बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-10)

निस्‍चै कियो निहार—(प्रवचन—दसवां)

प्रातः; 10 अक्टूबर, 1975; श्री ओशो आश्रम, पूना.

प्रश्न सार :

1—साधना की गति बेबूझ मालूम पड़ती है। कभी सब दौड़ व्यर्थ लगती है कभी लगता है अभी यात्रा भी शुरू नहीं हुई। क्या साधना ऐसे ही चलती है?

2—क्या दर्शन के लिए विचार और समझ का कोई भी उपयोग नहीं हो सकता?

3—मेरे जैसे लोग तो जीवन की धूप-छांव से गुजरे बगैर संन्यस्त हो गए। कृपया बताएं हमारा क्या होगा? Continue reading “बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-10)”

बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-09)

सदगुरू ने आंखे दयीं—(प्रवचन—नौवां)

प्रातः; 9 अक्टूबर, 1975;  श्री ओशो आश्रम, पूना.

सारसूत्र :

सहजो सुपने एक पल, बीतैं बरस पचास।

आंख खुले जब झूठ है, ऐसे ही घट-बास।।

जगत तरैयां भोर की, सहजो ठहरत नाहिं।

जैसे मोती ओस की, पानी अंजुली माहिं।।

धूआं को सो गढ़ बन्यौ, मन में राज संजोय।

साईं माईं सहजिया, कबहूं सांच न होय।। Continue reading “बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-09)”

बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-08)

जलाना अंतर्प्रकाश को—(प्रवचन—आठवां)

प्रातः; 8 अक्टूबर, 1975;  श्री ओशो आश्रम, पूना.

प्रश्न सार :

1—हमें बचाने के लिए आप कोई क्रूर उपाय क्यों नहीं करते हैं?

2—क्या कारण है कि समस्त पशुओं में केवल मनुष्य नामक पशु ही दिखावे के रोग का शिकार है?

3—विज्ञान सकारण खोज है। तो क्या धर्म की खोज अकारण की जाती है? Continue reading “बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-08)”

बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-07)

पारस नाम अमोल है—(प्रवचन—सातवां)

प्रातः, 7 अक्टूबर, 1975;  श्री ओशो आश्रम, पूना.

सारसूत्र :

मोह मिरग काया बसै, कैसे उबरै खेत।

जो बावै सोई चरै, लगैं न हरि सू हेत।।

प्रभुताई कूं चहत है, प्रभु को चहै न कोइ।

अभिमानी घट नीच है, सहजो ऊंच न होइ।।

सदा रहै चितभंग ही, हरिदै थिरता नाहिं।

रामनाम के फल जिते, काम लहर बहि जाहिं।। Continue reading “बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-07)”

बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-06)

भक्‍त में भगवान का नर्तन—(प्रवचन—छठवां)

प्रातः, 6 अक्टूबर 1975;  श्री ओशो आश्रम, पूना.

प्रश्न सार :

1—बुद्ध शून्यता का आग्रह करते हैं और शंकर पूर्णता का। वे दूसरे का खंडन एवं स्वयं का मंडन क्यों करते हैं? आप दोनों का समर्थन करते हैं, ऐसा क्यों?

2—सहजोबाई का मार्ग है प्रेम, भक्ति का। फिर भी वह अंतर्यात्रा और वीतरागता पर जोर क्यों देने लगती है?

3—आपने कहा कि यदि तुम्हें पता है कि मैं संतुष्ट हूं, कि मैं सुखी हूं, तो समझना कि अभी संतोष और सुख नहीं आए हैं। इस हालत में स्वयं साधु होकर सहजोबाई कैसे कह सकी कि–साध सुखी सहजो सहै? Continue reading “बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-06)”

बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-05)

जो सोवे तो सुन्‍न में—(प्रवचन—पांचवां)  

प्रातः; 5 अक्टूबर, 1975;  श्री ओशो आश्रम, पूना.

सारसूत्र :

निर्दुन्दी निर्वेरता, सहजो अरु निर्वास।

संतोषी निर्मल दसा, तकै न पर की आस।।

जो सोवै तो सुन्न में, जो जागै हरिनाम।

जो बोलै तो हरिकथा, भक्त्ति करै निहकाम।।

नित ही प्रेम पगै रहैं, छकै रहैं निज रूप।

समदृष्टि सहजो है, समझैं रंक न भूप।। Continue reading “बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-05)”

बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-04)

हरि संभाल तब लेह—(प्रवचन—चौथा)

प्रातः; 4 अक्टूबर, 1975;  श्री ओशो आश्रम, पूना.

