सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-07)

सत्य की पहली किरण-प्रवचन-सातवां)

जीवन दर्शन-(विविध)  पहला-प्रवचन

जीवन में स्वयं के तथ्यों का साक्षात्कार

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी घटना से मैं अपनी चर्चा को शुरू करना चाहूंगा।

जैसे आप आज यहां इकट्ठे हैं, ऐसे ही एक चर्च में एक रात बहुत से लोग इकट्ठे थे। एक साधु उस रात सत्य के ऊपर उन लोगों से बात करने को था। सत्य के संबंध में एक अजनबी साधु उस रात उन लोगों से बोलने को था। साधु आया, उसकी प्रतीक्षा में बहुत देर से लोग बैठे थे। लेकिन इसके पहले कि वह बोलना शुरू करता उसने एक प्रश्न, एक छोटा सा प्रश्न वहां बैठे हुए लोगों से पूछा।

उसने पूछा कि क्या आप लोगों में से किसी ने ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय पढ़ा है? जिन लोगों ने पढ़ा है वे हाथ ऊपर उठा दें। उस हाॅल में जितने लोग थे करीब-करीब सभी ने हाथ ऊपर उठा दिए, केवल एक बूढ़ा आदमी हाथ ऊपर नहीं उठाया। उन सभी लोगों ने स्वीकृति दी कि उन्होंने ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय पढ़ा है। वह साधु जोर से हंसने लगा और उसने कहाः मेरे मित्रो, तुम्हीं वे लोग हो जिनसे सत्य पर बोलना बहुत जरूरी है। क्योंकि ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय जैसा कोई अध्याय है ही नहीं। वैसा कोई अध्याय ही नहीं है।

और उस हाॅल में वे सारे लोग हाथ ऊपर उठाए हुए थे कि उन्होंने उस अध्याय को पढ़ा है। सिर्फ एक आदमी हाथ नीचे किए बैठा था। साधु बोल चुका और जब सारे लोग जाने लगे तो उसने उस बूढ़े आदमी को जाकर पकड़ा और कहाः मैं हैरान हूं, तुम जैसा आदमी चर्च में क्यों आया? मैंने आज तक सत्य और चर्च का कोई संबंध नहीं देखा। तुमने हाथ नहीं ऊपर उठाया तो मैं हैरान हो गया। बाकी लोग झूठे ही हाथ उठा रहे थे, यह तो ठीक था। इसमें कोई आश्चर्य की बात न थी। लेकिन तुम्हें बिना हाथ उठाए देख कर मैं हैरान हो गया हूं! तुमने हाथ क्यों नहीं उठाया? मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूं। अगर तुम जैसे एकाध लोग भी जमीन पर शेष रहें तो धर्म नष्ट नहीं होगा।

उस आदमी ने कहाः महानुभाव! आप समझने में भूल कर रहे हैं, मेरे हाथ में दर्द है इसलिए मैं ऊपर नहीं उठा सका। हाथ तो मैं भी ऊपर उठाना चाहता था, मजबूरी थी, माफ करें। दुबारा आप आएंगे और हाथ उठवाएंगे, तब तक मैं भी स्वस्थ हो जाऊंगा और हाथ उठाऊंगा।

सत्य पर यहां भी इन आने वाले दिनों में कुछ थोड़ी सी बातें मुझे आपसे कहनी हैं। सो मुझे भी खयाल आया कि आपसे हाथ उठवा लूं, लेकिन फिर यह डर लगाः हो सकता है किसी के हाथ में तकलीफ हो, और वह न उठा पाए, और परेशान हो। इसलिए मैं हाथ तो नहीं उठवाऊंगा, और अब इस कहानी को कह देने के बाद हाथ उठना थोड़ा मुश्किल भी है। लेकिन हर एक से यह कहूंगा–अपने भीतर वह हाथ जरूर उठा ले, क्योंकि जो आदमी जीवन की खोज में निकला हो, अगर वह अपने भीतर सच्चा नहीं हो सकता है तो उसकी कोई खोज कभी पूरी नहीं होगी।

जो आदमी धर्म को या परमात्मा को, जीवन के अर्थ को जानने के लिए उत्सुक हुआ हो, अगर वह अपने प्रति थोड़ा सच्चा नहीं है तो उसकी खोज व्यर्थ ही चली जाएगी। उसका श्रम व्यर्थ चला जाएगा। फिर चाहे वह मंदिरों में जाए, और चर्चों में और मस्जिदों में, और चाहे वह कहीं भी भटके, तीर्थों में और पहाड़ों पर–अगर वह भीतर अपने प्रति ही झूठा है तो वह जहां भी जाएगा, वहां सत्य नहीं पा सकेगा।

सत्य की खोज का पहला चरण अपने प्रति सच्चा होना है। और हमें याद ही नहीं रहा है कि हम अपने प्रति भी सच्चे हों। शायद हमें पता भी नहीं कि अपने प्रति सच्चे होने का क्या अर्थ है? और यह झूठ कोई एक आदमी बोलता हो, ऐसा नहीं है। यह झूठ कोई एक पीढ़ी बोलती हो, ऐसा नहीं है। किसी एक सदी में आकर आदमी अपने प्रति झूठा हो गया हो, ऐसा भी नहीं है।

हजारों साल से झूठ पाले और पोसे गए हैं। और वे इतने पुराने हो गए हैं कि उन पर आज शक करना भी असंभव हो गया है। बहुत दिनों तक झूठ जब प्रचारित होते हैं तो वे सत्य जैसे प्रतीत होने लगते हैं। हजारों-हजारों साल तक जब किसी झूठ के समर्थन में बातें कही जाती हैं और हजारों लोग उसका उपयोग करते हैं तो धीरे-धीरे यह बात ही भूल जाती है कि वह झूठ है, वह सत्य प्रतीत होने लगती है।

तो यह जरूरी नहीं है कि जो झूठ हमारे जीवन को घेरे होती हैं वे हमारे ईजाद किए हों। हो सकता है, परंपराओं ने हजारों वर्षों में उनको विकसित किया हो। और क्योंकि हमने उन्हें विकसित नहीं किया होता है, इसलिए हमें पता भी नहीं होता है कि हम किसी झूठ का समर्थन कर रहे हैं। हमें याद भी नहीं होता है, हमें खयाल में भी यह बात नहीं होती है। और जब तक यह बात खयाल में न आ जाए, जब तक हम अपने भीतर झूठ के सारे पर्दों को न तोड़ दें तब तक, तब तक हम न जान सकेंगे कि क्या है सत्य?

और सत्य को जो न जान सकेगा, उसके जीवन में कभी स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं हो सकती। और सत्य को जो न जान सकेगा, उसके जीवन में कभी आनंद के झरने फूट नहीं सकते। सत्य को जो न जान सकेगा, उसका जीवन कभी एक संगीत नहीं बन सकता है। वह दुख में जीएगा और दुख में मरेगा। अर्थहीनता में व्यर्थ ही उसका समय अपव्यय होगा। उसका जीवन चुक जाएगा और वह जीवन को जानने से वंचित रह जाएगा।

लेकिन हम सत्य को जरूर जानना चाहते हैं। इसलिए हम उन द्वारों पर भटकते हैं जहां हमें खयाल है कि सत्य मिल सकेगा। हम जरूर ही प्यासे हैं, नहीं तो मंदिरों और मस्जिदों में कौन जाता? हमारे भीतर जरूर आकांक्षा है। लेकिन आकांक्षा अकेली काफी नहीं है, प्यास अकेली काफी नहीं है। हमें अपने भीतर उन दीवालों को तोड़ देना होगा जो हमने खुद असत्य की खड़ी कर ली हैं, तभी सत्य से हमारा कोई सम्पर्क हो सकता है। मैंने कहा कि कोई असत्य जो हमें घेरे हुए है, हमारी आज की ईजाद नहीं है, पुरानी कथा है यह। हर पीढ़ी करीब-करीब उन्हीं असत्यों को फिर से दोहराती है, जिनको पिछली पीढ़ी ने दोहराया था। एक रिपीटीशन, एक पुनरुक्ति है जो चलती चली जाती है।

मैंने सुना है, एक रात एक बड़े नगर में एक छोटे से गांव का रहने वाला एक निवासी आया। यद्यपि वह छोटे से गांव में रहता था, लेकिन बड़े नगर में जब युवा था तो वह भी शिक्षा लेने आया था। उसके पड़ोस का एक लड़का आज भी उसी विद्यालय में, उसी छात्रावास में था, जिसमें वह कभी था। रात उसे ख्याल आया कि मैं जांऊ और देखूं छात्रावास बदल गए होंगे, विद्यालय बदल गए होंगे। मैं जब पढ़ता था उस बात को बीते तो तीस वर्ष हो गए। सब बदल गया होगा। वह गया और उसने उस दरवाजे पर जाकर, द्वार पर दस्तक दी। जिसमें उसके गांव का एक लड़का पढ़ता था और रहता था। दरवाजा खोला गया, वह भीतर गया। और उसने जाकर उस युवक को कहा कि बेटे मैं यह देखने आया हूं, तीस वर्ष में तो सब कुछ बदल गया होगा।

मकान नये हो गए थे, विद्यालय का भवन बहुत बड़ा हो गया था। जहां थोड़े से विद्यार्थी थे, वहां बहुत विद्यार्थी थे। रास्ते सुंदर बन गए थे, बगीचे आबाद हो गए थे। सब कुछ ऐसे बदला हुआ था। वह भीतर गया और उसने युवक की टेबल पर जाकर किताब उठाई, सामने ही बाइबिल रखी हुई थी। उसने बाइबिल का ऊपर का पुट्ठा उघाड़ा, भीतर बाइबिल नहीं थी, भीतर एक उपन्यास था। युवक घबड़ा गया, उसने कहाः यह किताब मेरी नहीं है, मैं तो किसी पड़ोसी से मांग कर लाया था। यह क्या बात है?

