शून्य के पार-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा -(कर्मः सबसे बड़ा धर्म)

मेरे प्रिय आत्मन्!

कर्म-योग पर आज थोड़ी बात करनी है।

बड़ी से बड़ी भ्रांति कर्म के साथ जुड़ी है। और इस भ्रांति का जुड़ना बहुत स्वाभाविक भी है।

मनुष्य के व्यक्तित्व को दो आयामों में बांटा जा सकता है। एक आयाम है–बीइंग का, होने का, आत्मा का। और दूसरा आयाम है–डूइंग का, करने का, कर्म का। एक तो मैं हूं। और एक वह मेरा जगत है, जहां से कुछ करता हूं।

लेकिन ध्यान रहे, करने के पहले ‘होना’ जरूरी है। और यह भी खयाल में ले लेना आवश्यक है कि सब करना, ‘होने’ से निकलता है। करना से ‘होना’ नहीं निकलता। करने के पहले मेरा ‘होना’ जरूरी है। लेकिन मेरे ‘होने’ के पहले करना जरूरी नहीं है। Continue reading “शून्य के पार-(प्रवचन-04)”

शून्य के पार-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-(भक्तिः भगवान का स्वप्न-सृजन)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य के मन की बड़ी शक्ति है–भाव। लेकिन शक्ति बाहर जाने के लिए उपयोगी है, भीतर जाने के लिए बाधा। भाव के बड़े उपयोग हैं, लेकिन बड़े दुरुपयोग भी।

गहरे अर्थों में भाव का मतलब होता है–स्वप्न देखने की क्षमता। वह भावना है, जो हमारे भीतर स्वप्न निर्माण की प्रक्रिया है।

स्वप्न देखने के उपयोग हैं। स्वप्न देखने का सबसे बड़ा उपयोग तो यह है कि स्वप्न हमारी नींद को सुविधापूर्ण बनाता है, बाधा नहीं डालता। इसे थोड़ा समझना उपयोगी है। Continue reading “शून्य के पार-(प्रवचन-03)”

शून्य के पार-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(ज्ञानः मार्ग नहीं, भटकन है)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य को खंडों में तोड़ना और फिर किसी एक खंड से सत्य को जानने की कोशिश करना, अखंड सत्य को जानने का द्वार नहीं बन सकता है।

अखंड को जानना हो तो अखंड मनुष्य ही जान सकता है।

न तो कर्म से जाना जा सकता है, क्योंकि कर्म मनुष्य का एक खंड है। न ज्ञान से जाना जा सकता है, क्योंकि ज्ञान भी मनुष्य का एक खंड है। और न भाव से जाना जा सकता है, भक्ति से, क्योंकि वह भी मनुष्य का एक खंड है। Continue reading “शून्य के पार-(प्रवचन-02)”

शून्य के पार-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(कर्म, ज्ञान, भक्तिः मन के खेल

मेरे प्रिय आत्मन्!

अंधेरी रात हो तो सुबह की आशा होती है। आदमी भी एक अंधेरी रात है और उसमें भी सुबह की आशा की जा सकती है। कांटों से भरा हुआ पौधा हो तो उसमें भी फूल लगता है। आदमी भी कांटों से भरा हुआ एक पौधा है, उसमें भी फूल की आशा की जा सकती है। बीज हो तो अंकुरित हो सकता है, विकसित हो सकता है। आदमी भी एक बीज है और उसमें भी विकास के सपने देखे जा सकते हैं। Continue reading “शून्य के पार-(प्रवचन-01)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन-(नया मनुष्य)

मेरे प्रिय आत्मन्!

बीसवीं सदी नये मनुष्य की जन्म की सदी है। इस संबंध में थोड़ी सी बात आपसे करना चाहूंगा। इसके पहले कि हम नये मनुष्य के संबंध में कुछ समझें, यह जरूरी होगा कि पुराने मनुष्य को समझ लें। पुराने मनुष्य के कुछ लक्षण थे। पहला लक्षण पुराने मनुष्य का था कि वह विचार से नहीं जी रहा था, विश्वास से जी रहा था। विश्वास से जीना अंधे जीने का ढंग है। माना कि अंधे होने की भी अपनी सुविधाएं हैं। और यह भी माना कि विश्वास के अपने संतोष और अपनी सांत्वनाएं हैं। और यह भी माना कि विश्वास की अपनी शांति और अपना सुख है। लेकिन यदि विचार के बाद शांति मिल सके और संतोष मिल सके, विचार के बाद यदि सांत्वना मिल सके और सुख मिल सके, तो विचार के आनंद का कोई भी मुकाबला विश्वास का सुख नहीं कर सकता है। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-11)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन-(धर्म को वैज्ञानिकता देनी जरूरी है)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं छोटी सी कहानी से अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।

एक अमावस की रात्रि में एक अंधा मित्र अपने किसी मित्र के घर मेहमान था। आधी रात ही उसे वापस विदा होना था। जैसे ही वह घर से विदा होने लगा, उसके मित्रों ने कहा कि साथ में लालटेन लेते जाएं तो अच्छा होगा। रात बहुत अंधेरी है और आपके पास आंखें भी नहीं हैं। उस अंधे आदमी ने हंस कर कहा कि मेरे हाथ में प्रकाश का क्या अर्थ हो सकता है? मैं अंधा हूं, मुझे रात और दिन बराबर हैं। मुझे दिन का सूरज भी वैसा है, रात की अमावस भी वैसी है। मेरे हाथ में प्रकाश का कोई भी अर्थ नहीं है। लेकिन मित्र का परिवार मानने को राजी न हुआ। और उन्होंने कहा कि तुम्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन तुम्हारे हाथ में प्रकाश देख कर दूसरे लोग अंधेरे में तुमसे टकराने से बच जाएंगे, इसलिए प्रकाश लेते जाओ। यह तर्क ठीक मालूम हुआ और वह अंधा आदमी हाथ में लालटेन लेकर विदा हुआ। लेकिन दो सौ कदम भी नहीं जा पाया था कि कोई उससे टकरा गया। वह बहुत हैरान हुआ, और हंसने लगा, और उसने कहा कि मैं समझता था कि वह तर्क गलत है, आखिर वह बात ठीक ही हो गई। दूसरी तरफ जो आदमी था, उससे कहा कि मेरे भाई, क्या तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता कि मेरे हाथ में लालटेन है? तुम भी क्या अंधे हो? उस टकराने वाले आदमी ने कहाः मैं तो अंधा नहीं हूं, लेकिन आपके हाथ की लालटेन बुझ गई है। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-10)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन-(विज्ञान स्मृति है और धर्म ज्ञान)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक बहुत घने अंधकार में, एक बहुत घनी पीड़ा में, एक बहुत दुख से भरे हुए समय में हम हैं। और मनुष्य के भीतर मनुष्य की हृदय की वीणा पर कोई संगीत, कोई गीत, कोई आनंद उपस्थित नहीं है। मैं आपके भीतर देखता हंू, तो मुझे ऐसा लगता है जैसे कोई वीणा जो अलौकिक संगीत पैदा कर सकती थी, किसी अंधेरे खंडहर में व्यर्थ ही पड़ी है और उससे कोई संगीत पैदा नहीं हो रहा है। मैं आपको देखता हूं, तो मुझे लगता है कि कोई दीपक जो अंधकार में प्रकाश कर सकता था, किसी खंडहर में बिना जला हुआ पड़ा है। और मैं आपको देखता हूं, तो मुझे लगता है कि ऐसे बीज जो फूल बन सकते थे और जिनसे सारा जगत सुगंध से और सुवास से भर सकता था, वे बीज भूमि को न पाने के कारण व्यर्थ हुए जा रहे हैं। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-09)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन-(विधायक विज्ञान)

