प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-16)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-बार्ताएं)

सोलहवां-प्रवचन-(ओशो)

लीला का अर्थ है वर्तमान में जीना

एक तो वर्तमान से एकाकार होने के लिए मैंने नहीं कहा है। एकाकार तो मैं कहता हूं किसी से भी मत होना। क्योंकि एकाकार होने का मतलब मूच्र्छा के और कुछ भी नहीं हो सकता। जब तक तुम्हें होश है तब तक तुम एकाकार कैसे होओगे? जब तुम बेहोश हो तभी हो सकते हो। यानी जब तक भी तुम्हें होश है, तब तक तुम अलग हो। तुम एकाकार हो कैसे सकते हो? इसलिए मूच्र्छित व्यक्ति के सिवाय एकाकार कोई कभी नहीं होता या निद्रा में होता है। प्रकृति से एकाकार हो जाता है। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-16)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-15)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)

पंद्रहवां-प्रवचन-ओशो

जो बाहर से आया वह ज्ञान नहीं है

…सत्य जैसी कोई चीज नहीं है। सब सत्य वही है। मेरा, आपका…जैसे प्रेम जैसी चीज…आपका प्रेम, उनका प्रेम सार्थक है, अर्थ रखता है। प्रेम जैसी चीज खोजने से कहीं भी मिलने वाली नहीं है। और जब मैं प्रेम करता हूं, तो वैसा प्रेम दुनिया में कभी किसी ने नहीं किया। वह मैं ही करता हूं। क्योंकि मैं कभी दुनिया में नहीं हुआ। जब आप प्रेम करते हैं, तो वह प्रेम आप ही करते हैं। दुनिया में कभी न किसी ने किया, न कर सकता है, न कभी करेगा।

तो यद्यपि हम कहते हैं कि हजार साल पहले किसी आदमी ने प्रेम किया, दस हजार साल पहले किसी आदमी ने प्रेम किया। मैं प्रेम करता हूं, आप प्रेेम करते हैं। आने वाले बच्चे प्रेम करेंगे। लेकिन हर बार प्रेम जब भी फलित होगा, तो नया ही फलित होगा। पुराने प्रेम जैसी कोई चीज नहीं होती। जब मैं प्रेम करूंगा तो वह अनुभव एकदम ही नया है। वह अनुभव मुझे ही हो रहा है। वह अनुभव कभी किसी को नहीं हुआ। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-15)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-14)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो

(प्रवचन -चौहदवां)

इंद्रियों की जड़ें शरीर में

…सब ऐसा हो सकता है जो ऊपर की तरफ इशारा करता हो, और सब ऐसा हो सकता है कि नीचे की तरफ इशारा करता हो। असल में कोई सीढ़ी ऐसी नहीं जो दोनों तरफ नहीं जाती हो। सब सीढ़ियां दोनों तरफ जाती हैं। ऊपर की तरफ भी वही सीढ़ी जाती है, नीचे की तरफ भी वही सीढ़ी आती है। सिर्फ आपके रुख पर निर्भर करता है कि आप किस तरफ जा रहे हैं। तो एक दफा रुख साफ हो जाए। इधर तो मैं इस पर सच में निरंतर सोचता हूं। अगर एक चित्र को देख कर एक आदमी की कामुकता जग सकती है तो ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि एक चित्र को देख कर आदमी की कामुकता विलीन हो जाए। ये दोनों बातें एक साथ हो सकती हैं। मगर ऐसा चित्र तो बना नहीं पाता साधु जो कामुकता को विलीन करता हो। चिल्लाता यह है कि वह कामुकता वाला चित्र नहीं चाहिए। वह तो रहेगा। तुम चित्र को और श्रेष्ठ चित्र से बदल सकते हो। और कोई उपाय नहीं बदलने का। संगीत और श्रेष्ठ संगीत से बदल सकता है; संगीत मिटाने का उपाय नहीं है। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-14)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-13)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो

तेरहवां -प्रवचन

निर्णय न लें, उपलब्ध रहें

प्रश्नः …यानी किसी बात के बनने में हम एक विचार खोज करके एक कोई नियोजन करते हैं एंड स्टिल दे विल वन थिंग जिसका हम नियोजन नहीं कर पाते हैं…दिस इ.ज ए…एक्सीडेंड।

नहीं, मैं इसलिए पूछता हूं कि असल में ऐसी कोई भी घटना इतना ही बताती है कि जीवन क्या है? और कैसे चलता है? और कैसे समाप्त हो जाता है? न हम इसे जानते हैं, न इस पर हमारा कोई चरम अधिकार मालूम होता है–घटना इतना ही बताती है। इतना निगेटिव। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-13)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-12)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो

बारहवां-प्रवचन

स्मृति के विसर्जन में चैतन्य का जागरण है

..और जब हम पूछते हैं कि संसारी का क्या मार्ग हो? तो असल में हमारा मतलब यह है कि हम संन्यासी नहीं हैं। सामान्य घर-गृहस्थी में हैं। हम क्या करें? यही है न मतलब हमारा। हम कहां हैं? हमारा… खोज ले सकता है। क्योंकि आत्मा प्रति क्षण उपस्थित तो है मेरे भीतर। मैं कहीं बाहर घूम रहा हूं, और भीतर जाने का मार्ग नहीं पाता हूं। निरंतर यह सुनने पर भी कि भीतर जाना है, मेरा सारा घूमना बाहर ही होता है। और भीतर हो जाना, नहीं हो पाता। तो असल में कुल इतना समझ लेना है कि बाहर मैं किन वजहों से घूम रहा हूं? कौन से कारण मुझे बाहर घुमा रहे हैं? अगर वे कारण मेरे हाथ से छूट जाएं तो मैं भीतर पहुंच जाऊंगा। अगर ठीक से समझें तो भीतर पहुंचने के लिए किसी मार्ग की जरूरत नहीं है। जिन मार्गों के कारण हम बाहर घूम रहे हैं, अगर वे भर हम छोड़ दें, उनका कारण भर नकारात्मक हो जाए स्थिति, तो हम पहुंच जाएंगे। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-12)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-11)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं) -ओशो

ग्यारहवां -प्रवचन

प्रामाणिकता सर्वोपरि है

अंगुलीमाल जो कह रहा है, वह एक क्षण में बदल जाता है। इतनी ताकत का आदमी है। ताकत जो है, उसकी कोई दिशा नहीं है। दिशा हम देते हैं। एक अर्थ में बुरे होने की क्षमता सौभाग्य है। क्योंकि क्षमता तो है। बुरे हुए यह गलती की है। और क्षमता है। और मजे की बात यह है कि बुरा होना हमेशा भले होने से कठिन है। यहां भ्रम तौर से ऐसा नहीं दिखाई पड़ता, लेकिन बुरा होना अच्छे होने से बहुत कठिन है।

प्रश्नः कांशसली बुरा होता है?

कांशसली…बहुत कठिन है और बहुत शक्ति मांगता है। क्योंकि प्राणों की पूरी आकांक्षा तो सदा ऊपर जाने की है, और आप उसे नीचे ले जाते हैं। बड़ी ताकत लगती है। और जद्दोजहद दुनिया से तो है ही, अपने से भी है। बुरा आदमी दोहरी लड़ाई लड़ता है। अच्छा आदमी इकहरी लड़ाई लड़ता है। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-11)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-10)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं) -ओशो

दसवां-प्रवचन

नींद और मौत एक जैसी होती है

…होता है जब तक जानना नहीं होता।

प्रश्नः लेकिन जब जान जाए….

तब तो कोई सवाल ही नहीं उठता।

प्रश्नः तब तो जान भी गया और मान भी गया?

फिर तो मानने का सवाल ही नहीं उठता।

प्रश्नः मान तो गया ही…

नहीं-नहीं,…

प्रश्नः जो जान गया किसी चीज को, फिर तो मानने और जानने में क्या अंतर रह गया? Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-10)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-09)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो

नौवां-प्रवचन

शास्त्र को नहीं, समझ को आधार बनाए

प्रश्नः जीवन और मौत, क्योंकि एक-दूसरे को फॉलो करते हैं, और निश्चय ही उनमें से कुछ न कुछ टाइमिंग का फर्क तो होगा ही।… मृत्यु के बाद जो लाइफ मिलती है, लोग कहते हैं कि एक चेंज आॅफ ड्रेस होता है। सिर्फ पहनावा बदल जाता है, आत्मा वही रहती है। वह पहनावा जो हमें मिलता है, या तो वह हमारी मर्जी से मिलता है, हमारी कंसेंट से ही दिया जाता है या हमें फोर्स करके दिया जाता है। जन्म तो हमें अपनी मर्जी से दिया जाता है। तो फिर उसका मतलब यह है कि उस वक्त हमारे मन में था कि हम यह पहनावा लेकर क्या करेंगे? और क्या करेंगे, वह हम भूल चुके हैं। हमारा लक्ष्य क्या है? और अगर वह हमें दिया गया है तो निश्चय ही हमें कुछ न कुछ सोच करके दिया गया है कि तुम जाओ और यह करो। तो अब यह हमारा लक्ष्य क्या है? अगर हम सबका लक्ष्य एक ही है तो फिर सबके एनवायरनमेंट्स और ड्रेसेज सेम क्यों नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं कि हमारा लक्ष्य है–परमात्मा को पाना ही है हमारा लक्ष्य। कुछ कहते हैं, आप तो जानते हैं कि परमात्मा वैसे तो मिल ही नहीं सकता। जैसे, कितनी देर निर्विचार और कुछ न करने से परमात्मा मिलता है। और जिंदगी जद्दोजहद का नाम है। ऐसी कंट्राडिक्शन सी आ जाती है। हमारा लक्ष्य क्या है? यही हमारा प्रश्न है। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-09)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-08)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो

आठवां-प्रवचन

हिंदुस्तान आध्यात्मिक देश नहीं है

(अस्पष्ट)…वैसे उस मेथड से यह तीव्र है बह‏ुत। मतलब कि जल्दी होगा। (अस्पष्ट)…लगता भी है बिलकुल। एकदम होना शुरू होता है। और वह करीब सौ में से पांच प्रतिशत लोगों के काम का है वह मेथड। यह सौ में से करीब साठ प्रतिशत लोगोें के काम का है।

एक तो ऐसा कोई देश नहीं है जहां महात्मा न हुए हों। लेकिन उन महात्माओं के संबंध में पता चलने में दो-तीन तरह की कठिनाइयां हैं। एक कठिनाई तो यह है कि महात्मा, हम अपने ही महात्माओं के संबंध में जानते हैं। अगर हम आपसे पूछें कि ईसाइयत ने कितने महात्मा पैदा किए हैं? तो जीसस का नाम साधारणतया खयाल में आएगा। जो लोग और थोड़ा ज्यादा जानते हैं वह संत फ्रांसिस का या अगस्तीन का नाम ले सकेंगे। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-08)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-07)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो

सातवां-प्रवचन

ध्यानी को अभिनेता होना पड़ता है

दो बातें समझनी चाहिए। एक तो किसी चीज में विकास होता है। विकास में कंटीन्यूटी होती है, सातत्य होता है। लेकिन विकास में नई चीज कभी पैदा नहीं होती है। पुराना ही मौजूद रहता है। थोड़ा बहुत फर्क होता हैै, लेकिन पुराना ही मौजूद होता है। तो जिस-जिस चीज में विकास होता है, उसमें पुराना समाप्त नहीं होता। सिर्फ पुराना नये ढंग, नये रूप, नई आकृतियों में फिर मौजूद रहता है। जैसे बच्चा जवान होता है, यह विकास है। जंप नहीं है, छलांग नहीं है, इसलिए आपको कभी पता नहीं लगता है कि कब बच्चा जवान हो गया। वह धीरे-धीरे होता है। जवानी आ जाती है, लेकिन बच्चा समाप्त नहीं हो जाता। बच्चा ही जवान हो गया होता है। इसलिए मौके-बेमौके जवान फिर बच्चे के जैसा व्यवहार कर सकता है। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-07)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-06)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)

छठवां-प्रवचन-ओशो

गुरु होना आसान है, शिष्य बनना मुश्किल

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

ऐसा होने का कारण है। थोड़े नहीं, बहुत कारण हैं। एक तो धर्म सदा ही नई चीज है, सदा। धर्म सदा ही नई चीज है। धर्म कभी पुराना नहीं पड़ता। पड़ ही नहीं सकता। लेकिन हमारी सब मान्यताएं पुरानी पड़ जाती हैं। धर्म तो सदा नया है। लेकिन मान्यताएं सब पुरानी हो जाती हैं। इसलिए जब भी धर्म फिर से जाग्रत होगा, फिर से कभी भी किसी व्यक्ति से प्रकट होगा, तब मान्यताओं वाले सभी व्यक्तियों को अड़चन और कठिनाई होगी। ऐसा एक दफा नहीं होगा, हमेशा होगा। चाहे कृष्ण पैदा हो, तो उस जमाने का जो पुरोहित है, उस जमाने का जो तथाकथित, सो-काल्ड रिलीजियस आदमी है, वह कृष्ण के खिलाफ हो जाएगा। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-06)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-05)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्तएं)-ओशो

पांचवां-प्रवचन

पति-पत्नी और प्रेम

और जीसस अगर जमीन पर लौटें तो पहले क्रिश्चिएनिटी को डिनाई करना पड़ेगा, क्योंकि यह, यह तो कभी बात ही नहीं उठी कभी। यह मैंने कब कहा? मगर वह सदा ऐसा होता है। तो मेरी दृष्टि में मैं जो कह रहा हूं वह परंपरा तो कोई नहीं है; लेकिन जो मैं कह रहा हूं वह नया भी नहीं है, पुराना भी नहीं है।

प्रश्नः आपके खिलाफ जो बगावत है वह तो खैर समझ में आई, अब आपका प्रोग्राम गया?

