उत्सव की कीमिया: विरोधाभासों का संगीत—(प्रवचन—बीसवां)
दिनांक 20 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—मुझे अपने अहंकार के झूठेपन का बोध हो रहा है, इससे मेरे सारे बंधे—बंधाए उत्तर और सुनंश्चित व्यवस्थाएं और ढांचे बिखर रहे हैं। मैं मार्गविहीन, दिशाविहीन अनुभव करता हूं। क्या करूं?
2—पश्चिम में जहां बहुत—सी धार्मिक दुकानें है, वहां आपकी बात कहते समय व्यावसायिकता का बोध ग्लानि लाता है। इसके लिए क्या करू?
3—उत्सव क्या है? क्या दुःख का उत्सव मनाना संभव होता है?
4—आप अत्यंत विरोधाभासी है और सतत स्वयं का खंडन करते है। इससे क्या समझ सीखी जाए? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-40)”