वह बूढ़े आदमी ने कहाः मत घबड़ाओ, हम भी ऐसी किताबें बाइबिल के कवर में छिपा कर रखते थे, दि ओल्ड स्टोरी। वही पुरानी कहानी है, इसमें घबड़ाने की कोई भी बात नहीं है। और उसने चारों तरफ नजर डाली और सामने ही अलमारी थी कपड़ों की। उसके दरवाजे को खोला, देख कर वह हैरान हो गया। दरवाजे को खोलते ही उस अलमारी में एक लड़की छिपी हुई खड़ी थी, वह युवक बोलाः माफ करिए, यह मेरे दूर के रिश्ते की बहन है, आई थी मुझसे मिलने।

उसने कहाः बिलकुल घबड़ाओ मत। हम भी लड़कियों को यहीं छिपा कर खड़ा करते थे, दि ओल्ड स्टोरी। वही पुरानी कहानी है। वह बूढ़ा लौट आया। गांव वापस जाकर लोगों ने उससे पूछा, क्या देख कर आए हो? उसने कहा कि मैं बहुत हैरान होकर आया हूं। जो मैंने देखा–मकान बदल गए, रास्ते बदल गए, बगीचे नये हो गए, लेकिन कहानी पुरानी की पुरानी है। आदमी वही का वही है!

हम भी बाइबिल के कवर में छिपा कर किताबें रखते थे। वे किताबें जिनका बाइबिल से कोई नाता नहीं, जो बाइबिल की दुश्मन हैं। वे ही किताबें मैंने नये लड़के के पास भी देखीं। वही मैं देख कर आया हूं जो मेरी जिंदगी में था तीस वर्ष पहले, वही आज भी है।

लेकिन ये बूढ़ा आदमी बहुत हिम्मत का आदमी रहा होगा। बूढ़े आदमी यह बात कभी स्वीकार नहीं करते हैं कि आदमी वैसे का वैसा है। इसलिए नहीं कि आदमी बदल गया, बल्कि इसलिए कि वे भूल जाते हैं कि जवानी में वे कैसे थे? इसलिए नहीं कि आदमी दूसरा हो गया है, बल्कि इसलिए कि वे बहुत दूसरे तरह के थे। इस तरह का भ्रम और खयाल वे पैदा कर लेते हैं, अन्यथा सच्चाइयां एक ही जैसी हैं।

हजारों वर्षों से आदमी पुनरुक्ति कर रहा है। कोई नई पीढ़ी में नया आदमी पैदा नहीं हो जाता–पुरानी बीमारियां होती हैं, पुराने रोग होते हैं, पुरानी बातें होती हैं। सब पुराना होता है। हम भी जिन असत्यों में घिरे हुए हैं, वे कोई नये नहीं हैं। हजारों वर्षों से वे असत्य चल रहे हैं। एक आदमी के ऊपर उनकी ईजाद का जिम्मा नहीं है, पीढ़ियोें दर पीढ़ियों ने उनको विकसित किया है। और इसलिए एक-एक आदमी को यह पता भी नहीं चलता कि वह किन चीजों से बंधा है। वह सच है या झूठ?

जब एक मंदिर के सामने हम हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं तो जो आदमी हाथ जोड़ कर खड़ा है, उसने इस मंदिर को नहीं बनाया। और जिस भगवान के सामने वह हाथ जोड़ कर खड़ा है, उसने इसको गढ़ा भी नहीं। उसे तो सिर्फ बपौती में ये मंदिर मिला, और ये भगवान मिले हैं। और अनजाने क्षणों में बचपन में ही उसे सिखा दिया गया है–नमस्कार करना, और पूजा, और प्रार्थना। वह कर रहा है।

उसे कोई भी पता नहीं है कि जिस मंदिर के सामने वह खड़ा है, वह सत्य का मंदिर है या असत्य का। उसे यह कुछ भी पता नहीं कि जिस परमात्मा को नमस्कार कर रहा है, वह परमात्मा है भी, या कि खुद कुछ लोगों की कल्पना है। उसे यह भी पता नहीं है कि वह जो कर रहा है उस करने में कोई अर्थवत्ता भी है, या वह व्यर्थ है? उसने तो केवल स्वीकार कर लिया है। इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूंः पहली बात जो आदमी समाज और भीड़ के द्वारा कही गई बातों को बिना सोचे समझे स्वीकार कर लेता है, वह आदमी असत्य के पक्ष में खड़ा हो रहा है।

सत्य के पक्ष में जिसे खड़ा होना है, उसे इतना अंधे स्वीकार में नहीं पड़ना चाहिए। उसकी आंखें खुलीं होनी चाहिए। सोच-विचार सजग होना चाहिए। तर्क सतेज होना चाहिए। उसका चित्त स्वीकृति के लिए चुपचाप राजी नहीं हो जाना चाहिए। उसके भीतर विचार और संदेह का विकास होना चाहिए, तो ही वह बच सकेगा। अन्यथा, अन्यथा कुछ असत्य उसे पकड़ लेंगे और उनमें घिर जाएगा।

और असत्यों में घिर जाना इतना संतोषदायी है जिसका कोई हिसाब नहीं है। असत्य में घिर जाना इतनी तृप्ति देता है जिसका कोई हिसाब नहीं है। सत्य को पाना तो आरडुअस है, सत्य को पाना तो एक तपश्चर्या है, सत्य को पाना तो एक श्रम है। असत्य को, असत्य को तो एक निद्रा में भी हम स्वीकार कर ले सकते हैं। न कोई श्रम है, न कोई तप है, सिर्फ हमारी स्वीकृति चाहिए। और स्वीकृति अगर हमारे अहंकार को तृप्ति देती हो, संतोष देती हो तब तो कहना ही क्या है।

अगर मैं आपसे कहूंः आत्मा अमर है। तो आपका मन एकदम मानने को राजी हो जाता है। इसलिए नहीं कि आपको मैंने जो कहा उसके सत्य की झलक मिल गई, बल्कि इसलिए कि आपका मन मरने से डरता है। मृत्यु का भय है इसलिए आत्मा की अमरता को स्वीकार करने कोे कोई भी राजी हो जाता है। यह आत्मा की अमरता को स्वीकार करने में कोई सत्य का अनुभव हुआ, ऐसा नहीं है। बल्कि हमारे भीतर मृत्यु का जो भय था उसको छिप जाने के लिए ओट मिल गई। हम अभय हो सकते हैं इस बात को मान कर कि आत्मा अमर है, मरना होने ही वाला नहीं है।

इसलिए जो लोग जितना मौत से डरते हैं, जितने भयभीत होते हैं, उतना ही आत्मा की अमरता के विश्वासी हो जाते हैं। जो कौम जितनी मृत्यु से भयभीत होती है, उतनी ही धार्मिक हो जाती है। यह धर्म असत्य है। क्योंकि भय से धर्म का कोई भी संबंध नहीं है। धर्म का संबंध हैः अभय से। फीयर से, भय से धर्म का क्या नाता है? धर्म का संबंध हैः अभय से, फीयरलेसनेस से। लेकिन हमारी यह स्वीकृतियां हमारे भय पर खड़ी होती हैं। जिन असत्यों में हम घिरते हैं उनसे कुछ कंसोलेशंस मिलते हैं, कुछ सांत्वना मिलती हैं।

एक परिवार में कोई चल बसता है और हम उससे जाकर कहते हैंः आत्मा अमर है, रोओ मत, घबड़ाओ मत। बड़ा संतोष मिलता है, बड़ी सांत्वना मिलती है। और यह जो लोग कह रहे हैं, कल इनके घर में कोई चल बसेगा, और ये भी रोएंगे। और जिसके घर में इन्होंने जाकर समझाया था, वह इनके घर में आकर समझाएगा कि आत्मा अमर है–घबड़ाओ मत, रोने की क्या बात है, शरीर ही मरता है। इन्होंने उसे जाकर सांत्वना दी थी, वह इन्हें आकर सांत्वना देगा। न उसे आत्मा की अमरता का कोई पता है, और न इन्हें। लेकिन आत्मा की अमरता एक संतोष बन गई, एक सांत्वना बन गई। और तब इस असत्य से चिपटे रहने का हमारा मन हो जाता है।

लेकिन जो आदमी ऐसे असत्यों से चिपट जाता है, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्मा अमर नहीं है। मैं ये कह रहा हूं कि बिना जाने इस तरह की बातों से जो चिपट जाता है, वह असत्य से चिपट रहा है। जान कर, देख कर, समझ कर, अनुभव से जिसके जीवन में यह प्रतीतियां उपलब्ध होती हैं, वह सत्य को उपलब्ध हो जाता है। हमारी अप्रोच, हमारी पहुंच, हमारी दृष्टि अगर अंधे स्वीकार की है तो हम कभी भी असत्य के ऊपर नहीं उठ सकते। और न केवल हम जीवन और जगत के संबंध में असत्यों को स्वीकार कर लेते हैं, हम अपने संबंध में भी असत्यों को स्वीकार कर लेते हैं।

सुखद हैं वे असत्य। बड़े प्रीतिकर मालूम होते हैं। आदमी से कहो कि भगवान ने मनुष्य को सभी प्राणियों में श्रेष्ठ बनाया है। सभी मनुष्य एकदम राजी हो जाते हैं। अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। लेकिन किन्हीं और पशु-पक्षियों से कभी इस संबंध में गवाही ली गई? कभी उन्होंने भी कहा कि तुम हमसे श्रेष्ठ हो। कभी उनसे भी यह बात पूछी गई, या आदमियों ने एक तरफा निर्णय कर लिया, खुद ही तय कर लिया कि हम सर्वश्रेष्ठ हैं?

