गीता दर्शन-(प्रवचन-219)

परतामात्‍मा को झेलने का पात्रता—

(प्रवचन—इक्‍कीसवां) अध्‍याय—18

सूत्र—

 सजय उवाच:

ड़त्यहं वासुदेवस्य यार्थस्य च महात्मन:।

संवादभिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।। 74।।

व्याक्यसादाच्‍छूतवानेतदगह्यमहं परम्।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्‍साक्षाक्कथयत स्वयम्।। 75।।

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।

केशवार्जुनयो पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु:।। 76।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-219)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-218)

मनन और निदिध्‍यासन—

(प्रवचन—बीसवां) अध्‍याय—18

सूत्र–

कच्चिदेतव्छ्रुतं पार्थ त्‍वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिमानसंमोह: मनष्टस्ते धनंजय।। 72।।

अर्जन उवाच:

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्‍धा त्‍वत्ससादान्मयाव्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्‍ये वचनं तव।। 73।।

इस प्रकार गीता का माहात्म्य कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पूछा, है पार्थ, क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? और हे धनंजय, क्या तेरा स्नान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ? Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-218)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-217)

गीता—ज्ञान—यज्ञ—

(प्रवचन—उन्‍नीसवां) अध्‍याय—18

सूत्र—

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:।

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट स्‍यामिति मे मति:।। 70।।

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादीय यो नर:।

सोऽपि मुक्त: शुभाँल्लोकान्प्राम्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।। 71।।

तथा हे अर्जुन, जो पुरूष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद— रूप गीता को पढ़ेगा अर्थात नित्य पाठ करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञान— यज्ञ से पूजित होऊंगा, ऐसा मेरा मत है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-217)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-216)

आध्‍यात्‍मिक संप्रेषण संप्रेषण की गोपनीयता—

(प्रवचन—अठारहवां) अध्‍याय—18

सूत्र—

हदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्‍यसूयीत।। 67।।

य इमं परमं गुह्मं मद्भक्तेम्बीभधास्यति।

भक्‍ति मयि परां कृत्या मामैवैष्यत्यसंशय:।। 68।।

न च तस्मान्मनुष्येधु कीश्चन्मे प्रियकृत्तम:।

भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि।। 69।।

है अर्जुन, हस कार तेरे खत के लिए कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तपरहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए और न भक्तिरीहत के प्रति तथा न बिना सुनने की इच्छा वाले के प्रति ही कहना चलिए; एवं जो मेरी निंदा करता है उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिए। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-216)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-215)

समर्पण का राज–

(प्रवचन—सत्रहवां) अध्‍याय—18

सूत्र—

सर्वगुह्मतमं भूय: श्रृणु मे परमं वचः।

हष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।। 64।।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।

मामैवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।। 65।।

सर्वधर्मान्परित्‍यज्य मामेकं शरणं ब्रज।

अहं त्वा सर्वपापेध्यो मीक्षयिष्यामि मा शुचः।। 66।।

इतना कहने पर भी अर्जुन का कोई उत्तर नहीं मिलने के कारण श्रीस्कृष्ण भगवान फिर बोले कि है अर्जुन, संपूर्ण गोयनीयों से भी अति गोयनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन, क्योंकि तू मेरा अतिशय प्रिय है, हमसे यह परम हितकारक वचन मैं तेरे लिए कहूंगा। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-215)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-214)

संसार ही मोक्ष बन जाए—

(प्रवचन—सोलहवां) अध्‍याय—18

सूत्र—

यदहंकारमाश्रित्य न योत्‍स्‍य इति मन्यसे।

मिथ्‍यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्थ्यां नियोक्ष्यति।। 59।।

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा।

कर्तुं नेच्छीस यन्महात् कीरष्यवशेउपि तत्।। 60।।

र्इश्वर: सर्वभूतानां हद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। 61।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-214)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-213)

