कौशल नरेश और बुद्ध का उपदेश-(कथा यात्रा-077)

कौशल नरेश प्रसेनजित की हार और बुद्ध का उपदेश-(एस धम्‍मो सनंतनो)

कौशलनरेश प्रसेनजित काशी के लिए अजातशत्रु से युद्ध करने में तीन बार हार गया। वह बहुत चिंतित रहने लगा। उसके पास कुछ कमी न थी बड़ा राज्य था उसके पास कौशल का पूरा राज्य उसके पास था लेकिन काशी खटकती थी। काशी पर किसी और का कब्जा यह खटकता था। उसके अपने कब्जे में बहुत था लेकिन जो दूसरे के कब्जे में था वह खटकता था। तीन बार उसने हमला किया काशी पर और तीनों बार हार गया। बहुत चिंतित रहने लगा। जब तीसरी बार भी हार हुई तो बात जरा सीमा के बाहर हो गयी उसके दर्प को बड़ा आघात पहुंचा। वह सोचने लगा मैं दुग्धमुख लड़के को भी न हरा सका ऐसे मेरे जीने से क्या! और अजातशत्रु अभी लड़का ही था अभी उसकी कोई खास उम्र भी न थी। और उस लड़के से बार— बार हार जाना पीड़ादायी हो गया Continue reading “कौशल नरेश और बुद्ध का उपदेश-(कथा यात्रा-077)”

भगवान का भिक्षाटन और शैतान-(कथा यात्रा-076)

भगवान का पंचशाला में भिक्षाटन और शैतान का जाल-(एस धम्‍मो सनंतनो)

क दिन भगवान पंचशाला नामक ब्राह्मणों के गांव में भिक्षाटन के लिए गए। मार ने— शैतान ने— पहले ही ग्रामवासियों में आवेश कर ऐसा किया कि भगवान को किसी ने कलछी मात्र भी भिक्षा न दी। फिर जब भगवान खाली पात्र गांव के बाहर आने लगे तब मार आया और बोला क्या श्रमण! कुछ भी भिक्षा नहीं मिली? बुद्ध ने कहा नहीं तू सफल रहा और मैं भी सफल हूं मार समझा नहीं। बोला यह कैसे? या तो मैं सफल या आप सफल। दोनों साथ— साथ कैसे सफल हो सकते हैं! यह तो आप बड़ी तर्कहीन बात कर रहे हैं। बुद्ध ने हंसकर कहा नहीं तर्कहीन नहीं है। तू सफल हुआ लोगों को भ्रष्ट करने में भ्रमित करने में मैं सफल हुआ अप्रभावित रहने में। और यह भोजन से भी ज्यादा पुष्टिदायी है। Continue reading “भगवान का भिक्षाटन और शैतान-(कथा यात्रा-076)”

रोहिणी नदी पर विवाद-(कथा यात्रा-075)

 रोहिणी नदी पर विवाद-(एस धम्‍मो सनंतनो)

शाक्य और कोलीय राज्यों के बीच रोहिणी नामक नदी के पानी को रोककर दोनों जनपदवासी खेतों की सिंचाई करते थे। एक बार ज्येष्ठ मास में फसल के सूखने को देखकर दोनों जनपदवासी शाक्य और कोलियों के नौकर अपने—अपने खेतों की सिंचाई करने के लिए रोहिणी नदी पर आए। दोनों ही पहले अपने खेतों को सींचना चाहते हैं अत: दोनों में झगड़ा हो चला। यह समाचार उनके मालिक शाक्य और कोलियों को मिला। क्षत्रिय तो क्षत्रिय! तलवारें निकल गयीं। वे सेना को साथ लेकर तैयार होकर युद्ध करने के लिए निकल पड़े भगवान बुद्ध रोहिणी तट पर ही ध्यान करते थे। उन्हें यह खबर मिली। वे आकर युद्ध को तत्पर दोनों सेनाओं के मध्य मे खड़े हो गए। शाक्य और कोलियों ने भगवान को देखकर हथियार फेंक वंदना की। Continue reading “रोहिणी नदी पर विवाद-(कथा यात्रा-075)”

संसार में सुख-भिक्षुओं की चर्चा-(कथा यात्रा-074)

संसार में सुख क्‍या है, भिक्षुओं की चर्चा का विषय-(एस धम्‍मो सनंतनो)

 ‘बुद्धों का उत्पन्न होना सुखदायी है, सद्धर्म का उपदेश सुखदायी है, संघ में एकता सुखदायी है, एकतायुक्त तप सुखदायी है।’

दूसरे सूत्र की परिस्थिति—कब बुद्ध ने यह गाथा कही?

एक दिन बहुत से भिक्षु बैठे बातें कर रहे थे। उनकी चर्चा का विषय था संसार में सुख क्या है? किसी ने कहा राज्य— सुख के समान दूसरा सुख नहीं। और किसी ने कहा कामसुख के सामने राजसुख में क्या रखा है! कामसुख की बड़ी प्रशंसा की। और किसी और ने यश की प्रशंसा की और किसी और ने पद की फिर कोई भोजनभट्ट था उसने भोजन की खूब चर्चा की। फिर कोई वस्त्रों का दीवाना था तो उसने वस्त्रों की खूब प्रशंसा की। ऐसे विवाद छिड़ गया और तभी बुद्ध अचानक वहां आ गए। पीछे खड़े होकर भिक्षुओं की यह सब चर्चा और विवाद सुनते रहे। फिर उन्होंने कहा भिक्षुओ भिक्षु होकर भी यह सब तुम क्या कह रहे हो। Continue reading “संसार में सुख-भिक्षुओं की चर्चा-(कथा यात्रा-074)”

श्रेष्‍ठ और अश्रेष्‍ठ घोड़ेे-(कथा यात्रा-073)

बुद्ध ने श्रेष्‍ठ और अश्रेष्‍ठ घोड़ो की बात कही-(एस धम्‍मो सनंतनो)

पहला सूत्र—

दुल्लभो पुरिसाजज्जो न सो सचत्य जायति ।

            यत्थ सो जायति धीरो तं कुलं सुखमेधति ।।

‘पुरुष श्रेष्ठ दुर्लभ है, वह सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता। वह धीर जहा उत्पन्न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता है।’

सुखो बुद्धानं उयादो सुखा सद्धम्मदेसना ।

            सुखा संघस्स सामग्री समग्गानं तपो सुखो ।।  Continue reading “श्रेष्‍ठ और अश्रेष्‍ठ घोड़ेे-(कथा यात्रा-073)”

अग्‍निदत्‍त का पांडित्‍य-(कथा यात्रा-072)

अग्‍निदत्‍त का पांडित्‍य-(एस धम्‍मो सनंतनो)

दूसरा सूत्र—

‘मनुष्य भय के मारे पर्वत, वन, उद्यान, वृक्ष और चैत्य आदि की शरण में जाता है। लेकिन यह शरण मंगलदायी नहीं है, यह शरण उत्तम नहीं है, क्योंकि इन शरणों में जाकर सब दुखों से मुक्ति नहीं मिलती।