पुरुषों से पूछो कि पुरुष स्त्रियों से श्रेष्ठ हैं। सभी पुरुष एकदम राजी हो जाते हैं, स्त्रियों की गवाही लेने की कोई जरूरत नहीं। और किसी भी पुरुष के अहंकार को तृप्ति मिलती है, वह राजी हो जाता है। भारतीयों से पूछो तो वे कहेंगे जमीन पर हमसे ज्यादा श्रेष्ठ, सभ्य और कोई कौम नहीं है। यही पवित्र भूमि है। यहीं भगवान जन्म लेता है। इसके लिए कोई संदेह पैदा नहीं करता। क्योंकि हम सबके अहंकार की इसमें तृप्ति हो जाती है। जर्मनी में पूछो, वहां के लोग भी इसी बात को मानते हैं, और चीन में पूछो, वहां के लोग भी। और अगर कभी ऐसा समय आ सका कि आदमी पशु-पक्षियों से पूछने में समर्थ हो सका तो उसे हैरानी होगी। वे भी यही मानते हैं कि हमसे ज्यादा श्रेष्ठ और कोई भी नहीं।

हम इस तरह के असत्य इसलिए स्वीकार कर लेते हैं कि हमारे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। जब पहली दफा डार्विन ने यह कहा कि आदमी भी पशुओं में से एक पशु है तो सारी दुनिया में डार्विन का विरोध हुआ। इसलिए नहीं कि जो उसने कहा था वह असत्य था। बल्कि इसलिए कि उससे हमारे अहंकार को बड़ी चोट पहुंची। हम ईश्वर के पुत्र थे। और उस नासमझ ने कह दिया कि तुम सब पशुओं के ही पुत्र हो। बहुत क्रोध आया, बहुत गुस्सा आया। हजारों साल तक हम मानते थे कि सूरज जमीन का चक्कर लगाता है। फिर एक आदमी हो गया, गैलिलियो–और उसने कहा कि नहीं, जमीन ही सूरज का चक्कर लगाती है। सारी दुनिया में विरोध हुआ। पादरियों ने, चर्च के धर्म पुरोहितों ने कहाः झूठी है यह बात। क्योंकि भगवान ने आदमी को अपनी शक्ल में बनाया। और इस पृथ्वी को उसने दुनिया का केंद्र बनाया और आदमी को यहां पैदा किया। सूरज ही चक्कर लगाता होगा, जमीन कैसे चक्कर लगा सकती है। हम इस जमीन पर रहते हैं।

मनुष्य जिस जमीन पर रहता है वह जमीन सूरज का चक्कर लगाएगी! नहीं सूरज ही चक्कर लगाता होगा। जमीन केंद्र थी दुनिया की। क्योंकि हमारा अहंकार, मनुष्य का अहंकार मानता था कि जमीन केंद्र है, सेंटर है, सारे जगत का। सारे तारे, सूरज सब इसका चक्कर लगाते हैं। और हजारों वर्ष तक इस पर किसी ने शक नहीं किया। क्योंकि इससे हमारे अहंकार को चोट पहुंचती। इससे बहुत बेचैनी होती।

पीछे बर्नार्ड शाॅ ने इस सदी में एक दिन यह कह दिया कि गलत था गैलिलियो, और मैं कहता हूं कि सूरज ही जमीन का चक्कर लगाता है। तो किसी ने पूछा यह किस आधार पर कहते हैं, अब आप? अब तो सब तरह से प्रमाणित हो गया है कि जमीन ही चक्कर लगाती है। बर्नार्ड शाॅ ने कहाः इसी आधार पर कहता हूं कि मैं बर्नार्ड शाॅ इस जमीन पर रहता हूं। जिस जमीन पर मैं रहता हूं, वह किसी का चक्कर नहीं लगा सकती। मजाक में उसने यह बात कही, सारे आदमी पर यह मजाक हो गई। आदमी इसको मानने को राजी नहीं होता कि मैं किसी का चक्कर लगाता हूं। जमीन कभी चक्कर नहीं लगा सकती। लेकिन धक्के लगे, और आदमी को और नीचे आ जाना पड़ा।

पीछे फ्रायड ने और कुछ बातें कह दीं, जिससे और तिलमिलाहट पैदा हो गई। उसने कह दिया कि आदमी का सारा जीवन सेक्स के केंद्र पर घूमता है। तब तो और घबड़ाहट हुई। तब तो और बेचैनी हुई। तब तो हमें लगा कि हमारा सब कुछ छीन लिया गया। हम मानते थे कि हम परमात्मा के केंद्र पर घूमते हैं, और ये आदमी कहता है फ्रायड, कि सब सेक्स के केंद्र पर घूमते हैं। यह चैबीस घंटे की जिंदगी उसी के चित्त, उसी के आस-पास, इर्द-गिर्द चक्कर लगाती है। बहुत धक्का लगा। फ्रायड के सारी दुनिया में दुश्मन खड़े हो गए। आदमी मानने को यह राजी न हुआ कि मैं और…मैं जो कि देवताओं से थोड़ा ही नीचे बनाया गया है, मैं और सेक्स के केंद्र पर घूमता हूं! झूठी है यह बात। आत्मा की कोई बात कहता, परमात्मा की कोई बात कहता, प्रेम की, पवित्र प्रेम की कोई बात कहता तो ठीक भी हो सकती थी। काम की और वासना की!

आदमी के अहंकार को चोट लगती है तो वह स्वीकार नहीं करता। वह उन्हीं बातों को स्वीकार करता है जिससे अहंकार को तृप्ति मिलती है। और यह हजारों वर्षों से चला आ रहा है। और इसका परिणाम यह हुआ है कि आदमी ने अपने आस-पास एक मिथ, एक कल्पना का जाल बुन लिया है। और उस जाल में वह विश्वास किए जाता है। और वह जाल इतना झूठा है कि उस जाल में जो गिरा है, वह कभी सत्य की तरफ आंखें भी नहीं उठा सकेगा। खुद ही डरेगा, क्योंकि सत्य की तरफ आंखें उठाना इस जाल का टूटना बन जाएगा।

और जब तक हम मनुष्य के जीवन के तथ्यों को सीधा-सीधा न जान लें, तब तक हम जीवन के सत्य को भी नहीं जान सकते हैं। सत्य को जानने के पहले तथ्यों को जान लेना जरूरी है। जो फैक्ट्स हैं उनको जान लेना जरूरी है। चाहे वे कितने ही कड़वे, कितने ही तीखे, कितने ही जलन पैदा करने वाले क्यों न हों, तथ्यों को जान लेना बहुत जरूरी है। और कल्पनाएं चाहे कितनी ही सुखद और मधुर और प्रीतिकर क्यों न हों, वे कल्पनाएं ही हैं। उन पर चढ़ कर कोई यात्रा नहीं कर सकता।

सपनों की नावों में सागर में तैरा नहीं जा सकता। और शब्दकोश के सागर में, डिक्शनरी में जो समुद्र है उसको पकड़ कर कोई उसमें से बूंद, एक बूंद भी नहीं निकाल सकता। और कल्पना की जो नौकाएं हैं उनको ले जाकर तो सागर में तैरने का कोई सवाल नहीं है।

मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी जो दुर्घटना घट गई वह यह कि मनुष्य ने अपने आस-पास कल्पनाओं का एक ऐसा जाल बुन लिया है, और उसको तोड़ने में उसे बड़ी झिझक होती है। बड़ी घबड़ाहट होती है। वह उस जाल को बुनता ही चला जाता है। धीरे-धीरे उस जाल में खो जाता है, और पता लगाना भी मुश्किल होता है कि कौन है इसके भीतर?