गीता—पाठ और कृष्‍ण–पूजा—

(प्रवचन—प्रंदहवां) अध्‍याय—18

सूत्र—

ब्रह्मभूत: प्रसन्‍नत्‍मा न शोचिई न काङ्क्षति।

सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते यराम्।। 54।।

भक्त्‍या मामीभजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वत:।

ततो मां तत्‍वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।। 55।।

सर्क्कर्माण्यीप सदा कुर्वाणो मद्व्ययाश्रय:।

मत्प्रसादादवानोति शाश्वतं पदमध्ययम्।। 56।।

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्‍पर:।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्‍चित्त: सततं भव।। 57।।

मच्चित: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तश्ष्यिसि।

अथ चेत्त्वमहंकारान्‍न श्रोष्यीस विनङ्क्ष्‍यसि।। 58।।

फिर वह सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित हुआ प्रसन्नचित्त वाला पुरुष न तो किसी वस्तु के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है एवं सब भूतों में समभाव हुआ मेरी परा— भक्‍ति को प्राप्त होता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-213)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-212)

पात्रता और प्रसाद—

(प्रवचन—चौदहवां) अध्‍याय—18

सूत्र—

अमक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।

नैष्कर्म्यतिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगव्छीत।। 49।।

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाम्नोति निबोध मे।

समामेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या पर।।। 50।।

बुद्धया विशुद्धया युक्‍तो धृत्यात्मानं नियम्य च।

शब्दादीन्त्रिषयांस्‍त्‍यक्‍त्‍वा राग्द्धेशै व्युदस्य च।। 51।।

विविक्तसेवी लथ्वाशी यतवाक्कायमानस।

ध्यानयोगयरो नित्यं वैराग्य समुपाश्रित:।। 52।।

अहंकार बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

विमुव्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।। 53।।

तथा है अर्जुन, सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्‍पृहारहित और जीते हुए अंतकरण वाला पुरुष संन्यास के द्वारा भी परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है अर्थात क्रियारहित हुआ शुद्ध सच्चिदानंदघन परमात्मा की प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-212)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-211)

स्‍वधर्म, स्‍वकर्म और वर्ण—

(प्रवचन—तेरहवां) अध्‍याय—18

सूत्र—

स्‍वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।

स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तव्छृणु।। 45।।

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमथ्यर्ब्य सिद्धिं विन्दति मानव:।। 46।।

श्रेयाक्यधर्मा विगुणः परधर्माफ्लनुष्ठितात्।

स्वभावनिक्तं कर्म कुर्वब्रानोति किल्‍बिषम्।। 47।।

सहजं कर्म कौन्तेय सदोश्मीय न त्यजेत्।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।। 48।।

एवं इस अपने—अपने स्वाभाविकि कर्म में लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्‍तिरूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है। परंतु जिस प्रकार से अपने स्वाभाविक कर्म मैं लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू मेरे से सुन। हे अर्जुन, जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाक्कि कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता हे। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-211)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-210)

गुणातीत है आनंद—(प्रवचन—बारहवां)

अध्‍याय—8

सुत्र—

ब्रह्यणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतय।

कर्माणि प्रीवभक्तानि स्वभाअभवैर्गुणै।। 41।।

शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। 42।।

शौर्य तेजी धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्‍यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।। 43।।

कृषिगौरमवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्क्कं कर्म शूद्रस्‍यापि स्वभावजम्।। 44।।

इसलिए हे परंतप, ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के तथा शूद्रों के भी कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों के आधार पर विभक्त किए गए हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-210)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-209)

तामस, राजस और सात्‍विक सुख—

(प्रवचन—ग्‍यारहवां) अध्‍याय—18

सूत्र–

सुखं त्विदानीं त्रिविधं मृणु मे भरतर्षभ।

अभ्यासद्रमते यत्र दुखान्तं च निगच्‍छति।। 36।।

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतीयमम्।

तत्सुखं सात्‍विक प्रोक्तमात्मबुध्यिसादजम्।। 37।।

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोयमम्।

परिणामे विषीमव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।। 38।।

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन।

निद्रलस्थ्यमादोत्‍थं तत्‍तामसमुदाह्रतम्।। 39।।

न तदस्ति पृथ्‍विव्यां वा दिवि दैवेषु वा पुन:।

सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्‍तं यदैभि:स्यत्मिभिर्गुणै।। 40।।

