पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-40)

उत्‍सव की कीमिया: विरोधाभासों का संगीत—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक 20 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—मुझे अपने अहंकार के झूठेपन का बोध हो रहा है, इससे मेरे सारे बंधे—बंधाए उत्तर और सुनंश्चित व्यवस्थाएं और ढांचे बिखर रहे हैं। मैं मार्गविहीन, दिशाविहीन अनुभव करता हूं। क्या करूं?

2—पश्‍चिम में जहां बहुत—सी धार्मिक दुकानें है, वहां आपकी बात कहते समय व्‍यावसायिकता का बोध ग्‍लानि लाता है। इसके लिए क्‍या करू?

3—उत्‍सव क्‍या है? क्‍या दुःख का उत्‍सव मनाना संभव होता है?

4—आप अत्‍यंत विरोधाभासी है और सतत स्‍वयं का खंडन करते है। इससे क्‍या समझ सीखी जाए? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-40)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-39)

दुःख मुक्‍ति—द्रष्‍टा दृश्‍य वियोग से—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

       दिनांक 19 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 योगसूत्र: (साधनापाद)

परिणामतापसंस्‍कारदु: खैर्गुणवृत्‍तिविरोधाच्‍च।

दुःखमेव सर्वं विवेकिन:।। 15।।

विवेकपूर्ण व्‍यक्‍ति जानता है कि हर चीज दुःख की और ले जाती है।

परिवर्तन के कारण,चिंता के कारण, पिछले अनुभवों के कारण और

      उन द्वंदों के कारण जो तीन गुणों और

      मन की पाँच वृतियोंके बीच में आ बनते है।

हेयं दुःख मनागतम्।। 16।।

द्रष्‍टा और दृश्‍य के बीच का संबंध, जो कि दुःख बनाता है, उसे तोड़ देना है।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-39)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-38)

बुद्धों का मनोविज्ञान का निर्माण—(प्रवचन—अट्ठाहरवां)

 दिनांक 18 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

 1—बुद्धो का मनोविज्ञान बनाने के लिए बुद्धो का अध्ययन करना होगा। तो बुद्ध मिलेंगे कहा?

 2—बुद्धों का मनोविज्ञान क्या है? वह अब तक निर्मित क्यों नहीं हो सका?

 3—आपके पास आ कर मैं खुश और शांत हो गया हूं। क्‍या मेरे लिए, ध्यान जरूरी है?

 4—गर्भकालीन दशा और फिर गर्भ से बाहर आने का अनुभव सुखद है या दुखद?

 5—साधक—समूह या सदगुरू की क्‍यों जरूरत है? क्‍या अकेले ध्‍यान करना पर्याप्त नहीं है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-38)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-37)

जागरण की अग्‍नि से अतीत भस्‍मसात—प्रवचन—सतरहवां

 दिनांक 17 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योग सूत्र: (साधनापाद)

क्लेशमल: कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीय:।। 12।।

चाहे वर्तमान में पूरे हों या कि भविष्य में,

कर्मगत अनुभवों की जड़ें होती हैं पाँच क्लेशों में।

सति मूले तद्विपाको जात्‍यायुर्भोग:।। 13।।

जब तक जड़ें बनी रहती है, पुनर्जन्‍म से कर्म की पूर्ति होती है—

गुणवत्‍ता, जीवन का विस्‍तार और अनुभवों के ढंग द्वारा।

ते ह्लादपारिताफला: पुण्‍यापुण्‍यहेतुत्‍वात्।। 14।।

पुण्‍य लाता है सुख: अपुण्‍य लाता है दुःख।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-37)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-36)

पश्‍चिम को जरूरत है बुद्धो की—प्रवचन—सौहलवां

 दिनांक 16 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न—सार:

1—जीवन की लिप्सा, जीवेषणा का कारण क्या है? और यह जीवन का आनंद मनाने में बाधा क्यों है?

 2—पश्चिम के अस्‍तित्‍ववादी विचारों ने जीवन की अर्थहीनता जान ली है। लेकिन वे आनंद की खोज क्‍यों नहीं करते?

3—बुद्धपुरुषों में शारीरिक आवश्‍यकता, कामवासना क्‍यों कर तिरोहित हो जाती है?

