नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-16)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-सौहलवां 

दिनांक 09 जून सन् 1974,  ओशो आश्रम, पूना।

नहिं राम बिन ठांव

राम की शरण जाने का अर्थ है एक मालिक। इसलिए राम से तुम यह मत समझना कि दशरथ के बेटे राम का कोई संबंध है। राम से तुम्हारे भीतर छिपे हुए ब्रह्म का संबंध है। तुम राम हो। तुम शरीर नहीं हो, तुम आत्मा हो।

प्रश्न:

भगवान श्री, आपके वचनों से संकेत मिलता है कि

आने वाले दस वर्ष मनुष्य-जाति के लिए बहुत संकटपूर्ण, सांघातिक और निर्णायक होने वाले हैं।

और आपका आगमन भी शायद इस बात से संबंधित है कि इस आसन्न विपदा से मनुष्य को

कम से कम क्षति हो तथा संस्कृति और धर्म के मूल्यों को अधिक से अधिक बचाया जाए। Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-16)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-15)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-पंद्रहवां   

दिनांक 08 जून सन् 1974,  ओशो आश्रम, पूना।

मंदिर के द्मद्वार खुले हैं

मैं तुम्हारा द्वार खटखटाता हूं, तुम्हें आश्वासन देता हूं, तुम्हें भरोसा देता हूं कि डरने का कोई भी कारण नहीं है। जो तुम छोड़ोगे, वह कचरा है। जो तुम पाओगे, वह महान संपदा है।

प्रश्न:

भगवान, आपने एक पत्र में लिखा है: असमंजस में न रहो, पीछे मत देखो। मंदिर के द्वार पूरे खुले हैं। हजारों साल के बाद ऐसा अवसर पृथ्वी पर उतरता है। और जान लो कि ये द्वार सदा खुले नहीं रहेंगे। आसानी से यह अवसर खो भी सकता है। इसलिए मैं बार-बार पुकार रहा हूं, आओ और प्रवेश करो! मैं दरवाजे पर खड़ा दस्तक पर दस्तक दे रहा हूं। और दस्तक इसलिए देता हूं कि किसी अन्य जन्म में और अन्य युग में मैंने वचन दिया था। Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-15)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-14)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-चौहदवां   

दिनांक 07 जून सन् 1974, ओशो आश्रम, पूना।

कबीर की उलटबांसी

जहां भी तुम्हें पैराडाक्स, उलटबांसी दिखाई पड़े, वहां रुक जाना, वहां से जल्दी मत करना जाने की, वहीं किसी सत्य की किरण तुम्हें मिल सकती है।

प्रश्न:

भगवान श्री, कबीर शब्दों को असमर्थ जानकर उनको उलटबांसियों में ढालते हैं। जैसे–

अंबर बरसै धरती भीजै यह जानै सब कोई।

धरती बरसै अंबर भीजै बूझै बिरला कोई।।

क्या है इसका मतलब? Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-14)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-13)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-तैहरवां   

दिनांक 06 जून सन् 1974,  ओशो आश्रम, पूना।

शरीर–एक मंदिर

यही ध्यानी का भाव होगा। शत्रुता गिरेगी, मित्रता घनी होगी, और हर तरफ से अनुग्रह प्रतीत होने लगेगा। उसका ही प्रसाद सब रूपों में है। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, शरीर मंदिर है।

प्रश्न:

भगवान! आपका ही वचन है, किसी भी दिशा में प्रकृति के प्रतिकूल होने का कोई उपाय नहीं है।

फिर प्रकृति के सागर में हम बहें या तैरें, उसके साथ मैत्री में जीएं या शत्रुता में,

प्रकृति का उल्लंघन कहां होता है!

