एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-122)

एस धम्‍मो सनंतनो—(प्रवचन-एकसौबाईस्वां)

  प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:  यह मोह क्या है? उससे इतना दुख पैदा होता है, फिर भी वह छूटता क्यों नहीं है?

नुष्‍य शून्य होने की बजाय दुख से भरा होना ज्यादा पसंद करता है।

भरा होना ज्यादा पसंद करता है। खाली होने से भयभीत है। चाहे फिर दुख से ही क्यों न भरा हो। सुख न मिले, तो कोई बात नहीं है। दुख ही सही। लेकिन कुछ पकड़ने को चाहिए। कोई सहारा चाहिए। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-122)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-121)

जागो और जीओ—(प्रवचन-एकसौइक्कीसवां)

सूत्र:

आसा यस्‍य न विज्‍जन्‍ति अस्‍मिं लोके परम्‍हि च।

निरासयं विसंयुत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।324।।

अस्‍सालया न विज्‍जन्‍ति अज्‍जाय अकथंकथी।

अमतोगधं अनुप्‍पतं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।325।।

यो’ध पुज्‍जज्‍च पापज्‍च उभो संगं उपच्‍चगा।

असोकं विरजं सुद्धं तमहं ब्रूमि ब्रह्मणं ।।326।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-121)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-120)

अप्प दीपो भव!—(प्रवचन-एकसौबीसवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:  मैं तुम्हीं से पूछती हूं? मुझे तुमसे प्यार क्यों है?

कभी तुम जुदा न होओगे, मुझे यह ऐतबार क्यों है?

पूछा है मा योग प्रज्ञा ने।

प्रेम के लिए कोई भी कारण नहीं होता। और जिस प्रेम का कारण बताया जा सके, वह प्रेम नहीं है। प्रेम के साथ क्यों का कोई भी संबंध नहीं है। प्रेम कोई व्यवसाय नहीं है। प्रेम के भीतर हेतु होता ही नहीं। प्रेम अकारण भाव—दशा है। न कोई शर्त है, न कोई सीमा है। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-120)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-119)

ब्राह्मणत्व के शिखर-बुद्ध—(प्रवचन-एकसौउन्नीसवां)

सूत्र:

न ब्राह्मणस्‍सेतदकिज्‍चि सेय्यो यदा निसेधो मनसो पियेहि।

यतो यतो हिंसमानो निवत्‍तति ततो ततो सम्‍मति एव दुक्‍खं ।।318।।

न जटाहि न गोत्‍तेहि न जच्‍चा होति ब्राह्मणो।

यम्‍हि सच्‍चज्‍च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ।।319।।

किं ते जटाहि दुम्मेध! किं ते अजिनसाटिया।

अब्‍भन्‍तरं ते गहनं बाहिरं परिमज्‍जसि ।।320।।

सब्‍बसज्‍जोजनं छेत्‍वा यो वे न परितस्‍सति।

संगातिगं विसज्‍जुत्‍तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।321।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-119)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-118)

समग्र संस्कृति का सृजन—(प्रवचन-एकसौअट्ठाहरवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:   पूर्व के और खासकर भारत के संदर्भ में एक प्रश्न बहुत समय से मेरा पीछा कर रहा है। वह यह कि जिन लोगों ने कभी दर्शन और चिंतन के, धर्म और ध्यान के गौरीशंकर को लांघा था, वे ही कालांतर में इतने ध्वस्त, और पतित, और विपन्न कैसे हो गए? भगवान, इस प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

स्वाभाविक ही था। अस्वाभाविक कभी होता भी नहीं। जो होता है, स्वाभाविक है। यह अनिवार्य था। यह होकर ही रहता। क्योंकि जब भी कोई जाति, कोई समाज एक अति पर चला जाता है, तो अति से लौटना पड़ेगा दूसरी अति पर। जीवन संतुलन में है, अतियों में नहीं। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-118)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-117)

बुद्धत्व का आलोक—(प्रवचन-एकसौसत्रहवां)