वहुं के सरण यति पब्बतानि वनानि च ।

            आरामरुक्सचेत्यानि मनुस्सा भयतज्जिता ।।

आदमी भय के कारण ही भगवानों की पूजा कर रहा है। भय के कारण उसने मंदिर बनाए, भय के कारण प्रार्थनाएं खोजीं।

वहुं के सरण यति पब्बतानि वनानि च। Continue reading “अग्‍निदत्‍त का पांडित्‍य-(कथा यात्रा-072)”

बुद्ध का भिक्षु ‘दहर’-(कथा यात्रा-071)

बुद्ध का एक भिक्षु ‘दहर’-(एस धम्‍मो सनंतनो)

पहले सूत्र—

क कहापणवस्सेन तिति कामेसु विज्जति ।

            अप्पस्सादा दुखाकामा इति विज्जाय पंडितो ।।

            अपि दिब्बेसु कामेसु रति सो नाधिगच्छति।

            तण्हक्सयरतो होति सम्मासंबुद्धसावको ।।

‘यदि रुपयों की वर्षा भी हो तो भी मनुष्य की कामों से तृप्ति नहीं होती। सभी काम अल्पस्वाद और दुखदायी हैं, ऐसा जानकर पंडित देवलोक के भोगों में भी रति नहीं करता है। और सम्यक संबुद्ध का श्रावक तृष्णा का क्षय करने में लगता है।’ इसके पहले कि हम सूत्र समझें, सूत्र की पृष्ठभूमि समझ लेनी चाहिए—कब बुद्ध ने यह सूत्र कहा, कब यह गाथा कही? Continue reading “बुद्ध का भिक्षु ‘दहर’-(कथा यात्रा-071)”

बुद्ध और सर्पराज-(कथा यात्रा-070)

बुद्ध और सर्पराज-(एस धम्‍मो सनंतनो) 

यह सूत्र भी—यह अंतिम सूत्र बुद्ध ने एक परिस्थिति में कहे थे, वह मैं आपको दोहरा दूं।

जंगल में बुद्ध बैठे हैं ध्यान करने और एक सर्पराज— सर्पों का राजा— फन फैलाकर खड़ा हो गया। उसने झुककर बुद्ध के चरणों में प्रणाम किए। बुद्ध ने आंख खोली उन्होंने कहा महाराज— क्योंकि देखा उसके माथे पर अदभुत मणि है जो सिर्फ नागों में सम्राटों के माथे पर होती है— तो बुद्ध ने कहा महाराज क्या चाहते हैं?  तो उस नाग ने कहा मैं जन्मों— जन्मों से भटक रहा हूं। जो भी किया सब उलटा चला गया। कब तक सरकता रहूंगा जमीन पर? कब तक सरकता रहूंगा खाई— खंदकों में अंधेरी गलियों में? कब तक सरकता रहूंगा? कब उठूंगा? कब उड़ सकूंगा? तुम्हें मैने उड़ते देखा। तुम्हारे प्राणों की ऊर्जा को कहीं जाते देखा। इसलिए पूछता हूं मुझे कुछ उपदेश है? Continue reading “बुद्ध और सर्पराज-(कथा यात्रा-070)”

बुद्ध का श्रावस्‍ती में वर्षा वास-(कथा यात्रा-069)

बुद्ध का श्रावस्‍ती में तीन माह का वर्षा वास-(एस धम्‍मो सनंतनो)

ये ज्ञानपसुता धीरा नेक्खम्‍मूपसमे रता ।

      देवापि तेसं पिह्यंति संबुद्धानं सतीमतं ।।

‘जो धीर ध्यान में लगे हैं..। ‘

ज्ञानी बुद्ध उसी को कहते हैं जो ध्यान में लगा है। वही है धीरपुरुष, जो ध्यान में लगा है। जो जान का अर्जन कर रहा है, वह जानी नहीं है, विद्वान होगा। जो ध्यान का अर्जन कर रहा है, वही ज्ञानी है, वही धीर है। क्योंकि ज्ञान तो बासा है और उधार है। ध्यान से अपनी अनुभूति संगृहीत होती है। जो ध्यान में लगे, वे धीर।

‘जो परम शात निर्वाण में रत हैं।’ Continue reading “बुद्ध का श्रावस्‍ती में वर्षा वास-(कथा यात्रा-069)”

बुद्ध तपश्‍चर्या-तीन कन्‍याएं-(कथा-068)

बुद्ध की तपश्‍चर्या और मार की तीन कन्‍याएं-(एस धम्‍मो सनंतनो)

आज के सूत्र जिस कथा से संबंधित हैं, वह मैं पहले कह दूं, जिस परिस्थिति में बुद्ध ने ये सूत्र, आज के पहले दो सूत्र कहे। पहले दो सूत्र—

यस्स जित नावजीयति जितमस्स नौ याति कोचि लोके ।

      तं बुद्धमनंतगोचर अपदं केन पदेन नेस्सथ ।।

      यस्स जालिनी विसत्तिका तन्हा नत्थि कुहिन्चि नेतवे ।

      त बुद्धमनंतगोचरं अपद केन पदेन नेस्मथ ।। Continue reading “बुद्ध तपश्‍चर्या-तीन कन्‍याएं-(कथा-068)”

 अनाथपिंडक का दान -(कथा यात्रा-067)

 अनाथपिंडक का दान और काल-(एस धम्‍मो सनंतनो)

यह गाथा बुद्ध ने एक विशेष अवसर पर कही।  

ये सारे अवसर बड़े प्यारे हैं, इसलिए मैं कह रहा हूं।

क बड़ा दानी था उसका नाम था, अनाथपिंडक। वह अनाथों का बड़ा सहारा था। देता लोगों को दिल खोलकर देता। उसके घर काल नाम का एक पुत्र था। उानाथपिंडक बुद्ध को सुनने जाता लेकिन काल कभी बुद्ध को सुनने न जाता था। काल शब्द भी बड़ा अच्छा! अनाथपिडक का मतलब होता है, देने वाला, दान दे ने वाला, अनाथों को सनाथ कर दे जो। और काल का अर्थ होता है, समय, या मौत। न तो समय बुद्ध को सुनने जाना चाहता है और न मौत, क्योंकि दोनों बुद्ध से डरते हैं। Continue reading ” अनाथपिंडक का दान -(कथा यात्रा-067)”

तीस बौद्ध भिक्षु परमहंस हो गए-(कथा यात्रा-066)

 तीस बौद्ध भिक्षु परमहंस हो गये-(एस धम्‍मो सनंतनो)

