन फीट का था, कोई पांच फीट का था। उसने उन सब बच्चों की औसत ऊंचाई नाप ली। फिर उसने कहा, बेफिक्र रहो, हमारे बच्चों की औसत ऊंचाई नदी की औसत गहराई से ज्यादा है। कोई बच्चा डूब नहीं सकता।

उसकी पत्नी को विश्वास तो नहीं आया। कम पत्नियों को पतियों की बातों पर विश्वास आता है। लेकिन मजबूरी है, मानना पड़ता है। पति ताकतवर है। उसको शक तो हुआ कि यह ऊंचाई और यह गहराई क्या बला है! कोई बच्चा खो न जाए! लेकिन जब पति इतना बड़ा गणितज्ञ है और ऊंचाई और नीचाई के संबंध में इतना जानता है, तो शायद ठीक ही जानता होगा। पति आगे चला, बच्चे बीच में चले, पत्नी पीछे चली। फिर वह दो फीट का बच्चा कहीं डुबकी खाने लगा। पत्नी ने चिल्ला कर कहा कि मालूम होता है तुम्हारे गणित में कोई भूल रह गई, वह बच्चा डुबकी खा रहा है!

लेकिन वह पति बच्चे को डुबकी से बचाने के लिए नहीं दौड़ा, वह भागा वापस अपना फुटा लेने के लिए कि गलती हो नहीं सकती।

गलती हो नहीं सकती, वह एवरेज को जानने वाला आदमी है। करीब-करीब, उस गणितज्ञ ने जैसा अपने बच्चों को मुसीबत में डाल दिया था, वैसे ही पुरुष की बुद्धि ने सारी मनुष्यता को मुश्किल में डाल दिया है। अकेली बुद्धि बहुत खतरनाक सिद्ध हुई है। यह ऐसा ही खतरनाक है कि हम कोई ऐसी दुनिया बनाएं जहां स्त्रियों को हम समाप्त कर दें और सिर्फ पुरुष उस दुनिया में रह जाएं। तो वह दुनिया जैसी बेहूदी होगी, उसका हम विचार कर सकते हैं। इससे उलटा भी इतना ही बेहूदा होगा। अगर हम कोई दुनिया बनाएं जिसमें पुरुष न हों और स्त्रियां ही रह जाएं, तो वह दुनिया भी बेहूदी होगी। असल में, पुरुष और स्त्री कांप्लीमेंट्री हैं, परिपूरक हैं। और जिस तरह पुरुष और स्त्री कांप्लीमेंट्री हैं और दोनों से मिल कर एक सुंदर दुनिया बनती है, ऐसे ही बुद्धि और भावना कांप्लीमेंट्री हैं, उन दोनों से मिल कर एक अच्छी दुनिया का निर्माण होता है।

लेकिन पुरुष ने जो दुनिया बनाई है वह पुरुष के मस्तिष्क से बनाई है। उसने गणित का फैलाव किया है। इसलिए जहां-जहां पुरुष का बल चलता है वहां-वहां वह गणित के आंकड़े बिठा देता है और जिंदगी मुश्किल में पड़ जाती है।

अगर मिलिटरी में जाकर आप देखें तो वहां आदमियों के नाम हम अलग कर देते हैं। मिलिटरी में नंबर रह जाते हैं। ग्यारह नंबर का सिपाही मर जाता है, तो खबर होती है कि ग्यारह नंबर गिर गया। नोटिस पर लग जाता है: ग्यारह नंबर गिर गया।

बड़े मजे की बात है, किसी आदमी का नंबर नहीं होता। कोई आदमी नंबर से नहीं नापा जा सकता। अगर मोहनलाल नाम का आदमी मरेगा, तो उसकी पत्नी भी होती है, उसकी मां भी होती है, उसका बेटा भी होता है। और अगर ग्यारह नंबर का आदमी मरा, तो ग्यारह नंबर की न पत्नी होती, न बेटा होता। मोहनलाल मरेगा तो दुख होता है, ग्यारह नंबर मरता है तो कोई दुख नहीं होता। ग्यारह नंबर रिप्लेस किया जा सकता है, दूसरा ग्यारह नंबर बिठाया जा सकता है। लेकिन मोहनलाल को रिप्लेस करना असंभव है। वह जिसका बेटा था उसको दूसरा बेटा कैसे दिया जा सकता है? और दूसरा बेटा कैसे बेटा बन सकेगा?वह जिसका पति था उसको पति कैसे दिया जा सकता है?और दूसरा व्यक्ति कैसे पति बन सकेगा?और वह जिसका भाई था उसको भाई कैसे दिया जा सकता है?

नहीं लेकिन, पुरुष जहां सोचता है वह गणित में सोचता है। अगर पुरुष का बस चले तो पूरी जिंदगी को मिलिटरी की तरह बना देगा। उसमें से सब भाव विदा हो जाएगा। सीधे सूखे गणित के हिसाब रह जाएंगे।

स्त्री को इस संबंध में विद्रोह करना जरूरी है। स्त्री को जरूरी है कि वह सवाल उठाए कि पुरुष ने जो दुनिया बनाई है वह अकेले पुरुष के ख्याल से बनी है, वह अधूरी दुनिया है। इसलिए आदमी के द्वारा बनाई गई दुनिया में युद्ध के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। अगर हम मनुष्य-जाति के तीन हजार साल का इतिहास देखें तो हम घबड़ा जाएंगे। तीन हजार साल में साढ़े चैदह हजार युद्ध हुए हैं! तीन हजार साल में पंद्रह हजार युद्ध! हर साल पांच युद्धों का आंकड़ा है। अगर हम आदमी का इतिहास देखें तो एकाध दिन भी खोजना मुश्किल है जब जमीन के किसी कोने पर युद्ध न हो रहा हो और आदमी आदमी को न काट रहा हो। पुरुष के द्वारा बनाई गई दुनिया में आक्रमण होगा, हिंसा होगी, प्रेम नहीं हो सकता। असल में स्त्री को अस्वीकार कर दिया गया है। स्त्री की बनाई दुनिया में प्रेम के लिए जगह होगी, फूल के लिए जगह होगी, संगीत के लिए जगह होगी, वीणा और नृत्य प्रवेश कर जाएंगे, तलवार अकेली सच्चाई नहीं रह जाएगी।

लेकिन स्त्री है दीन। उसको पुरुष ने कह रखा है कि तुम दीन हो। और मजा यह है कि स्त्री ने भी मान रखा है कि वह दीन है।

असल में हजारों साल तक अगर कोई झूठ प्रचारित किया जाए तो वह स्वीकृत हो जाता है। हजारों साल तक हिंदुस्तान में शूद्र समझता था कि वह शूद्र है; क्योंकि हजारों साल तक ब्राह्मणों ने समझाया था कि तुम शूद्र हो। अंबेदकर के पहले, शूद्रों के पांच हजार साल के इतिहास में एक कीमती आदमी शूद्रों में पैदा नहीं हुआ। इसका यह मतलब नहीं कि शूद्रों में बुद्धि न थी और अंबेदकर पहले पैदा नहीं हो सकता था। पहले पैदा हो सकता था, लेकिन शूद्रों ने मान रखा था कि उनमें कभी कोई पैदा हो ही नहीं सकता। वे शूद्र हैं, उनके पास बुद्धि हो नहीं सकती। अंबेदकर भी पैदा न होता, अगर अंग्रेजों ने आकर इस मुल्क के दिमाग में थोड़ा हेर-फेर न कर दिया होता तो अंबेदकर भी पैदा नहीं हो सकता था। हालांकि जब हमको हिंदुस्तान का विधान बनाना पड़ा, कांस्टिट्यूशन बनाना पड़ा, तो ब्राह्मण काम नहीं पड़ा, वह शूद्र अंबेदकर काम पड़ा। वह बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी सिद्ध हो सका। लेकिन दो सौ साल पहले वह हिंदुस्तान में पैदा नहीं हो सकता था। क्योंकि शूद्रों ने स्वीकार कर लिया था, खुद ही स्वीकार कर लिया था कि उनके पास बुद्धि नहीं है।

स्त्रियों ने भी स्वीकार कर रखा है कि वे किसी न किसी सीमा पर हीन हैं।

शायद आप मुझसे कहेंगी कि नहीं, हम ऐसा स्वीकार नहीं करते हैं। नई लड़कियां कह सकती हैं कि हम ऐसा स्वीकार नहीं करते हैं।

लेकिन जितना ही मैं गौर से अध्ययन करता हूं उतना ही मुझे मालूम पड़ता है कि हम स्वीकार करते हैं। यह स्वीकृति बहुत गहरी और डीप रूटेड है। इसे ऊपर से पहचानना मुश्किल है।

अब जैसे अगर एक ट्रेन है, तो उसमें स्त्रियों के लिए एक अलग डिब्बा है। स्त्रियां पुरुष के डिब्बे में बैठ सकती हैं, लेकिन स्त्रियों के डिब्बे में पुरुष नहीं बैठ सकता। कोई स्त्री इनकार नहीं करती कि हमारे लिए अलग डिब्बा हमारी हीनता का सूचक है, हम अलग डिब्बा बरदाश्त नहीं करेंगे। इसका मतलब है कि स्त्रियों के लिए स्पेशल प्रोटेक्शन चाहिए। उसका मतलब क्या होता है? स्पेशल प्रोटेक्शन होने चाहिए जो कमजोर हैं और दीन हैं और पिछड़े हुए हैं। स्त्रियों को इनकार कर देना चाहिए कि अलग डिब्बा हमें नहीं चाहिए।

सारे यूरोप में और अब तो सारी दुनिया में हम लेडीज फस्र्ट के ख्याल को मानते हैं। लेकिन वह हीनता का सूचक है। अगर कहीं एक क्यू लगा है और लोग टिकटें खरीद रहे हैं और एक लड़की वहां पहुंच जाए, तो वे सब जगह देकर उसको आगे खड़ा कर देंगे। शायद वह लड़की सोचती हो कि उसका बड़ा सम्मान किया गया। उसे पता नहीं, इससे ज्यादा अपमानजनक और कोई बात नहीं हो सकती। असल में वे पुरुष यह कह रहे हैं कि तुम कमजोर हो, तुमसे हमारी क्या प्रतियोगिता है? हम पीछे हटे जाते हैं, तुम आगे खड़ी हो जाओ। तुमसे लड़ना बेकार है, क्योंकि तुम तो जीत ही नहीं सकतीं, इसलिए तुम्हें हम आगे किए देते हैं। तुम हारी ही हुई हो।