सूत्र:

छिंद सोतं परक्‍कम्‍म कामें पनुद ब्राह्मण।

संखारानं खयं जत्‍वा अकतज्‍जूसि ब्राह्मण ।।313।।

यदा द्वयंसु धम्मेसु पारगू होति ब्राह्मणो।

अथस्‍स सब्बे संयोगा अत्‍थं गच्‍छंति जानतो ।।314।।

यस्‍स पारं अपारं वा पारापारं न विज्‍जति।

वीतद्दरं विसज्‍जुत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।315।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-117)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-116)

राजनीति और धर्म—(प्रवचन-एकसौसौहलवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:  आपने कबीर और मीरा की एक ही सभा में उपस्थित होने की कहानी कही। लेकिन यह ऐतिहासिक रूप से संभव नहीं है। क्योंकि दोनों समसामयिक नहीं थे।

तिहास का मूल्य दो कौड़ी है। इतिहास से मुझे प्रयोजन भी नहीं है। कहानी अपने आप में मूल्यवान है, इतिहास में घटी हो या न घटी हो। घटने से मूल्य बढ़ेगा नहीं।

कहानी का मूल्य कहानी के भाव में है। और ऐतिहासिक रूप से भी घट सकती है, कोई बहुत कठिन बात नहीं है। अगर कबीर एक सौ बारह साल जिंदा रहे हों—जो कि संभव है—तो कबीर और मीरा का मिलन हो सकता है। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-116)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-115)

विराट की अभीप्सा—(प्रवचन-एकसौप्रंद्रहवां)

सूत्र:

सुज्‍जागारं पविट्ठस्‍स संतचित्‍तस्‍स भिक्‍खुनो।

अमानुसी रति होति सम्‍माधम्‍मं विपस्‍सतो ।।307।।

यतो यतो सम्मसति खन्‍धानं उदयव्ययं ।

लभती पीतिपामोज्जं अमतं नं विजानतं ।।308।।

पटिसन्‍थारवुत्‍तस्‍स आचारकुसलो सिया।

ततो पामोज्‍जबहुलो दुक्‍खस्‍सन्‍तं करिस्‍सति ।।309।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-115)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-114)

जीन की कला—(प्रवचन-एकसौचौहदवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न : आत्मा और परमात्मा को अस्वीकार करने वाले गौतम बुद्ध धर्म-गंगा को पृथ्वी पर उतार लाने वाले विरले भगीरथों में गिने गए। और आपने अपने धम्मपद-प्रवचन को नाम दिया-एस धम्मो सनंतनो। धम्मपद-प्रवचन के इस समापन-पर्व में हमें संक्षेप में एक बार फिर इस धर्म को समझाने की अनुकंपा करें।

त्‍मा और परमात्मा को मानना-वस्तुत: किसी भी चीज को मानना-कमजोरी और अज्ञान का लक्षण है। मानना ही अज्ञान का लक्षण है। जानने वाला मानता नहीं। जानता है, मानने की कोई जरूरत नहीं। मानने वाला जानता नहीं। जानता नहीं, इसीलिए मानता है। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-114)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-113)

संन्यास की मंगल-वेला-(प्रवचन-एकसौतैहरवां)

सूत्र:

सब्‍बसो नाम—रूपस्‍मिं यस्स नत्‍थि ममयितं।

असता च न सोचति स वे भिक्‍खूति वुच्‍चति ।।303।।

सिज्‍च भिक्‍खु! इमं नावं सित्‍ता ते लहुमेस्‍सति।

छेत्‍वा रागज्‍च दोसज्‍च निब्‍बाणमेहिसि ।।304।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-113)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-112)

मंजिल है स्वयं में—(प्रवचन-एकसौबारहवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न: भगवान बुद्ध कहते हैं कि संतों का धर्म कभी जराजीर्ण नहीं होता है; फिर कृष्ण, महावीर, स्वयं बुद्ध और जीसस के धर्म इतने जराजीर्ण कैसे हो चले? इस प्रसंग पर कुछ प्रकाश डालने की अनकंपा करें।