मैं सोचता था क्या आपको कहूं? मनुष्य का जैसा जीवन है, मनुष्य की आज जैसी स्थिति है, मनुष्य का जैसा आज रूप हो गया है, आज जैसी विकृति हो गई है, आज जैसा मनुष्य खंड-खंड होकर टूट गया है, उसको स्मरण रख कर, उस संबंध में ही कुछ कहूं, ऐसा मुझे खयाल आया। मैं आपको देखता हूं और पूरे देश में अनेक लोगों को देखता हूं। लाखों आंखों में झांकने का मुझे मौका मिला। इसे दुर्भाग्य कहूं और दुख कहूं कि कोई ऐसी आंख दिखाई नहीं पड़ती जो शांत हो। कोई ऐसी आंख नहीं दिखाई पड़ती जिसमें जीवन की गहराई और सत्य प्रकट होता हो। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई पड़ता जिसका जीवन संगीत से और आनंद से भरा हुआ हो। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-08)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन-(धर्म और विज्ञान का समन्वय)

मनुष्य के जीवन की सारी यात्रा, जो अज्ञात है उसे जान लेने की यात्रा है। जो नहीं ज्ञात है उसे खोज लेने की यात्रा है। जो नहीं पाया गया है उसे पा लेने की यात्रा है। जो दूर है उसे निकट बना लेने की। जो कठिन है उसे सरल कर लेने की। जो अनुपलब्ध है उसे उपलब्ध कर लेने की। मनुष्य की इस यात्रा ने स्वभावतः दो दिशाएं ले ली हैं। एक दिशा मनुष्य के बाहर की ओर जाती है, दूसरी मनुष्य के भीतर की ओर।

एक फकीर औरत थी, राबिया। एक सुबह उसका एक मित्र फकीर उसके झोपड़े के बाहर आकर उसे बुलाने लगा और कहने लगा, राबिया, तू भीतर क्या कर रही है? बाहर आ। सूरज निकल रहा है। और बड़ी सुंदर सुबह का जन्म हुआ है। इतना सुंदर प्रभात मैंने कभी नहीं देखा। तू भीतर द्वार बंद किए क्या करती है? Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-07)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-(मृत्यु का बोध)

बहुत से प्रश्न हैं। बहुत मूल्यवान प्रश्न हैं। एक-एक प्रश्न पर बहुत सी बातें कहूं, ऐसा उन्हें पढ़ कर मेरा मन हुआ। फिर भी सभी प्रश्नों के उत्तर शायद संभव नहीं हो पाएंगे। कुछ प्रश्न समान हैं, थोड़ी भाषा के भेद होंगे, लेकिन बात एक ही पूछी है, इसलिए उनका इकट्ठा उत्तर दे दूंगा। कुछ प्रश्न शेष रह जाएंगे, उन पर कल चर्चा हो सकेगी। सबसे पहले तीन-चार प्रश्न पूछे गए हैं।

मैंने उपवास के संबंध में कुछ कहा, पूछा हैः क्या उपवास से मेरा विरोध है? पूछा हैः क्या उपवास के द्वारा इंद्रियां शिथिल नहीं होतीं और विरक्ति नहीं आती। पूछा है कि क्या उपवास के माध्यम से ही महावीर ने, बुद्ध ने और दूसरे लोगों ने साधना नहीं की है? इस तरह बहुत से प्रश्न उपवास से संबंधित हैं। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-06)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(प्रेम और अपरिग्रह

अगर किसी भवन में आग लगी हो और उसके भीतर बैठ कर हम विचार करते हों, तो विचार करने में जैसा संकोच होगा, वैसा आज के मनुष्य और आज की मनुष्यता के सामने कुछ विचार रखने में संकोच होना चाहिए। मनुष्य बहुत संकट में है। और शायद विचार करने की उतनी बात नहीं, जितनी कुछ करने की बात है। जैसे हम सारे लोग एक बड़े आग से लगे हुए भवन के बीच घिर गए हैं। और यदि कुछ बहुत शीघ्र नहीं किया जा सका, तो शायद मनुष्य के बचने की कोई संभावना नहीं रह जाएगी। यही कारण है कि जहां धर्म का सवाल उठता हो, तो मैं ईश्वर की, आत्मा की, स्वर्ग की और नरक की बातें करना अर्थहीन मानता हूं। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-05)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा -(निर्विचार होने की कला)

मेरे प्रिय आत्मन्!

धर्म के संबंध में थोड़ी सी बातें कहने को मुझे कहा गया। लेकिन सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि धर्म के संबंध में कुछ भी कहना संभव नहीं। धर्म को जाना तो जा सकता है, कहा नहीं जा सकता। इसलिए एक बहुत विरोधाभासी बात आपसे कहना चाहूंगा सबसे पहले। और वह यह कि जो भी कहा जा सकता है वह धर्म नहीं होता; और जो धर्म है वह कहा नहीं जा सकता है। जीवन में जितनी गहरी अनुभूतियां हैं, वे कोई भी कही नहीं जा सकतीं। जीवन में जो बहुत क्षुद्र है, उस संबंध में ही हम बातचीत कर पाते हैं। जो गहरा है, वह बात के बाहर छूट जाता है। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-04)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-(सेवा स्वार्थ के ऊपर)

मेरे प्रिय आत्मन्!

