तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-09

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-नौवां-(अमन ही द्वारा है)

दिनांक 09 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

सरहा के सूत्र

एक बार पूरे क्षेत्र में जब वह पूर्णानन्द छा जाता है

तो देखने वाला मन समृद्ध बन जाता है।

सबसे अधिक उपयोगी होता है।

जब भी वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है

वह स्वयं से पृथक से पृथक बना रहता है।

प्रसन्नता और आनंद की कलियां

तथा दिव्य सौंदर्य और दीप्ति के पत्ते उगते हैं।

यदि कहीं भी बाहर कुछ भी नहीं रिसता है

तो मौन परमानंद फल देगा ही।

जो भी अभी तक किया गया है

और इसलिए स्वयं में उससे जो भी होगा

वह कुछ भी नहीं है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-08

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-आठवां-(प्रेम कोई छाया निर्मित नहीं करता है)

दिनांक 08 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

      पहला प्रश्न:

      प्यारे ओशो!

कल जब आप बुद्धिमत्ता को ध्यान बनाने के संबंध में बोले, तब वहां मेरे अंदर बहुत वेग से दौड़ भाग हो रही थी। ऐसा अनुभव हुआ जैसे मानो मेरे ह्रदय में विस्फोट हो जायेगा। वह ऐसा था, जैसे मानो आपने कुछ ऐसी चीज़ कहीं जिसे सुनने की मैं प्रतीक्षा कर रहा था। क्या आप इसे विस्तारपूर्वक स्पष्ट कर सकते है?

बुद्धिमत्ता जीवन की सहज स्वाभाविक प्रवृति है। बुद्धिमत्ता जीवन का एक स्वाभाविक गुण है। ठीक जैसे कि अग्नि उष्ण होती है। वायु अदृश्य होती है और जल नीचे की और बहता है। ठीक इसी तरह जीवन में भी बुद्धिमत्ता होती है।

बुद्धिमत्ता कोई उपलब्धि नहीं है, तुम बुद्धि के साथ ही जन्म लेते हो। अपनी तरह से वृक्ष भी बुद्धिमान हैं, उनके पास अपने जीवन के लिए प्रर्याप्त बुद्धिमत्ता होती है। पक्षी बुद्धिमान हैं और इसी तरह से पशु भी। वास्तव में, धर्मों का परमात्मा से जो अर्थ है वह केवल यह है कि पूरा ब्रह्माण्ड ही बुद्धिमान है। वहां हर कहीं बुद्धिमत्ता छिपी हुई है, और तुम्हारे पास देखने के लिए आंखें हैं, तो तुम उसे हर कहीं देख सकते हो।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-07

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-सातवां-(बुद्धिमत्ता ही ध्यान है )

दिनांक 07 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

सरहा के सूत्र-

मन, बुद्धि और मन के ढांचें की सभी अंर्तवस्तुएं,

इसी तरह यह संसार भी, और वह सभी कुछ जैसा प्रतीत होता है,

वे सभी वस्तुएं जिनका मन के द्वारा अनुभव किया जा सकता है,

और वह जानने वाला भी, जड़ता, द्वेष, घृणा, कामना और बुद्धत्व भी,

जो ‘वह’ है, उससे भिन्न है।

अध्यात्म के अनजाने अंधकार में जा एक दीपक के समान प्रकाशित है,

वह मन के सारे अंधकार और धूमिलता को दूर करता है।

बुद्धि का एक बम्ब की भांति विस्फोट होने से जितनी टुकड़े,

इधर-उधर बिखर जाते हैं, उनसे क्या प्राप्त होता है?

स्वयं कामना विहीन के होने की कौन कल्पना कर सकता है?

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-06

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-छठवां-(मैं अकेला हूं)

दिनांक 06 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न :

प्यारे ओशो! जब आप मुझसे बोलते हैं तो मेरी आवाज़ को न जाने क्या हो जाता है? यह खेल आखिर क्या है?

जब तुम वास्तव में मेरे साथ संवाद में होते हो तो तुम बोल नहीं सकते। जब तुम वास्तव में मुझे सुन रहे हो, तो तुम अपनी आवाज़ खो दोगे, क्योंकि उस क्षण में मैं तुम्हारी आवाज़ होता हूं। जो अंतर्तम संवाद मेरे और तुम्हारे मध्य होता है, वह दो व्यक्तियों के मध्य नहीं होता है। वह कोई तर्क-वितर्क नहीं हे, वह एक संवाद भी नहीं है। अंर्तसंवाद केवल तभी घटता है, जब तुम खो जाते हो, जब तुम वहां नहीं होते हो। सर्वोच्च शिखर पर यह ‘मैं-तू’ का भी संबंध नहीं होता। यह किसी भी प्रकार से कोई संबंध होता ही नहीं मैं नहीं हूं, और तुम्हारे लिए भी एक क्षण ऐसा आता है, जब तुम नहीं होते हो। उस क्षण में दो शून्यता एक दूसरे में लुप्त हो जाती हैं।