अगर जब कोई कहे लेडीज फस्र्ट, तो स्त्रियों को इनकार कर देना चाहिए..कि नहीं, जो स्थिति पुरुष की है वही स्त्रियों की है। अगर हम पांचवें नंबर पर आए हैं तो हम पांचवें नंबर पर ही खड़े होंगे, हम पहले नंबर पर खड़े होने का विशेष अधिकार नहीं चाहते हैं। क्योंकि विशेष अधिकार सिर्फ कमजोरों को दिए जाते हैं, ताकतवरों को विशेष अधिकार नहीं दिए जाते।

लेकिन स्त्रियों ने स्वीकार कर लिया है। बल्कि शायद उन्होंने स्वीकार करते-करते यह भी ख्याल कर लिया है कि इसमें कुछ विशेष गौरव है।

यह विशेष गौरव नहीं है। यह खतरनाक बात है। अब मैं तो मानता हूं कि लड़कियों के लिए अलग कालेज, जैसे आपका कालेज है, गलत बात है। लड़कियों के लिए अलग कालेज नहीं होना चाहिए। क्योंकि जब तक हम स्त्री और पुरुष को अलग-अलग रखेंगे, तब तक हम अच्छी दुनिया नहीं बना सकते। जब तक हम स्त्री और पुरुष को अलग-अलग बड़ा करेंगे, तब तक हम उनके बीच जो समानता की स्थिति निर्मित होनी चाहिए, वह निर्मित नहीं कर सकते। जब तक हम स्त्रियों को अलग शिक्षित करेंगे, अलग ढंग से बड़ा करेंगे, अलग घेरे में बांध कर बड़ा करेंगे, तब तक वे बड़ी पुरुषों की दुनिया में जाकर अपने को कमजोर अनुभव करेंगी। यहां तो उन्हें पता नहीं चलेगा। यहां तुम्हें पता नहीं चलेगा, क्योंकि सारी लड़कियां हैं। लेकिन जब तुम लड़कों की और युवकों की और पुरुषों की दुनिया में जाओगी तब तुम पाओगी कि वहां तकलीफ होनी शुरू हो गई।

नहीं, बचपन से प्रत्येक लड़की को यह हक मांगना चाहिए कि वह लड़के के साथ बराबर बड़ी होगी। वह लड़के के साथ पढ़ेगी, लड़के के साथ दौड़ेगी, लड़के के साथ तैरेगी। लड़के के साथ उसकी जिंदगी है; उसको उसके साथ बड़ा होना है। तभी हम एक ऐसी दुनिया बना पाएंगे जहां स्त्री और पुरुष के बीच दीनता का भाव मिट जाए। अन्यथा नहीं मिट पाएगा।

अगर लड़के और लड़कियां इकट्ठे भी पढ़ते हैं कालेज में, तो भी वे अलग-अलग बैठते हैं। मैं बहुत दिन तक युनिवर्सिटी में शिक्षक था। मैंने अपनी क्लासेज में कहा कि मैं क्लास नहीं लूंगा जब तक ये लड़के और लड़कियां अलग बैठेंगे। क्योंकि को-एजुकेशन का क्या मतलब है? आधी सीटों पर लड़कियां बैठी हुई हैं, आधी पर लड़के बैठे हुए हैं और बीच में वह जो प्रोफेसर है वह पुलिसवाले की तरह खड़ा हुआ है। यह बेहूदगी है, यह अशिष्टता है। यह खबर दे रही है हमारे असंस्कृत होने की, अनकल्चर्ड होने की।

असल में जो कौम अपने बच्चे और बच्चियों को साथ नहीं बिठा पाती वह बताती है कि उसका चित्त बहुत कामुक है, उसका चित्त बहुत सेक्सुअल है। जो कौम अपने लड़के और लड़कियों को एक साथ दौड़ा नहीं सकती, एक साथ खेलने नहीं दे सकती, मित्रता नहीं बनाने देती, मानना चाहिए कि उस कौम के चित्त में बड़ी बीमारियां हैं। और हम इन बीमारियों को तब तक न मिटा पाएंगे, जब तक हम इन बीमारियों के डर से अलग-अलग स्थान बनाए चले जा रहे हैं।

नहीं, लड़कियों को इनकार कर देना चाहिए कि जब दुनिया पुरुष और स्त्री की इकट्ठी है तो शिक्षा अलग-अलग क्यों हो?जब दुनिया इकट्ठी है तो शिक्षा अलग-अलग होगी तो खतरनाक है। जब जिंदगी इकट्ठी है तो शिक्षा अलग-अलग कैसे हो सकती है? और जब जीना साथ है तो अलग-अलग नहीं रहा जा सकता।

इसके खतरनाक परिणाम हुए हैं। जहां तक मैं जानता हूं, सारे नगरों की यह हालत है हिंदुस्तान में, एक लड़की अकेली नहीं निकल सकती है। कहीं न कहीं कोई उसे धक्का देगा, कहीं न कहीं कोई बदतमीजी करेगा, कहीं न कहीं कोई गाली देगा, कहीं न कहीं कोई अपशब्द बोलेगा। यह तब तक जारी रहेगा, जब तक लड़के और लड़कियों को हम अलग रखते हैं। तब तक यह नहीं रुक सकता। इसे अगर मिटाना हो..और मिटाना एकदम जरूरी है, अन्यथा स्त्री के भीतर जो ऊर्जा है, उसके भीतर जो इनर्जी है, उसे विकास के पूरे मौके नहीं मिल सकते..इसे अगर हमें मिटाना है तो स्त्री को अपने सारे विशेष अधिकारों से इनकार कर देना होगा और उसे ठीक पुरुष के साथ उसके किनारे, जहां पुरुष खड़ा है वहां खड़ा होना पड़ेगा।

इसका यह मतलब नहीं है कि स्त्री पुरुष जैसी हो जाए। नहीं, स्त्री का भेद निश्चित है। उसके आयाम अलग हैं। उसकी भीतरी जिंदगी में पुरुष की भीतरी जिंदगी से कुछ फर्क है। लेकिन उन दोनों फर्कों को साथ-साथ विकसित होना चाहिए।

लेकिन कितना अजीब है कि पांच हजार साल की दुनिया की शिक्षा, संस्कृति, धर्म के बाद भी अभी तक हम स्त्री और पुरुष के बीच मित्रता की संभावना नहीं बना पाए हैं। आज भी अगर एक स्त्री एक युवक के साथ रास्ते पर हो और वे किसी को कह दें कि हम दोनों मित्र हैं, तो सारी सड़क चैंक कर खड़ी हो जाएगी। क्योंकि मित्रता को हम स्वीकार नहीं करते स्त्री-पुरुष के बीच। स्त्री और पुरुष के बीच कोई न कोई संबंध होना ही चाहिए। संबंध के बिना हम किसी तरह की मित्रता को स्वीकार नहीं करते। वह बेटी होनी चाहिए, बहन होनी चाहिए, पत्नी होनी चाहिए, मां होनी चाहिए। लेकिन कोई न कोई संबंध होना चाहिए।

कभी हमने सोचा कि बेटी, मां, पत्नी, सब सेक्स रिलेशनशिप्स हैं! सब यौन संबंध हैं! और यह मुल्क, जो इतना अपने को अध्यात्मवादी कहता है, वह भी कहता है कि स्त्री और पुरुष के बीच यौन संबंध के अतिरिक्त कोई संबंध को हम स्वीकार नहीं करते हैं। कितनी दुखद बात है कि स्त्री-पुरुष करोड़ों वर्ष से पृथ्वी पर साथ हैं, लेकिन उनके बीच मित्रता नहीं हो सकती। ये दो अलग जाति के जानवर हैं? इनके बीच मित्रता नहीं हो सकती?इनके बीच मैत्री का कोई संबंध नहीं हो सकता?हम इतने भयभीत क्यों हैं?हम इतने डरे हुए क्यों हैं?हमारी इतनी परेशानी क्यों है?

हमने उन दोनों को अलग-अलग बड़ा किया है। हमने उन्हें इतने अलग-अलग बड़ा किया है कि वे दोनों करीब-करीब एक-दूसरे से अपरिचित बड़े होते हैं। और यह अपरिचय की धारा इतनी मजबूत हो जाती है कि कल जब एक युवती एक युवक से विवाहित होती है, तब भी यह अपरिचय की धारा टूटती नहीं, यह बीच में सदा खड़ी ही रहती है। मैंने बहुत कम ऐसे पति-पत्नी देखे हैं, हजारों-लाखों पति-पत्नियों से मैं निकटतम रूप से परिचित हूं, लेकिन मैंने ऐसे पति-पत्नी नहीं देखे हैं जो मित्रता को उपलब्ध हो सके हों। पति-पत्नी मैं उन लोगों को कहता हूं जो लड़ते हैं और फिर भी साथ रहते हैं। मित्रता बड़ी मुश्किल बात है। किसी के साथ रहना और लड़ना एक बात है और किसी के साथ मैत्रीपूर्ण होना बिल्कुल दूसरी बात है।

मैंने तो सुना है…एक छोटी सी कहानी मुझे याद आती है…मैंने सुना है कि एक आदमी की पत्नी मर गई। वह छाती पीट कर रो रहा है और चिल्ला रहा है कि उस पर बड़ा दुख का पहाड़ टूट पड़ा है। सभी उसके मित्र उसे समझा रहे हैं कि मत घबड़ाओ। लेकिन वह और रोए जा रहा है। सभी मित्र सोच रहे हैं कि बहुत सदमा उसे पहुंचा है। फिर उसकी पत्नी की अरथी उठाई गई, ताबूत में उसकी लाश रखी गई और अरथी उठाई गई। जैसे ही अरथी बाहर निकली तो बीच आंगन में एक नीम का दरख्त था, वह अरथी उससे टकरा गई। और अचानक भीतर से आवाज आई, ऐसा लगा कि वह स्त्री अभी मरी नहीं, जिंदा है। ताबूत खोला गया। वह स्त्री जिंदा थी। घर भर में खुशी छा गई, लेकिन पति एकदम और भी ज्यादा उदास हो गया।

फिर तीन साल बाद वह स्त्री दुबारा मरी। वह पति फिर चिल्लाने लगा, रोने लगा। फिर उसकी अरथी बांधी गई, वह रोता जा रहा था। और जब लोगों ने अरथी उठाई तो उसने कहा, जरा सम्हल कर उठाना, फिर नीम से मत टकरा देना। क्योंकि तुम्हारी भूल के लिए पिछले तीन साल मुझे परेशान होना पड़ा। तुमने तो अरथी टकराई, तीन साल मैंने मुसीबत झेली।

वे लोग कुछ भी न समझ सके, उन्होंने कहा कि तुम इतना रो रहे हो!