सर्विस अबॅव सेल्फ, सेवा स्वार्थ के ऊपर। इतना सीधा-सादा सिद्धांत मालूम पड़ता है जैसे दो और दो चार। लेकिन अक्सर जो बहुत सीधे-सादे सिद्धांत मालूम होते हैं, वे उतने सीधे-सादे होते नहीं हैं। जीवन इतना जटिल है और इतना रहस्यपूर्ण और इतना कांप्लेक्स कि इतने सीधे-सादे सत्यों में समाता नहीं है। दूसरी बात भी प्रारंभ में आपसे कह दूं और वह यह कि शायद ही कोई व्यक्ति इस बात को इनकार करने वाला मिलेगा। इस सिद्धांत को अस्वीकार करने वाला आदमी जमीन पर खोजना बहुत मुश्किल है। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि बहुत लोग जिस सिद्धांत को चुपचाप स्वीकार करते हैं उसके गलत होने की संभावना बढ़ जाती है। वक्त था, जमीन चपटी दिखाई पड़ती है–है नहीं। हजारों साल तक करोड़ों लोगों ने माना कि जमीन चपटी है। क्यों? हजारों साल तक आदमी ने समझा कि सूरज जमीन का चक्कर लगाता है–लगाता नहीं। अब हमें पता भी चल गया, तब भी सनराइज और सनसेट शब्द मिटने बहुत मुश्किल हैं। सूरज उगता है, सूरज डूबता है; इससे ज्यादा गलत और कोई बात नहीं होगी, लेकिन भाषा में चलेगी। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-03)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(धर्म है बिलकुल वैयक्तिक)

एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहंूगा।

एक छोटे से गांव में, एक अंधेरी रात में, एक झोपड़े के भीतर से बहुत जोर से आवाज आने लगीः आग लगी है, मैं जल रही हंू, मुझे कोई बचाओ। आवाज इतनी तीव्र, इतनी करुण और दुख भरी थी कि सोए हुए पड़ोसी जाग गए और हाथों में बाल्टियां लेकर पानी भर कर उस झोपड़े की तरफ भागे। अंधेरी रात थी, लेकिन झोपड़ी के पास जाकर उन्होंने देखा, आग लगने का कोई भी चिह्न नहीं है। छोटी सी झोपड़ी है। भीतर से जोर से आवाजें आती हैंः आग लग गई है। लेकिन कोई आग लगने का चिह्न नहीं है। उन्होंने दरवाजे धकाए, वे दरवाजे भी खुले हुए थे। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-02)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(विज्ञान, धर्म और कला)

मेरे प्रिय आत्मन्!

विज्ञान है सत्य की खोज, धर्म है सत्य का अनुभव, कला है सत्य की अभिव्यक्ति। विज्ञान प्राथमिक है, पहला चरण है। और विज्ञान चाहे तो बहुत देर तक बिना धर्म के जी सकता है। क्योंकि सत्य की खोज ही उसका लक्ष्य है। मैंने कहा, बहुत देर तक बिना धर्म के जी सकता है। और आज तक बिना धर्म के विज्ञान जीया है। न केवल बिना धर्म के बल्कि विज्ञान धर्म को अस्वीकार करके जीया है। जी सकता है। कोई रास्ता चाहे तो बिना मंजिल के भी हो सकता है। लेकिन विज्ञान जैसे ही विकसित होगा–मनुष्य सिर्फ सत्य को जानना ही नहीं चाहेगा–सत्य होना भी चाहेगा। इसलिए बहुत देर तक विज्ञान भी धर्म के बिना नहीं रह सकता है। और उसके न रहने की संभावना रोज-रोज प्रकट होती चली जाती है। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-01)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन

मैं विज्ञान की भाषा में बोल रहा हूं

एक मित्र ने पूछा हैः साधु, संन्यासी, योगी, वर्षों गुफाओं में बैठ कर ध्यान को उपलब्ध होते रहे हैं। और आप कहते हैं कि चालीस मिनट में भी ध्यान संभव है। क्या ध्यान इतना सरल है?

इस संबंध में दो-तीन बातें समझने योग्य हैं। एक तो आज से दस हजार साल पहले आदमी पैदल चलता था। पांच हजार साल पहले बैलगाड़ी से चलना शुरू किया। अब वह जेट-यान से उड़ता है। जैसे हमने जमीन पर चलने में विकास किया है वैसे ही चेतना में जो गति है उसके साधन में भी विकास होना चाहिए। तो वह भी एक गति है। आज से पांच हजार साल पहले अगर किसी को ध्यान उपलब्ध करने में वर्षों श्रम उठाना पड़ता था, तो उसका कारण ध्यान की कठिनाई न थी। उसका कारण ध्यान तक पहुंचने वाले साधनों की–बैलगाड़ी चलने की या पैदल चलने की शक्ल थी। मनुष्य जिस दिन अंतरात्मा के संबंध में वैज्ञानिक हो उठेगा, उस दिन शायद क्षण भर में भी ज्ञान पाया जा सकता है। क्योंकि ध्यान को पाने का समय से कोई भी संबंध नहीं है। समय से संबंध हमेशा साधन का होता है, ध्यान का नहीं होता। आप जिस मंजिल पर पहुंचते हैं उस मंजिल पर पहुंचने का कोई संबंध समय से नहीं होता। संबंध होता है रास्ते पर किस साधन से आप यात्रा करते हों। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-11)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन–(जीने की कला)

जीवन को कैसे जीआ जाए, उसका प्रयोजन क्या है?

दो-तीन बातें समझने योग्य हैं। एक तो जो जीवन को किसी भांति जीने की कोशिश करेगा, वह जीवन से वंचित रह जाएगा। जीवन के ऊपर जो सिद्धांत आरोपित करेगा वह जीवन की हत्या करने वाला हो जाएगा। जीवन के ऊपर कोई पद्धति, कोई पैटर्न, कोई ढांचा होगा जीवन के पौधे को सही से विकसित नहीं होने देता। जीवन को जीने की पहली समझ इस बात से आती है कि हम जीवन को जितनी सहजता से स्वीकार करते हैं उतनी ही धन्यता को जीवन उपलब्ध होता है। सिद्धांतवादी कभी भी सहज नहीं हो पाता और जितना व्यक्ति असहज होगा उतना कृत्रिम उतना झूठा, उतना पाखंडी हो जाता है। जीवन को जीने की कला का पहला सूत्र है जीवन की सहज स्वीकृति। जैसा जीवन आता है उसे अंगीकार करने का अहोभाव टोटल एक्सेप्टेबिलिटी न केवल परिपूर्ण स्वीकृति बल्कि अनुग्रहपूर्वक स्वीकृति, एक्सेप्टेंस विद ग्रेटिट्यूड। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-10)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन

(सत्य शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकता)

एक मित्र ने पूछा है कि क्या मनुष्य की श्रद्धा को तर्क से ललकारा जा सकता है?