संतो का धर्म निश्चित ही कभी जराजीर्ण नहीं होता है। और जो जराजीर्ण हो जाता है, वह संतों का धर्म नहीं है।

ईसाइयत का कोई संबंध ईसा से नहीं है। और बौद्धों का कोई संबंध बुद्ध से नहीं है। जैनों को महावीर से क्या लेना—देना है? Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-112)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-111)

समाधि के सत्र: एकांत, मौन, ध्यान—

(प्रवचन-एकसौग्याहरवां)

सूत्र:

भिक्‍खुवग्‍गो:

चक्‍खुना संवरो साधु साधु सोतेन संवरो।

घाणेन संवरो साधु साधु जिह्वाय संवरो ।।298।।

            कायेन संवरो सा सा वाचाय संवरो।

मनसा संवरो सा सा सब्बत्थ संवरो।

सबत्थ संवुतो भिक्‍खु सब्‍बदुक्‍खा पमुच्‍चति ।।299।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-111)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-110)

भीतर डूबो—(प्रवचन-एकसौदसवां)

 प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

हरमन हेस की प्रसिद्ध पुस्तक सिद्धार्थ में एक पात्र है वासुदेव। वासुदेव प्रमुख पात्र सिद्धार्थ से कहता है : मैंने नदी से सीखा है, तुम भी नदी से सीखो। नदी सब: सिखा देती है। वासुदेव का नदी से सीखने का क्या आशय है —कृपा करके हमें कहिए।

दी प्रतीक है, और बुद्ध की परंपरा में महत्वपूर्ण प्रतीक है, क्योंकि बुद्ध ने कहा : संसार एक प्रवाह है। जैसे यूनान में हैराक्लतु ने कहा कि जीवन एक सरिता है और ऐसी सरिता कि इसमें कोई दुबारा नहीं उतर सकता। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-110)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-109)

धर्म का सार-बांटना—(प्रवचन-एकसौनौवां)

 सूत्र:

हन्‍नति भोगा दुम्‍मेधं नौ चे पारगवेसिनो।

भोगतण्‍हाय दुम्‍मेधो हन्‍ति अज्‍जे’व अत्‍तनं ।।293।।

तिणदोसानि खेत्‍तानि रागदोसा अयं पजा।

तस्‍मा हि वितरागेसु दिन्‍नं होति महप्फलं ।।294।।

तिणदोसानि खेत्‍तानि दोसदोसा अयं पजा।

तस्‍मा हि वीतदोसेसु दिन्‍नं होति महप्फलं ।।295।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-109)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-108)

दर्पण बनो—(प्रवचन-एकसौआठवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

 भगवान बुद्ध ने ज्ञानोपलब्धि के तुरंत बाद कहा : स्वयं ही जानकर किसको गुरु कहूं और किसको सिखाऊं, किसको शिष्य बनाऊं? और फिर उन्होंने चालीस वर्षों तक लाखों लोगों को दीक्षित भी किया और सिखाया भी। लेकिन महापरिनिर्वाण के पहले उनका अंतिम उपदेश था : आत्म दीपो भव! भगवान इस पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

जिसने भी जाना, सदा स्वयं से जाना।

गुरु हो, तो भी निमित्तमात्र है। गुरु न हो, तो भी चल जाएगा। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-108)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-107)

बोध से मार पर विजय—(प्रवचन-एकसौसातवां)

सूत्र:

वितक्‍कपमथितस्‍स जंतुनो तिब्‍बरागस्‍स सुभानुपास्सिनो।

भिय्यो तण्‍हा पबड्ढति एसो खो दल्‍हं करोति बंधनं ।।287।।

वितक्‍कूपसमें च यो रत्‍तो असुभं भावयति सदा सतो।

एस खो व्‍यन्‍तिकाहिनी एसच्‍छेच्‍छति मारबंधनं ।।288।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-107)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-106)

