जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन–गांठ परी पिया बोले न हमसे

सारसूत्र:

गांठ परी पिया बोले न हमसे।

माल मुलुक कछु संग न जैहे, नाहक बैर कियो है जग से।।

जो मैं जनितिउं पिया रिसियैहे, नाहक प्रीति लगाती न जग से।।

निसुवासर पिया संग मैं सूतिऊं, नैन अलसानी निकरि गए घर से।।

जस पनिहार धरे सिर गागर, सुरति न टरे बतरावत सब से।।

धरमदास बिनवै कर जोरी, साहेब कबीर को पावै भाग से।। Continue reading “जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-11)”

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन–तुम मेरे पास रहो खुशबू की तरह

प्रश्न-सार

॰ परमात्मा की चाह और परमात्मा की प्यास में क्या फर्क है?

॰ न सोचा न समझा न सीखा न जाना

मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना

॰ आप कहते हैं, प्रार्थना मांग नहीं, अहोभाव प्रकट करना है। और धरमदास कहते हैं, ‘अर्जी सुनो, कर दो भव पार।’ क्या यह प्रार्थना मांग नहीं है?

॰ मैं आपकी हो गई हूं और आपकी विशाल आंखों में डूब जाने को आतुर हो उठी हूं।

॰ आप इस कदर मेरे भीतर उतर गए हैं कि किन शब्दों में कहूं?

॰ भजन क्या होता है? Continue reading “जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-10)”

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन–बिन दरसन भई बावरी

सारसूत्र:

बिन दरसन भई बावरी, गुरु द्धौ दीदार।।

ठाढ़ि जोहों तोरी बाट मैं, साहैब चलि आवो।

इतनी दया हम पर करौ, निज छवि दरसावो।।

कोठरी रतन जड़ाव की, हीरा लागे किवार।

ताला कुंजी प्रेम की, गुरु खोलि दिखावो।।

बंदा भूला बंदगी, तुम बकसनहार।

धरमदास अरजी सुनो, कर द्यो भवपार।। Continue reading “जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-09)”

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन–परमात्मा सबरंग है

प्रश्न-सार

॰ क्या हम वासना करने और नहीं करने के लिए स्वतंत्र हैं?

॰ कबीर और धरमदास को लाल रंग पसंद था, मोहम्मद को हरा और नानक को नीला रंग पसंद था। कृपा कर इसका रहस्य समझाएं।

॰ कबीर और धरमदास जैसे परम भक्त भी रोने-धोने के गीत लिखें, यह समझ में नहीं आता।

॰ दस साल से शराब पीना, धूम्रपान, जुआ खेलना, आदि व्यसन जुड़े थे। संन्यास लेते ही सब तिरोहित हो गए। अब तो बिना पीए नशा चढ़ा रहता है। Continue reading “जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-08)”

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन–पिया बिन नींद न आवै

सारसूत्र:

साहेब, तेरी देखौं सेजरिया हो।

लाल महल के लाल कंगूरा, लालिनि लागि किवरिया हो।।

लाल पलंग के लाल बिछौना, लालिनि लागि झलरिया हो।।

लाल साहेब की लालिनि मूरत, लालि लालि अनुहरिया हो।।

धरमदास बिनवै कर जोरी, गुरु के चरन बलिहरिया हो।।

 

पिया बिन मोहि नींद न आवै।।

खन गरजे खन बिजुली चमके, ऊपर से मोहि झांकि दिखावै।

सासु ननद घर दारूनि आहैं, नित मोहि बिरह सतावै।

जोगिन व्हैके मैं बन-बन ढूंढूं, कोऊ न सुधि बतलावै।

धरमदास बिनवै कर जोरी, कोई नेरे कोई दूर बतावै।

 

भगति-दान गुरु दीजिए, देवन के देवा हो।

चरनकंवल बिसरौं नहीं, करिहौं पदसेवा हो।

तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।

तुमहिं और निरखत रहौं, मेरे और न दूजा हो।।

आठ सिद्धि नौ निद्धि हों, बैकुंठ-निवासा हो।

सो मैं ना कछु मांगहूं, मेरे समरथ दाता हो।

सुख संपत्ति परिवार धन, सुंदर वर नारी हो।

सपनेहुं इच्छा ना उठे, गुरु आन तुम्हारी हो।

धरमदास की बीनती साहेब सुनि लीजै हो।

दरसन देहु पट खोलिके, आपन करि लीजै हो।।

 

मैं तुम्हारे प्रेम का प्रतिबिंब बन कर रह गई

मैं तुम्हारे दाह का अभिशाप सारा सह गई

अनुगता चिर बावली मैं दूर की छाया बनी

मैं तुम्हारे सबल प्राणों की सिमटती लघु अनी

व्यर्थ पाने का जिसे आयास उस अपनत्व सी

काटता जो मृत्यु सा उस अंतहीन ममत्व सी

आस की विश्वास की चादर लपेटे चल पड़ी

भग्नयुग की शेष सीमा पर कहानी बन खड़ी

प्रणय की उन्मुख विकलता के सहारे बह गई

मैं तुम्हारी प्यास का प्रतिबिंब बन कर रह गई

खोज वे पगचिह्न हारी प्रेम खोया, श्रेय भी

साथ सपनों का सखा ले मैं चली जिन पर कभी

पर न मुझको द्वार अब भवितव्य का मिलता कहीं

मत्र्य और अमत्र्य मेरे खो गए दोनों यहीं

प्रिय, तुम्हारे स्पर्श का अभिमान मेरी जीत है

देह में बंदी चिरंतन मुक्ति का संगीत है

एक जीवित स्वप्न राातोंरात बन कर ढह गई

मैं तुम्हारी विवशता का गात बन कर रह गई

भक्ति है, मिटने की कला। भक्ति है, शून्य होने का उपाय। भक्ति है, अपने को मंदिर जैसा रिक्त कर लेना, ताकि परमात्मा की मूर्ति विराजमान हो सके। जो खाली हैं वे ही भक्त हो सकते हैं। जो नहीं हैं वे ही भक्त हो सकते हैं। जो जितना है उतना ही परमात्मा से जुड़ने में कठिनाई पाएगा।

अहंकार के अतिरिक्त भक्ति के मार्ग पर न तो कोई अज्ञान है, न कोई पाप है। मैं हूं, यही पाप है। मैं हूं, यही अज्ञान है। इसलिए न तो व्रत काम आएंगे, न उपवास, न तीर्थ यात्राएं, न पुण्य काम आएंगे। काम तो एक ही बात आ सकती है कि मैं मिट जाऊं।

और मैं इतना कुशल है कि पुण्य से भी अपने को भर लेता है, पूजा-पाठ से भी अपने को सजा लेता है, तीर्थ-व्रत से भी अपनी पुष्टि कर लेता है। मैं से जो सावधान होगा उसे एक बात दिखाई पड़ जाएगीः कृत्य के सहारे मैं नहीं मिटता। फिर तीर्थ जाओ, काशी या काबा। कृत्य के सहारे मैं नहीं मिटता। फिर चाहे पुण्य करो, चाहो व्रत-उपवास। कृत्य के सहारे मैं नहीं मिटता क्योंकि कृत्य में ही कर्ता का भाव है। और जहां कर्ता का भाव है वहां मैं हूं।

अकृत्य से मिटता है मैं। समर्पण से मिटता है मैं। मैं असहाय हूं, इस भाव में मैं की मृत्यु हो जाती है। असहाय का फंदा तुम्हें घेर ले तो मैं को फांसी लग जाती है।

जीवन को ठीक से देखोगे तो पाओगे, किया क्या है? कर क्या सकते हो? हो रही हैं चीजें जरूर। जो भी होता है उसी को तुम झपट कर अपना कर्तृत्व बना लेते हो। किसी से तुम्हारा प्रेम हो गया और तुम कहते हो, मैंने प्रेम किया। हुआ को तुम बड़े जल्दी किया में बदल लेते हो। और हुए को किए में बदला कि अहंकार निर्मित हुआ। किए को हुए में बदल डालो, भक्ति का सूत्र तुम्हारे हाथ में आ गया।

मत कहो कि मैंने प्रेम किया और मत कहो कि मैंने क्रोध किया और मत कहो कि मैंने पुण्य किया। मत कहो, मैंने पाप किया। कहो, हुआ। जरा इस छोटे से भाषा के परिवर्तन पर ध्यान दो। मुझसे क्रोध हुआ–मैं के खड़े होने की जगह न रह जाएगी। मुझसे प्रेम हुआ–मैं के खड़े होने को भूमि कहां बची? तुम तो बांस की पोंगरी हो गए। अब जो भी करता है, परमात्मा करता है।

इसलिए भक्त न तो अपने को पापी मानता है, न पुण्यात्मा। क्योंकि जो अपने को पापी मानते हैं वे एक तरह के अहंकार से भर जाते हैं और जो पुण्यात्मा मानते हैं वे दूसरी तरह के अहंकार से भर जाते हैं।

और अगर कोई गौर से खोज करेगा तो पुण्यात्मा का अहंकार पापी के अहंकार से ज्यादा बड़ा होता है। स्वाभाविक, उसके हाथ में सोने की जंजीरें होती हैं, जिनको आभूषण कहा जा सकता है। पापी के हाथ में तो लोहे की कुरूप जंजीरें होती हैं जंग खाई। दिखाना नहीं चाहता किसी को, छिपाना चाहता है। पुण्यात्मा तो अपनी जंजीरों को भी दिखाना चाहता है, प्रदर्शन करना चाहता है। कितना उसने दान दिया, कितने पूजा-पाठ किए, कितने यज्ञ-हवन करवाए, उन सबकी गिनती रखता है। उसी गिनती में बचता है। पुण्यात्मा धीरे-धीरे इतने अहंकार से भर जाता है कि परमात्मा दूर की, बहुत दूर की बात हो जाती है।

परमात्मा तुमसे उतना ही दूर है जितना अहंकार तुम्हारा प्रबल है। परमात्मा उतने ही करीब है जितना अहंकार निर्बल है। अहंकार को निर्बल करो।

मैं तुम्हारे प्रेम का प्रतिबिंब बन कर रह गई

मैं तुम्हारी प्यास का प्रतिबिंब बन कर रह गई

एक जीवित स्वप्न रातों रात बन कर ढह गई

मैं तुम्हारी विवशता का गात बन कर रह गई

विवश हो जाओ। विवशता में ही परमात्मा का अवतरण है। अवश हो जाओ। रोओ जरूर, पुकारो जरूर, मगर अवशता में, विवशता में, असहाय अवस्था में। असहाय हृदय से उठी आह प्रार्थना बन जाती है।

यह भक्ति की आधारशिला है। आज के सूत्र इस आधारशिला को समझने में बड़े सहयोगी होंगे।

पहला सूत्रः

साहेब, तेरी देखौं सेजरिया हो।

धनी धरमदास कह रहे हैं, तेरी सेज मुझे दिखाई पड़ती है। यह सारा अस्तित्व तेरी सेज है।

सिर्फ अंधे ही हैं जिन्हें परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। और जब कोई आकर कहता है कि परमात्मा कहां है तो वह बड़ा अजीब प्रश्न पूछ रहा है। उसे पूछना चाहिए, मेरी आंखें कहां हैं? लेकिन लोग पूछते हैं, परमात्मा कहां है। लोग पूछते हैं, परमात्मा दिखाई पड़े तो हम मान लें। यह अंधा कह रहा है, रोशनी दिखाई पड़े तो हम मान लें। और जब तक दिखाई न पड़ेगी, हम मानेंगे नहीं। अंधा गलत प्रश्न से यात्रा शुरू कर रहा है।

और जिसने गलत प्रश्न पूछा वह गलत उत्तरों के जाल में पड़ जाएगा। तुमने पूछा, परमात्मा कहां है कि तुम फंसे; कि तुम पंडित-पुरोहित के उपद्रव में फंसे। वह तुम्हें बताएगा परमात्मा कहां है। वह नक्शे बनाएगा, वह स्वर्ग बनाएगा, नरक बनाएगा। वह तुम्हारी मांग की पूर्ति करेगा। इस जगत में कुछ भी मांगो, कोई न कोई पूर्ति करने वाला मिल जाएगा। गलत मांगा तो गलत की पूर्ति करने वाला मिल जाएगा।

इसलिए सम्यक प्रश्न बड़ी अनिवार्य बात है। सम्यक जिज्ञासा ही एक दिन सत्य तक ले जाती है।

सम्यक जिज्ञासा क्या है? सम्यक जिज्ञासा यह है कि मेरे पास देखने वाली आंख नहीं है। पूछो, मुझे परमात्मा दिखाई क्यों नहीं पड़ता है? कृष्ण को दिखाई पड़ता है, क्राइस्ट को दिखाई पड़ता है, मुझे क्यों दिखाई नहीं पड़ता? लेकिन बजाय यह पूछने के कि मुझे क्यों नहीं दिखाई पड़ता, तुम सोचते हो क्राइस्ट पागल रहे होंगे। जो है नहीं उसको देखते हैं, पागल तो होंगे ही। जो नहीं है वह तो पागलों को ही दिखाई पड़ता है।

पश्चिम में बहुत सी किताबें लिखी गई हैं जीसस के संबंध में जिनमें जीसस को न्युरोटिक, पागल सिद्ध करने की कोशिश की गई है। क्योंकि जीसस उन चीजों को देखते हैं जो किसी और को नहीं दिखाई पड़तीं। और पागल का क्या लक्षण होता है? तुम्हें वृक्ष दिखाई पड़ता है, कृष्ण को वृक्ष दिखाई नहीं पड़ता। नहीं कि वृक्ष दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन वृक्ष केवल आवरण है। वृक्ष के भीतर जो हरा है वह परमात्मा है। तुम्हें फूल दिखाई पड़ता है। कृष्ण को भी फूल दिखाई पड़ता है लेकिन फूल की तरह नहीं, प्रतीक की तरह।

फूल के भीतर जो छिपा है, वह जो फूल के भीतर सुर्ख है, लाल है, वह जो फूल के भीतर खिला है वह परमात्मा है। सारी खिलावट उसकी है, सारे रंग उसके हैं, सारी अभिव्यक्तियां उसकी। पत्थर से लेकर फूल तक वही न मालूम कितने रंग रूपों में प्रगट हो रहा है।

तुम्हें लहरें दिखाई पड़ती हैं, जानने वाले को, देखने वाले को लहरें तो दिखाई पड़ती ही हैं लेकिन लहरों में छिपा सागर दिखाई पड़ता है। तुम लहरों पर समाप्त हो जाते हो। तुम पूछते हो, सागर कहां है? मुझे लहरें ही लहरें दिखाई पड़ती हैं, सागर कहां है? और जानने वाला कहता है, लहरें तो हो ही नहीं सकतीं सागर के बिना।

यह सब जुड़ा है। इस सबको जोड़ने वाला जो तत्व है, इस सबको पिरोने वाला जो सूत्र है वही परमात्मा है।

साहेब, तेरी देखौं सेजरिया हो।

धरमदास कहते हैं, तेरी सजी सेज देखता हूं।

और जिसको परमात्मा की सेज दिखाई पड़ने लगे उसके जीवन में आनंद का आविर्भाव हो जाता है। और क्या चाहिए? फिर सेज कितनी ही दूर हो लेकिन मिलन की घड़ी करीब आने लगी। दूर है तो भी दूर नहीं।

इस सेज को देखने से दो घटनाएं पैदा शुरू होती हैं। एक–आनंद का भाव उमगता है कि परमात्मा है। चांद-तारों में उसकी झलक मिलती है। सूरज में किरणें होकर वह उतरता है। हवाओं के झोंकों में वही सुगंध है। लोगों की आंखों में वही आंखों की चमक है। चेहरों पर वही सौंदर्य है। बच्चों की खिलखिलाहट में वही खिलखिलाहट है।

एक तरफ तो आनंद का भाव उमगता है और दूसरी तरफ एक बड़ी गहरी विरह की वेदना भी उठती है कि सेज अभी दूर है। अभी मैं सेज का अंग नहीं हुआ। अभी प्राण प्यारे को मिल कर सेज पर सो नहीं गया हूं। अभी दूरी है। अभी थोड़ा फासला है। अहंकार गलना शुरू हुआ है, मिट ही नहीं गया है।

जब अहंकार गलता है तो परमात्मा दिखाई पड़ना शुरू होता है और जब अहंकार मिट जाता है तो तुम परमात्मा के साथ एक हो जाते हो। दरसन देहु पट खोलिके आपन करि लीजे हो। पहले दर्शन घटता है, तो पहले जरा घूंघट उठाओ, दर्शन दे दो–दरसन देहु पट खोलिके आपन करि लीजे हो। और फिर पीछे अपने में ही मुझे डुबा लो। फिर मुझ सेज पर बुला लो।

साहेब, तेरी देखौं सेजरिया हो।

मेरी नजरें समेट ले जलवे

अपने रुख से जरा नकाब उलट

जैसे ही उसकी झलक मिलनी शुरू होती है–झलक पहले तो घूंघट से ही मिलती है, बहुत बहुत घूंघट के पार मिलती है।

घूंघट में छिपी प्रियतमा को देखा है? दिखती भी है, नहीं भी दिखती। झलक ही मिलती है। लेकिन झलक आशा जगाती है, उत्साह उमगाती है। हृदय आंदोलित हो उठता है। वीणा तरंगित होती है। भीतर कोई गुनगुनाने लगता है। वसंत आ गया!

लाल महल के लाल कंगूरा…

वह जो घूंघट में परमात्मा की थोड़ी सी झलक दिखाई पड़ी है, सारे जगत को लाल कर जाती है। उसकी ही लाली से भर जाती है।

लाल रंग का प्रतीक समझना। लाल रंग बड़ा अनूठा रंग है। इसलिए संन्यास के लिए गैरिक चुना गया है सदियों से। इन सूत्रों में संन्यास के रंग की चर्चा है।

लाल कई चीजों का प्रतीक है। पहलाः जीवन का, क्योंकि रक्त का प्रतीक है। परमात्मा जीवन है।

लाल महल के लाल कंगूरा, लालिनि लागि किवरिया हो।।

लाल पलंग के लाल बिछौना, लालिनि लागि झलरिया हो।।

लाल साहेब की लालिनि मूरत, लालि लालि अनुहरिया हो।।

सब तरफ लाली ही लाली दिखाई पड़ती है।

धरमदास बिनवै कर जोरी, गुरु के चरन बलिहरिया हा।।

और जिस गुरु ने इस लाली की तरफ आंखें खोल दीं उसकी बलिहारी है। कबीर का प्रसिद्ध वचन है, उसकी ही झलक कबीर के शिष्य धनी धरमदास के इस वचन में है।

लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल,

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।

जो इस लाली को देखने जाएगा वह रंग जाएगा। उसमें डुबकी मारी कि तुम भी वही हुए।

तो पहला तो प्रतीक है लाल जीवन का। क्योंकि रक्त जीवन है। रक्त में ही उसकी रसधार है।

खूं बहाता नहीं तू अगर बागबां

फूल कोई गुलिस्तां में खिलता नहीं

तुम्हारी धमनियों में जो दौड़ता है लाल रक्त, वह परमात्मा ही है। तुम्हारे भीतर जो जीवन की ऊर्जा है वह उसी की ऊर्जा है। तुम जब पूछते हो, परमात्मा कहां है, तुम भी कैसी अजीब बात पूछते हो! वही धड़क रहा है तुम्हारे हृदय में। वही दौड़ रहा है तुम्हारी नसों में। वही बोल रहा, वही सुन रहा, वही पूछ रहा है, परमात्मा कहां है? परमात्मा पूछता है, परमात्मा कहां है!

खूं बहाता नहीं तू अगर बागबां

फूल कोई गुलिस्तां में खिलता नहीं

परमात्मा ने अगर अपने को तुममें न बहाया होता तो तुम खिले न होते। तुम होते ही नहीं। तुम पूछने के लिए भी नहीं हो सकते थे। प्रश्न भी न उठता। जिज्ञासा भी न होती, जिज्ञासु भी न होता।

फिर लाल रंग यौवन का रंग भी है; जवानी का, शबाब का। परमात्मा सदा युवा है। जीवन कभी मरता ही नहीं। जीवन कभी बूढ़ा भी नहीं होता। लहरें बच्ची होती हैं कभी, कभी जवान होती हैं, कभी बूढ़ी होती हैं, कभी मर भी जाती हैं। सागर तो सदा जवान है, सदा एकरस। सागर न तो कभी बच्चा है, न कभी जवान, न कभी बूढ़ा। वहां उम्र नहीं होती।

परमात्मा की कोई उम्र नहीं है। परमात्मा पर समय की कोई सीमा नहीं है। हम लहरें हैं इसलिए हमें होना पड़ता है, फिर कभी मिट भी जाना पड़ता है। हम सदा नहीं हो सकते। हम की तरह हम सदा नहीं हो सकते लेकिन परमात्मा की तरह हम सदा हैं। जिस दिन तुम अपने भीतर की भगवत्ता को पहचानोगे, उसी दिन तुम पाओगे, न तुम कभी तुम बच्चे थे, न तुम जवान हो, न तुम बूढ़े हुए, न तुम कभी मरे। यद्यपि बहुत बार मौत आई है, मगर तुम कभी मरे नहीं। और बहुत बार जन्मे लेकिन तुम कभी जन्मे नहीं। तुम अजन्मे, अमृत!

लाली उस यौवन का रंग है।

लाली उत्सव का रंग भी है। परमात्मा उत्सव है। जिन्होंने परमात्मा को अपनी उदासी का आधार बना लिया उन्होंने परमात्मा को पहचाना ही नहीं। तुम्हारे मंदिर-मस्जिदों में अगर उदास लोग बैठे हों तो समझ लेना कि संसार से तो टूट गए हैं, परमात्मा से नहीं जुड़े हैं।

जो परमात्मा से जुड़ गया वह संसारी से ज्यादा आनंदित होना चाहिए; होना ही चाहिए। जब संसार में, क्षुद्र में डूबे हुए लोग इतने प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं तो जो विराट से जुड़ गया उसकी प्रसन्नता का क्या अनुमान लगाएं! उसे कैसे आंकें? कैसे तौलें? किस तराजू पर? सब तराजू छोटे पड़ जाते हैं। यहां कोई किसी स्त्री के प्रेम में पड़ कर इतना मगन हो जाता है और तुम परमात्मा के प्रेम में मगन नहीं हो, बैठे हो उदास मुर्दे की तरह?

तो तुमने परमात्मा की कुछ गलत धारणा बना रखी है। तुमने परमात्मा की लाली नहीं देखी। तुम उससे परिचित नहीं हो। परमात्मा नृत्य है, उत्सव है।

यही मेरी मौलिक अवधारणा है जो मैं तुम्हें देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं, मेरे संन्यासी नाचते हुए संन्यासी हों, आनंदमग्न संन्यासी हों। संसारी को मात कर दें अपने उत्सव में तो ही संन्यासी हैं। संसारी थोड़ी बहुत शराब पी लेता है, इतना मस्त दिखाई पड़ता है, तुम परमात्मा को पीओगे, और तुम शराबी जैसे भी मस्त नहीं हो पाते? तुम परमात्मा को पीते हो और सम्हल-सम्हल कर चल जाते हो? तुम्हारे पैर नहीं डगमगाते? तो तुमने कोई नकली परमात्मा पी लिया। तुमने कोई किताबों का परमात्मा पी लिया। तुम्हारा असली परमात्मा से मिलन नहीं हुआ, आलिंगन नहीं हुआ; अन्यथा तुम पागल हो ही जाओगे मस्ती में। मदमस्त हो जाओगे।

उत्सव का रंग है लाल। इसीलिए तो फूल उत्सव के प्रतीक हैं। फूल लाल हैं।

बहुत करीब है शायद बहार का मौसम

कली-कली मेरे दामन की मुस्कुराई है

जैसे ही वसंत करीब आता वैसे ही कली-कली दामन की मुस्कुरा उठती है। न मालूम कहां-कहां छिपे फूल प्रकट हो जाते हैं। मिट्टी से निकलते हैं फूल। मिट्टी में दबे थे, छिपे पड़े थे। वसंत की प्रतीक्षा थी।

ऐसे ही परमात्मा की प्रतीक्षा है। जैसे-जैसे परमात्मा निकट आता है, तुम्हारे साधारण जीवन में इतनी सुगंध भर जाती है, इतने फूल खिल जाते हैं! तुम्हें स्वयं भी भरोसा नहीं होगा जब पहली दफा फूल खिलने शुरू होते हैं। जब पहली दफा नाच आता है, तुम अपने पैरों पर भरोसा न कर पाओगे कि मेरे पैर और नाच रहे हैं! कि मेरा कंठ और गा रहा है! यह मैंने कोकिल होना कब से जाना? यह मोरपंख का नाच मुझे कब से आया?

तुम्हें याद भी नहीं है। तुमने कभी सीखा हो इसका भी तुम्हें स्मरण नहीं है। तुम्हें पता था, इसका भी कभी पता नहीं था। आज अचानक जाग उठा है।

बहुत करीब है शायद बहार का मौसम

कली-कली मेरे दामन की मुस्कुराई है

और जानना तुम तभी कि तुम्हारे जीवन में धर्म का कुछ पदार्पण हो रहा है, जब कलियां खिलने लगें, जब फूल मुस्कुराने लगें, जब तुम पर लाली फैलने लगे।

तो लाल उत्सव और वसंत और फूलों का रंग है।

फिर लाल क्रांति का रंग भी है। कम्युनिस्टों ने तो बहुत बाद में चुना, संन्यासी हजारों साल से उसे चुने बैठे हैं। फिर कम्युनिस्टों की क्रांति कोई बड़ी क्रांति भी नहीं है। कम्युनिस्टों की विचार पद्धति में बड़ी क्रांति हो भी नहीं सकती। पदार्थ ही पदार्थ है, इसमें बड़ी क्रांति की संभावना नहीं है। मिट्टी ही मिट्टी है, इसमें बड़ी क्रांति की संभावना नहीं है। क्रांति होगी भी तो क्या? एक मिट्टी का ढंग दूसरी मिट्टी का ढंग हो जाएगा।

क्रांति तो घट ही सकती है संन्यासी के जीवन में–जो कहता है, पत्थर से लेकर परमात्मा तक की संभावना है। पत्थर परमात्मा हो सकता है तो क्रांति हो सकती है। पत्थर पत्थर ही होता रहे तो क्या खाक क्रांति! थोड़ा-बहुत फर्क हुआ होगा, थोड़ा-बहुत ढंग बदला होगा। सुधार हो सकता है, कम्युनिज्म में क्रांति की कोई संभावना नहीं है, सुधार की संभावना है–ज्यादा से ज्यादा। वह भी कोई बहुत बड़ा कीमती सुधार नहीं हो सकता, नाममात्र का होगा।

रूस में क्रांति हुई, जार हट गया और जार से बड़ा जार स्टैलिन उसकी जगह बैठ गया। कोई क्रांति नहीं हुई। एक गुलामी गई, दूसरी गुलामी आई। एक गुलामी जब गई और दूसरी आई तो बीच में थोड़ी देर के लिए लोगों को राहत मालूम पड़ी। जैसे कि तुम किसी अरथी को मरघट ले जाते हो तो कंधा बदल लेते हो। एक कंधे पर बोझ बढ़ गया, दूसरे कंधे पर रख लिया। एक कंधे से दूसरे कंधे पर रखने में थोड़ी देर को संक्रमण के काल में राहत मिलती है, मगर फिर दूसरा कंधा दुखने लगता है।

अभी तुम इंदिरा को उतारे थे इस कंधे से, अब दूसरे कंधे पर मोरारजी दुखने के करीब आने लगे। क्रांति होती कहां? कंधे बदले जाते हैं। बीच में तुम बड़े उत्सुक हो लेते हो, बड़े प्रसन्न हो लेते हो कि हो गई क्रांति। आ गया सब कुछ।

कुछ कभी आता नहीं। क्रांति तो सिर्फ एक है, वह धर्म जानता है। वह क्रांति है कि तुम देह न रहो, आत्मा हो जाओ। वह क्रांति है कि संसार संन्यास हो जाए। वह क्रांति है कि पत्थर में परमात्मा दिखाई पड़े।

इतना भेद हो तो क्रांति। क्रांति जैसा बहुमूल्य शब्द आदमियों के बदलने से नहीं होता। जयप्रकाश नारायण को कहो, क्रांति जैसे इतने बहुमूल्य शब्द को ऐसी क्षुद्र बातों के लिए उपयोग नहीं करते। जयप्रकाश तो कहते हैं, आमूल क्रांति हो गई। छोटी-मोटी नहीं, आमूल ही क्रांति हो गई। पत्ता बदला नहीं है, वे कहते हैं मूल बदल गया। पत्ते पर शायद तुमने थोड़ा रंग-रोगन कर दिया होगा। वह भी उतरा जा रहा है। वह भी साल होते-होते सब पानी में बहा जा रहा है। आमूल क्रांति हो गई!

क्रांति सिर्फ एक है, मैं तुमसे कहूं बार-बार, और वह है कि तुम्हें यहां जड़ में चैतन्य का दर्शन होने लगे। यह जगत तुम्हारे लिए परमात्मा से भर जाए, आपूर हो जाए, लबालब हो जाए।

इसलिए संन्यासियों ने सदियों पूर्व लाल रंग चुना था। क्रांति का रंग है क्योंकि अग्नि का रंग है। अग्नि जलाती है और निखारती है; आग्नेय है। अग्नि से जो गुजरेगा सोना, वह निखर कर कुंदन होकर बाहर आता है। जो परमात्मा के लाल रंग से गुजर गया वह निखर जाएगा, कुंदन हो जाएगा। जलाएगा यह लाल रंग–जैसे अग्नि जलाती है। जलना जरूरी है, नहीं तो निखार नहीं होता।

और लाल रंग मदिरा का रंग भी है–बेखुदी का रंग, बेहोशी का रंग, डूब जाने का रंग, विसर्जित हो जाने का रंग। परमात्मा मदिरा है, मधुशाला है। जो मंदिर मधुशाला न हो वह मंदिर नहीं। उसे गलत लोगों ने कब्जा कर लिया होगा। उसे उदास और रुग्ण लोगों ने जकड़ रखा है। वहां वीणा बजनी ही चाहिए। वहां बांसुरी पर गीत उठने ही चाहिए। वहां ढोल पर थाप पड़नी ही चाहिए। वहां पैर में घूंघर बंधने उठने ही चाहिए। वहां नृत्य उठे और लोग मस्त हों। और ऐसे मस्त हों कि उस मस्ती में बिलकुल डूब जाएं। अपनी याद न रहे। अपनी सुध-बुध न रहे। जब अपनी सुध-बुध खोती है तभी उसकी सुध आती है। जब तक अपनी सुध है तब तक उसकी याद नहीं आती।

इन सारी बातों का प्रतीक है लाल रंग। लाल रंग संन्यास का रंग है क्योंकि परमात्मा का रंग है।

साहेब, तेरी देखौं सेजरिया हो।।

धरमदास कहते हैं, तेरी सेज देखता हूं, बड़ी अनूठी है। लाल ही लाल है। सब ढंगों से लाल है।

लाल महल के लाल कंगूरा, लालिनि लागि किवरिया हो।।

तेरे महल के कंगूरे लाल हैं। तेरे महल पर लगे किवाड़ लाल हैं।

लाल पलंग के लाल बिछौना…

तेरा पलंग लाल है, तेरा बिछौना लाल है।

…लालिनि लागि झलरिया हो।।

तेरे द्वार पर लगी झालर भी लाल है।

लाल साहेब की लालिनि मूरत…

तू भी लाल है, तेरा चेहरा भी लाल है।

…लालि लालि अनुहरिया हो।।

सब तरफ लाल ही लाल देख रहा हूं।

धरमदास बिनवै कर जोरी, गुरु के चरन बलिहरिया हो।।

इस परम अनुभूति के क्षण में भी गुरु नहीं भूलता। धरमदास कहते हैं, धन्य भाग मेरे कि गुरु मिले। उन्होंने मेरी आंख खोली और साहब से मिलाया और इस उत्सव को जगाया और इस मधु की धारा को बहाया।

पिया बिन मोहि नींद न आवै।।

और जब तुम्हें सेज करीब दिखाई पड़ने लगे परमात्मा की तो फिर कोई और चीज मन न भाएगी। जब परमात्मा दिखाई पड़ने लगे तो और सब प्रेम फीके पड़ जाएंगे। और सब प्रेम साधारण हो जाएंगे, लौकिक हो जाएंगे। उनका अर्थ खो जाएगा। तुमने जितने प्रेम बना रखे हैं उनमें तभी तक अर्थ है, जब तक परम प्रेम का पदार्पण नहीं हुआ है। तुमने जो घर बना रखे हैं वे तभी तक घर मालूम होते हैं, जब तक परमात्मा का आवास नहीं दिखा है। उसके दिखते ही तुम्हारे महल मिट्टी हो गए, तुम्हारे संबंध साधारण हो गए।

और ध्यान रखना, भक्त यह नहीं कहते कि तुम घर-द्वार छोड़ कर भाग जाना। मगर जो घटना घटती है उसका वर्णन तो करना होगा। जैसे ही परमात्मा का जरा सा अनुभव होना शुरू होता है, इस जगत की सब चीजें फीकी हो जाती हैं; तुलना में फीकी हो जाती हैं। अब जिसके हाथ में कोहीनूर हीरा लग गया हो उसे तुम सस्ते कंकड़-पत्थर सम्हालने को कहो, कैसे सम्हाले? छोड़ना भी नहीं पड़ता और सब छूट जाता है। छूट जाता है इसलिए, क्योंकि विराट दिखाई पड़ जाता है। जो छोड़ता है उससे छूटता नहीं। जिससे छूटता है वही छोड़ पाता है।

भेद को समझ लेना। जो छोड़ता है चेष्टा करके, उसको तो अभी अर्थ था। अर्थ नहीं होता तो चेष्टा क्या करनी थी! कोई आदमी कहता है कि मैं सब छोड़ कर आ गया–धन-दौलत, पत्नी-बच्चे। और उसके चेहरे पर तुम रौनक देखते हो छोड़ने की तो समझना कि कुछ छूटा नहीं। अब यह मजा ले रहा है इस बात में कि देखो, मेरा जैसा त्यागी कोई और है? कितना बड़ा काम कर आया हूं!

एक मुनि से मेरी बात होती थी। वे कहने लगे, शायद आपको पता न हो, लाखों मैंने छोड़े, घर-द्वार छोड़ा। मैंने उनसे कहाः छूटा नहीं। आप लौट जाओ वापस। कहने लगे, मतलब? मैंने कहाः लोग कूड़ा-करकट रोज अपने घर के बाहर फेंकते हैं, उसकी चर्चा नहीं करते कि हमने आज इतना कूड़ा-करकट छोड़ा है; म्युनिसिपल के डब्बे में डाला है। जरा देखो हमारी तरफ! अखबारों में खबर नहीं छपाते कि इतना हमने त्याग कर दिया है।

आपको छोड़े कितना समय हुआ? उन्होंने कहाः कोई तीस साल हो गए। मैंने कहा, तीस साल के बाद भी अभी तुम्हें याद है कि लाखों थे? उन लाखों में अभी भी अर्थ है, रस है। वे लाखों गए नहीं, वे तुम्हारी चेतना को अभी भी घेरे हुए हैं। तुमने छोड़ा मगर वे छूटे नहीं। छोड़ना बाहर की घटना नहीं है, भीतर की घटना है। जिस चीज में से अर्थ खो जाता है वह छूट ही जाती है। फिर चाहे तुम उसके पास ही बैठे रहो। हीरे-जवाहरात तुम्हारे पास पड़े रहें, अगर तुम्हें अर्थ नहीं रहा तो बात छूट गई।

देखा कभी, छोटे बच्चे तुम्हें भी झंझट में डाल देते हैं। छोटे बच्चे को तुम यात्रा पर ले जा रहे हो, वह अपना गुड्डा रखे हुए है। गंदा भी हो गया है, तेल भी लग गया है, धूल भी लगी है…अब छोटा ही बच्चा है उसका गुड्डा भी…! मगर वह साथ ही ले जाना चाहता है। वह कहता है इसके बिना हम जा ही नहीं सकते। इसके बिना वह सो नहीं सकता। तुम उसे लाख समझाओ कि यह गुड्डा है, तू पागल हुआ? इसको छाती से लगा कर सोने की कोई जरूरत नहीं है। हम भी सोते हैं। वह…वह मगर उसे समझ में कुछ नहीं आता। वह गुड्डे के बिना सो नहीं सकता। उसे रात गुड्डा चाहिए ही।

फिर तुम देखते हो, एक दिन घड़ी आती है जब वह समझ जाता है, गुड्डा गुड्डा है। जिस दिन उसे समझ में आ जाता है उस दिन तुम उससे कहो कि बेटा, यह गुड्डा सम्हाल कर रखो, रात सोना है। वह हंसेगा। वह कहेगा, किसको आप…मुझे बुद्धू समझते हो? जिस गुड्डे को वह छोड़ता नहीं था गुड्डा वह कब घर के किसी कोने-करकट में पड़ा रह गया, कब फेंक दिया गया, उसे कुछ याद भी नहीं रह जाती। इसका नाम छूटना।

तुम्हें जब विराट दिखाई पड़ता है, क्षुद्र में से अर्थ खो जाता है। क्षुद्र में अर्थ पहले खो जाए, फिर विराट दिखाई पड़ेगा ऐसा जिन्होंने तुमसे कहा है उन्होंने गलत कहा है। जो तुमसे कहते हैं, पहले कंकड़-पत्थर छोड़ो तब तुम्हें हीरे मिलेंगे, वे गलत कहे हैं। पहले हीरे खोजो, कंकड़-पत्थर छूटेंगे। पहले नई सीढ़ी पर पैर रख लो, नया अनुभव कर लो, नए आयाम को उतर जाने दो, फिर तुम जहां थे उससे छूट जाने में जरा भी अड़चन नहीं होगी। श्रेष्ठ जब मिल जाए तो अश्रेष्ठ को छोड़ने में जरा भी अड़चन नहीं होती।

लेकिन श्रेष्ठ का कुछ पता न हो और अश्रेष्ठ को छोड़ना…बड़ा कष्ट होता है। फिर उस कष्ट की परिपूर्ति के लिए अहंकार को बनाना पड़ता है। इसलिए तुम त्यागियों का सम्मान करते हो। वह सम्मान सिर्फ परिपूर्ति है। तुम यह कह रहे हो, तुमने इतने घाव खाए, इसके बदले में हम तुम्हें सम्मान देते हैं।

जब कोई आदमी मुनि हो जाता है, त्यागी हो जाता है, तुम शोभायात्रा निकालते हो। इसने किया क्या है? अगर संसार व्यर्थ है तो इसने कुछ छोड़ा नहीं। अगर संसार सार्थक है तो उसने छोड़ कर गलती की। दो बातों में कोई भी एक बात सही होगी। इसका जुलूस किसलिए निकाल रहे हो? हां, इसे देख कर अपनी छाती पीट लेते यह समझ में आ सकता था। कि इसने छोड़ दिया और हम बुद्धू की तरह अभी भी पकड़े हुए हैं। मगर इसका जुलूस किसलिए निकाल रहे हो? इसने कोई बहुत बड़ा गुणवत्ता का काम किया? कोई बहुत बड़े गौरव का काम किया? इसे जो था वह दिखाई पड़ गया। इसमें गौरव क्या है? और इसलिए जो गलत अब तक पकड़ रखा था वह इसके हाथ से छूट गया।

छूट गया–खयाल रखना, छोड़ा नहीं। छोड़ा तो घाव रह जाते हैं। छोड़ा तो भीतर चोट रह जाती है। फिर उस चोट को भरने के लिए मलहम-पट्टी चाहिए। वही मलहम-पट्टी समाज को करनी पड़ती है। इनकी पूजा करो, इन्होंने धन छोड़ दिया, पद छोड़ दिया। इनका जुलूस निकालो, इनके चरण छुओ, इनकी सेवा में जाओ। ये बड़े त्यागी हैं।

अब यह अहंकार को भरने की दूसरी तरकीब हुई। पहले ये अहंकार को भरते थे कि लाखों इनके पास हैं। अब इससे अहंकार को भरा जा रहा है कि लाखों इन्होंने छोड़े हैं। और ध्यान रखना, दूसरा अहंकार पहले से ज्यादा सूक्ष्म है और ज्यादा खतरनाक है। शुद्ध जहर है। पहले में तो कुछ अशुद्धि भी थी। पहला तो तुम पीते तो शायद मरते नहीं।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन मरना चाहता था। जहर ले आया, पीकर और सो गया। कई बार आंख खोल कर रात में देखी, अभी तक मरा नहीं? करवट भी बदली, कचोटी भी ली शरीर में। दर्द भी मालूम होता है कचोटी लेता है तो। तो अभी मरा नहीं? मामला क्या है! सुबह भी हो गई, दूध वाला द्वार पर दस्तक भी देने लगा, पत्नी चाय इत्यादि बनाने लगी, घर में बच्चे चहलकदमी करने लगे। उसने कहाः मामला क्या है! अभी तक मरा नहीं?