है अर्जुन, अब सुख भी तू तीन प्रकार का मेरे से सुन। हे भरतश्रेष्ठ, जिस सुख में साधक पुरूष ध्यान, उपासना और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और दुखों के अंत को प्राप्त होता है, वह सुख प्रथम साधन के आरंभ काल में यद्यपि विष के सदृश भासता है, परंतु परिणाम में अमृत के तुल्‍य है। इसलिए जो आत्‍मबुद्धि के प्रसाद से उत्पन्‍न हुआ सुख है वह सात्‍विक कहा गया है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-209)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-208)

गुरु पहला स्‍वाद है-

(प्रवचन—दसवां) अध्‍याय—18

सूत्र—

धृत्या यया धारयते मनप्राणेन्द्रियक्रिया:।

योगेनाथ्यमिचारिण्या धृति: सा पार्थ सात्‍विकी।। 33।।

यया त धर्क्कामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जन।

प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृति: सा पार्थ राजसी।। 34।।

यया स्वप्‍नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।

न विमुज्‍चति दुमेंधा धृति: आ पार्थ तामसी।। 35।।

और है पार्थ, ध्यान— योग के द्वारा जिस अव्‍यभिचारिणी धृति अर्थात धारणा से मनुष्य मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाऔं को धारण करता है, वह धृति तो सात्‍विकी है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-208)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-207)

तीन प्रकार की बुद्धि—

(प्रवचन—नौवां) अध्‍याय—18

सूत्र—

बुद्धेभेंदं धृतेश्चैव गुणतीस्त्रीवधं श्रृणु।

प्रौच्‍यमानमशेषेण पृथक्त्‍वेन धनंजय।। 29।।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्यास्कीयें भयाभये।

बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी।। 30।।

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।

अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी।। 31।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-207)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-206)

समाधान और समाधि—

(प्रवचन—आठवां) अध्‍याय—18

सूत्र——

मुक्ततङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।

सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्विक उच्यते।। 26।।

रागी कर्मफन्सेप्सुरर्लब्‍धो हिंसात्क्कोऽशुचि:

हर्षशक्रोन्वित: कर्ता राजस: परिर्कीर्तित:।। 27।।

अयुक्त: प्राकृत: स्तब्ध: शठो नैष्कृतिकोऽलस:।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्‍यते।। 28।।

तथा हे अर्जुन, जो कर्ता आसक्‍ति से रहित और अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त एवं कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष— शोकादि विकारों से रहित है, वह कर्ता तो सात्‍विक कहा गया है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-206)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-205)

तीन प्रकार के कर्म—(प्रवचन—सातवां)

अध्‍याय—18

सूत्र—

नियतं सङ्गरहितमराग्डेषत: कृतम्।

अफत्नप्रेप्‍सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्‍यते।। 23।।

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुन:।

क्रियते बहलायासं तद्राजममुदह्रतम्।। 24।।

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरूषम्।

मोहादारभ्‍यते कर्म यत्तत्तामसमुव्यते।। 25।।

तथा हे अर्जुन, जो कर्म शास्त्र— विधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित, फल को न चाहने वाले पुरूष द्वारा बिना राग—द्वेष से किया हुआ ह्रै वह कर्म तो सात्विक कहा जाता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-205)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-204)

गुणातीत जागरण—

(प्रवचन—छठवा) अध्‍याय—18

सूत्र—

ज्ञानं ज्ञेयं पीरज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।

करणं कर्म कर्तेति त्रिविध: कर्मसंग ।। 18।।

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदत:।

प्रोच्‍यते गुणसंख्याने यथावच्‍छृणु तान्ययि।। 19।।

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्जानं विद्धि सात्‍विकम्।। 20।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-204)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-203)

महासूत्र साक्षी—(प्रवचन—पांचवां)

अध्‍याय—18

सूत्र—

यञ्जैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।

सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।। 13।।

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथश्विधम्।

विविधाश्च यृथक्चैष्टा दैवं चैवात्र यञ्जयम्।। 14।।

शरीरवाक्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर:।

न्याटयं वा विपरीतिं वा पज्जैते तस्य हेतवः ।। 15।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-203)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-202)