बुद्धत्व का कमल—(प्रवचन-एकसौछ:वां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

उस सुबह बुद्ध ने मौन की परम संपदा महाकाश्यप को प्रतीक फूल देकर दी। फूल सुबह खिलता है और सांझ मुर्झा जाता है। पर झेन की परंपरा आज तक जीवंत है। फूल की क्षणभंगुरता और झेन की जीवंतता को कृपा करके हमें समझाइए।

ह प्रश्न महत्वपूर्ण है। ठीक से समझना और याद रखना। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-106)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-105)

तृष्णा को समझो—(प्रवचन-एकसौपांचवां)

सूत्र:

तसिणाय पुरक्‍खता पजा परिसप्‍पन्‍ति ससो’व बाधितो।

सज्‍जोजनसंगसत्‍ता दुक्‍खमुपेन्‍ति पुनप्‍पुनं चिराय ।।281।।

यो निब्‍बनथो वनाधिमुत्‍तो वनमुत्‍तो बनमेव धावति।

तं पुग्गलमेव पस्‍सथ मुत्‍तो बंधनमेव धावति ।।282।।

न तं दल्‍हं बंधनमाहु धीरा यदायसं दारूजं बब्‍बजज्‍च।

सारत्‍तरत्‍त मणिकुण्‍डलेसु पुत्‍तेसु दारेसु च या अपेक्‍खा ।।283।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-105)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-104)

धम्मपद का पुनर्जन्म—(प्रवचन-एकसौचारवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

भगवान बुद्ध बार—बार कहते हैं कि यही बुद्धों का शासन है। आप भी प्राय: इसी भाषा में बोलते हैं। तो क्या एक बुद्ध सभी बुद्धों की ओर से बोल सकता है? यदि ही, तो अतीत में हुए बुद्धों में मतभेद क्यों रहा?

बुद्धत्‍व का स्वाद एक है; मतभेद दिखता हो, तो तुम्हारे कारण दिखता होगा। तुम्हारी व्याख्या के कारण मतभेद निर्मित होता होगा। तुम्हारी समझ विकृति लाती होगी। अन्यथा बुद्धों ने सदा एक ही बात कही है। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-104)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-103)

तृष्णा की जड़—(प्रवचन-एकसौतीनवां)

 सूत्र:

मनुजस्‍स पमत्‍तचारिनो तण्‍हा बड्ढतिमालुवा विय।

सो पलवती हुराहुरं फलामिच्‍छं’व वनस्‍मिं वानरो।।274।।

यं ऐसा सहती जम्‍मी तण्‍हा लोके विसत्‍तिका।

सोका तस्‍स पबड्ढन्‍ति अभीवट्ठं’व वीरणं।।275।।

यो चेतं सहती जीम्‍मं तण्‍हं लोके दुरच्‍चयं।

सोका तम्‍हा पपतन्‍ति उदविन्‍दू’व पो्क्‍खरा।।276।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-103)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-102)

जीवन का परम सत्य यही अभी, इसी में—(प्रवचन-एकसौदोवां)

सूत्र:

अप्‍पमादरता होथ स—चित्‍तमनुरक्‍खथ।

दुग्‍गा उद्धरथत्‍तानं पंके सत्‍तोव कुंचरो ।।269।।

सचे लभेथ निपकं सिद्धिं चरं साधुविहारिधीरं ।

अभिभुय्य सब्‍बानि परिस्‍सयानि चरेय्य तेनत्‍तमनो सतीमा ।।270।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-102)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-101)

हम अनत के यात्री हैं—(प्रवचन-एकसौएकवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

मैं विगत दो —तीन वर्ष से संन्यास लेना चाहता हूं? अब तक नहीं ले पाया। अब जैसी आपकी आज्ञा।