क दिन तीस खोजी बुद्ध के पास आए। तीसों बुद्ध के भिक्षु हैं बहुत लंबा पाटन करके आए हैं। भिक्षु आनंद द्वार पर पहरा दे रहा है और वे तीस खोजी बुद्ध के कमरे के भीतर बात कर रहे हैं। आनंद को बड़ी देर लग रही है कि बहुत देर हो गयी, बहुत देर हो गयी बात चलती ही जा रही है बुद्ध को वे सताए ही चले जा रहे हैं, अब निकलें भी अब निकलें भी समय मांगा था, उससे दुगुना समय हो गया ! आखिर सीमा आ गयी उसके धैर्य की वह उठा उसने दरवाजे से झांककर देखा, बड़ा हैरान हुआ वहां बुद्ध अकेले बैठे हैं। वे तीस आदमी वहां हैं ही नहीं। उसको तो—अपनी आंखें मीड़ीं—उसको भरोसा न आया क्योंकि दरवाजा एक है, वह दरवाजे पर बैठा है वे जा तो सकते नहीं गए कहां? Continue reading “तीस बौद्ध भिक्षु परमहंस हो गए-(कथा यात्रा-066)”

नरोपा का स्‍वप्‍न-(कथा यात्रा-065)

नरोपा का स्वपन-(एस धम्मो सनंतनो)

अज्ञान ज्ञान के द्वारा नहीं मिट सकता है। वह मिट सकता है केवल होश के द्वारा। ज्ञान तो तुम स्वप्न में भी इकट्ठा किए जा सकते हो; लेकिन वह स्वप्न का हिस्सा ही है, और स्वप्न हिस्सा है तुम्हारी नींद का। कोई चाहिए जो तुम्हें झकझोर दे। कोई चाहिए जो तुम्हें धक्का दे दे। कोई चाहिए जो तुम्हें तुम्हारी नींद से जगा दे। अन्यथा तुम तो ऐसे ही चलते चले जा सकते हो। नींद मादक होती है। अज्ञान मादक होता है, वह एक प्रकार का नशा है। तुम्हें उससे बाहर आना है।

मैं तुम से एक कहानी कहूंगा, जो मुझे सदा प्रीतिकर रही है। वह तिलोपा के शिष्य, सिद्ध नरोपा के विषय में है। नरोपा के अपने गुरु तिलोपा से मिलने के पहले की घटना है। उसके बुद्धत्व को उपलब्ध होने से पहले की घटना है। और यह बहुत जरूरी है प्रत्येक खोजी के लिए, सब के साथ ऐसा ही होगा। Continue reading “नरोपा का स्‍वप्‍न-(कथा यात्रा-065)”

जुलाहे की बेटी द्वारा बुद्ध के दर्शन-(कथा यात्रा-064)

 जुलाहे की बेटी द्वारा बुद्ध के दर्शन—(एस धम्‍मो सनंतनो) 

एक जुलाहे की बेटी गौतम बुद्ध के दर्शन को आयी। अत्यंत आनंद और अहोभाव से उसने बुद्ध के चरणों में सिर रखा। बुद्ध ने उससे पूछा बेटी कहां से आती हो? भंते नहीं जानती हूं वह बोली उसकी अभी ज्यादा उम्र भी न थी। अठारह वर्ष की केवल। बुद्ध ने कहा कहां जाओगी बेटी? भंते, उसने कहा, नहीं जानती हूं। क्या नहीं जानती हो बुद्ध ने पूछा वह बोली भंते जानती हूं। जानती हो बुद्ध ने कहा? वह बोली कहां भगवान जरा भी नहीं जानती हूं।

ऐसी बातचीत सुनकर अन्य उपस्थित लोग बहुत नाराज हुए। गांव के लोग जुलाहे की बेटी को भलीभांति जानते हैं कि यह क्या बकवास कर रही है! और यह कोई ढंग है भगवान से बात करने का? यह कोई शिष्टाचार है? गांव के लोगों ने कहा कि सुन पागल यह तू किस तरह की बात कर रही है होश में है? किससे बात कर रही है? डांटा— डपटा भी

लेकिन भगवान ने कहा पहले उसकी सुनो भी तो गुनो भी तो वह क्या कहती है। बुद्ध हंसे उन्होंने कहा बेटी इन सबको समझा कि तूने क्या कहा। Continue reading “जुलाहे की बेटी द्वारा बुद्ध के दर्शन-(कथा यात्रा-064)”

समंजनी सफाई का पागलपन -(कथा यात्रा-063)

समंजनी का सफाई के प्रति पागलपन-(एस धम्‍मो सनंतनो)

यह सूत्र बुद्ध ने एक विशेष घटना के समय कहा था, वह घटना भी समझ लेने जैसी है।

बुद्ध के शिष्यों में एक भिक्षु थे उनका नाम था समंजनी। उन्हें सफाई का पागलपन था। क्योंकि बुद्ध ने कहा स्वच्छ रहो साफ— सुथरे रहो। वह उनको धुन पकड़ गयी पागल तो पागल वह ठीक बात में से भी गलत बात निकाल लेते। उनको ऐसी धुन पकड़ गयी कि चौबीस घंटे वह झाडू ही लिए रहते। इधर जाला दिखायी पड़ गया उधर कचड़ा दिखायी पड़ गया सफाई ही सफाई

कई स्त्रियों को यह रोग रहता है, सफाई ही सफाई। किसके लिए सफाई कर रही हैं, यह भी कुछ पक्का नहीं। Continue reading “समंजनी सफाई का पागलपन -(कथा यात्रा-063)”

कुशीनाला में बुद्ध की अंतिम विदा-(कथा यात्रा-062)

 कुशीनाला के शालवन में बुद्ध की अंतिम विदा-(एस धम्‍मो सनंतनो)

गवान की इस पृथ्वी पर अंतिम घड़ी। भगवान कुसीनाला के शालवन उप्पवतन में अपने भिक्षुको से अंतिम विदा लेकर लेट गए हैं! दो शालवृक्षों के नीचे उन्होंने अपनी मृत्यु का स्वागत करने का आयोजन किया है।

मौत आ रही है। तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा, तुम्हें कुछ पूछना हो तो पूछ लो। कुछ कहना हो तो कह लो, अब मैं चला। अब यह देह जाती है। मैं तो चला गया था बयालीस साल पहले ही, देह भर रह गयी थी, अब देह भी जाती है। तो बौद्ध दो शब्दों का उपयोग करते हैं—निर्वाण और महापरिनिर्वाण। निर्वाण तो उस दिन उपलब्ध हो गया जिस दिन बुद्ध को शान हुआ। फिर महापरिनिर्वाण उस दिन हुआ जिस दिन देह विसर्जित हो गयी। उस दिन वे महाशून्य में खो गए, महाकाश के साथ एक हो गए। आकाश हो गए। Continue reading “कुशीनाला में बुद्ध की अंतिम विदा-(कथा यात्रा-062)”

तीन बार प्रार्थना के पश्‍चात बुद्ध बोले-(कथा यात्रा-061)

 तीन बार प्रार्थना के पश्‍चात बुद्ध बोले-(एस धम्‍मो सनंतनो)

