शिव-सूत्र-(प्रवचन-10)

साक्षित्‍व ही शिवत्‍व है—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 20 सितंबर, 1974,

प्रात: काल, श्री ओशो आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

सुखासुखयोर्बहिर्मननमू

तद्विमुक्तस्तु केवली।

तदारूढप्रमितेस्तन्धयाज्जीवसंक्षय

भूतकंचुकी तदाविमुक्तो भूय: पतिसम: पर:।  

ओम, श्री शिवार्पण अस्तु।

सुख—दुख बाह्य वृत्तियां है—ऐसा सतत जानता है 1 और उनसे विमुक्त—वह केवली हो जाता है। उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा—क्षय के कारण जन्म—मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है। ऐसा भूत—कंचुकी विमुक्त पुरुष परम शिवरूप ही होता है। Continue reading “शिव-सूत्र-(प्रवचन-10)”

शिव-सूत्र-(प्रवचन-09)

साधो, सहज समाधि भली!—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 19 सितंबर, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रात: काल,

सारसूत्र:

कथाजप:।

दानमात्मज्ञानमू

योऽविपस्थोज्ञाहेतुक्ष्च

स्वशक्तिप्रचयोऽस्थविश्वमू

स्थितिलयौ

वे जो भी बोलते हैं वह जप है। आत्मज्ञान ही उनका दान है। वह अंतदशक्तियों का स्वामी है और ज्ञान का कारण है। स्वशक्ति का प्रचय अर्थात् सतत विलास ही इसका विश्व है। और वह स्वेच्छ से स्थिति और लय करता है। Continue reading “शिव-सूत्र-(प्रवचन-09)”

शिव-सूत्र-(प्रवचन-08)

जिन जागा तिन मानिक पाइया—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 18 सितंबर,1974; श्री ओशो आश्रम,पूना।

प्रात:काल,

सारसूत्र:

त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेव्यम्

मग्‍न: स्वचित्ते प्रविशेत्।

प्राणसमाचारे समदर्शनम्।

शिवतुल्यो जायते।

तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था का तेल की तरह सिंचन करना चाहिए ऐसा मग्‍न हुआ स्व—चित्त में प्रवेश करे। प्राणसमाचार (अर्थात सर्वत्र परमात्म—ऊर्जा का प्रस्‍फुरण है—ऐसा अनुभव कर) से समदर्शन को उपलब्ध होता है। और वह शिवतुल्य हो जाता है! Continue reading “शिव-सूत्र-(प्रवचन-08)”

शिव-सूत्र-(प्रवचन-07)

ध्‍यान अर्थात चिदात्‍म सरोवर में स्‍नान—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 17 सितंबर, 1974;श्री ओशो आश्रम, पूना।

प्रात: काल,

सारसूत्र:

बीजावधानम्।

आसस्थ: सुखं हृदे निमजति।

स्वमात्रा निर्माणमापादयति।

विद्याऽविनाशे जन्मविनाश:।

ध्यान बीज है। आसनस्थ अर्थात स्व—स्थित व्यक्ति सहज ही चिदात्म सरोवर में निमज्जित हो जाता है और आत्म—निर्माण अर्थात द्विजत्व को प्राप्त करता है। विद्या का अविनाश जन्य का विनाश है। Continue reading “शिव-सूत्र-(प्रवचन-07)”

शिव-सूत्र-(प्रवचन-06)

दृष्‍टि ही सृष्‍टि है—(प्रवचन—छठवां) 

दिनांक 16 सितंबर, 1974, श्री ओशो आश्रम, पूना।

प्रात: काल।

सारसूत्र:

नर्तक: आत्‍मा।

रड्गोउन्‍तरात्‍मा।

धीवशात् सत्‍वसिद्धि:।

सिद्ध: स्‍वतन्‍त्र भाव:।

विसर्गस्‍वाभाव्‍यादबहि: स्‍थितेस्‍तत्‍स्‍थिति।

आत्‍मा नर्तक है। अंतरात्‍मा रंगमंच है। बुद्धि के वश में होने से सत्‍व की सिद्धि होती है। और सिद्ध होने से स्‍वातंत्र्य फलित होता है। स्‍वतंत्र स्‍वभाव के कारण वह अपने से बाहर भी जा सकता है और वह बाहर स्‍थित रहते हुए अपने अंदर भी रह सकता है। Continue reading “शिव-सूत्र-(प्रवचन-06)”

शिव-सूत्र-(प्रवचन-05)

संसार के सम्‍मोहन और सत्‍य का आलोक—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 15 सितंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना।

प्रात: काल।

सारसूत्र:

आत्‍मा चित्‍तम्।

कलादीनां तत्‍वानामविवेको माया।

मोहावरणात् सिद्धि:।

जाग्रद् द्वितीय कर:।

      आत्‍मा चित्‍त है। कला आदि तत्‍वो का अविवेक ही माया है। मोह आवरण से युक्‍त को सिद्धियां तो फलित हो जाती है। लेकिन आत्‍मज्ञान नहीं होता है। स्‍थाई रूप से मोह जय होने पर सहज विद्या फलित होती है। ऐसे जाग्रत योगी को, सारा जगत मेरी ही किरणों का प्रस्‍फुरण है—ऐसा बोध होता है। Continue reading “शिव-सूत्र-(प्रवचन-05)”

शिव-सूत्र-(प्रवचन-04)

चित्त के अतिक्रमण के उपाय—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 14 सितंबर, 1974, श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रात:काल,

सारसूत्र:

चितं मंत्र:

प्रयत्‍न: साधक:।

गुरु: उपाय:।

शरीरं हवि:।

ज्ञानमन्‍नम्।

विद्यासंहारे तदुत्‍थस्‍वप्‍नदर्शनम्।

चित्‍त ही मंत्र है। प्रयत्‍न ही साधक है। गुरु उपाय है। शरीर हवि है। ज्ञान ही अन्‍न है। विद्या के संहार से स्‍वप्‍न पैदा होते है। Continue reading “शिव-सूत्र-(प्रवचन-04)”

शिव-सूत्र-(प्रवचन-03)

योग के सूत्र: विलय, वितर्क, विवेक—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 13 सितंबर, 1974, श्री रजनीश आश्रम, पूना.

प्रात : काल,

सारसूत्र:

विस्मयो योगभूमिका:।

स्वपदंशक्ति।

वितर्क आत्मज्ञानमू।

लोकानन्द: समाधिसुखम्।

विस्मय योग की भूमिका है। स्वयं में स्थिति ही शक्ति है। वितर्क अर्थात विवेक आत्मज्ञान का साधन है। अस्तित्व का आनंद भोगना समाधि है। Continue reading “शिव-सूत्र-(प्रवचन-03)”

शिव-सूत्र-(प्रवचन-02)

जीवन—जागृति के साधना—सूत्र—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 12 सितंबर, 1874; श्री ओशो आश्रम, पूना।

प्रात: काल।

सूत्र:

जाग्रतस्‍वप्‍नसुषुप्तभेदे तुर्याभोग सवित।

ज्ञानं जाग्रत।

स्वप्रोविकल्पा:।

अविवेको मायासौषुप्तमू।

त्रितयभोक्ता वीरेश:।

जाग्रत स्‍वप्‍न और सुषुप्‍ति— इन तीनों अवस्थाओं को पृथक रूप से जानने से तुर्यावस्था का भी ज्ञान हो जाता है ज्ञान का बना रहना ही जाग्रत अवस्था है। Continue reading “शिव-सूत्र-(प्रवचन-02)”

शिव-सूत्र-(प्रवचन-01)

जीवन—सत्य की खोज की दिशा—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 11 सितंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना। प्रात: काल।

सूत्र:

ओंम नम: श्रीशंभवे स्वात्मानन्दप्रकाशवपुषे।

अथ

शिव—सूत्र:

चैतन्यमात्मा

ज्ञानं बन्ध:।

योनिवर्ग: कलाशरीरम्।

क्समो भैरव:।

शक्तिचक्रसंधाने विश्वसंहार:।

ओंम स्वप्रकाश आनंद—स्वरूप भगवान शिव को नमन Continue reading “शिव-सूत्र-(प्रवचन-01)”

शिव-सूत्र -(ओशो)

शिव—सूत्र—(ओशो)

(समाधि साधपा शिवर, श्री ओशो आश्रम, पूना। दिनांक 11 से 20 सितंबर, 1974 तक ओशो द्वारा दिए गए दस अमृत—प्रवचनो का संकलन।
भूमिका:
धर्म की यात्रा के साधन क्या है? इस प्रश्र का समाधान प्रज्ञापुरुषों ने अपने अपने ढंग से किया है। परंतु सभी ने इस बात का स्पष्ट संकेत दिया है कि कोई भी साधन तभी उपयोगी हो सकता है जब साधक गहन से गहनतर चुनौतियों को झेलने के लिए अपने पूरे प्राणपण से तलर हो, कि वह स्वयं एक ऐसी आग में से गुजरने के लिए प्रतिबद्ध हो जो उसकी चेतना को पूरी तरह निखार सके।
परंतु यह यात्रा, इस यात्रा के साधन, और चुनौतियों का सामना करने के योग्य सामर्थ्य यह सब निर्भर करता है एक मुख्य तत्व पर—यात्रा का मार्गदर्शक। दूसरे शब्दों में, मात्र सद्गुरु ही सही साधन उपलब्ध कराते है। सदगुरू स्वयं एक चिरंतन प्रज्वलित अग्रि है जिसकी ऊर्जा व्यक्ति की चेतना को रूपांतरित कर देती है। चुनौती है सद्गुरु, उसके निकट आकर जैसे थे वैसे रह पाना असंभव है।

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