एक सम्राट के संबंध में मैंने सुना, रोज एक घंटे को वह अपने भवन के एक कमरे में ताला लगा कर भीतर बंद हो जाता था। घर का हर आदमी उत्सुक था उस महल का। रानियां उत्सुक थीं, दरबारी उत्सुक थे, वजीर उत्सुक थे कि वह वहां क्या करता है? वहां क्या करता है इसकी उत्सुकता सभी को थी। लेकिन कभी कोई उस द्वार के भीतर नहीं जा सका था, उसकी चाबी वह अपने पास रखता था। और एक घंटे भर के लिए चाबी खोल कर भीतर हो जाता था, द्वार बंद कर देता था। आखिर उत्सुकता अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई और सारे घर के लोगों ने मिल कर एक षडयंत्र किया कि देखें ये वहां करता क्या है? उससे पूछते थे, वह हंस देता था और कभी कुछ बताता नहीं था। आखिर जब सारे घर के लोग रानियां और वजीर और उसके सारे मित्र और परिजन सहमत हो गए तो उन्होंने उस दीवाल में एक छेद किया रातों-रात, ताकि कल सुबह जब वह जाए तो उसमें से झांक कर देख सकें कि वह वहां करता क्या है?

और जिसने भी झांक कर देखा, वह जल्दी से छेद से अलग हट आया और उसने कहा कि अरे! अजीब बात थी। वहां वह बड़ा अजीब काम करता था। सभी ने झांक कर देखा और जल्दी लोग छेद से अलग हट आए। वहां वह क्या करता था? वहां जाकर वह अपने सारे वस्त्र निकाल कर अलग फेंक देता था और नग्न खड़ा हो जाता था। और परमात्मा से कहता था–यह हूं मैं। वह मैं नहीं था जो अभी कपड़े पहने हुए था। और हाथ जोड़ कर परमात्मा से कहता था कि यह हूं मैं, वह मैं नहीं था जो अभी कपड़े पहने हुए था। वह बिलकुल झूठा आदमी था, वह मैं नहीं था। तो उन कपड़ों को पहने हुए तेरी प्रार्थना कैसे करूं, जो झूठे थे? उन कपड़ों को पहने हुए तेरे पास कैसे आऊं, जो कि झूठे थे? वे कपड़े मेरे अहंकार की सजावट तो थे, लेकिन मेरी सच्चाई न थे। मैं तो यह हूंः नंगा आदमी, बिलकुल नग्न। तो मैं नग्न होकर ही तेरे पास आ सकता हूं।

यह राजा बड़ा अदभुत रहा होगा। और हर आदमी को ऐसा ही होना पड़ता है अगर उसे सत्य के निकट जाना हो–नग्न। वस्त्रों को पहन कर कोई भी सत्य के निकट नहीं जा सकता। क्योंकि वस्त्र झूठे हैं। वस्त्र जितने सुंदर हैं, भीतर का आदमी उतना ही कुरूप है। वस्त्र जितने चमकीले हैं, भीतर का आदमी उतना ही फीका है। असल में भीतर के फीकेपन को ही छिपाने को तो हम चमकीले वस्त्रों को खरीद ले आते हैं। असल में भीतर की कुरूपता को ही, ढांकने को ही तो हम बाहर के सौंदर्य को खोज लेते हैं और इकट्ठा कर लेते हैं। बाहर हम जैसे हैं ठीक उससे उलटे हम भीतर हैं।

और वह जो भीतर है वही तथ्य है। वह जो भीतर नग्नता है उसे जानना जरूरी है। क्योंकि उसे हम जानें तो उसके ऊपर उठ सकते हैं। उसे हम जानें तो उसे विदा किया जा सकता है। लेकिन हम उसे जानें ही न, तो उसे विदाई करने का कोई भी कारण नहीं है। जिसे हम जानेंगे नहीं, उसे विदा नहीं किया जा सकता। जिसे हम पहचानेंगे नहीं उसे विदा नहीं किया जा सकता। और हम जो भी उपाय करते रहेंगे, वे उपाय किसी काम के न होंगे। क्योंकि बेसिक काॅ.ज, उनके भीतर का जो बुनियादी आधार है, वह हमारी नजर में नहीं होगा।

एक आदमी बीमार था। बीमारी उसकी बड़ी अजीब थी और कोई चिकित्सक उसकी बीमारी का ठीक-ठीक अर्थ न निकाल पाया। उस आदमी की आंखें बाहर को निकली पड़ती थीं, कान में भन-भन की आवाज होती थी, सिर चक्कर खाता हुआ मालूम पड़ता था। वह बहुत बड़ा धनपति था। उस देश के जो बड़े से बड़े चिकित्सक थे उनके पास गया। किसी ने कहाः तुम्हारी आंखें कमजोर हो गई हैं, चश्मे की जरूरत है। उसने चश्मा लगाना शुरू कर दिया, लेकिन बीमारी जिस जगह थी वहीं रही। उसमें कोई फर्क न पड़ा। दूसरे चिकित्सकों के पास गया, किसी ने कहाः तुम्हारें दांत खराब हो गए हैं, सब निकाल देने पड़ेंगे। उसके सारे दंात निकाल दिए गए, लेकिन बीमारी जहां थी वह वहीं रही। किसी ने कहाः तुम्हारे पेट में खराबी है, और अपेंडिक्स निकाल देनी पड़ेगी। और उसकी अपेंडिक्स का भी आॅपरेशन कर दिया गया, लेकिन बीमारी जहां थी वह वहीं रही। वह परेशान हो गया, लेकिन बीमारी हटती नहीं थी। आखिर वह अंतिम चिकित्सक के पास गया। उस चिकित्सक ने उसकी जांच की और उसने कहाः बीमारी का कोई कारण नहीं मिलता है इसलिए बीमारी ठीक नहीं हो सकेगी। और मैं तुम्हें बताए देता हूं, तुम व्यर्थ परेशान मत हो, तुम छह महीने से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकोगे। मैं तुम्हें सच्ची बात कहे देता हूंः तुम दांत निकलवाओ, आंखें निकलवाओ, तुम्हें जो भी निकलवाना हो निकलवाओ। तुम बीमारी से उठ नहीं सकोगे, छह महीने और।

उस आदमी ने डाक्टर को धन्यवाद दिया और उसने कहा, आपने बड़ी कृपा की। अब अच्छा है, मैं वापस जाता हूं। जब यह तय हो गया है कि छह महीने से ज्यादा नहीं बचना है तो उसने एक बहुत बड़ा भवन खरीदा, बहुत सुंदर गाड़ियां खरीदीं। जो भी उपलब्ध था देश में भोग के लिए वह सब उसने खरीदवा लिया कि छह महीने जिंदा रहना है तो ठीक से भोग कर लूं छह महीने। तो उसने जाकर दो सौ सूट का देश के सबसे बड़े टेलर को आज्ञा दी। क्योंकि अब मैं रोज नये कपड़े ही पहनूंगा। अब क्या मतलब है कि रोज पुराने कपड़े दोहराऊं ? उस टेलर ने उसका नाप लिया, सारा नाप अपने सहयोगी को लिखवाया, गले का नाप लिया और उस टेलर ने कहाः लिखो सोलह। उस आदमी ने कहा कि नहीं, मैं हमेशा पंद्रह का ही काॅलर पहनता हूं। उस टेलर ने कहाः पंद्रह का नहीं, आप जितना चाहें उतने का पहनें। लेकिन अगर पंद्रह का काॅलर पहनेंगे तो आंखें बाहर को निकली मालूम पड़ेंगी, सिर घूमता मालूम पड़ेगा, चक्कर आते मालूम पड़ेंगे। पंद्रह का नहीं चैदह का पहनें, जितना आपकी मर्जी हो! उसने कहा क्या कहते हो? मैं हमेशा से पंद्रह ही का पहनता हूं। और मेरी आंखें भी बाहर को निकली मालूम पड़ती हैं, और मेरे कान भी भनभनाते हैं, और मुझे चक्कर भी आते हैं। उसने कहाः वे आएंगे ही, काॅलर जब बहुत कसा हुआ होगा तो यह होने वाला है। उसने सोलह का काॅलर पहना वह आदमी अभी जिंदा है। यह बात हुए तीस साल हो गए। और उस आदमी ने ही मुझसे यह कहा है कि सोलह के काॅलर से सब कुछ ठीक हो गया।

कोई चिकित्सक उसे ठीक नहीं कर सका था। बीमारी उसकी वहां नहीं थी जहां चिकित्सक खोजते हैं। आदमी की बीमारी वहां नहीं है जहां पुरोहित उसे बताते हैं, जहां चिकित्सक उसे समझाते हैं। बल्कि उनकी चिकित्सा उस आदमी को और बीमार बनाती गई, उसके दांत निकल गए, उसकी आंखों की परेशानी हो गई, उसकी अपेंडिक्स निकाल दी। और अगर वहां डाक्टरों के हाथ में पड़ा रहता तो धीरे-धीरे उसकी सब हड्डियां बाहर निकाल देते। लेकिन उसकी वह बीमारी न थी। बीमारी बहुत सरल थी और सीधी थी। लेकिन चिकित्सक की दृष्टि में वह आ नहीं सकती थी।

मनुष्य की बीमारी भी बहुत सीधी और सरल है। लेकिन जो लोग शास्त्रों की जटिलता में खो गए हैं, उन्हें वह बीमारी दिखाई नहीं पड़ सकती। न दिखाई पड़ने का कारण है कि वे इतने जटिल हैं, इतने शास्त्रों में खो गए हैं कि तथ्यों को देखने की सामथ्र्य उनकी नहीं रह गई। और फिर वे जो उपचार करते हैं और निदान करते हैं, वह निदान और उपचार और नई बीमारियां ले आता है। उनका उपचार और निदान बीमारी को बढ़ाता चला गया है। कौन सी बीमारी को?