आंख खोल कर देखी, सब वही का वही है। उठा, दर्पण में जाकर देखा, वही का वही है। भागा गया जहर के दुकानदार के पास, कहा कि यह मामला क्या है? उसने कहाः भाई, हम क्या करें! हर चीज में मिलावट है। कोई जहर आज-कल शुद्ध मिलता है?

अब कोई मरना भी चाहे तो मर नहीं सकता। जी भी नहीं सकता, मर भी नहीं सकता। जहर भी शुद्ध नहीं मिलता।

साधारण आदमी की जिंदगी में जो जहर है वह अशुद्ध जहर है। जिसको तुम त्यागी कहते हो उसकी जिंदगी में शुद्ध जहर है। उसने सब अशुद्धि अलग कर दीं, जहर ही जहर बचा है। उसका अहंकार बड़ा पवित्र अहंकार है। वही शुद्धता है। उसका अहंकार बड़ा धार्मिक अहंकार है। उससे सावधान रहना।

जिसे बोध होता है उसका संसार तो गया ही, उसकी जगह त्याग नहीं आता। त्याग के आने का कोई अर्थ नहीं है अब। उसकी जगह परम भोग का अवतरण होता है।

भक्त परम भोगी है। वह परमात्मा को भोगता है अब। तुम क्षुद्र को भोगते हो, वह विराट को भोगता है। तुम ऊपर-ऊपर की चीजों में पड़े हो, वह भीतर पहुंच गया है। उसने डुबकी मार ली। तुम सागर के किनारे शंख-सीप बीन रहे हो, वह डुबकी मार गया और हीरे इकट्ठे कर रहा है, जवाहरात इकट्ठे कर रहा है कि मोती इकट्ठे कर रहा है।

पिया बिन मोहि नींद न आवै।।

और एक बार झलक मिलनी शुरू हुई परमात्मा की, फिर नींद नहीं, फिर चैन नहीं। फिर पहली दफे विरह की अग्नि जलती है। पहली दफे तुम्हें समझ में आना शुरू होता है, क्या होने को थे और क्या हो गए! क्या पाने के हकदार थे, क्या हमारा अधिकार है–जन्मसिद्ध अधिकार, या कहो स्वरूपसिद्ध अधिकार। परमात्मा होना हमारी क्षमता है। इससे कम पर जो राजी हो गया, जब समझ में आएगा तो वह रोएगा नहीं तो और क्या करेगा? छाती नहीं पीटेगा तो और क्या करेगा?

अश्क आंखों से बह गए मेरी

दर्द दिल से मगर जुदा न हुआ।

रोएगा। आंखों से आंसू बह जाएंगे। लेकिन ये आंसू दर्द को कम नहीं करेंगे, दर्द को बढ़ाएंगे।

अश्क आंखों से बह गए मेरी

दर्द दिल से मगर जुदा न हुआ।

एक अजीब अवस्था में आ जाता है भक्त।

मैं हंसता हूं दिन भर, मैं रोता हूं शब भर

खुदा जाने मुझको यह क्या हो गया है

हंसता भी है क्योंकि जित देखूं तित लाल, लाली मेरे लाल की। सब तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगा। हंसता भी है और रोता भी है क्योंकि अभी मैं लाल नहीं हो गया हूं। लाली चारों तरफ है। सब तरफ फूल खिले हैं। और आज सब तरफ फूल खिले देख कर और सब तरफ आई हुई मधुऋतु को देख कर अपने भीतर फूल नहीं खिले हैं यह बात और अखरती है, काटती है।

किसी में फूल खिले दिखाई न पड़ते होते तो यह भी ठीक था। यह मरुस्थल जैसा अपना जीवन भी ठीक था। ऐसा ही सबका जीवन है; अन्यथा होता कहां है? एक स्वीकार का भाव था, एक सांत्वना थी। आज चारों तरफ दिखाई पड़ता है कि परमात्मा खिला है। मुझे क्या हुआ है? मैं क्यों नहीं खिला हूं? मेरा फूल कहां? मेरी नियति क्या है?

मैं हंसता हूं दिन भर, मैं रोता हूं शब भर

खुदा जाने मुझको यह क्या हो गया है

निकलती ही नहीं दिल से यह जालिम

निगाहे-यार कुछ ऐसी लड़ी है।

परमात्मा के संबंध में जो शब्द सर्वाधिक सार्थक हो सकते हैं, वे प्रेम के शब्द हैं। स्त्री और पुरुष के बीच जो प्रेम घटित होता है, उन्हीं को अनंत गुना कर लो तो परमात्मा और मनुष्य के बीच जो प्रेम घटित होता है, उसका थोड़ा अनुमान तुम्हें होगा। और इस जगत में कोई घटना नहीं है जिससे उसका अनुमान हो सके।

निकलती ही नहीं दिल से यह जालिम

निगाहे-यार कुछ ऐसी लड़ी है

तीर की तरह चुभ जाता। आनंद भी होता है कि धन्यभागी मैं कि उसके तीर ने मुझे चुना और पीड़ा भी होती है कि अब मिलन कब हो? अब एक पल भी दूरी सही नहीं जाती।

पिया बिन मोहि नींद न आवै।।

खन गरजै, खन बिजुली चमके, ऊपर से मोहि झांकि दिखावै।

इधर प्राणों में बादल गरज रहे हैं, बिजलियां चमक रही हैं और मजा देखो यह, कि ऊपर से अपनी झलक दिखा जाता है। इधर जार-जार रो रहा हूं मैं, इधर आंसुओं से आंखें भरी हैं, इधर प्राणों में कांटे चुभे हैं, यहां रोआं-रोआं जल रहा है विरहाग्नि से और उसका मजा देखो–

खन गरजै, खन बिजुली चमके, ऊपर से मोहि झांकि दिखावै।

और बार बार उसकी झांकी हो जाती है। बिजली में भी उसी की चमक मालूम पड़ती है और बादलों के गर्जन में भी उसी की आवाज, उसी का नाद मालूम पड़ता है। आंसुओं में भी वही बहता मालूम पड़ता है और आग में भी वह लपटता मालूम पड़ता है।

जाते ही उनके खुल गए यादों के मैकदे

गो उनसे लाख दूर हूं फिर भी नशे में हूं

दूरी है फिर भी नशा है। कभी-कभी भक्त पास भी आ जाता है इस नशे में। कभी रोते-रोते करीब भी आ जाता है। आंसुओं से बेहतर सेतु नहीं है। इसे दोहरा दूं–आंसुओं से बेहतर कोई प्रार्थनाएं नहीं हैं। जो रोना जानता है उसे कुछ कहने की जरूरत नहीं है। जो आंखों से कहना जानता है उसे शब्दों से कहने की जरूरत नहीं है।

जब तुम्हारे आंसू बहने लगें, तुम करीब आ जाते हो। आंसुओं से ज्यादा परमात्मा के करीब और कोई चीज नहीं लाती। न सिद्धांत, न शास्त्र, न तुम्हारी रटी हुई तोतों जैसी प्रार्थनाएं, न तुम्हारे श्लोक, न तुम्हारे भजन, न तुम्हारे कीर्तन। आंसू जितने करीब लाते हैं, और कोई चीज करीब नहीं लाती। क्योंकि आंसू सीधे हृदय से आते हैं। और आंसू प्राकृतिक हैं। शब्द तो सब सीखे गए हैं, सामाजिक हैं। और आंसू तुम्हारे हृदय को कंपा जाते हैं। वही कंपन परमात्मा के करीब लाता है। उसी कंपन में तुम्हारी लय उससे बंध जाती है। उसी कंपन में तुम उसके साथ हो लेते हो।

मेरे अश्कों का करिश्मा देखिए

सामने वो मुस्कुरा कर आ गए

जरा दिल खोल कर रोना सीखो और तुम चकित हो जाओगे; इधर आंखें आंसुओं से क्या भरती हैं, परमात्मा की झलक आंसुओं से मिलने लगती है। आंसू जैसे दर्पण बन जाते हैं।

मेरे अश्कों का करिश्मा देखिए

सामने वो मुस्कुरा कर आ गए

जितना रो सकोगे उतने करीब आओगे। और ध्यान रखना, इस रोने में दुख भी है और इस रोने में आनंद भी है। यह बड़ी विरोधाभासी दशा है। इसको हम ऐसा नहीं कह सकते कि आंसू सिर्फ दुख के हैं। अगर दुख के हैं तो भक्त उदास होगा। इसको हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि सिर्फ सुख के हैं। ये दोनों के मध्य हैं। इसमें एक तरफ भारी दुख है कि और जल्दी घटना क्यों नहीं घटती? और एक तरफ बड़ा धन्य भाव है कि घट तो रही है, पहुंच तो रहे हैं, करीब आना तो हो रहा है! इतने करीब आए यह भी क्या कम है!

सासु ननद घर दारूनि आहैं, नित मोहि बिरह सतावै।।

सास-ननद का प्रतीक लिया है धरमदास ने। जो अपने हैं वही परमात्मा के बीच बाधा बन जाते हैं। जिनको तुमने अपना माना है वही बाधा बन जाते हैं। और उसके पीछे कारण है। क्यों बाधा बन जाते हैं? क्योंकि ईष्र्या उमगती है।

यह सास का और बहू का झगड़ा बड़ा पुराना है। क्यों है? मनस्विद से पूछो, यह झगड़ा मिटेगा नहीं। यह मिट नहीं सकता। इसे समझो थोड़ा, तो उससे तुम दूसरे सूत्र को भी समझ पाओगे। इसी संसार को समझने से तो हम धीरे-धीरे परमात्मा को समझ पाते हैं।

सास और बहु का झगड़ा क्या है? मां ने अपने बेटे को प्रेम किया था। नौ महीने पेट में रखा था। फिर वर्षों तक उसकी सेवा की है, सब तरह के कष्ट उसके साथ सहे हैं। रात सोयी नहीं है, बीमार रहा है तो जागी है। हजार तकलीफें आई हैं, उनको पार किया है। और अचानक यह बेटा एक दिन किसी और स्त्री का हो जाता है; इससे बड़ी ईष्र्या पैदा होती है।

मां को भारी ईष्र्या पैदा होती है कि यह मेरा बेटा किसी और स्त्री का हो गया? यह बहुत चेतन में नहीं होती, इसलिए किसी मां से पूछना मत। उसके चेतन में नहीं होती। यह उसके अचेतन हिस्से का अंग है। उसके अचेतन में होती है। आज वह देखती है हर बात में कि बेटा उससे मिलने को वैसा उत्सुक नहीं है जैसे पहले था। हो भी नहीं सकता। उसका आंचल पकड़ कर घूमता था, अब आंचल पकड़ कर घूम भी नहीं सकता। घूमना उचित भी नहीं है। आखिर एक समय तो मां का आंचल छोड़ ही देना होगा। और जो बेटा न छोड़ पाए वह रुग्ण है, बीमार है।

अब यह बेटा किसी स्त्री से मिलने को उत्सुक होता है, मां से मिलने को ज्यादा उत्सुक नहीं होता। मिलता भी है तो औपचारिक। पास आकर बैठ भी जाता है, दो बातें भी कर लेता है तो वह ऐसे ही मौसम इत्यादि की, कि तबीयत इत्यादि कैसी है। मगर एक फासला बढ़ना शुरू होता है।

मां के कष्ट को तुम समझना। यह बेटा एक दिन उसके पेट में इतना अपना था कि एक ही था उसके साथ। फिर पेट से बाहर हुआ, फासला पहला शुरू हुआ। अलग हुआ। फिर डाक्टर ने बीच में दोनों के जोड़ भी था, वह भी काट दिया। फिर भी लेकिन बेटा मां के दूध पर निर्भर था। उसके स्तनों से जुड़ा था। वही उसका भोजन थी, वही उसका जीवन थी। एक दिन दूध भी गया। यह बेटा अब खुद अपना भोजन लेने लगा। और भी संबंध टूटा।

यह संबंध टूटने की लंबी कथा है। मां और बेटे का संबंध, संबंध टूटने की कथा है। फिर एक दिन यह स्कूल चला गया। फिर एक दिन विश्वविद्यालय चला गया। फिर वहीं रहने लगा। वर्षों में कभी आता छुट्टियों में। कभी चिट्ठी-पत्री आ जाती है। और फिर एक दिन आखिरी संबंध टूट गया, जब एक और स्त्री इसके जीवन में आ गई। तब उस स्त्री ने आकर इसको फिर सम्हाल लिया। उस स्त्री ने पूरा कब्जा ले लिया।

रूस में एक कहावत है कि मां एक बेटे को बुद्धिमान बनाने के लिए पच्चीस साल लगाती है और एक दूसरी स्त्री, पांच मिनट नहीं लगते और बुद्धू बना देती है। पच्चीस साल बुद्धिमान बनाने में और पांच मिनट बुद्धू बनाने में!

चोट तो मां को लगती होगी। किए-धरे पर पानी फेर दिया। एक अचेतन ईष्र्या का जन्म होता है। वह बहू को बरदाश्त नहीं कर पाती।

और बहू के मन में भी मां को बरदाश्त करना कठिन होता है। क्योंकि उसे पता है कि यह बेटा मां के साथ इतना इकट्ठा रहा है जितना इकट्ठा मेरे साथ कभी नहीं हो सकेगा। यह मेरे गर्भ में समा नहीं सकता। ज्यादा से ज्यादा इसका प्रतीक–इसका बेटा मेरे गर्भ में समा सकता है, यह नहीं समा सकता। प्रेयसी चाहेगी कि यह मुझमें इस तरह डूब जाए जिस तरह एक दिन मां में डूबा था और बिलकुल एकरस था, एक तरंग था। जरा भी भेद नहीं था। मां का हृदय धड़कता था तो यह धड़कता था। मां की श्वास चलती थी तो इसकी श्वास चलती थी। ऐसा यह मेरे साथ हो जाए।

यह हर पत्नी की आकांक्षा है। मगर यह हो नहीं सकता। यह संभव नहीं है। और यह संभव किसी के साथ हुआ था। बहू भी मां को माफ नहीं कर सकती। मां भी बहू को माफ नहीं कर सकती। यह कलह है।

बहनें भी माफ नहीं कर सकतीं घर में आई भाभी को। क्योंकि भाई उनका था; बिलकुल उनका था। आज अचानक अधिकार गया, एकाधिकार गया। आज बहनों को साफ-साफ पता है कि अब भाई किसी और का है। संबंध अब औपचारिक होंगे। भाई का सारा प्रेम अब अपनी प्रेयसी की तरफ बहा जाता है।

यही अड़चन परमात्मा के प्रेम में और भी बड़ी होकर आती है। क्योंकि जब कोई परमात्मा के प्रेम में उत्सुक हो जाता है तो जिन-जिन से प्रेम किया है उन सभी को परमात्मा से ईष्र्या खड़ी हो जाती है। इसलिए संसार में तुम जब तक परमात्मा के प्रेम में नहीं पड़े हो, एक तरह की सुविधा रहेगी। जिस दिन तुम परमात्मा के प्रेम में पड़े, अगर तुम स्त्री हो तो तुम्हारा पति बाधा डालेगा। अगर तुम पुरुष हो तो तुम्हारी पत्नी बाधा डालेगी। तुम्हारे बेटे बाधा डालेंगे। क्योंकि उन सबको लगेगा कि और उपद्रव का सूत्रपात हुआ। और परमात्मा का प्रेम तो ऐसा है कि तुम्हारी सारी जीवन चेतना को खींच लेगा। सब वंचित हो जाएंगे। किसी की तरफ तुम्हारे जीवन से प्रेम की धार बहनी बंद हो जाएगी।

इससे घबड़ाहट पैदा होती है। इसलिए धार्मिक कोई हो जाए घर में तो सारा घर विरोध करता है। हजार-हजार तरह के बहाने खोजता है लेकिन मौलिक कारण यह है।

यहां मेरे पास कोई आकर संन्यस्त हो जाता है, फिर अड़चन शुरू होती है। उसकी पत्नी रोती चली आती है। मैं उसको कहता हूं कि यह घर नहीं छोड़ रहा है। यह मेरा संन्यास घर छोड़ने वाला संन्यास नहीं है। यह कायर संन्यास नहीं है। यह भगोड़ा संन्यास नहीं है। यह घर में ही रहेगा। जैसा था वैसे ही रहेगा, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन वह कहती है, नहीं, फर्क तो पड़ ही गया। आप क्या कहते हैं फर्क नहीं पड़ेगा? घर छोड़ कर न जाए मगर फर्क तो पड़ ही गया। मेरे और इसके बीच यह गैरिक रंग फर्क डाल रहा है। आपकी माला इसके गले में देखती हूं, मुझे बेचैनी होती है। यह मेरा नहीं रहा। यह आपका हो गया।

मैं समझता हूं। यह अड़चन तो है। वह ठीक ही कह रही है।

अब मैं जानती हूं कि यह मेरे पास बैठा है लेकिन सोच आपकी रहा है। विचार आपका कर रहा है। आपने क्या कहा है उसका हिसाब बिठा रहा है। यह दुकान पर भी रहेगा लेकिन मन अब इसका वहां नहीं है। आपने यह क्या कर दिया!

तो पत्नी बाधा डालेगी, पति बाधा डालेगा, मित्र बाधा डालेंगे। इसे समझना। तुम जैसे ही उनसे अन्यथा होने लगोगे, वे सभी बाधा डालेंगे। क्योंकि वे बरदाश्त नहीं कर सकेंगे कि अचानक तुम्हारे जीवन में कोई एक ऐसा सूत्र आ जाए, जिनके कारण उनके सारे संबंध अस्त-व्यस्त हो जाएं। वही अर्थ हैः

सासु ननद घर दारूनि आहैं…

बड़ी कठोर हैं सास, बड़ी कठोर है ननद। ये सारे लोग कठोर हो उठे हैं मुझ पर। जब से तुम्हारी सेज दिखाई पड़ी है और जब से तुम्हारी तरफ चलना शुरू हुआ है, सारे संसार के लोग मेरे प्रति बड़े कठोर हो गए हैं।

…नित मोहि बिरह सतावै।

ये सब मुझे पीछे खींच रहे हैं और मैं तुम्हारी तरफ आने को आतुर हूं। बड़ी संकट की अवस्था खड़ी हो जाती है। और इस अवस्था को पैदा करने में तथाकथित धार्मिकों ने भी हाथ बंटाया है। सदियों से उन्होंने संन्यास की एक ऐसी परंपरा पकड़ रखी थी, जो जीवन विरोधी थी। इसलिए लोगों के मन में बड़ा भय पैदा हो गया है। संन्यास शब्द ही भय पैदा करने वाला हो गया है। संन्यास शब्द में माधुर्य नहीं रहा, रस नहीं रहा। संन्यास शब्द में एक तरह की शत्रुता है संसार के प्रति; निंदा है संसार के प्रति।

और इसलिए लोग घबड़ा जाते हैं, चैंक जाते हैं। लोग कहते हैं, ऐसे औपचारिक धर्म ठीक है। कभी मंदिर हो आए, कभी साधु के चरण छू आए, कभी पूजा पाठ कर लिया। यह सब ठीक है, मगर प्रामाणिकता से धर्म में उत्सुकता ली कि लोग विरोध में हो जाते हैं। अप्रामाणिक रूप से उत्सुकता लो, ठीक है। कभी दान कर दो, कोई हर्जा नहीं है। कभी मंदिर में दो पैसे चढ़ा दो, कोई हर्जा नहीं है। और कभी-कभी रविवार को चर्च हो आओ, किसी को कोई अड़चन नहीं है।

सच तो यह है, रविवार वाले चर्च में पत्नी भेजती है पति को कि जाओ, जाना ही चाहिए। बाप भी बेटों को भेजता है, जाना ही चाहिए। पति भी पत्नी को कहता है कि जाना चाहिए। सबको जाना चाहिए। वह सामाजिक औपचारिकता है, सामाजिक लोक व्यवहार है। वह असली धर्म नहीं है। असली धर्म के भय के कारण लोगों ने नकली धर्म पैदा कर लिया है, जिसमें कोई खतरा न हो। अपने को बचा कर जहां से वापस आ सकें, ऐसा धर्म पैदा कर लिया है। जैसे के तैसे वापस आ सकें।

इसलिए जब भी कोई बुद्ध या कोई कबीर या कोई नानक इस जगत में आता है तो अड़चन शुरू होती है। क्योंकि वह इस झूठे औपचारिक धर्म को तोड़ देता है। वह वास्तविक धर्म को देना शुरू करता है।

लेकिन धार्मिकों का हाथ भी है। बुद्ध की बात मान कर जो लोग संन्यस्त हो गए उनके घरों की हम थोड़ा सोचें। पत्नियां, बच्चे अनाथ हो गए। हजारों परिवार उजड़ गए। महावीर की मान कर जो संन्यस्त हो गए उनके परिवारों की भी तो सोचो! और बड़ा मजा यह है कि महावीर को मान कर जो संन्यस्त हुए, ये पैर भी फूंक-फूंक कर रखते हैं। चींटी न मर जाए इसकी चिंता है और बच्चों की हत्या करके आ गए हैं। पत्नी की गर्दन उतारकर आ गए हैं।

ये अहिंसक हैं! ये जो तुम्हारे मुनि इत्यादि बैठे हैं मंदिरों में, ये महा हिंसक हैं। अहिंसा इनको छू भी नहीं गई है। जो लोग बुद्ध की बात मान कर–हजारों लोग! थोड़ी बहुत संख्या में नहीं, लाखों लोग संन्यस्त हुए, भिक्षु हुए, इनके परिवारों की कोई कथा तो लिखे! इनके परिवारों की कोई बात तो चलाए! इनके परिवारों पर क्या गुजरी? बच्चों ने भीख मांगी, स्त्रियां वेश्याएं बनीं, इनकी कोई चर्चा भी नहीं करता। क्योंकि चर्चा कौन करे! नहीं तो बुद्ध पर लांछन चला जाएगा। महावीर पर लांछन चला जाएगा। इनकी चर्चा कोई नहीं उठाता।

एक बड़ा महत्वपूर्ण इतिहास अछूता पड़ा है। इसको किसी न किसी को छेड़ना ही चाहिए कि बच्चे कहां गए इनके? मरे, जिंदा रहे, भीख मांगी? इनकी पत्नियों ने क्या किया? वेश्यागिरी की कि आत्मघात कर लिया! इस सबका जुम्मा किस पर है? और ये बेचारे चींटी भी न मर जाए, फूंक-फूंक कर चलते रहे। यह भी बड़ी मजे की बात हुई।

कई बार ऐसा हो जाता है कि छोटी-छोटी चीजों का तो तुम हिसाब रख लेते हो और बड़ी-बड़ी चीजों को भूल ही जाते हो। इसलिए मैं एक नये संन्यास की शुरुआत कर रहा हूं। ऐसा संन्यास पृथ्वी पर कभी नहीं था, जो सिर्फ आंतरिक रूपांतरण है। और बाहर जैसा है, सब वैसा ही रहे। फिर भी भय तो पुराना है। संन्यास शब्द पुराना है।

एक युवक ने संन्यास लिया, मैं सोहन के घर मेहमान था। उसकी मां आ गई। वह तो चिल्लाती, रोती–मोटी स्त्री है, और भारी शोरगुल मचाती। वह तो आकर लोटने लगी फर्श पर। मैं उसको कहूं कि तू सुन भी तो! यह संन्यास घर से भागने वाला नहीं है। वह कहे, मुझे कुछ सुनना ही नहीं है। माला वापस लो, मेरा एक ही बेटा है। मैं कहूं तेरा एक ही है, छीनते नहीं हैं। वह सुने ही नहीं। वह कहे, मैं मर जाऊंगी। और लोट रही, पोट रही।

उसकी भी बात मुझे समझ में आती है। उसके इस लोटने-पोटने में हजारों साल की व्यथा है। संन्यास शब्द ही जहरीला हो गया है। उस पर मैं नाराज नहीं हूं। उसको लोटते-पोटते देख कर मैं बुद्ध और महावीर की सोचने लगा था। इसमें कितनी स्त्रियों का लोटना-पोटना छिपा है, कितनी दारुण कथा छिपी है! यह सुनने को भी राजी नहीं है। संन्यास शब्द पर्याप्त है। उसके, संन्यास शब्द के साहचर्य इतने विकृत हो गए हैं…।

ऐसा समझो न कि तुम सिनेमा-घर में बैठे हो, कोई चिल्ला दे, आग! आग! और लगे भागने। फिर इसकी भी कोई फिकर नहीं करता कि आग लगी है या नहीं लगी है या किसी ने मसखरी की है, इसकी भी कौन फिकर करता है! आग शब्द का मामला ऐसा है। शब्द ही घबड़ा देता है। संन्यास…! अब वहां भभूतमल पीछे बैठे हुए हैं, अब वे कितने दिन से सोच रहे हैं संन्यास लेना है, मगर पत्नी कहती है, संन्यास? बस, अड़चन है, घबड़ाहट है। मेरे संन्यास में घबड़ाहट है, जो कि तुम्हें तोड़ता नहीं, जो कि तुम्हें जोड़ देता है।

मगर जब धनी धरमदास ने ये वचन कहे तब संन्यास तोड़ने वाला ही था। और भी अड़चन रही होगी।

सासु ननद घर दारूनि आहैं, नित मोहि बिरह सतावै।

जोगिन व्हैके मैं बन-बन ढूंढूं, कोऊ न सुधि बतलावै।

किधर-किधर नहीं पहुंची है हुस्ने-यार की बात

कहां-कहां मेरी वहशत का तजकरा न गया

और इधर तुम पागल होने शुरू हुए परमात्मा में कि चारों तरफ अफवाहें उड़नी शुरू होती है।

किधर-किधर नहीं पहुंची है हुस्ने-यार की बात

कहां-कहां मेरी वहशत का तजकरा न गया

जगह-जगह खबर पहुंचनी शुरू हो जाती है। राह चलते लोग पूछने लगते हैं, भाई क्या हो गया? दिमाग तो ठीक है? यह क्या पागलपन चढ़ा है तुम्हें? जो तुमसे कभी बोले न थे, जिन्होंने कभी तुममें कोई उत्सुकता न ली थी, वे भी तुम्हें समझाने आने लगते हैं। तुम्हें मेरी बात समझ में न आए, संन्यास लेकर देखो! अपरिचित, अनजान, राह चलते राहगीर टोक लेते हैं कि भई, तुम्हें क्या हो गया?

और एक बड़े मजे की बात है। चित्त का विरोधाभास कैसा है! ये वे ही लोग हैं, जो संन्यासियों के चरण भी छूते हैं, महात्माओं के पास भी जाते हैं। यह बड़ी अजीब बात है। अगर संन्यास से इतना भय है तो संन्यासियों के पास जाना बंद करो। लेकिन उसमें और एक भय है कि कहीं संन्यासी ठीक ही न हों।

तो इन्होंने इंतजाम कर लिया है, एक समझौता कर लिया है कि हम तो संन्यास कभी न लेंगे। तुम तो ले ही लिए हो, हम तुम्हारे चरण छुएंगे। कुछ न कुछ पुण्य लाभ, कुछ न कुछ जूठन हमें भी मिल जाएगी। हम तो बचेंगे संन्यास से, मगर तुमने ले लिया, बड़ा अच्छा किया। इनके पैर छूकर एक तरह का प्राॅक्सी संन्यास–कि चलो हम कम से कम श्रद्धा तो करते हैं। हमारा भाव तो देखो। भाव तो अच्छा है। अभी थोड़ा साहस की कमी है, कभी साहस होगा तो करेंगे। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में।

और ऐसा ये कई जन्मों से चरण छू रहे हैं महात्माओं के। चरण छूने का इनका अयास भारी हो गया है। ये चरणदास हो गए हैं! मगर इनके जीवन में कोई क्रांति नहीं होती।

जोगिन व्हैके मैं बन-बन ढूंढूं, कोऊ न सुधि बतलावै।

यहां किसी को पता हो तो कोई बतलाए! जिनको तुम सोचते हो पता है, उनको भी पता नहीं है। तुम जब सोचना शुरू करते हो, खोजना शुरू करते हो तब तुम्हें पता चलता है कि किनको पता है, किनको पता नहीं है।

बुद्ध ने जब यात्रा शुरू की तो वे अनेक गुरुओं के पास गए। जिस गुरु के पास गए, उन्होंने बड़े अनन्यभाव से उस गुरु के चरणों में अपने को समर्पित किया। उनकी खोज, उनकी निष्ठा अपूर्व थी। वे निश्चित ही खोजने निकले थे। सारा जीवन दांव पर लगाने की तैयारी थी। वह कुछ ऐसी कुनकुनी खोज नहीं थी, ज्वलंत खोज थी। जिस गुरु ने जो कहा वही किया। और हर गुरु ने उनसे आखिर में क्षमा मांगी और कहा कि मुझे माफ करो। मुझे असल में खुद भी पता नहीं। जो मैंने सुन रखा था, इधर उधर से इकट्ठा कर रखा था वह तुमसे बता दिया। अब अगर इससे नहीं होता तो तुम कोई और गुरु खोजो।

जब गुरुओं के पास गए तब पता चला कि गुरुओं में भी गुरु शायद ही कोई हो। जब तक तुम खोजते नहीं तब तक तुम्हें कुछ अड़चन भी नहीं होती।

ऐसा समझो न कि तुम रोज बाजार से निकलते हो, तुम्हें हीरे खरीदने ही नहीं हैं तो किस दुकान पर असली हीरे बिकते हैं और किस दुकान पर नकली पत्थर बिकते हैं, तुम्हें लेना देना क्या? सब असली हों कि सब नकली हों, तुमने कभी इस पर विचार ही नहीं किया। तुमने हीरे खरीदे ही नहीं हैं, न खरीदने हैं। तुम क्यों चिंता में पड़ो? तुम्हारी नजर ही हीरों की दुकान की तरफ नहीं जाती।

जिस दिन हीरा खरीदना है उस दिन सवाल उठता है। उस दिन तुम विचार करोगे कि कौन सा असली, कौन सा नकली। जौहरी को दिखाओगे, जांच करवाओगे। तब तुम्हें हैरानी होगी कि कई दुकानें तो सिर्फ पत्थर बेचती हैं। जिन दुकानों पर हीरे भी बिकते हैं, उन पर भी बहुत तो पत्थर ही हैं, हीरे तो कुछ हैं। क्योंकि लेनदार ही कभी आता है। खरीददार ही कभी आता है। हीरे की परख कहां है?

जोगिन व्हैके मैं बन-बन ढूंढूं…

धनी धरमदास कहते हैं, गांव-गांव भटकता हूं, जंगल-जंगल जाता हूं, जहां खबर मिलती है कि किसी को खबर है वहां जाता हूं, लेकिन कोऊ न सुधि बतलावै। कोई मुझे परमात्मा का पता नहीं बतलाता। कोई गैल नहीं बताता, राह नहीं बताता, द्वार नहीं बताता।

अहसास भी होने लगा है कि परमात्मा सब तरफ है लेकिन कहां से पकड़ूं? किस दिशा से उसमें छलांग लगाऊं? किस किनारे से कूदूं? कौन सा घाट मेरा घाट है, जिससे मैं उतरूं तो दूसरे पार पहुंच जाऊं? दूसरा पार दिखाई पड़ रहा है। दूसरा पार है इसका भरोसा भी आ गया है लेकिन किस घाट को तीर्थ बनाऊं?

वह करम उस वक्त करते हैं हमारे हाल पर

जब हमारे हाल की हमको खबर होती नहीं

लेकिन जब कोई ऐसा विरहिणी होकर, जोगिन होकर भटकता है, द्वार-द्वार दरवाजे-दरवाजे खटखटाता है भिक्षापात्र लेकर कि मुझे कोई पता बता दो, कि मेरा प्यारा कहां है। झलक तो मिलती है, स्वर भी सुनाई पड़ते हैं लेकिन किस दिशा से आते हैं, कुछ समझ नहीं बैठती। कहां जाऊं, कैसे खोजूं, कैसे मिलन हो जाए? जब कोई विरह में भटकता है, भटकता है और ऐसी घड़ी आ जाती है–आखिरी घड़ी, सब तरह से हताश और निराश और असहाय हो जाता है…

वह करम उस वक्त करते हैं हमारे हाल पर

जब हमारे हाल की हमको खबर होती नहीं

उस क्षण परमात्मा की कृपा बरसती है। कोई विधि नहीं है परमात्मा को पाने की–विरह, रोता हुआ हृदय, पुकारती हुई आत्मा, सब दांव पर लगाने की तैयारी। हजार द्वार खटखटाने पड़ते हैं तब उसका द्वार आता है। और ऐसा नहीं है कि उसका द्वार दूर है, मगर हजार द्वार खटखटाने से ही आता है।

एक सूफी फकीर बैठा है एक वृक्ष के नीचे। और एक युवक ने आकर कहा कि मुझे गुरु की तलाश है, मैं कहां खोजूं? और अगर मुझे गुरु मिल जाए तो मैं पहचानूंगा कैसे? तो उस गुरु ने कुछ लक्षण बताए, कि वह इस तरह के वृक्ष के नीचे बैठा मिलेगा, इस तरह के कपड़े पहने होगा, इस तरह की उसकी आंखें होंगे। तू जा, खोज, मिल जाएगा।

वह युवक खोजता रहा, खोजता रहा, खोजता रहा–तीस साल! बूढ़ा हो गया तब थका मांदा, सब तरह से पराजित होकर कि न कोई गुरु है, न कोई परमात्मा है। कहीं मिलता ही नहीं। एकदम हताश होकर अपने गांव वापस लौटा। थका मांदा उसी वृक्ष के नीचे बैठा। वह बूढ़ा अभी भी जिंदा था, बहुत बूढ़ा हो गया था।

जब उस वृक्ष के नीचे बैठा तो बड़ा हैरान हुआ। यह तो वही वृक्ष था जिसकी इस बूढ़े ने बात की थी। और बूढ़ा उसी ढंग का आदमी था, जिस ढंग की इसने बात की थी। एकदम चरण पकड़ लिए और कहा कि हद्द कर दी! मेरी जिंदगी बरबाद कर दी। मैं तुमसे ही तो पूछा था, अगर तुम ही मेरे गुरु थे तो कहा क्यों नहीं?

उस बूढ़े ने कहाः ये तीस साल अगर तुम भटकते न तो तुम मुझे पहचानते न। मैं तो था, गुरु तो था लेकिन शिष्य कहां था? इन तीस साल ने तुम्हें शिष्य बनाया। दर-दर भटके और ठोकरें खाईं, असहाय हुए, अहंकार गिर गया तुम्हारा। अहंकार अंधा बना रहा था। उस दिन भी यही वृक्ष था मगर…मैंने तो परिभाषा की थी कि इस वृक्ष के नीचे बैठा मिलेगा गुरु। यही वृक्ष था।

और युवक ने कहाः याद आता है, यही वृक्ष था। आप इसी जगह बैठे थे। और यही मैं हूं। और यही मैंने…अपना ही वर्णन किया था तुझसे। और किसी गुरु को मैं जानता भी नहीं। अपना ही वर्णन किया था। लेकिन तूने सुना और चल पड़ा। तो एक बात पक्की थी कि तू अभी अंधा है। तीस साल चोट खा-खा कर तेरी आंख खुली। अब तू पहचान सकता है।

तेरी मुसीबत की फिकर छोड़, मेरी मुसीबत की सुन। तीस साल से तेरी राह देख रहा हूं। अब मैं कितना बूढ़ा हो गया हूं यह भी तो सोच। तू तो जवान था तो भटकता रहा। मैं किस तरह अपनी श्वास को अटकाए बैठा हूं कि कहीं तू आए वापस, और मैंने जो परिभाषा दी थी उसको पूरा कौन करेगा?

जोगिन व्हैके मैं बन-बन ढूंढू, कोऊ न सुधि बतलावै।

धरमदास बिनवै कर जोरी, कोई नेरे कोई दूर बतावै।

कोई कहता है परमात्मा बहुत पास है, कोई कहता है परमात्मा बहुत दूर है। कोई कहता है परमात्मा सगुण है, कोई कहता है परमात्मा निर्गुण है। कोई कहता है परमात्मा का आकार, कोई कहता है निराकार। और उलझ जाती है बात, सुलझती नहीं। सुधि तो कोई नहीं दिलवाता, उलटे दर्शन की बातें होती हैं, तत्वचर्चा होती है।

और धरमदास जानते हैं कि फासला ज्यादा नहीं है क्योंकि उसकी लाली चारों तरफ दिखाई पड़ती है। उसकी ही धूप में हम खड़े हैं, उसी की धूप में नहा रहे हैं। उसी की श्वास हमारे भीतर प्राण बन कर चल रही है। उसी का खून हमारे भीतर बह रहा है। दूर भी नहीं है।

सच तो यह है, उसे दूर भी कहना गलत, उसे पास भी कहना गलत। क्योंकि वह पास से भी पास है। तुम ही हो वह। तो जो कहता है दूर, वह गलत कहता है। जो कहता है पास, वह गलत कहता है।

क्योंकि पास भी तो दूरी का नाम है। पास भी तो एक तरह की दूरी है। कितने ही पास हो तो भी दूरी तो रहती ही है। दूरी में जरा ज्यादा दूरी, पास में थोड़ी कम दूरी, मगर दूरी में तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। और जरा सी दूरी में भी तो चूक हो सकती है।

थोड़े से फासले में भी हायल हैं लिग्जिशें

साकी सम्हाल कर मेरे, साकी सम्हाल कर

जरा से फासले में तो आदमी गिर सकता है। एक कदम पर तो चोट खा सकता है। एक कदम पर तो भटक सकता है। एक कदम गलत कि सब गलत हो जाता है और एक कदम सही कि सब सही हो जाता है।

तो पास से पास भी बड़ी दूरी है। और दूर से दूर भी बहुत दूर नहीं है। अगर ठीक दृष्टि हो, ठीक छलांग हो तो एक कदम में यात्रा पूरी हो जाती है। सच तो यह है, न वह दूर है, न वह पास है; वह तुम्हारे भीतर है। तुम हो।

इसका पता जब तक कोई न बताए तब तक गुरु नहीं मिला।

भगति-दान गुरु दीजिए, देवन के देवा हो।

चरनकंवल बिसरौं नहीं, करिहौं पदसेवा हो।

तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।

तुमहिं ओर निरखत रहौं, मेरे और न दूजा हो।।

आठ सिद्धि नौ निद्धि हों, बैकुंठ-निवासा हो।

सो मैं ना कछु मांगहूं, मेरे समरथ दाता हो।

सुख संपत्ति परिवार धन, सुंदर वर नारी हो।

सपनेहुं इच्छा ना उठे, गुरु आन तुम्हारी हो।।

धरमदास की बीनती साहेब सुनि लीजै हो।

दरसन देहु पट खोलिके, आपन करि लीजै हो।।

खोजते-खोजते गुरु का द्वार आ गया। धरमदास ने बहुत-बहुत गुरुओं को खोजा तब कबीर को पाया।

जो खोजता है वह पाता है। हालांकि खोज कठिनाई से भरी है। यहां रास्ते में बहुत धोखे भी हैं, बहुत धोखे की दुकानें भी। यह स्वाभाविक है। जहां असली सिक्के होते हैं वहां नकली सिक्के भी होते ही हैं। नकली चलते ही असली के सहारे हैं। अगर असली न हों तो नकली नहीं हो सकते। असली का होना जरूरी है, तो नकली भी चल सकता है।

और अर्थशास्त्र का एक नियम है कि जब भी तुम्हारी जेब में असली और नकली सिक्का हो तो पहले तुम नकली को चलाने की कोशिश करते हो। स्वाभाविक! क्योंकि असली तो कभी चल जाएगा, नकली जितने जल्दी निकल जाए।

तो जब भी बाजार में नकली सिक्के होते हैं, असली छिप जाते हैं और नकली चलते हैं। चलन नकली का होता है। यह बिलकुल स्वाभाविक नियम है। तुमने भी जाना होगा। तुम्हारी जेब में दो नोट पड़े हैं दस-दस के–एक नकली और एक असली। तुम जहां जाते हो, जल्दी से नकली निकाल कर हाजिर करते हो, असली को छिपाए रखते हो। असली की क्या जल्दी है? कभी भी काम आ जाएगा। पहले नकली तो चल जाए।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन मेरे पास आया और उसने कहा कि आज तीन अच्छे काम किए। वह कौन से अच्छे काम किए नसरुद्दीन? उसने कहा कि पहला अच्छा काम तो यह किया कि एक भिखमंगे को एक रुपया दान दिया।

एक रुपया? मैंने कहा।

उसने कहाः इसीलिए तो कहने जैसी बात है। पूरा एक रुपया दिया।

फिर दूसरा अच्छा काम क्या किया?

उसने कहाः दूसरा अच्छा काम यह हुआ कि वह जो नकली दस रुपये का नोट मैं लिए फिरता था, वही उसको दिया था और कहा था कि नौ वापस दे दे।

तीसरा अच्छा काम क्या किया?