4—फ्रायड, जुंग और जेनोव आदि लोग स्‍वयं पर प्रयोग क्‍यों नहीं करते? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-36)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-35)

प्रतिप्रसव: पुरातन प्राइमल थैरेपी——(प्रवचन—पद्रंहवां)

 दिनांक 15 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र (साधनापाद)

स्‍वस्‍सवाही विदुषोउपि तथारूढोउभिनिवेश:।। 9।।

जीवन में से गुजरते हुए मृत्यु— भय है, जीवन से चिपकाव है।

यह बात सभी में प्रबल है—विद्वानों में भी।

ते प्रतिप्रसवहेया: सूक्ष्‍मा:।। 10।।

पांचों क्लेशों के मूल कारण मिटाये जा सकते

 है, उन्‍हें पीछे की और उनके उद्गम तक विसर्जित कर देने से।

ध्‍यानहेयास्‍तद्वृत्‍तय:।। 11।। 

पांचों दुखों की बह्म अभिव्‍यक्‍तियां तिरोहित हो जाती है—ध्‍यान के द्वारा।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-35)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-34)

मन का मिटना और स्‍वभाव की पहचान—(प्रवचन—चौहदवां)

दिनांक 14 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—पश्चिम में चल रहे मन और स्‍वप्‍नों के विश्‍लेषण—कार्य को

   आप ज्यादा महत्व क्यों नहीं देते?

2—आपने कहा कि सब आरोपित प्रभावों से मुक्त हो जाना है।

   तो धार्मिक होने के लिए क्‍या सभ्‍यता और संस्‍कृति से भी मुक्‍त होना होगा?

3—आपके व्‍यक्‍तित्‍व और शब्‍दो से प्रभावित हुए बिना

   कोई खोजी आपका शिष्‍य कैसे हो सकता है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-34)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-33)

दुःख का मूल : होश का अभाव और तादात्‍म्‍य—(प्रवचन—तैहरवां)

दिनांक 13 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र (साधनापाद)

 अनित्याशुचिदु:खानात्‍मसु नित्यशुचिसुखात्मख्याति: अविद्या।। 5।।

अविद्या है—अनित्य को नित्य समझना, अशुद्ध को शुद्ध जानना, पीड़ा को सुख और अनात्म को आत्म जानना।

दृग्‍दर्शनशक्‍त्योरेकात्‍मतेवास्सिता।। 6।।

 अस्‍मिता है—दृष्‍टा का दृश्‍य के साथ तादात्‍म्‍य।

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पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-32)

संदेश्‍नशीलता, उत्‍सव और स्‍वीकार—प्रवचन—बाहरवां

दिनांक 12 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न—सार

1—अहंकार साथ है; कैसे समर्पण करूं?

2—आप चेतना के शिखर है, इसलिए आप उत्‍सव मना सकते है, लेकिन एक साधारण आदमी कैसे उत्‍सव मना पायेगा?

3—कई बार संवेदनशीलता के साथ नकारात्‍मक भाव क्‍यों उठते है?

4—संवेदनशीलता मुझे इंद्रिय—लोलुपता और भोगासक्‍ति में ले जाती है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-32)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-31)

सहजता—स्‍वाध्‍याय—विसर्जन—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

दिनांक 11 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र (साधनपाद)

तप:स्वाध्यायेश्‍वरप्रणिधानानि क्रियायोग:।। 1।।

क्रियायोग एक, प्रायोगिक, प्राथमिक योग है और वह संधटित हुआ है— सहज संयम (तप), स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण से।

 ‘समाधिभावनार्थ: क्लेउशतनूकरणार्थश्‍च।। 2।।

क्रियायोग का अभ्यास क्लेश (दुःख) को घटा देता है। और समाधि की ओर ले जाता है।

 अविद्यास्‍मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशा:।। 3।।

दु:ख उत्‍पन्‍न होने के कारण है: जागरूकता की कमी, अहंकार, मोह, घृणा, जीवन से चीपके रहना और मृत्‍यु भय।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-31)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-30)

जीवन को बनाओ एक उत्‍सव—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 10 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न—सार

1—इक्कीस मार्च उन्नीस सौ तिरपन को आपको सबीज समाधि घटित हुई थी अथवा कि निर्बीज?

 2—कृपया समझाइये कि निर्बीज समाधि में बीज कैसे जल जाता है?

 3—आपके पास कई गंभीर संन्यासी इकट्ठे हो गये हैं, आप उनके लिए क्या कहना चाहेंगे?

 4: मैं कभी सजग होता हूं और कभी असजग! ऐसा क्यों है?

 5— प्रेम और ध्यान पर बातें करते समय बहुत बार असंगत क्यों हो जाते हैं?