उसने कहा, रो रहा हूं जरूर, लेकिन साथ रह कर भी रो ही रहा था।

ऐसा नहीं है कि पति ही रो रहे हैं, पत्नियां और भी ज्यादा रो रही हैं, पतियों से ज्यादा रो रही हैं। असल में स्त्री-पुरुष के बीच हम इतने फासले खड़े करते हैं कि अचानक सात फेरे लगाने से वे फासले टूट नहीं सकते। हम इतने डिस्टेंस खड़े करते हैं कि अचानक रजिस्ट्री आफिस में दस्तखत करने से वे फासले टूट नहीं सकते। हम इतने फासले खड़े करते हैं कि किसी मंदिर में, किसी आर्यसमाज के मंदिर में, कि सनातन मंदिर में, कि किसी चर्च में विवाह कर देने से वे फासले टूट नहीं सकते। स्त्री और पुरुष को जो हम फासले सिखाते हैं वे जिंदगी भर उनका पीछा करते हैं। और स्त्री-पुरुष जब भी मिलते हैं तो बीच में फासला होता है। और वह फासला कभी भी उन्हें मिलने नहीं देता।

मनुष्य-जाति का बड़े से बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हम स्त्री-पुरुष को अभी भी एक हार्मनी में, एक सामंजस्य में, एक संगीत में नहीं बांध पाए हैं। यह हम कभी न बांध पाएंगे। यह हम तब तक न बांध पाएंगे जब तक हम स्त्री और पुरुष के सह-जीवन को, उनकी सह-शिक्षा को, उनकी सह-क्रीड़ा को, उनके साथ-साथ बड़े होने, खेलने और विकसित होने को स्वीकार नहीं करते हैं। जब तक हम स्त्री और पुरुष के बीच से सारे फासले नहीं गिरा देते हैं, तब तक हम कभी स्त्री और पुरुष के बीच संगीतपूर्ण संबंधों को निर्माण करने में सफल नहीं हो सकते हैं। और ध्यान रहे, जब तक स्त्री-पुरुष एक संगीतपूर्ण संबंध में न बंध जाएं, तब तक हम मनुष्य को अनेक-अनेक रोगों में ग्रसित करते रहेंगे।

मां और बाप जिंदगी भर लड़ते हैं। हालांकि इसे कोई कहता नहीं, हालांकि इसे कोई जाहिर नहीं करता। जो पति-पत्नी घर में लड़ते हैं वे भी शाम को जब घर के बाहर निकलते हैं तो दूसरे चेहरे लगा कर निकलते हैं। दूसरों के सामने वे जो चेहरे दिखलाते हैं वे चेहरे दूसरे हैं, वे असली चेहरे नहीं हैं। असली चेहरे बहुत दूसरे हैं। हम सबके पास नकली चेहरे होते हैं जो हम घर के बाहर लगा कर निकलते हैं। और स्त्रियां तो अपने नकली चेहरे अपने वैनिटी बैग में भी रखती हैं। कहीं भी जरूरत पड़े तो उसको तैयार कर लिया।

एक हमारा चेहरा है जो हमारा असली है, जो जिंदगी में है। वह बहुत दुखद है। और एक हमारा चेहरा है जो मुस्कुराता है झूठी मुसकानें। जो बाहर दिखाई पड़ता है..पाउडर और परफ्यूम्ड; सुगंधित मालूम होता है। लेकिन उतना सुगंधित चेहरा असली में नहीं है। हम दूसरों के सामने कुछ और हो जाते हैं जो हम नहीं हैं। लेकिन हमारे बच्चे तो हमें पकड़ लेते हैं। उनके सामने हमारे असली चेहरे प्रकट हो जाते हैं।

यह कितनी दुखद बात है कि इस पिछले बीस साल के खास-खास मनोवैज्ञानिकों का यह सुझाव है कि अगर मनुष्य-जाति को मानसिक रोगों से मुक्त करना हो तो बच्चों को मां-बाप से अलग पालना पड़ेगा। यह बड़ी अजीब सी बात मालूम पड़ती है, अगर मनोवैज्ञानिक यह कहते हैं कि मनुष्य-जाति को मानसिक रोगों से स्वस्थ करना है और लोगों को पागल होने से बचाना है तो बच्चों को मां-बाप से अलग पालना पड़ेगा। क्योंकि मां-बाप इतने उपद्रव में जीते हैं कि बच्चे जीने के पहले ही उपद्रव से भर जाते हैं। उनके मनों में मां-बाप के सारे झगड़े उतर जाते हैं।

और ध्यान रहे, चार साल की उम्र में बच्चा जितना सीख लेता है वह पचास प्रतिशत है पूरी जिंदगी के सीखने का। फिर बाकी जिंदगी में पचास प्रतिशत और सीखेगा। चार साल की उम्र में बच्चा अपनी जिंदगी की पचास प्रतिशत बातों के संबंध में ज्ञानपूर्ण हो जाता है। फिर बाकी बचता है पचास प्रतिशत। अगर वह चैरासी साल जीएगा तो चार साल में उसने जितना सीखा, बाकी अस्सी साल में उतना सीखेगा।

और चार साल..पहले चार साल..उसे मां-बाप को देख कर जीने पड़ते हैं। उनकी सारी कलह, उनका सारा संघर्ष, उनका सारा द्वेष, उनकी सारी ईष्र्या, उनकी सारी घृणा, उनकी सारी गाली-गलौज, उनके तने हुए चेहरे, उनकी उदासियां, उनके आंसू, वह सब उस बच्चे में एब्जार्ब हो जाते हैं। वह बच्चा उन सबको पी जाता है। वह बच्चा फिर जिंदगी में उन्हीं बातों को दोहराता है। कहना चाहिए कि वह बच्चा कंप्यूटर बन गया, अपने मां-बाप का बिल्ट-इन कंप्यूटर हो गया। उसके मां-बाप ने जो-जो चार साल की उम्र तक किया है वह उसके भीतर बैठ गया, अब वह उसी को दोहराएगा। लड़के अपने बाप का जिंदगी में अभिनय करते हैं; लड़कियां अपनी मां का अभिनय किए चली जाती हैं। इसलिए वही दुखद कहानी जो पिछली सदी में दोहरी थी, फिर दोहरती है, फिर दोहरती है। और आदमी को छुटकारा नहीं दिखाई पड़ता कि कैसे यह छुटकारा हो जाए।

नहीं, अगर हम स्त्री और पुरुष के बीच के संबंध नहीं बदलते, तो आज नहीं कल दुनिया को यह तय करना पड़ेगा कि बच्चों को मां-बाप से छीन लिया जाए। इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है।

इजरायल में इस पर प्रयोग किया गया और सुखद परिणाम हुए। इजरायल में बच्चों को मां-बाप से बड़ी संख्या में हटा लिया गया है और बच्चों को नर्सरीज में पाला जा रहा है। और जो बच्चे नर्सरीज में बड़े हुए हैं वे मां-बाप के पास पाले गए बच्चों से ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा सबल, मानसिक रूप से ज्यादा आनंदित, ज्यादा प्रसन्न हैं।

बड़ी हैरानी की बात है! हमारी बहुत पुरानी मिथ कि मां-बाप के बिना बच्चे पलेंगे तो अच्छे नहीं हो सकते, गलत सिद्ध हुई है। लेकिन मैं मानता हूं कि अगर मां-बाप अच्छे हों तो उनके पास जो बच्चे पलेंगे वे नर्सरी में पले बच्चों से बहुत अच्छे हो सकते हैं।

लेकिन मां-बाप कैसे अच्छे हों? हम तो स्त्री और पुरुष को दूर रखे चले जाते हैं। हम उनके बीच फासला बनाए चले जाते हैं। घर में एक लड़की पैदा होती है तो घर के लोग और तरह से स्वीकार करते हैं और एक लड़का पैदा होता है तो और तरह से स्वीकार करते हैं। और मजे की बात यह है कि इस सारी स्वीकृति में स्त्रियों का बुनियादी हाथ है; नब्बे प्रतिशत उनका हाथ है; क्योंकि घर में स्त्री पूरी की पूरी मालिक है। लेकिन घर में अगर मां को लड़की पैदा हो जाए तो वह भी उदासी से उसका स्वागत करती है और अगर लड़का पैदा हो जाए तो वह भी नाच कर उसका स्वागत करती है। पता नहीं, स्त्रियां आने वाली स्त्रियों पर कब दया करेंगी? उनकी कठोरता का कब अंत होगा?

तो मैं तुमसे कहना चाहूंगा कि तुम अपनी बच्चियों के साथ सदव्यवहार करना। अब तक माताओं ने अपनी बच्चियों के साथ सदव्यवहार नहीं किया है। उन्होंने बेटों को विशेषता दी है। असल में माताएं भी पुरुषों से इतनी ज्यादा प्रभावित हैं कि उनको यह ख्याल ही नहीं है कि बेटियों के साथ अन्याय हो रहा है। वह सब तरफ से अन्याय हो रहा है।

कोई फर्क करने की जरूरत नहीं है। दुनिया न तो बेटों के बिना चल सकती है और न बेटियों के बिना चल सकती है। दुनिया को चलाने के लिए दोनों एक से जरूरी हैं। दुनिया को चलाने के लिए दोनों एक से अनिवार्य हैं। दोनों का एक सा स्वागत समझ में आता है, लेकिन दोनों के संबंध में भेद बहुत खतरनाक है।

लड़कियों को हम शिक्षित भी कर रहे हैं तो भी हम इसलिए शिक्षित नहीं कर रहे हैं कि वे शिक्षा का कोई उपयोग करेंगी। लड़कियां इसलिए शिक्षित की जा रही हैं कि वे ठीक पतियों को पकड़ने में सफल हो जाएं। लड़कियों को हम इसलिए शिक्षित नहीं कर रहे हैं कि उनकी जिंदगी में शिक्षा का कोई प्रोडक्टिव, कोई क्रिएटिव, कोई सृजनात्मक परिणाम होगा। हम सिर्फ इसलिए शिक्षित कर रहे हैं कि उनकी मार्केट वैल्यू, बाजार में उनकी कीमत बढ़ जाए। इससे ज्यादा हम लड़कियों को और किसी काम के लिए शिक्षित नहीं कर रहे हैं।

