प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-07)

प्रभु—मंदिर का चौथा द्वार: उपेक्षा—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 3 दिसम्‍बर, 1968; रात्री

ध्‍यान—शिविर नारगोल।

प्रभु के मंदिर के चौथे द्वार पर हम खड़े हो गए हैं। उस द्वार पर लिखा है उपेक्षा, इनडिफरेंस। करुणा, मैत्री और मुदिता के बाद जो द्वार पार करना होता है साधक को, वह द्वार है उपेक्षा। और बड़ी कठिनाई होगी यह समझने में कि करुणा, मैत्री और मुदिता सीख लेने के बाद उपेक्षा का, इनडिफरेंस का क्या अर्थ हो सकता है?

परमात्मा की दिशा में जो गतिमान होना चाहते हैं, उन्हें निश्चित ही परमात्मा से विरोधी, जो कुछ है उसके प्रति उपेक्षा का भाव ग्रहण करना होता है। सत्य की दिशा में जो जाना चाहते हैं उन्हें जो असत्य है उसके प्रति उपेक्षा का भाव ग्रहण करना होता है। सार की जो खोज में लगे हैं, असार के प्रति उन्हें उपेक्षा दिखानी पड़ती है। Continue reading “प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-07)”

प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-06)

प्रभु—मंदिर का तीसरा द्वार: मुदिता—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 3 दिसम्‍बर; 1968, सुबह

ध्‍यान—शिविर—नारगोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

प्रभु के मंदिर पर तीसरे द्वार पर आज बात करनी है। वह तीसरा द्वार है— उन दो द्वारों को; करुणा को, मैत्री को जिन्होंने समझा, वे इस तीसरे द्वार को भी सहज ही समझ लेंगे। तीसरा द्वार है मुदिता। मुदिता का अर्थ है. प्रफुल्लता, आनंदभाव, अहोभाव, चियरफुलनेस। आषाढ़ में बादल घिरते हैं। उनमें भरा हुआ जल करुणा है। फिर वह जल बरस पड़ता है प्यासी पृथ्वी पर। वह बरसा हुआ जल मैत्री है। और फिर उस बरसे हुए जल से जो तृप्ति हो जाती है पृथ्वी के प्राणों में, और सारी पृथ्वी हरियाली से भर जाती है, खुशी से और आनंद से और नाच उठती है। Continue reading “प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-06)”

प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-05)

हिंसा, अहंकार; प्रेम और ध्‍यान—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 2 दिसम्‍बर; 1968, रात्री

ध्‍यान—शिविर, नारगोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि हम उन लोगों के प्रति तो प्रेमपूर्ण हो सकते हैं जो हमारे प्रति प्रेमपूर्ण हो लेकिन उन लोगों के प्रति प्रेमपूर्ण कैसे हो सकते हैं जो हमारे प्रति प्रेमपूर्ण नहीं है? बल्कि हमें हर तरह की चोट पहुंचाने की भी कोशिश करते हैं?

हीं, हम चूंकि प्रेमपूर्ण नहीं हैं, इसलिए हमें यह देखना पड़ता है कि कौन हमें प्रेम करता है और कौन हमें चोट पहुंचाता है। हम प्रेमपूर्ण हों तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन हमें प्रेम करता है और कौन हमें चोट पहुंचाता है। हमारा प्रेमपूर्ण होना हमारा स्वभाव हो तो इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता है कि कौन हमारे साथ क्या करता है! Continue reading “प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-05)”

प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-04)

प्रभु—मंदिरका दूसरा द्वार: मैत्री—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 2 दिसम्‍बर, 1968; ध्‍यान—शिविर, नारगोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