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहाः तीसरा अच्छा काम यह कि वह भी प्रसन्न और मैं भी प्रसन्न। दोनों प्रसन्न हुए। उसको एक रुपया मिला, मेरा दस का नकली नोट चला। मुझे नौ मिले, उसको एक मिला। दोनों को मिला। दोनों का चित्त प्रसन्न।

तुम्हारे पास नकली सिक्का हो तो पहले तुम उसे एकदम चलाने में उत्सुक हो जाते हो। बाजार में नकली सिक्के चलते हैं, असली छिप जाते हैं।

अक्सर जीवन के और तलों पर भी यही बात सच है। पंडित-पुजारी चलते हैं। दो कौड़ी के लोग चलते हैं। क्योंकि वे दो कौड़ी के लोग तुम्हारी इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। असली गुरु तुम्हारी इच्छा की पूर्ति नहीं करता, तुम्हारी इच्छा को तोड़ता है।

असली गुरु के पास मौत है, नकली गुरु के पास सांत्वना है। असली गुरु तुम्हें मिटाएगा क्योंकि तभी परमात्मा से मिलन हो सकता है। नकली गुरु तुम्हें सब तरह के भरोसे देता है कि घबड़ाओ मत। इधर दान कर दो, इधर यज्ञ कर दो, इधर हवन करवा दो, सब ठीक हो जाएगा। तुम फिकर न करो, बाकी मैं फिकर कर लूंगा। चिट्ठी लिख दूंगा परमात्मा के नाम ताकि सनद रहे।

मैं सूरत में एक घर में मेहमान था। मुझे वहां पता चला कि मुसलमानों का एक संप्रदाय, जिसके प्रधान सूरत में रहते हैं, चिट्ठियां देता है लोगों को कि इस आदमी ने एक लाख रुपया दान दिया। यह चिट्ठी सनद रहे। जब वह आदमी मरता है तो वह चिट्ठी उसके साथ उसकी कब्र में रख दी जाती है ताकि वह खुदा को दिखा देगा।

क्या मजा चल रहा है! खुदा के नाम चिट्ठियां लिखी जा रही हैं, जिन्हें खुदा का कुछ पता नहीं। वे लाख रुपये…यह आदमी इसी आशा में जी रहा है कि लाख रुपये की चिट्ठी पास है, खुदा को दिखा देंगे। हुंडी पास है, सब काम सुलट जाएगा। और इस आशा में यह और कुछ भी नहीं कर रहा है। इसको क्या करना ध्यान! क्या करनी प्रार्थना! इसे क्या मतलब कबीर को खोजे? इसको तो मिल गए इसके गुरु। बड़े सस्ते में मिल गए। और दोनों का चित्त प्रसन्न है। गुरु का प्रसन्न है, उन्हें लाख मिल गए। शिष्य का प्रसन्न है कि आगे का लोक सुधर गया। दोनों के चित्त प्रसन्न हैं।

सस्ते गुरु तुम्हें बदलते नहीं। सस्ते गुरु तुम्हें चोट भी नहीं करते। सस्ते गुरु मलहम-पट्टी करते हैं। सस्ते गुरु तुम्हारी चोट को भुलाते हैं। सस्ते गुरु कहते हैं, सब ठीक हो जाएगा, समय की बात है। सस्ते गुरु कहते हैं, सब ठीक ही है। यह तो तुमने अपने पिछले जन्मों का कर्म भोगा, बात खतम हो गई। सस्ते गुरु कहते हैं, आत्मा अमर है, मरोगे नहीं, घबड़ाओ मत। सस्ते गुरु कहते हैं, परमात्मा की बड़ी अनुकंपा है। वह सब क्षमा कर देगा। तुम चिंता न लो। तुम तीर्थयात्रा कर आओ, कि हज कर आओ।

ये सब बातें तुम्हें बदलतीं नहीं; तुम्हारे जीवन में क्रांति नहीं लातीं। लेकिन जब तुम सदगुरु को पाओगे तो तुम्हारा रोआं-रोआं बदला जाएगा। तुम्हारी आत्मा फिर से ढाली जाएगी। तुम फिर से निर्मित किए जाओगे। और निश्चित ही इसके पहले कि तुम निर्मित किए जाओ, तुम्हें तोड़ा जाएगा।

इसलिए सदगुरु से लोग भागते हैं। सदगुरु से लोग बचते हैं। सदगुरु तुम्हारा समर्थन नहीं करता। जो तुम्हारा समर्थन करता हो उससे तुम्हें लाभ नहीं होगा, याद रखना। वह तुमसे कुछ लूटना चाहता है इसलिए तुम्हारा समर्थन कर रहा है। उसका कुछ लाभ है, कुछ हेतु है तुममें जुड़ा हुआ। वह तुम्हें प्रसन्न करना चाहता है। वह धर्म से उसका कुछ लेना-देना नहीं। वह धर्म के नाम पर एक तरह की राजनीति चला रहा है।

रोते-रोते धरमदास खोजते रहे, खोजते रहे। जो खोजता रहेगा उसे एक दिन मिल जाएगा। जो सांत्वना में नहीं अटकेगा उसे सत्य मिलेगा। मिल गए एक दिन कबीर। कबीर से उन्होंने क्या प्रार्थना की?

भगति-दान गुरु दीजिए…

और कुछ नहीं मांगा–भक्ति! भक्त का हृदय मुझे मिल जाए। भक्त के हृदय का अर्थ होता हैः

गम दे कि खुशी, हाथ में तकदीर है तेरे

जो तेरी रजा है वही अब मेरी रजा है

भक्त का अर्थ होता है, मैं तो छोड़ता अपने को। तू जहां ले चल! जहां ले जाए–नरक, तो वह मेरे लिए स्वर्ग है क्योंकि तू वहां लाया। अब मेरी अपनी कोई निजी मांग नहीं है–भगति-दान गुरु दीजिए।

तो कबीर के चरणों में गिर कर धनी धरमदास ने कहा है कि कुछ और नहीं मांगता, मुझे भक्त का हृदय दे दो। मुझे वह हृदय दे दो, जो परमात्मा के इशारे पर चलने लगे। मुझे वह हृदय दे दो, जिसमें से अहंकार विदा हो जाए।

भगति-दान गुरु दीजिए, देवन के देवा हो।

गुरु को गुरुदेव कहा हैः देवन के देवा हो। क्योंकि गुरु के द्वारा ही परमात्मा मिलता है। इसलिए उसकी महिमा परमात्मा से भी बड़ी है। वही सेतु बनता है। उसी के द्वारा आदमी परमात्मा तक पहुंचता है। उसी की आंख से देख कर तुम्हारे जीवन में रूपांतरण शुरू होते हैं। इसलिए देवों का देव कहा है।

भगति-दान गुरु दीजिए, देवन के देवा हो।

चरनकंवल बिसरौं नहीं, करिहौं पदसेवा हो।

बस, इतनी ही मुझे सुध दे दो कि तुम्हारे चरण कमल मुझे भूलें न। कभी बिसरूं न।

चरनकंवल बिसरौं नहीं, करिहौं पदसेवा हो।

तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।।

कर चुका बहुत, धरमदास ने कहा, तीरथ और व्रत। तीरथ करते ही करते तो कबीर मिले थे। मथुरा में कबीर मिल गए थे।

तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।

और अब बहुत कर चुका मंदिरों में पत्थरों की पूजा; अब नहीं।

मैकदे के दर पै यह बेवक्त दस्तक किसने दी?

दैरो-काबा का कोई भटका हुआ इन्सां न हो

मधुशाला के द्वार पर यह दस्तक किसने दी है? मधुशाला का मालिक सोचने लगा, खोल ही देना चाहिए। मंदिर और मस्जिद का भटका हुआ कोई बेचारा न हो।

कबीर के सामने जब धनी धरमदास आए थे तो ऐसे ही–मंदिर और मस्जिद का भटका हुआ आदमी! न मालूम कितनी पूजाएं, न मालूम कितने पाठ! धन था बहुत, सुविधा थी बहुत। बड़े यज्ञ करवाते थे। लाखों यज्ञों में फुंकवाते थे।

मैकदे के दर पै यह बेवक्त दस्तक किसने दी?

दैरो-काबा का कोई भटका हुआ इन्सां न हो

ध्यान रखना, तुम्हारे मंदिर और मस्जिद तुम्हें भटकाते हैं। क्योंकि मंदिर और मस्जिद अब जीवंत नहीं हैं, मुर्दा हैं। कोई मंदिर जीवंत होता है जब वहां कोई सदगुरु होता है।

निश्चित ही गिरनार कभी जीवित थी और काबा कभी जीवित था और काशी कभी जीवित थी, लेकिन स्थान जीवित नहीं होते। स्थानों में क्या भेद है? पूना की भूमि हो कि काशी की, कुछ भेद नहीं है। जमीन एक है, जुड़ी है, संयुक्त है। लेकिन काशी में कभी बुद्ध का आगमन हो जाता है तो काशी तीर्थ हो जाती है।

काशी के निकट सारनाथ में बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन दिया, उस घड़ी सारनाथ तीर्थ था। बस उस घड़ी तीर्थ था। जब वह सूरज सारनाथ पर उतरा, जब बुद्ध की आंखें सारनाथ पर पड़ीं, जब बुद्ध के चरणों ने सारनाथ को छुआ तब तीर्थ था। फिर तब से नाहक पूजा हो रही है। अब मंदिर है, पुजारी बैठा है, भिक्षु बैठे हैं। दूर-दूर देशों से लोग यात्रा करके आते हैं।

निश्चित ही बुद्धगया तीर्थ था, जब बुद्ध को समाधि फली। लेकिन फिर तब से तो बात उजड़ गई। समाधि ही न रही, समाधि जिसमें फली थी, वह न रहा। फूल जो खिला था, जा चुका, विदा हो गया। पक्षी उड़ गया। अब तो पिंजरा पड़ा है, तुम पिंजरे को पूजते रहो। जितना पूजना हो उतना पूजते रहो। लेकिन पिंजरे से अब कुछ हल नहीं होगा।

ठीक धरमदास कहते हैं,

तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।

तुमहिं और निरखत रहौं, मेरे और न दूजा हो।।

वे कहते हैं, बस इतनी ही मुझे कामना है कि तुम मुझे दिखाई पड़ो और तुम्हें मैं देखता रहूं…देखता रहूं। तुमहिं और निरखत रहौं…क्योंकि तुम्हीं में देखते-देखते मुझे उसका दर्शन हो जाएगा, जिसकी लाली मुझे सब जगह दिखाई पड़ती है लेकिन घाट नहीं मिलता।

आठ सिद्धि नौ निद्धि हों, बैकुंठ-निवासा हो।

सो मैं ना कछु मांगहूं, मेरे समरथ दाता हो।

वे कहते हैं कि तुम सब दे सकते हो मगर मेरी कोई मांग नहीं है। तुम समरथ दाता हो।…तुम चाहो तो क्या न दो? लेकिन मैं मांगता ही नहीं। मुझे चाहिए ही नहीं। आठ सिद्धि नौ निद्धि–मुझे कोई योगबल नहीं चाहिए, कोई सिद्धियां, ऋद्धियां, निद्धियां नहीं चाहिए।

इक फरेबे-आरजू साबित हुआ

जिसको जौके-बंदगी समझा था मैं

बहुत मंदिरों में झुककर देख लिया, बहुत यज्ञ-हवन करके देख लिए, समझता तो था कि यह बंदगी है, प्रार्थना है लेकिन वह सब झूठ था। वे सब उस लोक में सुख पाने की आकांक्षाएं थीं। वह संसार का ही विस्तार था।

तुम्हारा स्वर्ग भी तुम्हारे संसार का ही विस्तार है। वहां भी तुम क्या मांग रहे हो? वही जो तुम यहां मांग रहे हो। वहां भी तुम सुंदर स्त्रियां चाहते हो, अप्सराएं, ऊर्वशियां। वहां भी तुम यही सब चाहते हो–धन-दौलत, सोने के महल, हीरे से पटे रास्ते। वहां भी तुम यही चाहते हो कल्पवृक्ष, जिनके नीचे बैठो, हर इच्छा पूरी हो जाए।

तुम्हारी बहिश्त क्या है? तुम्हारी वासना का फैलाव। वहां भी तुम चाहते हो कि शराब के झरने बहते हों। यह फर्क न हुआ। यह तुम्हारा सपना वही का वही है। तुम जरा भी बदले नहीं।

इक फरेबे-आरजू साबित हुआ

जिसको जौके-बंदगी समझा था मैं

वह सब फरेब था। वासना का ही धोखा था। वासना की ही नई उड़ान थी, वासना का ही नया उपाय था फिर से मुझे पकड़ लेने का। इसलिए–

तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो।

तुमहिं और निरखत रहौं, मेरे और न दूजा हो।।

गुरु की ओर देखते-देखते कुछ घटता है। सत्संग की इसीलिए बड़ी चर्चा है। देखते-देखते घट जाता है। क्यों? क्योंकि देखते-देखते टकटकी बंध जाती है। देखते-देखते, सुनते-सुनते, पास बैठे-बैठे कुछ ऐसी घड़ियां आ जाती हैं जब विचार तुम्हारे भीतर शांत हो जाते हैं। और जहां तुम्हारे भीतर विचार शांत हुए, वहीं द्वार खुल जाता है।

आठ सिद्धि नौ निद्धि हौं, बैकुंठ-निवासा हो।

सो मैं ना कछु मांगहूं, मेरे समरथ दाता हो।

सुख संपत्ति, परिवार, धन, सुंदर वर नारी हो।

सपनेहुं इच्छा ना उठे, गुरु आन तुम्हारी हो।।

धरमदास कहते हैं, तुम्हारी सौगंध खाकर कहता हूं।…गुरु आन तुम्हारी हो!…सपनेहुं इच्छा ना उठे। अब सपने में भी इच्छा नहीं उठती, जागने की तो बात ही छोड़ दो। देख लिया सब।

और यह बड़े मजे की बात है, खयाल में लेना। जिसने देख लिया वही मुक्त होता है। जिसने सब देख लिया…धन देख लिया, वह धन से मुक्त हो जाता है। जिसने कामवासना देख ली, वह कामवासना से मुक्त हो जाता है। जिसने भोगा नहीं वह मुक्त नहीं होता। संसार मुक्ति का उपाय है।

मैं फिर से दोहरा दूं, क्योंकि ऐसा वचन तुम्हें शायद खयाल में न होः संसार मोक्ष का मार्ग है। संसार विधि है मुक्ति की। क्योंकि जो यहां देख लो उसी से छुटकारा हो जाता है। और जब तक न देखो तब तक बंधन रहता है।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, जो भोगना हो भोग ही लेना, नहीं तो छूटोगे नहीं। अगर कामवासना मन को पकड़े है तो घबड़ाओ मत, उतर ही जाओ उसमें। परमात्मा की दी हुई वासना है और परमात्मा का दिया हुआ यह संसार है। इसके पीछे कुछ गहन प्रयोजन है। उतर ही जाओ उसमें सब हिसाब किताब भूलकर। और तुम एक दिन अचानक पाओगे, देख लिया और कुछ पाया नहीं। हाथ राख लगी। जिस दिन यह अनुभव होगा उसी दिन कामवासना से तुम मुक्त हुए। उसी दिन तुम्हारे भीतर काम समाप्त और राम की शुरुआत हो जाती है। फिर सपने में भी इच्छा नहीं उठती।

नहीं तो जो जो तुम दिन में दबाओगे, रात सपने में उठेगा। फ्रायड ने तो बहुत बाद में कहा कि सपना दिन में दबाई गई बातों का ही प्रतिफलन है, धनी धरमदास ने तो बहुत पहले कहा–सपनेहुं इच्छा ना उठे…।

तुमने देखा नहीं? जिस दिन उपवास करो उस दिन रात भोजन ही भोजन चलता है। राजमहल में निमंत्रण हो जाता है। कर रहे हैं भोजन, कर रहे हैं।

तुम जैनियों से पूछो, पर्युषण में क्या करते हैं। दिन भर उपवास करते हैं, रात भर भोजन करते हैं। सपने में योजना बनाते हैं कि किसी तरह ये दस दिन तो बीत…बीत ही जाएंगे। एक तो बीत गया, नौ बचे। दो बीत गए, आठ बचे। बीते जा रहे हैं। दिन भर जाकर मंदिर में बैठे रहते हैं कि किसी तरह उलझे रहें पूजा पाठ में ताकि भोजन की याद न आए। मगर रात में क्या करोगे?

महात्मा गांधी जिंदगी भर ब्रह्मचर्य की चेष्टा में लगे रहे और ब्रह्मचर्य नहीं सम्हला, नहीं सधा सो नहीं सधा। कारण? संघर्ष, जबरदस्ती। पर आदमी ईमानदार थे तो झूठ नहीं कहा। आखिरी उम्र तक कहा कि सपने में अभी भी कामवासना आती है। मगर सपने में आती है तो उसका मतलब साफ है कि जाग्रत में दबा ली। जो जगे में दबाया वह सपने में आएगा क्योंकि सपने में तुम्हारा जो दबाव था वह छूट जाता है। तुम्हारा नियंत्रण खुल जाता है। होश नहीं रहता। उठ आती है बात।

इसलिए किसी सज्जन की अगर सज्जनता देखनी हो तो जब वह शराब पीए हो, तब देखो। तब असली आदमी होता है। अक्सर शराब पीए आदमी असली होता है। जब वह होश-हाश में होता है तब नकली होता है। उसका तुम भरोसा मत करना, जब वह होश में चला जा रहा है सब टाई इत्यादि बांध कर और बिलकुल नियमबद्ध; तब उसका भरोसा मत करना, वह जो कह रहा है। लेकिन जब शराब पीकर कुछ कहे तो उसको तो नोट कर रखना।

गुरजिएफ तो नियम से यह करता था कि जब उसके पास नए शिष्य आते तो उनको इतनी शराब पिला देता कि वे बेहोश हो जाते और अंट-शंट बकने लगते। वह अंट-शंट असली चीज है। वह सब नोट करवा लेता। वह कहता यह इनके भीतर दबा हुआ पड़ा है। इसी से मुझे लड़ना होगा।

फ्रायड की पूरी मनोविश्लेषण की प्रक्रिया इतनी ही है कि तुम्हारे सपनों का पता चल जाए बस, फिर सब पता चल गया। अब यह बड़े मजे की बात है। तुम जाग्रत में इतने बेईमान हो कि तुम्हारी असलियत जानने के लिए सपने में जाना पड़ता है, सपना झूठा है, उसमें तुम्हारी असलियत मिलती है। जागरण सच्चा है, उसमें तुम इतने झूठे हो गए हो कि तुम्हें सीधे-सीधे नहीं पकड़ा जा सकता।

तो वर्षों लग जाते हैं। पड़ा है मरीज फ्रायड के कोच पर और अपने सपने सुना रहा है। सुनाते सुनाते कुछ सूत्र पकड़ में आने मनोवैज्ञानिक को होते हैं कि मामला कहां है, अड़चन कहां है।

अब जैसे एक आदमी ऐसे तो साधु है और कहता है, मुझे कोई पद इत्यादि की फिकर नहीं। लेकिन रात सपना देखता है हमेशा आकाश में उड़ने का। ऊपर से ऊपर उठा जा रहा है, ऊपर से ऊपर उठा जा रहा है। अब यह सपना सिर्फ प्रतीक है। दिन में दिल्ली नहीं गए, रात चले। उड़े! राष्टपति हो गए। आकाश में ऊंचे उठते जा रहे हैं।

तुम सपने को झुठला न सकोगे। दिन में तो तुम बड़े अपनी पत्नी के प्रति निष्ठा रखते हो लेकिन रात में सपने में ले भागे पड़ोसी की औरत को। वह असलियत है। इसलिए पत्नियां इसमें ज्यादा भरोसा रखती हैं। रात को देखती रहती हैं, सुनती रहती हैं क्या बोल रहे, क्या बक रहे। जरा बुदबुदाते कि पत्नी जाग कर बैठ जाती, क्या बोल रहे! किसका नाम ले रहे?

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन…रात में उसकी पत्नी ने पकड़ लिया उसको; कमला…कमला…कमला कर रहा था। हिलाया कि क्या मामला है? मगर आदमी होशियार है। उसने कहाः कमला एक घोड़ी का नाम है। उस पर मैं दांव लगाने की सोच रहा हूं!

स्त्रियां जानती हैं कि तुम्हारे सपने में अगर तुम मुस्कुरा रहे हो तो जरूर किसी स्त्री से बात कर रहे हो। स्त्रियां पूछती हैं कि रात मुस्कुरा क्यों रहे थे? मतलब क्या? क्योंकि अपनी पत्नी के साथ तो कोई मुस्कुराता ही नहीं। तुम देख लो, एक जोड़ा चला जा रहा है, अगर वह उदास दिख रहा है, कुटा-पिटा दिख रहा है तो समझ लेना कि ये पति-पत्नी हैं। अगर पुरुष प्रसन्न दिख रहा है और उछलता दिख रहा है तो समझ लेना किसी और की स्त्री के साथ जा रहा है।

मैं एक दफा ट्रेन में सवार था। मेरे कंपार्टमेंट में एक महिला को एक सज्जन बिठा गए। फिर वे हर स्टेशन पर आते। मैंने महिला से पूछा कि कौन हैं? उन्होंने कहाः मेरे पति हैं। शादी को कितने दिन हुए? क्योंकि महिला कोई चालीस साल की थी। उन्होंने कहा कि सात साल-आठ साल हो गए। मैंने कहाः मुझ से झूठ मत बोल। सात-आठ साल के बाद यह हालत नहीं रहती।

हर स्टेशन पर कभी भजिया ले आए, कभी रसगुल्ला ले आए, कभी आइस्क्रीम ले आए–यह हालत पति की नहीं…। अगर ये तुम्हारे सात साल पुराने पति हैं तो जो एक दफे छूट कर यहां से भागते तो फिर दूसरे स्टेशन पर भी मिलते कि नहीं, यह भी पक्का नहीं है। आखिरी उतरने वाले स्टेशन पर मिलते शायद, या न मिलते। कोई कुछ नहीं कह सकता।

उसने कहाः आप ठीक पहचाने। वे मेरे पति नहीं हैं, मेरे प्रेमी हैं। मैंने कहाः तब बिलकुल ठीक है। तब चल सकता है।

स्त्रियां जानती हैं कि अगर सपने में तुम मुस्कुरा रहे हो तो कुछ गड़बड़ चल रही है। तुम किसी और स्त्री के साथ बात में लगे हो।

तुम्हारे सपने तुम्हारे दिन भर के दबाए हुए रोग हैं। इसलिए महाज्ञानी को सपने नहीं आते। आने नहीं चाहिए। वह लक्षण है। वह समाधि का लक्षण है–जब सपने नहीं आते। कुछ दबाया ही नहीं है तो सपना कैसे आएगा? सपना तो दबाने से आता है। जितने ज्यादा सपने उतने तुम रुग्णचित्त हो; उतने तुम बीमार हो। जब सपना आता ही नहीं, उसका अर्थ है, तुम अपने जीवन को जागकर जी रहे हो, कुछ दबा नहीं रहे हो।

धनी धरमदास कहते हैंः

सपनेहुं इच्छा ना उठे, गुरु आन तुम्हारी हो।।

तुम्हारी कसम खाकर कहता हूं कि स्वर्ग जाने की इच्छा सपने में भी नहीं है। बैकुंठ पाने की इच्छा सपने में भी नहीं है।

धरमदास की बीनती साहेब सुनि लीजै हो।

दरसन देहु पट खोलिके, आपन करि लीजै हो।।

वे कहते हैं कि दरवाजा खोल दो मेरे लिए। गुरु, मेरे लिए गुरुद्वारा हो जाओ। दरवाजा खोल दो मेरे लिए। परदा हटा लो मेरे लिए। मेरी और कोई मांग नहीं है। मैं सिर्फ इतना ही देखना चाहता हूं कि तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह क्या है। और सब तरफ उसकी झलकें मिली हैं। मैं जानता हूं कि तुम्हारे भीतर मुझे घाट मिल जाएगा।

दरसन देहु पट खोलिके, आपन करि लीजै हो।।

बस, इतनी ही इच्छा है कि अपना पट खोल दो, मंदिर के द्वार खोल दो और मुझे अपने में समा लो।

और जितनी हसरतें पैदा हुई थीं, मिट गईं

एक मिट जाने की हसरत अब हमारे दिल में है

बस, यही भक्ति का सार सूत्र है।

और जितनी हसरतें पैदा हुई थीं, मिट गईं

एक मिट जाने की हसरत अब हमारे दिल में है

मिटो! मिटोगे तो हो जाओगे। खो जाओ तो अपने को पा लोगे। और जब मिट कर पाओगे तब चकित हो जाओगे कि जिसे दुर्भाग्य समझा था वह सौभाग्य था।

मुझे तो तुमने मिटाने की कोशिशें की थीं

मेरा नसीब कि मुझको तुम्हारे जुल्म फले

पहले तो जब गुरु तुम्हें तोड़ेगा तो ऐसा ही लगेगा कि बड़ा कठोर; जुल्म कर रहा है। लेकिन जिस पर कर रहा है वह धन्यभागी है।

मुझे तो तुमने मिटाने की कोशिशें की थीं

मेरा नसीब कि मुझको तुम्हारे जुल्म फले

यह तो अंत में पता चलता है कि गुरु की करुणा थी कि वह कठोर था। गुरु तुम्हारे शीश को काट ही देगा। तुम्हारे अहंकार को टुकड़े टुकड़े कर देगा, छिन्न भिन्न कर देगा। तुम्हारी बुद्धिमत्ता तुमसे छीन लेगा। तुम्हारे सिद्धांत, तुम्हारे शास्त्र सब राख कर देगा। तुम्हारे मन को समाप्त करना है। तुम मिटो तो ही परमात्मा के लिए आने का मार्ग खुल सकता है।

लेकिन भक्त वही है जो जीए तो उसकी चाह करता है, मरे तो उसकी चाह करता है।

मुस्ताके-दीद वादे-फना भी दूं ऐ सबा

ले चल उड़ाके खाक मेरी कूए-यार में

मिट भी जाता है तो उसकी एक ही प्रार्थना होती है कि मेरी जो खाक बचे, राख बचे, वह मेरे प्यारे की गली में मुझे उड़ा कर ले चलना।

मुस्ताके-दीद वादे-फना भी दूं ऐ सबा

उस प्यारे को देखने की आकांक्षा ऐसी है–

मुस्ताके-दीद वादे-फना…मिट कर भी…दूं ए सबा, ऐ हवाओं इतनी कृपा करना…ले चल उड़ाके खाक मेरी कूए-यार में

उस प्यारे की गली में मेरी खाक को भी उड़ा कर ले चलना, जब मैं मिट जाऊं।

जीता है भक्त तो परमात्मा के लिए, मरता है तो परमात्मा के लिए। जीवन उसका, मृत्यु उसकी। भक्ति का मार्ग सुगम है और दुर्गम भी। सुगम–क्योंकि प्रेम सरल है, स्वाभाविक घटना है। और दुर्गम–क्योंकि अहंकार को काटना बड़ा कठिन है।

इस जगत में सबसे बड़ी कठिनाई वही है–मैं को कैसे गंवा दें? अपने को मिटने की हसरत कैसे करें! कैसे आकांक्षा करें मिटने की!

संसार है होने की आकांक्षा। मैं हो जाऊं, बड़ा हो जाऊं, महत्वपूर्ण हो जाऊं, प्रतिष्ठित हो जाऊं, यशस्वी हो जाऊं, धनी हो जाऊं। संसार है होने की आकांक्षाओं का अनेक-अनेक रूप। जिस दिन सब होने में तुम पाते हो कुछ होता नहीं, व्यर्थ पानी पर लकीरें खींचते हो, खींच भी नहीं पाते कि मिट जाती हैं, उस दिन तुम कहते हो, हो-हो कर देख लिया और नहीं हो पाया, अब न होकर देखूं। अब एक ही बात और बची है कि न होकर देखूं। जिस दिन तुम्हारे भीतर यह भाव उठा, उसी दिन तुम परमात्मा के करीब आने शुरू हो गए।

धन्यभागी हैं वे जिनके भीतर मिटने का भाव, मिटने की आकांक्षा पैदा हो जाती है।

 

आज इतना ही।

 

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन–धर्म आग्नेय होता है

प्रश्न-सार

॰ धर्म की परिभाषा के अनुसार धर्म परम नियम है। और आप कहते हैं धर्म विद्रोह है। यह परम नियम विद्रोही कैसे हो सकता है?

॰ मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूं, फिर भी आप मुझे पंडित की डिग्री क्यों देते हैं?

॰ सदगुरु से आंतरिक निकटता का क्या अर्थ होता है?

॰ अतीत तूफान बन कर घेर लेता है; आगे नहीं जाने देता। इससे छुटकारा कैसे हो?

॰ क्या प्रेम को दूसरे के सहारे की जरूरत होती ही है?

॰ आपके चरणों में बैठना ही इतना मधुर लगता है कि मोक्ष जाने की इच्छा नहीं होती।

पहला प्रश्नः आप बहुधा कहते हैं कि धर्म विद्रोह है, बगावत है। लेकिन परिभाषा के अनुसार धर्म सबको धारण करने वाला है, धर्म परम नियम है, धर्म शाश्वत है। यह परम नियम, यह शाश्वत विद्रोही कैसे हो सकता है?

॰ शाश्वत ही विद्रोही हो सकता है। सत्य ही विद्रोही हो सकता है। विद्रोह असत्य के खिलाफ है। विद्रोह समय के खिलाफ है। समय का अर्थ होता है परंपरा। समय का अर्थ होता है रूढ़ि। समय का अर्थ होता है राख।

और आग राख के विपरीत बगावत है। बुद्ध एक अंगारा हैं। फिर जैसे ही बुद्ध का पक्षी उड़ जाता है, राख जमनी शुरू होती है। उसी राख से बुद्ध धर्म निर्मित होता है। ऐसी ही राख से जैन धर्म निर्मित होता है, ऐसी ही राख से हिंदू धर्म निर्मित होता है।

तो धर्म के दो अर्थ समझ लेना। एक तो धर्म है जो सारे जगत को धारण किए है; वह न तो हिंदू है, न मुसलमान, न ईसाई। वह तो सिर्फ धर्म है। फिर दूसरे धर्म का अर्थ है, हिंदू के साथ जुड़ा हुआ, ईसाई के साथ जुड़ा हुआ, जैन के साथ–जैन धर्म, बौद्ध धर्म, इस्लाम धर्म। यह धर्म शाश्वत नियम नहीं है। यह धर्म कभी पैदा हुआ और कभी मरेगा। अड़चन इसलिए पैदा होती है कि धर्म पैदा हो, यह तो बहुत शुभ। जब समय उसका पक जाए तो उसे मर भी जाना चाहिए। वह मरता नहीं। उसकी लाश को हम बचा रखते हैं।

जैसे तुम्हारी मां से तुम्हें प्रेम है। और प्रेम शुभ है। प्रेम के सब रूप शुभ हैं। लेकिन मां एक दिन मरेगी। माना कि तुम रोओगे, तुम्हारे प्राण आंसू बन कर बहेंगे। तुम छाती पीटोगे। लेकिन फिर भी अरथी बनानी पड़ेगी और मां को मरघट ले जाना पड़ेगा। और अपने ही हाथों जला भी देना पड़ेगा। रोते-रोते जलाओगे। बड़ी पीड़ा और बड़ी उदासी में जलाओगे। महीनों तक घाव न भरेगा। बरसों तक याद न छूटेगी और जीवन भर के लिए चोट का निशान तो रह ही जाएगा। लेकिन फिर भी तो मां को जलाना पड़ता है।

कोई कहे कि मैं मेरी मां को मैं कैसे जलाऊं? मैं तो घर में सम्हालकर रखूंगा। तो सारा घर बदबू से भर जाएगा। घर में जीना मुश्किल हो जाएगा। तब घर में कोई बेटा पैदा होगा, जो बगावत करेगा और कहेगा, यह लाश जला कर रहेंगे। इस लाश को मरघट ले जाकर रहेंगे। ऐसा मत समझना कि वह बेटा मां को प्रेम नहीं करता। लेकिन जिससे प्रेम किया था वह उड़ चुका। अब मिट्टी पड़ी रह गई है। अब मिट्टी को ढोने से कोई अर्थ नहीं है। अब उचित है कि मिट्टी मिट्टी में मिल जाए।

धर्म जब पैदा होता है तो बड़ा प्यारा होता है, अपूर्व होता है। तब उसमें किरण होती है शाश्वत की। संगीत होता है, नाद होता है। जब बुद्ध में कुछ उतरता है तब वह जीवंत होता है। फिर बुद्ध के विदा होते ही सुनी हुई बातें रह जाती हैं। शास्त्रों में लिखे हुए शब्द रह जाते हैं। उन शब्दों का संगीत तो मर चुका। वीणा रह गई है, तार तो टूट चुके। अब तुम वीणा की पूजा करो, अब तुम वीणा का मंदिर बनाओ। यह सब झूठा होगा। और इस झूठ के कारण फिर से बुद्ध को पैदा होने में अड़चन हो जाएगी। तुमने एक बात नहीं देखी? कि जिस धर्म में भी बुद्धपुरुष होता है, वही धर्म उस बुद्धपुरुष को इनकार कर देता है।

तो जरूर दो तरह के धर्म होंगे; एक तो जो बुद्धपुरुष लाता है वह, और एक जो इनकार करता है वह। बुद्ध हिंदू घर में पैदा हुए, हिंदुओं ने अस्वीकार कर दिया। जीसस यहूदी घर में पैदा हुए, यहूदियों ने अस्वीकार कर दिया। सुकरात को यूनानियों ने ही जहर पिलाया।

तो एक तो शाश्वत धर्म है, जो कभी-कभी उतरता है किसी के निमंत्रण पर। किसी की आत्मा जब खिलती है तब। जब किसी का कमल खिलता है, तब उस कमल पर उतरती है कोई बात। सुवास! आकाश कभी-कभी पृथ्वी से मिलता है और आत्मा में कभी-कभी परमात्मा की भनक आती है। कभी-कभी आदमी के दर्पण में परमात्मा की छवि पकड़ी जाती है। मगर दर्पण टूट जाता है। सब दर्पण टूटने को हैं यहां। बुद्ध का दर्पण भी टूट जाएगा, मेरा दर्पण भी टूटेगा, तुम्हारा दर्पण भी टूटेगा। सब टूटने को हैं यहां। फिर तुम कांच के टुकड़ों को बटोर कर रख लेना। फिर उसमें छवि नहीं बनती। फिर सब नष्ट हो चुका। तुम लाश को फिर पूजते रहना।

खतरा यह है कि उस लाश की पूजा के कारण जब भी कोई समझदार व्यक्ति तुम्हारे घर में पैदा होगा और कहेगा, छुटकारा करो इस मुर्दा लाश से, तभी सारा घर उसके विपरीत हो जाएगा। वह कहेगा, हमारी मां को जलाने को कहते हो? हमारे शास्त्र को जलाने को कहते हो? हमारी परंपरा जो सदा से चली आई, हमारे पिता ने इस लाश को पूजा, उनके पिता ने पूजा, उनके पिता ने पूजा। इसी से तो हम सब पैदा हुए हैं। यह हमारी संस्कृति, यह हमारी सयता। जब भी विवेक का जन्म होगा उस घर में, तभी उपद्रव शुरू होगा; तभी बगावत करनी पड़ेगी। किसी बेटे को बगावत करनी पड़ेगी। और मजा यह है कि जो बेटा बगावत कर रहा है, वही जीवन के पक्ष में है।

परंपरावादी जीवन का विरोधी होता है, लकीर का फकीर होता है। परंपरावादी अतीत का पूजक होता है। मुर्दा के प्रति उसके मन में सम्मान होता है। और जीवित के प्रति उसके मन में अपमान होता है। जिन्होंने जीसस को सूली दी वे कौन लोग थे? बुरे लोग नहीं थे, खयाल रखना। अक्सर यह भ्रांति तुम्हारे मन में हो जाती है कि जिन्होंने सूली दी, होंगे राक्षस। गलती है बात। भले लोग थे, अच्छे लोग थे, प्रतिष्ठित लोग थे। पुजारी थे मंदिर के, पुरोहित थे, पंडित थे, सुसंस्कृत, सभ्य–जिनको तुम पुण्यात्मा कहते हो, दानी, मंदिर-मस्जिद बनाने वाले लोग थे। जिनको तुम सज्जन कहते हो वे लोग थे। इस भ्रांति में कभी मत पड़ना कि जीसस को सूली देने वाले लोग बुरे लोग थे। अच्छे लोगों के समूह ने सूली दी।

और जीसस जैसे आदमी को सूली दी, अड़चन क्या रही होगी? ये अच्छे लोग पुराने को मानते हैं, ये जीसस नये की खबर लाते हैं। ये अच्छे लोग, जो बाप-दादों ने कहा है उसको पकड़ कर रखना चाहते हैं। ये जीसस भविष्य का आगमन हैं। ये जीसस फिर से परमात्मा की नई खबर लाते हैं। ये नये पैगंबर हैं। निश्चित ही विद्रोह होगा, कलह होगी; कलह परंपरा और सत्य के बीच है, राख और अंगार के बीच है; अतीत और वर्तमान के बीच है; मुर्दा और जीवंत के बीच है।

धर्म की परिभाषा तो ठीक है कि जो धारण करे। मगर हिंदू धर्म ने तुम्हें धारण किया है? अगर हिंदू धर्म मिट जाए तो पृथ्वी मिट जाएगी? कितने धर्म रहे और मिट गए, इसका तुम्हें पता है? और सभी धर्मों को यह खयाल था कि उन्हीं के कारण सब धारण किया गया है। जमीन पर कितने धर्म आए और चले गए, उनका नाम-निशान भी नहीं बचा। तुम सोचते हो, जैन दुनिया में न होंगे तो सूरज नहीं ऊगेगा? जरा सोचो तो!

यह तो वही बात हो गई जैसे तुमने सुना हो, एक बूढ़ी औरत का मुर्गा सुबह बांग देता था, और सोचती थी कि मेरे मुर्गे के बांग देने से सूरज ऊगता है। गांव के लोगों के सामने अकड़ती थी कि अगर मैं चली जाऊंगी इस गांव से, फिर पछताओगे। अगर मेरा मुर्गा न होगा तो सूरज नहीं ऊगेगा। याद रखना, जब मेरा मुर्गा बांग देता है तभी सूरज ऊगता है।

और बात एक अर्थ में ठीक थी क्योंकि मुर्गा बांग देता था तभी सूरज ऊगता था। यद्यपि मुर्गे के बांग देने से सूरज के ऊगने का कोई कार्य-कारण संबंध नहीं है। सचाई तो उलटी है, सूरज ऊगता है इसलिए मुर्गा बांग देता है। मगर पहले मुर्गा बांग देता है, फिर सूरज ऊगता है। घटना तो ऐसी घटती है।

गांव के लोगों ने हंसी-मजाक की। बूढ़ी बहुत नाराज हो गई, अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली गई। और प्रसन्न इस भाव में कि अब पछताएंगे, आएंगे नाक रगड़ते हुए। और दूसरे गांव में भी जब उसके मुर्गे ने बांग दी तो सूरज ऊगा। उसने कहा, अब रोते होंगे, अब अंधेरे में सड़ते होंगे। अब हो गई होगी अमावस। अब पता चलेगा कि सुबह अब नहीं होती। सुबह तो यहां हो गई, वहां कैसे होगी?

