तामस, राजस और सात्विक सुख—
(प्रवचन—ग्यारहवां) अध्याय—18
सूत्र–
सुखं त्विदानीं त्रिविधं मृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासद्रमते यत्र दुखान्तं च निगच्छति।। 36।।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतीयमम्।
तत्सुखं सात्विक प्रोक्तमात्मबुध्यिसादजम्।। 37।।
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोयमम्।
परिणामे विषीमव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।। 38।।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन।
निद्रलस्थ्यमादोत्थं तत्तामसमुदाह्रतम्।। 39।।
न तदस्ति पृथ्विव्यां वा दिवि दैवेषु वा पुन:।
सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदैभि:स्यत्मिभिर्गुणै।। 40।।
है अर्जुन, अब सुख भी तू तीन प्रकार का मेरे से सुन। हे भरतश्रेष्ठ, जिस सुख में साधक पुरूष ध्यान, उपासना और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और दुखों के अंत को प्राप्त होता है, वह सुख प्रथम साधन के आरंभ काल में यद्यपि विष के सदृश भासता है, परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है। इसलिए जो आत्मबुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न हुआ सुख है वह सात्विक कहा गया है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-209)”
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