प्रभु के मंदिर के दूसरे द्वार पर आज बात करनी है। वह दूसरा द्वार है मैत्री, फ्रेंडलीनेस। करुणा है पहला द्वार, मैत्री है दूसरा द्वार। करुणा है वर्षा के दिनों में आकाश में छाए हुए बादलों की भांति जो पानी से भरे हैं। मैत्री है उस पानी की भांति जो जमीन पर बरस आता है। आकाश में बादल छाते हैं पानी से भरे हुए, लेकिन पृथ्वी की प्यास उनसे नहीं बुझती है। जब तक कि पानी आकाश से पृथ्वी तक उतर न आए तब तक उसकी प्यास नहीं बुझती है। करुणा है हृदय में भरा हुआ बादल। जब तक वह मैत्री बन कर जगत तक पहुंच न जाए, फैल न जाए तब तक पूरे अर्थों में सार्थक नहीं होती। Continue reading “प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-04)”

प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-03)

मौन, उपेक्षा, करूणा और ध्‍यान—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 1 दिसम्‍बर, 1968, रात्री।

ध्‍यान-शिविर, नारगोल।

बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।

 एक मित्र ने पूछा है कि ओशो मौन का प्रयोग करते हैं तो आस— पास के वातावरण के प्रति एक तरह की उपेक्षा का भाव आ जाता है— और सुबह मैने कहा है कि करुणा का प्रयोग करना है— तो उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि मौन और करुणा दोनों प्रयोग एक साथ कैसे किए जा सकते हैं?

निरंतर बात करने की आदत से ऐसा लगता है कि जब हम मौन हो रहे हैं तो हम उन लोगों के प्रति कठोर हो रहे हैं जिनसे हम बात करते थे, Continue reading “प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-03)”

प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-02)

प्रभु—मंदिर का पहला द्वार: करूणा—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 1 दिसम्‍बर, 1968; सुबह

ध्‍यान—शिविर, नारगोल।

प्रभु के मंदिर की सीढ़ियों की बात कल मैंने आपसे कही। जैसे सीढ़ियां हैं उस मंदिर की, वैसे द्वार भी हैं।

पहले द्वार पर आज चर्चा करेंगे। मैं जो कहूं उसे सुनने के साथ—साथ अनुभव भी कर सकें तो ही वह स्पष्ट हो सकेगा। और बाद में अनुभव करना जरूरी नहीं है। मैं जब बोल रहा हूं तब भी अनुभव किया जा सकता है। मेरे बोलने के साथ ही जिस संबंध में मैं कुछ कहूंगा वह आपका अनुभव भी बनाया जा सकता है। Continue reading “प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-02)”

प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-01)

प्रभु की पगडंडियां–ओशो

(साधना—शिविर, नारगोल में हुए 7 अमृत प्रवचनों, प्रश्‍नोत्‍तरो एवं ध्‍यान—सूत्रों का अपूर्व संकलन।)

वर्तमान में जीएं: मौन, नासाग्र—दृष्‍टि—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 31 नवग्‍बर, 1968; रात्री

ध्‍यान—शिविर, नारगोल।

प्रिय!

इस निर्जन सागर—तट पर आपको, आपको बुलाया और आप आ गए हैं। शायद आपको ठीक खयाल भी न हो कि किसलिए बुलाया गया है। यदि आपने सोचा हो कि मैं यहां कुछ बोलूंगा और आप सुनेंगे, तो आपने ठीक नहीं सोचा। बोलने के लिए तो मैं गांव—गांव में खुद ही आ जाता हूं और आप मुझे सुन लेते हैं। यहां सिर्फ सुनने के लिए आने की कोई जरूरत नहीं है। यहां कुछ करने का खयाल हो तो ही आने की सार्थकता है। मेरी तरफ से मैंने कुछ करने को ही आपको यहां बुलाया। क्या करने को बुलाया? Continue reading “प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-01)”

अंतर्यात्रा -(प्रवचन-08)

‘मैं’ से मुक्‍ति—(प्रवचन—आंठवां)

दिनांक 5 फरवरी, 1968; दोपहर

ध्‍यान शिविर, आजोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

ज शिविर की अंतिम बैठक है और विदा की इस बैठक में कुछ अंतिम सूत्रों पर मुझे आपसे बात करनी है।