लेकिन आप यह भी समझाते हैं कि प्रकृति के अनुकूल चलो, उसकी नदी में तैरो मत, बहो। Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-13)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-12)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-बाहरवां   

दिनांक 05 जून सन् 1974,  ओशो आश्रम, पूना।

शिवलिंग: परमभोग का आस्वाद

तो चाहे काम हो, चाहे क्रोध हो, चाहे कोई भी वेग हो, ध्यानी को उसे दूसरे से नहीं जोड़ना है। संसार का यही अर्थ है–मेरे भावावेगों के लिए दूसरा जरूरी है। संन्यास का यही अर्थ है–मेरे भावावेगों के लिए मैं अकेला काफी हूं।

प्रश्न:

भगवान श्री, कल आपने कहा कि क्रोध-घृणा आदि भावों को दूसरे पर न निकालें।

लेकिन ध्यान में जाने पर जब दमित काम-ऊर्जा बाहर कूद पड़ेगी,

तो उसके रेचन के लिए तो दूसरा आवश्यक ही है।

और यह काम-ऊर्जा जब भयंकर झंझावात की तरह अपने आदिम रूप में प्रकट होती है,

तो न तो नियंत्रण काम देता है और न साक्षीभाव। वह तो अभिव्यक्ति ही मांगती है। Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-12)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-11)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-ग्याहरवां 

दिनांक 04 जून सन् 1974,  ओशो आश्रम, पूना।

होतेई का झोला

सिद्धत्व उस दिन पूरा है, जिस दिन छोड़ा, छोड़े हुए में वापस रहने की कला भी आ गई। दूर हट गए और फिर पास भी आ गए, लेकिन अब संसार स्पर्श नहीं करता है।

प्रश्न:

भगवान, झेन फकीर होतेई कंधे पर झोला लटकाए घूमता,

बच्चों को मिठाइयां बांटता और उनके साथ सिर्फ खेला करता था।

जब रास्ते पर कोई झेन भक्त मिल जाता, तो वह नमस्कार करके उससे इतना ही कहता कि एक पैसा दे दो।

और जब कोई उससे कहता कि मंदिर में चलकर उपदेश करो, तब भी होतेई यही कहता कि एक पैसा दे दो।

एक बार जब वह बच्चों के साथ खेल रहा था, एक दूसरा झेन संत मिला, जिसने उससे पूछा: झेन का अर्थ क्या है? होतेई ने मूक उत्तर में अपना झोला जमीन पर डाल दिया। और जब उस संत ने पूछा कि झेन की उपलब्धि क्या है? Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-11)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-10)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-दसवां    

दिनांक 03 जून सन् 1974,  ओशो आश्रम, पूना।

माया मिली न राम

मन डांवाडोल रहे, तो ही जी सकता है; संतुलित हो जाए, मन खो जाता है।

जहां मन खोता है, वहीं समाधि है।

प्रश्न:

भगवान, बच्चों की बुद्धि का प्रशिक्षण आपने अनिवार्य बताया।

लेकिन क्या ध्यान का प्रशिक्षण भी युगपत देना चाहिए?

बहुत से संन्यासी परिवार वाले हैं।

उनको अपने बच्चों के प्रति कौन-सी दृष्टि रखनी चाहिए?

जोर किस बात पर होना चाहिए, इस पर कृपया प्रकाश डालिए। Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-10)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-09)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-नौवां     

दिनांक 02 जून सन् 1974,  ओशो आश्रम, पूना।

दो पक्षी: कर्ता और साक्षी

एक ही दुख है, स्वयं की वास्तविकता को भूल जाना। और एक ही आनंद है, स्वयं की वास्तविकता को पुनः उपलब्ध कर लेना।

प्रश्न:

भगवान, उपनिषद का प्रसिद्ध रूपक है, जिसका उल्लेख आपके वचनों में भी आया है।

दो पक्षी साथ रहने वाले हैं, और दोनों मित्र हैं। वे एक ही वृक्ष को आलिंगन किए हुए हैं।

उनमें से एक स्वाद वाले फल को खाता है और दूसरा फल न खाता हुआ केवल साक्षीरूप से रहता है।

उस वृक्ष पर एक पक्षी–जीव–आसक्त होकर, असमर्थता से धोखा खाता हुआ शोक करता है।

किंतु जब अपने दूसरे साथी–ईश–और उसकी महिमा को देखता है, तब शोक के पार हो जाता है। Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-09)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-08)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-आट्ठवां    

