जीवन क्रांति की दिशा-(प्रवचन-04)

जीवन क्रांति की दिशा-(शून्य समाधि)

चौथा प्रवचन–मैं कौन हूं?

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक गांव में एक आदमी पागल हो गया था, वह जगह-जगह खड़े होकर पूछने लगा था कि मैं कौन हूं? एक ही बात पूछने लगा था कि मैं कौन हूं? सारे गांव के लोगों ने समझ लिया था कि वह पागल हो गया है। मैं भी उस गांव में गया था। उस आदमी को मैंने भी चिल्लाते सुना कि मैं कौन हूं? दिन में, रात में, सुबह-सांझ, मकान में, सड़क पर, बाजार में वह आदमी यही चिल्लाता घूमता था कि मैं कौन हूं? कोई मुझे बता दे कि मैं कौन हूं? Continue reading “जीवन क्रांति की दिशा-(प्रवचन-04)”

जीवन क्रांति की दिशा-(प्रवचन-03)

जीवन क्रांति की दिशा-(शून्य समाधि)

तीसरा प्रवचन–जीवन में जागरूकता

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा आरंभ करूंगा।

एक पूर्णिमा की रात में एक छोटे से गांव में बड़ी अदभुत घटना घट गई थी। कुछ जवान लड़कों ने शराबखाने में जाकर शराब पी ली थी, और जब वे शराब के नशे में मदमस्त हो गए थे, और शराब-गृह से बाहर निकले थे, तो उन्हें ऊपर चांद की बरसती हुई चांदनी में यह ख्याल आ गया कि हम जाएं नदी पर और नौका विहार करें।

रात बड़ी सुंदर थी और मन उनके नशे से भरे हुए थे। वे गीत गाते हुए नदी के किनारे पहुंच गए। नाव वहां बंधी थी। मछुवे नावें बांध कर अपने घर जा चुके थे। रात आधी हो गई थी। वे युवक एक नाव में सवार हो गए। उन्होंने पतवारें उठा लीं और नाव को खेना शुरू कर दिया। फिर वे देर रात तक नाव खेते रहे। सुबह होने के करीब आ गई। Continue reading “जीवन क्रांति की दिशा-(प्रवचन-03)”

जीवन क्रांति की दिशा-(प्रवचन-02)

जीवन क्रांति की दिशा-(शून्य समाधि)

दूसरा प्रवचन–जीवन में रहस्य-भाव

मेरे प्रिय आत्मन्!

जीवन ही परमात्मा है। जीवन के अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं। जीवन को जीने की कला जो जान लेते हैं वे प्रभु के मंदिर के निकट पहुंच जाते हैं। और जो जीवन से भागते हैं वे जीवन से तो वंचित होते ही हैं, परमात्मा से भी वंचित हो जाते हैं। इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। पहला सूत्र मैंने कल आपसे कहा है: जीवन के प्रति अहोभाव, जीवन के प्रति आनंद और अनुग्रह की भावना। Continue reading “जीवन क्रांति की दिशा-(प्रवचन-02)”

जीवन क्रांति की दिशा-(प्रवचन-01)

जीवन क्रांति की दिशा-(शूून्य समाधि)

पहला प्रवचन–जीवन के प्रति अहोभाव

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं एक नये बनते हुए मंदिर के पास से निकलता था। मंदिर की दीवालें बन गई थीं। शिखर निर्मित हो रहा था। मंदिर की मूर्ति भी निर्मित हो रही थी। सैकड़ों मजदूर पत्थर तोड़ने में लगे थे। मैंने पत्थर तोड़ते एक मजदूर से पूछा: मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने बहुत गुस्से से मुझे देखा और कहा: क्या आपके पास आंखें नहीं हैं? क्या आपको दिखाई नहीं पड़ता? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। कोई क्रोध होगा उसके मन में, कोई निराशा होगी। और पत्थर तोड़ना कोई आनंद का काम भी नहीं हो सकता है। Continue reading “जीवन क्रांति की दिशा-(प्रवचन-01)”

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