मनुष्य के मस्तिष्क में, मनुष्य की बुद्धि में तीव्र तनाव है और यह तनाव विक्षिप्तता के करीब पहुंच गया है। इस तनाव को शिथिल कर लेना है। और ठीक इसके साथ ही मनुष्य के हृदय में बड़ी शिथिलता है, मनुष्य के हृदय के तार बहुत ढीले छूट गए हैं, उन्हें वापस कस लेना है। यह हृदय के तार कैसे कसे जाएंगे, इस संबंध में थोड़े से सूत्र मैंने सुबह कहे। और अंतिम सूत्र की बात अभी करनी है। Continue reading “अंतर्यात्रा -(प्रवचन-08)”

अंतर्यात्रा -(प्रवचन-07)

ह्रदय—वीणा के सूत्र—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 5 फरवरी, 1968; सुबह।

ध्‍यान शिविर आजोल।

विचार का, थिंकिग का केंद्र मस्तिष्क है; और भाव का, फीलिंग का केंद्र हृदय है; और संकल्प का, विलिंग का केंद्र नाभि है। विचार, चिंतन, मनन मस्तिष्क से होता है। भावना, अनुभव, प्रेम, घृणा और क्रोध हृदय से होते हैं। संकल्प नाभि से होते हैं। विचार के केंद्र के संबंध में कल थोड़ी सी बातें हमने कीं। Continue reading “अंतर्यात्रा -(प्रवचन-07)”

अंतर्यात्रा -(प्रवचन-06)

विश्‍वास—मात्र से छुटकारा—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 4 फरवरी, 1968; रात्रि

ध्‍यान शिविर, आजोल।

विचार की श्रृंखलाओं में मनुष्य एक कैदी की भांति बंधा है। विचार के इस कारागृह में, इस कारागृह की नींव में कौन से पत्थर लगे हैं, उन पत्थरों में एक पत्थर के संबंध में दोपहर हमने बात की। दूसरे और उतने ही महत्वपूर्ण पत्थर के संबंध में अभी रात हमें बात करनी है। अगर बुनियाद के ये दो पत्थर हट जाएं—सीखे हुए ज्ञान को ज्ञान समझने की भूल समाप्त हो जाए और दूसरा और पत्थर जिसकी मैं अभी बात करूंगा, वह हट जाए तो मनुष्य विचारों के जाल से अत्यंत सरलता से ऊपर उठ सकता है। Continue reading “अंतर्यात्रा -(प्रवचन-06)”

अंतर्यात्रा -(प्रवचन-05)

ज्ञान के भ्रम से छुटकारा—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 4 फरवरी, 1968; दोपहर

ध्‍यान शिविर आजोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य के मन की दशा— मधुमक्खियों के छेड़े गए छत्ते की भांति मनुष्य के मन की दशा है। विचार और विचार और विचार और विचारों की यह भिनभिनाहट मक्खियों की तरह मनुष्य के मन को घेरे रहती है। इन विचारों में घिरा हुआ मनुष्य अशांति में, तनाव में और चिंता में जीता है। जीवन को जानने और पहचानने के लिए मन चाहिए एक झील की भांति शांत, जिस पर कोई लहर न उठती हो। जीवन से परिचित होने के लिए मन चाहिए एक दर्पण की भांति निर्मल, जिस पर कोई धूल न जमी हो। Continue reading “अंतर्यात्रा -(प्रवचन-05)”

अंतर्यात्रा-(प्रवचन-04)

मन—साक्षात्‍कार के सूत्र—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 4 फरवरी, 1968; सुबह।

ध्‍यान साधना शिविर, आजोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य का मन, उसका मस्तिष्क एक रुग्ण घाव की तरह निर्मित हो गया है। वह एक स्वस्थ केंद्र नहीं है, एक अस्वस्थ फोड़े की भांति हो गया है। और इसीलिए हमारा सारा ध्यान मस्तिष्क के आस—पास ही घूमता रहता है। शायद आपको यह खयाल न आया हो कि शरीर का जो अंग रुग्ण हो जाता है, उसी अंग के आस— पास हमारा ध्यान घूमने लगता है। अगर पैर में दर्द हो तो ही पैर का पता चलना शुरू होता है और पैर में दर्द न हो तो पैर का कोई भी पता नहीं चलता। हाथ में फोड़ा हो तो उस फोड़े का पता चलता है। फोड़ा न हो तो हाथ का कोई पता नहीं चलता है। हमारा मस्तिष्क जरूर किसी न किसी रूप में रुग्ण हो गया है, क्योंकि चौबीस घंटे हमें मस्तिष्क का ही पता चलता है और किसी चीज का कोई पता नहीं चलता। Continue reading “अंतर्यात्रा-(प्रवचन-04)”