तुम सोचते हो जैन धर्म न रहेगा तो सूरज न ऊगेगा, चांद-तारे न चलेंगे? सूरज ऐसे ही ऊगेगा, चांद-तारे ऐसे ही चलेंगे। क्योंकि जिसने सूरज को सम्हाला है वह जैन धर्म नहीं है, वह धर्म है। वह हिंदू धर्म नहीं है, धर्म है। वह परम नियम है। उस नियम का इन शास्त्रों और परंपराओं से कुछ लेना देना नहीं है। ये शास्त्र और परंपराएं, उसी नियम की झलक पड़ी है किसी व्यक्ति में, उसके आधार पर बन गए हैं।

इसको ऐसा समझो। सूरज को किसी ने दर्पण में पकड़ा। और तुमने सूरज नहीं देखा, तुमने सिर्फ दर्पण में सूरज देखा। तुमने उसे पकड़ा। अब तुम दर्पण में देखे गए सूरज को ही समझते हो असली सूरज। भूल हो गई। और यह बात भी सच है कि दर्पण में जो सूरज की झलक बनी थी, वह असली ही सूरज की झलक थी। मगर असली सूरज की झलक भी झलक ही है, सूरज नहीं है। जब तुम दर्पण के सामने खड़े होकर अपना चेहरा देखते हो तो तुम अपना चेहरा थोड़े ही देखते हो, चेहरे की झलक देखते हो, चेहरे का प्रतिबिंब देखते हो। और असली चेहरे का प्रतिबिंब भी प्रतिबिंब ही है। उसका कोई और मूल्य नहीं है। लेकिन उसी को जिसने चेहरा समझ लिया, वह आज नहीं कल कठिनाई में पड़ जाएगा।

तो मैं तुमसे कहता हूं कि महावीर के दर्पण में असली सूरज की झलक पड़ी थी। और जरथुस्त्र के दर्पण में भी असली सूरज की झलक पड़ी थी। संत वही है, जिसमें असली सूरज की झलक पड़ती है। मगर जरथुस्त्र को मानने वालों ने जो पकड़ा उन्होंने जरथुस्त्र की आंखों में पड़ी झलक को पकड़ा। वह झलक बड़ी दूर हो गई सूरज से। फिर उसी झलक की याद को लिए बैठे हैं। उसी झलक की पूजा कर रहे हैं। और मजा यह है कि सूरज रोज ऊगता है। तुम अपनी अग्यारी में बैठे हो। और सूरज रोज ऊग रहा है और तुम अपनी किताब खोल कर बैठे हो। और सूरज सामने खड़ा है।

परमात्मा चुक नहीं गया है महावीर में, और न बुद्ध में, और न कृष्ण में, और न राम में। परमात्मा चुकता ही नहीं। कितने ही अवतरण हों तो भी परमात्मा चुकता नहीं। जिस दिन तुम आंख उठा कर परमात्मा को देखोगे, तुम भी अवतार हो गए। चुक नहीं जाएगा। तुम उससे जीवंत हो उठोगे। सूरज कितने फूलों पर गिरता है, सारे फूल खिल जाते हैं। जो कली सूरज की तरफ देख लेती है, वही खिल जाती है।

तुम भी सूरज को देखो। बगावत से मेरा अर्थ है कि जब भी कोई व्यक्ति सूरज को देख लेता है तब वह तुमसे यह कहना चाहता है कि तुम जिसको अभी तक सूरज समझ रहे, वह किताब में बनी तस्वीर है। उस तस्वीर पर बहुत भरोसा मत करना। और मैं तुमसे फिर दोहरा दूं कि तस्वीर असली सूरज की ही है, मगर तस्वीर तस्वीर है। किसको धोखा दोगे?

सोलोमन के संबंध में कहानी है, प्रसिद्ध कहानी है। सोलोमन की बुद्धिमत्ता की बड़ी कहानियां हैं, उनमें यह कहानी सर्वाधिक मूल्यवान है। सोलोमन की परीक्षा करने लोग आते थे क्योंकि सारी दुनिया में खबर थी, उससे बुद्धिमान कोई आदमी नहीं है। इथोपिया की महारानी उसकी परीक्षा करने आई। उसने बड़ी होशियारी से काम किया। वह दो फूल लेकर आई–एक नकली और एक असली। एक असली गुलाब और एक नकली गुलाब। एक में गंध और दूसरे में गंध नहीं। लेकिन दूर से दोनों एक जैसे लगें। वह कोई दस फीट दूर सोलोमन के सिंहासन के सामने खड़ी हो गई। और उसने कहा, ये दो फूल हैं। आपकी मैंने बड़ी खबर सुनी है कि आप बुद्धिमान हैं। आप यह बता दें कि कौन नकली, कौन असली।

सोलोमन ने एक क्षण देखा, थोड़ा बेचैन हुआ। दोनों फूल असली मालूम होते थे। अब जो भी नकली हो इसमें, इस कला से बनाया गया था कि असली का धोखा दे रहा था। एक क्षण सोलोमन ने सोचा और अपने दरबारियों से कहा कि दरबार के सारे दरवाजे और खिड़कियां खोल दो। रोशनी थोड़ी कम है। जरा रोशनी ज्यादा हो जाए तो मैं ठीक से देखूं। सब दरवाजे-खिड़कियां खोल दिए गए। एक क्षण प्रतीक्षा करता रहा, फिर उसने इशारा किया कि बाएं हाथ में जो फूल है वह असली है। दरबारी भी हैरान हुए। वे भी सब टकटकी लगा कर देख रहे थे, रोशनी से कुछ फर्क न पड़ा था। दोनों फूल असली मालूम पड़ते थे।

महारानी भी हैरान हुई। उसने कहाः आपने पहचाना कैसे? सोलोमन ने कहा कि मैं धोखा खा जाऊं, आदमी हूं, इसलिए खिड़कियां खुलवाईं। तुमने खयाल नहीं किया? एक मधुमक्खी अंदर आ गई। बाहर बगीचा है। वह असली फूल पर जाकर बैठ गई। मधुमक्खी को तो धोखा नहीं दे सकते। मधुमक्खी तो नकली फूल पर नहीं बैठ सकती। सोलोमन ने कहाः मैं सोच नहीं रहा था, मधुमक्खी की प्रतीक्षा कर रहा था।

तुम्हारी तस्वीर है सूरज की, इसको ले जाकर तुम सूरजमुखी के फूल के पास खड़े हो जाओ, तब तुम्हें पता चलेगा, यह तस्वीर है या असली सूरज है। सूरजमुखी का फूल इसकी तरफ नहीं घूमेगा। सूरजमुखी के फूल को तुम धोखा नहीं दे पाओगे। सूरजमुखी का फूल हिंदू धर्म के चक्कर में नहीं आएगा, सूरजमुखी का फूल असली सूरज को पहचानता है। जिस तरफ सूरज घूमता है उस तरफ फूल घूम जाता है।

तुम भी जानते हो कि प्यास लगी हो तो पानी शब्द से तृप्त नहीं होती। और भूख लगी हो तो पाकशास्त्र पढ़ने से कुछ भी नहीं होता। भोजन पकाना पड़ता है। पाकशास्त्र कितना ही अच्छा हो, और कितने ही विचारशील लोगों ने लिखा हो, और उसमें कितने ही सुस्वादु भोजनों को बनाने की प्रक्रिया लिखी हो लेकिन पाकशास्त्र को पढ़ने से कुछ भी नहीं होता। और लोग गीता पढ़ रहे हैं। और लोग कुरान पढ़ रहे हैं, और लोग बाइबिल पढ़ रहे हैं और पेट में भूख है। परमात्मा की भूख है और तुम किताबें पढ़ रहे हो। परमात्मा की भूख परमात्मा के अनुभव से ही तृप्त होती है।

तो असली धार्मिक आदमी विद्रोही होता है। विद्रोही इस अर्थ में कि वह तुमसे कहता है, छोड़ो ये कागज में बनी तस्वीरें, छोड़ो ये कागज के फूल। असली फूलों की तलाश करें। जीवंत को खोजें। जिसने सारे जगत को धारण किया हुआ है, उसमें डुबकी लगाएं।

तो धर्म का एक तो रूप है परंपरा। ये सब परंपराएं हैं–हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिक्ख। ये समय पर शाश्वत की लकीरें हैं। समय की रेत पर शाश्वत के चरण-चिह्न हैं। मगर शाश्वत जा चुका, चरण-चिह्न रह गए हैं समय की रेत पर। इन चरण-चिह्नों को ही मत पूजते रहो। उसको खोजो जिसके ये चरणचिह्न हैं। कौन चला था बुद्ध में, कौन उठा था बुद्ध में, कौन झांका था बुद्ध में? उसको खोजो। तुम बुद्ध को पकड़ कर बैठे हो। तुमने चरण-चिह्न पकड़ लिए, चरण भूल गए। कौन नाचा था मीरा में?

मैं तुमसे कहना चाहता हूं जो कृष्ण में बोला, जो मीरा में नाचा, जो जीसस में सूली चढ़ा, उसको खोजो। तुम जीसस को पकड़े हो। कोई कृष्ण को पकड़े है। तुमने अंगुलियां पकड़ ली हैं और चांद को भूल गए हो। कोई अंगुली उठाता है और चांद की तरफ इशारा करता है कि वह रहा चांद। तुम अंगुली पकड़ लेते हो। और अंगुली गलत नहीं थी, चांद की तरफ बताती थी मगर चांद की तरफ देखना था, अंगुली पकड़नी नहीं थी। जो अंगुली पकड़ लेते हैं वे हिंदू, मुसलमान, ईसाई। जो चांद की तरफ बताता है, वह आदमी धार्मिक।

इसलिए धर्म बगावत है, धर्म विद्रोह है। धर्म जब भी पैदा होता है तो आग्नेय होता है, अग्नि जैसा होता है। जब मर जाता है तो राख के ढेर रह जाते हैं। फिर तुम्हारी मौज…। राख के ढेर को विभूति कहो। तुम कुछ ऐसे हो कि व्यर्थ की चीजों को अच्छे-अच्छे नाम देकर अपने को धोखा देते हो। कोई साधु-संत राख उठा कर दे देता है, तुम कहते हो विभूति मिल गई। विभूति नाम में धोखा हो जाता है।

तुम्हारा सारा धर्म राख है। और स्वभावतः इस राख के आस-पास बड़े न्यस्त स्वार्थ खड़े हो गए हैं। इस राख में बहुत लोगों ने व्यवसाय बना लिया है। इस राख में बहुत से लोगों ने अपने जीवन की आजीविका खोज ली है। इस राख में बहुत से न्यस्त स्वार्थ अपनी तृप्ति कर रहे हैं। इस राख के सहारे बहुत शोषण चल रहा है। इसलिए कोई बगावत करेगा तो बरदाश्त नहीं की जाएगी। सूली पर चढ़ाया जाएगा, पत्थर मारे जाएंगे, हत्या की जाएगी। यह राख का ही ढेर नहीं है, इस राख के ढेर के पास बहुत लोग खड़े हो गए हैं।

मैंने सुना है, एक फकीर का एक भक्त था। फकीर कुछ दिन गांव में ठहरा। जब जाने लगा, तो उस भक्त ने उसकी बड़ी सेवा की थी, याददाश्त के लिए फकीर ने अपना गधा उसे दे दिया, जिस पर वह यात्रा करता था। भक्त बहुत प्रसन्न हुआ। गरीब आदमी! गधा भी बहुत था। कुछ दिनों बाद गधा बीमार पड़ा और मर गया। वह उस गरीब की सारी संपदा थी, फिर उस संत की याद भी थी उस गधे के साथ जुड़ी। गधा ऐसा साधारण गधा भी नहीं था, विभूति था। संत ने दिया था, संत उस गधे पर बैठे थे। संत ने उस गधे को छुआ था, नहलाया भी था। संत के पवित्र हाथ के चिह्न थे उस गधे पर। वह कोई ऐसा वैसा गधा नहीं था, पहुंचा हुआ गधा था, सिद्ध गधा था, महात्मा था।

गरीब आदमी तो बहुत रोया। गधा ही नहीं मरा, यह संत की याद भी चली गई हाथ से। उसने उसकी कब्र बनाई, उसकी कब्र पर पत्थर लगवाया। उसकी कब्र को खूब फूलों से सजाया। उसको रोते देख कर, उसको कब्र पर फूल चढ़ाते देख कर, जो रास्ते से लोग निकलते थे वे भी फूल चढ़ाने लगे। लोग तो एक दूसरे को देख कर चलते हैं। जब यह आदमी वहां बैठा रोता रहता तो वे सोचते कि जरूर, किसी महात्मा की कब्र होगी। गधे की कब्र तो किसी ने कभी सुनी भी नहीं, होगी तो महात्मा ही की होगी। फिर इतनी भी फिकर कौन करता है, किस महात्मा की! क्या लेना देना? भक्तजन तो भक्तजन होते हैं। वे फूल चढ़ा देते, कोई पैसा चढ़ा जाता।

धीरे-धीरे तो बड़ा उसको लाभ होने लगा। गधे से तो इतना लाभ नहीं था, जितना गधे की कब्र से लाभ होने लगा। कोई नारियल चढ़ा जाता, कोई भोजन लगा जाता। लोग मनौतियां बोलने लगे कि अगर हमारा ऐसा हो जाएगा तो हम पांच रुपये चढ़ाएंगे कि पचास रुपये चढ़ाएंगे। अब सौ आदमी मनौती करें, पचास की तो पूरी होती ही हैं। पचास नहीं आते लेकिन बाकी पचास तो आते ही हैं।

बात फैलती गई, फैलती गई। उस कब्र की बड़ी प्रसिद्धि हो गई। कई वर्षों के बाद फकीर वापस लौटा। उसी झाड़ के नीचे आया तो देखा, वहां तो मंदिर बन गया है। वह तो बड़ा हैरान हुआ कि मंदिर यहां किसने बनवाया।। और मंदिर में देखा तो उसका ही वह भक्त पुजारी बन कर बैठा है। अब तो बात ही बदल गई है। बड़ी रंग-रौनक है, बड़े सेवक लगे हैं और लोग उसके हाथ-पैर दबा रहे हैं। उसने उससे पूछा कि भई, हुआ क्या?

वह तो देखा फकीर को, एकदम चरणों में गिर पड़ा। कहा, महात्मा, आपकी ही कृपा। विभूति! मैं समझा नहीं, महात्मा ने कहा, तू कर क्या…हुआ क्या यह? इतना सुंदर महल बन गया, मंदिर बन गया। इतने लोग, भक्ति भाव, पूजन चल रहा है, मामला क्या है?

उसने कहा, अब आपसे क्या छिपाना? यह वह जो आप गधा दे गए थे। अब आपसे क्या कहूं, झूठ तो बोल नहीं सकता। किसी को आप बताइएगा मत। सब लोग समझते हैं किसी महात्मा की, किसी सिद्धपुरुष की। और है ही गधा सिद्ध। आपका छुआ हुआ था, आपका दिया हुआ था। उसकी कब्र बन गई। वह मर गया, मैंने कब्र बना दी, उसी पर धीरे-धीरे यह सब खेल खड़ा हो गया है। फकीर हंसने लगा। उसने पूछा, आप हंसते क्यों हो? उसने कहाः हंसता इसलिए हूं कि मैं जिस गांव में रहता हूं, इसकी मां की कब्र पर यही सब खेल वहां चल रहा है। तू क्या समझता है, मैं कैसे जीता हूं? इसी गधे की मां…। जब से मरी, निहाल कर गई। यह साधारण गधा नहीं है, इसकी मां भी ऐसी थी। यह खानदानी गधा था।

तो एक बार जब राख की पूजा शुरू हो जाती है और उसके पास न्यस्त स्वार्थ खड़े हो जाते हैं, फिर कोई अगर कहे कि यह राख है तो लोग तो नाराज होंगे ही। लोग तो क्रुद्ध होंगे ही। क्योंकि जिनके स्वार्थ पर चोट लगेगी वे इसे क्षमा नहीं कर सकेंगे। उन्होंने कभी क्षमा नहीं किया।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, समय की रेत पर जो चिह्न बनते हैं शाश्वत के, वे ही शाश्वत के दुश्मन हो जाते हैं।

एक धर्म है, जो सारे जगत को धारण करता है–विशेषण शून्य। उसी को खोजो। हिंदू में मत उलझ जाना, मुसलमान में मत अटक जाना। तुम शाश्वत को खोजोगे तो ही तुम असली अर्थ में हिंदू हो पाओगे, असली अर्थ में मुसलमान हो पाओगे। और जो असली अर्थ में हिंदू है और असली अर्थ में मुसलमान, उसमें कुछ फर्क नहीं होता; फर्क हो नहीं सकता। जब तक फर्क होता हो तब तक समझना कि नकली अर्थ में हिंदू है, नकली अर्थ में मुसलमान है। जो असली अर्थ में परमात्मा को समझ लेता है उसके लिए मंदिर और मस्जिद सभी उसी के घर हैं। कुरान में उसीकी आयतें हैं, गीता में उसी के गीत हैं। सब उसका है। यह वैविध्य से भरा हुआ सारा जगत उसका है।

मगर यह तो होने ही वाला है और यह सदा होगा। पंडित में और ज्ञानी में संघर्ष है। ज्ञानी बगावती है, पंडित परंपरावादी है।

 

दूसरा प्रश्नः भगवान, मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूं। कभी युनिवर्सिटी नहीं गया। कुछ भी शास्त्र पूरे पढ़े नहीं, फिर भी आप मुझे पंडित की डिग्री दिए चले जाते हैं। अभिप्राय समझाने की कृपा करें।

॰ योग चिन्मय! पंडित डिग्री नहीं है, गाली है। कम से कम यहां तो निश्चित ही। पंडित तो एक तरह की हथौड़ी है जो मैं तुम्हारे सिर पर मारता हूं, ताकि तुम जागो।

तुम पंडित हो इसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि तुम जानकारी में उत्सुक हो जाते हो। जानकारी और जानने में फर्क है; बस वही फर्क समझ में आ जाए इसलिए बार-बार चोट करता हूं। और चोट करता हूं क्योंकि तुम्हें प्रेम करता हूं। यहां जो लोग इकट्ठे हैं, उन सबमें मुझे चिन्मय पर बहुत भरोसा है इसलिए चोट करता हूं। इसलिए बार-बार चोट करता हूं। बेरहमी से चोट करता हूं। क्योंकि संभावना है कि अगर तुम जागो तो जाग सकोगे।

और तुम्हारे सो जाने का डर बस एक जगह है, इसलिए बार-बार पंडित की गाली का उपयोग करना पड़ता है। वह जगह यह है कि तुम जानकारी में उत्सुक हो जाते हो जानने की बजाय। जानना अलग बात है। जानकारी उधार होती है, जानना निज का होता है, स्वयं का होता है। जानकारी किताब से आती है, जानना अंतरात्मा से उमगता है। जानकारी बाहर से आती है, जानना भीतर घटता है। जानकारी कूड़ा-करकट है, बोझ है। जानना निर्भार करता है, मुक्त करता है। जानना ध्यान से घटता है, जानकारी ज्ञान को अर्जित करने से। और मजा यह है कि जानकारी ध्यान में बाधा बन जाती है। क्योंकि जितना ही तुम जानते हो उतना ही अहंकार मजबूत होता है कि मैं जानता हूं, अब जानने को और क्या है!

इस देश का यही दुर्भाग्य है कि यह देश पंडित हो गया। पंडित यानी तोता। सभी लोग दोहरा रहे हैं। यहां अज्ञानी मिलता कहां? यहां तो ज्ञानी ही ज्ञानी हैं। यहां तो जिससे मिलो वही ज्ञानी है। यहां ब्रह्मचर्चा तो सभी तरफ चल रही है।

कहते हैं शंकर जब मंडन मिश्र से विवाद करने मंडला पहुंचे तो उन्होंने गांव के बाहर पनघट पर पानी भरती स्त्रियों से पूछा कि मंडन मिश्र का मकान कहां है? वे स्त्रियां हंसने लगीं। उन्होंने कहा कि तुम्हें इतना भी पता नहीं? जिस द्वार पर तोते भी वेदपाठ करते हों, समझना वही मंडन मिश्र का घर है।

एक दिन ऐसा था कि तोते भी वेदपाठ करते थे। अब ऐसा है कि वेदपाठी सिवाय तोतों के और कोई भी नहीं। वक्त बदल गया। अब खुद मंडन मिश्र वेदपाठ कर रहे हैं तोतों की तरह।

तोते में और आदमी में फर्क क्या होता है? वही ज्ञानी में और पंडित में फर्क है। तोता सिर्फ दोहराता है। उसे अर्थ का भी पता नहीं है। उसे शब्द मालूम है, वह सिर्फ शब्द दोहराता है। वह क्यों दोहरा रहा है इसका भी उसे पता नहीं है। सिखाने वाले ने क्यों सिखा दिया इसका भी उसे पता नहीं। तुम जब राम-राम, राम-राम दोहराते हो, तुम्हें पता है तुम क्या दोहरा रहे हो? तुम्हें राम का पता है? जैसे धनी धरमदास को था, ऐसा तुम्हें पता है! जैसे कबीर को था, नानक को था, ऐसा तुम्हें पता है? तुम्हें राम का अर्थ पता है? हां, तुम कहोगे पता है, शब्दकोश में जो लिखा है–कि राम भगवान का एक नाम है। यह पता होना हुआ? यह तोतापन है।

तुम्हें राम का कोई अनुभव नहीं है तो अर्थ कैसे हो सकता है? अनुभव से अर्थ आता है। जब तुमने राम की झलक पाई हो और तुम्हारे हृदय से राम-नाम उठे, तब अर्थ होगा। जब तक वैसी झलक नहीं पाई है तब तक तुम कुछ भी कहते रहो, तुम्हारे कहने में कुछ अर्थ नहीं क्योंकि तुम्हारे कहने में तुम्हारे प्राण का कोई साथ नहीं है।

मस्तिष्क एक यंत्र है, कंप्यूटर है। इसमें जानकारी डाल दो, यह दोहराता चला जाता है। यह एक मशीन है। इस मशीन पर भरोसा मत कर लेना। जब मैं पंडित कहता हूं तो मैं यह कह रहा हूं कि तुमने मस्तिष्क पर बहुत भरोसा कर लिया है। चैतन्य के प्रति जागो, मस्तिष्क से मुक्त होओ। मस्तिष्क के पीछे छिपे हुए साक्षी को पकड़ो। ऐसा कुछ भी मत कहो जो सिर्फ जानकारी है। और तुम अचानक पाओगे, तुम्हारी निन्यानबे प्रतिशत बोली खो गई। क्योंकि निन्यानबे प्रतिशत जानकारी है। लेकिन वह जो एक प्रतिशत बचेगी, वही तुम्हारे जीवन में आभा ले आएगी। उसी से तुम्हारे जीवन में संपदा का आविर्भाव होगा।

तुम पूछते हो कि ‘मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूं। युनिवर्सिटी कभी गया नहीं।’

तुम सौभाग्यशाली हो; नहीं तो तुम यहां न होते। तुम्हारे भीतर पंडित होने का खतरा है ही। वही तुम्हारा एकमात्र पापकर्म है। अगर तुम युनिवर्सिटी गए होते तो तुम पंडित हो ही गए होते। अच्छा ही हुआ, बहुत पढ़े-लिखे नहीं हो, बहुत युनिवर्सिटी नहीं गए। नहीं तो तुम अपनी बुद्धि बचा कर लौट नहीं सकते थे।

युनिवर्सिटी से मुश्किल से ही लोग अपनी बुद्धि बचा कर लौट पाते हैं। जो लौट आए वह धन्यभागी।

युनिवर्सिटी तो नष्ट कर ही देती है। क्योंकि युनिवर्सिटी तुम्हारी बुद्धि के विकास के लिए अवसर ही नहीं देती, सिर्फ तोतापन के विकास का अवसर देती है। युनिवर्सिटी सिखाती है–पचाना नहीं, वमन करना। भरो किसी तरह और परीक्षा की कापियों पर वमन कर दो। उलटी करना सिखाती है। खून नहीं बनाती। युनिवर्सिटी से यह तय नहीं होता कि कौन आदमी बुद्धिमान है। इतना ही तय होता है किसके पास अच्छी स्मृति है, कुशल स्मृति है। कुशल स्मृति से बुद्धिमानी का कुछ लेन देन नहीं?

मनस्विद कहते हैं कि कुशल स्मृति अक्सर ऐसे लोगों की होती है जो बुद्धिमान नहीं होते। और बुद्धिमान अक्सर ऐसे होते हैं, उनकी स्मृति कुशल नहीं होती। यह अक्सर होता है। क्योंकि बुद्धि जब ऊंचाइयां भरने लगती है तो नीची बातों को भूल जाती है। और जब नीची बातें बहुत याद रहती हैं तो ऊंची उड़ान नहीं भरी जा सकती। और विश्वविद्यालय की सारी शिक्षा एक बात पर निर्भर है कि तुम किसी तरह से पुनरुक्त कर सको। उतनी ही कुशलता बस चाहिए। किस तरह पुनरुक्त करते हो इसकी भी फिकर नहीं। कैसे तुम कंठस्थ कर लेते हो। कैसे तुम घोंट-घोंट कर किसी तरह जाकर परीक्षा की कापी में उतार आते हो और फिर परीक्षा की कापी में उतार कर सदा के लिए भूल जाते हो। तुम विश्वविद्यालय से लौटने के बाद, दो साल बाद अगर तुम्हारी फिर परीक्षा ली जाए, तुम उसी परीक्षा में पास कभी न हो पाओगे, जिसमें तुम पास हो चुके थे दो साल पहले। अचानक ली जाए परीक्षा तो तुम्हारे सौ स्नातकों में से निन्यानबे फेल हो जाएंगे। यह भी बड़ा मजा हुआ।

एम ए करके लौटे तो दो साल बाद तो समझ और बढ़नी चाहिए। लेकिन दो साल बाद अगर अचानक पकड़ लो तुम्हारे एम ए करने वाले को और उसकी परीक्षा ले लो, वे गए काम से! उनका सर्टिफिकेट वापस लेना पड़ेगा। किसको याद रहा? अब कौन फिकर करता है कि हेनरी अष्टम नाम का कोई महामूढ़ कब इंग्लैंड का राजा था, लेना देना किसको है? अष्टम था कि सप्तम था कि नवम था; और था भी कि नहीं भी था, लेना देना किसको है? कौन याद रखता है, किसलिए याद रखता है?

लेकिन विश्वविद्यालय इस तरह के कचरे को याद करवाता है। वह इसलिए याद करवाता है कि जो चीज तुम याद रख सकते हो, उससे तो परीक्षा होगी नहीं। क्योंकि उसको तो तुम सहज याद रख लोगे। उसमें तुम्हारी रुचि होगी। फिल्म तुम देखने जाते हो, वह तुम्हें पूरी याद रह जाती है। उसकी परीक्षा नहीं लेगा विश्वविद्यालय क्योंकि उसमें कोई सार ही नहीं। उसमें पता ही नहीं चलेगा क्योंकि वह सभी को याद रह जाती है। परीक्षा तो ऐसी फिजूल की बातों की लेनी पड़ती है जो कि कोशिश करके याद रहें। हेनरी सप्तम! टिम्बक्टू कहां है? कि ल्हासा की आबादी कितनी है? इस तरह की व्यर्थ की बातें, जिनको तुम किसी तरह के रस से संबंध नहीं कर सकते, जिनको तुम भूल ही जाओगे, उनको याद रखने की कुशलता को लोग जानकारी, जानने वाला, पंडित, प्रोफेसर इस तरह की भ्रांतियां पैदा करवा देते हैं।

अच्छा ही हुआ चिन्मय कि तुम विश्वविद्यालय नहीं गए। खतरा था। तुम खो जाते। उस जंगल में खो जाने का डर था। अब भी थोड़ा खतरा है इसलिए तुम्हें बार-बार मैं पंडित कहता हूं। अब भी तुम्हारे भीतर एक गहरा संस्कार है, जो चूक-चूक जाता है; जो भूल-भूल जाता है साक्षी को और पकड़ लेता है ज्ञान को। यह क्रांति तुम्हारे भीतर घट जाए इसी आकांक्षा में चोट करता हूं। यह तुम्हें किसी दिन दिखाई पड़ जाए और तुम सारी जानकारी छोड़ दो। तुम निर्भार हो जाओ। तुम सिर्फ एक बात पर खयाल रखो, वह जो तुम्हारे भीतर छिपी हुई चेतना है उस पर जानकारी के पत्तों को मत छाने दो। चेतना की धारा को जानकारी के पत्तों से मुक्त रखो।

यहां पूना की नदी पत्तों से भर जाती है। इतनी भर जाती है कि पीछे कुछ दिखाई नहीं पड़ता, पत्ते ही पत्ते हो जाते हैं। ऐसा ही जानकार चित्त पत्तों से भर जाता है। धीरे-धीरे पत्ते इतने फैल जाते हैं कि अंतर्धारा भूल ही जाती है। तुम्हारी चेतना की नदी नील नदी न बन जाए, जमीन के भीतर न बहने लगे।

यह कोई डिग्री नहीं है, जो मैं तुमसे कहता हूं। यह कोई उपाधि नहीं है, यह व्याधि है। सजग रहो। जिस दिन कहना बंद कर दूंगा तुम्हें पंडित, समझना तुम्हारे जीवन का बहुत सौभाग्य का दिन आ गया। आशा रखता हूं कि वह दिन आएगा इसीलिए कहता हूं।

ऐसे लोगों से भी आशा रखता हूं मैं, जिनसे आशा नहीं रखनी चाहिए। चिन्मय से तो मुझे आशा है लेकिन ऐसे भी लोग हैं यहां, जिनसे मुझे आशा भी नहीं है। आशा के विपरीत भी आशा रखता हूं। जैसे कृष्णप्रिया है। वह कुत्ते की पूंछ है; जिसके बाबत कहावत है, कि उसको बारह साल भी अगर बांस की पोंगरी में रखो, जब निकालोगे, वह फिर तिरछी ही जाएगी। मगर फिर भी उसको पोंगरी में रखता हूं। कौन जाने, कहावत एकाध बार गलत हो जाए! आशा के विपरीत भी आशा रखता हूं। और हारे भी तो खोया क्या! पाया तो कुछ पाया। और कहावतें गलत करने में भी एक मजा है। कृष्णप्रिया पर मेहनत किए चला जाता हूं कि अगर यह सही हो गया और कृष्णप्रिया अगर बदल गई तो यह कहावत बदल देंगे।

 

तीसरा प्रश्नः अनुकंपा कर समझाएं सदगुरु से आंतरिक निकटता का अर्थ।

॰ एक तो निकटता भौतिक है। भौतिक निकटता से सदगुरु के पास नहीं पहुंचा जाता। और सारे संबंध इस जगत में भौतिक संबंध हैं, गुरु का संबंध अभौतिक संबंध है।

तुम एक स्त्री के प्रेम में पड़ते हो, वह उसकी देह का प्रेम है। तुम अपनी मां को प्रेम करते हो क्योंकि तुम्हारी देह तुम्हारी मां से आई है। तुम्हारी देह और तुम्हारी मां की देह में एक तरंग है, एक जोड़ है, एक सेतु है। तुम अपने भाई को प्रेम करते हो, अपनी बहन को प्रेम करते हो क्योंकि तुम एक ही स्रोत से उमगे हो। तुम्हारे भीतर एक तरह की समानांतरता है।

गुरु से प्रेम असंभव घटना है। घटती है, मगर करीब-करीब असंभव घटना है। क्योंकि देह का कोई नाता ही नहीं है। और अगर गुरु से भी तुम्हारा देह का नाता है तो फिर गुरु-शिष्य का संबंध नहीं है। फिर मित्रता होगी, प्रेम होगा, कुछ और होगा, श्रद्धा नहीं है। श्रद्धा का अर्थ होता हैः किसी एक व्यक्ति में तुमने देह नहीं देखी, आत्मा देखी।

और ऐसा नहीं है कि गुरु और शिष्य के संबंध में देह का खंडन करना है। नहीं, देह के ऊपर उठना है। देह तो दिखाई पड़ती है। देह है तो दिखाई पड़ेगी ही। लेकिन देह ही दिखाई नहीं पड़ती है, देह के भीतर जो ज्योतिर्मय बैठा है वह दिखाई पड़ने लगता है। और धीरे-धीरे उस ज्योतिर्मय में इतना डूब जाता है भाव, कि देह भूल जाती है। जिस व्यक्ति के पास बैठे-बैठे देह भूल जाए, वही तुम्हारा गुरु है। जिस व्यक्ति के पास बैठे-बैठे अदृश्य की प्रतीति होने लगे, वही तुम्हारा गुरु है। जिसके भीतर से भगवत्ता की पहली किरण तुम्हें दिखाई पड़े, जिसे तुम भगवान कह सको, वही गुरु है।

मैं यह नहीं कहता कि गुरु को भगवान कहना चाहिए। जिसको तुम भगवान कह सको वही गुरु है।

यह आकस्मिक नहीं है कि बौद्धों ने बुद्ध को भगवान कहा और जैनों ने महावीर को भगवान कहा। और दोनों धर्म ईश्वर को मानने वाले धर्म नहीं हैं। ईश्वर को मानो या न मानो, लेकिन जब किसी व्यक्ति में मृण्मय देह के भीतर चिन्मय का भाव अनुभव होगा तो क्या करोगे? भगवान शब्द का उपयोग करना ही पड़ेगा। भगवान का अर्थ ईश्वर नहीं होता, भगवान का इतना ही अर्थ होता है, जगत पदार्थ पर समाप्त नहीं है ऐसा किसी व्यक्ति में अनुभव हुआ। देह के पार कुछ है, इसका सुराग मिला। देह के पार कुछ है इसकी झलक–कभी-कभी पकड़ में आती है, कभी-कभी चूक जाती है। कोई क्षण होते हैं सौभाग्य के जब आंख खुलती है और एक क्षण को तुम रूपांतरित हो जाते हो।

तो गुरु के आंतरिक निकटता का पहला अर्थः जिसमें तुम्हें भगवत्ता दिखाई पड़े।

दूसरी बात, जिसके पास तुम्हारे भीतर समर्पित होने का सहज भाव पैदा हो; चेष्टित नहीं, सप्रयास नहीं, किसी हेतु से नहीं, मोटिवेटेड नहीं, अनायास। जिसके पास झुक जाना अनायास हो जाए। करना पड़े तो काम का नहीं। दूसरों को देख कर करो तो भी काम का नहीं। वह अनुकरण है, वह झूठा है।

ऐसा रोज हो जाता है। कोई व्यक्ति मेरा आकर चरण छू रहा है, दूसरा व्यक्ति जो उसके पीछे मिलने आया है वह भी यह देख कर कि चरण छूना चाहिए, छू लेता है।

मैं एक बार मृदुला के घर बंबई में मेहमान था। दो मित्र मुझे मिलने आए थे, दोनों बैठे थे। वर्षों से मुझे जानते थे, वर्षों से मुझे मिलने आते थे। तीसरा आदमी आया। वह नया आदमी था, वह पहली दफा आया था। उसे मेरे ढंग का अभी कुछ पता नहीं था। वह साधु-संतों के पास जाता होगा। तो उसने जल्दी से सौ का एक नोट निकाला और मेरे चरणों में रखा। वह अपने गुरु के चरणों में रखता होगा। इसके पहले कि मैं उसको कुछ कहूं, वे जो दो सज्जन बैठे थे, उन्होंने भी जल्दी से रुपये निकाले और मेरे पैर में रखे।

मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने उनसे पूछाः भई यह आदमी नया है, इसे नोट मूल्यवान मालूम पड़ता है। यह गुरु के पास भी जाए तो नोट को ही धन मानता है। इसका मूल्य नोट में है। इसके पास और कुछ चढ़ाने को नहीं है, यह गरीब आदमी है। मगर तुम तो मुझे जानते हो। और तुमने, मैं दस साल से जानता हूं कभी नोट नहीं चढ़ाया, आज तुम्हें क्या हो गया? उन्होंने कहाः जब इस आदमी ने चढ़ाया तो हमने सोचा कि अरे, हमने कभी नहीं चढ़ाया! चढ़ाना चाहिए। हमसे बड़ी भूल हो रही है।

अब यह पहला आदमी तो गलती कर ही रहा है लेकिन फिर भी इसकी गलती कम से कम इसकी निजी है। ये दूसरे जो आदमी गलती कर रहे हैं, ये उधार गलती कर रहे हैं, इनकी गलती भी अपनी नहीं है। अगर तुम किसी को देख कर किसी के चरणों में झुक जाओ तो वह झूठ होगा। अगर तुम किसी लोभ के वश झुक जाओ तो झूठ होगा। अगर तुम इसलिए झुक जाओ कि शायद कुछ लाभ होगा, चुनाव में खड़े हो गए हैं, शायद जीत जाएंगे।

इधर मेरे पास लोग आ जाते हैं। चरण छूकर कहते हैं कि चुनाव में खड़े हो गए हैं, अब आपके हाथ में लाज है। मैं उनसे कहता हूं, अगर तुम सच में मेरा आशीर्वाद चाहते हो तो चुनाव में हारोगे। क्योंकि मैं वही आशीर्वाद दे सकता हूं कि भगवान न करे कि तुम जीत जाओ। क्योंकि पहले ही निकल आओ इस पागलखाने के बाहर तो अच्छा है। घुसने के बाद निकलना बहुत मुश्किल हो जाएगा। एक दफे दिल्ली पहुंच गए फिर राजघाट पर ही मरते हैं लोग, फिर लौट नहीं पाते। दिल्ली के बाद राजघाट ही बचता है, फिर और जाओ कहां? तो अभी बाहर से ही निकाल लूंगा तुम्हें। वे कहते हैं, नहीं नहीं, आप भी कैसी बातें कर रहे हैं! आप मजाक कर रहे हैं। वे घबड़ाने लगते हैं कि आप मजाक कर रहे हैं। नहीं, ऐसा मत कहिए।

अगर मैं उनसे कहता हूं, मेरा आशीर्वाद चाहते हो तो मैं यही दूंगा कि परमात्मा करे कि तुम कभी राजनीति में सफल न हो पाओ। क्योंकि जो राजनीति में सफल हुआ वह धर्म में हार गया। जो संसार में सफल हुआ, वह शायद परमात्मा को याद ही न कर पाए। वह इसी सफलता में भटक जाएगा। कहते हैं न, हारे को हरिनाम! तो मैं तुमसे कहूंगा, हार जाओ ताकि कम से कम हरिनाम याद आए। हारे में ही लोग याद करते हैं, जीते तो अकड़ जाते हैं। तो जीत अंततः महंगी पड़ती है। तो वे कहते हैं हम और संतों के पास जाते हैं, वे तो आशीर्वाद देते हैं। मैंने कहा, उनकी वे जानें। वे किस भांति के संत हैं, वे जानें। मैं कोई संत नहीं हूं। मैं तो जो सच-सच है वही तुमसे कह रहा हूं। मेरा हार्दिक आशीर्वाद तो यही है कि तुम कभी जीतो न।

अब यह आदमी झुकने आया था? यह झुकने नहीं आया था, यह कुछ लेने आया था। कुछ भीतर वासना थी, लोभ था। कुछ हेतु था। अगर हेतु से झुको तो गुरु के पास नहीं पहुंच सकोगे। अहैतुक झुक सकते हो? अहैतुक झुकने का क्या अर्थ होगा? उसका अर्थ होगा, कोई जगह झुकने योग्य लगी। कोई जगह थी, जहां बिना झुके नहीं रहा जा सका। कोई जगह थी, जहां सोचा भी नहीं था और झुक गए।

आलमे-कैफ-सा हो जाता है तारी मुझ पर

बैठे-बैठे जो मुझे याद तेरी आती है।

गुरु सामने हो यह भी जरूरी नहीं है। याद भी आए तो झुक जाते हो।

आलमे-कैफ-सा हो जाता है तारी मुझ पर

एक विस्मय विमुग्धता छा जाती है, एक रहस्य का लोक खुल जाता है, एक शराब बरस जाती है–बैठे-बैठे जो मुझे याद तेरी आती है।

तेरे खिरामे-नाच की जब याद आ गई

चलने लगी नसीम छलकने लगी शराब

शिष्य तो प्रेमी है। जैसे प्रेमी को अपनी प्रेयसी की याद आ जाए।

तेरे खिरामे-नाच की जब याद आ गई

चलने लगी नसीम छलकने लगी शराब

हवा बहने लगती है, शराब ढलने लगती है। जैसे प्रेमी को प्रेयसी की याद से हो जाता है, वह तो कुछ भी नहीं है। लेकिन जब कोई अहैतुक भाव से किसी के चरणों में झुक जाता है तो ऐसी बूंदा-बांदी नहीं होती शराब की फिर, मूसलाधार वर्षा होती है। और हवा ऐसी आती है कि जो फिर जाती नहीं। एक नये ही लोक में पदार्पण हो जाता है।

साकी तेरी निगाह की मस्ती में डूब कर

मैं होश में न आऊं अगर मेरा बस चले

यह एक अनूठा नाता है, जहां गुरु की आंखों में झांक कर इस जगत के पार जाने का द्वार मिल जाता है।

साकी तेरी निगाह की मस्ती में डूब कर

और गुरु से ज्यादा मस्त आंखें कहां पाओगे? और सारी मस्तियां तो क्षुद्र हैं। सुंदर से सुंदर स्त्री या सुंदर से सुंदर पुरुष की आंख भी कल कुरूप हो जाएगी। क्योंकि सौंदर्य देह का है। देह अभी शराब में है, अभी जवान है, तो सब सौंदर्य है। कल देह की बाढ़ उतर आएगी, यही आंखें कुरूप हो जाएंगी।

तुमने खयाल किया? हमने बुद्ध की मूर्ति बुढ़ापे की नहीं बनाई; न राम की, न कृष्ण की, न महावीर की। क्या तुम सोचते हो, ये कभी बूढ़े न हुए होंगे? ये जरूर बूढ़े हुए थे। बूढ़े न होते तो मरते कैसे? जरूर बूढ़े हुए थे लेकिन हमने बुढ़ापे की मूर्ति नहीं बनाई। क्योंकि जिन्होंने इनको प्रेम किया, जिन्होंने इनको जाना, उन्होंने इनकी देह से तो ऊपर कुछ जाना, जो कभी बूढ़ा नहीं होता; जो सदा जवान है, जो चिर यौवन है। जिन्होंने बुद्ध की आंखों में झांका उन्होंने जाना कि वे चिर यौवन के करीब आ गए। वहां उन्होंने शाश्वत की झलक देखी, जिसकी कोई उम्र नहीं होती। इसलिए बुद्ध की सब मूर्तियां जवानी की हैं, महावीर की सब मूर्तियां जवानी की हैं। कृष्ण की, राम की सब मूर्तियां जवानी की हैं। ये सब बूढ़े हुए थे, मगर फिर भी इनमें कुछ एक झलक थी जो शाश्वत की थी, जो कभी बूढ़ी नहीं हुई।