नहीं, मेरा कोई प्रोग्राम नहीं है। मेरा कोई प्रोग्राम नहीं। और बगावत की तरफ मेरी कोई दृष्टि नहीं। कोई रुख भी नहीं। मैं मानता हूं कि वह स्वाभाविक है। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-05)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-04)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं)-ओशो

प्रवचन-चौथा

धर्म को गुरु नहीं, शिष्य चाहिए

आप बहुत गहरा भाव करते हैं तो ऐसा नहीं है कि सिर्फ कल्पना ही है आपको। नहीं आपमें से किसी गहरे व्यक्ति से संबंधित होगा। और वह जो संबंधित हो जाए न, वहां उसके कोई फासले का सवाल नहीं है, टाइम का सवाल नहीं है, दूरी का सवाल नहीं है। यही सब पूरा का पूरा साइंटिफिक मामला है, सारी की सारी साइंस की बात है। आपकी कहीं समझ बढ़ जाए तो बहुत काम आएगी।

प्रश्नः आसनों के बारे में आपका क्या विचार है?

आसन के संबंध में…नहीं, जहां तक आपको करने की जरूरत नहीं है। इसमें बहुत से आसन आप से होने लगेंगे। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-04)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-03)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्तएं)-ओशो

तीसरा-प्रवचन

पहले सक्रियता फिर अक्रिया

प्रेरणा आपकी होनी चाहिए, होनी चाहिए। तो ही आप जा पाएंगे, अन्यथा आप जा नहीं पाएंगे। बल्कि और पचड़े में पड़ जाएंगे आप। यह हम सारे लोग दूसरे की प्रेरणा से ही चल रहे हैं। इसमें कठिनाई क्या है, यह मामला ऐसा हो गया। अभी मेरे पास एक सज्जन अपनी पत्नी को लेकर आए। पत्नी भली चंगी है, स्वस्थ है। लेकिन कहीं भी किसी पत्रिका में, किसी किताब में, किसी बीमारी का वर्णन पढ़ लेती है तो वही बीमारी उसको हो जाती है।

प्रेरणा पकड़ जाती है उसको।

धर्म-युग में कोई एक निकलता है…एक चिकित्सा से संबंधित हर बार, तो वह उसको पढ़ लेती है। और जो-जो उसमें बताया हो कि इस बीमारी में पेट में दर्द होता है तो उसको पेट में दर्द शुरू हो जाता है। वे परेशान हो गए चिकित्सकों के पास जा-जा कर। वे दवा दे रहे हैं। तुमने कहा, पेट में दर्द है तो दर्द की दवा ले लो। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-03)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-02)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं)-ओशो

दूसरा-प्रवचन

समर्पण के फूल

प्रश्नः मौत जो है वह आदमी की निश्चित होती है पहले से या अकस्मात यानी एक्सीडेंट से?

दोनों ही बातें हैं। एक अर्थ में तो निश्चित होती है मौत। इस अर्थ में निश्चित होती है जिस अर्थ में बाजार से घड़ी खरीदें तो गारंटी होती है, दस साल चलेगी। लेकिन घड़ी को चलाएं, कम चलाएं, व्यवस्था से चलाएं तो बीस साल भी चल सकती है। पटक दें, तोड़ डालें तो पांच दिन भी न चले। तो आदमी का शरीर तो एक यंत्र है। आत्मा की तो कोई मौत होती नहीं। और शरीर बिलकुल यंत्र है। शरीर की ही मौत होती है। जब एक बच्चा पैदा होता है तो मां-बाप से जो भी वीर्यकण उसे मिले हैं, उन वीर्यकणों से बना हुआ शरीर कितना चलेगा, उसकी इनर कैपेसिटी होती है। उतना चल सकता है। लेकिन अगर बहुत व्यवस्था दी जाए तो सवा सौ साल भी चल सकता है। और कम व्यवस्था दी जाए तो पचहत्तर साल में भी खत्म हो जाए। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-02)”

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-01)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं)-ओशो

पहला-प्रवचन

सामूहिक रेचन का महत्व

प्रश्नः कई लोगों के मन में ऐसे कोई खयाल रहते हैं कि तीन दिन के शिविर से क्या हो सकता है? इनसान के जीवन में इतनी आसानी से कैथार्सिस वगैरह हो जाती है क्या? और इसकी कोई आवश्यकता वगैरह है कि ध्यान खुद ही अपने आप ही अपना रियलाइजेशन करने से, पृथक्करण करने से ही आता है। इसके बारे में जरा कुछ…। मैंने अपने ढंग से कुछ न कुछ तो बताया लेकिन आप जरा साफ…?

तो, ध्यान आ सकता है, स्वयं से भी आ सकता है। लेकिन पृथक्करण से नहीं आएगा। बड़ा सवाल यह नहीं है कि हम अपने मन को एनालाइज करते हों। क्योंकि वह पृथक्करण, विश्लेषण करते वक्त में हमारा मन भी काम करता है। Continue reading “प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-01)”

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