अंतर्यात्रा-(प्रवचन-03)

नाभि—यात्रा : सम्‍यक आहार—श्रम—निंद्रा—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक, 3 फरवरी; 1968; रात्रि।

साधना—शिविर—आजोल।

नुष्य का जीवन कैसे आत्म—केंद्रित हो, कैसे वह स्वयं का अनुभव कर सके, कैसे आत्म—उपलब्धि हो सके, इस दिशा में आज दिन की दो चर्चाओं में थोड़ी सी बात हुई है। कुछ बातें और पूछी गई हैं। उन्हें समझने के लिए मैं तीन सूत्रों पर और अभी आपसे बात करूंगा। जो प्रश्न आज की चर्चा से संबंधित नहीं हैं, उनकी कल और परसों आपसे बात करूंगा। जो प्रश्न आज की चर्चा से संबंधित हैं, उन्हें मैं तीन सूत्रों में बांट कर आपसे बात करता हूं। Continue reading “अंतर्यात्रा-(प्रवचन-03)”

अंतर्यात्रा-(प्रवचन-02)

मस्‍तिष्‍क से ह्रदय, ह्रदय से नाभि की और—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 3 फरवरी, 1968, दोपहर

साधना—शिविर–आजोल।

सुबह की बैठक में शरीर का वास्तविक केंद्र क्या है, इस संबंध में हमने थोड़ी सी बातें कीं।

न तो मस्तिष्क और न हृदय, बल्कि ‘ नाभि ‘ मनुष्य के जीवन का सर्वाधिक केंद्रीय और मूलभूत आधार है।

इस संबंध में कुछ और प्रश्न पूछे गए हैं, उनके संबंध में मैं थोड़ी बात करूंगा।

मस्तिष्क के आधार पर निर्मित जो मनुष्य है, उसकी जीवन—दिशा और धारा गलत चली गई है। पिछले पांच हजार वर्षों में हमने केवल मस्तिष्क को ही, बुद्धि को ही दीक्षित और शिक्षित किया है। Continue reading “अंतर्यात्रा-(प्रवचन-02)”

अंतर्यात्रा-(प्रवचन-01)

अंतर्यात्रा (ओशो)

(साधना—शिविर, आजोल में हुए 8 प्रवचनों, प्रश्‍नोत्‍तरोएवं ध्‍यान—सूत्रों का अपूर्व संकलन।)

साधना की पहली सीढ़ी: शरीर -(प्रवचन-पहला)

( दिनांक 3 फरवरी, 1968; सुबह, आजोल)

मेरे प्रिय आत्मन्!

साधना—शिविर की इस पहली बैठक में, साधक के लिए जो पहला चरण है, उस संबंध में ही मैं आपसे बात करना चाहूंगा।

साधक के लिए पहली सीढ़ी क्या है? विचारक के लिए सीढ़ियां अलग होती हैं, प्रेमी के लिए सीढ़ियां अलग होती हैं। साधक के लिए अलग ही यात्रा करनी होती है। Continue reading “अंतर्यात्रा-(प्रवचन-01)”

साधना-पथ-(प्रवचन-14)

साधना और संकल्‍प—(प्रवचन—चौदहसवां)

8 जून, 1964; सुबह

मुछाला महावीर, राणकपुर।

मैं आज क्या कहूं?

संध्या हम विदा होंगे और उस घड़ी के आगमन के विचार से ही आपके हृदय भारी हैं। इस निर्जन में अभी पांच दिवस पूर्व ही हमारा आना हुआ था और तब जाने की बात किसने सोची थी?