श्रद्धा को तो किसी से भी नहीं ललकारा जा सकता है। लेकिन जिसे हम श्रद्धा कहते हैं वह श्रद्धा होती ही नहीं। वह होता है सिर्फ विश्वास और विश्वास को किसी से भी ललकारा जा सकता है। श्रद्धा और विश्वास के थोड़े से भेद को समझ लेना जरूरी है। विश्वास है अज्ञान की घटना। जो नहीं जानते उनकी मान्यता का नाम विश्वास है। श्रद्धा है ज्ञान की चरम परिणति, जो जानते हैं उनके जानने में श्रद्धा है। उसे किसी भी भांति नहीं ललकारा जा सकता। लेकिन जिसे हम श्रद्धा कहते हैं वह श्रद्धा नहीं है, वह तो विश्वास है, बिलीफ। और ध्यान रहे, क्योंकि जो विश्वास करता है वह श्रद्धा का कभी भी नहीं होता है। श्रद्धा तक पहुंचना हो तो विश्वास में संदेह का आ जाना बहुत जरूरी है। श्रद्धा तक पहुंचना हो तो अंधे होने की जगह आंख का खुला होना जरूर चाहिए। श्रद्धा तक पहुंचना हो तो कुछ भी मान लेने के बजाय जो है उसे खोजना जरूरी है। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-09)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन–(सौंदर्य के अनंत आयाम

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि सौंदर्य को देखते ही उसे भोगने की इच्छा पैदा होती है। सौंदर्य को देखते ही उसके मालिक बनने की इच्छा पैदा होती है। उसे पजेस करने का मन होता है। ऐसी स्थिति में साधारण मनुष्य क्या करे? अब तक साधारण मनुष्य को जो संदेश दिया गया है, वह दमन करने का है कि वह अपने को दबाए, अपने को रोके, संयम करे, वहां से आंख मोड़ लें जहां सौंदर्य हो। वहां से भाग जाए जहां डर हो। अभी एक स्वामी जी महाराज लंदन होकर वापस लौटे, लाखों रुपया उनके ऊपर खर्च किए गए थे कि कोई स्त्री उन्हें दिखाई न पड़ जाए। इतना भय सौंदर्य का जिस मन में हो उस मन की कामुकता और सेक्सुअलिटी का हम अंदाज लगा सकते हैं। और जो पुरुष स्त्री से इतना भयभीत हो उस पुरुष के भीतर कैसी वास्तविक वृत्तियां हमला कर रही हों, इसका भी अनुमान लगा सकते हैं। सौंदर्य में भी अगर सेक्स दिखाई पड़े और परमात्मा न दिखाई पड़ सके उसके दमन की कहानी बहुत स्पष्ट है। लेकिन हजारों साल से आदमी को यही सिखाया गया है कि अपने को दबाओ, दबाने से कोई मुक्त नहीं होता। दबाने से जहर और बढ़ता है। दबाने से बीमारी और बढ़ती है। तो साधारणतया दिखाई पड़ता है कि दबाओ मत तुम भोगो हो। एक रास्ता तो यह है कि स्त्री दिखाई न पड़े, आंख ही फोड़ लो अपनी, सूरदास हो जाओ। दूसरा रास्ता यह है कि स्त्री दिखाई पड़े तो चंगेज खां हो जाओ, कि फौरन उसे अपने हरम में पहुुंचाओ। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-08)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन–(शक्ति का तूफान)

मेरे प्रिय आत्मन्!

कल मैंने कहा कि ध्यान अक्रिया है। तो एक मित्र ने पूछा हैः वे समझ नहीं सके कि ध्यान अक्रिया कैसे है। क्योंकि जो हम करेंगे वह तो क्रिया ही होगी व अक्रिया कैसे होगी?

मनुष्य की भाषा के कारण बहुत भ्रम पैदा हो रहे हैं। हम बहुत सी अक्रियाओं को भी भाषा में क्रिया समझे हुए हैं। जैसे हम कहते, है फलां व्यक्ति ने जन्म लिया। सुनें तो ऐसा लगता है कि जैसे जन्म लेने में उसको भी कुछ करना पड़ा होगा। जन्म माने क्रिया। हम कहते है फलां व्यक्ति मर गया और ऐसा लगता है कि मरने में उसे कुछ करना पड़ा होगा। हम कहते हैं कोई सो गया तो ऐसा लगता है कि सोने में उसे कुछ करना पड़ा होगा। जन्म क्रिया नहीं है, मृत्यु क्रिया नहीं है लेकिन भाषा में वे क्रियाएं बन जाती हैं। आप भी कहते हैं कि मैं कल रात सोया लेकिन अगर कोई आप से पूछे कि कैसे सोए, सोने की क्रिया क्या है तो आप कठिनाई में पड़ जाएंगे। सोए आप बहुत, बाद में लेकिन सोने की क्रिया आप नहीं बता सकेगें कि सोए कैसे। हो सकता है कि कहीं पर तकिया लगाया, बिस्तर लगाया, कमरा अंधेरा किया लेकिन इन में से सोने की क्रिया कहीं भी नहीं है। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-07)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

श्वास का महत्व

मेरे प्रिय आत्मन्!

ध्यान अस्तित्व के साथ एक हो जाने का नाम है। हमारी सीमाएं हैं–उन्हें तोड़ कर असीम के साथ एक हो जाने का नाम। हम जैसे एक छोटी सी बूंद हैं और बूंद जैसे सागर में गिर जाए और एक हो जाए। ध्यान कोई क्रिया नहीं है बल्कि कहें अक्रिया है, क्योंकि क्रिया कोई भी हो उससे हम बच जाएंगे पर अक्रिया में ही मिट सकते हैं। ध्यान एक अर्थ में अपने ही हाथ से मर जाने की कला है। और आश्चर्य यही है कि जो मर जाने की कला सीख जाते हैं वही केवल जीवन के परम अर्थ को उपलब्ध हो पाते हैं।

आज की सुबह इस एक घंटे में हम अपने को खोकर वह जो हमारे चारों ओर विस्तार है उसके साथ एक होने का प्रयास करेंगे। भाषा में तो यह प्रयास ही मालूम पड़ेगा। लेकिन बहुत गहरे में भीतर प्रयास नहीं हो सकता। अपने को सम्भालेेंगे नहीं, छोड़ देंगे। इसके पहले कि मैं ध्यान की प्रक्रिया के लिए आपसे कहंू, केवल दो छोटी सी बातें खयाल कर लें। थोड़ेे से लोग हों उसमें बहुत सुखद है, और इसलिए मैनें कहीं सूचना भी नहीं की, ताकि थोड़े से ही लोग आ सकें। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-06)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

जंजीर तोड़ने के सूत्र

मेरे प्रिय आत्मन!