 क दिन कुछ उपासक भगवान के चरणों में धर्म—श्रवण के लिए आए। उन्होंने बड़ी प्रार्थना की भगवान से कि आप कुछ कहें हम दूर से आए हैं बुद्ध चुप ही रहे। उन्होंने फिर से प्रार्थना की तो फिर बुद्ध बोले। जब उन्होंने तीन बार प्रार्थना की तो बुद्ध बोले उनकी प्रार्थना पर अंतत: भगवान ने उन्हें उपदेश दिया लेकिन वे सुने नहीं। दूर से तो आए थे लेकिन दूर से आने का कोई सुनने का संबंध। शायद दूर से आए थे तो थके— मांदे भी थे। शायद सुनने की क्षमता ही नहीं थी। उनमें से कोई बैठे—बैठे सोने लगा और कोई जम्हाइयां लेने लगा। कोई इधर—उधर देखने लगा। शेष जो सुनते से लगते थे वे भी सुनते से भर ही लगते थे उनके भीतर हजार और विचार चल रहे थे पक्षपात पूर्वाग्रह धारणाएं उनके पर्दे पर पर्दे पड़े थे। उतना ही सुनते थे जितना उनके अनुकूल पड़ रहा था उतना नहीं सुनते थे जितना अनुकूल नहीं पड़ रहा था। Continue reading “तीन बार प्रार्थना के पश्‍चात बुद्ध बोले-(कथा यात्रा-061)”

युवक संन्‍यासी का संसार निंदा करना-(कथा यात्रा-060)

 युवक संन्‍यासी का व्‍यर्थ में संसार की निंदा करते रहना-(एस धम्‍मो सनंतनो)

गवान जेतवन में विहरते थे। पास के किसी गांव से आए एक युवक ने संन्यास की दीक्षा ली। वह सबकी निंदा करता था। कारण हो तब तो चूकता ही नही था, कारण न हो तब भी निंदा करता था। कारण न हो तो कारण खोज लेता था। कारण न मिले तो कारण निर्मित कर लेता था। कोई दान नें दे तो निंदा करता और कोई दान दे तो क्हता—अरे यह भी कोई दान है। दान देना सीखना हो तो मेरे परिवार से सीखो। वह अपने परिवार की प्रशंसा में लगा रहता। शेष सारे संसार की निंदा अपने परिवार की प्रशंसा यही उसका पूरा काम था। अपनी जाति, अपने वर्ण अपने कुल सभी की अतिशय प्रशंसा में लगा रहता। उसके अहंकार का कोई अंत न था। शायद इसीलिए वह सन्यस्त भी हुआ था! Continue reading “युवक संन्‍यासी का संसार निंदा करना-(कथा यात्रा-060)”

 लालुदाई की ईर्ष्‍या-(कथा यात्रा-059)

 लालुदाई की ईर्ष्‍या-(एस धम्‍मो सनंतनो)

गवान बुद्ध श्रावस्ती में ठहरे थे। नगरवासी उपासक सारिपुत्र और मौदगल्लायन के पास धर्म—श्रवण करके उनकी प्रशंसा कर रहे थे। अपूर्व था रस उनकी वाणी में अपूर्व था भगवान के उन दो शिष्यों का बोध: अपूर्व थी उनकी समाधि और उनके वचन लोगों को जगाते थे— सोयों को जगाते थे मुर्दो को जीवित करते थे। उनके पास बैठना अमृत में डुबकी लगाना था

एक भिक्षु जिसका नाम था लालूदाई यह सब खड़ा हुआ बड़े क्रोध से सुन रहा था। उसे बड़ा बुरा लग रहा था। वह तो अपने से ज्यादा बुद्धिमान किसी को मानता ही नहीं था। भगवान के चरणों में ऐसे तो झुकता था पर ऊपर ही ऊपर। भीतर तो वह भगवान को भी स्वयं से श्रेष्ठ नहीं मानता था। उसका अहंकार आrते प्रज्वलित अहंकार था। और मौका मिलने पर वह प्रकारांतर से परोक्ष रूप से भगवान की भी आलोचना—निंदा करने से चूकता नहीं था। कभी कहता आज भगवान ने ठीक नही कहा; कभी कहता भगवान को ऐसा नहीं कहना था; कभी कहता भगवान होकर ऐसा नहीं कहना चाहिए आदि—आदि। Continue reading ” लालुदाई की ईर्ष्‍या-(कथा यात्रा-059)”

भिक्षु तिष्‍य की चादर-(कथा यात्रा-058)

भिक्षु तिष्‍य की चादर-(एस धम्‍मो सनंतनो)

एक भिक्षु थे तिष्य। वर्षा—वास के पश्चात किसी ने उन्हें एक बहुत मोटे सूत केला चादर भेट किया।

बहुत भिक्षु वर्षा के दिनों में रुक जाते थे, तीन—चार महीने, और वर्षा—वास के बाद जब वे यात्रा पर पुन: निकलते तो लोग उन्हें भेंट देते। भेंट भी क्या? थोड़ी सी भेंट लेने की उन्हें आज्ञा थी। तीन वस्त्र रख सकते थे, इससे ज्यादा नहीं। तो कोई चादर भेंट कर देता, या कोई भिक्षापात्र भेंट कर देता। तो पुराना भिक्षापात्र छोड़ देना पड़ता, पुरानी चादर छोड़ देनी पड़ती।

यह भिक्षु तिष्य ने वर्षा—वास किया किसी गांव में जब वर्षा—वास के बाद उन्हें एक मोटे सूत वाला चादर भेट किया गया तो उन्हें पसंद न आया। बहुत मोटे सूत वाला था। Continue reading “भिक्षु तिष्‍य की चादर-(कथा यात्रा-058)”

मरणशय्या पर लम्बी आयु की कामना-(कथा यात्रा-57)

 मरणशय्या पर स्‍वर्णकर द्वारा लम्‍बी आयु की कामना-(एस धम्‍मो सनंतनो)

क स्वर्णकार मरणशध्या पर था। स्वभावत: मृत्यु से बहुत भयभीत क्योकि मृत्यु के लिए कोई तैयारी तो की नहीं थी। कोई भी करता नहीं। जीवन ऐसे ही बीत जाता है और आखिरी घड़ी जब करीब आती है तब बेचैनी होती है। उस दूर की यात्रा के लिए कुछ आयोजन तो किया नहीं था। बहुत घबड़ाने लगा। उसके बेटों ने अपने पिता के जीवन के लिए भिक्षुसंघ के साथ भगवान को नियंत्रित करके दान दिया। भोजनोपरांत पुत्रों ने कहा भंते इस भोजन को हम लोगों ने पिता के जीवन के लिए दिया है आप उन्हें आशीष दें। आशीष दें कि उनकी आयु लंबी हो। Continue reading “मरणशय्या पर लम्बी आयु की कामना-(कथा यात्रा-57)”

पंचेंद्रियों संबर-भिक्षुओं का विवाद-(कथा यात्रा-56)

पंचेंद्रियों का संबर करने वाल पाँच बोद्ध—भिक्षुओं का विवाद-(एस धम्‍मो सनंतनो)

गवान के जेतवन में विहरते समय पांच ऐसे भिक्षु थे जो पंचेद्रिय में से एक— एक का संवर करते थे। कोई आंख का कोई कान का कोई जीभ का। एक दिन उन पांचों में बड़ा विवाद हो गया कि किसका संवर कठिन है। प्रत्येक अपने संवर को कठिन और फलत: श्रेष्ठ मानता था। विवाद की निष्पत्ति न होती देख अंतत: वे पांचों भगवान के चरणों में उपस्थित हुए और उन्होंने भगवान से पूछा : भंते! इन पांच इंद्रियों में से किसका संवर अति कठिन है?