आप तो ऐसे पूछ रहे हैं जैसे मेरी. आज्ञा से रुके हों! और जब तीन—चार वर्ष तक झंझट टाल दी है, तो अब झंझट क्यों लेते हैं! जब इतने दिन निकल गए, लेना चाहा और नहीं लिया, थोड़े दिन और हैं, निकल जाएंगे! हिम्मत रखो! हारिए न हिम्मत बिसारिए न राम।

एक आदमी मुल्ला नसरुद्दीन के कंधे पर हाथ रखा और पूछा, अरे मुल्ला, आप तो गर्मियों में कश्मीर जाने वाले थे, नहीं गए? मुल्ला ने कहा कि कश्मीर! कश्मीर तो हम पिछले साल जाने वाले थे, और उसके भी पहले मनाली जाने वाले थे, इस साल तो हम नैनीताल नहीं गए। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-101)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-100)

ध्यान का दीप करुणा का प्रकाश-(प्रवचन-सौवां)

सूत्र:

अवज्जे वज्जमतिनो वज्‍जे च वज्जदस्सिनो।

मिच्छादिद्विसमादाना सत्ता गच्छति दुग्‍गतिं ।।263।।

वज्‍जन्‍च वज्‍जतो णत्‍वा अवज्‍जण्‍ज अवज्‍जतो।

समादिट्ठिसमादाना सत्‍ता गच्‍छंति सुग्‍गति ।।264।।

अहं नागोव संगामे चापतो पतितं सरं।

अतिवाक्‍यं तितिक्‍खिस्‍सं दुस्‍सीलो हि वहुज्‍जनौ ।।265।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-100)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-99)

एकमात्र साधना—सहजता—(प्रवचन—नीन्यानवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न: महावीर और गौतम बुद्ध समकालीन थे। आपके प्रवचनों से एकष्ट हो रहा है कि दोनों बात भी एक ही कहते थे। लेकिन दोनों के शिष्य आपस में विवाद और झगड़े भी करते थे। उनके जाने के बाद उनके अनुयायियों के बीच हिंसा और युद्ध भी हुए। लेकिन यदि महावीर और बुद्ध ने कहा होता कि हम एक ही धर्म की बात करते हैं, भेद सिर्फ पद्धति का है, तो इतनी शत्रुता नहीं बढ़ती और दोनों धर्मों की जो क्षति हुई वह न होती। कृपापूर्वक समझाएं।

पूछा हे अमृत बोधिधर्म ने। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-99)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-98)

सत्यमेव जयते—(प्रवचन-अट्ठानवां)

सूत्र:

अभूतवादी निरयं उपेति यो चापि।

कत्‍वा न करोमीति चाह।

उभोति ते पोच्‍च समा भवंति।

निहीनकम्‍मा मनुजा परत्‍थ ।।257।।

कुसो यथा दुग्‍गहीतासे हत्‍थमेवानुकंतति।

सामज्‍जं दुप्‍परामट्ठं निरमाय उपकड्ढति ।।258।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-98)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-97)

मृत्युबोध के बाद ही महोत्सव संभव-(प्रवचन-सत्तानवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न

 आपने कहा कि जीवन का सत्य मृत्यु है। फिर मृत्यु का सत्य क्‍या है?

जीवन विरोधाभासों से बना है। जीवन विरोधाभासों के बीच तनाव और संतुलन है। तनाव भी और संतुलन भी। यहां प्रकाश चाहिए हो तो अंधेरे के बिना न हो सकेगा। यहां जीवन चाहिए हो तो मृत्यु के बिना नहीं हो सकेगा। तो एक अर्थ में अंधेरा प्रकाश का विरोधी भी है और एक अर्थ में सहयोगी भी। ये दोनों बातें खयाल में रखना। विरोधी इस अर्थ में कि अंधेरे से ठीक उलटा है। सहयोगी इस अर्थ में कि बिना अंधेरे के प्रकाश हो ही न सकेगा। अंधेरा पृष्ठभूमि भी है प्रकाश की। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-97)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-96)

लोभ संसार है, गुरु से दूरी है-(प्रवचन-छियानवां)