एक चर्च में एक फकीर को बोलने के लिए बुलाया हुआ था। उस चर्च के लोगों ने कहा था कि सत्य की खोज के संबंध में कुछ कहो। वह फकीर बोलने खड़ा हुआ। उसने बोलने से पहले कहा कि मैं एक प्रश्न इस चर्च में इकट्ठे लोगों से पूछना चाहता हूं। उसके बाद ही मैं बोलना शुरू करूंगा। उसने पूछा कि चर्च में जो लोग इकट्ठे हैं वे बाइबिल का अध्ययन करते हैं? सारे लोगों ने हाथ हिलाए। वे अध्ययन करते थे। उस फकीर ने कहा कि दूसरी बात मुझे यह पूछनी है कि बाइबिल में ल्यूक की पुस्तक है, ल्यूक की पुस्तक का उनहत्तरवां अध्याय आप लोगों ने पढ़ा है? जिन लोगों ने पढ़ा हो वे हाथ ऊपर उठा दें। उस चर्च में बड़ी भीड़ थी, सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर सारे लोगों ने हाथ ऊपर उठा दिए। वह फकीर बहुत हंसने लगा, उसने कहाः अब मैं सत्य के संबंध में कुछ कहूंगा, लेकिन उसके पहले मैं कह दूं, बाइबिल में ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय जैसा कोई अध्याय है ही नहीं। और उन सारे लोगों ने हाथ उठाए थे कि हम पढ़ते हैं, और उन्हत्तरवां अध्याय बाइबिल में ल्यूक का कोई है ही नहीं, वैसी कोई पुस्तक ही नहीं है। तो उस फकीर ने कहा कि अब सत्य की खोज के संबंध में जरूर मुझे कुछ कहना होगा, क्योंकि यहां जितने लोग इकट्ठे हैं उनमें सत्य से किसी का भी कोई संबंध नहीं है। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-05)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

अकेला होना बड़ी तपश्चर्या है

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक गांव में एक बहुत अजीब घटना घट गई थी। एक आदमी ने किसी बीमारी में अपनी छाया खो दी। ऐसा कभी न हुआ था। वह रास्ते पर चलता तो उसकी छाया न बनती, गांव के लोग उससे डरने लगे, परिवार के लोग उससे दूर रहने लगे। उसकी पत्नी ने भी उसका साथ छोड़ दिया। यह बड़ी अनहोनी घटना थी कि कोई अपनी छाया खो दे। और लोगों का भयभीत हो जाना स्वाभाविक था। उनकी समझ में आना मुश्किल हो गया कि आदमी किस प्रकार का है, जिसकी छाया न बनती हो? धीरे-धीरे अपने ही परिवार से वह निष्कासित हो गया, मित्रों ने साथ छोड़ दिया। और जिस दरवाजे पर भी पहुंचता, लोग द्वार बंद कर लेते थे। उसके भूखे मरने की नौबत आ गई। वह हाथ जोड़-जोड़ कर चिल्ला कर भगवान से कहने लगा कि मुझे मेरी छाया वापस दे दो। यह मेरी छाया क्या खो गई है, यह तो मेरा जीवन नष्ट हुआ जाता है। पता नहीं ऐसी घटना कभी घटी थी या नहीं घटी, लेकिन मैंने सुना है कि ऐसा कभी हुआ है। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-04)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

मन है एक रिक्तता

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं कौन हूं? इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल और परसों मैंने आपसे की हैं। परसों मैंने कहा, ज्ञान नहीं वरन न जानने की अवस्था, न जानने का बोध, सत्य की ओर मार्ग प्रशस्त करता है। यह जान लेना कि मैं नहीं जानता हूं एक अपूर्व शांति में और मौन में चित्त को ले जाता है। यह स्मरण आ जाना कि सारा ज्ञान, सारे शब्द और सिद्धांत जो मेरी स्मृति पर छाए हैं, वे ज्ञान नहीं हैं, वरन जब स्मृति मौन और चुप होती है, और जब स्मृति नहीं बोलती, और जब स्मृति स्पंदित नहीं होती तब उस अंतराल में, उस रिक्त में जो जाना जाता है, वही सत्य है, वही ज्ञान है। इस संबंध में परसों थोड़ी सी बातें कहीं थी, और कल मैंने आपसे कहा कि वे नहीं जो अपने अहंकार में कठोर हो गए हैं, वे नहीं जो अपने अहंकार के सिंहासन पर विराजमान हैं, वे नहीं जिन्होंने अपनी संवेदना के सब झरोखे बंद कर लिए और जिनके हृदय पत्थर हो गए हैं। वरन वे, जो प्रेम में तरल हैं, और जिनके हृदय के सब द्वार खुले हैं, और जिन्हें अज्ञात स्पर्श करता है, और जिन्हें जीवन में चारों तरफ छाए हुए जीवन में रहस्य की प्रतीति होती है। ऐसे हृदय, ऐसे काव्य से, और प्रेम से, और रहस्य से भरे हृदय ही केवल सत्य को जानने में समर्थ हो पाते हैं। और आज सुबह एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा मैं शुरू करूंगा। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-03)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

स्वयं की असली पहचान

मैं कौन हूं? इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। ज्ञान नहीं बल्कि अज्ञान, जानकारी नहीं बल्कि न जानने की स्थिति, स्टेट ऑफ नॉट नोइंग के संबंध में थोड़ी सी बातें कहीं। यदि हम उस ज्ञान से मुक्त हो सकें, जो बाहर से उपलब्ध होता है, तो संभावना है उस ज्ञान के जन्म की, जो उपलब्ध नहीं होता बल्कि आविष्कृत होता है, उघड़ता है, भीतर छिपा है, और उसके परदे टूट जाते हैं, और द्वार खुल जाते हैं। इसलिए मैंने कहा ज्ञान से नहीं बल्कि इस सत्य को जानने से कि मैं नहीं जानता हूं, मैं नहीं जानता हूं, इस भाव-दशा में ही कुछ जाना जा सकता है। मैं नहीं जानता हूं, यह स्मरण, यह स्मृति, जैसे-जैसे घनीभूत और तीव्र होगी, वैसे-वैसे मन मौन होता चला जाता है, निस्तब्ध और निःशब्द होता चला जाता है। क्योंकि सारे शब्द और सारे विचार हमारे जानने के भ्रम से पैदा होते हैं। मैं कौन हूं? यह प्रश्न तो हो लेकिन कोई भी उत्तर स्वीकार न किया जाए उस निषेध में, उस निगेटिव माइंड में, उस मनःस्थिति में जो भीतर सोया है, वह जागृत होता है। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-02)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन

स्वयं की पहचान क्या?

मेरे प्रिय आत्मन!