पर स्मरण रहे कि आने में जाना अनिवार्यरूपेण उपस्थित ही रहता है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वे साथ ही साथ हैं, यद्यपि दिखाई अलग—अलग देते हैं। उनके अलग—अलग समयों में दिखाई पड़ने से हम भ्रम में पड़ जाते हैं, पर जो थोड़ा गहरा देखेगा, वह पाएगा कि मिलन ही विदा है और सुख ही दुख है और जन्म ही मृत्यु है। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-14)”

साधना-पथ-(प्रवचन-13)

साधक का पाथेय—(प्रवचन—तेरहवां)

दिनांक, 7 जून, 1964; संध्‍या।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

ह कहा गया है कि आप शास्त्रों में विश्वास करो, भगवान के वचनों में विश्वास करो, गुरुओं में विश्वास करो। मैं यह नहीं कहता हूं। मैं कहता हूं कि अपने में विश्वास करो। स्वयं को जान कर ही शास्त्रों में जो है, भगवान के वचनों में जो है, उसे जाना जा सकता है।

वह जो स्वयं पर विश्वासी नहीं है, उसके शेष सब विश्वास व्यर्थ हैं। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-13)”

साधना-पथ-(प्रवचन-12)

सत्‍य–अनुभूति में बाधाएं—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक, 7 जून, 1964; सुबह।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

प्रश्न : ओशो क्या आप तत्वदर्शन का कोई मूल्य नहीं मानते हैं? क्या सत्य को जानने के लिए सत्य के संबंध में जानना आवश्यक नहीं है?

त्य को जानने के पूर्व सत्य को नहीं जाना जा सकता है। और सत्य के संबंध में जानना, सत्य को जानना नहीं है। वह सब असत्य है। वह इसलिए असत्य है, क्योंकि स्वानुभव के अभाव में उसे समझा ही नहीं जा सकता है। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-12)”

साधना-पथ-(प्रवचन-11)

निविषय—चेतना का जागरण—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 6 जून, 1964; संध्‍या।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

चिदात्मन्!

मैं आपको देख कर कितना आनंदित हूं! सत्य के लिए आपकी जिज्ञासा और प्यास कितनी गहरी है। उसे मैं आपकी आंखों में देख रहा हूं उसे मैं आपकी श्वास—श्वास में अनुभव कर रहा हूं। और सत्य के लिए आंदोलिन आपके हृदय मेरे हृदय को भी आंदोलिन कर रहे हैं। और सत्य के लिए आपकी प्यास मुझे भी छू रही है। यह कितना आनंदपूर्ण है, और यह सब कितना रसमय और सुंदर है! Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-11)”

साधना-पथ-(प्रवचन-10)

ध्‍यान, जीवन और सत्‍य—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक, 6 जून, 1964 सुबह;

मुछाला महावीर, राणकपुर

सत्य का दर्शन कितनी सरल बात है, लेकिन सरलतम को ही देख पाना सदा कठिनतम रहा है।

यह इसलिए कि जो सरल है और निकट है, वह सरल और निकट होने के कारण ही भूल जाता है। हम दूर में उलझे रहते हैं और इसलिए निकट दृष्टि से ओझल हो जाता है, और हम ’पर’ में व्यस्त, ऑकुपाइड होते हैं, इसलिए ’स्व’ की विस्मृति हो जाती है। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-10)”

साधना-पथ-(प्रवचन-09)

मन का अतिक्रमण—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 5 जून, 1964; संध्‍या।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

प्रश्न: ओशो सत्य देने में कोई भी समर्थ नहीं है पर क्या आपकी बातें सत्य नहीं हैं?