सदगुरू की खोज—

(प्रवचन—चौथा) अध्‍याय—18

सूत्र—

न द्वेञ्चकुशलं कर्म कुशले नानुषज्‍जते।

त्यागी सत्‍वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशय:।। 10।।

न हि देहभृता शाक्‍यं त्यक्तुं कर्माण्यझेश्त:।

यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्‍यभिधीक्ते।। 11।।

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम्।

भवत्‍यत्‍यागिनां प्रेत्य न तु सन्यासिनां क्वचित्।। 12।।  

और हे अर्जुन, जो पुरुष अकल्‍याणकारक कर्म से तो द्वेष नहीं करता है और कल्याणकारक कर्म में आस्क्‍त नहीं होता है, वह शुद्ध सत्वगुण से युक्‍त हुआ पुरुष संशयरहित मेधावी अर्थात ज्ञानवान और त्यागी है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-202)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-201)

फलाकांक्षा का त्‍याग—

(प्रवचन—तीसरा) अध्‍याय—18

सूत्र—

नियतस्य तु संन्यास: कर्मणो नोययद्यते।

मोहात्तस्य परित्यागस्तामम: यरिकीर्तित:।। 7।।

दु:खमित्येव यत्कर्म कायक्लेशमयाल्यजेत्।

स कृत्या राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ।। 8।।

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन।

सङ्गं त्यक्त्‍वा फलं चैव स त्याग: सास्थ्यिाए मत:।। 9।।

और हे अर्जुन, नियत कर्म का त्याग करना योग्य नही है, इसलिए मोह से उसका त्याग करना तामस त्याग कहा गया है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-201)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-200)

सात्‍विक, राजस और तामस त्‍याग—

(प्रवचन—दूसरा) अध्‍याय—18

सूत्र—

निश्चय श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।

त्यागो हि पुरूषव्‍याघ्र त्रिविध: संप्रकीर्तित: ।। 4।।

यज्ञदानतय:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।। 5।।

एतान्ययि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्वा फलानि च ।

कर्तथ्यानीति मे पार्थ निशिचतं मतमुत्तमम्।। 6।।

परंतु हे अर्जुन, उस त्याग के विषय में तू मेरे निश्चय को सुन। हे पुरूषश्रेष्ठ, वह त्याग सात्‍विक राजस और तामस, ऐसे तीनों प्रकार का ही कहा गया है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-200)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-199)

अंतिम जिज्ञासा: क्‍या है मोक्ष, क्‍या है संन्‍यास—

(प्रवचन—पहला) अध्‍याय—18

सूत्र—

श्री मद्भगवद्गीता (अथ अष्‍टादशोउध्‍ण्‍याय)

अर्जुन उवाच:

संन्यामस्य महाबाहो तत्त्वीमच्छामि वेदितुम्।

त्यागस्य च हषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।। 1।।

भगवानवाच:

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।

सर्व कर्मफलत्यागं प्राहुस्मागं विचक्षणा:।। 2।।

त्याज्यं दोश्वदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण:।

यज्ञदानतयकर्म न त्याज्यमिति चापरे ।। 3।।

अर्जुन बोला, हे महाबाहो, हे हषीकेश, हे वासुदेव, मैं संन्यास और त्याग के तत्‍व को पृथक— पृथक जानना चाहता हूं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-199)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-198)

मन का महाभारत—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

अध्‍याय—17

सूत्र: 

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतगयुज्यते।

प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्‍छब्द: पार्थ युज्यते।। 26।।

यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सीदति चौच्‍यते।

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिप्रीयते ।। 27।।

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्‍प्रेत्य नौ इह ।। 28।।

और सत्— ऐसे यह परमात्मा का नाम सत्य— भाव में और श्रेष्ठ— भाव में प्रयोग किया जाता है। तथा हे पार्थ, उत्तम कर्म में भी सत् शब्द प्रयोग किया जाता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-198)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-197)