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दसघरा की दस कहानियां—मनसा-मोहनी

दसघरा की दस कहानियां—

हमारा गांव करीब 14वीं शताब्दी में दिल्ली के इस बीहड़ इलाके में आकर बसा था। जहां आज हम रहते है वो दसघरा गांव। इससे पहले कहते है कहीं सिंध प्रांत से चल कर दोनों भाई आये थे। पहले कुछ दिन ये दोनों भाई पास के बिजवासन गांव में रहे परंतु वहां के जाट भाई राणा है वह भी बहुत लड़के है इस लिए एक म्यान में दो तलवार से बेहतर है वो दोनों भाई आगे आ गए। एक यहां रह गया जिसका नाम मामन था हमारा पूरा गांव एक ही भाई की सन्तान है। दूसरा आगे चला गया। नंगली गांव जहां कभी मनोज कुमार की उपकार फिल्म की शूटिंग हुई थी। दिल्ली के आस पास हम दो ही गांव है जहां पर तुसीड़ गौत्र है। वरना तो आस पास, दहिया, दलाल, डबास, सौलंकी या राणा ही पाये जाते है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-ओशो

तंत्रा-विजन-(Tantra Vision)-भाग-पहला (हिन्दी अनुवाद)

(सरहा के पदों पर दिए गए ओशो के अंग्रेजी प्रवचनों Tantra Vision का दिनांक 21 अप्रैल, 1977 ओशो सभागार, पूना में दिये गए बीस अमृत प्रवचनों में से पहले दस प्रवचनों तथा उसके शिष्यों द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के उत्तरों का हिंदी अनुवाद)

……….  तंत्र कहता है: किसी चीज की निंदा न करो, निंदा करने की वृत्ति ही मूढ़तापूर्ण है। निंदा करने से तुम अपने विकास की पूरी संभावना रोक देते हो। कीचड़ की निंदा न करो, क्योंकि उसी में कमल छिपा है। कमल पैदा करने के लिए कीचड़ का उपयोग करो। माना कि कीचड़ अभी तक कीचड़ है कमल नहीं बना है, लेकिन वह बन सकता है। जो भी व्यक्ति सृजनात्मक है, धार्मिक है, वह कमल को जन्म देने में कीचड़ की सहायता करेगा, जिससे कि कमल की कीचड़ से मुक्ति हो सके।

सरहा तंत्र-दर्शन के प्रस्थापक हैं। मानव-जाति के इतिहास की इस वर्तमान घड़ी में जब कि एक नया मनुष्य जन्म लेने के लिए तत्पर है, जब कि एक नई चेतना द्वार पर दस्तक दे रही है, सरहा का तंत्र-दर्शन एक विशेष अर्थवत्ता रखता है। और यह निश्चित है कि भविष्य तंत्र का है, क्योंकि द्वंदात्मक वृत्तियां अब और अधिक मनुष्य के मन पर कब्जा नहीं रखा सकतीं। इन्हीं वृत्तियों ने सदियों से मनुष्य को अपंग और अपराध-भाव से पीड़ित बनाए रखा है। इनकी वजह से मनुष्य स्वतंत्र नहीं, कैदी बना हुआ है। सुख या आनंद तो दूर इन वृत्तियों के कारण मनुष्य सर्वाधिक दुखी है। इनके कारण भोजन से लेकर संभोग तक और आत्मीयता से लेकर मित्रता तक सभी कुछ निंदित हुआ है। प्रेम निंदित हुआ, शरीर निंदित हुआ, एक इंच जगह तुम्हारे खड़े रहने के लिए नहीं छोड़ी है। सब-कुछ छीन लिया है और मनुष्य को मात्र त्रिशंकु की तरह लटकता छोड़ दिया है ।

मनुष्य की यह स्थिति अब और नहीं सही जा सकती। तंत्र तुम्हें एक नई दृष्टि दे सकता है, इसीलिए मैंने सरहा को चुना है। मुझे जिससे बहुत प्रेम है सरहा उनमें से एक है, यह मेरा उनके साथ बड़ा पुराना प्रेम-संबंध है। तुमने शायद सरहा का नाम भी न सुना हो, परंतु वे उन व्यक्तियों में से हैं जिन्होंने जगत का बड़ा कल्याण किया हो ऐसे अंगुलियों पर गिने जाने वाले दस व्यक्तियों में मैं सरहा का नाम लूंगा, यदि पांच भी ऐसे व्यक्ति गिनने हों तो भी मैं सरहा को नहीं छोड़ पाऊंगा।