मनुष्य के तथ्यों को न जानने की बीमारी। और जिनके पास हम जाते हैं इस इलाज के लिए, वह हमारे तथ्यों को और छिपा देते हैं। और वे जो बातें हमसे कहते हैं, वह और नई मिथ खड़ी करती हैं, नई कल्पनाएं खड़ी करती हैं। वे आपसे कहेंगेः आपके भीतर तो आत्मा है। आत्मा तो परम पवित्र और शुद्ध है। परम शांत है, शुद्ध बुद्ध है। और मोक्ष और परमात्मा और न मालूम क्या-क्या बातें आपसे कहेंगे? जिनसे आपकी बीमारी का कोई संबंध नहीं, और इन सारी बातों में आप और खो जाएंगे और अपने तथ्यों को छिपा लेंगे।

तथ्य बहुत दूसरे हैं। आदमी की नग्नता बहुत दूसरी है। वस्त्रों में छिपाने से उसका हल नहीं है। उसे उघाड़ना, देखना और परिचित होना जरूरी है। जीवन जैसा है उसे वैसा ही देखना जरूरी है। किन्हीं सिद्धांतों के धुंए के द्वारा नहीं–सीधा, डायरेक्ट, खुली आंखों से।

और जब कोई आदमी इस बात के लिए राजी हो जाता है कि मैं अपने जीवन के तथ्यों को देखूं, तो उसके जीवन में एक क्रांति की शुरुआत हो जाती है। क्योंकि जो तथ्य कुरूप है और दुखद है, उसे देखते से ही उसे बदलने की आकांक्षा का जन्म होता है। हम उसे देखते ही नहीं तो उसके बदलने का सवाल ही नहीं उठता है। और अगर हम उसे अच्छे शब्दों में छिपा लेते हैं, तब तो और भी सवाल नहीं उठता है। और अगर हम उसे बहुत-बहुत सिद्धांतों का जामा पहना देते हैं, तब तो वह दिखाई ही नहीं पड़ता है।

आदमी ने ऊपर ही वस्त्र नहीं पहन लिए हैं शरीर के, उसने अपने चित्त पर भी बहुत वस्त्र पहन लिए हैं। और दिन में उसे इतने वस्त्र पहनने पड़ते हैं, और इतनी बार वस्त्र बदलने पड़ते हैं। बाहर के कपड़े तो वह एक दफा पहन लेता है और चल जाता है। लेकिन भीतर उसे हर घड़ी वस्त्र बदलने पड़ते हैं। क्योंकि हर नये आदमी के साथ उसे दूसरे वस्त्र पहनकर मिलना पड़ता है। अपने नौकर से वह दूसरे वस्त्रों में मिलता है, अपने मालिक से दूसरे वस्त्रों में, अपनी पत्नी से दूसरे वस्त्रों में मिलता है, अपनी प्रेयसी से दूसरे वस्त्रों में। चैबीस घंटे उसे वस्त्र बदलने पड़ते हैं, चेहरे बदलने पड़ते हैं।

और तब इस बदलाहट की जिंदगी में जिंदगी बदलते-बदलते वह यह भूल ही जाता है कि मेरा ओरिजिनल फेस, मेरा असली चेहरा क्या है? दूसरों को दिखाने में वह बहुत से चेहरे बना लेता है। हम सब जानते हैं, हम दिन भर चेहरे बनाते हैं। हम सब बहुत कुशल अभिनेता हैं। हमारी पूरी दुनिया एक बहुत अदभुत रंगमंच है। फिल्म में और नाटक में जो अभिनय कर रहे हैं, वे हमसे ज्यादा कुशल नहीं हैं। फिल्म में नाटक करना बहुत आसान है, जिंदगी के पर्दे पर बड़ा कठिन है। लेकिन हम सब जिंदगी के पर्दे पर बहुत नाटक करते हैं।

बट्र्रेंड रसल एक दिन सुबह-सुबह अपने घर के द्वार पर बैठा हुआ था। एक आदमी आया और उसने आकर बट्र्रेंड रसल की गर्दन पकड़ ली, और उससे कहाः महानुभाव! आप ऐसी-ऐसी किताबें लिखते हैं जिनसे मैं बहुत परेशान हूं। पहली तो बात आपकी किताबों में मेरी समझ में ही नहीं आता कि आप क्या लिखते हैं? आज तक मैं एक भी वाक्य नहीं समझ सका। सिर्फ एक वाक्य मेरी समझ में आया, सो वह गलत है। कौन सा वाक्य? बट्र्रेंड रसल ने घबड़ा कर पूछाः कौन सा वाक्य? तो उसने कहाः आपने लिखा है–सीजर इ.ज डेड, सीजर मर चुका। यह बिलकुल गलत बात है। यही मेरी समझ में आया आपकी कुल किताब में, और ये बिलकुल गलत बात है। सीजर को मरे दो हजार साल हो गए।

रसल भी घबड़ा गया कि ये आदमी क्या कहता है कि यह बात गलत है। उसने कहाः तुम्हारे पास कोई प्रमाण है? उसने कहाः है, मैं खुद ही सीजर हूं। रसल ने कहाः तब फिर बातचीत करनी गलत है। मैं हाथ जोड़ता हूं, मुझसे गलती हो गई। अगले संस्करण में मैं सुधार कर लूंगा। वह आदमी खुश होकर चला गया। पीछे पता चला, वह एक फिल्म में सीजर का काम करता था। उसका दिमाग खराब हो गया, तब से वह अपने को सीजर ही समझने लगा था। और उसने किताब में पढ़ा कि सीजर मर गया तो उसे बहुत गुस्सा आया कि आदमी कैसा है? मैं अभी जिंदा हूं। हम फिर धीरे-धीरे जिन चेहरों का अभिनय करते हैं, धीरे-धीरे भूल जाते हैं कि वे अभिनय थे। और ऐसा मालूम होने लगता है वे हमारे ही चेहरे हैं, मैं सीजर हूं। हम सबके साथ ही यह बात है। हम सबने बहुत चेहरों का अभिनय किया है।

और फिर हम आत्मज्ञान की खोज में निकल पड़ते हैं। और ये भूल ही जाते हैं जिसको अपने चेहरे का भी पता नहीं, उसे आत्मज्ञान कैसे हो सकेगा? जिसे यह भी पता नहीं है, मैं कौन हूं? है तो, उसने हर तरह से दिखाने की कोशिश की है–मैं यह हूं, मैं वह हूं, चैबीस घंटे पूरी जिंदगी। और वह सफल भी हो गया होगा। क्योंकि जहां हम बाकी लोग भी अभिनेता हों, वहां अभिनय सफल हो जाए इसमें कोई आश्चर्य नहीं। यहां तो अगर कोई आदमी पूरी सच्चाइयां खोल दे जिंदगी की तो उसको हम गोली मार देंगे। उसको हम सूली पर लटका देंगे कि यह आदमी गड़बड़ है।

हम सब इतने झूठ में जीते हैं कि अगर कोई सच्चा आदमी एकदम से खड़ा हो जाता है तो वह सच्चा आदमी हमें इतना, इतना अजीब मालूम पड़ता है कि एक ही व्यवहार हम उसके साथ कर सकते हैं। जब तक वह जिंदा है–कि उसको मार डालें, और जब मर जाए तो दूसरा व्यवहार–कि हम उसकी पूजा करें। दो व्यवहार हम उस आदमी के साथ कर सकते हैं। जिंदा हम उसे मार डालें, और जब मर जाए तो उसकी हम पूजा करें।

जिंदा हमें इसलिए मार डालना जरूरी हो जाता है कि वह हमारे साथ…हम सबका कंडेम्नेशन बन जाता है, वह हम सबकी आलोचना बन जाता है। हम सबकी निंदा बन जाता है। अगर वह आदमी सच्चा है तो हम बिलकुल झूठे हैं। और यह बात दिखाई पड़नी कि मैं झूठा हूं, बड़ी घबड़ाने वाली बात है। उस आदमी को मिटा देना जरूरी है। इसलिए हम क्राइस्ट को सूली पर लटका देते हैं, या गांधी को गोली मार देते हैं।

मैं अभी एक गांव में था। और सुबह जब वहां प्रश्न पूछने के लिए लोगों ने चिट्ठियां भेजी तो उसमें एक बहुत बढ़िया चिट्ठी आई। उस चिट्ठी में लिखा था कि कृपा करके यह बताएं कि आपको गोली क्यों न मार दी जाए? मैंने उनसे कहाः ऐसी भूल मत करना। ऐसी भूल पहले भी कुछ लोग कर चुके हैं। जिसको भी तुम गोली मार देते हो, उसका मरना फिर बहुत मुश्किल हो जाता है। फिर वह मरता ही नहीं। फिर वह जिंदा ही बना रह जाता है। और ऐसी भूल कभी मत करना। क्योंकि जिसको तुम गोली मारोगे, उसकी ही कल तुम पूजा करोगे। तो मैंने कहा कि मेरे तो हित में होगा कि तुम गोली मार दो, तुम्हारे बहुत अहित में पड़ जाएगा। गोली मत मारना।

लेकिन हमारा मन होता है, उस आदमी को गोली मार देने का जो हमारे कपड़े छीनने लगे और हमको नग्न करने की कोशिश करे। लेकिन मजबूरी है जो लोग भी सत्य की तरफ जाना चाहते हैं उनके कपड़े, उनको कपड़े छोड़ ही देने पड़ेंगे।

तो पहले दिन आज की इस चर्चा में मैं आपसे यह कहना चाहता हूंः आत्मा को पाने की उत्सुकता है–वह तो ठीक, लेकिन कपड़े छोड़ने की तैयारी है या नहीं? सत्य को पाने की प्यास है–वह तो ठीक, लेकिन असत्य को छोड़ने की हिम्मत भी है या नहीं? परमात्मा की तरफ उठने का खयाल पैदा हुआ है–वह तो ठीक, लेकिन जिस झूठे परमात्मा को हमने गढ़ रखा है उससे हटने की भी इच्छा का जन्म हुआ है या नहीं?