लेकिन अगर इतने से काम के लिए हम लड़कियों को शिक्षित कर रहे हैं तो हम शिक्षा फिजूल खो रहे हैं। और लड़कियों को बाजार की कीमत बढ़ाने के लिए अगर शिक्षित करना पड़े तो यह लड़कियों का अपमान है। उनकी बाजार की कीमत तो उनके लड़की होने से तय हो जाती है। इसके लिए कोई और अलग से शिक्षा देना खतरनाक बात है।

आज सारी दुनिया में स्त्रियां शिक्षित हो रही हैं, लेकिन जितने बड़े पैमाने पर शिक्षित हो रही हैं उतने बड़े पैमाने पर उसका कोई प्रोडक्टिव उपयोग नहीं हो रहा है। एक लड़की एम.ए.पढ़ कर जाएगी और फिर जाकर एक गृहिणी बन जाएगी। और मैं नहीं जानता कि उसकी शिक्षा का क्या उपयोग वह कर सकेगी?उसकी शिक्षा से क्या होगा? बल्कि मेरी अपनी समझ ऐसी है कि शायद वह अशिक्षित होती तो ज्यादा अच्छी गृहिणी बन सकती थी; शिक्षित होकर वह अच्छी गृहिणी भी न बन पाएगी। क्योंकि शिक्षित होने में उसे अच्छी गृहिणी बनने की तो कोई शिक्षा नहीं दी गई और जो शिक्षा दी गई है उससे अच्छी गृहिणी बनने का कोई संबंध नहीं है। और जो उसे शिक्षा दी गई है उसने उसे एक खास तरह की तैयारी दी है जिसका उसे उपयोग करने की इच्छा होगी और गृहिणी होने में उसको उसका उपयोग करने का कोई मौका नहीं होगा।

इसलिए आधुनिक शिक्षित लड़की जितनी फ्रस्ट्रेटेड है, जितनी विषाक्त और विषण्ण है और जितनी दुखी है, उतनी अशिक्षित स्त्रियां भी नहीं हैं। शिक्षित स्त्री को जिंदगी के लिए जो हमने तैयारी की है…जैसे एक आदमी को हम वीणा बजाने के लिए बीस साल तैयार करें और फिर जिंदगी भर उसे वीणा बजाने का मौका न मिले, तब वह आदमी ज्यादा दुखी हो जाएगा। आखिर बीस साल की तैयारी इसलिए थी कि कभी वह वीणा बजाएगा। बीस साल तैयार हुआ, परेशान हुआ और जब वीणा बजाने का मौका आया तब अचानक पता चला कि वीणा बजाने की कोई जरूरत नहीं है और वीणा बजाने का कोई अर्थ ही नहीं है। तो बीस साल की जो शिक्षा है, जिसमें उसकी जिंदगी खराब हुई, अगर उसका उपयोग न हो सके, तो हमने उसकी जिंदगी को बड़े खतरनाक मोड़ पर डाल दिया। और अब जो उसे करना पड़ेगा उसकी कोई शिक्षा नहीं है, उस मामले में वह बिल्कुल अशिक्षित है। और जो उसे करना चाहिए था, जिसके लिए वह शिक्षित था, वह उसे करना नहीं पड़ेगा।

स्त्रियों के चित्त में स्किजोफ्रेनिक स्थिति पैदा हो गई है, उनके दो खंड हो गए हैं। एक खंड जो शिक्षित है जो अनुपयोगी हो गया और एक खंड जो अशिक्षित है जिसका उपयोग करना है। इसलिए शिक्षित गृहिणी अशिक्षित गृहिणी से भी बदतर हालत में पड़ जाती है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि स्त्रियों को शिक्षा न दी जाए। मैं यह कह रहा हूं कि स्त्रियों को शिक्षा लेने के साथ शिक्षा के प्रोडक्टिव इंप्लीमेंटेशन, उसके उत्पादक विनिमय के लिए, उसके उत्पादक दिशाओं में सक्रिय होने की मांग करनी चाहिए। उन्हें कहना चाहिए कि शिक्षित होकर हम अपनी शिक्षा का पूरा उपयोग करना चाहते हैं।

और मेरी अपनी समझ यह है कि जिस दिन स्त्रियां जगत में उत्पादक हो जाएंगी उस दिन हम जगत को समृद्ध करने में बहुत बड़ा काम कर सकेंगे। आधी दुनिया कुछ भी न करे, तब अकेली आधी दुनिया से जगत समृद्ध नहीं हो सकता। स्त्रियों को कुछ सृजन करने में लगना पड़ेगा।

लेकिन पुरुषों के अहंकार को बड़ी चोट लगती है। यह पुरुषों का अहंकार है कि वे कहते हैं कि उनकी पत्नियां काम नहीं करेंगी। पुरुष को सदा से यह ख्याल है कि पत्नी को सदा उस पर निर्भर होना चाहिए। इस ख्याल में बड़ा राज है, इसमें बड़ा सीक्रेट है। असल में जिस स्त्री को गुलाम रखना हो उसे आर्थिक रूप से स्वतंत्र न होने देना बुनियादी तर्क है। अगर स्त्री को गुलाम रखना है तो वह निर्भर होनी चाहिए सब बातों पर पुरुष के ऊपर। साड़ी भी उसे चाहिए तो पुरुष पर निर्भर होना चाहिए, भोजन भी चाहिए तो पुरुष पर निर्भर होना चाहिए। जिंदगी के जीने के लिए उसे पुरुष पर निर्भर होना चाहिए।

इसलिए पुरुष अपनी स्त्री को काम नहीं करने देगा। बल्कि दूसरे पुरुष भी उसको कहेंगे कि तुम अपनी स्त्री से काम करवाते हो?जैसे यह कोई अपमानजनक बात है। जैसे स्त्री का काम करना कोई बुरी बात है। और पुरुष के अहंकार को चोट लगती है कि उसकी स्त्री काम कर रही है। उसका मतलब? उसका मतलब कि वह पूरी तरह से स्त्री को निर्भर नहीं बना पा रहा है, स्त्री आत्मनिर्भर हुई जा रही है। पुरुष स्त्रियों को शाखाओं, वल्लरियों की तरह चाहते हैं। कवियों ने कविताएं भी लिखी हैं, तुमने भी अपने कोर्सेज में पढ़ी होंगी कि पुरुष तो एक वृक्ष है और स्त्रियां लताएं हैं जो पुरुष का सहारा लेकर और वृक्ष पर फैलती हैं। वे सीधी खड़ी नहीं हो सकतीं, वे कोई वृक्ष नहीं हैं।

झूठी है यह बात। यह बिल्कुल झूठी बात है, स्त्रियां खुद भी वृक्ष बन सकती हैं। और असल में जो लताओं की तरह हैं स्त्रियां, जो पुरुषों के सहारे ही खड़ी हो सकती हैं, वे गुलाम ही रहेंगी, वे कभी स्वतंत्र नहीं हो सकतीं। क्योंकि लताएं कैसे स्वतंत्र हो सकती हैं? स्त्रियों को भी वृक्ष बनना पड़ेगा अपनी हैसियत से।

इसका यह मतलब नहीं है कि दो वृक्षों में मैत्री नहीं हो सकती। मैत्री होने के लिए किसी का लता होना जरूरी है, ऐसा आवश्यक नहीं है।

अभी एक बहुत मजेदार घटना घटी। अमेरिका में पिछली बार जब जनगणना हुई, तो जनगणना के लिए जो कागज-पत्र छपते हैं वे तो पुरुषों की दुनिया के हैं, लेकिन अमेरिका में बहुत सी बदलाहट हो गई है। कागज-पत्र पुराने हैं।

यहां भी जब जनगणना होती है तो पूछा जाता है: घर का प्रमुख कौन है? तो आमतौर से प्रमुख अब तक दुनिया में पति ही होता रहा है। तो पति का नाम प्रमुख में लिखा जाता है कि पति प्रमुख है।

तो अमेरिका में वह जो जनगणना थी, उसमें जो लिखा हुआ था, जो फार्म भरना था उसमें लिखा था: घर का पति और प्रमुख कौन है? कई घरों में स्त्रियां प्रमुख हो गई हैं अमेरिका में, क्योंकि वे पति से ज्यादा कमा रही हैं। और कुछ मार्गों पर स्त्रियां पतियों से ज्यादा हमेशा कमा सकती हैं। कुछ दिशाओं में पति बिल्कुल बेमानी हैं, उन दिशाओं में स्त्रियों की कमाई का कोई अंत नहीं हो सकता। कुछ दिशाओं में स्त्रियां ही ज्यादा प्रोडक्टिव हो सकती हैं। तो पतियों से ज्यादा कुछ पत्नियां कमा रही हैं। लेकिन उस फार्म में लिखा हुआ था कि घर का पति और प्रमुख कौन है?