मैं जो कह रहा हूं वह केवल इशारा है। उसे ही सत्य नहीं समझ लेना है। सत्य उस इशारे से बहुत दूर है।

उस इशारे को नहीं, जिस तरफ इशारा है वहां देखना है। उस तरफ देखने पर जो स्वयं दिखेगा वह सत्य है। उस सत्य को कहने का मार्ग नहीं है। वह कहते ही असत्य हो जाता है। वह अनुभव तो बनता है, पर अभिव्यक्ति नहीं बनता है। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-09)”

साधना-पथ-(प्रवचन-08)

सत्‍य: स्‍वानुभव की साधना—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक, 5 जून, 1964; सुबह।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

चिदात्मन्!

मैं आपको सत्य देने में असमर्थ हूं। और कोई कहे समर्थ है तो वह प्रारंभ से ही असत्य दे रहा है! सत्य देने में कोई भी समर्थ नहीं है। यह देने वाले की असमर्थता का नहीं, सत्य के जीवंत होने का संकेत है। वह वस्तु नहीं है कि उसे लिया—दिया जा सके। वह जीवंत अनुभूति है और अनुभूति स्वयं ही पानी होती है। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-08)”

साधना-पथ-(प्रवचन-07)

‘स्‍व’ की अग्‍नि—परीक्षा—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक,4 जून, 1964; संघ्‍या।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

मैं दूसरों की दृष्टि में क्या हूं यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि मैं अपनी स्वयं की दृष्टि में क्या हूं! पर हम दूसरों की दृष्टि से ही स्वयं को भी देखने के आदी हो जाते हैं, और भूल जाते हैं कि स्वयं को सीधा, डायरेक्ट और प्रत्यक्ष, इमिजिएट देखने का भी एक रास्ता है और वही रास्ता वास्तविक भी है, क्योंकि वह परोक्ष नहीं है। पहले तो हम स्वयं ही दूसरों को दिखाने के लिए अपना एक रूप, एक आवरण बना लेते हैं और फिर दूसरों को जैसे दिखते हैं, उस पर ही स्वयं के संबंध में भी धारणा कर लेते हैं। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-07)”

साधना-पथ-(प्रवचन-06)

नीति, समाज और धर्म—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक, 4 जून, 1964; सुबह।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

प्रश्न: ओशो क्या आप नैतिक होना बुरा समझते हैं?

हीं। नैतिक होना बुरा नहीं समझता हूं पर नैतिक होने के भ्रम को अवश्य ही बुरा समझता हूं। वह वास्तविक नैतिकता के आने में बाधा बन जाता है।

मिथ्या—नैतिकता बाह्य आरोपण, कल्टीवेशन होती है। उससे दंभ की तृप्ति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता है, और मेरी दृष्टि में दंभ— अहंकार से अधिक अनैतिक चित्त—स्थिति और कोई भी नहीं है। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-06)”

साधना-पथ-(प्रवचन-05)

नीति नहीं, धर्म—साधना—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 3 जून, 1964; सध्‍या

मुछाला महावीर, राणकपुर।

चिदात्मन्!

मैं आपकी जिज्ञासा और उत्सुकता को समझ रहा हूं। आप सत्य को जानने और समझने को उत्सुक हैं। जीवन के रहस्य को आप खोलना चाहते हैं, ताकि जीवन उपलब्ध हो सके। अभी तो जिसे हम जीवन कहते हैं, वह कोई जीवन नहीं है। वह तो मृत्यु की एक लंबी क्रिया ही कही जा सकती है। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-05)”

साधना-पथ-(प्रवचन-04)

रूको, देखो और होओ—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 3 जून, 1964; सुबह

मुच्‍छाला महावीर, राणकपुर।

त्य को खोजें नहीं। खोजने में अहंकार, ईगो है। और अहंकार ही तो बाधा है। अपने को खो दें। मिट जाएं। जब ‘मैं’ शून्य होता है, तब उसके दर्शन होते हैं, जो कि वस्तुत: मैं हूं।’ मैं— भाव ‘मिटता है, तब ‘मैं—सत्ता’ मिलती है। अपने को खोकर ही ‘स्व’ को पाना होता है। जैसे बीज जब अपने को तोड़ देता है और मिटा देता है, तभी उसमें नव—जीवन अंकुरित होता है। वैसे ही ‘मैं’ बीज है, वह आत्मा का बाह्य आवरण और खोल है, वह तब मिट जाता है जब अमृत जीवन के अंकुर का जन्म होता है। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-04)”

साधना-पथ-(प्रवचन-03)

धर्म, संन्‍यास, अमूर्च्‍छा और ध्‍यान—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक, 2 जून, 1964; संध्‍या,

मुच्‍छाला महावीर, राणकपुर।

प्रश्न : ओशो क्या धर्म और विज्ञान में विरोध है?

