बोध कथा-09

बोध कथा-नौवी–(ओशो)

मैं एक छोटे से गांव में गया था। वहां एक नया मंदिर बन कर खड़ा हो गया था और उसमें मूर्ति प्रतिष्ठा का समारोह चल रहा था। सैकड़ों पुजारी और संन्यासी इकट्ठे हुए थे। हजारों देखने वालों की भीड़ थी। धन मुक्तहस्त से लुटाया जा रहा था। और सारा गांव इस घटना से चकित था। क्योंकि जिस व्यक्ति ने मंदिर बनाया था और इस समारोह में जितना धन व्यय किया था, उससे ज्यादा कृपण व्यक्ति भी कोई और हो सकता है, यह सोचना भी उस गांव के लोगों के लिए कठिन था। वह व्यक्ति कृपणता की साकार प्रतिमा था। उसके हाथों एक पैसा भी कभी छूटते नहीं देखा गया था। फिर उसका यह हृदय परिवर्तन कैसे हो गया था? यही चर्चा और चमत्कार सबकी जुबान पर था। उस व्यक्ति के द्वार पर तो कभी भिखारी भी नहीं जाते थे। क्योंकि वह द्वार केवल लेना ही जानता था। देने से उसका कोई परिचय ही नहीं था। फिर यह क्या हो गया था? जो उस व्यक्ति ने कभी स्वप्न में भी न किया होगा, वह वस्तुतः आंखों के सामने होते देख कर सभी लोग आश्चर्य से ठगे रह गए थे। Continue reading “बोध कथा-09”

बोध कथा-08

बोध कथा-आठवी–(ओशो)

एक मित्र ने पूछा है ‘समाज में इतनी हिंसा क्यों हैं?’

हिंसा के मूल में महत्वाकांक्षा है। वस्तुतः तो महत्वाकांक्षा ही हिंसा है। मनुष्य चित्त दो प्रकार का हो सकता है। महत्वाकांक्षी और गैर-महत्वाकाक्षी। महत्वाकांक्षी-चित्त से राजनीति जन्मती है और गैर-महत्वाकांक्षी-चित्त से धर्म का जन्म होता है। धार्मिक और राजनैतिक–चित्त के ये दो ही रूप हैं। या कहें कि स्वस्थ और अस्वस्थ।

स्वस्थ चित्त में हीनता नहीं होती है। और जहां आत्महीनता नहीं है, वहां महत्वाकांक्षा भी नहीं हैं। क्योंकि, महत्वाकांक्षा आत्महीनता के बोध को मिटाने के प्रयास से ज्यादा और क्या है? लेकिन, आत्महीनता ऐसे मिटती नहीं हैं और इसलिए महत्वाकांक्षा का कहीं अंत नहीं आता है। आत्महीनता का अर्थ है आत्मबोध का अभाव। स्वयं को न जानने से ही वह होती है। Continue reading “बोध कथा-08”

बोध कथा-07

बोध कथा-सातवीं

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

मैं जीवन में उन्हें हारते देखता हूँ जो कि जीतना चाहते थे। क्या जीतने की आकांक्षा हारने का कारण नहीं बन जाती है?

आँधी आती है तो आकाश को छूते वृक्ष टूट कर सदा के लिए गिर जाते हैं और घास के छोटे-छोटे पौधे आँधी के साथ डोलते रहते हैं और बच जाते हैं।

पर्वतों से जल की धाराएँ गिरती हैं- कोमल, अत्यंत कोमल जल की धाराएँ और उनके मार्ग में खड़े होते हैं विशाल पत्थर- कठोर शिलाखंड। लेकिन एक दिन पाया जाता है, जल तो अब भी बह रहा है लेकिन वे कठोर शिलाखंड टूट-टूटकर, रेत होकर एक दिन मालूम नहीं कहाँ खो गये हैं। Continue reading “बोध कथा-07”

बोध कथा-06

बोध कथा -छठवी

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार की सीमा है और सत्य असीम है।

विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार ज्ञात है और सत्य अज्ञात है।

विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार शब्द है और सत्य शून्य है।

विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार एक क्षुद्र प्याली है और सत्य एक अनंत सागर है। Continue reading “बोध कथा-06”

बोध कथा-05

बोध कथा -पांचवी

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

सत्य की खोज में सम्यक निरीक्षण से महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है। लेकिन, हम तो करीब करीब सोये-सोये ही जीते हैं, इसलिए जागरूक निरीक्षण का जन्म ही नहीं हो पाता है। जो जगत हमारे बाहर है, उसके प्रति भी खुली हुई आँखें और निरीक्षण करता हुआ चित्त चाहिए और तभी उस जगत के निरीक्षण और दर्शन में भी हम समर्थ हो सकते हैं जो कि हमारे भीतर है। Continue reading “बोध कथा-05”

बोध कथा-04

बोध कथा –चौथी

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

प्रेम जिस द्वार के लिए कुंजी है। ज्ञान उसी द्वार के लिए ताला है।

और मैंने देखा है कि जीवन उनके पास रोता है जो कि ज्ञान से भरे हैं लेकिन प्रेम से खाली हैं।

एक चरवाहे को जंगल में पड़ा एक हीरा मिल गया था। उसकी चमक से प्रभावित हो उसने उसे उठा लिया था और अपनी पगड़ी में खोंस लिया था। सूर्य की किरणों में चमकते उस बहुमूल्य हीरे को रास्ते से गुज़रते एक जौहरी ने देखा तो वह हैरान हो गया, क्योंकि इतना बड़ा हीरा तो उसने अपने जीवन भर में भी नहीं देखा था।

उस जौहरी ने चरवाहे से कहा : ‘क्या इस पत्थर को बेचोगे? मैं इसके दो पैसे दे सकता हूँ?’ Continue reading “बोध कथा-04”

बोध कथा-03

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

बोध कथा–तीसरी

एक वृद्ध मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं : ‘नयी पीढ़ी बिल्कुल बिगड़ गयी है।’ यह उनकी रोज की ही कथा है।

एक दिन मैंने उनसे एक कहानी कही : ‘एक व्यक्ति के ऑपरेशन के बाद उसके शरीर में बंदर की ग्रंथियाँ लगा दी गयीं थीं। फिर उसका विवाह हुआ। और फिर कालांतर में पत्नी प्रसव के लिए अस्पताल गई। पति प्रसूतिकक्ष के बाहर उत्सुकता से चक्कर लगा रहा था। और जैसे ही नर्स बाहर आई, उसने हाथ पकड़ लिए और कहा : ‘भगवान के लिए जल्दी बोलो। लड़का या लड़की?’ Continue reading “बोध कथा-03”

बोध कथाएं-02

बोध कथा-दुसरी

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

जीवन बहुत उलझा हुआ है लेकिन अक्सर जो उसे सुलझाने में लगते हैं वे उसे और भी उलझा लेते हैं।

जीवन निश्चय ही बड़ी समस्या है लेकिन उसके लिए प्रस्तावित समाधान उसे और भी बड़ी समस्या बना देते हैं।

क्यों? लेकिन एसा क्यों होता है?

एक विश्वविद्यालय में विधीशास्त्र के एक अध्यापक अपने जीवनभर वर्ष के पहले दिन की पढ़ाई तखते पर ‘चार’ और ‘दो’ के अंक लिखकर प्रारंभ करते थे। वे दोनों अंकों को लिखकर विद्यार्थियों से पूछते थे : ‘क्या हल है?’

निश्चय ही कोई विद्यार्थी शीघ्रता से कहता : ‘छः!’ Continue reading “बोध कथाएं-02”

बोध कथा-01

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

संकलनः अरविंद

बोध कथा-पहली

मैं देखता हूं कि प्रभु का द्वार तो मनुष्य के अति निकट है लेकिन मनुष्य उससे बहुत दूर है। क्योंकि न तो वह उस द्वार की ओर देखता ही है और न ही उसे खटखटाता है।

और मैं देखता हूं कि आनंद का खजाना तो मनुष्य के पैरों के ही नीचे है लेकिन न तो वह उसे खोजता है और न ही खोदता है। Continue reading “बोध कथा-01”

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