सूत्र:

दप्‍पव्‍बज्‍जं दुरभरमं दुरवासा घरा दुखा।

दुक्‍खो समानसंवासे दुक्‍खानुपतितद्धगू।

तस्‍सान च अद्धगू सिया न च दुक्‍खानुपतितो सिया ।।253।।

सद्धो सीलेन संपन्‍नो यसोभोगसमप्‍पितो।

यं यं पदेसं भजति तत्‍थ तत्‍थेव पूजितो ।।254।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-96)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-95)

मातरम् पितरम् हंत्‍वा—(प्रवचन—पीच्चानवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

 मैं दूसरों को सलाह देने में बडा कुशल हूं, यद्यपि अपनी समझ अपने ही काम नहीं आती है। दूसरों को सलाह देना इतना सरल क्यों होता है?

महाराज आप सोचते हैं कि आपकी सलाह दूसरों के काम आती है! सलाह किसी के काम नहीं आती। जब आपके ही काम आपकी’ सलाह नहीं आती, तो दूसरे के काम कैसे आ जाएगी? जिसको आपने ही इस योग्य नहीं माना कि इसका उपयोग करूं जीवन में, उसका कौन उपयोग करने वाला है? Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-95)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-94)

धर्म के त्रिरत्न—(प्रवचन—चौरनवां)

 सूत्र:

सुप्‍पबुद्धं पबुज्‍झंति सदा गोतमसावका।

येसं दिवा च रत्‍तो च निच्‍चं बुद्धगता सति ।।247।।

सुप्‍पबुद्धं पबुज्‍झंति सदा गोतमसावका।

येसं दिवा च रत्‍तो च निच्‍चं धम्‍मगता सति ।।248।।

सुप्‍पबुद्धं पबुज्‍झंति सदा गोतमसावका।

येसं दिवा च रत्‍तो च निच्‍चं संधगता सति ।।249।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-94)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-93)

जीने में जीवन—(प्रवचन—तीरनवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

 मैं तब तक ध्यान कैसे कर सकता हूं जब तक कि संसार में इतना दुख है, दरिद्रता है, दीनता है? क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदि करना निपट स्वार्थ नहीं है? परमात्मा मुझे यदि मिले, तो उससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उन लोगों के लिए दंड ही मांगना ज्यादा पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषण है, दुख है और अन्याय है।

जैसी आपकी मर्जी! ध्यान न करना हो तो कोई भी बहाना काफी है। ध्यान न करना हो तो किसी भी तरह से अपने को समझा ले सकते हैं कि ध्यान करना ठीक नहीं। लेकिन अभी यह भी नहीं समझे हो कि ध्यान क्या है? यह भी नहीं समझे हो कि दुनिया में इतना दुख, इतनी पीड़ा, इतनी परेशानी ध्यान के न होने के कारण है। दुखी आदमी दूसरे को दुख देता है। और कुछ देना भी चाहे तो नहीं दे सकता। जो तुम्हारे पास है वही तो दोगे। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-93)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-92)

मृत्यु की महामारी में खड़ा जीवन—(प्रवचन—बानएवां)

सारसूत्र:

मत्‍तासुखपरिच्‍चागा पस्‍से चे विपुलं सुखं।

चजे मत्‍तासुखं धीरो संपस्‍सं विपुलं सुखं ।।241।।

परदुक्‍खूपदानेन यो अत्‍तनो सुखमिच्‍छति।

वेरसंसग्‍गसंसट्ठे वेरा से न परिमुच्‍चति ।।242।।

यं ही किच्चं तदपविद्धं अकिच्चं पन कयिरति।

उन्नलानं पमत्तानं तेसं बड्ढंति आसवा ।।243।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-92)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-91)

सत्य अनुभव है अंतश्चक्षु का—(प्रवचन—इक्यानवां)

प्रश्‍न सार:

सत्य क्या है?