 6–क्या आप फिर से एक और जन्‍म ले सकते है?  Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-30)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-29)

निर्विचार समाधि से अंतिम छलांग—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 9 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योग सूत्र: –(समाधिपाद)

श्रुतानुसानंप्रज्ञाभ्यामन्याबषया विशेषार्थत्वात्।। 41।।

निर्विचार समाधि कीं ‘अवस्था में विषय—वस्तु की अनुभूति होती है उसके पूरे परिप्रेक्ष्य में, क्योंकि इस अवस्था में ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होता है—

इंद्रियों को प्रयुक्त किए बिना ही।

      तज्ज: संस्‍कारोउन्‍यसंस्‍कारप्रतिबन्‍धी।। 42।।।

जो प्रत्‍येक्ष बोध निर्विचार समाधि में उपलब्‍ध होता है, वह सभी सामान्‍य बोध संवेदनाओं Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-29)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-28)

शिष्‍य का पकना : गुरु का मिलन—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 8 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—कृष्णमूर्ति लगातार बोले जाते हैं, लेकिन क्या वे नहीं जानते कि

लोग उन्हें समझ ही नहीं पा रहे हैं? और आप कहते है कि

मैं सबके लिए मार्ग बना सकता हूं,फिर भी आप स्‍वयं का

खंडन करके कई लोगों को अपने से दूर क्‍यों हटाया करते हो?

2—व्‍यक्‍ति से प्रेम, गुरु से प्रेम—और फिर परमात्‍मा से प्रेम।

भक्‍ति के संदर्भ में इसे समझने की कृपा करें।

3—क्‍या सद्गुरू कभी जँभाई लेते है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-28)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-27)

निर्विचार समाधि और ऋतम्‍भरा प्रज्ञा—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 7 मार्च 1975;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र—(समाधिपाद)

ता एव सबीज समाधि:।। 46।।

ये समाधियां जो फलित होती है। किसी विषय पर ध्‍यान करने से वे सबीज समाधियां होती है। और आवागमन के चक्र से मुक्‍त नहीं  करती।

निर्विचार वैशारद्ये अध्‍यात्‍म प्रसाद:।। 47।।

      समाधि की निर्विचार अवस्‍था की परम शुद्धता उपलब्‍ध होने पर प्रकट होता है आध्‍यात्‍मिक प्रसाद।

ऋतम्‍भरा तत्र प्रज्ञा।। 49।।

      निर्विचार समाधि में चेतना सत्‍य से, ऋतम्‍भरा से संपूरित होती है।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-27)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-26)

योग : छलांग के लिए तैयार—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 6 मार्च, 1975;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—आप जिस किसी भी मार्ग की बात करते है। तो वही लगता है मेरा मार्ग! तो कैसे पता चले कि मेरा मार्ग क्या है?

 2— क्‍या समाधि की सभी अवस्थाओं से गुजरना जरूरी है?

क्या गुरु का सान्निध्य सीधे छलांग लगाने में सहायक हो सकता है?

 3—पतंजलि की तरह ही क्‍या आप स्‍वयं भी कविता, रहस्‍यवाद और तर्क के श्रेष्ठ जोड़ हैं?

 4—प्रार्थना तक पहुंचने के लिए प्रेम से गुजरना क्‍या जरूरी है?

 5—पतंजलि आधुनिक मनुष्‍य की न्‍यूरोसिस (विक्षिप्‍तता) के साथ कैसे कार्य करेंगे?

 6—आपके प्रवचनों में नींद की झपकी आने का क्‍या कारण है?

7—पतंजलि की विधियां इतनी धीमी और लंबी है, फिर भी आप इन पर, भागते हुए आधुनिक मनुष्‍य के लिए, क्‍यों बोल रहे है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-26)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-25)

सूक्ष्‍मतर समाधियां: निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 5 मार्च, 1975;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र: (समाधिपादृृ)

स्‍मृतिपरिशुद्धौ स्‍वरूपशून्‍येवार्थमात्र निर्भासा निर्वितर्का।। 43।।

जब स्मृति परिशुद्ध होती है और मन किसी अवरोध के बिना वस्तुओं की यथार्थता देख हू सकता है, तब निर्वितर्क समाधि फलित होती है।

एतयैव सविचार निर्विचार च सूक्ष्‍मविषय व्‍याख्‍याता ।। 44।।

सवितर्क और निर्विचार समाधि का जो स्‍पष्‍टीकरण है उसी से समाधि की उच्‍चतर स्‍थितियां भी स्‍पष्‍ट होती है। लेकिन सविचार और निर्विचार समाधि की इन उच्‍चतर अवस्‍थाओं में ध्‍यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते है।

सूक्ष्‍मविषयत्‍वं चलिंगपर्यवसानम्।। 45।।

      इन सूक्ष्‍म विषयों से संबंधित समाधि का प्रांत सूक्ष्‍म ऊर्जाओं की निराकर अवस्‍था तक फैलता है।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-25)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-24)

प्रयास, अप्रयास और ध्‍यान—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 4 मार्च, 1975;

श्री रजनीश आश्रम  पूना।

प्रश्‍नसार:

1—प्रकृति विरोध करती है अव्यवस्था का और अव्यवस्था स्वयं ही व्यवस्थित हो जाती है यथासमय तो क्यों दुनिया हमेशा अराजकता और अव्यवस्था में रहती रही है?

2—कैसे पता चले कि कोई व्‍यक्‍ति रेचन की ध्‍यान विधियों से गुजर कर अराजकता के पार चला गया है?