साकी तेरी निगाह की मस्ती में डूब कर

मैं होश में न आऊं अगर मेरा बस चले

शिष्य तो झुकता है तो उठना नहीं चाहता। और कोई हेतु नहीं। तुम अगर शिष्य से पूछो, क्यों झुके? तो जवाब न दे सकेगा। जो जवाब दे सके वह शिष्य नहीं। फिर से दोहरा दूंः तुम अगर शिष्य से पूछोगे कि तुम झुके क्यों उन चरणों में, तो वह अवाक खड़ा रह जाएगा। उसे भरोसा ही नहीं आएगा कि कोई यह सवाल भी पूछ सकता है। और उसके पास कोई उत्तर नहीं होगा। वह निरुत्तर रह जाएगा। वह मौन रह जाएगा। क्योंकि उत्तर का तो मतलब होगा कोई हेतु बतलाए–क्यों? हेतु वहां कुछ भी न था।

जब तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाता है, तुम कारण बता सकते हो, क्यों? आज तक कोई प्रेमी नहीं बता सका। और जिन्होंने बताया है, वे प्रेमी नहीं हैं। कोई कहता है इसलिए, कि उसके बाप के पास बहुत धन है, तो यह प्रेमी नहीं है। कोई कहता है इसलिए, कि वह बहुत पढ़ी-लिखी है; यह प्रेमी नहीं है। कोई कहता है कि उस पुरुष की अच्छी नौकरी है, इसलिए स्त्री प्रेम में पड़ गई है। यह प्रेम नहीं है। जहां प्रेम है वहां उत्तर नहीं हो सकता। क्यों का क्या उत्तर हो सकता है? सन्नाटा हो जाएगा। क्यों? तुम इतना ही कह सकोगे, प्रेम है इसलिए। मगर यह कोई उत्तर हुआ? यही तो पूछा गया था। प्रेम किसलिए? तुम कहते हो, प्रेम है इसलिए। कोई कारण नहीं बताया जा सकता।

और गुरु के साथ प्रेम इस जगत का सबसे ऊंचा प्रेम है। उसके बाद तो बस, परमात्मा का प्रेम ही बचता है। गुरु के बाद फिर और सीढ़ी कहां? बस, फिर परमात्मा का आकाश है।

तुमने पूछाः ‘समझाएं सदगुरु से आंतरिक निकटता का अर्थ।’

अहैतुक झुक जाना। निर-अहंकार भाव में झुक जाना। ना-मैं की स्थिति में झुक जाना। अपने को पोंछ देना। अपने को बचाना नहीं।

अहंकार बड़े-बड़े उपाय करता है अपने को बचाने के। बड़ा कुशल है, बड़ी सूक्ष्म विधियां खोजता है। उनसे सावधान रहना।

कभी-कभी तो ऐसा होता है, तुम अहंकार के कारण भी झुक जाते हो। यह उलटी बात लगती है। मगर अगर झुकने के कारण ही अहंकार की तृप्ति होती हो तो तुम इसलिए भी झुक जाते हो। तुम यह भी अहंकार अपने मन में ले सकते हो कि देखो, मैं कितना विनम्र हूं, झुक गया चरणों में। जब दूसरे अकड़े खड़े थे, मैं झुक गया। मगर यह फिर झुकना नहीं रहा। तुम चूक गए। झुके और नहीं झुके। जहां मैं आ गया, वहां चूक हो गई।

गुरु के पास होने का अर्थ है, इस भांति होना कि तुम हो ही नहीं। जितने तुम नहीं हो उतने ही पास हो। गुरु तो नहीं ही है। वह तो परमात्मा में लीन हुआ। वह तो शून्य हुआ। उसके पास तुम उतने ही निकट आते जाओगे, जितने शून्य होते जाओगे। और जिस दिन शिष्य और गुरु दोनों एक से शून्य हो जाते हैं उसी दिन मिलन घट जाता है। उस दिन फिर गुरु गुरु नहीं, शिष्य शिष्य नहीं। फिर दो नहीं बचे, फिर एक ही बचा।

यह याद से भी होने लगेगा। इसलिए गुरु के पास होना अनिवार्य नहीं है। कहीं भी होओ, वहीं घट जाएगा।

पासे-अदब से छुप न सका राज इश्क का

जिस जां तुम्हारा नाम सुना, सर झुका दिया

बुद्ध का बड़ा शिष्य था सारिपुत्र। जब सारिपुत्र ज्ञान को उपलब्ध हो गया तो बुद्ध ने कहाः सारिपुत्र, अब तुझे मेरे साथ होने की जरूरत नहीं है, अब तू जा, और सोए हैं लोग उनको जगा। सारिपुत्र की आंखों से आंसू टपकने लगे। बुद्ध ने कहाः तू और रोता है? वर्षों से सारिपुत्र ने बुद्ध को नहीं छोड़ा था, छाया की तरह चलता था। लेकिन अब जानता था कि घड़ी आ गई है, जाना पड़ेगा।

जब बुद्ध की आज्ञा हो गई तो गया भी। लेकिन कहीं भी होता, रोज सुबह जिस दिशा में बुद्ध होते, उस दिशा में सिर झुका कर जमीन पर पड़ जाता। अनेक उसके शिष्य थे, वे उससे कहते कि आप तो स्वयं बुद्ध हो गए हैं, अब आप क्यों झुकते हैं? उन्होंने कहाः मैं उसी कारण तो बुद्ध हुआ कि मैं नहीं रहा। अब झुकता हूं यह कहना भी ठीक नहीं है, झुकना घटता है। और जिसके शून्य के पास बैठ-बैठ कर मैं शून्य हुआ उसका अनुग्रह भूले नहीं भूलता। उससे मैं कभी उऋण नहीं हो सकूंगा।

इसलिए पुरानी कहावत कहती है, पिता के ऋण से उऋण हुआ जा सकता है, मां के ऋण से उऋण हुआ जा सकता है लेकिन गुरु के ऋण से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं। एक ही उपाय है कि जो तुमने गुरु से पाया है उसे दूसरों में बांट देना। जैसे गुरु ने तुम्हें जगाया, ऐसे तुम किसी और को जगा देना। जो तुम्हारा बुझा दीया जल उठा है गुरु के पास, और बुझे दीयों को तुम्हारे दीये के पास आकर जल जाने देना। यह संक्रांति तुमसे औरों में घटती रहे, बस।

निकटता का अर्थ है मिट जाना।

आ गई मौत बेअजल उसकी

तूने देखा जिसे नजर भरके

पुराने शास्त्र एक अपूर्व बात कहते हैं, वे कहते हैं, ‘आचार्यो मृत्युः।’ गुरु मृत्यु है। गुरु के पास जाओगे तो मरोगे, मिटोगे। मिटोगे तो ही हो सकोगे।

आ गई मौत बेअजल उसकी

तूने देखा जिसे नजर भरके

तूने देखा जिसे नजर भरके–गुरु तो देखता ही है नजर भरकर। वह आधी नजर तो देख ही नहीं सकता। उसका तो प्रत्येक कृत्य समग्र होता है। लेकिन तुम अपनी आंख बचा जाते हो। शिष्य वही है जो आंख न बचाए; जो झेल ले। वह जो गुरु की तलवार गिरे तो फूल की माला की तरह झेल ले।

मुझे आजमाइश में मत डालिएगा

मैं मर जाऊंगा आपसे दूर होकर

एक मौत है जो गुरु के पास घटती है, एक मौत है जो उससे दूर होकर घटेगी। गुरु से दूर होकर जो मौत घटती है उसी को तुमने अब तक जीवन समझा है। और गुरु के पास होकर जो मौत घटती है वही परम जीवन है। वही पुनरुज्जीवन है, वही नया जीवन है, दिव्य जीवन है–या जो भी नाम तुम उसे देना चाहो; निर्वाण कहो, संबोधि कहो, समाधि कहो।

 

चैथा प्रश्नः सब कुछ ठीक चलता रहता है, फिर किसी कमजोर क्षण में मेरा सारा अतीत एक तूफान-समान घेर लेता है और कहता मालूम होता है, जाने नहीं दूंगा। सिर की सारी नसें खिंचाव में आ जाती हैं। प्रवचन में समाधान हो जाता है पर फिर संसार में जाकर वही शक्तियां प्रबल होना चाहती हैं।

॰ पूछा है प्रतिभा ने।

ऐसा स्वाभाविक है। यहां तुम एक तरंग में होते हो। मेरी लहर के साथ बहते हो। संसार में जाते हो, फिर तुम अकेले हो जाते हो। अभी तुम्हें वह कला नहीं आई है कि तुम मुझे अपने साथ वहां भी ले जा सको। मैं तो तैयार हूं। आते-आते वह भी आ जाएगी। यहां तो तुम एक वातावरण में होते हो। यह गैरिक संन्यासियों का अपना एक जगत है। इसकी अपनी एक धुन है, अपनी एक हवा है। इस हवा में तुम सहज ही ऊंचे आकाश में उठ जाते हो। अकेले रह जाओगे, अपने ही पंखों पर तुम्हें अभी भरोसा नहीं है। मेरे साथ-साथ तुम दूर की उड़ान ले लेते हो। लेकिन अपने पर ही छोड़े जाओ तो तुम भयभीत हो जाते हो, शंकालु हो जाते हो। तुम्हें भरोसा नहीं आता। आत्म-विश्वास नहीं उठता कि मैं इतनी ऊंची उड़ान पर जी सकूं। संसार में लौटते हो, वहां भीड़ है और तरह के लोगों की। वहां और तरह की हवा है। उस हवा में तुम फिर खिंच जाते हो नीचे की तरफ।

तो प्रतिभा का प्रश्न महत्वपूर्ण है, सभी के लिए काम का है। सब कुछ ठीक चलता रहता है, फिर किसी कमजोर क्षण में…।

वे कमजोर क्षण आते रहेंगे। लेकिन उन कमजोर क्षणों को जाग कर देखो। उन कमजोर क्षणों को तादात्म्य मत कर लेना। उनके साथ अपने को एक मत समझ लेना। वे तुम नहीं हो। कमजोर क्षण आएगा। तुम दूर खड़े होकर देखना साक्षीभाव से। लड़ना भी मत उससे, झगड़ना भी मत, धकाने की कोशिश भी मत करना, बदलने की चेष्टा भी मत करना। उपेक्षा से देखना।

एक बात सदा खयाल रहे कि मित्रता भी लगाव का संबंध है, शत्रुता भी लगाव का संबंध है। जिससे तुम प्रेम से जुड़ते हो उससे भी जुड़ जाते हो और जिससे तुम घृणा से जुड़ते ही उससे भी जुड़ जाते हो। दोनों ही जोड़ हैं। मित्र ही नहीं एक दूसरे के सगे होते, शत्रु भी एक दूसरे के बड़े सगे होते हैं। मित्र तो भूल भी जाएं, शत्रु भूलते ही नहीं। इसलिए यह मन का एक अनिवार्य नियम खयाल में रखना कि जिन चीजों से मुक्त होना हो उनके साथ दुराव, दुश्मनी मत बना लेना, अन्यथा जोड़ हो जाएगा। फिर छूटना मुश्किल हो जाएगा। न तो मैत्री बनाना और न शत्रुता–उपेक्षा! उपेक्षा सूत्र है। देखते रहना, जैसे हमें कुछ लेना-देना नहीं है!

जैसे रास्ते से कोई गुजर रहा, है, हमें क्या लेना-देना है? अच्छा आदमी गुजरे, बुरा आदमी गुजरे, हमें क्या लेना-देना है? गरीब गुजरे, अमीर गुजरे, रास्ता चलता ही रहता है। ऐसे ही तुम्हारे मन के रास्ते पर बहुत तरह की चीजें गुजरती हैं। तुम दूर खड़े हो जाओ, यह राह चलने दो। तुम इसमें उपेक्षा रखना।

जब तुम्हें कोई कमजोर क्षण आता मालूम पड़े तो भयभीत भी मत होना और बांहें कस कर लड़ने को तैयार भी मत हो जाना। उन दोनों ही हालत में तुम उलझ जाओगे। कमजोर क्षण है, देखना। क्रोध उठा, कमजोर क्षण है, देखना। न तो क्रोध की मान कर क्रोध करना और न क्रोध को दबाने में लग जाना। क्योंकि जो आज दबाया है, कल उभरेगा। और दबाते-दबाते बहुत बुरी तरह उभरेगा। दमन से कोई कभी मुक्त नहीं होता। और जो आज किया है वह अयास बन जाएगा, कल फिर करना पड़ेगा।

करने से भी कोई मुक्त नहीं होता। क्रोध करने से भी कोई मुक्त नहीं होता क्योंकि अयास सघन होता जाता है। और क्रोध को दबाने से भी कोई मुक्त नहीं होता क्योंकि दबी हुई क्रोध की ऊर्जा ऐसे इकट्ठी हो जाती है, जैसे केतली का ढक्कन बंद हो और भीतर भाप इकट्ठी हो जाए। केतली फूट सकती है।

तो न तो क्रोध से लड़ना और न क्रोध से दोस्ती करना। चुपचाप देखते रहना; क्रोध आया, धुआं उठा। जैसे आया, वैसे ही चला जाएगा। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा है, इतना ही भीतर मन में कहनाः क्रोध आया। और जब देखो कि अब क्रोध जाने लगा तो फिर मन में कहनाः क्रोध गया। बस इतनी जागरूकता रखना–क्रोध आया, क्रोध गया। इससे ज्यादा कोई चिंता लेने की जरूरत नहीं है। और धीरे-धीरे जिन चीजों के प्रति तुम्हारी उपेक्षा होगी उनका आगमन कम होता जाएगा।

‘सब कुछ ठीक चलता रहता है,’ पूछा है, ‘फिर किसी कमजोर क्षण में मेरा सारा अतीत एक तूफान के सामान घेर लेता है।’

अतीत बार-बार घेरेगा। क्योंकि अतीत आसानी से नहीं जाता। तुमने ही तो बनाया है उसे। तुमने ही तो इतना संवारा है उसे। तुमने ही तो इतना पानी दिया है अतीत की जड़ों में, एकदम जाएगा कैसे? तुमने ही तो बड़ी मेहनत उठाई है–यह कारागृह जिसमें तुम बंद हो, तुम्हारा ही बनाया हुआ घर है। एकदम जाएगा भी नहीं, जाते-जाते जाएगा। अब जब अतीत का तूफान आ जाए…और प्रतिपल आता है। स्मृतियां घेर लेती हैं, वही अतीत का तूफान है। तब भी तुम उपेक्षा रखना। देखना कि स्मृतियां उठ गईं, चारों तरफ घिर गया चित्त, बीच में खड़े हो जाना तूफान के।

तुमने देखा? अंधड़ में बीच में एक जगह होती है जहां अंधड़ नहीं होता। कभी गरमी के दिनों में जब बवंडर उठता है और आंधी उठती है, और हवा जोर से घूमती है और उठा कर ले जाती है धूल को। और किन्हीं-किन्हीं देशों में इतनी जोर से उठती है कि लोगों तक को उठा कर ले जाती है। छोटे बच्चे उड़ जाते हैं, बूढ़ी-बूढ़े उड़ जाते हैं। किन्हीं देशों में तो रास्तों के किनारे रस्सियां खंभों से बांध कर लटकाई गई हैं कि जब बवंडर उठे तो जल्दी से रस्सी पकड़ लो, नहीं तो खतरा है।

लेकिन जब बवंडर चला जाता है तब तुमने जाकर देखा जमीन पर, धूल पर निशान बने देखे? सब तरफ बवंडर होता है लेकिन केंद्र पर कोई बवंडर नहीं होता। जैसे गाड़ी का चाक चलता है–चाक चलता है, कील ठहरी रहती है। ठहरी कील पर चलता हुआ चाक घूमता है। अगर कील न ठहरी हो तो चाक घूम नहीं सकेगा। यह बड़े मजे की बात है। जो घूमता है वह उस पर ठहरा है जो नहीं घूमता।

तुम्हारे भीतर भी कितना ही तूफान उठे, एक केंद्र सदा तूफान के बाहर होता है, वह तुम्हारा आंतरिक केंद्र है। तुम वहीं सरक जाना, वहीं खड़े हो जाना। उठने देना तूफान को। थोड़ी देर में तूफान आया है, चला जाएगा। अभी नहीं था, अभी फिर नहीं हो जाएगा। और अगर तुमने अपने बीच के केंद्र पर खड़े होने की कला सीख ली तो बड़ा आनंद होगा। तब तूफान का मजा भी ले सकते हो। कैसा ही तूफान हो, स्मृतियों का हो कि कल्पनाओं का हो, क्रोध का हो, कि लोभ का हो कि मोह का हो, कि वासना का हो। कैसा ही तूफान हो, उन सबका स्वभाव एक है। और तुम्हारे भीतर एक केंद्र है जिस तक कोई तूफान कभी नहीं पहुंचता। भूकंप आते हैं लेकिन तुम्हारे भीतर एक केंद्र है, जहां कोई कंप कभी नहीं पहुंचता। वह निष्कंप है। उसकी ही तो तुम्हें याद दिला रहा हूं। उसमें ही प्रवेश करना तो ध्यान है। उसीको जगा लेना तो बुद्धत्व है। उसी के साथ रम जाना, उसी के साथ एक हो जाना तो निर्वाण है।

सब कुछ ठीक चलता है, फिर किसी कमजोर क्षण में मेरा सारा अतीत एक तूफान-समान घेर लेता है और कहता मालूम होता है, जाने नहीं दूंगा।

अतीत सदा रुकावट डालता है, खींचता है पीछे की तरफ। अतीत तुम्हारा बोझ है। लेकिन तभी तक खींच सकता है जब तक तुमने अतीत के साथ अपना तादात्म्य किया है। इसलिए तो संन्यासी का नाम बदलते हैं, इसलिए तो उसका वस्त्र बदल देते हैं। क्यों? क्या होगा नाम बदलने से, वस्त्र बदल देने से? कुछ भीतरी कीमिया है। अगर तुम्हारा नया नाम हो जाए तो पुराने नाम से तादात्म्य टूटता है।

समझो कि तुम्हारा नाम रहीम था और मैंने राम कर दिया, या तुम्हारा नाम राम था और मैंने रहीम कर दिया। कल तक तुम्हारा नाम राम था, आज रहीम हो गया। धीरे-धीरे तुम इस नये नाम के साथ एक हो जाओगे। रास्ते पर कोई राम को गाली दे रहा होगा, तुम्हें चिंता भी नहीं उठेगी। तुम्हारा उससे तादात्म्य छूट गया। और तब तुम्हें एक बात और समझ में आ जाएगी कि जब राम से रहीम हो सकता है, रहीम से राम हो सकता है तो मेरा कोई नाम है नहीं। सब काम चलाऊ हैं। मैं अनाम हूं।

इस बात की स्मृति जगाओ प्रतिभा, कि मैं अनाम हूं। मेरा न कोई अतीत है, न मेरा कोई भविष्य है। मैं तो बस अभी हूं, यहां हूं। यही क्षण मेरा शाश्वत जीवन है। इस क्षण के अतिरिक्त किसी और चीज से डोल जाना संसार है। और इस क्षण में पूरे अडोल खड़े हो जाना मोक्ष है।

कहा हैः ‘प्रवचन में समाधान हो जाता है पर फिर संसार में जाकर वही शक्तियां प्रबल होना चाहती हैं।’

स्वभावतः! सुनते हो मुझे, गुनते हो मुझे, मेरे साथ चल पड़ते हो एक नवीन यात्रा पर। भूल जाते हो अपने अतीत को, वह पीछे पड़ा रह जाता है। वापस लौटे बाजार में, वह अतीत फिर तुम पर कब्जा करना चाहता है। बदला लेना चाहेगा। तुम घंटे भर को भूल गए थे, वह तुम्हें जोर से पकड़ लेना चाहेगा–और भी जोर से, जितना पहले पकड़ा था। क्योंकि तुम पर संदेह पैदा होने लगेगा। तुम किसी दिन छोड़कर ही चले जाओ। तुम किसी दिन बिलकुल ही भूल जाओ। तो अतीत सब तरह के जाल फैलाएगा।

लेकिन यहां बैठो या बाहर जाओ, सजगता को कायम रखने की कोशिश करो। मैं तुम्हारे साथ हूं, अगर तुम मेरे साथ हो। यही स्मरण तुम्हें बना रहे प्रतिभा, इसीलिए तो संन्यास दिया है। जहां जाओ–रास्ते पर, बाजार में, भीड़ में, जहां चलो, ये गैरिक वस्त्र तुम्हें याद दिलाते रहें कि तुमने जीवन की एक नई शैली स्वीकार की है। एक नया आयाम स्वीकार किया है।

याद बनाओ कि अब तुम संसार की खोज में उत्सुक नहीं हो, तुम्हारी उत्सुकता परमात्मा में है। और दिन में कई बार इसकी याद कर लो। एक क्षण को कभी भी आंख बंद कर लो और इसकी याद कर लो। जितनी बार इसकी याद हो सके दिन में, उतनी बार याद कर लो। यही याददाश्त धीरे-धीरे सघन होगी। बुद्ध ने इसे सम्यक स्मृति कहा है, राइट माइंडफुलनेस। बार-बार याद करना होगा। जैसे–

रसरी आवत जात है सिल पर पड़त निशान

करत-करत अयास के जड़मति होत सुजान

ग्राम्य कहावत है। लेकिन कभी-कभी ग्राम्य कहावतों में सदियों की प्रज्ञा प्रकट होती है। पत्थर पर भी साधारण सी रस्सी बार-बार आती रहती है, जाती रहती है कुएं पर, तो पत्थर पर भी निशान पड़ जाता है–रस्सी का! कोई सोच भी नहीं सकता था। पहले दिन जब रस्सी का शुरू हुआ था आगमन, कोई भरोसा भी नहीं कर सकता था कि पत्थर जैसी कठोर चीज पर रस्सी जैसी कोमल चीज का निशान पड़ जाएगा।

लाओत्सु ने कहा है, पहाड़ से जल की धार गिरती है, पत्थरों पर गिरती है जल की कोमल धार। पत्थरों को भरोसा भी नहीं होता कि हमें तोड़ देगी। लेकिन एक दिन पत्थर रेत होकर बह जाते हैं। और जल की धार…कोमल से कोमल तत्व हो सकता है कोई तो जल की धार।

ऐसा सातत्य स्मरण का रहे। जब भी लगे कि अतीत पकड़ता है, एक क्षण को शिथिल करो, माला को हाथ में लो, एक बार अपना गैरिक वस्त्र देखो, आंख बंद करके स्मरण करो। और तत्क्षण तुम पाओगे, बाहर हो गए, तूफान गया। धीरे-धीरे पत्थर जैसी अतीत की आदत भी टूट जाएगी। निश्चित ही टूट जाती है। साधते-साधते सब सध जाता है। सिर्फ धैर्य चाहिए और सतत श्रद्धा चाहिए कि होगा।

इस सदी में अगर कोई एक चीज खो गई है तो वह धैर्य खो गया है। लोग तत्क्षण चाहते हैं। अभी हो जाए। कुछ चीजें हैं जो समय लेती हैं। जितनी मूल्यवान चीजें हैं उतना समय लेती हैं। मौसमी फूल बो दो तो अभी कुछ दिन में फूल आ जाएंगे, मगर कुछ दिन में चले भी जाएंगे। उनका कोई स्थायित्व नहीं है। लेकिन अगर तुम्हें चिनार का कोई बड़ा दरख्त खड़ा करना हो तो वर्षों लगेंगे। बड़ा दरख्त जब खड़ा होगा और चांद-तारों से बातें करेगा, तब आनंद होगा। लेकिन वर्षों की साधना पीछे होती है। जल्दी भर मत करो, अधैर्य भर मत करो।

धैर्य हो और सतत अयास जारी रहे, एक दिन क्रांति निश्चित घटती है। कबीर को घटी, कृष्ण को घटी, क्राइस्ट को घटी, तुम्हें घट सकती है। जो एक आदमी को घटी है वह प्रत्येक आदमी को घट सकती है।

 

पांचवां प्रश्नः ऐसा लगता है कि भक्ति में गुरु की महिमा सर्वाधिक है। क्या प्रेम को दूसरे की, श्रेष्ठ की, सहारे की जरूरत सबसे अधिक है?

॰ प्रेम का अर्थ ही होता है, दो चाहिए। प्रेम की धारा दो किनारों के बीच बहती है। जैसे नदी की धारा दो किनारों के बीच बहती है। एक किनारा हो तो नदी नहीं हो सकती। दो किनारे चाहिए। एक किनारा हो तो सूखी नदी हो सकती है। रेगिस्तान होगा, जलधार नहीं हो सकती। जलधार को बांधने के लिए दो किनारे होंगे। ध्यान अकेले हो सकता है, प्रेम अकेले नहीं हो सकता। इसलिए ध्यान की परम प्रक्रिया में गुरु को विस्मृत किया जा सकता है। गुरु को छोड़ा जा सकता है।

कृष्णमूर्ति अकारण ही नहीं कहते कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि सारी प्रक्रिया ध्यान की है। ध्यान में गुरु अनिवार्य नहीं है, अपरिहार्य नहीं है। क्योंकि ध्यान का अर्थ है, अपने भीतर जाना है। अगर गुरु से कुछ सहारा भी मिलता हो तो बहुत प्रारंभिक है। ऐसे ही जैसे रास्ते पर तुमने किसी से पूछ लिया कि स्टेशन की तरफ कौन सा रास्ता जाता है। इसके कारण वह तुम्हारा गुरु नहीं हो गया। धन्यवाद दिया और तुम अपने रास्ते पर चले गए।

ध्यान के मार्ग पर गुरु का इतना ही अर्थ होता है–एक तरह का मार्गदर्शक। लेकिन भक्ति के मार्ग पर, प्रेम के मार्ग पर गुरु बड़ा बहुमूल्य है। उसके बिना तो घटना ही नहीं घटेगी। वहां वह केवल मार्गदर्शक नहीं है, वहां तो वह स्वयं परमात्मा का प्रतीक है।

तो ध्यानी चाहे तो गुरु से मुक्त हो सकता है और पहुंच सकता है। लेकिन वहां भी अड़चन मालूम होती है। इस बात को समझने के लिए भी कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है, लोगों को कृष्णमूर्ति को समझने जाना पड़ता है। तो कृष्णमूर्ति गुरु हो गए। गुरु का मतलब क्या होता है? जिसके बिना समझ में न आए।

अगर कृष्णमूर्ति निश्चित ही मानते हैं कि गुरु की कोई जरूरत नहीं, उन्हें बोलना ही नहीं था। बोलने का मतलब क्या होता है? बोलने का मतलब होता है कि कुछ है, जो मैं न बोलूंगा तो तुम्हें पता न चलेगा। अगर मेरे बिना बोले तुम्हें पता चल ही जाने वाला है तो मैं बोलूं क्यों? और कृष्णमूर्ति आग्रह से बोलते हैं, अति आग्रह से बोलते हैं। तुम्हारी समझ में न आए तो वे नाराज भी हो जाते हैं। अपना सिर पीटते मालूम होते हैं। स्वाभाविक, इतनी चेष्टा करते हैं समझाने की, फिर तुम्हारी समझ में न आता हो…और कई बार ऐसा कृष्णमूर्ति की बैठक में हो जाएगा कि रात भर रामलीला देखी और सुबह लोग पूछते हैं, सीता राम की कौन थी? कृष्णमूर्ति समझाते हैं घंटों कि ध्यान की कोई प्रक्रिया नहीं है और फिर जब प्रश्न का समय होता है, कोई खड़े होकर पूछता है, ध्यान कैसे करें? फिर बात वहीं के वहीं आ गई! सिर पीट लेने जैसी बात है। इस आदमी ने सुना ही नहीं। यह फिर पूछ रहा कि विधि क्या है? तो करें कैसे? कृष्णमूर्ति कहते हैं, कोई गुरु नहीं है। और लोग उनसे पूछ रहे हैं; मार्ग पूछ रहे हैं, दिशा पूछ रहे हैं।

ध्यान के मार्ग पर गुरु एक मार्गदर्शक है–गाइड। उसके बिना भी हो सकता है। और अगर उसकी जरूरत भी है, तो भी बहुत गौण है। वह केंद्रीय तत्व नहीं है। लेकिन भक्ति के मार्ग पर गुरु बिलकुल केंद्रीय है। भक्ति के मार्ग पर परमात्मा को भूला जा सकता है, गुरु को नहीं भूला जा सकता। क्योंकि गुरु के द्वारा परमात्मा मिलेगा। इसलिए गुरु को नहीं भूला जा सकता।

कबीर ने कहा न, गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांव। किसके चरण छुऊं? दोनों सामने खड़े हैं। बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय। लेकिन बलिहारी फिर उन्होंने गुरु की ही कही। क्योंकि गुरु के द्वारा ही गोविंद मिला। नहीं तो गोविंद का तो पता ही न चलता। गुरु में ही गोविंद की पहली भनक आई। गुरु में ही गोविंद को पहली दफा देखा। गुरु द्वार बना। उसी द्वार से भीतर छिपे रहस्यों का पता चला।

तो भक्त के लिए गुरु बड़ा महिमापूर्ण शब्द है। और जब तुम एक मार्ग को समझ रहे हो–जैसे कि धनी धरमदास का मार्ग भक्ति का मार्ग है–तो यहां गुरु कोई साधारण शब्द नहीं है, सर्वाधिक महत्वपूर्ण शब्द है। गुरु शब्द का अर्थ होता है, सबसे वजनी। गुरु का अर्थ होता है, वजनी। इससे ज्यादा वजन और किसी शब्द में नहीं है। इसमें गुरुत्व है, इसमें गुरुत्वाकर्षण है। गुरु वैसे ही है जैसे मैग्नेट, चुंबक। गुरु के बिना भक्ति का शास्त्र ही निर्मित नहीं होता।

ढू.ंढने पर भी इलाजे-दर्द-ए-दिल मिलता नहीं

गो बहार आई अगर दिल का कमल खिलता नहीं

इस जिंदगी में बहुत बार तुम पाओगे कि बहार आई, वसंत आया, बहुत बार प्रेम आया और गया, मगर दिल का घाव वैसा का वैसा रहा।

ढूंढ़ने पर भी इलाजे-दर्द-ए-दिल मिलता नहीं

इस संसार में खोजते रहो, खोजते रहो, कहीं कोई राहत नहीं मिलती।

गो बहार आई मगर दिल का कमल खिलता नहीं

फिर कभी किसी के पास आकर दिल का कमल खुल जाता है, वही गुरु। जिसके पास तुम्हारे दिल का कमल खुल जाए, जो तुम्हारे लिए सूरज जैसा हो, कि तत्क्षण तुम्हारी पंखुड़ियां खुल जाएं। रात भर कमल बंद होता है, सुबह सूरज ऊगा और खुल जाता है। संसार में तुम भटकते रहते, भटकते रहते–वह रात। अंधेरी रात।

ढूंढ़ने पर भी इलाजे-दर्द-ए-दिल मिलता नहीं

गो बहार आई मगर दिल का कमल खिलता नहीं।

कई बार छोटे मोटे दीये जलते हैं, तारे टिमटिमाते हैं, मगर कमल है कि खुलता नहीं। जिसके पास आकर अचानक पंखुड़ियां खुल जाएं, जिसके पास आकर तुम अचानक पाओ, अब तुम कली नहीं हो, फूल हो–तुम आ गए गुरु के पास। गुरु की पहचान कैसे होगी? बस, ऐसे पहचान होती है। ऊपर से कुछ पहचान नहीं है, कोई लक्षण नहीं है ऊपर से। बस, तुम्हारे भीतर पहचान होती है।

तो जरूरी नहीं है कि जो तुम्हारे लिए गुरु हो वह दूसरे के लिए भी गुरु हो। तुम्हारा कमल खिल गया हो किसी के पास, दूसरे का न खिले। उसके लिए किसी और सूरज की तलाश हो। इसलिए कभी भूल कर अपने गुरु को किसी और पर मत थोपना। और भूल कर भी किसी और के गुरु को अपना गुरु मत समझ लेना। एक ही कसौटी है–तुम्हारे भीतर का कमल खुलने लगे। बस उसके अतिरिक्त और कोई कसौटी नहीं है। उसी से पहचानना। फिर दुनिया की फिकर मत करना। क्योंकि दुनिया समझ ही न पाएगी। तुम्हारा कमल तुम समझोगे। तुम्हारी पत्नी भी नहीं समझेगी, तुम्हारा पति भी नहीं समझेगा, तुम्हारा बेटा नहीं समझेगा, तुम्हारा बाप नहीं समझेगा, कोई नहीं समझेगा। निकटतम जो है वह भी नहीं समझेगा क्योंकि तुम्हारे भीतर कोई नहीं जा सकता। सिवाय तुम्हारे वहां किसी की गति नहीं है। वहां तो तुम ही जानोगे, मेरा कमल खिल गया।

जब तुम्हारा कमल खिल जाएगा, और तुम किसी के पीछे चल पड़ोगे, सारी दुनिया पागल कहेगी कि तुम्हें हो क्या गया? दीवाने हो गए हो? होश गंवा दिया? यह क्या कर रहे हो? हमें तो कुछ नहीं दिखाई पड़ता। और वे भी गलत नहीं कहते, उन्हें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। उनका कोई कसूर भी नहीं है। उनको क्षमा करना, उन पर नाराज भी मत होना। लेकिन उनकी मान लेने की भी कोई जरूरत नहीं है। क्षमा जरूर करना, नाराज भी मत होना, और अपने मार्ग पर चलते भी जाना क्योंकि गुरु दुशवार है, कभी-कभी मिलता है। सदियां बीत जाती हैं तब मिलता है। जन्मों-जन्मों के बाद मिलता है।

गुरु वही है जिसमें तुम्हें थोड़ी देर को यह भूल जाए संसार। थोड़ी देर को यह भूल जाए कि कोई आदमी है, स्त्री है, पुरुष है। थोड़ी देर को देह विस्मृत हो जाए। थोड़ी देर को कोई आदमी तिरोहित हो जाए और परमात्मा की भाव-भंगिमा प्रकट हो।

मानिक अधर, नीलमी आंखें, यह पुखराज बदन

मन घायल कर गई तुम्हारी हीरकनी चितवन

किसी की आंख में तुम्हें राम की और कृष्ण की, बुद्ध और महावीर की आंख दिखाई पड़ जाए। किसी के पास पहुंच कर ऐसा लगे, आ गया वह स्थान, जहां से अब जाने की जरूरत नहीं है। किसी की छाया तले विश्राम करने का मन हो जाए कि यह पड़ाव मेरी मंजिल हो जाए।

जैसा भक्त गुरु को देखता है वैसे दूसरे लोग नहीं देखते। इसलिए भक्त और दूसरे लोगों में कभी भी तालमेल नहीं बैठ पाता।

जो तुम्हें

चलते-फिरते

देखते हैं,

वे तुम्हें

नहीं जानते

मैंने

तुम्हें

उड़ते देखा है,

अभी

आम की डाली से

अभी

आकाशगंगा से

जुड़ते देखा है!

मगर स्वभावतः यह बात तुम किसी से कहोगे, कोई मानेगा नहीं। किसी से कहना भी मत। यह तो जब दो दीवाने मिलें तभी करने की बात है।

जो तुम्हें

चलते-फिरते

देखते हैं,

वे तुम्हें

नहीं जानते

मैंने

तुम्हें

उड़ते देखा है,

अभी

आम की डाली से

अभी

आकाशगंगा से

जुड़ते देखा है!

