बोध कथा-नौवी–(ओशो)
मैं एक छोटे से गांव में गया था। वहां एक नया मंदिर बन कर खड़ा हो गया था और उसमें मूर्ति प्रतिष्ठा का समारोह चल रहा था। सैकड़ों पुजारी और संन्यासी इकट्ठे हुए थे। हजारों देखने वालों की भीड़ थी। धन मुक्तहस्त से लुटाया जा रहा था। और सारा गांव इस घटना से चकित था। क्योंकि जिस व्यक्ति ने मंदिर बनाया था और इस समारोह में जितना धन व्यय किया था, उससे ज्यादा कृपण व्यक्ति भी कोई और हो सकता है, यह सोचना भी उस गांव के लोगों के लिए कठिन था। वह व्यक्ति कृपणता की साकार प्रतिमा था। उसके हाथों एक पैसा भी कभी छूटते नहीं देखा गया था। फिर उसका यह हृदय परिवर्तन कैसे हो गया था? यही चर्चा और चमत्कार सबकी जुबान पर था। उस व्यक्ति के द्वार पर तो कभी भिखारी भी नहीं जाते थे। क्योंकि वह द्वार केवल लेना ही जानता था। देने से उसका कोई परिचय ही नहीं था। फिर यह क्या हो गया था? जो उस व्यक्ति ने कभी स्वप्न में भी न किया होगा, वह वस्तुतः आंखों के सामने होते देख कर सभी लोग आश्चर्य से ठगे रह गए थे। Continue reading “बोध कथा-09”