सरहा के इन पदों में प्रवेश करने से पहले कुछ बातें सरहा के जीवन के विषय में जान लेनी आवश्यक हैं। सरहा का जन्म विदर्भ महाराष्ट्र…का ही अंग है, पूना के बहुत नजदीक। राजा महापाल के शासनकाल में सरहा का जन्म हुआ। उनके पिता बड़े विद्वान ब्राह्मण थे और राजा महापाल के दरबार में थे। पिता के साथ उनका जवान बेटा भी दरबार में था। सरहा के चार और भाई थे, वे सबसे छोटे परंतु सबसे अधिक तेजस्वी थे। उनकी ख्याति पूरे देश में फैलने लगी और राजा तो उनकी प्रखर बुद्धिमत्ता पर मोहित सा हो गया था।

चारों भाई भी बड़े पंड़ित थे परंतु सरहा के मुकाबले में कुछ भी नहीं। जब वे पांचों बड़े हुए तो चार भाइयों की तो शादी हो गई, सरहा के साथ राजा अपनी बेटी का विवाह रचाना चाहता था। परंतु सरहा सब छोड़-छाड़ कर संन्यास लेना चाहते थे। राजा को बड़ी चोट पहुंची, उसने बड़ी कोशिश की सरहा को समझाने की–वे थे ही इतने प्रतिभाशाली और इतने सुंदर युवक। जैसे-जैसे सरहा की ख्याति फैलने लगी वैसे राजा महापाल के दरबार की भी ख्याति सारे देश में फैलने लगी। राजा को बड़ी चिंता हुई, वह इस युवक को संन्यासी बनते नहीं देखना चाहता था। वह सरहा के लिए सब-कुछ करने को तैयार था। परंतु सरहा ने अपनी जिद न छोड़ी और उसे अनुमति देनी पड़ी। वह संन्यासी बन गया, श्री कीर्ति का शिष्य बन गया।………

ओशो

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-05

मूलस्त्रोत की और लोटना-(प्रवचन-पांचवां)

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)–ओशो

(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 

सूत्र:

जब विचार के विषय विलीन हो जाते है

विचार करने वाला भी विलीन हो जाता है;

जैसे मन विलीन हो जाता है विषय भी विलीन हो जाते है।

वस्तुएं विषय बनती है क्योंकि भीतर विषयी मौजूद है;

वस्तुओं के कारण ही मन ऐसा है। इन दोनों की सापेक्षता को,

और मौलिक सत्य शून्यता की एकात्मकता को समझो।
इस शून्यता में इन दोनों की अलग पहचान खो जाती है

और प्रत्येक अपने आप में संपूर्ण संसार को समाए रहता है
अगर तुम परिष्कृत और अपरिष्कृत में भेद नहीं करते,

तो तुम पूर्वाग्रहों और धारणाओं का मोह नहीं करोगे। Continue reading “शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-05”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-002

(धैर्य साधना का प्राण है-दूसरा)

प्रिय बहिन,

सत्य प्रत्येक क्षण, प्रत्येक घटना से प्रकट होता है। उसकी अभिव्यक्ति नित्य हो रही है।

केवल, देखने को आंख चाहिए, प्रकाश सदैव उपस्थित है।

एक पौधा वर्ष भर पहले रोपा था। अब उसमें फूल आने शुरू हुए हैं। एक वर्ष की प्रतीक्षा है, तब कहीं फल है।

ऐसा ही आत्मिक जीवन के संबंध में भी है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-002”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-16)

सफलता नहीं –प्रवचन सोहलवां

सुफलता

एक मित्र पूछ रहे हैं: मेरे एक वक्तव्य में मैंने कहा है कि शादी जैसी आज है, विवाह जैसा आज है, वह विवाह इतना विकृत है कि उस विवाह से गुजर कर मनुष्य के चित्त में विकृति ही आती है, सुकृति नहीं।

 

यह बात सच है कि विवाह एक अति सामान्य, अति जरूरी स्थिति है। और साधारणतः अगर विवाह वैज्ञानिक हो तो व्यक्ति विवाह के बाद ज्यादा सरल, ज्यादा शांत और सुव्यवस्थित होगा। लेकिन विवाह अगर गलत हो–जैसा कि गलत है–तो विवाह के पहले से भी ज्यादा परेशानियां, अशांतियां और चित्त की रुग्णताएं बढ़ेंगी।

जैसे मेरा कहना है, जो विवाह प्रेम से फलीभूत नहीं हुआ है, ज्योतिषी से पूछ कर हुआ है, जो विवाह मां-बाप ने तय किया है, स्वयं विवाह करने वालों के प्रेम से नहीं निकला है–वह विवाह विकृत करेगा, सुकृत नहीं करेगा। वह विवाह नई परेशानियों में ले जाएगा बजाय पुरानी परेशानियां हल करने के। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-16)”

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