गुरु की याद भी आ जाए तो गुरु की याद में ही छिपी हुई परमात्मा की याद आ गई। क्योंकि गुरु गली है, जहां परमात्मा का मंदिर कहीं मिलेगा।

कुछ याद करके आंख से आंसू निकल पड़े

मुद्दत के बाद गुजरे जो उसकी गली से हम

गुरु गली है।

कुछ याद करके आंख से आंसू निकल पड़े

मुद्दत के बाद गुजरे जो उसकी गली से हम

गुरु का अर्थ है, करीब ही मंदिर है। कहीं करीब ही होगा। अब ज्यादा दूरी न रही। अब हम घर के करीब आ रहे हैं।

गुरु शुरुआत है परमात्मा की। गुरु के द्वारा परमात्मा ने तुम्हें पुकारा। गुरु के द्वारा परमात्मा ने तुम्हारी आंख में झांका। गुरु के द्वारा परमात्मा ने तुम्हें संदेश भेजा। इसलिए तो मुसलमान कहते हैं, पैगंबर। पैगंबर का अर्थ होता है, संदेशवाहक, चिट्ठीरसा, ईश्वर का पत्र ले आया–पत्रवाहक।

पहली-पहली बार जैसे चांद ऊग आया है आज

सर्द ओंठों ने किसी का नाम दोहराया है आज

मगर यह बात तो प्रेमी समझेंगे। जो इन पर बौद्धिक रूप से सोच विचार करेंगे उन्हें तो ये बातें कविता मालूम पड़ेंगी। ये कविताएं नहीं हैं। ये जीवन के परम, परम गुह्य सत्य हैं। मगर उन्हीं के लिए सत्य हैं जो हृदय से समझने की क्षमता रखते हैं। जो बुद्धि में जीते हैं उनके लिए ये सत्य नहीं हैं।

पहली-पहली बार जैसे चांद ऊग आया है आज

सर्द ओंठों ने किसी का नाम दोहराया है आज

बेखुदी आज सब पे तारी है

किसी ने छेड़ा है मेरे दिल का साज

आदमी एक वीणा है जो बजाई नहीं गई। गुरु ऐसा व्यक्ति है जिसने पहली बार तुम्हारी वीणा को छेड़ा। तुम्हें पहली बार पता चला कि मेरे भीतर स्वर है, कि मेरे भीतर सौंदर्य है, कि मेरे भीतर संगीत है, कि मैं एक सरगम लिए फिरता था, कि मेरी पीड़ा यही थी कि मेरी वीणा का मुझे पता नहीं था।

एक कहानी मैंने सुनी है, एक घर में एक पुराना वाद्य रखा था–बहुत पुराना सदियों पहले से, परंपरागत, बापदादों से चला आया था। बड़ा वाद्य था। कोई उसे बजाना भी नहीं जानता था। कब किसी ने बजाया था इसकी याद भी घर के लोगों को न रह गई थी। वह वाद्य बड़ा उपद्रव था। कभी बिल्ली उस पर छलांग लगा देती, उसके तार झनझना जाते। कभी रात कोई चूहा तारों को खींच देता, लोगों की नींद टूट जाती। कभी कोई बच्चे जाकर उसके साथ उछल-कूद कर देते, सारे घर में शोरगुल मच जाता। आखिर घर के लोग परेशान हो गए। उन्होंने कहा, इसे फेंको, यह नींद हराम करता है। यह घर में चैन नहीं है इसके मारे। कोई न कोई बच्चा पहुंच ही जाता है। कब तक रोको, कब तक पहरा लगाओ? फिर चूहों पर क्या पहरा लगाओ, फिर बिल्लियों पर क्या पहरा लगाओ! और इसे झाड़ो, पोंछो यह अलग। और यह घर का स्थान घेर रहा है यह अलग। और घर में लोग बढ़ते जाते हैं, जगह की जरूरत है, इसे फेंको।

उन्होंने उस वाद्य को उठाया और जाकर म्युनिसिपल के कचराघर में रख आए। वे लौट भी नहीं पाए थे घर तक, बीच में ही थे, कि किसी भिखारी ने उस वाद्य को बजाना शुरू कर दिया। वहीं से वापस लौट गए। भीड़ लग गई। लोग मंत्र-मुग्ध खड़े हो गए। ऐसा संगीत सदियों से नहीं सुना गया था। अब उनको समझ आई घर के लोगों को, कि हमने कितना बहुमूल्य वाद्य फेंक दिया है! जैसे ही संगीत पूर्ण हुआ, उन्होंने झपट्टा मारा और भिखारी से कहा, यह वाद्य हमारा है। भिखारी ने कहा, यह बात गलत है। वाद्य उसका, जो बजाना जानता है। तुम तो फेंक चुके।

गुरु तुम्हें पहली बार तुम्हारे वाद्य की याद दिलाता है। इसीलिए तो शिष्य गुरु का हो जाता है क्योंकि वाद्य उसका, जिसको बजाना आता है।

दूर तक दैरो-हरम आए नजर

तेरे दर पर जब कभी सजदा किया

जब भी कोई गुरु के चरणों में झुकता है हृदयपूर्वक, तो उसे मंदिर-मस्जिद दिखाई पड़ते हैं।

दूर तक दैरो-हरम आए नजर

सारे तीर्थ खुल जाते हैं–काशी और काबा, गिरनार और जेरुसलम।

दूर तक दैरो-हरम आए नजर

तेरे दर पर जब कभी सजदा किया

उन चरणों से सारे तीर्थ खुल जाते हैं। उन चरणों से अमृत मिलने लगता है। मगर यह भक्त की भाषा है।

ध्यानी की यह भाषा नहीं है। ध्यानी को कोई हक भी नहीं है, इस भाषा के संबंध में कुछ कहे। उसे यह भाषा आती ही नहीं है। उसे इस संबंध में नहीं बोलना चाहिए। उसकी दूसरी भाषा है।

ऐसा ही समझो कि एक गणित की भाषा होती है, वह अलग बात है। और एक काव्य की भाषा होती है, वह अलग बात है। किसी गणितज्ञ को कोई हक नहीं है कि काव्य के संबंध में कुछ कहे। क्योंकि कविता में कभी-कभी दो और दो चार भी होते हैं, कभी नहीं भी होते। कभी-कभी दो और दो पांच भी होते हैं, कभी दो और दो तीन भी होते हैं, कभी दो और दो मिल कर एक भी हो जाता है।

कविता का अलग लोक है, उसका अलग तर्क है। हृदय के अपने तर्क हैं, जिनको मस्तिष्क को अनुभव करने का कोई द्वार नहीं है। गणितज्ञ को कविता के संबंध में कुछ कहने का हक नहीं है। और न कवि को गणित के संबंध में कुछ कहने का हक है। लेकिन अक्सर ऐसा हुआ कि ध्यानी निंदा करेंगे भक्ति की, भक्त निंदा करेंगे ध्यानी की।

मैं पहली बार एक अनूठा प्रयोग कर रहा हूं मनुष्य के इतिहास में कि मैं भक्त और ज्ञानी, दोनों की तरफ से बोल रहा हूं। क्योंकि मैंने दोनों मार्ग से चल कर देखा है। और दोनों मार्ग उसी तक पहुंच जाते हैं। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं और गलत कहते हैं। ठीक कहते हैं, जहां तक ध्यान का संबंध है। न गुरु की जरूरत है, न ध्यान की, न योग की, न विधि-विधान की। और गलत कहते हैं, जहां तक भक्ति का संबंध है। वहां से भी लोग पहुंचे हैं। और वहां से ज्यादा लोग पहुंचे हैं। जितने लोग ध्यान से पहुंचे हैं उससे ज्यादा लोग भक्ति से पहुंचे हैं। क्योंकि स्वभावतः मनुष्य प्रेम के ज्यादा करीब है। प्रेम ज्यादा स्वाभाविक है। प्रीति ज्यादा स्वाभाविक है। ध्यान चेष्टा है, प्रयत्न है, साधना है। प्रीति सहजता है, स्वाभाविकता है।

 

अंतिम प्रश्नः मारू वनरावन छे रुडु बैकुंठ नहीं रे आवूं।

॰ मेरा वृंदावन इतना मनभावन है कि मैं बैकुंठ नहीं जाना चाहती।

मीरा का वचन है। आप क्यों मोक्ष और मुक्ति की बात करते हैं? आपके चरणों में बैठना ही मधुर लगता है।

इसीलिए बात करता हूं क्योंकि यह तो मधुरता की शुरुआत है। इसको अंत मत मान लेना। गुरु प्रारंभ है, अंत नहीं। गुरु से गुजरना, गुरु पर रुक मत जाना। गुरु द्वार है, उससे पार हो जाना। अगर द्वार पर इतना सुख मिलता है तो मंदिर के अंतःकक्ष की तो सोचो! उसी का नाम मोक्ष है।

अक्सर ऐसा होता है कि प्यासे आदमी को दो बूंद मिल जाएं तो भी खूब तृप्ति मालूम होती है। जन्म-जन्म की प्यास! एक बूंद गिर जाए कंठ में। लेकिन उस पर रुक मत जाना। बूंद से सागर की खोज शुरू करना। बूंद है तो सागर है। सागर होगा कहीं। और बूंद जब मिल गई तो सागर भी मिलेगा।

इसलिए गुरु के चरणों के माधुर्य को आनंद से लो लेकिन वहीं बैठ कर मत रह जाओ। आगे बढ़ो। आगे ही बढ़ते जाना है। जब आगे बढ़ने को कुछ भी न रह जाए तभी रुकना। जब तक आगे बढ़ने को कुछ भी बचे, तब तक रुकना मत। और आगे, और आगे–तभी तुम परमात्मा तक पहुंच पाओगे। अन्यथा संसार भी रोक सकता है, धर्म भी रोक सकता है। कुछ लोग दुकानों में अटक जाते हैं, कुछ लोग मंदिरों में अटक जाते हैं। कहीं मत अटकना।

सदगुरु वही है जो तुम्हें अपने में अटकने न दे।

तुम्हारी बात मेरे समझ में आती है। तुम्हें अगर मेरे पास बैठ कर आनंद मिल रहा है, और इससे बड़ा आनंद तुमने कभी जाना नहीं है, तो मैं समझता हूं कि तुम्हारी अड़चन क्या है। तुम सोचते हो, अब और क्या मोक्ष? अब कहां जाना, क्या करना? तुम्हारी बात मैं समझता हूं लेकिन मेरी भी मैं समझता हूं। इसके आगे और है बहुत, जो मैंने जाना है। तुमने अभी इतना ही जाना है। तुम्हें वहां तक पहुंचा कर ही छोडूंगा। उस यात्रा में तुम्हें मुझे भी छोड़ देना होगा। क्योंकि द्वार पीछे रह जाएगा।

सदगुरु की परिभाषा मेरी यही है जो एक दिन कहे, पकड़ो मेरा हाथ और एक दिन कहे, छोड़ो मेरा हाथ। हाथ पकड़े तब तक, जब तक संसार न छूट जाए। जैसे ही संसार छूट जाए, हाथ छोड़ दे। क्योंकि अब जो हाथ पहले पकड़ने में साधक हुआ था, अब बाधक हो जाएगा। मैं तुम्हें संसार से छुड़ाने को चाहता हूं, मेरा हाथ पकड़ो। फिर परमात्मा से मिलाने को चाहूंगा, मेरा हाथ छोड़ो।

तुम्हें अभी छाया मिली है उसकी। उससे ही मिलना है। अभी तुमने उसका प्रतिबिंब देखा है मेरी आंखों में। अब उसीको खोजना है। अभी तुमने झील में पड़ते हुए चांद का प्रतिबिंब देखा है। अब चांद को खोजना है। झील में पड़ा प्रतिबिंब भी बड़ा प्यारा होता है, मगर प्रतिबिंब आखिर प्रतिबिंब है।

 

आज इतना ही।

 

 

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन–का करत गुमान!

सारसूत्र:

कहो केते दिन जियबो हो, का करत गुमान।।

कच्चे बांसन का पिंजरा हो, जा में पवन समान।

पंछी का कौन भरोसा हो, छिन में उड़ि जान।।

कच्ची माटी के घडुवा हो, रस-बूंदन सान।

पानी बीच बतासा हो, छिन में गलि जान।।

कागद की नइया बनी, डोरी साहब हाथ।

जौने नाच नचैहें हो, नाचब वोही नाच।।

 

धरमदास एक बनिया हो करे झूठी बाजार।

साहब कबीर बंजारा हो करै सत्त व्यापार।।

सतगुरु आवो हमरे देस निहारौं बाट खड़ी।

वाही देस की बतिया रे लावै संत सुजान।।

उन संतन के चरण पखारूं तन-मन करि कुर्बान।

वाही देस की बतिया हमसे सतगुरु आन कही।।

आठ पहर के निरखत हमरे नैन की नींद गई।

भूल गई तन-मन-धन सारा व्याकुल भया शरीर।।

विरह पुकारै विरहिनी ढरकत नैनन नीर।

धरमदास के दाता सतगुरु पल में कियो निहाल।।

आवागमन की डोरी कट गई मिटे भरम जंजाल।

 

मैं हैरि रहूं नैना सो नेह लगाई।।

राह चलत मोहि मिलि गए सतगुरु, सो सुख बरनि न जाई।

देइ के दरस मोहि बौराये, ले गए चित्त चुराई।।

छवि सत दरस कहां लगि बरनौं, चांद सूरज छपि जाई।

धरमदास बिनवै कर जोरी, पुनि पुनि दरस दिखाई।।

 

खल्वतो-जल्वत में तुम मुझसे मिली हो बारहा

तुमने क्या देखा नहीं मैं मुस्कुरा सकता नहीं

मैं कि मायूसी मेरी फितरत में दाखिल हो चुकी

जब्र भी खुद पर करूं तो गुनगुना सकता नहीं

मुझमें क्या देखा कि तुम उल्फत का दम भरने लगीं

मैं तो खुद अपने भी कोई काम आ सकता नहीं

रूह-अफजा हैं जुनूने-इश्क के नग्मे मगर

अब मैं इन गाए हुए गीतों को गा सकता नहीं

मैंने देखा है शिकस्ते-साजे-उल्फत का समां

अब किसी तहरीक पर बरबत उठा सकता नहीं

दिल तुम्हारी शिद्धते-अहसास से वाकिफ तो है

अपने अहसासात से दामन छुड़ा सकता नहीं

तुम मेरी होकर भी बेगाना ही पाओगी मुझे

मैं तुम्हारा होके भी तुममें समा सकता नहीं

गाए हैं मैंने खलूसे-दिल से भी उल्फत के गीत

अब रियाकारी से भी चाहूं तो गा सकता नहीं

किस तरह तुमको बना लूं मैं शरीके-जिंदगी

मैं तो अपनी जिंदगी का बार उठा सकता नहीं

यास की तारीकियों में डूब जाने दो मुझे

अब मैं शमअ-ए-आरजू की लौ बढ़ा सकता नहीं

एक ऐसे सौभाग्य की या दुर्भाग्य की घड़ी है, जब जीवन का सब व्यर्थ हो जाता है। जहां-जहां मूल्य देखे थे, वहां-वहां राख दिखाई पड़ती है। जहां-जहां फूल देखे थे वहां-वहां कांटे। जहां सोचा था सौंदर्य है, वहां सपना। जहां धन मान कर चले थे वहां कुछ भी नहीं।

जैसे रात सोया हुआ आदमी सुबह जागता है और सपनों में देखे सारे महल और सपनों में देखे सारे व्यवसाय व्यर्थ हो जाते हैं। ऐसी भी एक सौभाग्य या दुर्भाग्य की घड़ी है, जब जीवन में आदमी एकदम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। जो सोचा था ठीक है, सब व्यर्थ हो गया और इसके अतिरिक्त किसी सार्थक की कोई खबर नहीं है।

मैं दोनों शब्दों का उपयोग कर रहा हूं–सौभाग्य की या दुर्भाग्य की; सोच कर। क्योंकि यह घड़ी सौभाग्य की हो सकती है और दुर्भाग्य की भी हो सकती है। अगर तुम्हारे जीवन के द्वार-दरवाजे बंद हों और तुमने पहले से ही अनास्था में आस्था कर रखी हो, अविश्वास को विश्वास बना रखा हो, नकार और नास्तिकता तुम्हारे जीवन की पद्धति हो, तो यह घड़ी दुर्भाग्य की घड़ी है। फिर तुम अंधेरे और अंधेरे में गिरते जाओगे और गर्त में खो जाओगे। फिर यह घड़ी बड़ी निराशा की घड़ी है। फिर तुम्हें जीवन अर्थहीन मालूम होगा, एक बेबूझ पागलपन मालूम होगा।

लेकिन यह घड़ी सौभाग्य की भी हो सकती है। अगर तुमने अपनी चेतना के द्वार-दरवाजे बंद नहीं किए हैं और नकार तुम्हारी जीवन-शैली नहीं है, तो तुम आंखें उठा कर अभी भी देख सकते हो। यह जीवन व्यर्थ हुआ इससे जीवन व्यर्थ नहीं होता। यह जीवन व्यर्थ हुआ इससे केवल उस जीवन के द्वार खुलते हैं। यह धन मिट्टी साबित हुआ इससे धन मिट्टी साबित नहीं होता, इससे नये धन की खोज, नये धन की यात्रा शुरू होती है।

जो दिखाई पड़ता है वह व्यर्थ हुआ, इससे सब व्यर्थ नहीं होता, इससे अदृश्य की यात्रा शुरू होती है। इसलिए मैंने कहे दोनों शब्द एक साथ–दुर्भाग्य या सौभाग्य की घड़ी।

जो व्यक्ति अपने जीवन को नकार में ढाल लेता है–नकार यानी जो मान कर ही बैठा है कि जीवन व्यर्थ है; जो मान कर ही बैठा है कि यहां कोई परमात्मा नहीं है; जो मान कर ही बैठा है कि जो दिखाई पड़ता है इसके पार और कुछ भी नहीं है। खोजा नहीं है, गया नहीं है, आंख नहीं उठाई है, जो मान कर बैठा है कि भीतर कुछ भी नहीं है लेकिन भीतर कभी झांका नहीं है। ऐसा जो मान कर बैठा है उसके लिए तो दुर्भाग्य की घड़ी आ गई। उसके लिए तो बड़े संकट का क्षण आ गया। आत्मघात के अतिरिक्त अब कुछ भी नहीं सूझेगा। अपने को मिटा लूं, समाप्त कर लूं, बस यही समझ में आएगा।

लेकिन जिसने अपने को इस तरह नकार में कस नहीं लिया है, जो कहता है, हो सकता है और भी जीवन हो। जो कहता है, हो सकता है बुद्ध और महावीर, कृष्ण और कबीर, नानक और दादू सही हों। जो कहता है मैं खोजूं, तभी निर्णय लूंगा, उसके जीवन में यह घड़ी आत्मघात की नहीं है, आत्म रूपांतरण की घड़ी है। यहीं से या तो आदमी अपने को मिटाना शुरू करता है या अपने को जगाना शुरू करता है।

यह बड़ा महत्वपूर्ण दोराहा है। और हर जीवन इस दोराहे पर आता है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, एक न एक दिन तुम्हें इस दोराहे पर आना ही होता है, जहां विकल्प होते हैं दो–या तो निराशा में डूब जाओ या नई आशा के गीत को फूटने दो। या तो सब व्यर्थ मान कर हार जाओ, पराजित हो जाओ या कुछ और भी विजय हो सकती है उसके अभियान पर निकलो।

धनी धरमदास के जीवन में यह घड़ी आ गई थी। सब था उनके पास। धन था, पद था, प्रतिष्ठा थी, यश था। सफलता ही सफलता के ढेर लगे थे। और एक दिन जाग आई और यह दिखाई पड़ा कि यह सब तो बेकार है। क्योंकि जो भी मैंने इकट्ठा किया है, मौत छीन लेगी। मेरे पास ऐसा क्या है जो मौत न छीन सकेगी?

यह प्रश्न जिस दिन उठा उसी दिन नींद टूट गई। उसी दिन से एक दूसरी खोज शुरू हुई। इस खोज में सदगुरु अनिवार्य है। क्योंकि जब तुम अनजान की खोज पर निकलते हो तो किसी ऐसे व्यक्ति को खोजना होगा जो उस अनजान में गया हो। जब तुम सागर की यात्रा पर निकलते हो तो किसी ऐसे नाविक को खोजना होगा जिसने यात्रा की हो। और जब तुम पहाड़ पर चढ़ते हो तो तुम किसी ऐसे संगी-साथी को चाहते हो जो पहाड़ों से वाकिफ हो, परिचित हो।

यह बिलकुल स्वाभाविक है। अनजान की यात्रा में कोई चाहिए हाथ। अदृश्य की यात्रा में कोई चाहिए साथ–कोई ऐसा, जो उस दूसरे लोक की खबर तुम्हें दे सके। शब्द ओछे हैं, खबर ठीक-ठीक दी जा नहीं सकती लेकिन फिर भी इशारे किए जा सकते हैं।

और इशारे भी बड़े मूल्य के हैं। वे इशारे काम आते हैं। क्योंकि रास्ता बेबूझ है, रहस्यपूर्ण है। सुगम भी नहीं है, दुर्गम है। हजार मौके आएंगे जब तुम अटक जाओगे, राह खो-खो जाएगी। और हजार मौके आएंगे जब तुम गलत राह पकड़ लोगे। और हजार मौके आएंगे जब तुम्हारा मन कहेगा, लौट चलो, यहां आगे कुछ भी मालूम नहीं होता, सब अंधेरा है। अपनी पुरानी दुनिया ही ठीक थी–बुरी-भली जैसी भी थी। लौट चलो, कम से कम साफ-सुथरी थी। हम जानते थे कहां चल रहे हैं। भूगोल हमारे हाथ में था, नक्शा हमारे हाथ में था। यह किस जंगल में खोए जाते हो?

भय की बड़ी दुर्दांत घड़ियां आएंगी, जब ऐसा लगेगा कि यह तो जीवन की खोज न हुई, यह तो अपने हाथ से मौत की तलाश हो गई। मैं फिर से दोहरा दूं–उस परम की खोज में वह घड़ी निश्चित आती है जब तुम्हें लगता है, मैं मरा। उसी मृत्यु में से तो तुम्हारे नये जीवन का अंकुर निकलता है। बीज जब टूटता है तभी तो वृक्ष पैदा होता है। तुम मिटोगे तो ही तुम्हारे भीतर कुछ नये का सूत्रपात है।

कौन तुम्हें सम्हालेगा उस दिन? कौन तुम्हें सहारा देगा? कौन तुम्हें आश्वासन देगा कि घबड़ाओ मत, ऐसा मुझे भी हुआ है और फिर भी मैं हूं। सच तो यह है कि ऐसा जब से हुआ है, तब से ही मैं हूं; उसके पहले मैं कहां था!

बीज तो घबड़ा जाएगा। किसी वृक्ष का साथ चाहिए जो कहे, घबड़ाओ मत; टूटने से ही होना है। मिटने से ही पाना है। खोने में ही उपलब्धि है। धन्यभागी हैं वे, जो अपने को खो देते हैं, क्योंकि वे ही मालिक हो जाते हैं। वे ही सब कुछ पा लेते हैं। इस सूली पर चढ़ जाओ।

कोई हाथ का सहारा दे, आश्वासन दे, और उसकी आंखों की चमक और उसके जीवन की ज्योति तुम्हारे भीतर श्रद्धा उमगाए तो शायद तुम सूली पर भी चढ़ जाओ। और सूली पर चढ़ कर ही सिंहासन है।

ऐसी कठिन घड़ी में ही गुरु की जरूरत है। धरमदास को कबीर जैसा गुरु मिल गया।

गुरु दो तरह के होते हैंः एक तो जिनको हम परंपरागत गुरु कहें, जिन्होंने खुद नहीं जाना है लेकिन जाने हुओं का हिसाब-किताब कंठस्थ किया है। जिन्होंने शास्त्र पढ़े हैं, शास्त्रों का विश्लेषण किया है, शास्त्रों को छांटा है, शास्त्रों में डुबकी लगाई है–सत्य में नहीं, शास्त्रों में। और शास्त्रों के संबंध में उनकी कुशलता है। शब्दों के वे मालिक हैं। सिद्धांतों पर उनकी पकड़ है।

एक तो परंपरागत गुरु है। अगर कोई सैद्धांतिक उलझन हो तो वह सुलझा देगा। अगर शास्त्र के संबंध में तुम्हारी कोई शंकाएं और जिज्ञासाएं हों तो वह हल कर देगा। इस तरह के परंपरागत गुरु तो तुम्हें जन्म से ही मिल जाते हैं। तुम जैन घर में पैदा हुए तो जैन मुनि तुम्हारा गुरु है। हिंदू घर में पैदा हुए तो कोई हिंदू पंडित तुम्हारा गुरु है। मुसलमान घर में पैदा हुए तो कोई मौलवी तुम्हारा गुरु है।

ये तुम्हें जन्म से मिल जाते हैं। इनके लिए तुम्हें खोजना नहीं पड़ता। ये तुम्हें खोजते हैं। ये हर बच्चे की गर्दन पकड़ लेते हैं। इसके पहले कि बच्चा बड़ा हो और उसकी समझ में आए, उसकी समझ जगे, उसके पहले ही गर्दन पकड़ लेते हैं। क्योंकि समझ जग जाने के बाद इनके चक्कर में वह नहीं आ सकेगा।

इसलिए तुम्हारे सभी तथाकथित धर्म बड़ी चिंता में रहते हैं कि बच्चों को धार्मिक शिक्षा कैसे दी जाए। धार्मिक शिक्षा से उनका मतलब धर्म नहीं होता। धार्मिक शिक्षा से उनका मतलब होता है, इसके पहले कि बच्चे में बोध जगे उसे कैसे जकड़ दिया जाए सिद्धांतों से। इसके पहले कि बच्चे का अपना विवेक काम करे, विश्वास का जहर उसमें डाल देना चाहिए।

हिंदू बाप चाहता है मेरा बेटा हिंदू हो जाए। मुसलमान बाप चाहता है, मेरा बेटा मुसलमान हो जाए। ये राजनीतियां हैं, इनका धर्म से कुछ लेना देना नहीं है। मुसलमानों की संख्या ज्यादा रहे यह राजनीति है। हिंदुओं की संख्या ज्यादा रहे यह राजनीति है। संख्या में बल है। कहीं मेरा बेटा हिंदू न हो जाए, मुसलमान सोचता है। हिंदू सोचता है, मेरा बेटा कहीं ईसाई न हो जाए। डर है, भय है–कहीं एक की संख्या कम न हो जाए। संख्या में बल है। संख्या में राजनीति है।

इस भय से हर बाप अपने बेटे को जल्दी से जल्दी किसी धर्म में दीक्षित करवा देना चाहता है–अपने धर्म में। जो विश्वास उसके हैं वही अपने बेटे में भी डाल देना चाहता है।

इस तरह जो परंपरा से गुरु मिलता है वह तो गुरु है ही नहीं, गुरु का ढोंग है। असली गुरु तो खोजना पड़ता है। असली गुरु तो विवेक से मिलता है, विश्वास से नहीं। असली गुरु के लिए तलाश करनी पड़ती है। असली गुरु के लिए चिंता उठानी पड़ती है, संताप से गुजरना होता है।

और असली गुरु को पाने में तुम्हारे नकली गुरु बाधा बनते हैं क्योंकि असली गुरु शास्त्र से बंधा नहीं होता, असली गुरु सत्य में जगा होता है। असली गुरु सत्य बोलता है। शास्त्र से मेल बैठ जाए तो ठीक, न बैठे मेल तो उसे कुछ चिंता नहीं है। असली गुरु किसी परंपरा का हिस्सा नहीं होता। असली गुरु सदा ही सत्य का पुनराविर्भाव होता है, नया संस्करण होता है। असली गुरु खुद ही देख कर लौटा है। किन्हीं और आंखवालों का भरोसा नहीं है, अपनी आंख से देख कर लौटा है। जो देखा है वह कहता है।

कबीर ने कहा है कि मैं कागज की लिखी नहीं कहता। कहता आंखन देखी। जो आंख से देखा है वही कहता हूं।

अब जिसने भी आंख से देखा है उसके सत्य का जो प्रतिपादन होगा, विद्रोही होगा, बगावती होगा। परमात्मा इस जगत में सबसे बड़ी क्रांति है। परमात्मा परंपरा नहीं है क्योंकि परमात्मा पुराना नहीं है। परमात्मा प्रतिपल नया है। शास्त्र पुराने पड़ जाते हैं, उन पर धूल जम जाती है। परमात्मा पर कभी धूल नहीं जमती; वह शाश्वत जीवन है।

आज की सुबह कल की सुबह की पुनरुक्ति नहीं थी। और आज के पक्षियों ने जो गीत गाए हैं वे पहले कभी नहीं गाए थे। और आज सांझ आकाश में जो बदलियां तैरेंगी वैसी बदलियां पहले कभी नहीं तैरी थीं। यहां अस्तित्व में सभी कुछ प्रतिपल नया होता रहता है। यहां सब नूतन है।

जब तुम आंख खोल कर सत्य को देखोगे, उस नूतन का तुम पर आघात पड़ेगा। और तुम्हारी हृदय-तंत्री पर जो संगीत उठेगा वैसा संगीत पहले कभी नहीं उठा था। महावीर की हृदय-तंत्री ने एक गीत गाया था। बुद्ध की हृदय-तंत्री ने दूसरा गीत गाया, कबीर ने तीसरा। जिसने भी जाना है उसका अपना गीत है। उसका विशिशट गीत है। उसका अद्वितीय गीत है, बेजोड़ गीत है।

परंपरा उन्हीं-उन्हीं गीतों को बार-बार दोहराती है। परंपरा ऐसी है जैसे तस्वीर।

एक महिला ने पिकासो से कहा, वह दीवानी थी पिकासो की। उसने पिकासो से कहा कि कल तुम्हारी एक तस्वीर देखी किसी के घर में। इतनी प्यारी थी कि मुझसे रहा न गया। मैंने तुम्हारी तस्वीर चूम ली। पिकासो ने कहाः चूम ली–तस्वीर मेरी? फिर क्या हुआ? तस्वीर ने चुंबन का उत्तर दिया या नहीं? उस महिला ने कहाः क्या बात करते हो! तस्वीर कैसे चुंबन का उत्तर देगी? तो पिकासो ने कहाः फिर वह मैं नहीं था। तस्वीर ही रही होगी, कागज ही रहा होगा, कागज पर रंग रहे होंगे, मैं नहीं था।

शास्त्र तस्वीर है। तुम शास्त्र को चूम सकते हो, शास्त्र चुंबन का उत्तर नहीं देता।

जब कबीर या बुद्ध या महावीर या धनी धरमदास जैसे आदमी से तुम्हारा मिलना हो जाए तो तस्वीर से मिलना नहीं होता, तुम जीवंत सत्य से मिल रहे हो। तुम चूमोगे, चूमने का उत्तर भी पाओगे।

गुरु वह है जो उत्तर दे। शास्त्र वह है, जिसमें तुम चाहो तो उत्तर खोज लो, मगर वह है उत्तर तुम्हारा ही। शास्त्र ने कुछ दिया नहीं। जब तुम गीता पढ़ते हो तो तुम सोचते हो, तुम कृष्ण को समझ रहे हो। तुम कृष्ण को क्या समझोगे! तुम कृष्ण को कैसे समझोगे? कृष्ण सामने थे तब अर्जुन को इतनी कठिनाई हुई समझने में। तुम कैसे समझोगे? कृष्ण उत्तर देने को मौजूद थे जीवंत, तब भी अर्जुन के मन में हजार-हजार शंकाएं उठती रहीं।

तुम्हारे मन में भी उठेंगी। तुम उन शंकाओं का हल भी कर लोगे। लेकिन वह तुम्हीं प्रश्न बना रहे हो, तुम्हीं उत्तर दे रहे हो। कृष्ण तो चुप हैं। वह तो पिकासो की तस्वीर हैं, वहां से कोई उत्तर नहीं आ रहा है।

शास्त्र मुर्दा होता है। इन दो शब्दों को याद रखनाः शास्त्र और शास्ता। शास्ता यानी गुरु। जिससे शास्त्र पैदा होते हैं उसे खोजो। जो शास्त्र पैदा हो चुके हैं उनमें अब तुम तलाश करते रहोगे तो तुम नाहक कूड़ा-करकट खोजते रहोगे। और जो अर्थ तुम उनसे पाओगे वह तुम्हारा दिया हुआ अर्थ है। वह तुम्हारा ही दिया हुआ रंग है। दूसरी तरफ से कोई उत्तर नहीं आया है, वहां कोई है नहीं।

अब गीता में कृष्ण कहां? अब धम्मपद में बुद्ध कहां? किताबों में कैसे जीवंतता हो सकती है? असली गुरु की तलाश शास्त्रों से अन्य शास्ता की तलाश है। ऐसे किसी मूल स्रोत की, जिससे अभी शास्त्र पैदा हो रहा है। पैदा हो जाने के बाद परंपरा बन जाती है। जब शास्त्र पैदा हो रहा है उस घड़ी में पकड़ लेना किसी को। जब कहीं वेद जन्म रहा हो उस घड़ी में पकड़ लेना पैर, तो तुम धन्यभागी हो। तो तुम धन्यता से भर जाओगे।

लेकिन दुर्भाग्य ऐसा है कि जब शास्त्र जन्म जाता है तब लोग पकड़ते हैं। क्योंकि लोग प्रतिष्ठा की फिकर करते हैं। प्रतिष्ठा में तो समय लगता है। बुद्ध जब जिंदा थे तब तो प्रतिष्ठा नहीं है। प्रतिष्ठा बनने में तो कुछ वर्ष बीतें, बुद्ध मरें, कहानियां गढ़ी जाएं, उनके आस-पास शास्त्र रचा जाए, पुराण बनें, सैकड़ों वर्ष बीतें, तब प्रतिष्ठा मिलती है।

लोग प्रतिष्ठा से प्रभावित होते हैं। अब कबीर जिंदा जब हैं तब तो प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। प्रतिष्ठा बनने में समय लगता है। जिंदगी पर लकीर खींचने में समय लगता है।

इसलिए बड़ी सजग आंख चाहिए तो ही कोई गुरु को खोज सकता है। बड़ी गहरी प्यास चाहिए तो ही कोई गुरु को खोज सकता है। और जिसने गुरु को खोज लिया उसकी आधी यात्रा पूरी हो गई। वह आधा परमात्मा में आ ही गया। उसका साथ मिल गया, जो परमात्मा से जुड़ा है तो तुम्हारा एक हाथ परमात्मा के हाथ में पहुंच ही गया। गुरु के जिसने पैर पकड़े, अनजाने उसने परमात्मा के पैर पकड़ लिए।

शास्ता को खोजना, शास्त्र को नहीं।

और ध्यान रखना, सभी शास्ता अंततः शास्त्र बन जाते हैं। और यह भी खयाल रखना कि सभी शास्त्र प्रथम में शास्ता थे। मगर तुम कब पकड़ोगे? तुम तब पकड़ना जब शास्त्र जन्म रहा हो, जब सुबह हो रही हो, जब घटना घट रही हो, जब परमात्मा उतर रहा हो तभी पकड़ लेना। उतर चुका, फिर तस्वीरें रह जाती हैं, फिर मूर्तियां रह जाती हैं, फिर सिद्धांत रह जाते हैं। फिर तुम लाख सिर पटको उन मूर्तियों के सामने, कुछ भी न होगा। वहां से चुंबन का उत्तर नहीं आता। तुम्हारा प्रश्न आकाश में गूंजता है, कोई उत्तर देनेवाला नहीं।

गुरु का अर्थ हैः तुम प्रश्न उठाओ और उत्तर आ सके–जीवंत; तुम्हारे लिए आ सके; तुम्हारे प्रश्न की संवेदना में आए; तुम्हारे प्रश्न के लिए आए; ठीक तुम्हें ध्यान में रख कर आए।

कबीर ऐसे गुरु थे। अब कठिनाई क्या हो जाती है…मैं कहता हूं, कबीर ऐसे गुरु थे। अभी कुछ दिन पहले एक युवक आया संन्यास लेने। मैंने पूछा, कैसे संन्यास का भाव उदय हुआ? कहा कि मैं कबीरपंथी हूं और आप कबीर पर इतना सुंदर बोले हैं कि कोई कभी नहीं बोला। इसलिए संन्यास लेने आया हूं। मैंने पूछा, रुकोगे दो-चार दिन? उसने कहा कि नहीं, बस लेना है और गया। जाना है आज ही रात।

कुछ ध्यान करोगे? कुछ समझो-बूझोगे? सिर्फ कपड़े रंग लेने से तो संन्यास नहीं हो जाएगा। कुछ ध्यान में उतरोगे?

उसने कहा, ध्यान तो मैं करता ही हूं। कबीर जी का शास्त्र पढ़ता हूं और ध्यान करता हूं। और आपने तो सब कह दिया है कि कबीर में सब है।

ध्यान रखना, कबीर में सब था; है मैं नहीं कह सकता। क्योंकि कबीर अब वैसे ही शास्त्र हो गए। कबीर ने जिन शास्त्रों का विरोध किया था, कबीर अब वैसे ही शास्त्र हो गए। अब शास्ता कहां है? कबीर ने वेद का विरोध किया था, अब यह कबीरपंथी कबीर के बीजक को पकड़ कर बैठा है उसी तरह, जिस तरह एक दिन कोई वेद को पकड़ कर बैठा था। क्या फर्क हुआ?

सब शास्ता आज नहीं कल शास्त्र बन जाएंगे। जब शास्त्र बन जाएं तब तुम फिर शास्ता की खोज में लग जाना। जीवंत अवतरण को पकड़ना। इसे ऐसा समझो, मैं तुमसे कहता हूं अवतारों को मत पकड़ो, अवतरण को पकड़ो। जब परमात्मा उतर ही रहा हो ताजा-ताजा, उशण, श्वास लेता हुआ, हृदय धड़कता हो, तभी पकड़ लो। उतनी हिम्मत हो तो ही कोई सदगुरु से मिल पाता है।

नहीं तो लोग किताबें ढोते हैं। कायर किताबें ढोते हैं, हिम्मतवर सदगुरु को खोज लेते हैं। कायर किताबों के बोझ में दब जाते हैं और मर जाते हैं। हिम्मतवर सदगुरु के सहारे निर्भार हो जाते हैं और उड़ जाते हैं।

धनी धरमदास खूब उड़े। कबीर जैसा गुरु मिले तो आदमी बिना पंखों के आकाश में उड़ जाता है। ये वचन उन्हीं उड़ानों के वचन हैं। उन्हीं नये-नये आकाशों के अनुभव के वचन हैं। समझना।

कहो केते दिन जियबो हो, का करत गुमान।।

धरमदास कह रहे हैं, कितने दिन जीओगे! एक बार सोच तो लो ठीक से। इस जिंदगी पर गुमान कर रहे हो! इस जिंदगी पर बड़ा अहंकार कर रहे हो! बड़े फूले-फूले चल रहे हो, छाती बड़ी अकड़ा कर चल रहे हो!

…का करत गुमान!

कहो केते दिन जियबो हो…

जीओगे कितने दिन? यह छाती अकड़ी कितनी देर रहेगी? यह सांस अभी आई, अभी न आए। इसका भरोसा कहां है! इतना तो पक्का है कि एक दिन नहीं आएगी। मृत्यु सुनिश्चित है। इस जगत में एक ही चीज सुनिश्चित है–मृत्यु। और तो सब अनिश्चित है, हो या न हो; मगर मृत्यु सुनिश्चित है।

तुमने देखा! पांच हजार साल हो गए, आदमी औषधियां खोज रहा है, चिकित्सा के शास्त्र बना रहा है–हकीमी और आयुर्वेद और होम्योपैथी और एलोपैथी लेकिन मृत्यु की दर वही की वही हैः सौ प्रतिशत। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। जन्म दर बदली है, मृत्यु दर नहीं बदलती। पहले भी जितने लोग पैदा होते थे उतने ही मरते थे, अब भी जितने लोग पैदा होते हैं उतने ही मरते हैं। एक बात बिलकुल निश्चित है, कोई फर्क नहीं पड़ता–सौ प्रतिशत लोग मरते हैं। थोड़ी देर-अबेर मरें, थोड़ा टालम-टूल हो जाती है लेकिन मृत्यु को समाप्त नहीं किया जा सकता।

मृत्यु इस जीवन का केंद्रीय सत्य है। इसलिए समस्त सदगुरु तुम्हें मृत्यु के प्रति सचेत करते हैं। तुम्हें अच्छा भी नहीं लगता कि कोई तुम्हें मृत्यु की याद दिलाए। तुम्हें बुरा भी लगता है कि यह भी क्या अपशगुन की बात कही! अभी तो हम जिंदा हैं और जवान हैं। सदगुरु की बात तीखी भी लगती है, कडवी भी लगती है। वही तो धनी धरमदास ने कहा, अति कडवी।

क्यों कडवी लगती होगी? जहर जैसी लगती है। क्योंकि सदगुरु पहली जो याद दिलाता है, वह मौत की। धर्म की यात्रा मृत्यु से शुरू होती है। जिसको मृत्यु का खयाल आना शुरू हो गया उसको धार्मिक हो ही जाना पड़ेगा। फिर ज्यादा देर अधार्मिक नहीं रह सकता। मृत्यु पीछा करने लगे, मृत्यु की छाया स्पष्ट होने लगे तो तुम्हारे जीवन मूल्य बदल जाएंगे।

फिर तुम इसी पागलपन से धन इकट्ठा करोगे–इसी छीना-झपटी से? इसी गलाघोंट प्रतियोगिता में लगोगे? मन कहने लगेगा, किसलिए? अभी तो आएगी मौत और सब पड़ा रह जाएगा। आती ही होगी। कौन जाने, द्वार पर ही आकर खड़ी हो, कब दस्तक दे दे!

कहो केते दिन जियबो हो, का करत गुमान।।

यह शरीर तो मिट्टी में पड़ा रह जाएगा। कितने शरीर हमारे जैसे इस जमीन पर चले, अब कहां हैं? वैज्ञानिक कहते हैं, जिस जगह तुम बैठे हो वहां कम से कम दस आदमियों की लाशें गड़ी हैं। इतने लोग हो चुके हैं कि सारी जमीन मरघट है। अब तुम्हें मरघट मरघट का भेद नहीं करना चाहिए। सारी जमीन मरघट है। जहां बस्तियां थीं वहां अब मरघट हो गए, जहां मरघट थे वहां बस्तियां हो गईं। सारी जमीन मरघट है।

इतने लोग मर चुके हैं, जमीन का टुकड़ा-टुकड़ा कब्र है। मिट्टी के टुकड़े-टुकड़े किसी देह के हिस्से रह चुके हैं। यहां सब तरफ हड्डियां और लाशें बिखरी हैं। तुम मरघट में हो। जरा गौर से देखो, तुम्हें लाशें साफ दिखाई पड़ने लगेंगी। तुम चल रहे हो लाशों पर। दस-दस आदमियों की लाशें नीचे पड़ी हैं जिन पर तुम चल रहे हो। कल तुम्हारी भी लाश उन्हीं में सम्मिलित हो जाएगी। लोग तुम पर भी चलेंगे।

…का करत गुमान!

फिर यह इतनी अकड़, और झंडा लिए चले जा रहे हैं–झंडा ऊंचा रहे हमारा! यह निपट मूढ़ता है। मगर हम सब अपना अपना झंडा ऊंचा करने में लगे हैं। जरा सा ऊंचा मकान बना लें पड़ोसी से, उसी में जीवन दांव पर लगा देते हैं। वह झंडा है तुम्हारा। कि जरा और बड़ी कार खरीद लें पड़ोसी से। वह झंडा है तुम्हारा। कि लड़की की शादी हो रही है तो शादी ऐसी करके दिखा दें कि गांव में किसी की न हुई हो। वह झंडा है तुम्हारा। हजार ढंग से तुम एक ही काम कर रहे हो–झंडा ऊंचा रहे हमारा। अच्छा यह हो कि अपना एक बड़ा डंडा ले लो, उसमें एक झंडा लगा लो और मजे से चलो। वह ज्यादा सीधा-सुथरा है और साफ है।

मैं जबलपुर कोई बीस वर्ष रहा। वहां एक आदमी–दिमाग उसका खराब था। वह अपना तिरंगा झंडा लिए हमेशा घूमता रहता। कभी गया होगा जेल भी, तभी से पगला गया। और तभी से वह झंडा लिए घूमता। आजादी भी आ गई मगर उसका ढंग अपना जारी है। लोग उसको पागल समझते हैं। वह कभी-कभी मेरे पास आता था। उससे मेरी दोस्ती थी। जिनके घर मैं रहता था वे कहते, आप भी क्या पागल से बात करते हैं! मैं उनसे कहता कि यह आदमी सीधा-साफ आदमी है। यह कहता है, झंडा ऊंचा रहे हमारा, खतम! एक डंडे पर झंडा लगा लिया है, इसमें कोई ज्यादा झगड़ा भी नहीं है किसी से।

तुम भी यही कर रहे हो लेकिन तुम्हारे झंडे जरा सूषम हैं। तुम जरा बड़े पागल हो। तुम भी यही कर रहे हो। यह आदमी सीधा सादा आदमी है। यह कहता है, इतनी झंझट क्या लेनी! अब कहां जाकर बड़ा मकान बनाओ, फिर धन कमाओ, फिर दुनिया को दिखाओ कि मैं कौन हूं। चुनाव लड़ो! यह कहता है, इतनी झंझट क्या करनी! एक बांस ले लिया और उसमें कोई भी कपड़ा बांध लिया–झंडा ऊंचा रहे हमारा–सुगमता से। इसमें कोई झगड़ा भी नहीं करता इससे, और यह अपना मजा ले रहा है पूरा।

लोगों के भीतर देखना, सारे जीवन कोशिश क्या चलती है? एक ही कोशिश कि किसी तरह सिद्ध कर दूं कि मैं विशिष्ट हूं; मैं कुछ खास हूं। मेरे जैसा कोई और नहीं। मेरे होने से पृथ्वी धन्य है। मैं न होता तो न मालूम दुनिया का क्या होता! मैं न रहूंगा तो दुनिया का पता नहीं क्या हो जाएगा।

धनी धरमदास कहते हैं कि थोड़ा सोचो! केते दिन जियबो हो…कितने दिन यह झंडा ऊंचा रखोगे?…का करत गुमान। किस बात का गुमान कर रहे हो? पैरों के नीचे से धरती खिसकी जाती है। प्रतिपल मौत करीब आई जाती है। रोज मर रहे हो।

जब से पैदा हुए हो तब से एक ही काम नियमित किया है, वह है मरने का। सुबह-शाम मरते ही जाते हो। जन्म के बाद मृत्यु घटनी शुरू हो गई है। एक दिन का बच्चा एक दिन मर चुका। दो दिन का बच्चा दो दिन मर चुका। बीस साल का आदमी बीस साल मर चुका। मौत करीब आने लगी।

हम सब क्यू में खड़े हैं और क्यू छोटा होता जाता है। उसमें से आगे से लोग खिसकते जाते हैं। जब भी कोई मरता है, तुम्हारी मौत और करीब आ जाती है क्योंकि क्यू में एक आदमी और कम हो गया। अब तुम चले खिड़की की तरफ। जल्दी ही टिकट तुम्हारे हाथ में भी आ जाएगी। भाग भी नहीं सकते हो। भागने का कोई उपाय भी नहीं।

एक सूफी फकीर था, उसका एक शिष्य बाजार गया। और बाजार में मदारी खेल दिखा रहा था तो वह भी भीड़ में खड़ा होकर देख रहा था। किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा तो उसने पीछे लौट कर देखा। देखा, एक काली भयंकर छाया! वह तो घबड़ा गया, प्राण कंप गए। उसने कहा, तू कौन? उसने कहा, मैं मौत हूं। और तुझे खबर करने आई हूं कि तू यहां क्या कर रहा है? आज सांझ तेरी मौत आ रही है। आज शाम को मैं आऊंगी तुझे लेने। तू यहां क्या मदारी का खेल देख रहा है?