प्रमुख तो स्त्री थी, लेकिन वह पति नहीं थी। तब बड़ी कठिनाई हो गई। इस बार अमेरिका के फार्म पर बड़ी गलत चीजें भरी गईं। उसमें यह भरना पड़ा कि प्रमुख तो पत्नी है, लेकिन पति वह नहीं है, पति कोई और है।

एक स्त्री ने अमेरिकी सीनेट से यह मांग की कि अगली दफा फार्म में ऐसा होना चाहिए कि जो प्रमुख है वही पति की जगह अपना नाम भरे, चाहे वह स्त्री हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और जो गैर-प्रमुख है वह चाहे पति ही हो वह गैर-प्रमुख की जगह नाम भरे, चाहे पति हो और पत्नी की जगह नाम भरना पड़े। असल में, हसबेंड अब भविष्य में जरूरी रूप से पुरुष ही होगा, यह मानना आवश्यक नहीं है; हसबेंड स्त्री भी हो सकती है।

असल में जो प्रमुख है…पति का मतलब क्या होता है? कभी सोचा नहीं होगा कि पति का मतलब होता है स्वामी। उसका मतलब होता है मालिक, वह जो प्रमुख है। पति का मतलब होता है मालिक, वह जो प्रमुख है। इसलिए पति को स्वामी भी स्त्रियां कहती हैं। स्त्रियां चिट्ठी भी लिखती हैं अपने पति को तो लिखती हैं: आपकी दासी। और पति बड़े प्रसन्न होते हैं। और पति स्त्रियों को समझाते हैं कि हम परमात्मा हैं। और स्त्रियां स्वीकार भी करती हैं कि आप परमात्मा हैं और हम दासी हैं।

ये खतरनाक और विषाक्त बातें तोड़ देनी पड़ेंगी। इनका कोई भविष्य नहीं हो सकता। स्त्री को अपनी हैसियत से खड़ा होना पड़ेगा। लेकिन वह अपनी हैसियत से तभी खड़ी होगी जब अपनी शिक्षा को उत्पादक, अपनी शिक्षा को प्रोडक्टिव बनाने की मांग करे। तुम शिक्षित हो जाओगी कल, तब तुम शिक्षित होकर सिर्फ पत्नी बनने से राजी मत हो जाना। क्योंकि शिक्षित हो जाने के बाद सिर्फ पत्नी बनना मुल्क का बहुत बड़ा नुकसान करना है। तुम्हारे ऊपर जो शिक्षा में पैसा व्यय किया गया मुल्क का वह व्यर्थ गया। अरबों रुपया मुल्क का व्यर्थ गया और करोड़ों स्त्रियों की शक्ति व्यर्थ गई जो काम में आ सकती थी।

अब जैसे मैंने कहा कि कुछ दिशाएं हैं जो स्त्रियों के लिए ही होनी चाहिए। जैसे मेरा मानना है कि शिक्षण का अधिकतम काम स्त्रियों के हाथ में चला जाना चाहिए। शिक्षण का काम पुरुषों के हाथ में कम से कम रह जाना चाहिए। असल में पुरुष का होना शिक्षक होने में बाधा है। उसके कई कारण हैं। शिक्षक का काम है टु परसुएड। शिक्षक का काम है लोगों को समझाना, फुसलाना, बच्चों को कुछ बातें जानने के लिए राजी करना। असल में परसुएशन की, फुसलाने की ताकत जितनी स्त्री में है उतनी पुरुष में नहीं है। हमले की ताकत ज्यादा है। किसी पर आक्रमण करना हो तो पुरुष बहुत जरूरी है। लेकिन किसी को फुसलाना हो तो स्त्री जरूरी है। इसलिए फुसलाने के जितने काम हैं, परसुएशन के जितने काम हैं, वे सब स्त्रियों के हाथ में चले जाने चाहिए।

अगर एक दुकान पर कोई जूता पुरुष बेचता है और किसी दूसरे पुरुष के पैर में जूता डालता है, तो वह पुरुष कह सकता है..मुझे पसंद नहीं पड़ा। अगर कोई स्त्री उसके पैर में जूता डालती है और कहती है, पैर बहुत सुंदर मालूम पड़ रहा है! तो इनकार करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए सारी समझदार कौमों में सेल्समैन का काम स्त्री के हाथ में चला जा रहा है, वह पुरुष से छिनता जा रहा है। दुकानों पर काउंटर पर स्त्री आती जा रही है, पुरुष पीछे हटता जा रहा है। वह मैनेजर तो रह गया है, लेकिन सेल्समैन नहीं रह गया। क्योंकि यह पाया गया कि स्त्री ग्राहक को राजी करने में सक्षम है पुरुष से बहुत ज्यादा। पुरुष को इनकार किया जा सकता है, स्त्री को इनकार करना कठिन है।

इसलिए जितने काम परसुएशन के हैं..चाहे शिक्षा के, चाहे दुकान पर चीजें बेचने के, चाहे नर्सरी के, चाहे डाक्टर के..वे सारे के सारे धीरे-धीरे स्त्रियों के हाथ में चले जाने चाहिए। उस जगह से पुरुष को छोड़ देना चाहिए। यह बहुत आश्चर्य की बात है कि स्त्रियों की जो क्षमताएं हैं उनका अपशोषण ठीक से दुनिया में नहीं हो पाया। उनका अपशोषण पूरी तरह होना चाहिए। वे जो कर सकती हैं पुरुष से बेहतर, उन्हें निश्चित ही करना चाहिए। और मांग करनी चाहिए कि वे जगह पुरुष खाली कर दें।

स्वभावतः, स्त्रियों का युद्ध के मैदान पर कोई बहुत उपयोग नहीं हो सकता। और उन्हें युद्ध के मैदान पर नहीं ले जाना चाहिए। क्योंकि मैं मानता हूं कि स्त्री चाहे कितनी ही देशभक्त हो, जब किसी दूसरे की छाती में बंदूक मारने का ख्याल आएगा तो दो बार उसके हाथ कंप जाएंगे। वह यह भूल जाएगी कि दूसरा आदमी दुश्मन है। उसे यही दिखाई पड़ने लगेगा..दूसरा भी आदमी है; उसकी भी कोई पत्नी होगी, उसका भी कोई बेटा होगा।

लेकिन हम अजीब हैं! अगर हम स्त्रियों को शिक्षित भी करना चाहते हैं तो हम उनको एन सी सी की भी ट्रेनिंग दे रहे हैं, जो बिल्कुल फिजूल और गलत है। उनको एन सी सी की ट्रेनिंग देने की कोई भी जरूरत नहीं है। उसका उनकी जिंदगी में कोई उपयोग होने वाला नहीं है। और उचित भी नहीं है कि हम उनसे वह उपयोग करवाएं। क्योंकि जो स्त्री युद्ध के मैदान में लड़ने में समर्थ हो जाएगी वह मां बनने में समर्थ नहीं रह जाएगी। और जो स्त्री युद्ध के मैदान पर बंदूक चला सकेगी वह अच्छी पत्नी नहीं हो सकेगी। उसका जीवन कठोर हो जाएगा, उसके भीतर कोई चीज सख्त हो जाएगी, पथरीली हो जाएगी। उसके भीतर वह जो करुणा है, वह जो ममता है, वह जो प्रेम है, वह सूख जाएगा।

न, स्त्री के हृदय की जो संभावनाएं हैं उनका हमें अपशोषण उन दिशाओं में करना चाहिए जहां वे उपयोगी हो सकती हैं।

अब मेरा मानना है कि शिक्षण, चिकित्सा, दुकान, इनका सारा का सारा काम स्त्रियों के हाथ में चला जाना चाहिए। यूरोप में या अमेरिका में, जहां भी स्त्रियों ने अपने को प्रकट करने की कोशिश की है, कुछ चीजें उनके हाथ में चली गई हैं। जैसे आज कोई भी बड़ी फर्म पुरुष से पत्र नहीं लिखवाएगी। सारी बड़ी फर्में यूरोप और अमेरिका की जो पत्र-व्यवहार कर रही हैं वह स्त्रियों से हो रहा है। स्त्री की क्षमता पत्र लिखने की, पुरुष की क्षमता से बहुत ज्यादा गहरी है। असल में, पुरुषों ने कोई बहुत अच्छे पत्र आज तक नहीं लिखे। लंबे तो बहुत लिखे हैं, बहुत अच्छे पत्र नहीं लिखे। उसके पत्र भी उसके हिसाब-किताब के पत्र हो जाते हैं। स्त्री के साधारण पत्र भी उसके हृदय के पत्र हो जाते हैं, वे ज्यादा प्रभावी हो जाते हैं।

तो मैं यह कहना चाहूंगा कि अब तक स्त्री का जो रोल रहा है उस पर तुम शक करना, संदेह करना, प्रश्न उठाना। और शिक्षित हो जाओ तो अपनी शिक्षा को उत्पादक दिशाओं में संलग्न करने की मांग करना। यह मांग सिर्फ इतने से पूरी न होगी कि स्त्रियों को समान मताधिकार मिल जाए। समान मताधिकार से कुछ बहुत हल न होगा, समान स्थिति भी चाहिए। और यह समान स्थिति तब तक नहीं मिल सकती जब तक स्त्रियां आर्थिक रूप से स्वतंत्र न हो जाएं।

एक अंतिम बात, फिर मैं अपनी बात पूरी कर दूंगा।

जहां तक मैं समझ सका हूं, मैंने यह अनुभव किया है कि जो स्त्री भी पुरुष के ऊपर निर्भर है वह पुरुष पर सदा के लिए नाराज होती है। होगी ही। जिस पर हम निर्भर होते हैं उस पर हम कभी प्रसन्न नहीं हो सकते। जिस पर हम निर्भर होते हैं उसके ऊपर हम सदा क्रोध से भरे होते हैं। असल में जिसके हम गुलाम हैं उसके हम मित्र नहीं हो सकते। मित्रता के लिए समान खड़ा हो जाना बहुत जरूरी है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है, सारी स्त्रियां पुरुषों के प्रति क्रोध से भरी होती हैं। उनका क्रोध बहुत-बहुत रूपों में निकलता रहता है। उसके निकलने के रास्ते उन्हें खोजने पड़ते हैं, लेकिन वह क्रोध निकलता रहता है। पुरुष और उनके बीच प्रेम की स्थिति बनने में कठिनाई पड़ रही है, क्योंकि वे स्वतंत्र नहीं हैं। जिसे भी हमें मित्र बनाना हो उसे स्वतंत्र कर देना जरूरी है।

यह पुरुष के भी हित में है कि स्त्री पूरी तरह स्वतंत्र हो जाए, आर्थिक रूप से भी स्वतंत्र हो जाए। और यह स्त्री के भी हित में है कि वह पूरी तरह स्वतंत्र हो जाए। स्त्री और पुरुष दोनों स्वतंत्र रूप से जिस दिन मिलेंगे उस दिन उनके बीच एक मैत्रीपूर्ण, एक फ्रेंडली संबंधों का नया आयाम, नया अध्याय शुरू हो जाएगा। यह अध्याय जब तक शुरू नहीं होता तब तक हम आदमी को बहुत सुख और शांति में नहीं पहुंचा सकते हैं।

लेकिन पुरुष इतना उत्सुक नहीं होगा इन सारी बातों के लिए, क्योंकि इन सारी बातों के लिए पुरुष को कुछ जगहें छोड़नी पड़ेंगी। इन सारी बातों के लिए स्त्री को विद्रोही रुख लेना पड़ेगा। स्त्री को इन सारी बातों के लिए रिबेलियस होना पड़ेगा। स्त्री को इन सारी बातों के लिए क्रांति की तैयारी जुटानी पड़ेगी। लेकिन स्त्री शायद क्रांतिकारी होने में बड़ी कठिनाई अनुभव करती है। कठिनाई उसकी है। उसने कभी क्रांति की भाषा में नहीं सोचा है।

