धर्म और आनंद-(प्रवचन-10)

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

दसवां—प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

अभी एक भजन आपने सुना। मैंने भी सुना। मेरे मन में खयाल आया, कौन से घूंघट के पट हैं जिनकी वजह से प्रीतम के दर्शन नहीं होते हैं? बहुत बार यह सुना होगा कि घूंघट के पट हम खोलें। तो वह जो प्यारा हमारे भीतर छिपा है उसका दर्शन हो सकेगा? लेकिन कौन से घूंघट के पट हैं जिन्हें खोलें? आंखों पर कौन सा पर्दा है? कौन सा पर्दा है जिससे हम सत्य को नहीं जान पाते हैं? और जो सत्य को नहीं जान पाता, जो जीवन में सत्य का अनुभव नहीं कर पाता, उसका जीवन दुख की एक कथा, चिंताओं और अशांतियों की कथा से ज्यादा नहीं हो सकता है। सत्य के बिना न तो कोई शांति है, न कोई आनंद है। और हमें सत्य का कोई भी पता नहीं है। सत्य तो दूर की बात है, हमें स्वयं का भी कोई पता नहीं है। हम क्यों हैं और क्या हैं, इसका भी कोई बोध नहीं है। ऐसी स्थिति में जीवन भटक जाता हो अंधेरे में, दुख में और पीड़ा में, तो यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-10)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-09)

धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-ओशो

नौवां प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

अभी एक भजन आपने सुना। मैंने भी सुना। मेरे मन में खयाल आया, कौन से घूंघट के पट हैं जिनकी वजह से प्रीतम के दर्शन नहीं होते हैं? बहुत बार यह सुना होगा कि घूंघट के पट हम खोलें। तो वह जो प्यारा हमारे भीतर छिपा है उसका दर्शन हो सकेगा? लेकिन कौन से घूंघट के पट हैं जिन्हें खोलें? आंखों पर कौन सा पर्दा है? कौन सा पर्दा है जिससे हम सत्य को नहीं जान पाते हैं? और जो सत्य को नहीं जान पाता, जो जीवन में सत्य का अनुभव नहीं कर पाता, उसका जीवन दुख की एक कथा, चिंताओं और अशांतियों की कथा से ज्यादा नहीं हो सकता है। सत्य के बिना न तो कोई शांति है, न कोई आनंद है। और हमें सत्य का कोई भी पता नहीं है। सत्य तो दूर की बात है, हमें स्वयं का भी कोई पता नहीं है। हम क्यों हैं और क्या हैं, इसका भी कोई बोध नहीं है। ऐसी स्थिति में जीवन भटक जाता हो अंधेरे में, दुख में और पीड़ा में, तो यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-09)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-08)

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

आठवां प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

इसके पहले कि मैं कुछ आपसे कहना चाहूं, एक छोटी सी कहानी आपसे कहनी है। नी

मनुष्य की सत्य की खोज में जो सबसे बड़ी बाधा है…उस बाधा की और हमारा ध्यान भी नहीं जाता। और उस पर जो भी हम करते हैं वह सब मार्ग बनने की बजाय मार्ग में अवरोध हो जाता है।

एक अंधे आदमी को यदि प्रकाश को जानने की कामना पैदा हो जाए, यदि आकांक्षा पैदा हो जाए कि मैं भी प्रकाश को और सूर्य को जानूं, तो वह क्या करे? क्या वह प्रकाश के संबंध में शास्त्र सुने? क्या वह प्रकाश के संबंध में सिद्धांतों को सीखे? क्या वह प्रकाश के संबंध में बहुत ऊहापोह और विचारों से भर जाए? क्या वह प्रकाश की जांच ले गति और तत्वदर्शन अपने सिर पर बांध ले? और क्या इस…से प्रकाश का दर्शन हो सकेगा? Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-08)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-07)

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

सातवां प्रवचन–आंतरिक परिवर्तन का विज्ञान

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं एक छोटी सी कहानी से अपनी आज की बात को प्रारंभ करूंगा।

एक बहुत काल्पनिक कहानी आपसे कहूं और उसके बाद आज की बात आपसे कहूंगा। एक अत्यंत काल्पनिक कहानी से प्रारंभ करने का मन है। कहानी तो काल्पनिक है लेकिन मनुष्य की आज की स्थिति के संबंध में, मनुष्य की आज की भाव-दशा के संबंध में उससे ज्यादा सत्य भी कुछ और नहीं हो सकता।

मैंने सुना है कि परमात्मा ने यह देख कर कि मनुष्य रोज विकृत से विकृत होता जा रहा है, उसकी संस्कृति और संस्कार नष्ट हो रहे हैं, उसके पास शक्ति तो बढ़ रही है लेकिन शांति विलीन हो रही है, उसके पास बाहर की समृद्धि तो रोज बढ़ती जाती है लेकिन साथ ही भीतर की दरिद्रता भी बढ़ती जा रही है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-07)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-06)

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

छठवांप्रवचनहर वासना अनंत के लिए है

मैं जिस घर में पैदा हुआ हूं बचपन से मुझे कुछ बातें समझाई गई, सिखाई गई हैं, वे बातें मेरे चित्त में बैठ गई हैं। वे मेरे इतने अबोधपन में सिखाई गई हैं मुझे कि उनके बाबत मेरे मन में कोई विरोध पैदा नहीं हुआ। मैंने उनको सीख लिया। उन्हीं को मैं कहता हूं मेरी श्रद्धा है। यह बिल्कुल संयोग की बात है कि मैं जैन घर था; यह संयोग की बात है कि मैं मुसलमान घर में होता। और यह संयोग की बात है कि मैं नास्तिक घर में हो सकता था; जहां मुझे सिखाया जाता कि कोई ईश्वर नहीं है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-06)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-05)