भगवान हंसे और बोले भिक्षुओ! संवर दुष्कर है। संवर कठिन है। इसका संवर या उसका संवर नहीं— संवर ही कठिन है। भिक्षुओ। ऐसे व्यर्थ के विवादों में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि विवाद मात्र के मूल में अहंकार छिपा है। इसलिए विवाद की कोई निष्पत्ति नहीं हो सकती। विवादों में शक्ति व्यय न करके समग्र शक्ति संवर में लगाओ। सभी द्वारों का संवर करो। संवर में दुखमुक्ति का उपाय है। Continue reading “पंचेंद्रियों संबर-भिक्षुओं का विवाद-(कथा यात्रा-56)”

अतुल पांच सौ व्‍यक्‍तियों के साथ धर्मश्रवण को आया-(कथायात्रा-055)

अतुल नामक व्‍यक्‍ति पाँच सौ व्‍यक्‍तियों के साथ धर्मश्रवण को आया—(एस धम्मो सनंतनो)

श्रावस्ती का अतुल नामक एक व्यक्ति पांच सौ और व्यक्तियों के साथ भगवान के संघ में धर्मश्रवण के लिए गया। वह क्रमश: स्थविर रेवत स्थविर सारिपुत्र और आयुष्मान आनंद के पास जा फिर भगवान के पास पहुंचा।

ऐसी ही व्यवस्था थी। बुद्ध के जो बड़े शिष्य थे, पहले लोग उनको सुनें, समझें, कुछ थोड़ी पकड़ आ जाए, कुछ थोड़ा समझ आ जाए तो फिर भगवान को वे जाकर  पूछ लें। Continue reading “अतुल पांच सौ व्‍यक्‍तियों के साथ धर्मश्रवण को आया-(कथायात्रा-055)”

अनागामी स्‍थविर मर ब्रह्मलोक में उत्पन्‍न-(कथा यात्रा-054)

 अनागामी स्‍थविर मर कर ब्रह्मलोक में उत्पन्‍न होना—(एस धम्मो सनंतनो)

गवान के जेतवन में विहरते समय एक अनागामी स्थविर मरकर शुद्धावास ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुए। मरते समय जब उनके शिष्यों ने पूछा क्या भंते कुछ विशेषता प्राप्त हुई है? तब निर्मलचित स्थविर ने यह सोचकर कि यह भी क्या कोई उपलब्धि है या विशेषता है चुप्पी ही साधे रखी। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शिष्य रोते हुए भगवान के पास जाकर उनकी गति पूछे। भगवान ने कहा भिक्षुओ रोओ मत वह मरकर शुद्धावास में उत्पन्न हुआ है। भिक्षुओ देखते हो तुम्हारा उपाध्याय कामों से रहित चित्त वाला हो गया है जाओ खुशी मनाओ।

तब शिष्यों ने कहा पर उन्होंने मरते समय चुप्पी क्यों साधे रखी? हमने तो पूछा था उन्होंने बताया क्यों नहीं? भगवान ने कहा इसीलिए भिक्षुओ इसीलिए क्योकि निर्मल चित्त को उपलब्धि का भाव नहीं होता। Continue reading “अनागामी स्‍थविर मर ब्रह्मलोक में उत्पन्‍न-(कथा यात्रा-054)”

बेटे की मृत्‍यु शोक में डूबा श्रावक—(कथा यात्रा—053)

बेटे की मृत्‍यु के शोक में डूबा श्रावक—(एस धम्मो सनंतनो)

क श्रावक का बेटा मर गया। वह बहुत दुखी हुआ।

श्रावक कहते हैं सुनने वाले को, बुद्ध को सुनता था। अगर सुना होता तो दुखी होना नहीं था, तो कानों से ही सुना होगा, हृदय से नहीं सुना था। नाममात्र को श्रावक था, वस्तुत: श्रावक होता तो यह बात नहीं होनी थी।

जब बुद्ध को पता चला कि उस श्रावक का बेटा मर गया और वह बहुत दुखी है तो बुद्ध ने कहा अरे तो फिर उसने सुना नहीं। फिर कैसा श्रावक! श्रावक का फिर अर्थ क्या हुआ। वर्षों सुना और जरा भी गुना नहीं। तो आज बेटे ने मरकर सब कलई खोल दी सब उघाड़ा कर दिया। Continue reading “बेटे की मृत्‍यु शोक में डूबा श्रावक—(कथा यात्रा—053)”

माता-पिता मोहवश संन्‍यस्‍त-(कथा यात्रा-052)

युवक के माता—पिता का मोहवश संन्‍यस्‍त होना—(एस धम्मो सनंतनो)

क युवक बुद्ध से दीक्षा लेकर संन्यस्त होना चाहता था युवक था अभी बहुत कच्ची उम्र का था? जीवन अभी जाना नहीं था। लेकिन घर से ऊब गया था मां— बाप से ऊब गया था—इकलौता बेटा था मां—बाप की मौजूदगी धीरे— धीरे उबाने वाली हो गयी थी। और मां— बाप का बड़ा मोह था युवक पर ऐसा मोह था कि उसे छोड़ते ही नहीं थे एक ही कमरे में सोते थे तीनों। एक ही साथ खाना खाते थे। एक ही साथ कहीं जाते तो जाते थे।

थक गया होगा घबड़ा गया होगा। संन्यास में उसे कुछ रस नहीं था लेकिन ये मां— बाप से किसी तरह पिंड छूट जाए और कोई उपाय नहीं दिखता था तो वह बुद्ध के संघ में दीक्षित होने की उसने आकांक्षा प्रगट की मां—बाप तो रोने लगे चिल्लाने— चीखने लगे। यह तो बात ही उन्होंने कहा मत उठाना उनका मोह उससे भारी था। Continue reading “माता-पिता मोहवश संन्‍यस्‍त-(कथा यात्रा-052)”

 तिष्‍यस्‍थविर-परिनिवृत की कथा-(कथा यात्रा-051)

 तिष्‍यस्‍थविर और बुद्ध के परिनिवृत होने की कथा—(कथा—यात्रा)

पविवेकं रसं पीत्वा रसं उपसमस्स च।

निद्दरो होति निप्पापो धम्मपीतिरसं पिवं। 

     तस्‍माहि:

धीरन्च पज्‍च्‍ज्‍च बहुस्सुतं व धोरय्हसीलं वतवतमरियं।

न तादिसं सपुरिसं सुमेधं भजेथ नक्सतपथं व चंदिमा ।।

क दिन वैशाली में विहार करते हुए भगवान ने भिक्षुओं से कहा—भिक्षुओं सावधान। मैं आज से चार माह बाद परिनिवृत्त हो जाऊंगा। मेरी घड़ी करीब आ रही है मेरे विदा का क्षण निकट आ रहा है। इसलिए जो करने योग्य हो करो। देर मत करो।

