तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन–जागरण के तीन सूत्र

मेरे प्रिय आत्मन्!

जो बाहर है, वह एक स्वप्न से ज्यादा नहीं है। और जो सत्य है, वह भीतर है। जो दृश्य है, वह परिवर्तन है। और जो द्रष्टा है, वह सनातन है।

सत्य की खोज में विज्ञान बाहर देखता है, धर्म भीतर देखता है। विज्ञान परिवर्तन की खोज है, धर्म शाश्वत की। और सत्य शाश्वत ही हो सकता है। इस शाश्वत सत्य की दिशा में तीसरा सूत्र साक्षीभाव है। द्रष्टा को खोजना है, तो द्रष्टा बने बिना और कोई रास्ता नहीं है।

लेकिन हम सब हैं सोए हुए लोग। हम सब करीब-करीब सोए-सोए जीते हैं, सोए-सोए ही जागते हैं। Continue reading “तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-07)”

तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन–परमात्मा की अनुभूति

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि क्या मैंने कभी परमात्मा को देखा है?

परमात्मा के संबंध में हम इस भांति सोचते हैं, जैसे उसे भी देखा जा सकता हो। जो देखा जा सकता है, वह संसार ही रहेगा। परमात्मा कभी भी देखा नहीं जा सकता; जो देख रहा है वह परमात्मा है।

इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

जो भी दिखाई पड़ता है उसका नाम ही संसार है और जिसको दिखाई पड़ता है उसका नाम परमात्मा है। इसलिए परमात्मा कभी दिखाई नहीं पड़ सकता है। Continue reading “तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-06)”

तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन–सत्य की खोज

मेरे प्रिय आत्मन्!

सत्य की खोज के संबंध में थोड़ी सी बात आपसे कहना चाहूंगा।

सत्य की क्या परिभाषा है? आज तक कोई परिभाषा नहीं हो सकी है। भविष्य में भी नहीं हो सकेगी। सत्य को जाना तो जा सकता है, लेकिन कहा नहीं जा सकता। परिभाषाएं शब्दों में होती हैं और सत्य शब्दों में कभी भी नहीं होता।

लाओत्से ने आज से कोई तीन हजार वर्ष पहले एक छोटी सी किताब लिखी। उस किताब का नाम है ताओ तेह किंग। उस किताब की पहली पंक्ति में उसने लिखा है: मैं सत्य कहने के लिए उत्सुक हुआ हूं, लेकिन सत्य नहीं कहा जा सकता है। Continue reading “तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-05)”

तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन–सत्य की छाया है शांति

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि क्या मैं साम्यवादी हूं? कम्युनिस्ट हूं?

बहुत मजेदार बात पूछी है। अगर परमात्मा कम्युनिस्ट है तो मैं भी कम्युनिस्ट हूं। और परमात्मा जरूर कम्युनिस्ट होना चाहिए, क्योंकि उसकी नजर में कोई भी असमान नहीं है, सभी समान हैं। और जिसकी नजर में सभी समान हैं, वह चाहता भी होगा कि सभी समान अगर न हों दूसरों की नजरों में, तो धीरे-धीरे समान हो जाएं।

महावीर कम्युनिस्ट रहे होंगे, और बुद्ध भी, और जीसस भी। हालांकि किसी ने उनसे कभी पूछा नहीं। और गांधी तो निश्चित ही कम्युनिस्ट रहे होंगे। गांधी से तो किसी ने पूछा भी, तो गांधी ने कहा कि मैं किसी भी कम्युनिस्ट से ज्यादा कम्युनिस्ट हूं। Continue reading “तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-04)”

तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन–संकल्प की कुंजी

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक बगीचे में मैं गया था। एक ही जमीन थी उस बगीचे की। एक ही आसमान था उस बगीचे के ऊपर। एक ही सूरज की किरणें बरसती थीं। एक सी हवाएं बहती थीं। एक ही माली था। एक सा पानी गिरता था। लेकिन उस बगीचे में फूल सब अलग-अलग खिले हुए थे। मैं बहुत सोच में पड़ गया। हो सकता है कभी किसी बगीचे में जाकर आपको भी यह सोच पैदा हुआ हो।

जमीन एक है, आकाश एक है, सूरज की किरणें एक हैं, हवाएं एक हैं, पानी एक है, माली एक है। लेकिन गुलाब पर गुलाबी फूल हैं, चमेली पर सफेद फूल हैं। सुगंध अलग है। एक ही जमीन और एक ही आकाश से और एक ही सूरज की किरणों से ये अलग-अलग फूल, अलग-अलग रंग, अलग-अलग सुगंध, अलग-अलग ढंग कैसे खींच लेते हैं? Continue reading “तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-03)”

तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-02)

दूसरा–प्रवचन

सात चक्रों की साधना

मेरे प्रिय आत्मन्!

अंतर की यात्रा पर चलने के पूर्व उस मार्ग से थोड़ा परिचित हो लेना जरूरी है जिस पर चलना पड़ता है। उन द्वारों को भी समझ लेना जरूरी है जिन्हें खटखटाना पड़ेगा। उन तालों को भी समझ लेना जरूरी है जिन्हें खोलना पड़ेगा।

जो यात्री यात्रा-पथ के संबंध में बिना जाने चल पड़े, उसके भटक जाने की ही ज्यादा संभावना है बजाय पहुंच जाने के। और बाहर के रास्ते तो दिखाई भी पड़ते हैं, भीतर का कोई रास्ता दिखाई भी नहीं पड़ता है। बाहर तो रास्तों के किनारे चिह्न भी लगे हैं कि रास्ते कहां जाते हैं, भीतर के रास्ते पर न कोई चिह्न हैं, न कोई माइल स्टोन हैं, न कोई प्रतीक हैं, अनचार्टर्ड! कोई नक्शा नहीं! शायद इसीलिए आदमी भीतर जितना भटकता है उतना बाहर नहीं भटकता। Continue reading “तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-02)”

तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-शांति की खोज

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्यता क्या है? मनुष्य क्या है? एक प्यास, एक पुकार, एक अभीप्सा!

जीवन ही एक पुकार है। जीवन ही एक अभीप्सा है। जीवन ही एक आकांक्षा है।

लेकिन आकांक्षा नरक की भी हो सकती है और स्वर्ग की भी। पुकार अंधकार की भी हो सकती है और प्रकाश की भी। अभीप्सा सत्य की भी हो सकती है और असत्य की भी।

चाहे हमें ज्ञात हो और चाहे हमें ज्ञात न हो, अगर हमने अंधकार को पुकारा होगा, तो हम अशांत होते चले जाएंगे। अगर हमने असत्य को चाहा होगा, तो हम अशांत होते चले जाएंगे। अगर हमने गलत को चाहा होगा, तो शांत होना असंभव है। शांति छाया है–ठीक की चाह से पैदा होती है। सम्यक चाह से शांति पैदा होती है। Continue reading “तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-01)”

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