एक छोटी सी कहानी से मैं तीन दिनों की इन चर्चाओं को शुरू करना चाहूंगा।

एक व्यक्ति बहुत विस्मरणशील था। छोटी-छोटी बातें भी भूल जाता था। बड़ी कठिनाई थी उसके जीवन में, कुछ भी स्मरण रखना उसे कठिन था। रात वह सोने को जाता तो अपने कपड़े उतारने में भी उसे कठिनाई होती, क्योंकि सुबह उसने टोपी कहां पहन रखी थी और चश्मा कहां लगा रखा था और कोट किस भांति पहन रखा था वह भी सुबह तक भूल जाता था। तो करीब-करीब कपड़े पहन कर ही सो जाता था ताकि सुबह फिर से स्मृति को कष्ट देने की जरूरत न पड़े। पास में ही एक चर्च था और चर्च के पुरोहित ने जब उसके विस्मरण की यह बात सुनी तो बहुत हैरान हुआ। और एक रविवार की सुबह जब वह आदमी चर्च आया तो उसे कहा कि एक किताब पर लिख रखो कि कौन सा कपड़ा कहां पहन रखा था, किस भांति पहन रखा था ताकि तुम रात में कपड़े उतार सको और सुबह उस किताब के आधार पर उन्हें वापस पहन सको। उस रात उसने कपड़े उतार दिए और किसी किताब पर सब लिख लिया। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-01)”

मिट्टी के दीये-(कथा-59)

बोधकथा-उन्नसठवी

मैं एक 84 वर्ष के बू.ढे आदमी की मरणशय्या के पास बैठा था। जितनी बीमारियां एक ही साथ एक व्यक्ति को होनी संभव हैं, सभी उन्हें थीं। एक लंबे अर्से से वे असह्य पीडा झेल रहे थे। अंत में आंखें भी चली गई थीं। बीच-बीच में मूच्र्छा भी आ जाती थी। बिस्तर से तो अनेक वर्षों से नहीं उठे थे। दुख ही दुख था। लेकिन फिर भी वे जीना चाहते थे। ऐसी स्थिति में भी जीना चाहते थे। मृत्यु उन्हें अभी भी स्वीकार नहीं थी।

जीवन चाहे साक्षात मृत्यु ही हो, फिर भी मृत्यु को कोई स्वीकार नहीं करता है। जीवन का मोह इतना अंधा और अपूर्ण क्यों है? यह जीवेषणा क्या-क्या सहने को तैयार नहीं कर देती है? मृत्यु में ऐसा क्या भय है? और जिस मृत्यु को मनुष्य जानता ही नहीं, उसमें भय भी कैसे हो सकता है? भय तो ज्ञात का ही हो सकता है। अज्ञात का भय कैसा? उसे तो जानने की जिज्ञासा ही हो सकती है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-59)”

मिट्टी के दीये-(कथा-58)

बोधकथा-अट्ठावनवी

मैं एक महानगरी में था। वहां कुछ युवक मिलने आए। वे पूछने लगेः ‘‘क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं? ’’ मैंने कहाः ‘‘नहीं। विश्वास का और ईश्वर का क्या संबंध? मैं तो ईश्वर को जानता हूं।’’

फिर मैंने उनसे एक कहानी कही।

किसी देश में क्रांति हो गई थी। वहां के क्रांतिकारी सभी कुछ बदलने में लगे थे। धर्म को भी वे नष्ट करने पर उतारू थे। उसी सिलसिले में एक वृद्ध फकीर को पकड कर अदालत में लाया गया। उस फकीर से उन्होंने पूछाः ‘‘ईश्वर में क्यों विश्वास करते हो? ’’ वह फकीर बोलाः ‘‘महानुभाव, विश्वास मैं नहीं करता। लेकिन, ईश्वर है। अब मैं क्या करूं? ’’ उन्होंने पूछाः ‘‘यह तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि ईश्वर है? ’’ वह बू.ढा बोलाः ‘‘आंखें खोल कर जब से देखा, तब से उसके अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं पडता है।’’ Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-58)”

मिट्टी के दीये-(कथा-57)

बोधकथा-सत्तावनवी

एक यात्रा की बात है। कुछ वृद्ध स्त्री-पुरुष तीर्थ जा रहे थे। एक संन्यासी भी उनके साथ थे। मैं उनकी बात सुन रहा था। संन्यासी उन्हें समझा रहे थेः ‘‘मनुष्य अंत समय में जैसे विचार करता है, वैसी ही उसकी गति होती है। जिसने अंत सम्हाल लिया, उसने सब सम्हाल लिया। मृत्यु के क्षण में परमात्मा का स्मरण होना चाहिए। ऐसे पापी हुए हैं, जिन्होंने भूल से अंत समय में परमात्मा का नाम ले लिया था और आज वे मोक्ष का आनंद लूट रहे हैं।’’

संन्यासी की बात अपेक्षित प्रभाव पैदा कर रही थी। वे वृद्धजन अपने अंत समय में तीर्थ जा रहे थे और मनचाही बात सुन उनके हृदय फूले नहीं समाते थे। सच ही सवाल जीवन का नहीं, मृत्यु का ही है और जीवन भर के पापों से छूटने को भूल से ही सही, बस परमात्मा का नाम लेना ही पर्याप्त है। फिर वे तो भूल से नहीं, जान-बूझ कर तीर्थ जा रहे थे। उनकी प्रसन्नता स्वाभाविक ही थी। इसी प्रसन्नता में वे संन्यासी की सेवा भी कर रहे थे। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-57)”

मिट्टी के दीये-(कथा-56)

बोधकथा-छप्पनवी

एक दिन मैं सुबह-सुबह उठ कर बैठा ही था कि कुछ लोग आ गए। उन्होंने मुझसे कहाः ‘‘आप के संबंध में कुछ व्यक्ति बहुत आलोचना करते हैं। कोई कहता है आप नास्तिक हैं। कोई कहता है अधार्मिक। आप इन सब व्यर्थ की बातों का उत्तर क्यों नहीं देते? ’’ मैंने कहाः ‘‘जो बात व्यर्थ है, उसका उत्तर देने का सवाल ही कहां है? क्या उत्तर देने योग्य मान कर हम स्वयं ही उसे सार्थक नहीं मान लेते हैं? ’’ यह सुन कर उनमें से एक ने कहाः ‘‘लेकिन लोक में गलत बात चलने देना भी तो ठीक नहीं।’’ मैंने कहाः ‘‘ठीक कहते हैं। लेकिन जिन्हें आलोचना ही करना है, निंदा ही करनी है, उन्हें रोकना कभी भी संभव नहीं हुआ है। वे बडे आविष्कारक होते हैं और सदा ही नये मार्ग निकाल लेते हैं। इस संबंध में मैं आपको एक कथा सुनाता हूं।’’ और जो कथा मैंने उनसे कही, वही मैं आपसे भी कहता हूं। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-56)”

मिट्टी के दीये-(कथा-55)

बोधकथा-पच्चपनवी

मनुष्य को परमात्मा तक पहुंचने से कौन रोकता है? और मनुष्य को पृथ्वी से कौन बांधे रखता है? वह शक्ति कौन सी है जो उसकी जीवन-सरिता को सत्ता के सागर तक नहीं पहुंचने देती है?