क्रांति की कीमिया: स्‍वीकार—

(प्रवचन—दसवां)  अध्‍याय—17

सूत्र—

ओंम तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:।

ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा ।। 23।।

तस्मादोमित्युदह्रत्य यज्ञदानतप:क्रिया:।

प्रवर्तन्ते विधानोक्‍ता: सततं ब्रह्मवादिनाम् ।। 24।।

तदित्यनीभसंधाय फलं यज्ञतप:क्रिया:।

दानक्रियाश्च विविधा: क्रियन्तेमोक्षकांक्षिभि:।। 25।।

और हे अर्जुन, ओम तत् सत— ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गए हैं। इसलिए ब्रह्मवादिन पुरुषों की शास्त्र— विधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तय— रूप क्रियाएं सदा ओम, ऐसे हम Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-197)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-196)

दान—सात्‍विक, राजस, तामस—

(प्रवचन—नौवां)  अध्‍याय—17

सूत्र-

दातव्‍यमिप्ति यद्दानं दींयतेउनुपकारिणे।

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्‍विक स्मृतम्।। 20।।

यत्तु प्रत्यक्कारार्थं फलमुद्दिश्‍य वा पन:।

दीयते च परिक्‍लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।। 21।।

अदेशकाले यद्दानमयात्रेभ्यश्च दीयते।

असत्‍कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदष्ठतम्।। 22।।

है अर्जुन, दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर प्रत्युपकार न करने वाले के लिए दिया जाता है, वह दान तो सात्‍विक कहा गया है। और जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को उद्देश्य रखकर फिर हिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-196)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-195)

पूरब और पश्‍चिम का अभिनव संतुलन—

(प्रवचन—आठवां) अध्‍याय—17

सूत्र:

श्रद्धया परया तप्तं तयस्तन्त्रिविधं नरै ।

अफलाकंक्षिभिर्युक्तै: सात्त्विकं पश्चिक्षते।। 17।।

सत्कारमानपूजार्थ तपो दम्भेन चैव यत्।

क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमब्रुवम्।। 18।।

मूढग्राहेणात्मनार्थं यत्पीडया क्रियते तय: ।

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदहतम्।। 19।।

है अर्जुन, कल को न चाहने वाले निष्कामी योगी परूषों द्वारा परम आ से किए हुए उस पूर्वोक्‍त तीन प्रकार के तय को तो सात्‍विक कहते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-195)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-194)

शरीर, वाणी और मन के तप—

(प्रवचन—सातवां)  अध्‍याय—7

सूत्र:–

देवद्धिजगुरूप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्‍यते।। 14।।

अनुद्वेगकरं वाक्‍यं सत्यं प्रियहितं च यत्।

स्वाध्यायाभ्‍यमनं चैव वाङ्मय तय उच्यते।। 15।।

मन:प्रमाद सौम्यत्‍वं मौनमात्मीवनिग्रह:।

भावसंशुद्धिरित्‍येतत्तपो मानसमुच्‍यते।। 16।।

तथा हे अर्जुन, देवता, द्विज अर्थात ब्रह्मण, गुरू और ज्ञानीजनों का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्राह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर संबंधी तय कहा जाता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-194)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-193)

तीन प्रकार के यज्ञ—(प्रवचन—छठवां)

अध्‍याय—17

सूत्र—

अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विभिदृष्टो य हज्यते।

यष्टध्यमेवेति मन: समाधाय अ सात्‍विक।। 11।।

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।

इज्‍यते भरतश्रेष्ठं तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।। 12।।

विधिहीनमसृष्‍टान्‍नं मंत्रहीनमदक्षईणम् ।

श्रद्धाविरहितं यज्ञ तामसं परिचक्षते ।। 13।।

और हे अर्जुन, जो यज्ञ शास्त्र— विधि से नियत किया हुआ है तथा करना ही कर्तव्य है, ऐसे मन को समाधान करके फल को न चाहने वाले पुरूषों द्वारा किया जाता है, यह यज्ञ तो सात्‍विक है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-193)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-192)

 भोजन की कीमिया—(प्रवचन—पांचवां)

अध्‍याय—17

सूत्र:–

आयु:सत्त्वब्रलारौग्यसुख्तीतिविवर्थना:।

रस्‍या: स्निग्‍धा: स्थिरा हद्या आहारा: सात्‍विकप्रिया:।। 8।।

कट्वब्ललवणात्युष्यातीक्श्रणीरूक्षधिदाहिन:।

आहारा राजसस्येष्टा दु:खशस्कोमयप्रदा:।। 9।।

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।

उच्‍छिष्‍टमपि चामेध्यं भोजन तामसप्रियम्।। 10।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-192)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-191)