सका  उत्तर नहीं हो सकेगा। इसका उत्तर हो ही नहीं सकता।

सत्य कैसे पाया जा सकता है, इसका तो उत्तर हो सकता है, विधि बतायी जा सकती है, लेकिन सत्य क्या है, उसे बताने का कोई उपाय नहीं। सत्य को तो स्वयं ही जानना होता है, दूसरा न बता सकेगा। और दूसरे का बताया गया सत्य न होगा। ऐसा नहीं कि दूसरे ने नहीं जाना है। सत्य जाना तो जा सकता है, लेकिन जनाया नहीं जा सकता।

प्रश्न महत्वपूर्ण है। लेकिन उत्तर की अपेक्षा न करो। उत्तर तुम्हें खोजना होगा। उत्तर मुझसे न मिल सकेगा। मेरी तरफ से इशारे हो सकते हैं कि ऐसे चलो, ऐसे जीओ, तो एक दिन सत्य मिलेगा। लेकिन सत्य क्या होगा, कैसा होगा, जब मिलेगा तो कैसा स्वाद आएगा, यह तो स्वाद आएगा तभी पता चलेगा। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-91)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-90)

अकेला होना नियति है—(प्रवचन—नब्बवां)

      सूत्र:

यावं हि वनयो न छिज्जति अनुमत्‍तोपि नरस्‍स नारिसु।

पटिबद्धमनो नु गव सो बच्‍छो खीरपकोव मातरि ।।235।।

उच्‍छिंद सिनेहमत्‍तनो कुमुदं सारदिकं व पाणिना।

संति मग्‍गमेव बूहय निब्‍बानं सुगतेन देतितं ।।236।।

इध वस्‍सं वसिस्‍सामि इध हमेत गिम्‍हसु।

इति बालो विचिंतेति अंतरायं न बुज्‍झति ।।237।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-90)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-89)

आचरण बोध की छाया है—(प्रवचन—नव्वासिवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

मैं जानता हूं कि क्या ठीक है, फिर भी उसे कर नहीं पाता हूं। और आप कहते हैं कि ज्ञान से ही, ज्ञानमात्र से ही आचरण बदल जाता है। यह बात मेरी समझ में नहीं आती!

हीं भाई, जानते होते तो बदलाहट होती ही! कोई जाने और बदलाहट न हो, ऐसा होता ही नहीं। जानने में कहीं भ्रांति हो रही होगी। बिना जाने सोचते होओगे कि जान लिया। सुनकर जान लिया होगा, पढ़कर जान लिया होगा, जाना नहीं है। स्वयं का अनुभव नहीं है। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-89)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-88)

एकांत ध्यान की भूमिका है—(प्रवचन—अट्ठासिवां)

सूत्र:

सब्‍बे संखारा अनिच्‍चति यदा पज्‍जाय पस्‍सति।

अथ निब्‍बिन्‍दित दुक्‍खे एस मग्‍गो विसुद्धिया ।।229।।

सब्‍बो संखारा दुक्‍खाति यदा पज्‍जाय पस्‍सति।

अथ निब्‍बिन्‍दति दुक्‍खे एस मग्‍गो विसुद्धिया।।230।।

सब्‍बे धम्‍मा अनत्‍तति यदा पज्‍जाय पस्‍सति।

अथ निब्‍बिन्‍दति दुक्‍खे एस मग्‍गो विसुद्धिया ।।231।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-88)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-87)

जुहो! जुहो! जुहो!—(प्रवचन—सत्तासिवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

मेरे पास सब है, लेकिन शांति नहीं। पूंजी है, पद है, प्रतिष्ठा है, लेकिन सुख नहीं। मैं क्या करूं?