सत्य तक जाना असत्य को छोड़ने के बिना नहीं होता है। और असत्य क्या है? सबसे बड़ा असत्य यह है कि हम जो नहीं हैं, चैबीस घंटे हम उसका प्रदर्शन कर रहे हैं कि हम वह हैं। गांधी के पास एक संन्यासी आया। और उस संन्यासी ने कहा मैं सेवा करना चाहता हूं, और मुझे आपका संदेश प्रीतिकर लगा। तो मैं सेवा करने को आ गया हूं। गांधी ने कहा कि पहली सेवा यह करो, कि ये जो गैरिक वस्त्र पहने हुए हैं, ये छोड़ दो। ये गेरुएं वस्त्र छोड़ दो।

उस संन्यासी ने कहाः इनको छोड़ दूं! मैं संन्यासी हूं। गांधी ने कहाः वस्त्रों से संन्यास का क्या संबंध है? और अगर तुम इन वस्त्रों को पहन कर गांव में जाओगे तो लोग तुम्हारी सेवा करेंगे, तुम उनकी सेवा नहीं कर पाओगे। तो अगर उनकी सेवा करनी है तो इन वस्त्रों में मत जाओ, ये स्वामियों के वस्त्र हैं। स्वामी सेवक नहीं हो सकता। संन्यासी को तो हम स्वामी कहते हैं, वह कैसे सेवक हो सकता है? वह मालिक है, इनको छोड़ दो।

लेकिन वह संन्यासी जो कि घर-द्वार और पत्नी छोड़ने की हिम्मत कर सका था, वह संन्यासी जो कि अपना धन-दौलत मकान छोड़ने की हिम्मत कर सका था, दो पैसे की गेरू में रंगे गए कपड़े को छोड़ने को राजी नहीं हो सका। वह वापस लौट गया। दो पैसे के वस्त्र इतने बहुमूल्य हैं क्या?

असल में वस्त्रों का मूल्य यह है कि वस्त्रों को छोड़ते ही हम कुछ भी नहीं हैं। उनकी वजह से हम कुछ हैं। मैं कुछ हूं, आप कुछ हैं। कोई संन्यासी है, कोई राजा है, कोई पद पर है, कोई कुछ है, कोई कुछ है–वस्त्रों की वजह से। नग्न हम हो जाएं तो हम कोई भी कुछ न रह जाएंगे। सब नोबडी हो जाएंगे। समबडी कोई भी नहीं रहेगा।

वस्त्र छोड़ने में डर है। मन के वस्त्र बहुत गहरे में हमारे जीवन को पकड़े हुए हैं। उन्हीं को हमने जाना है, अपना होना। वे ही हमारे बीइंग बन गए हैं, हमारी आत्मा बन गए हैं। और अगर वे झूठे हैं तो सच्ची आत्मा कैसे पाई जा सकेगी?

इसलिए पहली जरूरत है कि अपने भीतर हर मनुष्य खोजे कि मैंने असत्य को प्रश्रय तो नहीं दिया? अपने व्यक्तित्व को मैंने असत्य की ही पर्तों से तो नहीं ढाला? कहीं असत्य की ही फौलाद तो मेरे जीवन को नहीं बनाए हुए है–इसे देखना। इसे बहुत खुली आंखों से जानना जरूरी है। बड़ी अदभुत बात है। बड़ी पीड़ा होगी इस बात को जानने में कि मैं क्या हूं? क्या हूं मैं, कैसा पशु हूं? कैसा नग्न हूं? कैसे क्रोध से भरा हूं? कैसी घृणा से, कैसी हिंसा से? लेकिन हमने तो वस्त्र पहन रखे हैं।

एक आदमी भीतर गहरी हिंसा से भरा होता है, और पानी छान कर पी लेता है, और अहिंसक हो जाता है। और भूल जाता है कि मेरे भीतर की हिंसा पानी छान कर पी लेने से समाप्त होने वाली बात होती तो बड़ी आसान बात थी। तो सारी जमीन पर सारा पानी छनवाया जा सकता है। हर नल में फिल्टर लगाया जा सकता है। और हर आदमी छना पानी पी ले और अहिंसा आ जाए तो दुनिया में, तो कितना आसान था यह नुस्खा। दुनिया में युद्ध कभी के बंद हो गए होते।

एक आदमी रात को खाना छोड़ देता है, और अहिंसक हो जाता है। इतनी सस्ती बात! रात का खाना छोड़ देना और अहिंसा जैसी क्रांति इतने सस्ते में खरीद लेता है। भीतर हिंसा रही जाती है, ऊपर से वह अहिंसक हो जाता है। और फिर अहिंसक अपने को मानने लगता है। स्वीकार कर लेता है कि मैं अहिंसक हो गया। हमारा पूरा मुल्क ऐसे ही अहिंसकों से भरा हुआ है। इसलिए अहिंसक भी हम बने रहे, और हिंसा भी बरकरार रही अपनी जगह। उसमें कोई फर्क नहीं आया।

ऐसे ही हमारे बाकी भी सारे खयाल हैं। ऐसे ही हम सब दिखाते पड़ते मालूम होते हैं कि हम सब प्रेम करते हैं एक-दूसरे को और प्रेम का हमें पता भी नहीं है। हम प्रेम की बातें करते हैं, हाथ फैलाते हैं और एक दूसरे का आलिंगन भी करते हैं। लेकिन हमारे हृदय में कहीं कोई प्रेम नहीं है। पिता दिखलाता है अपने बेटे को कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। बेटा दिखलाता है अपने बाप को कि मैं भी आपको श्रद्धा और आदर करता हूं। मां अपनी बेटी से कहती है–मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। पति अपनी पत्नी से कहता है–मैं तुम्हें प्रेम करता हूं।

और कोई किसी की पत्नी है, कोई किसी का पति है, बेटा है, बाप है। तो अगर सारी जमीन पर ये सारे लोग प्रेम करते हैं तो घृणा कहां से आती है फिर? ये सारे लोग दावा करते हैं कि हम प्रेम करते हैं तो फिर दुनिया में अप्रेम कहां से आता है? फिर तो अप्रेम को आने की कोई जगह न रही। अगर बाप प्रेम करता है, मां प्रेम करती है, बेटा प्रेम करता है, पत्नी प्रेम करती है, पति प्रेम करता है तो फिर आदमी बचते ही नहीं दुनिया में जो इनके बाहर हों। फिर अप्रेम कौन करता है, फिर घृणा कौन लाता है? फिर हिंसा कौन लाता है, फिर युद्ध कौन जन्माता है? बड़ी हैरानी की बात है!

अगर ये प्रेम सच्चा है तो ये युद्ध झूठे होने चाहिए। लेकिन युद्ध इतनी बड़ी सच्चाई है कि उसे तो झूठ कहा नहीं जा सकता है। फिर अब एक ही रास्ता बचता है कि ये प्रेम झूठा होगा। अगर मां ने अपने बच्चों को प्रेम किया था तो युद्ध के मैदान पर कौन लोग कटे? किन मां ने उनको भेजा वहां, अगर बाप ने अपने बेटों को प्रेम किया था तो किन बापों ने अपने बच्चों को भेजा युद्ध पर? कौन भेजता है? कौन बहन अपने भाई को भेजती है? कौन पत्नी अपने पति को भेजती है किसी की हत्या करने?