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

पांचवां—प्रवचन-मिथ्या साधना पहुंचाते नहीं

अपूर्ण से अपूर्ण हम हों लेकिन पूर्ण तक उन्मुक्त होने की एक अनिवार्य प्यास सबके साथ जुड़ी है। हम सब प्यासे हैं आनंद के लिए, शांति के लिए। और सच तो यह है कि जीवन में भी जो हम दौड़ते हैं..धन के, पद के, प्रतिष्ठा के पीछे, उस दौड़ में भी भाव यही होता है कि शायद शांति, शायद समृद्धि मिल जाए। वासनाओं में भी जो हम दौड़ते हैं, उस दौड़ में भी यही पीछे आकांक्षा होती है कि शायद जीवन की संतृप्ति उसमें मिल जाए, शायद जीवन आनंद को उपलब्ध हो जाए, शायद भीतर एक सौंदर्य और शांति और आनंद के लोक का उदघाटन हो जाए। लेकिन निरंतर एक-एक इच्छा में दौड़ने के बाद भी वह गंतव्य दूर रहता है, निरंतर वासनाओं के पीछे चल कर भी वह परम संपत्ति उपलब्ध नहीं होती है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-05)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-04)

धर्म और आनंद-(प्रशनोंत्तर-विविध)-ओशो

चौथा प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।

एक मित्र ने पूछा है: मंदिर, मस्जिद, गिरजे, पूजा-पाठ, ये सब तो सत्य तक पहुंचने के साधन हैं, साधनों का विरोध आप क्यों करते हैं? साधन को साध्य न समझा जाए यह तो ठीक है, लेकिन साधन का ही विरोध क्यों करते हैं?

मैं उन्हें साधन मानता तो विरोध नहीं करता। मैं उन्हें साधन नहीं मानता हूं। वे साधन नहीं हैं, झूठे साधन हैं। और झूठे साधन जिन्हें पकड़ जाएं वे सच्चे साधन खोजने में असमर्थ हो जाते हैं। झूठा साधन साधन के अभाव से भी बदतर और खतरनाक है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-04)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-03)

धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-ओशो  

तीसरा प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं एक बड़े अंधकार में था, जैसे कि सारी मनुष्यता है, जैसा कि आप हैं, जैसे कि जन्म के साथ प्रत्येक मनुष्य होता है। अंधकार के साथ अंधकार का दुख भी है, पीड़ा भी है, चिंता भी है; अंधकार के साथ भय भी है, मृत्यु भी है, अज्ञान भी है। आदमी अंधकार में पैदा होता है, लेकिन अंधकार में जीने के लिए नहीं और न अंधकार में मरने के लिए। आदमी अंधकार में पैदा होता है लेकिन प्रकाश में जी सकता है; और प्रकाश में मृत्यु को भी उपलब्ध हो सकता है। और बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जो प्रकाश में जीता है, वह जानता है कि मृत्यु जैसी कोई घटना ही नहीं है। अंधकार में जो मृत्यु थी, प्रकाश में वही अमृत का द्वार हो जाता है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-03)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-02)

धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-ओशो  

दूसरा प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

धर्म के संबंध में कुछ आपसे कहूं, इसके पहले कि धर्म के संबंध में कुछ बात हो, यह पूछ लेना जरूरी है, धर्म के संबंध में विचार करने के पहले यह विचार कर लेना जरूरी है, धर्म के संबंध में हम सोचें इसके पूर्व यह जानना और विचार करना जरूरी है कि धर्म की मनुष्य को आवश्यकता क्या है? जरूरत क्या है? हम क्यों धर्म में उत्सुक हों? क्यों हमारी जिज्ञासा धार्मिक बनें? क्या यह नहीं हो सकता कि धर्म के बिना मनुष्य जी सके? क्या धर्म कुछ ऐसी बात है जिसके बिना मनुष्य का जीना असंभव होगा? कुछ लोग हैं जो मानते हैं धर्म बिलकुल भी आवश्यक नहीं है। कुछ लोग हैं जो मानते हैं धर्म व्यर्थ ही, निरर्थक ही मनुष्य के ऊपर थोपी हुई बात है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-02)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-01)

धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-ओशो  

पहला प्रवचन

प्रश्न: पिछली दफे प्रवचन करते समय कहा कि तलवार से तलवार नहीं काटा जा सकता, तो वैर नहीं मिटाया जा सकता, बल्कि द्वेष को प्रेम से जीता जाता है।…की तरफ से जीता जाता है, अगर ये सब परिस्थितियों में सत्य है तो मर्यादा पुरुषोत्तम व मूर्तिमंत…ने क्यों भूल किया, वे अपने…(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

इंद्रियजनित ज्ञान और अतींद्रियज्ञान में क्या अंतर है?

मैं आपके प्रश्नों को सुन कर आनंदित हुआ हूं। प्रश्न हमारे सूचनाएं हैं। हमारे भीतर कोई जानने को उत्सुक है, कोई प्यासा है, कोई व्याकुलता है, वही हमारे प्रश्नों में प्रकट होती है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-01)”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें