दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-09)

सतगुरु करहु जहाज—(प्रवचन-नौवां)

दिनांक 29 जनवरी 1979श्री ओशो आश्रम, पूना

सारसूत्र :

पांच तत्त की कोठरी, तामें जाल जंजाल।

जीव तहां बासा करै, निपट नगीचे काल।।

दरिया तन से नहिं जुदा, सब किछु तन के माहिं।

जोग-जुगति सौं पाइये, बिना जुगति किछु नाहिं।।

दरिया दिल दरियाव है अगम अपार बेअंत।

सब महं तुम, तुम में सभे, जानि मरम कोइ संत।।

माला टोपी भेष नहिं, नहिं सोना सिंगार।

सदा भाव सतसंग है, जो कोई गहै करार।। Continue reading “दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-09)”

दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-08)

मिटो: देखो: जानो—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 28 जनवरी 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार :

1—भगवान, क्या संतोष रखकर जीना ठीक नहीं है?

2—भगवान, इटली के नए वामपक्ष (न्यू लेफ्ट) के अधिकांश नौजवान आपसे संबंधित होते जा रहे हैं। आप क्या इसे वामपक्ष विकास मानेंगे या अपने प्रयोग के सही बोध की विकृति?

3—नीति और धर्म में क्या भेद है?

4—भगवान, भक्त की चरम अवस्था के संबंध में कुछ कहें! Continue reading “दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-08)”

दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-07)

निर्वाण तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 जनवरी 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना

सारसूत्र :

तीनी लोक के ऊपरे, अभय लोक बिस्तार

सत्त सुकृत परवाना पावै, पहुंचै जा करार।

जोतिहि ब्रह्मा, बिस्नु हहिं, संकर जोगी ध्यान।

सत्तपुरुष छपलोक महं, ताको सकल जहान।।

सोभा अगम अपार, हंसवंस सुख पावहीं।

कोइ ग्यानी करै विचार, प्रेमतत्तुर जा उर बसै।।

जो सत शब्द बिचारै कोई। अभय लोक सीधारै सोई।।

कहन सुनन किमिकरि बनि आवै। सत्तनाम निजु परवै पावै।। Continue reading “दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-07)”

दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-06)

आज जी भर देख लो तुम चांद को—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 जनवरी 1979;   श्री ओशो आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार :

1—भगवान, आपके प्रेम में बंध संन्यास ले लिया है। और अब भय लगता है कि पता नहीं क्या होगा?

2—क्या आपकी धारणा के भारत पर कुछ कहने की मेहरबानी करेंगे?

3—जीवन व्यर्थ क्यों मालूम होता है? आपके पास आने पर अर्थ की थोड़ी झलक मिलती है, पर वह खो-खो जाती है।

4—आपने मेरे हृदय में प्रभु-प्रेम की आग लगा दी है। अब मैं जल रहा हूं। भगवान, इस आग को शांत करें!

5—मैं संन्यास तो लेना चाहता हूं, पर अभी नहीं। सोच-विचार कर फिर आऊंगा। आपका आदेश क्या है? Continue reading “दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-06)”

दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-05)

दरिया कहै शब्द निरबाना–पांचवां

दिनांक 25 जनवरी 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना

मौन लहरें

…आज शब्दों के मालिक ने निःशब्द का खजाना लुटाया।

भगवान हमारे बीच शरीर नहीं आए।

…सहसा भगवान की तीव्र उपस्थिति ने हमें हर ओर से घेरना व डुबाना

शुरू कर दिया।

उनकी वह उपस्थिति एक सागर,

एक दरिया बनती गयी, जिसमें लहरें ही लहरें, Continue reading “दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-05)”

दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-04)

मौन लहरें

दिनांक 24 जनवरी 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना

…आज शब्दों के मालिक ने निःशब्द का खजाना लुटाया।

भगवान हमारे बीच शरीर नहीं आए।

…सहसा भगवान की तीव्र उपस्थिति ने हमें हर ओर से घेरना व डुबाना

शुरू कर दिया।

उनकी वह उपस्थिति एक सागर,

एक दरिया बनती गयी, जिसमें लहरें ही लहरें,

लहरें ही लहरें, अनंत लहरें,

…लहरें पर लहरें…

हम डूबते गए…खोते गए…मिटते गए…

 

 

 

दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-03)

भजन भरोसा एक बल—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 23 जनवरी 1979 श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र :

बेवाह के मिलन सों, नैन भया खुसहाल।

दिल मन मस्त मतवल हुआ, गूंगा गहिर रसाल।।

भजन भरोसा एक बल, एक आस बिस्वास।

प्रीति प्रतीति इक नाम पर, सोइ संत बिबेकी दास।।

है खुसबोई पास में, जानि परै नहिं सोय।

भरम लगे भटकत फिरे, तिरथ बरत सब कोय।। Continue reading “दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-03)”

दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-02)

वसंत तो परमात्मा का स्वभाव है—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 22 जनवरी, 1979;, श्री ओशो आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार :

1—आपने संन्यासरूपी प्रसाद दिया है, वह पचा सकूंगी या नहीं?

2—मैं वृद्ध हो गया हूं, सोचता था कि अब मेरे लिए कोई उपाय नहीं है। लेकिन…भगवान, यह क्या हो रहा है? मैं कोई स्वप्न तो नहीं देख रहा हूं?

3—भगवान,

प्रेम की चुनरी ओढ़ा दी है आपने।

खूब-खूब अनुग्रह से भर गयी हूं।

बहाने और भी होते जो जिंदगी के लिए

हम एक बार तेरी आरजू भी खो देते Continue reading “दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-02)”

दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-01)

अबरि के बार सम्हारी—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 21 जनवरी 1976;, श्री ओशो आश्रम, पूना

सारसूत्र :

भीतर मैल चहल कै लागी, ऊपर तन धोवै है।

अविगत मुरति महल कै भीतर, वाका पंथ न जोवे है।।

जगति बिना कोई भेद न पौवे, साध-सगति का गोवे हैं।।

कह दरिया कुटने बे गोदी, सीस पटकि का रोवे है।।

विहंगम, कौन दिसा उड़ि जैहौ।

नाम बिहूना सो परहीना, भरमि-भरमि भौर रहिहौ।।

गुरुनिन्दर वद संत के द्रोही, निन्दै जनम गंवैहौ।

परदारा परसंग परस्पर, कहहु कौन गुन लहिहौ।। Continue reading “दरिया कहैै शब्द निरवाना-(प्रवचन-01)”

दरिया कहै शब्द निरबाना-(दरिया बिहारवाले)-ओशो

दरिया कहै शब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले)–(ओशो)

 21जनवरी, 1979 से Jan 31 जनवरी, 1979 तक ओशाो आश्रम पूना।

 रिया जैसे व्यक्ति के शब्द दरिया के भीतर जन्म गए शून्य से उत्पन्न होते हैं।

वे उसके शून्य की तरंगें हैं। वे उसके भीतर हो रहे अनाहत नाद में डूबे हुए आते हैं। और जैसे कोई बगीचे से गुजरे, चाहे फूलों को न भी छुए और चाहे वृक्षों को आलिंगन न भी करे, लेकिन हवा में तैरते हुए पराग के कण, फूलों की गंध के कण उसके वस्त्रों को सुवासित कर देते हैं। कुछ दिखायी नहीं पड़ता कि कहीं फूल छुए, कि कही कोई पराग वस्त्रों पर गिरी, अनदेखी ही, अदृश्य ही उसके वस्त्र सुवासित हो जाते हैं। गुलाब की झाड़ियों के पास से निकलते हो तो गुलाब की कुछ गंध तुम्हें घेरे हुए दूर तक पीछा करती है। ऐसे ही शब्द जब किसी के भीतर खिले फूलों के पास से गुजर कर आते हैं तो उन फूलों की थोड़ी गंध ले आते हैं। मगर गंध बड़ी भनी है। गंध अनाक्रामक है। Continue reading “दरिया कहै शब्द निरबाना-(दरिया बिहारवाले)-ओशो”

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