नहीं, लेकिन हम प्रेम नहीं करते। प्रेम हमारे झूठे हैं, नाम मात्र को हैं। प्रेम की पताका है, पीछे घृणा का मंदिर है। प्रेम की बातचीत है और नारा है, पीछे घृणा से भरा हुआ हृदय है। और तब हम बातें प्रेम की किए चले जाते हैं, और काम हिंसा के किए चले जाते हैं।

यह जानना होगाः जिस आदमी को सच्चाई की तरफ जाना है उसे अपने प्रेम को उघाड़ कर जानना होगा कि वह प्रेम है, या कि एक झूठी नकाब है? और अगर वह झूठी नकाब है, यह दिखाई पड़ जाए तो इस जमीन पर कोई भी आदमी फिर बिना प्रेम के एक क्षण जीवित नहीं रह सकता है। उसके प्राणों में ऐसा-ऐसा आंदोलन, ऐसी पीड़ा और ऐसी आकांक्षा उठेगी कि मेरे जीवन में प्रेम नहीं है? इतनी प्यास उठेगी कि वह खोज लेगा प्रेम। जहां भी हो, वहां से; जगा लेगा वहां से।

लेकिन जब तक हम प्रेम को छिपाए रहते हैं, झूठे प्रेम को उघाड़े रहते हैं, तब तक हमें यह भ्रम बना रहता है कि मैं प्रेम से भरा हूं। इसलिए प्रेम की खोज नहीं हो पाती, इसलिए प्रेम का जन्म नहीं हो पाता। असत्य-प्रेम की धारणा, फिर सत्य-प्रेम को पैदा नहीं होने देती। मैं आपसे कहता हूंः यह परिवार हमारा झूठा है। यह परिवार की संस्था एकदम झूठी है, इसमें कहीं कोई प्रेम नहीं है। लेकिन हम झूठी बातों को ऐसा, ऐसा रूप दिए बैठे हैं, ऐसा आकार दिए बैठे हैं कि ऐसा मालूम होता है हमको–हमारे परिवार, हमारे दांपत्य, हमारे मां-बाप, हमारे बच्चे–इनके किसी के भीतर कोई प्रेम नहीं है। लेकिन जब तक हम यह खयाल लिए बैठे रहेंगे कि यह प्रेम है तब तक फिर, तब तक फिर कोई फर्क कैसे हो? जब तक हम हिंसा को अहिंसा में छिपाए रखेंगे तो फिर फर्क कैसे हो? फिर क्रांति कैसे हो? जीवन कैसे बदले?

जीवन के तथ्य देखना जरूरी है। उघाड़ना जरूरी है आदमी को, प्रत्येक व्यक्ति को, स्वयं को, अपने आप को पूरी नग्नता में देखना जरूरी है। तभी, तभी धर्म की तरफ यात्रा हो सकती है। तभी परमात्मा की तरफ कदम उठाए जा सकते हैं। तभी सत्य की तरफ आंखें खुल सकती हैं।

इस पहली चर्चा में मैं यही निवेदन करता हूंः जीवन के तथ्यों को जानना चाहिए, शास्त्रों की कथाओं को नहीं। जीवन के तथ्यों को, शास्त्रों के शब्दों को नहीं; जीवन के ज्वलंत तथ्यों को। सिद्धांत, थ्योरी.ज नहीं ले जातीं किसी को कहीं, लेकिन तथ्यों का उदघाटन, अनावरण जरूर बदल देता है सारे जीवन को। यह पहला निवेदन मेरा, आने वाली चर्चाओं में दूसरे निवेदन आपसे करने हैं।

एक छोटी सी कहानी और इस चर्चा को मैं पूरा करूंगा।

एक रात एक बड़ी घनी अंधेरी रात में एक काफिला एक रेगिस्तानी सराय में जाकर ठहरा। उस काफिले के पास सौ ऊंट थे। उन्होंने ऊंट बांधे, खूंटियां गड़ाईं, लेकिन आखिर में पाया कि एक ऊंट अनबंधा रह गया है। उनकी एक खूंटी और एक रस्सी कहीं खो गई थी। आधी रात, बाजार बंद हो गए थे। अब वे कहां खूंटी लेने जाएं, कहां रस्सी! तो उन्होंने सराय के मालिक को उठाया और उससे कहा कि बड़ी कृपा होगी, एक खूंटी और एक रस्सी हमें चाहिए, हमारी खो गई है। निन्यानबे ऊंट बंध गए, सौवां अनबंधा है–अंधेरी रात है, वह कहीं भटक सकता है। उस बूढ़े आदमी ने कहाः घबड़ाओ मत। मेरे पास न तो रस्सी है, और न खूंटी। लेकिन बड़े पागल आदमी हो। इतने दिन ऊंटों के साथ रहते हो गए, तुम्हें कुछ भी समझ न आई। जाओ और खूंटी गाड़ दो और रस्सी बांध दो और ऊंट को कह दो–सो जाए। उन्होंने कहाः पागल हम हैं कि तुम? अगर खूंटी हमारे पास होती तो हम तुम्हारे पास आते क्यों? कौन सी खूंटी गाड़ दें?

उस बूढ़े आदमी ने कहाः बड़े नासमझ हो, ऐसी खूंटियां भी गाड़ी जा सकती हैं जो न हों, और ऐसी रस्सियां भी बांधी जा सकती हैं जिनका कोई अस्तित्व न हो। तुम जाओ, सिर्फ खूंटी ठोकने का उपक्रम करो। अंधेरी रात है, आदमी धोखा खा जाता है, ऊंट का क्या विश्वास? ऊंट का क्या हिसाब? जाओ ऐसा ठोको, जैसे खूंटी ठोकी जा रही है। गले पर रस्सी बांधों, जैसे कि रस्सी बांधी जाती है। और ऊंट से कहो कि सो जाओ। ऊंट सो जाएगा। अक्सर यहां मेहमान उतरते हैं, उनकी रस्सियां खो जाती हैं। और मैं इसलिए तो रस्सियां-खूंटियां रखता नहीं, उनके बिना ही काम चल जाता है।

मजबूरी थी, उसकी बात पर विश्वास तो नहीं पड़ता था। लेकिन वे गए, उन्होंने गड्ढा खोदा, खूंटी ठोकी–जो नहीं थी। सिर्फ आवाज हुई ठोकने की, ऊंट बैठ गया। खूंटी ठोकी जा रही थी। रोज-रोज रात उसकी खूंटी ठुकती थी, वह बैठ गया। उसके गले में उन्होंने हाथ डाला, रस्सी बांधी। रस्सी खूंटी से बांध दी गई–रस्सी, जो नहीं थी। ऊंट सो गया। वे बड़े हैरान हुए! एक बड़ी अदभुत बात उनके हाथ लग गई। सो गए।

सुबह उठे, सुबह जल्दी ही काफिला आगे बढ़ना था। उन्होंने निन्यानबें ऊंटों की रस्सियां निकालीं, खूंटियां निकालीं–वे ऊंट खड़े हो गए। और सौवें की तो कोई खूंटी थी नहीं जिसे निकालते। उन्होंने उसकी खूंटी न निकाली। उसको धक्के दिए। वह उठता न था, वह नहीं उठा। उन्होंने कहाः हद हो गई, रात धोखा खाता था सो भी ठीक था, अब दिन के उजाले में भी! इस मूढ़ को खूंटी नहीं दिखाई पड़ती कि नहीं है? वे उसे धक्के दिए चले गए, लेकिन ऊंट ने उठने से इनकार कर दिया। ऊंट बड़ा धार्मिक रहा होगा।

वे अंदर गए, उन्होंने उस बूढ़े आदमी को कहा कि कोई जादू कर दिया क्या? क्या कर दिया तुमने, ऊंट उठता नहीं। उसने कहाः बड़े पागल हो तुम, जाओ पहले खूंटी निकालो। पहले रस्सी खोलो। उन्होंने कहाः लेकिन रस्सी हो तब…। उन्होंने कहाः रात कैसे बांधी थी? वैसे ही खोलो। गए मजबूरी थी। जाकर उन्होंने खूंटी उखाड़ी, आवाज की, खूंटी निकली, ऊंट उठ कर खड़ा हो गया। रस्सी खोली, ऊंट चलने के लिए तत्पर हो गया। उन्होंने उस बूढ़े आदमी को धन्यवाद दिया और कहाः बड़े अदभुत हैं आप, ऊंटों के बाबत आपकी जानकारी बहुत है। उन्होंने कहा कि नहीं, यह ऊंटों की जानकारी से सूत्र नहीं निकला, यह सूत्र आदमियों की जानकारी से निकला है।

आदमी ऐसी खूटियों में बंधा होता है जो कहीं भी नहीं हैं। और ऐसी रस्सियों में जिनका कोई अस्तित्व नहीं है। और जीवन भर बंधा रहता है। और चिल्लाता हैः मैं कैसे मुक्त हो जाऊं ? कैसे परमात्मा को पा लूं, कैसे आत्मा को पा लूं? मुझे मुक्ति चाहिए, मोक्ष चाहिए–चिल्लाता है। और हिलता नहीं अपनी जगह से, क्योंकि खूंटियां उसे बांधे हैं। वह कहता हैः कैसे खोलूं इन खूटियों को?

पहला सूत्र हैः उन खूटियों को ठीक को देख लेने का, वे हैं भी या नहीं?

तथ्य दिखाई पड़ जाएं तो फिर, तो फिर कोई खोलने और उठने का सवाल नहीं है। आने वाली चर्चाओं में उन्हीं खूटियों के संबंध में कुछ और बात करूंगा जिनमें आदमी बंधें हैं। वे कैसे खुल सकती हैं उनकी? लेकिन पहला सूत्र जानना जरूरी था। जीवन के तथ्य जानने जरूरी हैं, आंख खोल कर। और अंधेरे में कोई धोखे में हों तो भी ठीक, हम दिन के उजाले में भी धोखे में हैं। पीछी पीढ़ियों को छोड़ दें, पीछी पीढ़ियां बहुत अंधेरी रातों में जीईं। लेकिन आज जमीन पर बहुत उजाला है, जितना कभी भी न था। और अब भी अगर कोई ऊंट उनसे बंधा हुआ है तो अगर हैरानी हो तो आश्चर्य क्या है?