यह जान कर हैरानी होगी कि स्त्री ने बहुत ज्यादा इस दिशा में सोचा ही नहीं कि उसकी जो जीवन की स्थिति है वह अन्यथा हो सकती है या नहीं हो सकती। उसके पुरुष से जो संबंध हैं वे भिन्न हो सकते हैं या नहीं हो सकते। उसका जो परिवार है वह बदला जा सकता है या नहीं बदला जा सकता। उसने इस संबंध में कोई चिंतन नहीं किया है।

मैं यह कामना करूंगा कि तुम जब बड़ी हो जाओ..और बड़ी रोज होती चली जाओगी..तो तुम सोचना और तुम अपनी जिंदगी को उसी ढर्रे और ढांचे में मत डाल देना जिसमें अतीत की सारी स्त्रियों ने अपने को डाल दिया। तुम सवाल उठाना। सवाल उठाने से तुम्हें कठिनाइयां होंगी, तुम्हें मुश्किल पड़ेगी। हो सकता है कि एक-दो पीढ़ी की स्त्रियों को संक्रमण से गुजरना पड़े और बहुत सी तकलीफ झेलनी पड़े। लेकिन वह तकलीफ भी आनंदपूर्ण होगी। स्वतंत्रता के लिए झेले गए दुख भी आनंदपूर्ण हैं, परतंत्रता में झेले गए सुखों का भी बहुत सुख नहीं है।

सीता को अब बहुत दिन तक तुम आदर्श मत मानना। अब शक करना। और राम के दुव्र्यवहार पर भी थोड़ा शक करना। सीता को राम जिस दिन लेकर आए हैं लंका से, तो राम उनकी परीक्षा लेना चाहे। राम को शक है सीता के चरित्र पर, तो अग्नि-परीक्षा ली उन्होंने। सीता भी शक कर सकती थी। क्योंकि राम भी इतने दिन अकेले थे, सीता ही अकेली नहीं थी। सीता भी शक कर सकती थी। सीता भी कह सकती थी..अगर अग्नि-परीक्षा हो रही है तो हम दोनों ही इसमें से प्रवेश करें। लेकिन सीता ने यह शक नहीं किया। यह शक तुम भविष्य में करना। अगर यह परीक्षा है तो दोनों ही गुजरना।

और आश्चर्य की बात है कि सीता परीक्षा से भी गुजर गई..शांत, भली, लेकिन गैर-क्रांतिकारी स्त्री..और राम फिर भी अयोध्या आकर उसे घर के बाहर निकाल दिए, क्योंकि फिर किसी पुरुष ने शक कर दिया। परीक्षा से निकली हुई स्त्री फिर संदिग्ध हो गई। गर्भवती स्त्री, जिसके पेट में बच्चा था, उसको राम ने जंगल में छुड़वा दिया। फिर भी राम पूज्य बने हुए हैं..पुरुषों के लिए कम, स्त्रियों के लिए ज्यादा। मैं नहीं देखता कि राम के मंदिर में पुरुष ज्यादा दिखाई पड़ते हों। हां, अपनी पत्नियों के पीछे कुछ दो-चार पहुंच जाते हों, बात अलग। नहीं तो स्त्रियां ही दिखाई पड़ती हैं।

नहीं, यह सवाल अब पूछना जरूरी हो गया है। यह दुव्र्यवहार अब आगे नहीं होना चाहिए। सीता को अब आदर्श मत मानना। या सीता में धन क्रांति और जोड़ देना, प्लस रेवोल्यूशन और कर देना, तो भविष्य की ठीक-ठीक नारी पैदा हो पाएगी।

लेकिन पुरुष समझाए चले जाएंगे कि स्त्री को सीता जैसा होना चाहिए। उनका हित है इसमें, उनका वेस्टेड इंट्रेस्ट है, उनका स्वार्थ है इसमें, उनके हित में है कि वे स्त्रियों को समझाएं कि तुम सीता जैसी बनो। लेकिन तुम भी उनको समझाना कि कृपा करके आप राम जैसे मत बन जाना। और अगर अब तुम राम जैसे बने तो स्त्री सीता जैसा बनने से इनकार करती है।

इसलिए मैंने यह बात शुरू की थी कि यह मुल्क अब तक विश्वास पर जीता रहा है, इसने जीवन के किन्हीं पहलुओं पर प्रश्न नहीं उठाए, जिंदा सवाल। उनकी वजह से हम मुर्दा हो गए हैं। तुम्हारे संदर्भ में मैंने थोड़ी सी बातें कहीं कि तुम सवाल उठाना। हजार सवाल हैं, मैंने तो उदाहरण के लिए थोड़ी सी बातें कहीं। हजार सवाल हैं, जो जिंदगी में चारों तरफ से पूछे जाने योग्य हैं। और अगर हमने पूछना शुरू कर दिया तो उनके उत्तर देने पड़ेंगे। और एक दफा गलत उत्तरों पर सवाल उठ गए तो उन उत्तरों को गिर जाना पड़ेगा और नये उत्तर पैदा हो सकेंगे।

नहीं, स्त्री को दासी नहीं होना है, भविष्य में उसे मित्र होना है। न पुरुष को परमात्मा होने की जरूरत है, आदमी होना काफी है।

लेकिन पुरुष परमात्मा होने की कोशिश में आदमी भी नहीं हो पाता, शैतान हो जाता है। और स्त्री को भी देवी बनाने की तरकीबें बंद की जाएं, देवी बनाने की कोई जरूरत नहीं है। हड्डी-मांस की स्त्री ठीक अर्थों में स्त्री हो सके तो काफी है। और जो ठीक स्त्री हो सके वह शायद कभी देवी भी हो जाए, लेकिन देवी होने की कोशिश में हो सकता है ठीक स्त्री भी न हो पाए। यही अब तक हुआ है। इसलिए बहुत ऊंचे आदर्शों की बात मत करना, जिंदगी और जमीन के आदर्शों को स्थापित करना है। आयडियल्स अॅाफ दिस अर्थ, इस जमीन के, इस जिंदगी में जीने योग्य आदर्श स्थापित करना है।

बहुत बार ऐसा होता है, आकाश की बातें करने वाले लोग जमीन की जिंदगी को जीना भूल जाते हैं। ऐसा इस मुल्क में हुआ।

एक छोटी सी कहानी, अपनी बात मैं पूरी कर दूं।

मैंने सुना है कि यूनान में एक ज्योतिषी एक दिन रात अंधेरे में आकाश के तारे देखते हुए चल रहा था। एक कुएं में गिर पड़ा। स्वभावतः, आकाश के तारे देख रहा था, जमीन का कुआं दिखाई नहीं पड़ा होगा, गिर पड़ा कुएं में। बहुत चिल्लाया, बहुत रोया; पास किसी दूर खेत में एक बूढ़ी औरत भर थी, उसने आकर उसे बामुश्किल बाहर निकाला। वह ज्योतिषी बहुत बड़ा था। वह बूढ़ी साधारण किसान औरत थी।

उस ज्योतिषी ने उस बूढ़ी स्त्री से कहा, मां, शायद तुझे पता नहीं कि मैं यूनान का सबसे बड़ा ज्योतिषी हूं। मैं जितना जानता हूं चांद-तारों के संबंध में, शायद पृथ्वी पर कोई आदमी नहीं जानता। अगर तुझे कभी चांद-तारों के संबंध में कुछ जानना हो तो मेरे पास आ जाना। बड़े सम्राट पूछने आते हैं, सभी सम्राटों को मैं समय नहीं दे पाता। तुझे कभी पूछना हो तो तेरे लिए द्वार खुला होगा।

उस बूढ़ी स्त्री ने कहा, बेटा, मैं कभी नहीं आऊंगी। द्वार तू खुला मत रखना।

क्यों? उस लड़के ने पूछा, उस युवक ज्योतिषी ने पूछा।

उस बूढ़ी औरत ने कहा, इसलिए मैं नहीं आऊंगी कि जिसे अभी जमीन के गड्ढे नहीं दिखाई पड़ते उसके चांद-तारों के ज्ञान का भरोसा नहीं किया जा सकता।

इस देश में हम आकाश की बातें करते-करते जमीन पर खो गए हैं, सब गड्ढे में गिर गए हैं। इस जिंदगी को सीधे जमीन के हिसाब से बनाने की जरूरत है। इसलिए मैं तुमसे आखिरी यह बात कहना चाहूंगा कि पृथ्वी को आकाश के आदर्शों में ढालने की आवश्यकता नहीं है; पृथ्वी को अपने संभव आदर्श खोजने की जरूरत है। और यह भी मैं मानता हूं कि पुरुष की बजाय स्त्री जो है पृथ्वी के सदा ज्यादा करीब है। पुरुष अक्सर आकाश के आदर्शों में खो गया है। लेकिन स्त्री पृथ्वी के बहुत करीब है, वह ज्यादा अर्थली है। कहना चाहिए कि वह ज्यादा प्रकृति और पृथ्वी के निकट है। अगर स्त्री अपने को पूरी तरह से अभिव्यक्त करे तो हम जमीन को सुंदर, स्वस्थ, युद्ध से शांत, आनंदपूर्ण बनाने में समर्थ हो सकते हैं।

मेरी ये बातें, इतनी शांति और प्रेम से सुनीं, उससे मैं बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

 

प्रश्नः हिंदुस्तान में हम स्त्री को असमान नहीं मानते हैं, हम स्त्री को आदर का स्थान देते हैं। मैं पूछना चाहता हूं कि अमेरिका जैसे मुल्क में, जहां बचपन से सोसायटी में आदमी और औरत में कोई भी किस्म का फर्क नहीं होता है, जहां बच्चे उन्मुक्त वातावरण में मिलते हैं, खेलते हैं, क्या वहां पर जो लोग हैं वे आपस में एक-दूसरे के साथ प्रीति, प्रेम को उपलब्ध होते हैं? क्या वहां के बच्चे जो हैं अपने मां-बाप के जीवन के जो आदर्श हैं, जीवन का जो उद्देश्य है, उसके साथ बड़े होते हैं?हम लोग जहां तक जानते हैं, वहां पर जो जीवन है वह सुखी नहीं है। वहां के बच्चे रोज-रोज परिवार से टूट रहे हैं, परिवार बिखर रहा है। आपका इस संदर्भ में क्या कहना है?