फिर कहां मदारी का खेल! मौत तो चली गई, वह भागा। अपने गुरु के पास भागा हुआ आया। उसने कहाः मारे गए! अब बचाओ। गुरु ने कहाः हम पहले ही से तेरे से कहते थे। अब बहुत देर हो चुकी। अब शाम को कितनी देर है! सुबह हो चुकी, शाम को कितनी देर है! जब सुबह ही हो चुकी तो शाम आने लगी करीब।

वह युवक तो इतना घबड़ाया था कि उसने सोचा कि अब ज्ञान की बातों में कोई सार नहीं है। फुरसत कहां ज्ञान की बातें सुनने की? वह भागा राजा के पास गया। उसने राजा से जाकर अपनी कथा कही कि मुझे बचाओ। राजा ने कहा, तू एक काम कर, मेरे पास बड़ा तेज घोड़ा है, इसको लेकर तू निकल जा। भाग जा। जितने दूर निकल सके, निकल जा। सांझ तक सैकड़ों मील दूर निकल जाएगा। यह घोड़ा बड़ा तेज है। ऐसा घोड़ा दुनिया में दूसरा नहीं है।

उसने तो लिया घोड़ा और निकल भागा। बड़ा खुश था। रुका नहीं दिन में। पानी पीने को नहीं रुका, भोजन करने को नहीं रुका। भागता ही रहा। जितने दूर निकल जाए, अच्छा। सांझ को जब सूरज ढल रहा था तो उसने जाकर दमिश्क नाम के नगर के बाहर बगीचे में घोड़े को बांधा। घोड़े को थपथपाया और कहा, तू गजब का घोड़ा है। सैकड़ों मील दूर ले आया। मेरा बड़ा धन्यवाद।

तभी पीछे कंधे पर किसी ने हाथ रखा। वह घबड़ा गया। वह हाथ वही था जो सुबह था। उसने लौट कर देखा, मौत खड़ी थी और खिलखिला रही थी। और मौत ने कहा कि मैं भी घोड़े का धन्यवाद करती हूं। क्योंकि मैं बड़ी परेशान थी कि तेरी मौत तो दमिश्क में घटनी है शाम को और तू हजारों-सैकड़ों मील दूर है। तू शाम तक पहुंचेगा कैसे? मैं भी परेशान थी। मेरा तुझसे मिलना यहां तय है।

जब गुरु को बाद में मौत मिली तो गुरु ने कहा कि तूने मेरे शिष्य को क्यों डराया? उसने कहा, मैंने डराया नहीं। मैं तो खुद ही डर गई थी उसको देख कर बाजार में खड़े हुए। मदारी का मजा ले रहा था। मैं खुद ही डर गई थी कि करूंगी क्या! इसकी मौत तो सैकड़ों मील दूर दमिश्क में होने को है। इसको दमिश्क पहुंचाएगा कोई कैसे! मगर राजा के घोड़े ने काम कर दिया। वह ठीक वक्त पर, ठीक सूरज ढलते ढलते जगह पर पहुंच गया, जहां पहुंचना था।

जिंदगी भर तुम चलो, पहुंचते कहां हो? ठीक जगह पर जहां मरना होता है–दमिश्क! कोई अपने बड़े तेज घोड़े पर जा रहा है, किसी पर घोड़ा नहीं है तो अपने टट्टू पर ही जा रहा है मगर लोग जा रहे हैं। गरीब पैदल ही जा रहे हैं। कोई हवाई जहाजों पर जा रहा है। अपनी-अपनी सुविधा! मगर सब जा रहे हैं दमिश्क। और जब तुम शाम को जाकर अपना घोड़ा, अपना टट्टू, अपना गधा, अपना हवाई जहाज कुछ भी सही–बांधोगे, उतरोगे नीचे, जिस पंजे से तुम जिंदगी भर भागते रहे उसे कंधे पर पाओगे।

यह स्मरण आ जाए तो गुमान टूट जाता है।

लोग मुझसे पूछते हैं, अहंकार कैसे छोड़ें? उनसे मैं कहता हूं, अहंकार छोड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ती। मौत की समझ आ जाए, अहंकार छूट जाता है। मौत दिख जाए, फिर कैसा अहंकार?

इसलिए धनी धरमदास कहते हैं, …का करत गुमान!

कच्चे बांसन का पिंजरा हो, जा में पवन समान।

हो ही क्या तुम? कच्चे बांसन का पिंजरा। पके बांस भी नहीं, कच्चे बांस। जरा सी हवा समा गई है कच्चे बांस के पिंजरे में। छाती धुक-धुक हो रही है, श्वास आ-जा रही है।…का करत गुमान! इसमें है क्या? इतना मूल्यवान यहां कुछ भी नहीं है। और इस जिंदगी में तुमने पाया भी क्या है?

मुषतसर ये है कि दास्ताने-हयात

फूल ढूंढे हैं, खार पाए हैं

खोजे तो फूल थे, मिले कांटे हैं। कांटों के अतिरिक्त तुमने पाया क्या है? दुखों के अतिरिक्त पाया क्या है? सुख की तो सिर्फ आशा है, दुख अनुभव है। आशा के सहारे जीए जाते हो कि शायद कल मिले, शायद परसों मिले, शायद…शायद। न कल मिलेगा, न परसों मिलेगा। सुख मिलता कहां है? अंततः मौत मिलती है। जिंदगी दुख देती है और अंततः सरकते-सरकते तुम मौत में समा जाते हो।

तुम्हारी जिंदगी कितने कच्चे बांस की है यह तो देखो। वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी की जिंदगी है, यही चमत्कार है। जरा जीवन की सीमा को देखो तो खयाल में आ जाए। एक दो-चार-पांच मिनट के लिए श्वास न आए और तुम गए। कच्चे बांस का पिंजरा। बुखार एक सौ दस डिग्री पहुंच जाए, गए! दस-ग्यारह डिग्री का फासला है। इधर अट्ठानबे रहे तो ठीक, इधर एक सौ दस हुआ कि गए। बारह डिग्री तुम्हारी जिंदगी है।

कच्चे बांसन का पिंजरा हो…

इधर श्वास में इतनी मात्रा आक्सीजन की आती रहे तो ठीक, और रात द्वार-दरवाजे बंद करके सो गए और सिगड़ी जला ली, सर्द रात, और धुआं कमरे में ज्यादा भर गया–सुबह फैसला! जरा सा धुआं आ गया कि गए। दो बूंद जहर की जीभ पर पड़ जाएं और गए। पक्का बांस भी नहीं है यह, जो टिके थोड़ी-बहुत देर, जो थोड़ा संघर्ष कर ले। और कितने रोग भीतर भरे हैं! यह चमत्कार है कि हम जी रहे हैं। इतनी छोटी सीमा है हमारे जीवन की अट्ठानबे डिग्री से एक सौ दस डिग्री के बीच में; बारह डिग्री का खेल है। थोड़ी सी श्वास इधर उधर, कि गए।

और कितना जटिल जाल है! जरा रक्तचाप बढ़ जाए कि गए। जरा मात्रा में खून में मिठास बढ़ जाए कि गए; कि मिठास कम हो जाए कि गए। जाना ही जाना चारों तरफ से घेरे हुए है। छोटी सी दुनिया है। उसमें किस तरह जी रहे हो, एक चमत्कार है, एक रहस्य है। आदमी होना नहीं चाहिए, जीवन होना नहीं चाहिए। मौत का विराट सागर है और छोटा सा द्वीप है हमारा। अंधेरा है मौत का सब तरफ और जरा सा दीया जल रहा है। हवा का झोंका आया कि गया। मिट्टी का दीया है यह।

कच्चे बांसन का पिंजरा हो, जा में पवन समान।

बस, थोड़ी सी हवा है। जिंदगी हवा है, हवा का एक झोंका है।

…का करत गुमान।

अकड़ क्या है? अकड़ किस बात की है? अकड़ के योग्य कुछ भी तो नहीं है। शायद इसीलिए हम अकड़ रहे हैं। इसे समझना।

मनस्विद कहते हैं कि आदमी वही अकड़ता है जिसको अपने भीतर की हीनता का भाव साफ होता है। अकड़ हीनता को भुलाने का उपाय है, इनफीरियारिटी कांप्लेक्स से बचने की व्यवस्था है। अगर अपने को देखो तो बड़ी हीनता मालूम होगी। है ही क्या! मामला ही क्या है? एक हिचकी आ जाए कि गए। एक हिचकोला काफी है। एक धुकधुकी न हो हृदय की और गए। इतनी मौत करीब है। मौत और तुम्हारे बीच फासला क्या है? कागज की दीवाल समझो।

और शायद इसीलिए हम गुमान के लिए नये-नये रास्ते खोजते हैं। आखिर आदमी को जीने के लिए कुछ तो बहाना चाहिए। अगर जिंदगी को पूरा-पूरा देखे तो जीने के सब बहाने खो जाते हैं। तो देखता ही नहीं। अपनी तरफ नजर ही नहीं करता। दौड़ता ही रहता है, दौड़ता ही रहता है। न रहेगी फुरसत, न होगा स्वयं से साक्षात्कार। सुबह उठा कि भागा। थका-मांदा रात आया कि गिरा बिस्तर में, फिर सुबह हुई कि भागा। फुरसत नहीं मिले। एक घड़ी को अपने जीवन पर पुनर्विचारणा का अवसर न मिले, यह आदमी की जिंदगी का हिसाब है। वह भागा ही रहता है।

ध्यान का क्या अर्थ होता है? ध्यान का अर्थ होता हैः चैबीस घड़ी में कम से कम एक घंटा बैठ जाओ। जिंदगी पर पुनर्विचार कर लो। आपााधापी से एक घंटा बचा लो। एक घंटा जरा अपने पर सोच लो, देख लो अपने को कि मामला क्या है, मैं कर क्या रहा हूं? करने योग्य भी है यह? कर-कर के भी क्या पाऊंगा? इसका अंतिम परिणाम क्या होगा! उसी तरफ इशारा कर रहे हैं–

कहो केते दिन जियबो, हो का करत गुमान।।

कच्चे बांसन का पिंजरा हो, जा में पवन समान।

पंछी का कौन भरोसा हो, छिन में उड़ि जान।।

कच्ची माटी के घडुवा हो, रस-बूंदन सान।

कच्ची मिट्टी के घड़े हो। रज-वीर्य का थोड़ा सा रस सना है, उसी थोड़े से रस के आधार पर कच्ची मिट्टी बंधी है। कब बिखर जाएगी कोई नहीं कह सकता। नियमानुसार कभी बिखर जानी चाहिए थी। क्यों नहीं बिखरी यह अभी तक, यही चमत्कार है।

तुम जरा गौर से देखो। तुमने उलटी बात मान रखी है। कोई मर जाता है तो तुम कहते हो, कैसे मर गया! अभी कैसे मर गया! असमय में मर गया। तुम उलटी बात कर रहे हो। सच में जिंदा आदमी देख कर कहना चाहिए हद्द, अभी भी जिंदा हो? कैसे जिंदा हो? चमत्कार कर रहे हो। बड़ा जादू है। रोज सुबह उठ कर सोचा करे कि हद्द, आज फिर जिंदा हूं! तो रात फिर बच गया! विस्मय से भरना।

बुद्धिमान आदमी विस्मय करता है जीवन पर। बुद्धू आदमी विस्मय करता मृत्यु पर। बस इतना ही फर्क है बुद्धिमत्ता और बुद्धूपन का। बुद्धू कहता है, कैसे यह हुआ कि मर गया आदमी! अभी कोई मरने का वक्त था? यह कोई समय था? बुद्धिमान आदमी कहता है कि तुम जिंदा हो? कैसे जिंदा हो! यह मिट्टी का घड़ा इतनी बरसातें झेल गया, अभी भी जिंदा है, पिघल नहीं गया! यह कागज की नाव इतने दूर तक चल गई, अभी तक डूबी नहीं?

इसलिए ज्ञानी रोज सुबह उठ कर चमत्कृत होता है, धन्यवाद देता है परमात्मा को कि आश्चर्य, अभी मैं हूं! आज और हूं? कुछ क्षण और मिले? नहीं मिलने चाहिए थे नियमानुसार। कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता यह मिट्टी का घड़ा कैसे जीया चला जाता है। मृत्यु दुर्घटना नहीं है, जीवन दुर्घटना है।

पंछी का कौन भरोसा हो, छिन में उड़ि जान।।

कच्ची माटी के घडुवा हो, रस-बूंदन सान।

पानी बीच बतासा हो, छिन में गलि जान।।

कभी बतासे को पानी में डाल कर देखा? देर नहीं लगती। इधर डाला, उधर गला।

पानी बीच बतासा हो…

आदमी बुलबुला है पानी का

और पानी की बहती सतह पर

टूटता भी है, डूबता भी है

फिर उभरता है, फिर से बहता है

न समुंदर निगल सका इसको

न तवारीख तोड़ पाई है

वक्त की हथेली पर बहता

आदमी बुलबुला है पानी का

बड़ा चमत्कार है आदमी! बहता जाता है। तुमने कभी कभी देखा न, पानी पर बहते हुए बुलबुले को? लगता है अब टूटा, अब टूटा, तब टूटा; फिर भी बहा जा रहा है। तुम भी उत्सुक हो जाते हो पानी को बबूले में बहते देख कर। और अगर थोड़ी देर टिक जाता है तो चमत्कृत होते हो, अरे टिका है! और बड़ा होता जा रहा है, पतला होता जा रहा है। क्योंकि जैसे-जैसे बड़ा होता है वैसे-वैसे पानी की जो पतली सी तह है, वह और पतली होती जा रही है, और झीनी होती जा रही है।

जैसे आदमी का अहंकार बड़ा होता है वैसे ही आदमी का होना और भी चमत्कार होता चला जाता है। क्योंकि उतना ही बड़ा गुब्बारा। फूटने के उतने ही करीब। मगर यह चमत्कार घट रहा है।

इस चमत्कार को जो ठीक से देखता है उसके जीवन में क्रांति घट ही जाती है। वह फिर इस जगत की चीजों को नहीं जोड़ता। फिर इस जगत में अपना घर नहीं बनाता। नहीं कि भाग जाता है जंगल में क्योंकि जंगल भी इसी जगत का हिस्सा है। भाग कर वहां जाने से क्या होगा? नहीं कि गुफा में बैठ जाता है क्योंकि गुफा भी ऐसी ही मिट्टी की है जैसा तुम्हारा मकान। यहां पहाड़ भी रेत हो जाएंगे। यहां हर चीज मिट जाने वाली है। नहीं, कहीं भागता नहीं लेकिन अपने भीतर उसकी तलाश में लग जाता है जो शाश्वत है।

पानी बीच बतासा हो, छिन में गलि जान।।

दुनिया की हकीकत है फकत एक दिखावा

कहने को तो सब कुछ है मगर कुछ भी नहीं है।

कहने को ही सब कुछ है–घर है, मकान है, पत्नी है, पति है, बच्चे हैं, बेटे हैं, बेटियां हैं, रिश्तेदार हैं, मित्र हैं। कहने को सब कुछ है। बस, कहने को ही है। इधर श्वास गई कि सब व्यर्थ हुआ।

श्वास जाए उसके पहले जाग जाओ। श्वास जाए उसके पहले समाधि का थोड़ा अनुभव कर लो। जीवन उसी अनुभव के लिए एक अवसर है और तुम उसे गंवाते हो। तुम्हें भेजा गया है हीरे की खदान पर और तुम कंकड़-पत्थर बीन रहे हो। और जल्दी ही खबर आ जाएगी कि समय पूरा हो गया। तब तुम बहुत पछताओगे लेकिन मृत्यु फिर समय नहीं देती। फिर तुम लाख कहो कि चैबीस घंटे का वक्त दे दो, उतना भी नहीं मृत्यु से मिलता। आई तो आई। आई तो फिर कोई मोहलत नहीं है।

सिकंदर चैबीस घंटे ज्यादा जिंदा रहना चाहता था। क्योंकि वह अपनी मां को वचन देकर आया था कि सारी दुनिया को जीत कर जब लौट कर आऊंगा तो तेरे चरणों में सारी दुनिया का राज्य रख दूंगा। वह हिंदुस्तान से लौट रहा था। उस समय की जानी हुई सारी दुनिया उसने जीत ली थी। लेकिन अपनी राजधानी से चैबीस घंटे के फासले पर था, तब चिकित्सकों ने कह दिया कि अब बच न सकोगे। उसने बहुत आरजुएं कीं, बहुत मिन्नतें कीं। परमात्मा की कभी उसने याद नहीं की थी, पहली दफे याद की। सारी सेना ने प्रार्थना की। लाखों लोगों ने प्रार्थना की कि सिर्फ चैबीस घंटे…। क्योंकि सिकंदर की एक ही मंशा थी कि पूरी कर लूं, कि जाकर मां के चरणों में सारा राज्य दुनिया का रख दूं। किसी बेटे ने कभी अपनी मां के चरणों में सारी दुनिया का राज्य नहीं रखा; वह मैं करके दिखा दूं। वह सिर्फ चाहता था चैबीस घंटे, ज्यादा नहीं मांगता था। लेकिन वह भी नहीं हो सका।

सिकंदर को भी चैबीस घंटे ज्यादा नहीं मिलते। मौत आ ही गई। जब मौत आ ही गई तब उसे दिखाई पड़ा कि मैं चूक गया। इस जिंदगी को मैंने व्यर्थ की चीजें इकट्ठा करने में गंवा दिया। मैंने ऐसा कुछ भी सार्थक नहीं खोजा है, जो मैं कह सकूं परमात्मा के सामने कि यह मैं खोज कर लाया हूं। सब गंवा कर लौटा हूं। मैं भिखमंगे की तरह जा रहा हूं, सम्राट की तरह नहीं। सिकंदर के अंतिम वचन यही थे कि मैं भिखमंगे की तरह मर रहा हूं, सम्राट की तरह नहीं।

सम्राट की तरह भी मरने का ढंग है और भिखमंगे की तरह भी। अधिकतर लोग भिखमंगे की तरह मरते हैं।

धरमदास सम्राट की तरह मरे, इसलिए कबीर ने उनको नाम दिया धनी धरमदास। धनी होकर मरे। कौन सा धन पा लिया? ध्यान का धन। परमात्मा को पाकर मरे, आत्मा को जान कर मरे, जीवन की शाश्वतता को पहचान कर मरे। फिर कोई मृत्यु नहीं है। जिसने अपने भीतर के आत्यंतिक सत्य को पहचान लिया उसने अमृत को पहचान लिया। फिर कोई मृत्यु नहीं है। मृत्यु तो तभी तक घटती है जब तक हम बाहर से जुड़े हैं। मृत्यु हमें बाहर से तोड़ती है। और हम बाहर से जुड़े हैं। जैसे ही हम भीतर से जुड़ गए, फिर मृत्यु हमें नहीं तोड़ सकती।

कागद की नइया बनी, डोरी साहब हाथ।

जौने नाच नचैहें हो, नाचब वोही नाच।।

…का करत गुमान!

ये वचन बड़े प्यारे हैं। धरमदास कह रहे हैं,

कागद की नइया बनी, डोरी साहब हाथ।

लेकिन उसका अंतिम धागा परमात्मा के हाथ में है। नाव बह रही है, है कागज की, लेकिन जब कागज की नाव भी बहेगी तो वह भी अकड़ कर फूल जाएगी। वह भी कहेगी धाराओं से, लहरों से कि देखो! देखो मेरा रोब। देखो मेरी गति। वह भी चांद-तारों के सामने इठलाएगी और अकड़ेगी। साहब के हाथ में डोरी है। नाव अपने से नहीं चल रही है।

तुम अपने से थोड़े ही जी रहे हो–डोरी साहब हाथ। तुमने अपने से क्या किया है? श्वास भी तो तुम अपने से नहीं ले रहे हो। वह भी चल रही है तो चल रही है। वही तो डोरी है। जब नहीं चलेगी तो तुम कुछ लाख उपाय करो, नहीं चला सकोगे। सिर कितना ही पटको, एक श्वास भी भीतर नहीं ले सकोगे।

…का करत गुमान!

कहो केते दिन जियबो हो…

यह डोरी साहब के हाथ है यह समझ में आ जाए तो सदगुरुओं की सारी शिक्षा का सूत्र तुम्हें पकड़ में आ गया।

जौने नाच नचैहें, नाचब वोही नाच।।

तुम यह कहो ही मत कि मैं हूं। वही है; जो नाच नचाता है, नाचता हूं। बचाता है, बचता हूं। डूबाता है, डूबता हूं। बनाता है, बनता हूं। मिटाता है, मिटता हूं। जैसे ही तुम्हें यह बात दिखाई पड़ने लगी कि उसके इशारे पर ही सब हो रहा है, वैसे ही तुम्हारा मैं-भाव खो जाएगा, गुमान खो जाएगा, अकड़ मिट जाएगी। तुम सरल हो जाओगे। तुम विनम्र हो जाओगे। तुम शून्य हो जाओगे। और शून्य में ही परमात्मा उतरता है।

शून्य ही सूली है जिसकी मैंने तुमसे बात कही। और शून्य में ही पूर्ण का अवतरण होता है। पूर्ण सिंहासन है, जिसकी मैंने तुमसे बात कही। तुम शून्य हो जाओ तो तुम सूली पर चढ़ गए क्योंकि तुमने मैं को सूली दे दी। अब तुमने मैं-भाव छोड़ दिया। अब तुमने कहा कि–

कागद की नइया बनी, डोरी साहब हाथ।

जौने नाच नचैहें हो, नाचब वोही नाच।।

अब तेरी मर्जी। जो करवाए। जैसा करवाए। तू ही करनेवाला है, मैं कर्ता नहीं हूं। कर्ता तू है। तेरा जीवन, तेरी मौत। तेरी हार, तेरी जीत। तेरा सौंदर्य, तेरी कुरूपता। सब तेरा। बुरा भी तेरा, भला भी तेरा।

इसको जरा खयाल में रखना। पुण्य भी तेरा, पाप भी तेरा। चोरी करवाए तो चोरी। साधु बनाए तो साधु। तू कहे कि रावण बन, तो मैं कैसे राम बनूं? तू रावण बनाए तो रावण। तू राम बनाए तो राम। यह बड़ी गहरी अनुभूति है। यह नाटक है, इसमें तू जो पार्ट दे देगा, हम पूरा करेंगे।

जौने नाच नचैहें हो, नाचब वोही नाच।।

हम हैं ही नहीं। तेरी मर्जी ही सब कुछ है। ऐसी समर्पण की दशा में ही परमात्मा अवतरित होता है। परमात्मा को खोजने भी नहीं जाना पड़ता। उसको जिसने समझ लिया–डोरी साहब हाथ। कहीं खोजने नहीं जाना पड़ता। किसी हिमालय में नहीं। जहां तुम बैठे हो वहीं परमात्मा आ जाता है। बस, यह डोरी तुम्हें दिखाई पड़नी शुरू हो जाए।

धरमदास एक बनिया हो करे झूठी बाजार।

धरमदास कहते हैं, मैंने खूब झूठा बाजार किया है। मैं बनिया हूं। मैंने खूब धन कमाया है झूठ का, पद कमाया है झूठ का, यश कमाया है झूठ का। मैंने झूठ के सिक्के खूब चलाए। झूठ के सिक्कों में खूब जीया।

जिसको तुम संसार कहते हो, वह झूठ का व्यापार है। वहां सच्चा आदमी हार जाता है और झूठा जीत जाता है। वहां झूठ कला है। वहां सत्य आदमी बुद्धू समझा जाता है। वहां झूठ कुशल समझा जाता है। इसे जरा खयाल में लेना।

तुम कई दफे चैंकते भी हो कि झूठे सफल हो रहे हैं। लेकिन संसार झूठ का व्यापार है। वहां झूठे ही सफल हो सकते हैं क्योंकि झूठ वहां भाषा है। वही समझी जाती है। वहां भोला-भाला आदमी, जो सच बोल दे, वह तो खेल के बाहर हो गया। वह तो खेल का हिस्सा ही न रहा। वहां सीधे-सादे की गति नहीं है। वहां जो जितनी तिरछी चाल चले, उतनी ही सफलता की संभावना है। इस झूठ के व्यापार में बेईमान सफल होते हैं। मगर उनकी सफलता क्या है? मर जाएंगे और सब सफलता पड़ी रह जाएगी; किसी काम न आएगी।

धरमदास एक बनिया हो करे झूठी बाजार।

साहब कबीर बंजारा हो करै सत्त व्यापार।।

और कहते हैं, कबीर से मिलना हुआ तब समझा कि एक और भी व्यापार है। एक और भी सौदा है। करने योग्य असली सौदा और ही है। वह इस कबीर बंजारे से मिल कर हुआ।

बंजारा शब्द बड़ा प्यारा है। बंजारा का अर्थ होता हैः जिसका यहां कोई घर नहीं। बंजारा हम उसको कहते हैं न–खानाबदोश को। खानाबदोश शब्द भी बड़ा प्यारा है। उसका मतलब होता हैः जिसका घर उसके कंधे पर है। खाना यानी घर, बदोश यानी कंधे पर। जिसका घर उसके कंधे पर। जिसका और कोई घर नहीं है, बस खुद ही अपना घर है।

बंजारा तंबू में जीता है। आज बांध लिया तंबू, कल उखाड़ दिया तंबू। उसके पास कोई स्थिर घर नहीं होता। बंजारा घर नहीं बसाता। बंजारा इस संसार में मंजिल नहीं मानता, पड़ाव बनाता है। रुक गए, सराय है जैसे। सुबह हुई, चल पड़े। इसलिए धरमदास कहते हैं,

साहब कबीर बंजारा हो करै सत्त व्यापार।।

और कबीर के पास आकर पता चला कि एक और भी व्यापार है, जो मैंने किया ही नहीं। मैं फिजूल के व्यापार में पड़ा रहा। मैं सपने में धन खोजता रहा। असली सिक्के भी हैं यहां, यहां असली संपदा भी है, लेकिन उस संपदा के लिए अंतर्यात्रा करनी होती है।

सतगुरु आवो हमरे देस निहारौं बाट खड़ी।

वाही देस की बतिया रे लावै संत सुजान।।

उन संतन के चरण पखारूं, तन-मन करि कुर्बान।

एक बात खयाल लेना, अचानक धनी धरमदास अपने को स्त्री की तरह प्रतिपादित करने लगते हैं। अचानक! अभी तक बोलते थे पुरुष की भाषा में। अब यहां कहते हैं, ‘सतगुरु आवो हमरे देस, निहारौं बाट खड़ी’; अचानक!

बस, यहीं से विद्यार्थी शिष्य बनता है। जैसे ही विद्यार्थी शिष्य बनता है, स्त्रैण हो जाता है। विद्यार्थी पुरुष होता है, शिष्य स्त्रैण होता है। मतलब खूब खयाल में ले लेना। विद्यार्थी तलाश में होता है, खोजता है। खोज का अर्थ है पुरुष। शिष्य ग्रहण करता है, खोजता नहीं। स्वीकार करता है, अपने को खोल देता है, अंगीकार करता है। शिष्य स्त्रैण होता है।

जैसे स्त्री अंगीकार करती है। स्त्री गर्भ है। पुरुष गर्भ खोजता है। स्त्री प्रतीक्षा करती है। स्त्री सिर्फ स्वीकार करती है अहोभाव से। इसलिए स्त्री अगर किसी पुरुष के पीछे पड़ जाए तो पुरुष डर जाता है। ऐसी स्त्रियों से लोग प्रेम नहीं करते जो पुरुषों के पीछे पड़ जाएं। क्योंकि वे स्त्रियां ही नहीं हैं। स्त्री का लावण्य यही है कि वह प्रतीक्षा करे, धैर्य करे। स्त्री पहल नहीं करती। उसे तुमसे लाख प्रेम हो, वह तुमसे यह न कहेगी आकर कि मुझे तुमसे प्रेम है। वह प्रतीक्षा करेगी, तुम जब कहोगे…और तब भी शायद नहीं नहीं कहेगी। तुम्हें अनुमान लगाना पड़ेगा कि उसका चेहरे का भाव हां का है, स्वीकार का है।

लेकिन जो स्त्री जाकर किसी से कहे, मुझे तुमसे प्रेम है, उसमें स्त्रैण तत्व की कमी है, कोमलता की कमी है। उसमें आक्रमक भाव है।

पुरुष आक्रमक है, स्त्री ग्राहक है।

विद्यार्थी और शिष्य का वही फर्क है। विद्यार्थी तलाश में खोजता है, सक्रिय रूप से। मिल जाए कहीं कुछ। शिष्य को मिल गया वह आदमी, जिसके पास घटना घट सकती है। अब वह अपने को खोल देता है। अपने द्वार-दरवाजे खोल देता है। अब वह स्त्रैण हो जाता है।

यह जो कृष्ण के पास तुमने गोपियों का नाच देखा है, इसका मौलिक अर्थ यही है कि गुरु के पास जो भी होगा, वही गोपी हो जाता है; वही स्त्रैण हो जाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि उनके पास सिर्फ स्त्रियां ही स्त्रियां नाच रही थीं; मगर जो भी उनके पास नाच रहे थे वे सब स्त्रियां हो गए थे। इसलिए पुरुषों को भी पुरुष की तरह चित्रित नहीं किया है।

शिष्य में पुरुषभाव रहता ही नहीं। शिष्य में प्रीति होती है, स्त्रैण प्रीति। समर्पणभाव होता है।

इसलिए अचानक भाषा बदल गई। धनी धरमदास कहते हैं,

सतगुरु आवो हमरे देस निहारौं बाट खड़ी।

अब वे कहते हैं कि मैंने अपना हृदय का द्वार तुम्हारे लिए खोल दिया, अब तुम आ जाओ मेरे देश में; अब तुम मुझमें समा जाओ।

मिलता नहीं सुकूं किसी उन्वां तेरे बगैर

फिरता हूं दश्त-दश्त परेशां तेरे बगैर

एक घड़ी होती है, जब आदमी खोजता-फिरता है, खोजता-फिरता है। फिर किसी आंख से आंख मिली। फिर किसी से रंग बैठा। किसी के साथ तार जुड़े।

पूजता हूं तुझे खयालों में

कर रहा हूं बंदगी खामोश

फिर सब खोज समाप्त हुई।

पूजता हूं तुझे खयालों में

कर रहा हूं बंदगी खामोश

फिर तो कहने को भी कुछ नहीं रह जाता। बंदगी भी खामोश हो जाती है। फिर तो सिर्फ प्रतीक्षा है एक प्रार्थना भरे हृदय की। शब्द भी नहीं है, सिर्फ राह है; सिर्फ बाट है।

सतगुरु आवो हमरे देस निहारौं बाट खड़ी।

वाही देस की बतिया रे लावै संत सुजान।।

उस दूसरे देश की खबर लाते हैं जो, वे ही संत हैं। उस दूसरे देश होकर आते हैं जो, वही संत हैं। उस दूसरे देश की सुगंध से भरे आते हैं जो, वही संत हैं।

इस बगीचे में तुम जाओ, फूलों को तुम छुओ, फूलों से तुम बतियाओ, वृक्षों के पास नाचो, फिर तुम अपने घर लौट जाओ। फूल भी तुम न ले जाओ। शायद फूल ऐसे हैं कि ले जाए भी नहीं जा सकते। और तुम ले भी जाओ तो उस घर के निवासियों ने फूल कभी देखे नहीं; वे पहचान भी नहीं सकेंगे। मगर फिर भी एक सुगंध तुम्हारे पास चली जाएगी, तुममें भरी चली जाएगी, तुम्हारे वस्त्रों में लगी चली जाएगी। एक ताजगी! एक भीना-भीना भाव! एक वातावरण!

वही वातावरण सदगुरु के पास होता है। तुम उसके पास बैठ कर अगर अपने नासापुटों में उसकी सुगंध लोगे, तो तुम्हें एक बात तो समझ में आएगी कि कुछ है, जो इस जगत के पार का है। कुछ है जो दूर का है। कुछ है जो मैंने नहीं जाना; जिससे मैं अपरिचित हूं।

तुम गुरु की आंखों में आंखें डाल कर देखोगे तो तुम्हें द्वार मिलेगा। द्वार–जो किसी अज्ञात में खुलता है।

ऐसी घड़ी में ही विद्यार्थी शिष्य हो जाता है।

न मालूम वह घड़ी क्या रही

जब हम तुमपे निसार हो गए

समझ भी नहीं पड़ता कि कब घट गई घटना। मगर एक निसार होने की घटना हो जाती है, न्योछावर हो जाने की घटना हो जाती है।

न मालूम वही घड़ी क्या रही

जब हम तुमपे निसार हो गए

वैसी घड़ी आ जाए इसके लिए भटकना पड़ता है। कहां आएगी, किस द्वार से गुरुद्वारा बन जाएगा, कहना मुश्किल है। कौन सा द्वार गुरुद्वारा बन जाएगा, कहना मुश्किल है। पहले से तय करना मुश्किल है।

और जो तय करके चले हैं वे चूक जाएंगे। सिर्फ खुले भाव से खोज होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म खोजना चाहिए। धर्म जन्म से नहीं मिलता। धर्म जन्म से मिल ही नहीं सकता। धर्म कोई वसीयत थोड़े ही है! धर्म कोई खून में थोड़े ही है! हड्डी-मांस-मज्जा में थोड़े ही है! बाप से नहीं मिलता धर्म; न मां से मिलता है धर्म; न संस्कार से मिलता है धर्म; न शिक्षा से मिलता है धर्म।

धर्म खोजना पड़ता है–प्यास से भर कर, तड़फते हुए, जलते हुए। और जब कोई प्यासा आदमी खोजता है…खोजता है…खोजता है, एक घड़ी वह घटना घट जाती है।

न मालूम वह घड़ी क्या रही

जब हम तुमपे निसार हो गए

सरोवर दिखाई पड़ता है, और सब हो जाता है।

फिर जरूरी नहीं है कि तुम्हें जो सरोवर है, वह दूसरे को भी सरोवर हो। प्यासें अलग हैं, आंखें अलग हैं, व्यक्तित्व अलग हैं। जो तुम्हारे लिए गुरु है, जरूरी नहीं है कि दूसरे के लिए भी गुरु हो। इसलिए अपने गुरु को किसी पर थोपने की कोशिश मत करना। और न किसी और के गुरु को स्वीकार कर लेने की जल्दी कर लेना। खोजना। निजी खोज करना। और अगर ठीक-ठीक खोजा तो जरूर पाओगे। जो खोजता है उसे मिलता है। जो नहीं खोजते वे ही चूकते हैं। और जिस दिन मिल जाएगा उस दिन खोज बंद हुई, उस दिन पुरुष गया; उस दिन आक्रामक वृत्ति गई। उस दिन तुम्हारे भीतर स्त्री का जन्म हुआ।

शिष्य स्त्रैण होता है। इसलिए बहुत ठीक किया धनी धरमदास ने, भाषा एकदम बदल दी।

सतगुरु आवो हमरे देस निहारौं बाट खड़ी।

वाही देस की बतिया…

…हम से सतगुरु आन कही।।

आठ पहर के निरखत हमरे नैन की नींद गई।

गुुरु आया कि नींद गई। गुरु यानी जागरण। फिर सोना कहां! फिर सपने कहां! फिर अंधेरा कहां! फिर रोशनी ही रोशनी है।

क्या जानूं आज किसका मुझे इंतजार है

पलकों की एक झपक भी मुझे नागवार है

और जब तुम्हारे पास जीवंत सत्य खड़ा हो तो कैसे झपकी लोगे? कैसे आंख झपकोगे? कहीं चूक न जाए। कहीं कोई संदेश चूक न जाए। कहीं कोई भाव भंगिमा चूक न जाए।

आठ पहर के निरखत हमरे नैन की नींद गई।

भूल गई तन-मन-धन सारा व्याकुल भया शरीर।।

विरह पुकारै विरहिनी ढरकत नैनन नीर।

भूल गई तन-मन-धन सारा–जिसके चरणों में तुम सब न भूल जाओ, समझना कि वे चरण तुम्हारे लिए गुरु के चरण नहीं हैं। जहां तुम कुछ भी बचा लो, समझ लेना कि वे तुम्हारे लिए गुरु के चरण नहीं हैं। जहां तुम बचा ही न सको कुछ…।

और ध्यान रखना, न बचाने का अर्थ यह नहीं होता कि तुम सारा घर जाकर उसके चरणों में रख दोगे। नहीं बचाने का यह अर्थ भी नहीं होता कि अपना परिवार, अपनी दुकान, सब बरबाद कर दोगे। न बचाने का यही अर्थ होता है कि अगर उसका इशारा हो जाए तो तुम बरबाद करने को तैयार हो। तुम जरा भी नानुच न करोगे। यद्यपि कोई गुरु इशारा नहीं करता।

इसको खयाल में रखना, गुरु तुमसे मांगता नहीं कि तुम सब दे दो। इससे बड़ा नुकसान हुआ है, और बड़ी हानि हुई है। इस तरह के वचन बड़े गलत ढंग से व्याख्या किए गए। इन वचनों का ठीक-ठीक अर्थ समझ में न हो तो बड़ी चूक हो सकती है, और बड़ा पाखंड पैदा हो जाता है। इस वचन का अर्थ समझो–

भूल गई तन-मन-धन सारा व्याकुल भया शरीर।।

यह शिष्य अपनी मनोदशा का वर्णन कर रहा है कि मैं सब भूल गया। तन-मन-धन जो भी था, सब विस्मृत हो गया मुझे। सारा संसार जैसे एक झूठी कहानी हो गई। गुरु ही केवल सत्य होकर सामने खड़ा है।

यह शिष्य अपनी तरफ से कह रहा है। लेकिन पाखंडी गुरुओं ने क्या किया? उन्होंने कहा कि जब तक तुम सारा तन-मन-धन मुझे न दो, तब तक तुम शिष्य ही नहीं हो।

मैं तुम्हें यह चेतावनी दूं–शिष्य को तो सब भूल जाता है, लेकिन जब शिष्य को ही सब भूल गया, शिष्य को ही सारे संसार का धन दो कौड़ी का हो गया, तो उसके गुरु को क्या इस धन में कुछ रस हो सकता है? उसका गुरु अगर यह धन मांगे तो शिष्य भला शिष्य हो, गुरु गुरु नहीं है। और गुरु अगर यह कोशिश करे कि देखो, शिष्य का यह लक्षण है कि वह सब भूले। तुम्हारे पास जितना धन हो, यहां ले आओ। सब दान कर दो मुझे। तो वह गुरु अभी झूठ के व्यापार में पड़ा है।

यह शिष्य की भाव-दशा का वर्णन है। जब शिष्य की यह दशा है तो गुरु की तो क्या होगी! उसे तो पता ही नहीं होता। उसकी तरफ से कोई मांग नहीं हो सकती।

इस तरह की बड़ी भ्रांतियां अतीत में हुई हैं। बुद्ध ने कहा कि जो उसकी खोज में निकला है, उसके मन में दान सहज होगा। वह देने को सदा तत्पर होगा। भिक्षुओं ने इसका क्या मतलब निकाला? वे लोगों को समझाने लगे कि दो; क्योंकि दोगे तो ही तुम सत-शिष्य हो।

यही हिंदू पंडित-पुरोहित करते रहे हैं सदियों से। दान का भाव शिष्य में उमगता है यह सच है; लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि कोई इसका शोषण करना शुरू कर दे। पंडित-पुरोहित यही कर रहे हैं। रास्ते पर खड़े भिखारी भी यही कर रहे हैं।

तुमने देखा, भिखारी, जब तुम्हारा हाथ पकड़ लेता है और कहता है कि लोभ पाप का बाप बखाना, दान धर्म का मूल। तो वह तुमसे यही कह रहा है कि दो। अगर नहीं दिया तो लोभी हो। और मजा यह है कि वह मांग रहा है, वह लोभी नहीं है। अगर तुम दो तो तुम दानी हो, धार्मिक हो।

वह तुम्हारे अहंकार को फुसला रहा है। वह यह कह रहा है कि देखो, अब बाजार में बदनामी हो जाएगी। लोग कहेंगे कि लोभी है, एक दो पैसे भी न दे सका। इसलिए भिखारी भी तुमको ऐसी जगह पकड़ते हैं, जहां बदनामी हो जाने का डर हो; ठीक चैराहे पर पकड़ लेते हैं गांव के। एकांत में तुम मिल जाओ तो वे तुमको पकड़ते भी नहीं, क्योंकि एकांत में हो सकता है तुम एक झापड़ रसीद करो। देने की तो बात दूर।

लेकिन बीच बाजार में, जहां प्रतिष्ठा का सवाल है, जहां तुम दुकान लिए बैठे हो, जहां तुम झूठ का व्यापार कर रहे हो, वहां जरा झंझट की बात है। अब इसको दो पैसे न दो तो लोग कहेंगे कि अरे…! तुम्हें देना पड़ता है। देना भी नहीं चाहते, दिल भी कचोटता है, जानते हो कि यह ठग रहा है। क्योंकि तुम खुद दूसरों को ठग रहे हो। तुम जानते हो ठग की भाषा क्या है। यह ठग रहा है तुम्हें। तुम जानते हो कि तुम बुद्धू बनाए जा रहे हो। मगर अब दो पैसे देने जैसे लगते हैं क्योंकि सारी प्रतिष्ठा, दो पैसे में अहंकार बचता है। दो!