तो मैं निवेदन करता हूं कि जरा आंख खोल कर उजाले में अपने आस-पास देखना कि कौन सी खंूटियां मुझे बांधे हुए हैं? मिथ मिलेगी, खूंटी नहीं मिलेगी। कल्पना मिलेगी, कहानी मिलेगी, और बहुत ओल्ड स्टोरी है यह, बहुत पुरानी कहानी। हमेशा से आदमी उसमें चलता रहा है। कुछ थोड़े से लोग तोड़ने में समर्थ हुए हैं। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति समर्थ हो सकता है, यही मुझे आपसे कहना है।

 

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

 

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-06)

सत्य की पहली किरण-प्रवचन-छटवां)

अमृत की दशा-(प्रवचन–छटवां )

चित्त स्वतंत्र हो, कोई मानसिक दासता और गुलामी न हो; कोई बंधे हुए रास्ते, बंधे हुए विचार और चित्त के ऊपर किसी भांति के चौखटे और जकड़न न हों, यह पहली शर्त मैंने कही, सत्य को जिसे खोजना हो उसके लिए। निश्चित ही जो स्वतंत्र नहीं है, वह सत्य को नहीं पा सकेगा। और परतंत्रता हमारी बहुत गहरी है। मैं उस परतंत्रता की बातें नहीं कर रहा हूं, जो राजनैतिक होती है, सामाजिक होती है, या आर्थिक होती है। मैं उस परतंत्रता की बात कर रहा हूं, जो मानसिक होती है। और जो मानसिक रूप से परतंत्र है, वह और चाहे कुछ भी उपलब्ध कर ले, जीवन में आनंद को और कृतार्थता को, आलोक को अनुभव नहीं कर सकेगा। यह मैंने कल कहा। Continue reading “सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-06)”

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-05)

सत्य की पहली किरण-प्रवचन-पांचवां)

जीवन दर्शन-ओशो

तीसरा-प्रवचन-(जीवन में असुरक्षा का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी घटना से मैं आज की चर्चा शुरू करना चाहूंगा।

अभी सुबह ही थी और गांव के बच्चे स्कूल पहुंचे ही थे कि अनायास ही उस स्कूल के निरीक्षण को एक इंस्पेक्टर का आगमन हो गया। वह स्कूल की पहली कक्षा में गया और उसने जाकर कहाः इस कक्षा में जो तीन विद्यार्थी सर्वाधिक कुशल, बुद्धिमान हों उनमें से एक-एक क्रमशः मेरे पास आए और जो प्रश्न मैं दूं, बोर्ड पर उसे हल करे। एक विद्यार्थी चुपचाप उठ कर आगे आया, उसे जो प्रश्न दिया गया उसने बोर्ड पर हल किया और अपनी जगह जाकर वापस बैठ गया। फिर दूसरा विद्यार्थी उठ कर आया, उसे भी जो प्रश्न दिया गया उसने हल किया और चुपचाप अपनी जगह जाकर बैठ गया। लेकिन तीसरे विद्यार्थी के आने में थोड़ी देर लगी। और जब तीसरा विद्यार्थी आया भी तो वह बहुत झिझकते हुए आया, बोर्ड पर आकर खड़ा हो गया। उसे सवाल दिया गया, लेकिन तभी इंस्पेक्टर को खयाल आया कि यह तो पहला ही विद्यार्थी है जो फिर से आ गया है।तो उसने उस विद्यार्थी को कहाः जहां तक मैं समझता हूं तुम पहले विद्यार्थी हो जो फिर से आ गए। उस विद्यार्थी ने कहाः माफ करिए, हमारी कक्षा में जो तीसरे नंबर का होशियार लड़का है वह आज क्रिकेट का खेल देखने चला गया है, मैं उसकी जगह हूं। वह मुझसे कह गया है, मेरा कोई काम हो तो तुम कर देना। Continue reading “सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-05)”

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-04)

सत्य की पहली किरण-प्रवचन-चौथा)

सुख और शांति

आठवां प्रवचन-(परिपूर्ण स्वीकृति)

 मेरे प्रिय आत्मन्!
इसके पहले कि मैं कुछ आपसे कहना शुरू करूं, एक छोटी सी कहानी आपसे कहूंगा।
मनुष्य की सत्य की खोज में जो सबसे बड़ी बाधा है, अक्सर तो उस बाधा की ओर हमारा ध्यान भी नहीं जाता, और फिर जो भी हम करते हैं वह सब मार्ग बनने की बजाय मार्ग में अवरोध हो जाता है। एक अंधे आदमी को यदि प्रकाश को जानने की कामना पैदा हो जाए, यदि आकांक्षा पैदा हो जाए कि मैं भी प्रकाश को और सूर्य को जानूं, तो वह क्या करे? क्या वह प्रकाश के संबंध में शास्त्र सुने? क्या वह प्रकाश के संबंध में सिद्धांतों को सीखे? क्या वह प्रकाश के संबंध में बहुत उहापोह और विचार में पड़ जाए? क्या वह प्रकाश की कोई फिलासफी, कोई तत्वदर्शन, अपने सिर से बांध ले? और क्या इस भांति उसे प्रकाश का दर्शन हो सकेगा? नहीं जिस अंधे को प्रकाश की खोज पैदा हुई हो, उसे प्रकाश के संबंध में नहीं, अपने अंधेपन के संबंध में, अपने अंधेपन को बदलने के संबंध में निर्णय लेने होंगे। Continue reading “सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-04)”

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-03)

सत्य की पहली किरण-प्रवचन-तीसरा)

पहला-प्रवचन-(मनुष्य एक यंत्र है)

 एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
अंधेरी रात थी, और कोई आधी रात गए एक रेगिस्तानी सराय में सौ ऊंटों का एक बड़ा काफिला आकर ठहरा। यात्री थके हुए थे और ऊंट भी थके हुए थे। काफिले के मालिक ने खूंटियां गड़वाईं और ऊंटों के लिए रस्सियां बंधवाईं, ताकि वे रात भर विश्राम कर सकें। लेकिन खूंटियां गाड़ते समय पता चला, ऊंट सौ थे, एक खूंटी कहीं खो गई थी। खूंटियां निन्यानबे थीं। एक ऊंट को खुला छोड़ना कठिन था। रात उसके भटक जाने की संभावना थी।
उन्होंने सराय के मालिक को जाकर कहा कि यदि एक खूंटी और रस्सी मिल जाए, तो बड़ी कृपा हो। हमारी एक खूंटी और रस्सी खो गई है। सराय के मालिक ने कहाः खूंटियां और रस्सियां तो हमारे पास नहीं हैं। लेकिन तुम ऐसा करो, खूंटी गाड़ दो और रस्सी बांध दो और ऊंट को कहो कि सो जाए।

वह काफिले का मालिक बहुत हैरान हुआ। उसने कहाः अगर खूंटी और रस्सी हमारे पास होती, तो हम खुद ही बांध देते। कौन सी खूंटी गाड़ दें और कौन सी रस्सी बांध दें?
Continue reading “सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-03)”

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-02)

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-दूसरा)

जीवन क्रांति की दिशा-(विविध)

 पहला-प्रवचन-(जीवन के प्रति अहोभाव)

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं एक नये बनते हुए मंदिर के पास से निकलता था। मंदिर की दीवालें बन गई थीं। शिखर निर्मित हो रहा था। मंदिर की मूर्ति भी निर्मित हो रही थी। सैकड़ों मजदूर पत्थर तोड़ने में लगे थे। मैंने पत्थर तोड़ते एक मजदूर से पूछा: मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने बहुत गुस्से से मुझे देखा और कहा: क्या आपके पास आंखें नहीं हैं? क्या आपको दिखाई नहीं पड़ता? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। कोई क्रोध होगा उसके मन में, कोई निराशा होगी। और पत्थर तोड़ना कोई आनंद का काम भी नहीं हो सकता है। Continue reading “सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-02)”

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-01)

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-पहला)

जीवन क्रांति की दिशा-(शून्य समाधि)

 दूसरा प्रवचन–जीवन में रहस्य-भाव

मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन ही परमात्मा है। जीवन के अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं। जीवन को जीने की कला जो जान लेते हैं वे प्रभु के मंदिर के निकट पहुंच जाते हैं। और जो जीवन से भागते हैं वे जीवन से तो वंचित होते ही हैं, परमात्मा से भी वंचित हो जाते हैं। इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। पहला सूत्र मैंने कल आपसे कहा है: जीवन के प्रति अहोभाव, जीवन के प्रति आनंद और अनुग्रह की भावना।

लेकिन आज तक ठीक इससे उलटी बात समझाई गई है। आज तक यही समझाया गया है..जीवन से पलायन, एस्केप, जीवन की तरफ पीठ फेर लेनी, जीवन से दूर हट जाना, जीवन से मुक्त होने की कामना। आज तक यही सिखाया गया है। और इसके दुष्परिणाम हुए हैं। इसके कारण ही पृथ्वी एक नरक और दुख का स्थान बन गई है। जो पृथ्वी स्वर्ग बन सकती थी वह नरक बन गई है। Continue reading “सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-01)”

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