 

दो-तीन बातें उठाईं, वे सब उपयोगी हैं और समझने जैसी हैं।

पहली बात तो यह कि हम इस भ्रम में सदा से रहे हैं कि हम स्त्री का आदर करते हैं। असल में आदर की बात बहुत धोखे की और डिसेप्शन की बात है। क्योंकि जिस स्त्री को हम आदर करते हैं, उसे हमने हजारों साल तक शिक्षा क्यों नहीं दी? जिस स्त्री को हम आदर करते हैं, उस स्त्री को हमने मोक्ष जाने का अधिकार नहीं दिया है। जिस स्त्री को हम आदर करते हैं, उस स्त्री को हमने ऊंचा उठाने के लिए पांच हजार सालों में क्या किया है? अगर आदर हार्दिक है तो उसके परिणाम दिखाई पड़ते। लेकिन उसके कोई परिणाम दिखाई नहीं पड़ते हैं। हां, आदर सीता जैसी स्त्रियों के लिए है। वह आदर इसलिए है कि उस आदर के माध्यम से हम स्त्री को पुरुष का गुलाम बनाने में समर्थ हो सके हैं। आदर बहुत तरकीब की बात है।

अभी मैं पटना में था, तो पुरी के जगतगुरु शंकराचार्य स्त्रियों की एक सभा में बोल रहे थे। मैं भी उस सभा में था। तो वे उन स्त्रियों को समझा रहे थे कि हम तो तुम्हें सदा से देवी मानते हैं। इसीलिए हमने तुम्हें शिक्षा नहीं दी, क्योंकि देवियों के लिए शिक्षा की क्या जरूरत! वे तो ज्ञान लेकर पैदा ही होती हैं। उन्होंने एक अत्यंत मूढ़ता की बात कही। और उन्होंने यह कहा कि हम तो हिंदू जाति इसीलिए स्त्रियों को शिक्षा नहीं देती कि हम तो मानते हैं कि स्त्री तो सदा से ज्ञानवान है ही। इसलिए हमने शिक्षा नहीं दी। उन्होंने यह भी बड़े मजे की बात कही कि हिंदुस्तान में तो अगर पंडित की पत्नी है तो पंडित की पत्नी होने से पंडिताइन हो जाती है। उसको अलग से पंडित होने की कोई जरूरत नहीं है।

यह कोई साधारण आदमी कह रहा होता तो हंसी में टाली जा सकती है। जब शंकराचार्य की हैसियत का कोई आदमी यह कहे तो विचारणीय मामला है। तब तो मैं कहूंगा कि कृपा करके अब स्त्रियों को आप आदर मत दें। और आदर उचित भी नहीं है। आदर का कोई कारण भी नहीं है। न तो स्त्रियों के पुरुषों को आदर दिए जाने का कोई कारण है, न पुरुषों के द्वारा स्त्रियों को आदर दिए जाने का कोई कारण है। स्त्री और पुरुष समान हैं, आदर का कोई सवाल ही नहीं उठता।

असल में जहां आदर है वहां अनादर भी होगा ही। समानता न अनादर करती है, न आदर करती है। दोनों की कोई जरूरत नहीं है। समानता पर्याप्त, पर्याप्त बात है। समानता का अर्थ है समादर। हम दोनों एक-दूसरे का उतना आदर करते हैं जितना दोनों की समानता में जरूरी है। इससे ज्यादा कोई आवश्यकता नहीं है। स्त्री को आकाश में उठाने की जरूरत नहीं है; क्योंकि उठाने का कोई कारण भी नहीं है। वह उतनी ही पार्थिव है, देवी वगैरह नहीं है, जितना आदमी पार्थिव है।

दूसरी बात उन्होंने ज्यादा महत्वपूर्ण उठाई है। वह सवाल है कि अमेरिका में परिवार ज्यादा दुखी है।

यह बात सच है। इसे मैं स्वीकार करता हूं कि अमेरिका में परिवार ज्यादा दुखी है। लेकिन दूसरी बात मैं स्वीकार नहीं करता कि हिंदुस्तान में परिवार ज्यादा सुखी है। और एक और कीमती बात आपको सुझाना चाहता हूं वह यह कि परिवार वहां दुखी इसीलिए है कि परिवार वहां सुखी होने की कोशिश कर रहा है। वहां परिवार के दुख का जो बोध है वह सुख की बढ़ती हुई इनटेंसिटी की वजह से है। असल में जिस मात्रा में हम सुख को बढ़ाते हैं उस मात्रा में दुख बढ़ जाता है। जिस मात्रा में हम सुख को बढ़ाते हैं उसी मात्रा में दुख बढ़ जाता है।

जैसे हिंदुस्तान में परिवार कम दुखी है, क्योंकि परिवार कम सुखी भी है। हिंदुस्तान में हमने वे सारे खतरे ही अलग कर दिए हैं जिनसे सुख हो सकता था। अगर बाल-विवाह किया है किसी व्यक्ति का, तो उसकी जिंदगी में और भी परिवार कम दुख का होगा, क्योंकि और भी कम सुख का होगा। असल में जो चीज जितना सुख दे सकती है उतना ही दुख दे सकती है। दुख और सुख की क्षमताएं बराबर होती हैं।

अगर एक आदमी ने प्रेम करके विवाह किया है तो उसकी जिंदगी में दुख ज्यादा हो सकता है, क्योंकि उसने जिंदगी में ज्यादा सुख पाने की कोशिश भी की है। जब मैं किसी को प्रेम करता हूं और उससे विवाह करता हूं, तो मैं जो सुख पाता हूं वह बाल-विवाह करने वाला आदमी सुख नहीं पा सकता। निश्चित ही, मैं जो दुख पाऊंगा अगर प्रेम टूट गया तो, बाल-विवाह करने वाला उस दुख को कभी नहीं पा सकता। क्योंकि प्रेम था ही नहीं, तो टूटेगा क्या खाक? टूटने के लिए भी प्रेम तो होना ही चाहिए।

एक गरीब आदमी अपनी गरीबी में उतना दुखी नहीं होता, अगर कोई अमीर आदमी गरीब हो जाए तो जितना दुखी होता है। निश्चित ही! क्योंकि अमीर आदमी ने सुख भी जाना, गरीब आदमी ने सुख ही नहीं जाना। एक अमीर आदमी अगर गरीब होता है, तब उसे गरीबी अखरती है। गरीब आदमी को उतनी कभी नहीं अखरती। लेकिन इसका क्या यह मतलब है कि हम लोगों से कहें कि अमीर होने की कोशिश मत करना, क्योंकि अगर कभी गरीब हो गए तो बहुत अखरेगा, इसलिए गरीब ही बने रहना।

नहीं, हिंदुस्तान की जो तरकीब थी, वह यह थी कि प्रेम एक बहुत बड़ी इनटेंस फीलिंग है, प्रेम एक बहुत तीव्र प्रतीति है, उसका सुख बहुत गहरा है। लेकिन स्वभावतः इतने गहरे सुख को जो लेने जाएगा वह इतने गहरे सुख को अगर टूट जाए तो इतने ही गहरे दुख में भी पड़ेगा। इसलिए हमने प्रेम को हटा ही दिया था। हम पंडित से पूछ लेते थे, बाप तय करता था, मां तय करती थी, परिवार तय करता था। सिर्फ जिनका विवाह हो रहा था वे भर तय करने के बाहर थे, बाकी सारे लोग तय करते थे।

एक छह साल, आठ साल, दस साल के लड़के का, आठ साल, छह साल की लड़की से विवाह हो रहा है। ये दोनों पार्टी नहीं थे विवाह में, पार्टी दूसरी थीं जो विवाह कर रही हैं। इनकी जिंदगी में कभी दुख ज्यादा नहीं आएगा, क्योंकि इनकी जिंदगी में सुख कभी ज्यादा नहीं आएगा।

सुकरात से किसी ने मरने के पहले एक सवाल पूछा था कि तुम अगर संतुष्ट सुअर हो सको, तो तुम संतुष्ट सुअर होना पसंद करोगे कि असंतुष्ट सुकरात होना पसंद करोगे?

सुकरात ने कहा कि मैं असंतुष्ट सुकरात होना पसंद करूंगा। क्योंकि संतुष्ट सुअर को यह भी पता नहीं चलेगा कि वह संतुष्ट है। संतुष्ट होना पता चले, इसके लिए असंतुष्ट होने की क्षमता चाहिए।

तो मैं मानता हूं कि अमेरिका में ज्यादा दुख पैदा हुआ है, क्योंकि अमेरिका ने ज्यादा सुख चाहा है। और अमेरिका ज्यादा सुख की खोज कर रहा है, इसलिए ज्यादा दुखी भी होगा। आप ज्यादा दुखी नहीं हैं, क्योंकि आप ज्यादा सुख की खोज नहीं कर रहे। लेकिन आपकी हालत मैं बहुत बेहतर नहीं मानता। अगर मुझे आप और अमेरिका में चुनना पड़े तो मैं अमेरिका को चुनूंगा, आपको नहीं चुनूंगा। उसके कारण हैं। उसके कारण ये हैं कि अमेरिका जो खोज कर रहा है वह अभी बीस-पच्चीस-तीस साल की खोज है। अगर अमेरिका के प्रयोग को दो सौ साल का मौका मिला तो अमेरिका अधिकतम सुख को खोज लेगा। और आप पांच हजार साल से इस प्रयोग को कर रहे हैं और किसी तरह का सुख नहीं खोज पाए हैं। और आपका प्रयोग अच्छी तरह असफल हो गया है। अमेरिका के प्रयोग को मौका मिलने दें, वक्त मिलने दें।

और अमेरिका के दुख की जो बातें हिंदुस्तान में की जाती हैं, वह वे लोग करते हैं जो हिंदुस्तान की व्यवस्था को कायम रखना चाहते हैं। वे बताते हैं कि देखो वहां कितना दुख है!