ऐसी बात सुन भिक्षुओं में बड़ा भय उत्पन्न हो गया स्वाभाविक। भिक्षु— संघ महाविषाद में डूब गया। स्वाभाविक। जैसे अचानक अमावस हो गयी। भिक्षु रोने लगे छाती पीटने लगे। झुंड के झुंड भिक्षुओं के इकट्टे होने लगे और सोचने लगे और रोने लगे और कहने लगे अब क्या होगा? अब क्या करेंगे। Continue reading ” तिष्‍यस्‍थविर-परिनिवृत की कथा-(कथा यात्रा-051)”

 भोजन भट्ट सम्राट प्रसेनजित-(कथा यात्रा-050)

 भोजन भट्ट सम्राट प्रसेनजित—(एस धम्मो सनंतनो)

 म्राट प्रसेनजित भोजन— भट्ट था। उसकी सारी आत्मा जैसे जिह्वा में थी। खाना-खाना और खाना। और तब स्वभावत: सोना-सोना और सोना। इतना भोजन कर लेता कि सदा बीमार रहता। इतना भोजन कर लेता कि सदा चिकित्सक उसके पीछे सेवा में लगे रहते। देह भी स्थूल हो गयी। देह की आभा और कांति भी खो गयी। एक मुर्दा लाश की तरह पड़ा रहता। इतना भोजन कर लेता।

बुद्ध गांव में आए तो प्रसेनजित उन्हें सुनने गया।

जाना पड़ा होगा। सारा गाव जा रहा है और गाव का राजा न जाए तो लोग क्या कहेंगे? लोग समझेंगे, यह अधार्मिक है। उन दिनों राजाओं को दिखाना पड़ता था कि वे धार्मिक हैं। नहीं तो उनकी प्रतिष्ठा चूकती थी, नुकसान होता था। अगर लोगों को पता चल जाए कि राजा अधार्मिक है, तो राजा का सम्मान कम हो जाता था। तो गया होगा। जाना पड़ा होगा। Continue reading ” भोजन भट्ट सम्राट प्रसेनजित-(कथा यात्रा-050)”

बुद्ध का विवाह में निमंत्रण-(कथा यात्रा-048)

 श्रावस्‍ती में बुद्ध को कुलकन्‍या के विवाह में निमंत्रण—(एस धम्मो सनंतनो)

श्रावस्‍ती में एक कुलकन्‍या का विवाह। मां—बाप ने भिक्षु संध के साथ भगवान को भी निमंत्रित किया। भगवान भिक्षु—संध के साथ आकर आसन पर विराजे है। कुलकन्या भगवान के चरणों में झुकी और फिर अन्य भिक्षुओं के चरणों में। उसका होने वाला पति उसे देखकर नाना प्रकार के काम— संबंधी विचार करता हुआ रागाग्नि से जल रहा था। उसका मन काम की गहन बदलियों और धुओं से ढंका था। उसने भगवान को देखा ही नहीं। न देखा उस विशाल भिक्षुओं के संघ को। उसका मन तो वहां था ही नहीं। वह तो भविष्य में था। उसके भीतर तो सुहागरात चल रही थी। वह तो एक अंधे की भांति था। Continue reading “बुद्ध का विवाह में निमंत्रण-(कथा यात्रा-048)”

पाँच सौ भिक्षुओं से एक जेतवन रूक जाना (उत्‍तारर्द्ध)—(कथायात्रा—047)

पाँच सौ भिक्षुओं में से एक आलस्‍यवश जेतवन में रूक जाना (उत्तारर्द्ध)—(एस धम्मो सनंतनो)

भगवान से नवदृष्टि ले उत्साह से भरे वे भिक्षु पुन: अरण्य में गये। उनमें से सिर्फ एक जेतवन में ही रह गया

चार सौ निन्यानबे गये इस बार, पहले पांच सौ गये थे। एक रुक गया।

वह आलसी था और आस्थाहीन भी। उसे भरोसा नहीं था कि ध्यान जैसी कोई स्थिति भी होती है!

वह तो सोचता था, यह बुद्ध भी न—मालूम कहां की बातें करते हैं! कैसा ध्यान! आलस्य की भी अपनी व्यवस्था है तर्क की। आलस्य भी अपनी रक्षा करता है। आलसी यह न कहेगा कि होगा, ध्यान होता होगा, मैं आलसी हूं। आलसी कहेगा, ध्यान होता ही नहीं। मैं तो तैयार हूं करने को, लेकिन यह ध्यान इत्यादि सब बातचीत है, यह कुछ होता नहीं। आलसी यह न कहेगा कि मैं आलसी हूं इसलिए परमात्मा को नहीं खोज पाता हूं, आलसी कहेगा, परमात्मा है कहां! होता तो हम कभी का खोज लेते, है ही नहीं तो खोजें क्या? और चांदर तानकर सो रहता है। आलस्य अपनी रक्षा में बड़ा कुशल है। बड़े तर्क खोजता है। बजाय इसके कि हम यह कहें कि मेरी सामर्थ्य नहीं सत्य को जानने की, हम कहते हैं, सत्य है ही नहीं। बजाय इसके कि हम कहें कि मैं जीवन में अमृत को नहीं जान पाया, हम कहते हैं, अमृत होता ही नहीं। Continue reading “पाँच सौ भिक्षुओं से एक जेतवन रूक जाना (उत्‍तारर्द्ध)—(कथायात्रा—047)”

पाँच सौ भिक्षुओं का अरण्‍यवास में जाना (पूर्वार्द्ध)-(कथा यात्रा-046)

पाँच सौ भिक्षुओं का अरण्‍यवास में जाना (पूर्वार्द्ध)—(एस धम्मो सनंंतनो)

गवान जेतवन में विहरते थे। उनकी देशना में निरंतर ही ध्यान के लिए आमंत्रण था सुबह दोपहर सांझ बस एक ही बात वे समझाते थे— ध्यान ध्यान ध्यान सागर जैसे कहीं से भी चखो खारा है वैसे ही बुद्धों का भी एक ही स्वाद है— ध्यान। ध्यान का अर्थ है— निर्विचार चैतन्य। पांच सौ भिक्षु भगवान का आवाहन सुन ध्यान को तत्पर हुए। भगवान ने उन्हें अरण्यवास में भेजा। एकांत ध्यान की भूमिका है। अव्यस्तता ध्यान का द्वार है। प्रकृति— सान्निध्य अपूर्वरूप से ध्यान में सहयोगी है।

उन पांच सौ भिक्षुओं ने बहुत सिर मारा पर कुछ परिणाम न हुआ। वे पुन: भगवान के पास आए ताकि ध्यान— सूत्र फिर से समझ लें। भगवान ने उनसे कहा— बीज को सम्यक भूमि चाहिए अनुकूल ऋतु चाहिए सूर्य की रोशनी चाहिए ताजी हवाएं चाहिए जलवृष्टि चाहिए तभी बीज अंकुरित होता है। और ऐसा ही है ध्यान। सम्यक संदर्भ के बिना ध्यान का जन्म नहीं होता। Continue reading “पाँच सौ भिक्षुओं का अरण्‍यवास में जाना (पूर्वार्द्ध)-(कथा यात्रा-046)”