दिनांक 01 जून सन् 1974 , ओशो आश्रम, पूना।

एक कथा: दो अर्थ

कोई भी वासना मन को पकड़ ले, तो चेतना मूर्च्छित हो जाती है। या हम ऐसा कह सकते हैं कि जब भी चेतना मूर्च्छित होती है, तभी कोई वासना मन को पकड़ती है।

ये दोनों एक-दूसरे से जुड़ी घटनाएं हैं।

प्रश्न:

भगवान, भगवान बुद्ध एक कहानी कहा करते थे। एक आदमी को खेत में बाघ मिल गया। वह भागा।

बाघ ने भी उसका पीछा किया। वह एक भयानक खड्ड के किनारे पहुंच गया, जिसके आगे राह नहीं थी।

एक जंगली बेल की जड़ को पकड़कर, वह खाई के नीचे लटक गया। Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-08)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-07)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-सातवां     

दिनांक 31 मई सन् 1974, ओशो आश्रम, पूना।

सीता: प्रेम की अनन्य घटना

ध्यान और प्रेम करीब-करीब एक ही अनुभव के दो नाम हैं।

जब किसी दूसरे व्यक्ति के संपर्क में ध्यान घटता है, तो हम उसे प्रेम कहते हैं। और जब बिना किसी दूसरे व्यक्ति के, अकेले ही प्रेम घट जाता है, तो उसे हम ध्यान कहते हैं।

प्रश्न:

भगवान, आपके अनुसार ही, प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम तो टिकाऊ भी होता है, लेकिन पति-पत्नी का नहीं।

और कल आपने कहा कि राम और सीता का प्रेम अपने आप में इतना पूर्ण था कि

वे एक-दूसरे से आजीवन संतुष्ट रहे।

क्या यह संभव है? या यह नियम को सिद्ध करने वाला मात्र अपवाद है? Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-07)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-06)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-छट्ठवां    

दिनांक 30 मई सन् 1974, ओशो आश्रम, पूना।

राम: शून्यता की खोज

प्रेम से कभी ऊब पैदा नहीं होती, काम से ऊब पैदा होती है। क्योंकि प्रेम है हृदय का और

काम है इंद्रियों का।

प्रश्न:

अलग-अलग धर्मों ने अलग-अलग महामंत्र पाए हैं,

जैसे ॐ नमो शिवाय, नमो अरिहंताणं, अल्लाहो अकबर, ॐ मणि पद्मे हुम्।

तो ऐसे महामंत्र कौन सी अवस्था में उतरे हैं और इनका भीतर के कौन-कौन से केंद्रों से कैसा संबंध है?

और साधक इनमें से अपने लिए योग्य महामंत्र कैसे चुने? Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-06)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-05)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-पांचवां    

दिनांक 29 मई सन् 1974, ओशो आश्रम, पूना।

राम नाम की चदरिया

मैं तुम्हें आनंद के जगत में ले जाना चाहता हूं।

नाचती हुई शांति का नाम आनंद है। उत्सव से भरी, उमंग से भरी शांति का नाम आनंद है।

प्रश्न:

भगवान, जब से आपसे दीक्षित हुआ हूं, तब से आपसे डरने भी लगा हूं।

उसके पहले यह डर नहीं था मुझमें; यद्यपि मैं आजीवन भयभीत रहा हूं।

मुझे यह भी पता है कि जो प्रेम और स्वतंत्रता मुझे आपके सान्निध्य में मिली है,

वह मां-बाप के गिर्द भी कभी नहीं मिली।

और यदि आप जैसे आत्यंतिक प्रेम-पूर्ण गुरु की छाया में भी मैं भयमुक्त न हुआ,

तो और कहां हो पाऊंगा? यह भयमुक्ति कैसे संभव है? Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-05)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-04)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-चौथा     