मैं कहता हूंः मनुष्य स्वयं। उसके अहंकार का भार ही उसे ऊपर नहीं उठने देता है। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण नहीं, अहंकार का पाषाणभार ही हमें ऊपर नहीं उठने देता है। हम अपने ही भार से दबे हैं, और गति में असमर्थ हो गए हैं। पृथ्वी का वश देह के आगे नहीं है। उसका गुरुत्वाकर्षण देह को बांधे हुए है। किंतु अहंकार ने आत्मा को भी पृथ्वी से बांध दिया है। उसका भार ही परमात्मा तक उठने की असमर्थता और अशक्ति बन गया है। देह तो पृथ्वी की है। वह तो उससे ही जन्मी है और उसमें ही उसे लीन हो जाना है। लेकिन आत्मा अहंकार के कारण परमात्मा से वंचित हो, व्यर्थ ही देहानुसरण को विवश हो जाती है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-55)”

मिट्टी के दीये-(कथा-54)

बोधकथा-चव्वनवी

सुबह से सांझ तक सैकडों लोगों को मैं एक दूसरे की निंदा में संलग्न देखता हूं। हम सब कितना शीघ्र दूसरों के संबंध में निर्णय कर लेते हैं, जब कि किसी के भी संबंध में निर्णय करने से कठिन और कोई बात नहीं है। शायद परमात्मा के अतिरिक्त किसी के संबंध में निर्णय करने का कोई अधिकारी नहीं, क्योंकि एक व्यक्ति को–एक छोटे से, साधारण से मनुष्य को भी जानने के लिए जिस धैर्य की अपेक्षा है, वह परमात्मा के सिवाय और किसमें है?

क्या हम एक दूसरे को जानते हैं? वे भी जो एक दूसरे के बहुत निकट हैं, क्या वे भी एक दूसरे को जानते हैं?

मित्र, क्या मित्र भी एक दूसरे के लिए अपरिचित और अजनबी ही नहीं बने रहते हैं?

लेकिन, हम तो अपरिचितों को भी जांच लेते हैं और निर्णय ले लेते हैं और वह भी कितनी शीघ्रता से! Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-54)”

मिट्टी के दीये-(कथा-53)

बोधकथा-त्रेपनवी

वर्षा की अंधेरी रात्रि है। आकाश में बादल घिरे हैं। बीच-बीच में बिजली तेजी से कडकती और चमकती है। एक युवक उसकी चमक के प्रकाश में ही अपना मार्ग खोज रहा था। अंततः वह उस झोपडी के द्वार पर पहुंच ही गया, जहां एक अत्यंत वृद्ध फकीर पूरे जीवन से रह रहा है। वह वृद्ध उस झोपडी को छोड कर कभी भी कहीं नहीं गया था। जब उससे कोई पूछता था कि क्या आपने संसार बिल्कुल ही नहीं देखा है, तो वह कहता थाः ‘‘देखा है, खूब देखा है। स्वयं में ही क्या सारा संसार नहीं है? ’’

मैं भी उस वृद्ध को जानता हूं। वह मेरे भीतर बैठा हुआ है। सच में ही उसने कभी अपना आवास नहीं छोडा है। वह वहीं है और वही है, जहां सदा से है और जो है। और मैं उस युवक को भी भलीभांति जानता हूं, क्योंकि मैं ही तो वह युवक भी हूं! Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-53)”

मिट्टी के दीये-(कथा-52)

बोधकथा-बाववनवी

बृहस्पति का पुत्र कच संपूर्ण शास्त्रों का अध्ययन कर पितृगृह लौटा था। जो भी जाना जा सकता था, वह जान कर आया था। लेकिन चित्त उसका अशांत था। वासनाएं उसे उद्विग्न किए थीं। अहंता के उत्ताप से वह व्याकुल था। इनसे मुक्त होने ही को तो वह ज्ञान की खोज में गया था। लेकिन अशांति जहां की तहां थी और ऊपर से ज्ञान का बोझ और बढ़ गया था। यही होता ही है। शास्त्र-ज्ञान से शांति के जन्म का संबंध ही कौन सा है? शास्त्र और शांति का नाता ही कोई नहीं है। उल्टे वैसा ज्ञान अहंता को और प्रगाढ़ कर अशांति के लिए अधखुले द्वार पूरे ही खोल देता है। लेकिन जिससे शांति ही उपलब्ध न हो, क्या उसे ज्ञान कहना भी उचित है? ज्ञान तो शांत और निर्भार करता है और जो अशांत और भारग्रस्त करता हो, क्या वह भी ज्ञान है? अज्ञान दुख है और यदि ज्ञान भी दुख है तो फिर आनंद कहां है? ज्ञान ही शांति नहीं देगा तब शांति पानी असंभव ही है। सत्य के द्वार पर भी यदि शांति न मिली तो शांति मिलेगी कहां? फिर क्या शास्त्रों में सत्य नहीं है? Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-52)”

मिट्टी के दीये-(कथा-51)

बोधकथा-इक्यावनवी

जीवन क्या है?

एक पवित्र यज्ञ। लेकिन उन्हीं के लिए जो सत्य के लिए स्वयं की आहुति देने को तैयार होते हैं।

जीवन क्या है?

एक अमूल्य अवसर। लेकिन उन्हीं के लिए जो साहस, संकल्प और श्रम करते हैं।

जीवन क्या है?

एक वरदान देती चुनौती। लेकिन उन्हीं के लिए जो उसे स्वीकारते हैं, और उसका सामना करते हैं।

जीवन क्या है? Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-51)”

मिट्टी के दीये-(कथा-50)

बोधकथा-पच्चासवी

रात एक युवती ने आकर कहाः ‘‘मैं सेवा करना चाहती हूं।’’

उससे मैंने कहाः ‘मैं’ को जाने दो तो सेवा अपने आप आ जाती है।

अहंकार के अतिरिक्त जीवन के सेवा बन जाने में और क्या बाधा है?

अहंकार सेवा मांगता है। वस्तुतः वह सब कुछ मांगता ही है, देता कुछ नहीं। वह दान में असमर्थ है। वह उसकी सामथ्र्य ही नहीं। अहंकार सदा का भिखारी है। इसीलिए अहंकारी व्यक्ति से दीन और दरिद्र व्यक्ति खोजना असंभव है।

सेवा तो वही कर सकता है, जो सम्राट है। जिसके पास स्वयं ही कुछ नहीं है, वह किसी को देगा क्या? देने के पहले होना तो आवश्यक ही है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-50)”

मिट्टी के दीये-(कथा-49)

बोधकथा-उन्नचासवी

मैं परमात्मा की प्रार्थना के लिए तुम्हें मंदिरों में जाते देखता हूं तो सोचता हूं कि क्या परमात्मा केवल मंदिरों में ही है? क्योंकि मंदिरों के बाहर न तो तुम्हारी आंखों में पवित्रता की झलक होती है और न तुम्हारी श्वासों में प्रार्थना की ध्वनि। मंदिरों के बाहर तो तुम ठीक वैसे ही होते हो, जैसे वे लोग जो कभी भी मंदिरों में नहीं गए हैं! क्या इससे तुम्हारा मंदिरों में जाना व्यर्थ सिद्ध नहीं हो जाता है? क्या यह संभव है कि मंदिर की सी.िढयों के बाहर तुम कठोर और भीतर करुण हो जाते होगे? क्या यह विश्वासयोग्य है कि मंदिरों के द्वारों में प्रविष्ट होते ही हिंसक चित्त प्रेम से भर जाते हों? जिन हृदयों में सर्व के प्रति प्रेम नहीं है, उनमें परमात्मा के प्रति प्रार्थनाओं का जन्म ही कैसे हो सकता है?

जीवन ही जिसका प्रेम नहीं है, उस जीवन में प्रार्थना असंभव है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-49)”

मिट्टी के दीये-(कथा-48)

बोधकथा-अड़तालीसवी

मैं धर्म पर क्या कहूं? धर्म मृत्यु की विधि से जीवन को पाने का द्वार है।

एक रात्रि मैं नाव पर था। बडी नाव थी और बहुत से मित्र साथ थे। मैंने उनसे पूछाः ‘‘यह सरिता तेजी से भागी जा रही है। लेकिन कहां? ’’ किसी ने कहाः ‘‘सागर की ओर।’’ सच ही सरिताएं सागर की ओर भागी जाती हैं, लेकिन क्या सरिता का सागर की ओर जाना अपनी ही मृत्यु की ओर जाना नहीं? सरिता सागर में मिटेगी ही तो? शायद इसीलिए सरोवर सागर की ओर नहीं जाते हैं! अपनी ही मृत्यु की ओर कौन समझदार जाना पसंद करेगा? इसीलिए तथाकथित समझदार भी धर्म की ओर नहीं जाते हैं। सरिता के लिए जो सागर है, मनुष्य के लिए वही धर्म है। धर्म है, स्वयं को, सर्व में, समग्रीभूत रूप से खो देना। अहंता के लिए वह महामृत्यु है। इसीलिए जो स्वयं को बचाना चाहते हैं, वे अहंकार का सरोवर बन कर परमात्मा के सागर में मिलने से रुके रहते हैं। सागर में मिलने की अनिवार्य शर्त तो स्वयं को मिटाना है। लेकिन वह मृत्यु वस्तुतः मृत्यु नहीं है। क्योंकि उससे होकर जो जीवन पाया जाता है, उसके समक्ष जिसे हम जीवन कहते हैं, वही मृत्यु हो जाता है। मैं स्वयं मर कर ही यह कह रहा हूं। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-48)”

मिट्टी के दीये-(कथा-47)

बोधकथा-सत्तालीसवी

सत्य की खोज में पहला सत्य क्या है? व्यक्ति जो है, जैसा है उसे स्वयं को वैसा ही जानना पहला सत्य है। यह सीढी का पहला पाया है। किंतु अधिकांशतः सीढ़ियों में यह पहला पाया ही नहीं होता है और इसलिए वे केवल देखने मात्र के लिए सीढ़ियां रह जाती हैं। उनसे चढ़ना नहीं हो सकता है। कोई चाहे तो उन्हें कंधों पर ढो सकता है, लेकिन उनसे चढ़ना असंभव है।

मनुष्य औरों को धोखा देता है, स्वयं को धोखा देता है, और परमात्मा को भी धोखा देना चाहता है। फिर इस धोखे में वह स्वयं ही खो जाता है। जिस धुएं से उसकी आंखें अंधी हो जाती हैं, उसे वह स्वयं ही पैदा करता है।

क्या हमारी सभ्यता, संस्कृति और धर्म ऐसे ही धोखों के सुंदर नाम नहीं हैं? क्या इन सब धुओं के भीतर हमने अपनी असभ्यता, असंस्कृति और अधर्म को ही छिपाने की असफल चेष्टा नहीं की है? और परिणाम क्या हुआ है? परिणाम यह है कि सभ्यता के कारण ही हम सभ्य नहीं हो पाते हैं, और धर्म के कारण ही धार्मिक नहीं हो पाते हैं। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-47)”

मिट्टी के दीये-(कथा-46)

बोधकथा-छियालीसवी

एक मंदिर निर्मित हो रहा है। मैं उसके पास से निकलता हूं तो सोचता हूंः मंदिर तो बहुत हैं। शायद उनमें जानेवाले ही कम पडते जाते हैं। लेकिन फिर यह नया मंदिर क्यों बन रहा है? और यही अकेला भी तो नहीं है। और भी मंदिर बन रहे हैं। रोज ही नये मंदिर बन रहे हैं। मंदिर बनते जाते हैं और मंदिरों में जाने वाले घटते जाते हैं। इसका रहस्य क्या है? बहुत खोजता रहा, लेकिन राज हाथ नहीं आता था। फिर उस मंदिर को बनाने वाले एक वृद्ध कारीगर से पूछा। सोचा, शायद नये-नये मंदिरों के बनते जाने का रहस्य उसे ज्ञात हो, क्योंकि उसने तो बहुत से मंदिर बनाए हैं?

वह वृद्ध मेरा प्रश्न सुन हंसने लगा और फिर मुझे मंदिर के पीछे ले गया, जहां पत्थरों पर काम हो रहा था। वहां भगवान की मूर्तियां भी बन रही थीं। मैंने सोचा कि शायद वह कहेगा कि भगवान की इन मूर्तियों के लिए मंदिर बन रहा है, लेकिन इससे तो मेरी जिज्ञासा शांत नहीं होगी, क्योंकि तब प्रश्न होगा कि भगवान की ये मूर्तियां क्यों बन रही हैं? लेकिन नहीं, मैं भूल में था। उसने मूर्तियों की कोई बात ही नहीं उठाई। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-46)”

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