भिक्षुगण भ्रांत धारणाओं के शिकार-(कथा यात्रा-045)

 भिक्षुगण भ्रांत धारणाओं के शिकार—(एस धम्मो सनंतनो) 

भगवान के जेतवन में रहते समय बहुत शीलसंपन्न भिक्षुओं के मन में ऐसे विचार हुए— हम लोग शीलसंपन हैं ध्यानी हैं जब चाहेगे तब निर्वाण प्राप्त कर लेने। ऐसी भ्रांत धारणाएं साधना— पथ पर अनिवार्य रूप से आती हैं।

जरा सा कुछ हुआ कि आदमी सोचता है, बस.. .किसी ने जरा सा ध्यान साध लिया, किसी ने जरा सच बोल लिया, किसी ने जरा दान कर दिया, किसी ने जरा वासना छोड़ दी कि वह सोचता है बस, मिल गयी कुंजी, अब क्या देर है, जब चाहेंगे तब निर्वाण उपलब्ध कर लेंगे। आदमी बड़ी जल्दी पड़ाव को मंजिल मान लेता है। जहां रातभर रुकना है और सुबह चल पड़ना है, सोचता है—आ गयी मंजिल।

ऐसी प्रांत धारणाएं साधना— पथ पर अनिवार्य रूप से आती हैं। Continue reading “भिक्षुगण भ्रांत धारणाओं के शिकार-(कथा यात्रा-045)”

भिक्षुओं का गृहस्‍थों का निमंत्रित—(कथा यात्रा—044)

 भिक्षुओं का गृहस्‍थों के घर निमंत्रित होना—(एस धम्मो सनंतनो) 

भिक्षु गृहस्थों के घर निमंत्रित होने पर भोजनोपरांत दानानुमोदन करते थे। किंतु तीर्थक सुखं होतु आदि कहकर ही चले जाते थे। लोग स्वभावत: भिक्षुओं की प्रशंसा करते और तीर्थको की निंदा करते थे। यह जानकर तीर्थको ने हम लोग मुनि हैं मौन रहते हैं श्रमण गौतम के शिष्य भोजन के समय महाकथा कहते हैं बकवासी हैं ऐसा कहकर प्रतिक्रिया में निंदा शुरू कर दी।

बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को सदा कहा है कि जितना लो, उससे ज्यादा लौटा देना। कहीं ऋण इकट्ठा मत करना। इसलिए बुद्ध का भिक्षु जब भोजन भी लेता कहीं तो भोजन के बाद, धन्यवाद कै रूप में, जो उसको मिला है उसकी थोड़ी बात करता था। जो आनंद उसने पाया, जो ध्यान उसे मिला है, जो शील की संपदा उसे मिली है, जो नयी—नयी किरणें और नयी—नयी उमंगों के तूफान उसके भीतर उठ रहे हैं, जो नया उत्सव उसके भीतर जगा है; जो नए गीत, नए नृत्य उसके भीतर आ रहे हैं, भोजन लेता तो धन्यवाद में वह अपने भीतर की कुछ खबर देता। भोजन लिया है, ऋणी नहीं होना है। स्वभावत:, जो तुम्हारे पास है वह दे देना। दो रोटी के बदले बुद्ध का भिक्षु बहुत कुछ लौटाता था। वह अपना सारा प्राण उंडेल देता था। Continue reading “भिक्षुओं का गृहस्‍थों का निमंत्रित—(कथा यात्रा—044)”

ब्राह्मण दार्शनिक-बुद्ध से विवाद-(कथा यात्रा-043)

 एक ब्राह्मण दार्शनिक का बुद्ध से विवाद-(एस धम्मो सनंतनो)

क ब्राह्मण दार्शनिक भगवान के पास आया और बोला हे गौतम! आप अपने शिष्यों को भिक्षाटन करने से भिक्षु कहते हैं। मैं भी भिक्षाटन करता हूं अत: मुझे भी भिक्षु कहिए। वह विवाद करने को उत्सुक था और किसी भी बहाने उलझने को तैयार था। शब्दों पर उसकी पकड़ थी सो उसने भिक्षु शब्द से ही विवाद को उठाने की सोची। उसे तो बस कोई भी निमित्त चाहिए था।

भगवान ने उससे कहा ब्राह्मण भिक्षाटन मात्र से कोई भिक्षु नहीं होता; लै भिखारी चाहो तो मान ले सकते हो। पर भिखारी और भिक्षु पर्यायवाची नहीं हैं। मैं भिक्षु उसे कहता हूं जिसने सब संस्कार छोड़ दिए। जिसके पास भीतर कोई संस्कार न बचे उसे भिक्षु कहता हूं। Continue reading “ब्राह्मण दार्शनिक-बुद्ध से विवाद-(कथा यात्रा-043)”

हत्थक मौन में दरिद्र-(कथा यात्रा-042)

शब्दो के धनी, मौन में दरिद्र भिक्षु ’हत्‍थक’—(कथा—यात्रा)

एक भिक्षु थे— हत्थक। वे स्वयं को सत्य का अथक खोजी मानते थे।

स्वभावत:, जो अपने को सत्य का अथक खोजी माने, वह शास्त्रों में उलझ जाता है। जैसे कि शास्त्रों में सत्य हो। निकले सत्य की खोज को, खो जाते हैं शास्त्रों के अरण्य में। चाहते तो थे गहरे में जान लें कि जीवन क्या है, चाहते तो थे कि जान लें यह विराट अस्तित्व क्या है, लेकिन आंखें अटक जाती हैं शास्त्रों में। तो हत्‍थक बड़े शास्त्री बन गए। सत्य की खोज मन ने झुठला दी। मन ने कहा, सत्य चाहिए, शास्त्र में झांको। सत्य चाहिए, तो सारे सिद्धातों में झांको। Continue reading “हत्थक मौन में दरिद्र-(कथा यात्रा-042)”

नाटे लंकुटक स्‍थविर बुद्ध दर्शन-(कथा यात्रा-041)

नाटे लंकुटक स्‍थविर बुद्ध के दर्शन को आये—(कथा—यात्रा)

कुंटक भद्दीय स्थविर नाटे थे—अति नाटे एक दिन अरण्य से तीस भिक्षु भगवान का दर्शन करने के लिए जेतवन आए। जिस समय वे शास्ता की वंदना करने जा रहे थे उसी समय लकुंटक भद्दीय स्थविर भगवान को वंदना करके लौटे थे। उन भिक्षुओं के आने पर भगवान ने पूछा क्या तुम लोगों ने जाते हुए एक स्थविर को देखा है? भंते हम लोगों ने स्थविर को तो नहीं देखा केवल एक श्रामणेर जा रहा था भगवान ने कहा भिक्षुओ वह श्रामणेर नहीं स्थविर है। भिक्षु बोले भंते अत्यंत छोटा है इतना छोटा, कैसे कोई स्थविर होगा। भगवान ने कहा भिक्षुको वृद्ध होने और स्थविर के आसन पर बैठने मात्र से कोई स्थविर नहीं होता। किंतु जो आर्य— सत्यों का ज्ञान प्राप्त कर महा जनसमूह के लिए अहिंसक हो गया है वही स्थविर है। स्थविर का संबंध उम्र या देह से नहीं बोध से है। बोध न तो समय में और न स्थान में ही सीमित है। बोध समस्त सीमाओं का अतिक्रमण है। बोध तादाक्य से मुक्ति है