हीं। विज्ञान को जानना अधूरा ज्ञान है। वह ऐसा ही है कि सारे जगत में तो प्रकाश हो और मेरे अपने ही घर में अंधेरा हो। ऐसे अधूरे ज्ञान से— अपने को ही न जानने से जीवन दुख में परिणत हो जाता है। जीवन शांति, संतोष और कृतार्थता से भरे, इसके लिए वस्तुओं को जानना ही पर्याप्त नहीं है। उस तरह समृद्धि आ सकती है, पर धन्यता नहीं आती है। उस तरह परिग्रह आ सकता है, पर प्रकाश नहीं आता है। और प्रकाश न हो तो परिग्रह बंधन हो जाता है। वह अपने ही हाथों लगाई फांसी हो जाती है। जो संसार को ही जानता है, वह अधूरा है और इस अधूरेपन से दुख पैदा होते हैं। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-03)”

साधना-पथ-(प्रवचन-02)

 ध्‍यान में कैसे होना—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक, 2 जून, 1968; सुबह

मुछाला महावीर, राणकपुर।

चिदात्मन्!

मैं आपको देख कर अत्यंत आनंदित हूं। ईश्वर को, सत्य को, स्वयं को पाने को आप इस निर्जन में इकट्ठे हुए हैं। लेकिन क्या मैं आपसे पूछूं कि जिसे आप खोज रहे हैं, क्या वह आपसे दूर है? जो दूर हो उसे खोजा जा सकता है, पर जो स्वयं आप हो, उसे कैसे खोजा जा सकता है? Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-02)”

साधना-पथ-(प्रवचन-01)

साधना की भूमिका—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 1 जून, 1963; सन्‍ध्‍या

मुछाला महावीर, रणकपुर

चिदात्मन्!

बसे पहले मेरा प्रेम स्वीकार करें। इस पर्वतीय निर्जन में, मैं उससे ही आपका स्वागत कर सकता हूं। यूं इसके अतिरिक्त मेरे पास देने को कुछ है भी नहीं।

प्रभु के सान्निध्य ने जिस अनंत प्रेम को मेरे भीतर जन्म दिया है उसे बांटना चाहता हूं उसे उलीचना चाहता हूं। और आश्चर्य तो यही है कि जितना उसे बांटता हूं वह उतना ही बढ़ता जाता है। Continue reading “साधना-पथ-(प्रवचन-01)”

साधना-पथ-(साधना-शिविर)-ओशो

साधना—पथ  ओशो

तीन साधना—शिविरों : (–मुछाला महावीर, रणकपुर (साधना पथ)

   –आजोल (अंतर्यात्रा) एवं नारगोल (प्रभु की पगडंडियां)

  में हुए प्रवचनों, प्रश्‍नोत्‍तरों एवं ध्‍यान—सूत्रों का अपूर्व संकलन।)

आलोक-आमंत्रण:

मैं मनुष्य को एक घने अंधकार में देख रहा हूं। जैसे अंधेरी रात में किसी घर का दीया बुझ जाये, ऐसा ही आज मनुष्य हो गया है। उसके भीतर कुछ बुझ गया है।

पर-जो बुझ गया है, उसे प्रज्वलित किया जा सकता है।

और, मैं मनुष्य को दिशाहीन हुआ देख रहा हूं। जैसे कोई नाव अनंत सागर में राह भूल जाती है, ऐसा ही आज मनुष्य हो गया है। वह भूल गया है कि उसे कहां जाना है और क्या होना है? Continue reading “साधना-पथ-(साधना-शिविर)-ओशो”

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