संदेह और श्रद्धा—(प्रवचन—चौथा)

अध्‍याय—17

सूत्र—

आहारस्थ्यपि सर्वस्य प्रिविधो भवति प्रिय:।

यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदीममं श्रृणु।। 7।।

और है अर्जुन, जैसे श्रृद्धा तीन प्रकार की होती है, वैसे ही भोजन भी सबको अपनी—अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी सात्विक, राजसिक और तामसिक, ऐसे तीन— तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस न्यारे— न्यारे भेद को तू मेरे से मन। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-191)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-190)

सुख नहीं, शांति खोजो—(प्रवचन—तीसरा)

अध्‍याय—17

सूत्र: 

अशास्‍त्रविहितं धीरं तप्यन्ते ये तपो जना:।

दम्भाहंकारसंयुक्‍ता: कामरागबलान्त्तिता:।। 5।।

कर्शयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस:।

मां चैवान्त:शरीरस्थं तान्‍विद्धय्यासुरीनश्चयान्।। 6।।

और है अर्जुन, जो मनुष्य शास्त्र— विधि से रहित केवल मनोकल्‍पित घोर तप को तपते हैं तथा दंभ और अहंकार से युक्‍त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्‍त हैं तथा जो शरीररूप से स्थित भूत— समुदाय को और अंत:करण में स्थित मुझे अंतर्यामी को भी कृश: करने वाले है, उन अज्ञानियों को तू आसुरी स्वभाव वाला जान। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-190)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-189)

भक्‍ति और भगवान—(प्रवचन—दूसरा)

अध्‍याय—17

सूत्र—

सत्‍वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो वो यव्छुद्ध: स एव सः।। 3।।

यजन्ते सात्‍विका देवान्यक्षरक्षांति राजसाः।

प्रेतान्धूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना: ।। 4।।

है भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरूष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-189)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-188)

सत्‍य की खोज और त्रिगुण का गणित—

(प्रवचन—पहला) अध्‍याय—17

सूत्र—

                  (श्रीमद्भगवद्गीता अथ सप्तदशोऽध्याय)

 अर्जन उवाच:

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धायान्विता।

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण तत्त्वमाहो रजस्तम:।। 1।।

श्रॉभगवानवाच:

त्रिविधा भवति आ देहिनां आ स्वभावजा।

सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।। 2।।

इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला, हे कृष्ण, जो मनुष्य शास्त्र— विधि को त्यागकर केवल श्रृद्धा मे युक्त हुए देवादिकों का पूजन करते है, उनकी स्थिति फिर कौन—सी है? क्या सात्विकी है अथवा राजसी है या तामसी है? Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-188)”

गीता दर्शन-भाग-8 (ओशो)

गीता दर्शन—(भाग—आठ) —ओशो

(ओशो द्वारा श्रीमदभगवद्गीता के अध्‍याय सत्रह ‘श्रद्धात्रय—विभाग—योग’ एवं अध्‍याय अठारह ‘मोक्ष—संन्‍यास—योग’ पर दिए गये बत्‍तीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

भूमिका:  (ओशो कृष्‍ण चेतना)

गीता एक महावाक्य, एक महाश्लोक, एक महाकाव्य है—किन शब्दों, किस भाषा में इसे परिभाषित किया जाए! जैसे अमृतमय, अव्याख्येय, अनूठे—अनमोल बोल कृष्ण ने गीता में बोले हैं वैसे बोल अन्य किसी देश में न तो कभी बोले गए और न कभी सुने गए। इसमें कविता है, संगीत है, सुगंध है। न जाने किस—किस प्रकार के रस अपने में समाए है यह गीता! रागी के लिए इसमें जगह है तो विरागी के लिए भी इसमें स्थान है। संन्यासी भी इसमें रस ले सकता है तो गृहस्थ भी इसमें डूब सकता है। लगता है कि गीता में कोई व्यक्ति नहीं, कोई समाज नहीं, कोई देश विशेष नहीं, समस्त अस्तित्व ही बोल रहा है। Continue reading “गीता दर्शन-भाग-8 (ओशो)”

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