3—मन को अपने से शांत हो जाने देना है, तो योग की सैकड़ों विधियों की क्‍या अवश्‍यक्‍ता है?

4—आप प्रेम में डूबने पर जोर देते है लेकिन मेरी मूल समस्‍या भय है। प्रेम और भय क्‍या संबंधित है?

5—कुछ न करना,मात्र बैठना है, तो ध्‍यान की विधियों में इतना प्रयास क्‍यों करें? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-24)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-23)

सवितर्क समाधि: परिधि और केंद्र के बीच—(प्रवचन—तीसरा)

 दिनांक 3मार्च 1975;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

योगसूत्र: (समाधिपाद)

श्रीणवृत्तेरभिजातस्‍येव मणेर्ग्रहीतृहणग्राह्मेषु तत्‍स्‍थतदन्‍जनता समापत्‍ति:।। 41।।

जब मन की क्रिया नियंत्रण में होती है, तब मन बन जाता है। शुद्ध स्‍फटिक की भांति। फिर वह समान रूप से प्रतिबिंबित करता है बोधकर्ता को, बोध को और बोध के विषय को।

तत्र शब्‍दार्थ ज्ञान विकल्‍पै: संकीर्णा सिवतर्का समापत्ति:।। 42।।

सवितर्क समाधि वि समाधि है, जहां योगी अभी भी वह भेद करने के योग्‍य नहीं रहता है, जो सच्‍चे ज्ञान के तथा शब्‍दो पर आधारित ज्ञान, और तर्क या इंद्रिय—बोध पर आधारित ज्ञान के बीच होता है—जो सब मिश्रित अवस्‍था में मन में बना रहाता है।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-23)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-22)

जागरूकता की कीमिया—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक  2 मार्च, 1975;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—मैं क्यों विरोध अनुभव करता हूं स्‍वच्‍छंद, स्‍वाभाविक होने तथा जाग्रत होने के बीच?

2—क्या दमन का योग में कोई विधायक उपयोग है?

3—ध्‍यान के दौरान शारीरिक पीड़ा का विक्षेप हो तो क्या करें?

4—प्रेम संबंध सदा दुःख क्‍यों लाते है।  

5—शिष्यत्व के विकास के लिए सदगुरू  के प्रेम में पड़ना क्‍या शिष्‍य के लिए जरूरी ही है?

6—बच्‍चे की ध्‍यान पूर्ण निर्दोषता क्‍या वास्‍तविक है?

7—(क) क्‍या दिव्‍य—दर्शन (विजन) भी स्‍वप्‍न ही है?

  (ख) निद्रा और स्‍वप्‍न में कैसे सचेत रहा जाये?

  (ग) क्‍या आप मेरे सपनों में आते है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-22)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-21)

निद्राकालीन जागरूकता—(पहला- प्रवचन)

दिनांक 1 मार्च, 1975;

श्री रजनीश आश्रम,पूना।

योगसूत्र—(समाधिपाद)

स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बन वा।। 38।।

उस बोध पर भी ध्यान करो, जो निद्रा के समय उतर आता है।

            यथाभिमतध्‍यानाद्वा।। 39।।

ध्‍यान करो किसी उस चीज पर भी, जो कि तुम्‍हें आकर्षित करती है।

परमाणुपरममहत्‍वान्‍तोउस्‍य वशीकार:।। 40।।

इस प्रकार योगी हो जाता है सब का मालिक—अति सूक्ष्‍म परमाणु से लेकर अपरिसीम तक का।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-21)”

पतंजलि:  योग-सूत्र (भाग-02)-ओशो

पतंजलि:  योग—सूत्र (भाग—02) –ओशो

(योग: ‘दि अल्‍फा एंड दि ओगेगा’ शीर्षक से ओशो द्वारा अंग्रेजी में दिए गए सौ अमृत प्रवचनो में से द्वितीय बीस प्रवचनों  का हिंदी में अनुवाद।)

पतंजलि रहे है बड़ी अद्भुत मदद—अतलनीय। लाखों गुजर चुके है इस संसार से पंतजलि की सहायता से, क्‍योंकि वे अपनी समझ के अनुसार बात नहीं कहते; वे तुम्‍हारे साथ चलते है। और जैसे—जैसे तुम्‍हारी समझ विकसित होती है, वे ज्‍यादा गहरे और गहरे जाते है। पंतजलि पीछे हो लेते है शिष्‍य के। ……पतंजलि तुम तक आते है। …..पतंजलि तुम्‍हारा हाथ थाम लेते है और धीरे—धीरे वे तुम्‍हें (चेतना के) संभावित उच्‍चतम शिखर तक ले जाते है……। Continue reading “पतंजलि:  योग-सूत्र (भाग-02)-ओशो”

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