और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं— Continue reading “नाटे लंकुटक स्‍थविर बुद्ध दर्शन-(कथा यात्रा-041)”

देवता और एकुदान का उपदेश-(कथा यात्रा-040)

देवता और एकुदान का उपदेश—(एस धम्मो सनंतनो)

कुदान नामक एक छीनास्रव— आस्रव क्षीण हो गए हैं जिनके— ऐसे अर्हत थे भिक्षु थे। वे जंगल में अकेले रहते थे। उन्हें एक ही उपदेश आता था— बस एक ही उपदेश जैसा मुझे आता है— बस रोज उसी को कहते रहते थे। वे उसे ही रोज देते उपदेश को। स्वभावत: उनका कोई शिष्य नहीं था

हो भी कैसे! कोई आता भी तो भाग जाता, वही उपदेश रोज। शब्दशः वही। उसमें कभी भेद ही नहीं पड़ता था। उन्हें कुछ और इसके अलावा आता ही नहीं था। लेकिन वे देते रोज थे।

कोई आदमी तो उनके पास टिकता नहीं था लेकिन जंगल के देवता उनका उपदेश सुनते थे। और जब वे उपदेश पूरा करते तो जंगल के देवता साधुकार देकर स्वागत करते थे— साधु! साधु! सारा जंगल गुंजायमान हो जाता था— साधु। साधु! धन्यवाद! धन्यवाद! Continue reading “देवता और एकुदान का उपदेश-(कथा यात्रा-040)”

विनिश्‍चयशाला और भिक्षुओं-(कथा यात्रा-039)

विनिश्‍चयशाला और भिक्षुओं का संदेश-(एस धम्मो सनंंतनो)

श्रावस्ती नगर उन दिनों की प्रसिद्ध राजधानी। कुछ भिक्षु भिक्षाटन करके भगवान के पास वापस लौट रहे थे कि अचानक बादल उठा और वर्षा होने लगी। भिक्षु सामने वाली विनिश्चयशाला (अदालत) में पानी से बचने के लिए गए उन्होंने वहां जो दृश्य देखा वह उनकी समझ में ही न आया। कोई न्यायाधीश पक्षपाती था कोई न्यायाधीश बहरा था— सुनता नहीं थ( ऐसा नहीं कान तो ठीक थे मगर उसने पहले ही से कुछ मान रखा थ( इसलिए सुनता नहीं था इसलिए बहरा था और कोई आंखों के रहते ही अंधा था। किसी ने रिश्वत ले ली थी कोई वादी— प्रतिवादी को सुनते समय झपकी खा रहा था, कोई धन के दबाव में था, कोई पद के कोई जाति— वंश के कोई धर्म के। और उन्होंने वहां देखा कि सत्य झूठ बनाया जा रहा है और झूठ सच बनाया जा रहा है। न्याय से किसी को भी कोई प्रयोजन नहीं  और जहां न्याय तक न हो वहां करुणा तो हो ही कैसे सकती थी। उन भिक्षुओं ने लौटकर यह बात भगवान को कही। भगवान ने कहा ऐसा ही है भिक्षुओ। जैसा नहीं होना चाहिए वैसा ही हो रहा है इसका नाम ही तो संसार है। Continue reading “विनिश्‍चयशाला और भिक्षुओं-(कथा यात्रा-039)”

महाबलवान हाथी और कीचड़-(कथा यात्रा-038)

(महाबलवान हाथी का कीचड़ में फसना—(एस धम्मो सनंतनो)

कौशल— नरेश के पास बद्धरेक नाम का एक महाबलवान हाथी था। उसके बल और पराक्रम की कहानियां दूर— दूर तक फैली थीं। लोग कहते थे कि युद्ध में उस जैसा कुशल हाथी कभी देखा ही नहीं गया था। बड़े— बड़े सम्राट उस हाथी को खरीदना चाहते थे पाना चाहते थे। बड़ों की नजरें लगी थीं उस हाथी पर। वह अपूर्व योद्धा था हाथी। युद्ध से कभी किसी ने उसको भागते नहीं देखा। कितना ही भयानक संघर्ष हो कितने ही तीर उस पर बरस रहे हो और भाले फेके जा रहे हो वह अडिग चट्टान की तरह खड़ा रहता था। उसकी चिंघाड़ भी ऐसी थी कि दुश्मनों के दिल बैठ जाते थे। उसने अपने मालिक कौशल के राजा की बड़ी सेवा की थी। अनेक युद्धों में जिताया था।

लेकिन फिर वह वृद्ध हुआ और एक दिन तालाब की कीचड़ में फंस गया। बुढ़ापे ने उसे इतना दुर्बल कर दिया था कि वह कीचड़ से अपने को निकाल न पाए।

उसने बहुत प्रयास किए लेकिन कीचड़ से अपने को न निकाल सका सो न निकाल सका। राजा के सेवकों ने भी बहुत चेष्टा की पर सब असफल गया। Continue reading “महाबलवान हाथी और कीचड़-(कथा यात्रा-038)”

विरोधिओं का कीचड़ उछालना-(कथा यात्रा-037)

 विरोधी धर्म गुरूओं का बुद्ध पर कीचड़ उछालना—(एस धम्मो सनंतनो)

गवान् केर कौशांबी में विहरते समय की घटना है। बुद्ध—विरोधी धर्म गुरुओं ने गुंडों—बदमाशों को रुपए—पैसे खिला—पिलाकर भगवान का तथा भिक्षुसंघ का आक्रोशन? अपमान करके भगा देने के लिए तैयार कर लिया था। वे भिक्षुओं को देखकर भद्दी गालिया देते थे। नहीं लिखी जा सकें ऐसी शास्त्र कहते हैं। जो लिखी जा सके वे ये थी—भिक्षुनिकलते तो उनसे कहते तुम मूर्ख हो पागल हो झक्की हो, चोर—उचक्के हो बैल—गधे हो पशु हो पाशविक हो नारकीय हो पतित हो विकृत हो इस तरह के शब्द भिक्षुओं से कहते।

ये तो जो लिखी जा सकें। न लिखी जा सकें तुम समझ लेना।

वे भिक्षणिओं को भी अपमानजनक शब्द बोलते थे। वे भगवान पर तरह— तरह की कीचड़ उछालते थे। उन्होंने बड़ी अनूठी— अनूठी कहानियां गढ़ रखी थीं और उन कहानियों में उस कीचड़ में बहुत से धर्मगुरुओं का हाथ था।

जब बहुत लोग बात कहते हों तो साधारणजन मान लेते हैं कि ठीक ही कहते होंगे। आखिर इतने लोगों को कहने की जरूरत भी क्या है? ठीक ही कहते होंगे। Continue reading “विरोधिओं का कीचड़ उछालना-(कथा यात्रा-037)”

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