हीं जी, आपके पास कुछ भी नहीं है। सबकी तो बात ही छोड़ो, कुछ भी नहीं है। क्योंकि सब होता तो शांति होती। सब होता तो सुख होता। वृक्ष तो फल से पहचाना जाता है। फल ही न लगे, उस वृक्ष को वृक्ष कहोगे? सुख का फल न लगे तो वृक्ष झूठा होगा। मान लिया होगा। शांति का जन्म न हो तो संपदा कैसी? फिर तुम विपदा को संपदा कह रहे हो। संपत्ति का अर्थ ही यही होता है कि जिससे सुख पैदा हो, जिसमें सुख के फूल लगें। फल से ही कसौटी है। सुनार सोने को कसता है कसौटी पर, कसौटी पर सोने का चिह्न न बने और वह कहे—सोना तो मेरे पास है लेकिन कसौटी पर चिह्न नहीं बनता, तो तुम क्या कहोगे? पागल है। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-87)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-86)

सौंदर्य तो है अंतर्मार्ग में—(प्रवचन—छीयासिवां)

सूत्र:

मग्‍गानट्ठंगिको सेट्ठो सच्‍चानं पदा।

विरागो सेट्ठो धम्‍मानं द्विपदानंच चक्‍खुमा।।225।।

एसोव मग्‍गो नत्‍थज्‍जो दस्‍सनस्‍स विसुद्धियां।

एतं हि तुम्‍हें पटिवज्‍जथ मारस्‍सेतंपरमोहंतं।।226।।

एतं हि तुम्‍हें पटिपन्‍ना दुक्‍खस्‍संतं करिस्‍सथ।

अक्‍खातो वे मया मग्‍गो अज्‍जाय सल्‍लसंथनं।।227।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-86)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-85)

जागरण ही ज्ञान—(प्रवचन—पिचासिवां)

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

 पीछे लौटना अब मेरे लिए असंभव है। बीज अंकुरित हुआ है। लेकिन यह सब हुआ आपको सुनते—सुनते, देखते—देखते, पढते—पढ़ते। यह शास्त्र ही मेरे लिए नौका बनकर मुझे शून्य में लिए जा रहा है। भय छोड्कर बूंद सागर को मिलने को निकल पडी है। और आप कहते हैं कि शास्त्र से कुछ भी न होगा। यह आप कैसी अटपटी बात कहते हैं?

 मैं अभी शास्त्र नहीं। मैं अभी जीवित हूं। तुम सौभाग्यशाली हो कि तुम शास्त्र के करीब नहीं हो। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-85)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-84)

मन की मृत्यु का नाम मौन—(प्रवचन—चौरासिवां)

सूत्र:

न मुंडकेन समणो अब्‍बतो अलिणं भणं।

इच्‍छालाभ समापन्‍नो समणो किं भविस्‍सति ।।218।।

यो च समेति पापनि अणु थूलानि सब्‍बनि।

समितत्‍ता हि पापानं समाणोति पवुच्‍चति ।।219।।

योध पुज्‍जज्‍च पापज्‍च वाहित्‍वा ब्रह्मचरिय वा।

संखाय लोके चरति स वे भिक्‍खूति वुच्‍चति ।।220।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-84)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-83)

क्षण है द्वार प्रभु का—(प्रवचन—तीरासिवां)

प्रश्‍न सार:

संन्यास लेना चाहता हूं; कब लूं?

ब पूछा तो कभी न ले सकोगे। कब में कभी नहीं छिपा है। कब का अर्थ ही है, टालना चाहते हो, स्थगित करना चाहते हो। कल है नहीं, आज ही है। जो भी करना हो, अभी कर लो। अगर टालने की ही बहुत आदत हो तो बुरे को टालना, भले को मत टालना। क्रोध करना हो तो पूछना, कब? प्रेम करना हो तो मत पूछना। लोभ करना हो तो पूछना, कब? दान करना हो तो मत पूछना। शुभ को तत्‍क्षण कर लेना।

शुभ के संबंध में इतना ध्यान रखना, क्षणभर भी बीत गया तो शायद तुम चैतन्य की उस ऊंचाई पर न रह जाओ, जहां शुभ घटित हो सकता था। तुम सदा ही तो उस अवस्था में नहीं होते जहां प्रेम कर सको। कभी—कभी होते हो। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-83)”

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