जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(झूठी प्यासों से मुक्ति)

मेरे प्रिय आत्मन्!

तीन दिन की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। उन सब प्रश्नों के जो सार प्रश्न हैं, उन पर मैं विचार करूंगा।

एक मित्र ने पूछा है कि क्या तर्क के सहारे ही सत्य को नहीं पाया जा सकता है?

तर्क अपने आप में तो बिल्कुल व्यर्थ है, अपने आप में बिल्कुल ही व्यर्थ है। तर्क अपने आप में बूढ़े हो गए बच्चों का खेल है, उससे ज्यादा नहीं। हां, तर्क के साथ प्रयोग मिल जाए, तो विज्ञान का जन्म हो जाता है। और तर्क के साथ योग मिल जाए, तो धर्म का जन्म हो जाता है। तर्क अपने आप में शून्य की भांति है। शून्य का अपने में कोई मूल्य नहीं है। एक के ऊपर रख दें, तो दस बन जाता है, नौ के बराबर मूल्य हो जाता है। अपने में कोई भी मूल्य नहीं, अंक पर बैठ कर मूल्यवान हो जाता है। तर्क का अपने में कोई मूल्य नहीं। प्रयोग के ऊपर बैठ जाए तो विज्ञान बन जाता है, योग के ऊपर बैठ जाए, तो धर्म बन जाता है। अपने आप में कोरा खोल है, शब्दों का जाल है। Continue reading “जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-04)”

जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(जीवन ऊर्जा का रूपांतरण

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैंने सुना है, एक माली वृद्ध हो गया था। कितना वृद्ध हो गया था, यह उसे खुद भी पता नहीं था, क्योंकि जिंदगी भर जो बीजों को फूल बनाने में लगा रहा हो, उसे अपनी उम्र नापने का मौका नहीं मिलता है।

उम्र का पता सिर्फ उन्हें चलता है, जो सिर्फ उम्र गिनते हैं और कुछ भी नहीं करते हैं। और मैंने सुना है कि मौत कई बार उस माली के पास आकर वापस लौट गई थी, क्योंकि जब भी मौत आई थी, वह अपने काम में इतना लीन था कि उसके काम को तोड़ देने की हिम्मत मौत भी नहीं जुटा पाई। Continue reading “जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-03)”

जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(जीवन ऊर्जा के प्रति सजगता)

मेरे प्रिय आत्मन्!

जीवन क्रांति के सूत्रों के संबंध में पहले सूत्र पर कल हमने बात की। एक पूछती हुई चेतना, एक जिज्ञासा से भरा हुआ मन, एक ऐसा व्यक्तित्व जो जो है वहीं ठहर नहीं गया बल्कि वह होना चाहता है जो होने के लिए पैदा हुआ है। एक तो ऐसा बीज है जो बीज होकर ही नष्ट हो जाता है और एक ऐसा बीज है जो फूल के खिलने तक की यात्रा करता है, सूरज का साक्षात्कार करता है और अपनी सुगंध से दिग्दिगंत को भर जाता है।

मनुष्य भी दो प्रकार के हैं। एक वे जो जन्म के साथ ही समाप्त हो जाते हैं; जीते हैं, लेकिन वह जीना उनकी यात्रा नहीं है। वह जीना केवल श्वास लेना है। वह जीना केवल मरने की प्रतीक्षा करना है। उस जीवन का एक ही अर्थ हो सकता है, उम्र। उस जीवन का एक ही अर्थ है, समय को बिता देना। Continue reading “जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-02)”

जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-01)

जीवन क्रांति के सूत्र-(विविध)

पहला-प्रवचन-(जीवन क्या है?)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक अंधेरी रात छोटा सा गांव और एक फकीर की झोपड़ी के द्वार पर कोई जोर से दस्तक दे रहा है। आमतौर से आपके घर पर कोई द्वार ठोके तो आप पूछेंगेः कौन है? बुलाने वाला कौन है? लेकिन उस फकीर ने उलटी बात पूछी। उस फकीर ने पूछाः किसको बुला रहे हैं? किसको बुलाया जा रहा है? वह फकीर अपनी झोपड़ी के भीतर है बाहर कोई द्वार ठोकता है। वह फकीर भीतर से पूछता हैः किसको बुला रहे हैं? आमतौर से ऐसा नहीं पूछा जाता, पूछा जाता हैः कौन बुला रहा हैै। उस बाहर से द्वार पीटने वाले आदमी ने कहाः मैं बायजीद को बुलाता हूं, बायजीद घर में है? और फिर भीतर से वह फकीर जोर से हंसने लगा, हंसता ही चला गया। वह बाहर का आदमी बेचैन हो गया। उसने कहाः हंसने से कुछ भी न होगा, मैं पूछता हूंः बायजीद भीतर है? उस फकीर ने कहाः बायजीद को खोजने निकले हो तो बहुत मुश्किल है, मैं खुद बायजीद को पचास साल से खोज रहा हूं, अभी तक खोज नहीं पाया। ऐसे लोग मुझको ही बायजीद समझते हैं, इसलिए मैं हंसता हूं कि तुम भी किस आदमी को खोजने निकल पड़े हो जो अपने को ही अभी नहीं खोज पाया है? उस आदमी ने शायद समझा होगा कि कोई पागल आदमी है जो बायजीद भी खुद है और कहता है कि मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। Continue reading “जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-01)”

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