निश्चित ही वहां दुख होगा। वहां दुख होना निश्चित है। उस दुख का कारण है कि उन्होंने सुख को मांगा है। जो भी सुख को मांगेगा वह दुख को भी बुला रहा है। अगर मैं पहाड़ पर चढ़ना चाहूंगा तो मैं खाई में गिरने का खतरा मोल लेता हूं। अगर खाई में न गिरना हो तो सीधी जमीन पर चलना उचित है। सीधी जमीन पर चलने वाला कह सकता है कि देखो वह जो एवरेस्ट पर चढ़ रहा था, मर गया, खाई में गिर गया। हम कभी नहीं गिरते।

आप कभी नहीं गिरते, यह सच है। लेकिन आप कभी उठते भी नहीं, यह भी सच है। और आप गिरते इसीलिए नहीं कि आप कभी चढ़ते ही नहीं। पर मैं मानता हूं कि जोखिम, रिस्क लेनी ही चाहिए।

और यह भी मैं जानता हूं कि अमेरिका में परिवार सुस्थिर नहीं रह गया है, नहीं रह जाएगा। अगर परिवार को सुस्थिर रखना है तो प्रेम से बचाना जरूरी है। अगर परिवार को स्थिर रखना है तो प्रेम को काट कर परिवार बनाना जरूरी है। तब परिवार एक डेड इंस्टीट्यूशन है जो मरेगी नहीं, क्योंकि वह पहले से मरी हुई है। मुर्दे कभी नहीं मरते। इसलिए हो सकता है कब्रों में गड़े मुर्दे यह सोचते हों कि हम बड़े मजे में हैं, क्योंकि हम कभी नहीं मरते। बस्ती में जो लोग हैं वे बड़े दुख में हैं, क्योंकि उन्हें मरना पड़ता है। असल में जो व्यवस्था मरी हुई होती है वह कभी नहीं मरती।

अमेरिका ने खतरा लिया है। और मैं चाहता हूं कि हिंदुस्तान के बेटे और बेटियां भी वह खतरा लें। क्यों मैं चाहता हूं? क्योंकि उस खतरे के लेने के साथ तकलीफ तो आएगी, जोखिम तो आएगी, लेकिन सुख की संभावना भी आएगी। और जब सुख और दुख की संभावना पूरी तरह आएगी तो हमारे हाथ में है कि हम क्या चुनते हैं। अगर हमें दुख चुनना है तो हम दुख चुन सकते हैं, अगर सुख चुनना है तो हम सुख चुन सकते हैं।

इसी मुल्क ने ऐसा इंतजाम किया है कि चुनाव आपके हाथ में ही नहीं है।

एक बड़ी मजेदार बात है। मां को हम बदल नहीं सकते कभी, मेरी मां जो है वह है। क्योंकि मैं पैदा हो गया; अब मां अपरिवर्तनीय है। पिता को मैं नहीं बदल सकता, वे मेरे पिता हैं, और होंगे। मैं अपने भाई को नहीं बदल सकता, बहन को नहीं बदल सकता। ये सब गिवेन फैक्टर्स हैं। इनको मैं पाता हूं। ये मेरे निर्णय नहीं हैं। सिर्फ एक निर्णय है मेरी जिंदगी में कि मैं एक पत्नी को चुन सकता हूं। और तो कोई निर्णय नहीं है। बाकी सब संबंध तय हैं। हिंदुस्तान की तरकीब ऐसी थी कि पत्नी को भी गिवेन बना दिया था। उसको भी चुनने का उपाय नहीं था। आदमी जब होश में आता तब वह पत्नी पाता कि है ही मौजूद। जब वह प्रेम करने योग्य होता, तब उसे पता चलता कि पत्नी मौजूद है, पति मौजूद है। ये भी गिवेन फैक्टर्स थे।

लेकिन ध्यान रहे, जिंदगी जितना चुनाव करती है उतनी मुक्त होती है। मैं मानता हूं कि यह व्यक्ति का एक अधिकार, बहुत बड़ा अधिकार भारत के परिवार ने छीन रखा था। यह व्यक्ति को मिलना चाहिए। निश्चित ही जहां अधिकार मिलता है वहां भूल होती है। जहां अधिकार होता है वहां भूल की संभावना है। कैदी कोई भूल नहीं करते, क्योंकि हाथ में जंजीरें होती हैं। भूल तो स्वतंत्र लोग करते हैं, जहां हाथ में जंजीरें नहीं होतीं। लेकिन फिर भी मैं राजी नहीं हूं कि कैदी होना बेहतर है, क्योंकि वहां कोई भूल नहीं होती। मैं राजी हूं कि सड़क पर होना बेहतर है, जहां भूल हो सकती है।

लेकिन वह भूल हम करें, यह जरूरी नहीं है। अमेरिका में जो भूल हो रही है वह हम करें, यह जरूरी नहीं है। और अमेरिका के बच्चे भी बहुत ज्यादा दिन तक करेंगे, यह जरूरी नहीं है। और अमेरिका के बच्चे जो भूल कर रहे हैं उसके लिए अमेरिका के बच्चे जिम्मेवार नहीं हैं, अमेरिका की मरी हुई हजारों पीढ़ियां जिम्मेवार हैं। उसका कारण है। अगर हम किन्हीं बच्चों को भूखा रखें सैकड़ों वर्ष तक और फिर एकदम से खाने की स्वतंत्रता मिल जाए, तो लोग अगर ज्यादा खा जाएं तो इसको खाने की स्वतंत्रता की जिम्मेवारी नहीं कहा जा सकता, यह हजारों साल की भूख का परिणाम है।

अमेरिका में हजारों साल तक जिस क्रिश्चियनिटी का प्रभाव था, सैकड़ों वर्षों से यूरोप में जो क्रिश्चियनिटी प्रभावी है, उसने लोगों को सेक्सुअली स्टार्व किया है। उसने लोगों के सेक्स को दमन करवाया है। अब एकदम से स्वतंत्रता मिली है तो लोग दूसरी अति पर चले गए हैं। लेकिन ज्यादा दिन तक इस अति पर नहीं रहेंगे, वे वापस लौट आएंगे।

हम भी उसी हालत में हैं। हमें भी बहुत डर लगता है कि अगर हमने प्रेम के लिए स्वतंत्रता दी तो परिवार कहीं टूट न जाए।

लेकिन मैं यह कहता हूं कि अगर प्रेम के बिना परिवार बचता हो तो भी बचाने योग्य नहीं है। क्योंकि किसलिए बचा रहे हैं उसे? और अगर प्रेम के साथ परिवार टूटता भी हो तो भी यह जोखिम उठाने जैसी है।

लेकिन मैं नहीं मानता कि प्रेम के साथ परिवार टूट ही जाएगा। सौ-पचास वर्षों के संक्रमण में, ट्रांसमिशन में परिवार उखड़ सकता है, लेकिन परिवार वापस लौट आएगा।

रूस में जब पहली दफा तलाक शुरू हुआ तो तलाक का आंकड़ा एकदम बढ़ गया। तीस और पैंतीस परसेंट तक तलाक चला गया। रूस के नेता बहुत घबड़ाए और उन्होंने कहा कि अगर ऐसा होगा तब तो सौ परसेंट तलाक हो जाएंगे। लेकिन उन्होंने हिम्मत जारी रखी, तलाक का आंकड़ा नीचे गिर गया। आज रूस में केवल पांच प्रतिशत तलाक रह गया। और रूस के विचारकों का ख्याल है कि आने वाली सदी में यह तलाक और कम हो जाएगा।

असल में कोई भी बंधन से जब एकदम छूटता है तो दूसरी अति पर चला जाता है। अमेरिका में वैसा हुआ है। वैसा हम भी करें, यह जरूरी नहीं है। लेकिन अगर हमने अपने बच्चों को बहुत दिन तक रोका तो वही होगा जो अमेरिका के बाप ने अपने बच्चों को रोक कर करवाया है।

अगर हिंदुस्तान के मां-बाप समझदार हैं तो उन्हें धीरे-धीरे शिथिलता कर देनी चाहिए और धीरे-धीरे बंधन ढीले कर देने चाहिए। एकदम से नहीं, बहुत आहिस्ता से बंधन गिर जाने चाहिए कि हमें कभी पता न चले कि हम कब बंधनों के बाहर हो गए। अगर एकदम से बंधन गिरते हैं तो खतरे होते हैं। अमेरिका में जो खतरा हुआ है वह हमें करने की जरूरत नहीं है। लेकिन अमेरिका के खतरे से डर कर, हम जो हैं, हमें वही बने रहने की तो और भी जरूरत नहीं है।

इसके और बहुत से पहलू हैं, जो मैं दुबारा आऊं तो आपसे बात कर सकूं। लेकिन एक बात, मैं जो भी कहता हूं वह मानने की आवश्यकता नहीं है। मैं जो भी कहता हूं वह सिर्फ सोचने के लिए पर्याप्त है। आप सोचें, इतना काफी है। मुझसे राजी हों, यह जरूरी नहीं है। मैं इतना ही कर पाऊं कि आप सोचने में प्रवृत्त हो जाएं, तो मेरा काम पूरा हो जाता है। आप मुझसे राजी होंगे, इसकी मेरी अपेक्षा नहीं है। जल्दी किसी से राजी होना भी नहीं चाहिए, वह कमजोर मस्तिष्क का सबूत है। सोचना चाहिए, लड़ना चाहिए, झगड़ना चाहिए। अपने मन में पूरी तरह लड़ें-झगड़ें मुझसे।

मैं तो आपके पिं्रसिपल को कहा हूं कि दुबारा जब आऊं, तो जितना मैं बोलूं उससे ज्यादा वक्त पीछे मुझसे प्रश्न करने के लिए छोड़ दें।

लेकिन मैं एक दुखद सूचना आपको दूं कि सवाल एक पुरुष ने ही पूछा, स्त्रियों ने नहीं पूछा। यह जरा दुखद बात है। अगली बार जब आऊं तो आपको सवाल पूछने चाहिए। क्योंकि पुरुष ही हमेशा सवाल और जवाब कर लेंगे आपस में तो आप कब निर्णायक बनेंगी? सवाल आपसे पूछा जाना चाहिए था। आपकी भी फिक्र एक पुरुष को ही करनी पड़ी कि कहीं परिवार न टूट जाए! परिवार स्त्री का प्राण है। कहीं बच्चे न बिगड़ जाएं! बच्चों की चिंता मां का हृदय है। लेकिन वह भी एक पुरुष को पूछना पड़ता है, वह भी स्त्रियां नहीं पूछतीं तो दुख होता है।

दुबारा जब आऊं तब मैं आशा रखूंगा कि आप बहुत से सवाल तैयार रखेंगी। और अच्छी तरह लड़ें! क्योंकि मैं कोई गुरु नहीं हूं जो कि मनवाने को उत्सुक है। मैं तो सिर्फ इसमें उत्सुक हूं कि सारा मुल्क पूछने लगे। अगर पूरा मुल्क पूछने लगे, तो जो सत्य है, हम उसके करीब रोज-रोज पहुंच सकते हैं।

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