दिनांक 28 मई सन् 1974,  ओशो आश्रम, पूना।

मुन्नट्ठी में हवा

प्रकृति एक पड़ाव है स्वभाव और संस्कार के बीच, वहां थोड़ी देर विश्राम जरूरी है। फिर वहां से आगे की यात्रा शुरू होती है, वह भीतर की तरफ है।

प्रश्न:

भगवान श्री, बुद्ध को ज्ञान हुआ वृक्ष के नीचे।

सुकरात के बारे में आप बताते हैं कि जिस दिन उसे ज्ञान की घटना घटी, वह वृक्ष के नीचे खड़ा था।

कृष्णमूर्ति के जीवन में भी इसी तरह का उल्लेख है

और आप स्वयं भी ज्ञान के दिन घर से निकलकर वृक्ष पर गए थे। Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-04)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-03)

 नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-तीसरा

दिनांक 27 मई सन् 1974, ओशो आश्रम, पूना।

रासलीला: पुरुष और प्रकृति का खेल

संसार में रहकर और संसार के न होना, शरीर में रहकर और शरीर के न होना, नदी से गुजरना और पैर गीले न हों, वही साक्षीभाव का सूत्र है।

प्रश्न:

भगवान, हम पाते हैं कि हमारी समझ से वृत्तियां ज्यादा मजबूत हैं।

होश से देखने पर घृणा,र् ईष्या, क्रोध,इन सारी वृत्तियों की लहरें

नाभि-केंद्र से उठती हुई दिखाई देती हैं।

साक्षीभाव और लहर का उठना एक साथ घटता है।

कृपया यह बताएं कि ये लहरें नाभि-केंद्र से क्यों उठती हैं? Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-03)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-02)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-दूसरा

दिनांक 26 मई सन् 1974, ओशो आश्रम, पूना।

मैं सिखाने नहीं, जगाने आया हूं

सिखाने का अर्थ है, जो आप नहीं जानते हैं, वह आपको शब्दों में बताया जाए। जगाने का अर्थ है कि जो आप नहीं हैं, वह आपको प्रक्रियाओं के द्वारा करवाया जाए।

प्रश्न:

भगवान, नहिं राम बिन ठांव पर प्रवचन सुनकर हमें आपका वह उदघोष याद आया,

जो आनंदशिला शिविर में मुखरित हुआ था–मैं सिखाने नहीं, जगाने आया हूं।

समर्पण करो और मैं तुम्हें रूपांतरित कर दूंगा, यह मेरा वचन है।

इस परम आश्वासन के सूत्र को कृपया विस्तार से हमें समझाएं।

साथ ही यह भी बताएं कि सीखने और जागने में फर्क क्या है?

और समर्पण और रूपांतरण में संबंध क्या है? Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-02)”

नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-01)

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो–प्रवचन-पहला

दिनांक 25 मई सन् 1974 , ओशो आश्रम, पूना।

राम-संकेत

निश्चित ही, मेरे करीब तुम्हें बहुत बार लगेगा, नहिं राम बिन ठांव। लेकिन यह मेरे बिना भी लगने लगे, यही तुम्हारे ध्यान में गंतव्य होना चाहिए।

प्रश्न:

भगवान श्री, इसके पूर्व कि हम पूछें, हम अपने प्रणाम और आभार निवेदित करते हैं।

संतों ने सदा कहा है: नहिं राम बिन ठांव।

यही आप भी कहते हैं।

शाब्दिक तल पर हम इससे परिचित हैं, इससे अधिक नहीं।

कृपापूर्वक बताएं कि इससे क्या अभिप्रेत है?

शब्द के तल पर जो परिचय है उसे परिचय कहना भी ठीक नहीं। धर्म के आयाम में, शब्द से बड़ा कोई धोखा नहीं है।

शब्द तो समझ में आ जाता है, उसमें जरा भी कठिनाई नहीं, लेकिन शब्द में जो छिपा है वह समझ के बाहर रह जाता है। वहीं असली कठिनाई है। Continue reading “नहीं राम बिन ठांव-(प्रवचन-01)”

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