प्रश्न-सार :

1—आपकी और सहजोबाई की भाषा की मधुरिमा और लयपूर्णता में साम्य सा क्यों लगता है?

2—आपने कहा कि महत्वाकांक्षी प्रेम नहीं कर सकता। तो क्या हमारा प्रेम झूठा है?

3—आपने कहा कि आदर मेंर् ईष्या सम्मिलित है। क्या श्रद्धा इस विष भरे आदर का अतिक्रमण करती है?

4—प्रेम और करुणा में क्या भेद है?

5—वाणी का मौन भीतर के कौन के लिए किस प्रकार सहायक है?

6—हरि संभाल तब लेह Continue reading “बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-04)”

बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-03)

पाँव पड़ै कित कै किती—(प्रवचन—तीसरा)

प्रातः; 3 अक्टूबर 1975;  श्री ओशो आश्रम, पूना.

सारसूत्र :

प्रेम दिवाने जे भये, पलटि गयो सब रूप।

सहजो दृष्टि न आवई, कहा रंक कह भूप।

प्रेम दिवाने जे भये, जाति वरन गए छुट।

सहजो जग बौरा कहे, लोग गए सब फूट।।

प्रेम दिवाने जे भये, सहजो डिगमिग देह।

पांव पड़ै कित कै किती, हरि संभाल तब लेह।। Continue reading “बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-03)”

बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-02)

बहना स्‍वधर्म में—(प्रवचन—दूसरा)

प्रातः दिनांक 2 अक्टूबर 1975;  श्री ओशो आश्रम, पूना

प्रश्न सार :

1—भक्ति के मार्ग पर जीवन की किसी भी बात का इनकार नहीं। फिर क्यों कर सहजोबाई शरीर, इंद्रिय एवं घर परिवार को बंधन, प्रवचन, परमात्मा से विपरीत मानती हैं?

2—क्या प्रेम में रोग और आसक्ति निहित नहीं हैं?

3—आप कैसे जानते हैं कि सहजोबाई आत्मोपलब्ध थीं?

4—क्या स्त्रियों और पुरुषों के प्रश्न भिन्न होते हैं?

5—स्त्रियों को संघ में प्रवेश देने के कारण, भगवान बुद्ध का धर्म भारत में पांच हजार की जगह पांच सौ वर्ष ही चला। आप अपने संघ में स्त्रियों को मुक्तभाव से प्रवेश दे रहे हैं; आपका धर्म कितना दीर्घजीवी होगा? Continue reading “बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-02)”

बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-01)

रस बरसे मैं भीजूं—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 1 अक्टूबर, 1975;  श्री ओशो आश्रम, पूना,

 सारसूत्र :

राम तजूं पै गुरु न बिसारूं।

गुरु को सम हरि को न निहारू।।

हरि ने जनम दियो जग माहीं।

गुरु ने आवागमन छुटाहीं।।

हरि ने पाचं चोर दिये साथा।

गुरु ने लई छुटाया अनाथा।।

हरि ने कुटुंब जाल में गेरी।

गुरु ने काटी ममता बेरी।।

हरि ने रोग भोग उरझायौ।

गुरु जोगी कर सबै छुटायौ।। Continue reading “बिन घन परत फुहार-(प्रवचन-01)”

बिन घन परत फुहार—(सहजोबाई) ओशो

बिन घन परत फुहार—(सहजोबाई) -ओशो

(दिनांक 01-10-1975 से 10-10-1975 ओशो आश्रम पूना में सहजोबाई पर ओशो जी द्वारा दिये गये अमृत प्रवचनों का संकलन)

ब तक किसी मुक्तनारी पर नहीं बोला। तुम थोड़ा मुक्त पुरुषों को समझ लो, तुम थोड़ा मुक्ति का स्वाद चल लो, तो शायद मुक्तनारी को समझना भी आसान हो जाए।

जैसे सूरज की किरण तो सफेद है, पर प्रिज्म से गुजर कर सात रंगों में टूट जाता है। हरा रंग लाल रंग नहीं है, और न लाल रंग हरा रंग है; यद्यपि दोनों एक ही किरण से टूटकर बने हैं, और दोनों अंततः मिलकर पुनः एक किरण हो जाएंगे। टूटने के पहले एक थे, मिलने के बाद फिर एक हो जाएंगे, पर बीच में बड़ा फासला है; और फासला बड़ा प्रीतिकर है। बड़ा भेद है बीच में, और भेद मिटना चाहिए। Continue reading “बिन घन परत फुहार—(सहजोबाई) ओशो”

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