भिखमंगे को लोग इसलिए नहीं देते कि दया आ रही है। भिखमंगे को लोग इसलिए देते हैं कि अपनी प्रतिष्ठा दांव पर कौन लगाए। और अगर तुम नहीं देते तो भिखमंगा तुम्हें इस तरह से देखता है जैसे तुम नरक जा रहे हो। और अगर तुम देते हो तो भिखमंगा जानता है कि अरे, बुद्धू था। बड़ी दुनिया अजीब है। अगर तुम देते हो तो भिखमंगे आपस में कहते हैं, खूब बनाया। फिर तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा कि यह बुद्धू फिर कभी आ जाए चक्कर में। दो, तो तुम बुद्धू हो; न दो तो तुम पापी हो।

बुद्धों ने जो वचन कहे हैं उनके भी बड़े-बड़े अनूठे अर्थ लोगों ने निकाल लिए हैं। अपने मतलब के अर्थ निकाल लिए हैं।

ध्यान रखना, इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई गुरु तुमसे मांगेगा कि तुम अपना सब दे दो। इसका इतना ही अर्थ है कि गुरु को देखते ही तुम्हारा सब जो था, वह व्यर्थ हो गया। अब उसमें कुछ रस न रहा।

भूल गई तन-मन-धन सारा व्याकुल भया शरीर।

इधर मैं डूबने आया हूं दरिया-ए-मोहब्बत में

उधर दुनिया बुलाती है मुझे घबड़ा कर साहिल से

जब तुम गुरु के पास जाओगे और तुम सारे तन-मन-धन को भूलने लगोगे तो सारी दुनिया तुम्हें खींचेगी, पुकारेगी कि लौट आओ, खतरे में पड़ रहे हो। गुरु का मिलन संसार पसंद नहीं करता। संसार बिलकुल राजी रहता है–पंडित के पास जाओ, पुरोहित के पास जाओ–संसार बिलकुल राजी रहता है। संसार बिलकुल साथ देता है कि जरूर जाओ। मंदिर जाओ, मस्जिद जाओ, गुरुद्वारा जाओ। संसार कहता है यह तो करना ही चाहिए धार्मिक व्यक्ति को। रविवार चर्च हो आया करे। कभी-कभी बाइबिल पढ़ लिया करे, कभी-कभी गीता पढ़ लिया करे, कभी-कभी सत्यनारायण की कथा!

मगर गुरु के पास जाओ…अगर कबीर मिल जाएं, या बुद्ध मिल जाएं, या कृष्ण मिल जाएं तो सारा संसार विरोध करेगा। क्योंकि यह अलग व्यापार है। एक झूठ का व्यापार है, एक सच का व्यापार है। इन दोनों में बड़ा संघर्ष है। मैं तुमसे यह कहूं, कि अगर किसी के पास जाने से सारा संसार तुम्हारा विरोध करता हो, तब तो तुम समझ ही लेना कि रास्ते पर ठीक हो। क्योंकि इतने लोग गलत नहीं हो सकते। जब सारा संसार विरोध कर रहा है तो जरूर कुछ बात होनी चाहिए। तुम जरा सावधान हो जाना और होशियारी से खोज में लग जाना।

जहां, जिस धर्म के नाम पर संसार विरोध न करता हो वहां कुछ सार नहीं है, समझ लेना। क्योंकि उस धर्म से संसार का कुछ नहीं बिगड़ता। वह झूठ के व्यापार का हिस्सा है इसलिए कोई विरोध नहीं करता।

एक जैन महिला ने मुझे आकर कहा…उसके पति यहां मुझे सुनने आते हैं। वह बोली कि आप उनको समझाएं, इतने ज्यादा न आएं। क्या मामला क्या है? उसने कहा कि नहीं, धर्म ही सुनना हो तो अपने जैन मुनि क्या बुरे हैं! मंदिर जाएं। मैंने कहा, जब तुझे कोई एतराज ही नहीं है तो यहां आएं कि मंदिर जाएं, तुझे क्या फिकर है? नहीं, उसने कहा कि यहां आने में सब एतराज करते हैं–परिवार के लोग, बच्चे। और सब मुझे कहते हैं कि तू अपने पति को गंवा देगी। जैन मंदिर में जाएं, हर्ज क्या…धर्म ही सुनना है न? तो जैन मंदिर में जा सकते हैं, वहां मजे से सुनें।

वह स्त्री यह कह रही है कि जैन मंदिर को तो हमने बाजार की दुनिया का हिस्सा बना लिया है। अभी इस मंदिर को बाजार का हिस्सा बनाने में समय लगेगा। और इस बीच कुछ गड़बड़ हो गई तो बस…।

जब भी संसार तुम्हारा विरोध करता हो कहीं जाने से, जब पूरा संसार एकमत होकर विरोध करता हो, तब तो तुम समझ लेना कि तुम किसी ऐसी जगह जा रहे हो, जो इस झूठ के व्यापार से भिन्न है। कुछ भेद हैं; नहीं तो इतने लोग विरोध न करते।

धनी धरमदास जब कबीर के पास गए तो यही झंझट खड़ी हुई थी। सारे लोग विरोध में थे। और धनी धरमदास पहले जीवन भर सत्यनारायण की कथा और मंदिर और यज्ञ और हवन, सब करवाते थे तब किसी ने विरोध नहीं किया था। सारा गांव कहता था अहा, धार्मिक आदमी है। जब कबीर के पास गए तो लोगों ने कहा, अब यह भ्रष्ट हुआ। अब इसका दिमाग खराब हुआ। यह कोई बात हुई? कबीर के पास जाना! इसे तुम संकेत समझना।

भूल गई तन-मन-धन सारा व्याकुल भया शरीर।

विरह पुकारै विरहिनी ढरकत नैनन नीर।

और जिसके पास जाकर तुम्हारी आंखों में आंसू भर जाएं–दंभ नहीं, प्रेम के, प्रीति के आंसू। मंदिर से तुम अकड़ कर लौटते हो कि कुछ धार्मिक हो गए। सच्चे ज्ञानी के पास से तुम विनम्र होकर लौटोगे कि तुम्हें अपनी जिंदगी की धूल और दिखाई पड़ गई। झूठे ज्ञानी के पास से तुम थोड़ी जानकारी बढ़ा कर लौटोगे। सच्चे ज्ञानी के पास से तुम्हारी जानकारी और छूट गई। तुम और अज्ञानी होकर लौटोगे। तुम्हें लगेगा कि मेरे जैसा अज्ञानी कौन?

सच्चे ज्ञानी के पास से तुम रोते हुए लौटोगे–अपनी जिंदगी पर रोते हुए। तुम्हारी आंखों में आंसू होंगे–दो तरह के आंसूः अब तक जिंदगी गंवाई उसके आंसू, पश्चात्ताप के। और वह परम प्यारा मिल जाए, अब इसकी प्रार्थना के आंसू भी। अतीत के लिए आंसू और भविष्य के लिए आंसू।

विरह पुकारै विरहिनी ढरकत नैनन नीर।

धरमदास के दाता सतगुरु पल में कियो निहाल।।

और जहां आंसू भरे हों, जहां सब न्योछावर कर देने की क्षमता हो, जहां स्त्रैण हो जाने का शिष्यभाव पैदा हुआ हो, फिर गुरु को देर नहीं लगती। गुरु को देर तुम्हारे कारण लगती है। फिर से तुमसे कह दूं, गुरु को देर तुम्हारे कारण लगती है; अन्यथा क्षण में हो जाए बात। तुम्हीं अड़चन खड़ी करते हो। तुम होने नहीं देते।

धरमदास के दाता सतगुरु पल में कियो निहाल।।

ऐसी घड़ी तुम्हारे चित्त में आ जाए जैसी धरमदास को आई–कि सब व्यर्थ हुआ। आंख आंसुओं से भर गईं। आंख जग गईं ऐसी कि नींद मुश्किल हो गई। अब तक का किया हुआ सब अनकिया हो गया। और इस परम विनम्रता के क्षण में झुक गए चरणों में।

उन संतन के चरण पखारूं, तन-मन करि कुर्बान।

सब लुटाने की तैयारी है, फिर देरी क्यों? फिर एक क्षण की देरी नहीं होती–

…पल में कियो निहाल।।

धरमदास के दाता सतगुरु…

और गुरु तो सदा दे रहा है, बस लेने की तुम्हारे पास तैयारी चाहिए। वहां तो वर्षा हो रही है, तुम अपना घड़ा उलटा किए रहो तो नहीं भरेगा। तुम अपने घड़े को सीधा करो।

आवागमन की डोरी कट गई, मिटे भरम जंजाल।

मैं हैर रहूं नैना सो नेह लगाई।।

सदगुरु से जो लगाव है, जो नेह है, जो प्रीति है, वह उन दो आंखों से प्रीति है, जिनमें परमात्मा की छबि दिखाई पड़ती है।

सदगुरु कौन? जिसकी आंख में तुम्हें परमात्मा की थोड़ी आभा दिखाई पड़ जाए–जरा सी झलक! तुमने परमात्मा नहीं देखा, तुम्हें परमात्मा की कोई खबर नहीं है, लेकिन किसी ने देखा है तो उसकी आंख में कुछ तो अक्स रह जाएगा, कुछ तो लकीरें तैरती रह जाएंगी, कुछ तो बिंब रह जाएगा। उसकी आंखों में कुछ तो परमात्मा को देखने का भाव झलकेगा। कुछ तो तैरता हुआ मिल जाएगा। तुमने नहीं सुना वह संगीत, लेकिन जिसने सुना है उसके पास उसकी शांति में कुछ तो स्वर गूंजते होंगे।

मैं हैरि रहूं नैना सो नेह लगाई।।

राह चलत मोहि मिलि गए सतगुरु, सो सुख बरनि न जाई।

राह चलत–जो खोजता है उसको ही मिलते हैं सदगुरु। घर बैठे रहे, खोजा ही नहीं तो सदगुरु नहीं मिलते। जो विद्यार्थी बनता है, वही एक दिन शिष्य बनता है। जो विद्यार्थी ही नहीं बनता वह तो शिष्य कैसे बनेगा? जो एक दिन जिज्ञासु बनता है, वही एक दिन मुमुक्षु हो जाता है। चलना तो पड़ेगा।

राह चलत मोहि मिल गए सतगुरु, सो सुख बरनि न जाई।

रास्ते में आज उनसे मुलाकात हो गई

जी डर रहा था जिससे, वही बात हो गई

गुरु जब मिलता है तो तुमने चाहा था वही मिला, और फिर भी जी धक से रह जाता है। क्योंकि गुरु मृत्यु भी है और जीवन भी।

देइ के दरस मोहि बौराये…

और जैसे ही गुरु का दर्शन मिला कि तुम पागल हुए। तुम पागल न हो जाओ तो गुरु से मिलन हुआ ही नहीं।

देई के दरस मोहि बौराये, ले गए चित्त चुराई।

जिस गुरु के पास जाकर तुम्हारा चित्त न चुरा लिया जाए, वह गुरु नहीं। जिसके पास जाकर तुम अपना चित्त न गंवा बैठो वह गुरु नहीं।

हमारे पास एक बहुत प्यारा शब्द हैः हरि। हरि का अर्थ होता है, चोरः हर ले जाने वाला। हमने भगवान को नाम दिया हरि का। दुनिया में ऐसा कोई शब्द नहीं किसी भाषा में। किसी देश ने इतनी हिम्मत नहीं की कि भगवान को चोर कहे। यह तो जानने वाले ही कह सकते हैं।

भगवान चोर है! चोर इस अर्थ में कि एक बार उस तरफ दृष्टि गई कि तुम्हारा सब गया, सब लुटा। फिर तुम बच नहीं सकते। पहली घटना गुरु के पास घटती है। उसी बड़े चोर के छोटे संगी-साथी!

देइ के दरस मोहि बौराये, ले गए चित्त चुराई।।

एक पागलपन! एक ऐसा पागलपन छा जाता है, एक ऐसी मस्ती, एक ऐसी दीवानगी, एक ऐसी बेखुदी, जो अपरिचित है।

उठ कर तो आ गए तेरी बज्म से मगर

कुछ दिल ही जानता है किस दिल से आए हैं

फिर उठते भी नहीं बनता, चलते भी नहीं बनता, जाते भी नहीं बनता। धनी धरमदास कबीर को मिले सो फिर घर नहीं लौटे। गए सो गए! घर खबर भेज दी कि मैं पागल हो गया हूं। समझ लेना और मुझे क्षमा कर देना।

उठ कर तो आ गए तेरी बज्म से मगर

कुछ दिल ही जानता है किस दिल से आए हैं

और पागलपन तो आता ही है। फकीरों का एक समुदाय बाउल कहा जाता है। बाउल का अर्थ होता हैः बावला, पागल। सूफियों में फकीरों की एक अवस्था होती है, मस्त। मस्त का अर्थ होता है, दीवाना–जिसे होश नहीं रहा, हवास नहीं रहा; जिसे जिंदगी के हिसाब-किताब नहीं रहे। सभी पागल परमात्मा के प्यारे नहीं होते, लेकिन सभी परमात्मा के प्यारे जरूर पागल होते हैं।

लमहे यह आ गए हैं तेरी इंतजार के

मैं खुद जवाब देता हूं तुझको पुकार के

खूब पागलपन चढ़ता है। खुद ही भक्त भगवान की तरफ से जवाब भी देने लगता है, बातचीत होने लगती है।

लमहे यह आ गए हैं तेरी इंतजार के

मैं खुद जवाब देता हूं तुझको पुकार के

देइ के दरस मोहि बौराए–हो ही जाएगा पागलपन। जैसे चुंबक के पास छोटे-छोटे लोहे के कण जब खिंचने लगते हैं तो पागल न हो जाएंगे तो और क्या होगा? पागलपन बिलकुल सहज है। जन्मों-जन्मों से खोजते थे जिसे, उसकी पहली दफा झलक मिली है। होश न गंवा बैठोगे तो क्या करोगे? गणित खो जाएगा, तर्क खो जाएगा। बुद्धि के हिसाब-किताब एक तरफ हो जाएंगे। यह बड़े से बड़ा प्रेम है इसलिए बड़े से बड़ा पागलपन है।

प्रेम को तो लोग पागलपन कहते ही हैं। किसी सुंदर स्त्री के प्रेम में पड़े, किसी सुंदर पुरुष के प्रेम में पड़े, तब भी पागलपन हो जाता है, मगर वह क्या है! अगर कबीर मिल जाएं, अगर धनी धरमदास से मिलना हो जाए, अगर किसी धनी से मिलना हो जाए तो वहां तो परम सौंदर्य प्रकट होता है। वहां परम संगीत बज रहा है, वहां परम नाद उठ रहा है। तुम डोलोगे नहीं? बिना पीए तुम शराब न पी लोगे? यह हो ही जाएगा। यह हो ही जाना चाहिए।

हम खुदा के कभी कायल भी न थे

उनको देखा तो खुदा याद आया।

शायद कभी सोचा भी न हो ठीक-ठीक ईश्वर के संबंध में, कोई धारणा भी न बनाई हो, खोज अस्पष्ट भी रही हो, लेकिन जब किसी फकीर को देख लोगे, किसी पहुंचे हुए को देख लोगे, किसी सिद्ध को देख लोगे तो पहली दफा एक झंकार! पहली दफा वीणा झंकार उठेगी।

दिल है कि नशूर एक बाजा है

सीने में धड़कते तारों का

जब चोट लगे झनकार उठे

जब ठेस लगे थर्रा जाए

अभी तो तुमने सिर्फ थर्राना जाना है। संसार में तो चोटें ही लगती हैं इसलिए थर्राना ही जानते हैं। जब किसी सदगुरु से मिलोगे, तब जानोगे संगीत क्या है। अभी शोरगुल सुना है, उसमें भी इतने मोहित हो गए हो, जब संगीत सुनोगे तब क्या होगा? गुरु के पास जो गया, फिर खिंचने लगता है चुंबक की तरह।

बेताब नजर, आंखों में लहू

सीने में जलन, दिल में हलचल

जब दूर का रिश्ता ऐसा है

नजदीक का आलम क्या होगा

ठीक कहते हैं धरमदास–

भूल गई तन-मन-धन सारा व्याकुल भया शरीर।।

विरह पुकारै विरहिनी ढरकत नैनन नीर।

देइ के दरस मोहि बौराये, ले गए चित्त चुराई।।

छवि सत दरस कहां लगि बरनौं, चांद सूरज छपि जाई।

वह जो देखा है गुरु में–छवि सत दरस कहां लगि बरनौं! धरमदास कहते हैं, उसका वर्णन नहीं कर सकता। वह अनिर्वचनीय है, अवर्णनीय है। शब्द नहीं उसे समा पाएंगे। भाषा उसे कहने में असमर्थ है।

छवि सत दरस कहां लगि बरनौं…

जो कबीर की आंखों में छवि देखी, जो कबीर की आंखों में उसका प्रतिबिंब देखा है–दर्पण में ही देखा है प्यारे को अभी। अभी प्यारे को नहीं देखा, दर्पण में ही देखा है। लेकिन दर्पण में ही देख कर सब मन बौरा गया है। उसे कहना कठिन है।

…चांद सूरज छपि जाई।

उस रोशनी के सामने चांद फीका है, सूरज फीका है।

धरमदास बिनवै कर जोरी, पुनि पुनि दरस दिखाई।।

और धरमदास कहते हैं, बस अब एक ही अभीप्सा, एक ही प्यास, एक ही बात बार-बार मन में उठती है कि फिर-फिर, बार-बार वह झलक मिलती रहे। इस योग्य मैं होता रहूं, इस ग्रहणशीलता के योग्य बनता रहूं कि बार-बार कबीर की आंख में, गुरु की आंख में वह दिखाई पड़े।

धीरे-धीरे शिष्य गुरु के इतने करीब आ जाता है कि शिष्य और गुरु की आंखें अलग नहीं रह जातीं। जिस दिन शिष्य गुरु की आंख से देखने लगता है, उस दिन गुरु और शिष्य का मिलन हुआ। इसके पहले कि तुम परमात्मा से मिलो, गुरु से मिलना होगा। इसके पहले कि तुम परम के दर्शन के योग्य हो जाओ, तुम्हें धीरे-धीरे गुरु की आंख का ढंग सीखना होगा। तुम्हें गुरु की आंख के पीछे खड़े होकर देखना होगा।

सत्संग का कोई और अर्थ नहीं है, गुरु अपनी आंखें तुम्हें देता है। सत्संग का और कोई प्रयोजन नहीं है, तुम गुरु से आंखें लेते हो। यह आंख का लेन देन है। यह दर्शन का लेन देन है। होते-होते हो जाता है। संग-संग चलते, उठते-बैठते हो जाता है। सधते-सधते बात सध जाती है।

शिष्य को एक ही बात याद रखनी जरूरी है कि अपने को मिटा दे, पोंछ डाले; अपने को कोरा कागज कर ले, ताकि जो तस्वीर गुरु की आंखों में है, वह तस्वीर इस कोरे कागज पर उतरे तो कोई बाधा न पड़े। तुम्हारा कागज बहुत गुदा हुआ हो तो तस्वीर विकृत हो जाएगी। तुम्हारी प्लेट चित्त की बिलकुल खाली होनी चाहिए।

यह चित्त की प्लेट खाली कर लेना ही साधना है।

 

आज इतना ही।

 

 

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा–दर पे जमी यह नजर

प्रश्न-सार

॰ आप कभी कहते हैं कि परमात्मा के समक्ष भिखारी की तरह जाओ और कभी कहते हैं, सम्राट की तरह जाओ। इस विरोधाभास को समझाने की कृपा करें।

॰ ध्यान की अंतर्यात्रा और भक्ति की अंतर्यात्रा में आधारभूत भिन्नता क्या है?

॰ हम तो साधारण जन हैं और नाटक-सिनेमा, आदि सामान्य सुखों के भी पार नहीं उठ पाते, तो हम श्रद्धा कैसे कर सकेंगे?

॰ दूसरे गुरु के पास जाने पर आपने हमारी जो आलोचना की, उसमें आपका प्रेम तो प्रकट हुआ लेकिन हमारी स्वतंत्रता खंडित हुई।

॰ मैं प्रेम के संबंध में बहुत सोचता हूं। आपकी बातें कभी ठीक लगती हैं, कभी ठीक नहीं भी लगतीं।

पहला प्रश्नः आपने अनेक बार समझाया है कि परमात्मा के द्वार पर दीन-हीन, भिखारी की तरह नहीं, वरन सम्राट की तरह जाना चाहिए तो ही प्रवेश मिलता है। परमात्मा से मिलना हो तो कुछ-कुछ उस जैसा होना जरूरी है। क्योंकि समान ही समान से मिलता है। फिर आपने यह भी कहा है कि जब तक कोई सर्वहारा होकर, भिखारी की तरह सदगुरु के पास नहीं जाता, तब तक मिलन संभव नहीं है। इन दो विरोधी दिखने वाली स्थितियों का अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें।

॰परमात्मा के समक्ष जो भिखारी की तरह जाता है, वही सम्राट की तरह गया। जो सर्वहारा होकर गया, वही विजेता होकर गया। इन दोनों बातों में विरोध नहीं है।

परमात्मा के पास सम्राट की तरह जाएगा ही कौन? जिसकी कोई मांग नहीं है। मांग ही इस जगत में भिखारी बनाती है। मांग के कारण ही हम भिखमंगे हैं। परमात्मा के पास वही जाता है जिसकी संसार की सारी मांगें समाप्त हो गईं। जिसको यहां मांगने को कुछ नहीं बचा। जिसने मांग कर भी देख लिया और दुख पाया। पाकर भी देख लिया और दुख पाया। नहीं मिला तो पीड़ा हुई, मिला तो पीड़ा हुई। जिसने जीवन के सब रंग-ढंग देख लिए, जो जीवन से भलीभांति परिचित हो गया, जिसकी मांग खो गई। मांग भिखारी बनाती है। मांग खो गई तो वह सम्राट हो गया।

लेकिन जिसकी मांग खो गई, जिसके पास कुछ मांगने को न बचा, स्वभावतः वह परमात्मा से भी कुछ नहीं मांगेगा। मांग ही संसार की होती है। तुम जो भी मांगते हो वही संसार का है। तुम जरा अपनी मांगों का निरीक्षण करना। जिन मांगों को तुम धार्मिक कहते हो, वे भी धार्मिक नहीं हैं। मांग धार्मिक होती ही नहीं। मांग ही संसार है। इसलिए मांग पारलौकिक नहीं होती। तुम जब मोक्ष भी मांगते हो, तब भी तुम सुख ही मांग रहे हो; नाम बदल लिया। जब तुम स्वर्ग मांगते हो, तब भी तुम सफलता ही मांग रहे हो, नाम बदल दिया। तब तुम इंद्रियों की तृप्ति ही मांग रहे हो।

तुम्हारा स्वर्ग भी तो कल्पवृक्षों से भरा है। वहां सुंदर अप्सराएं हैं, और शराब के चश्मे हैं। तुम्हारा स्वर्ग भी तो तुम्हारी ही मांगों का प्रतिफलन है, तुम्हारे ही मन का बिंब है। तुम अगर रोशनी मांगते हो, तुम अगर अमरत्व मांगते हो, तो भी तुम मांग ही रहे हो। और मांग कैसे अमृत तक ले जाएगी? इसलिए सारी मांगें छूट जाएं तो तुम भिखमंगे नहीं रहे, सम्राट हुए। इस अर्थ में मैंने कहा है कि परमात्मा के सामने सम्राट की तरह जाना, कुछ मांगते हुए मत जाना।

और मैंने यह भी कहा है कि परमात्मा के सामने भिखारी की तरह जाना; अर्थात शून्य होकर जाना। भिक्षा के पात्र! मांग कुछ भी नहीं। सिर्फ एक शून्य! झोली फैली हो। झोली किस चीज से भरी जाए इसकी कोई आकांक्षा नहीं। झोली भरी जाए इसकी भी आकांक्षा नहीं, लेकिन झोली फैली हो। तुम्हारा हृदय खाली हो। तुम्हारे हृदय में मैं की अकड़ न हो। इस अर्थ में मैंने कहा है, भिखारी होकर जाना। मैं की अकड़ न हो, मैं न हो, मैं भाव न हो। इन दोनों बातों में विरोध नहीं है, ये दोनों बातें एक साथ घटती हैं। जिसकी मांग गई उसका मैं भाव भी गया।

इस संसार में हम मांगते इसीलिए हैं ताकि मैं को सिद्ध कर दें। मेरे पास धन होगा तो मेरा मैं बड़ा होगा। मेरे पास पद होगा तो मेरा मैं बड़ा होगा। ये सारी चेष्टाएं मैं को बड़ा करने की चेष्टाएं हैं। जिसने मांग छोड़ी, जिसने मेरा छोड़ा, उसका मैं भी गया। मैं मेरे के भोजन पर जीता है। मेरे का जितना विस्तार हो उतना ही मजबूत मैं हो जाता है। छोटे मकान वाले का छोटा मैं होता है, बड़े मकान वाले का बड़ा मैं होता है। छोटी संपत्ति में छोटा मैं, बड़ी संपत्ति में बड़ा मैं। तुम्हारे पास जितना होगा परिग्रह, उतनी ही मैं की अकड़ होगी। इसलिए तो जब परिग्रह छूटता है या छोड़ना पड़ता है तो ऐसे लगता है जैसे मेरी मृत्यु हुई, जैसे मैं मरा।

दिवाला निकल जाता है किसी का, वह आत्महत्या कर लेता है; जी नहीं सकता अब। क्यों? धन ही उसका मैं था। अब धन ही न रहा तो अब दीन-हीन होकर सड़कों पर से गुजरना शोभा नहीं देता। इससे बेहतर मर ही जाओ। जैसे ही मांग गई, परिग्रह गया, वासना गई, वैसे ही भीतर से मैं भी चला जाता है।

तो एक बड़ी अपूर्व घटना घटती है। एक तरफ से व्यक्ति भिखारी हो जाता है क्योंकि मैं नहीं बचा। शून्य हो गया भिक्षा-पात्र। और एक तरफ से सम्राट हो जाता है क्योंकि मांग नहीं बची। इसलिए तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को सम्राट भी कहा और भिक्षु भी कहा। दो ही नाम उपयोग किए गए हैं संन्यासी के लिए–एक भिक्षु और एक स्वामी। यह इन दोनों बातों की वजह से। जिन्होंने इस परम दशा के सम्राट होने पर जोर दिया उन्होंने अपने संन्यासियों को स्वामी कहा। जिन्होंने इस परम दशा की शून्यता पर जोर दिया, निर-अहंकारिता पर जोर दिया, उन्होंने भिक्षु कहा। मगर ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो स्वामी है वह भिक्षु है। जो भिक्षु है वही स्वामी है। उसके दरवाजे पर हार जाना जीत जाना है। जीत और हार वहां भिन्न नहीं है। वहां वही जीतता है जो हारता है।

इसलिए इन दोनों बातों में कहीं कोई विरोध नहीं है। दोनों बातें एक साथ साधना। समझो फर्क। अगर दो में से एक साधी तो चूक जाओगे। अगर तुमने कहा कि ठीक है, सम्राट होकर जाएंगे और अकड़ कर गए, अहंकार से भरे गए तो तुम उसके प्रसाद को न पा सकोगे। तुम्हारे भीतर जगह ही न होगी प्रसाद को लेने की। तुम्हारे द्वार ही बंद होंगे। परमात्मा द्वार से प्रवेश भी करना चाहेगा तो न कर पाएगा। स्थान न होगा, अवकाश न होगा, तुम्हारे भीतर आकाश न होगा। अहंकार हो तो कहां आकाश! जगह कहां? प्रवेश का उपाय कहां? परमात्मा चाहेगा तो भी तुम्हारे भीतर आ न सकेगा। सम्राट से तुम यह मतलब मत ले लेना कि बड़े अकड़ कर जाना, बैंड-बाजे के साथ जाना, हाथी-घोड़ों पर सवार होकर जाना, दुंदुभी बजाते हुए जाना, नगाड़े पीटते हुए जाना। सम्राट होने का यह मतलब नहीं है।

सम्राट होने का इतना ही अर्थ है, वहां वासनाएं लेकर मत जाना। निर्वासना से भरे हुए जाना। और साथ ही भिखारी भी रहना। मैं समझता हूं कि तुम्हें विरोधाभास क्यों दिखता है। क्योंकि सम्राट और भिखारी का शब्दकोश में विपरीत अर्थ है। शब्दकोश में होगा। परमात्मा के सामने सब शब्दकोश व्यर्थ हो जाते हैं। वहां तर्क की सामान्य व्यवस्थाएं नहीं चलतीं। और शब्दों की सामान्य परिभाषाएं काम में नहीं आतीं। वहां नये अर्थ, नई अभिव्यंजनाओं को पकड़ना होता है। वहां शब्दों के पार उठना होता है।

तो तुम भिखारी की तरह जाना–खाली, रिक्त पात्र, भिक्षा-पात्र। कि वह भरना चाहे तो तुम्हारे भीतर जरा भी अड़चन न हो। पूरा का पूरा भरना चाहे तो तुम पूरे के पूरे भरने को राजी रहो। ऐसे जाना जैसे खाई-खड्ड होता है। ऐसे नहीं जैसे पहाड़ होता है। वर्षा तो होती है, पहाड़ पर भी होती है, खाई-खड्ड में भी होती है। पहाड़ वंचित रह जाता है। वर्षा तो होती है लेकिन पहाड़ भरता नहीं। खाई-खड्ड भरते हैं। क्योंकि खाली थे इसलिए भरते हैं। जो खाली है वह भरेगा।

तो जो खाली जाएगा वही परमात्मा से जुड़ेगा। भिखारी की तरह जाना और सम्राट की तरह भी। इन दोनों बातों की अर्थवत्ता को खूब खयाल में ले लेना। और ये दोनों बातें एक साथ सध जाएं तो तुम्हारे जीवन का परम धन्यता का क्षण आ गया। न तो अहंकार हो और न वासना हो।

 

दूसरा प्रश्नः ध्यान में थोड़ी झलकें मिली हैं। तब से एक ही विचार रह-रह कर मन में उठता है कि प्रभु मिलन न हो तो मैं अब जीना भी नहीं चाहता हूं। मेरा प्रभु से मिलन करवा दें या जीवन से छुटकारा।

॰ ध्यान में झलक मिलती है तो जीवन में क्रांतिकारी अंतर पड़ने शुरू होते हैं। क्योंकि जीवन के आधार बदल जाते हैं। अब तक तो पता ही न था कि ये झरोखे भी हैं। ऐसी हवाएं भी बहती हैं। ऐसी रोशनी भी उतरती है, ऐसे दीये भी जलते हैं। अब तक तो पता नहीं था, ऐसा संगीत भी है।

जब तक पता नहीं था तब तक एक बात थी; जिंदगी का एक ढंग, एक दौर था, एक शैली थी। जब किसी नये अनुभव का पता चलता है तो जिंदगी की शैली को फिर से व्यवस्थित करना होता है। सब अस्त व्यस्त हो जाता है। जीवन के भवन को फिर से रखना पड़ता है, फिर से निर्माण करना होता है। इस नये को जगह देनी होती है।

तो ध्यान की झलकें जीवन में निश्चित ही अस्त व्यस्तता लाती हैं। कल तक जो सार्थक मालूम होता था, अब सार्थक नहीं मालूम होता। और कल तक जिसके संबंध में सपना भी नहीं देखा था, वही आज प्राणों को पकड़ लेता है। उसी की पुकार, उसी की प्यास उठने लगती है।

तुझसे मिले न थे तो कोई आरजू न थी

देखा तुझे तो तेरे तलबगार हो गए

जिसका हमें अनुभव नहीं हुआ है उसकी आरजू भी नहीं होती। जिसने कभी मिठाई नहीं चखी है उसे मिठाई की आकांक्षा भी नहीं होती है। और जो कभी महलों में नहीं सोया है और महल नहीं देखे हैं उसे महलों का सवाल भी नहीं उठता। जो अनुभव में आ जाता है उसकी आकांक्षा जगती है।

और ध्यान अपूर्व अनुभव है। उसकी एक किरण भी ऐसी संपदा है कि इस जगत की सारी संपदाएं फीकी पड़ जाती हैं। लेकिन सम्हल कर, बहुत होश सम्हाल कर चलना। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी वासना ध्यान पर इतने जोर से पकड़ जाए कि ध्यान को नष्ट कर दे। इस नियम को खयाल में लेना–ध्यान फलता तभी है जब वासना नहीं होती। ध्यान की वासना भी ध्यान में बाधा बन जाती है।

इसलिए यह यहां रोज का अनुभव है। यहां जो लोग आते हैं, नये-नये आते हैं, ध्यान में उतरते हैं, तो पहली बार अनुभव बड़ी आसानी से हो जाता है। बस फिर अड़चन शुरू होती है। पहली झलक तो मिल जाती है। क्योंकि पहली झलक के पहले तो कोई वासना नहीं होती। प्रयोगात्मक होता है कि देखें क्या होगा। करके देखें, क्या होगा। उतरें ध्यान में, नाचें, गाएं, कीर्तन करें, नाम स्मरण करें, कि शांत बैठें, कि मौन में उतरें। देखें क्या होता है। कुछ अनुभव तो नहीं है इसलिए वासना नहीं होती।

तो पहला अनुभव सुगमता से हो जाता है। और दूसरे अनुभव में बड़ी झंझट होती है। क्योंकि पहले अनुभव के बाद वासना जग जाती है। फिर वासना कहती है, अब बार-बार हो। अब ऐसा ही फिर हो, अब ऐसा रोज-रोज हो। जब ध्यान को बैठूं तभी हो। और इतना ही न हो, और आगे, और आगे हो। बस, वासना का जाल फैला।

वही वासना जो बाजार में भटकाती थी, वही ध्यान में भी भटका देगी। वही वासना जो धन के पीछे दौड़ाती थी, वही ध्यान के पीछे दौड़ा देगी। वासना का रूप क्या है, रंग क्या है? वासना का रूप और रंग है–और! जो हुआ है यह और हो, फिर-फिर हो, ज्यादा हो। सौ रुपये हैं तो हजार हो जाएं। हजार हैं तो लाख हो जाएं। इतनी प्रतिष्ठा है तो उतनी हो जाए। इतनी ध्यान की झलक मिली तो अब और होनी चाहिए। अब इतने से चित्त राजी नहीं होता। अब तो परमात्मा मिलना चाहिए। नहीं मिलेगा तो हम जीवन ही गंवा देने को राजी हैं। तब तुम विक्षिप्त हुए, तब ध्यान के करीब आते-आते चूक गए।

और अक्सर ऐसा हो जाता है कि पहले अनुभव के बाद अनुभव इतना कठिन हो जाता है…। यह रोज का अवलोकन है। और जिसको अनुभव एक दफे हुआ है उसकी बेचैनी भी मैं समझता हूं। क्योंकि वह कहता है, अब क्यों नहीं होता है? और मैं उसे लाख समझाता हूं कि अब इसीलिए नहीं होता है कि अब तू मांग कर रहा है, और पहली दफे जब हुआ था तो कोई मांग न थी। अब मांग का नया तत्व तूने जोड़ दिया जो कि बाधा बन रहा है। कभी चार महीने, कभी छह महीने, कभी साल लग जाते हैं, जब दुबारा अनुभव आता है।

दुबारा अनुभव तभी आता है, जब पहला अनुभव भूल चुका होता है। दुबारा अनुभव तभी आता है, जब पहले अनुभव की सतत आकांक्षा कर-कर के आदमी थक जाता है और सोचता है, जाने भी दो! सोचने लगता है शायद कल्पना ही रही होगी। क्योंकि अब क्यों नहीं होता है? शायद किसी सम्मोहन में आ गया था। शायद परिस्थिति, वातावरण ऐसा था। और लोग नाचते थे, मग्न होते थे, मैं भी उनके रौ में बह गया। मैं भी उस धारा में बह गया था। अब नहीं होता है। वह सच बात नहीं थी, जो हुई थी। तब उसकी आकांक्षा फिर गिर गई। और अगर आकांक्षा गिर जाने के बाद प्रयास जारी रहा तो फिर से होगा।

दुबारा हो जाने के बाद तीसरी बार आसान होता है। क्योंकि तब तुम्हें यह भी समझ में आ जाता है कि मेरी आकांक्षा बाधा बनती है। इसलिए आकांक्षा न करूं। ध्यान तो करूं, आकांक्षा न करूं। ध्यान तो करूं, मांग न करूं। ध्यान में तो जाऊं और प्रतीक्षा करूं, आकांक्षा नहीं। राह देखूं, मांग नहीं। दावेदार न बनूं। यह न कहूं कि आज होना ही चाहिए।

अब तुम्हारी अड़चन वही हो रही है। तुम कहते हो, ध्यान में झलक मिली, तब से एक ही विचार रह-रह कर मन में उठता है कि प्रभु मिलन न हो तो अब मैं जीना भी नहीं चाहता। अब तुमने प्रभु मिलन को अपने अहंकार की यात्रा बना लिया। अब प्रभु मिलन जो है, वह वैसे ही तुम्हारे अहंकार को पुष्ट करने वाली बात बन रही है, जैसे कोई कहता है जब तक मैं प्रधानमंत्री न हो जाऊं, मैं जीऊं ही न; कि मैं राष्ट्रपति न हो जाऊं तो मेरे जीने में कोई सार नहीं है। मैं तो सारी दुनिया को जीतूंगा तो ही जीऊंगा। मैं तो इस स्त्री को पा लूंगा, तो जीऊंगा। मैं तो यह मकान खरीद लूंगा तो जीऊंगा। नहीं तो जीने में क्या रखा है? तुमने जीने पर शर्त लगा दी।

जीने पर जिसने शर्त लगाई, वही अधार्मिक है। और जो जीवन पर बिना शर्त जीता है, वही धार्मिक है। जो कहता है, जीवन उसकी भेंट है, मेरे हाथ में क्या है? जीना न जीना…कल सुना नहीं, धनी धरमदास ने क्या कहा? डोरा उसके हाथ! हम तो कागज की पुतलियां हैं। डोरा उसके हाथ है। तुम ऐसा कहो ही क्यों कि मैं जीऊंगा नहीं? यह तो फिर मैं की ही घोषणा हुई। यह तो तुम शिकायत करने लगे। यह तो अहंकार ने फिर नई उदघोषणा की।

और ध्यान रखना, अहंकार बहुत चालाक है, बहुत सूक्ष्म है। नये-नये रास्ते खोज लेता है अपनी घोषणा के। एक रास्ता तुम बंद करते हो, वह दूसरा रास्ता खोज लेता है। अब उसने एक नया लक्ष्य बनाया कि परमात्मा को पाकर रहूंगा मैं। मैं जैसा विशिष्ट आदमी, जिसको ध्यान की झलकें भी मिली हैं, परमात्मा को नहीं पाएगा तो कौन पाएगा? और मजा यह है कि यह बात अच्छी भी लगेगी। और तुम इसे किसी से कहोगे तो वह भी कहेगा कि बड़ी धार्मिक बात पैदा हुई है।

लेकिन मैं तुम्हें सावधान करूं, मैं का कोई दावा धार्मिक नहीं होता। फिर वह ध्यान का ही दावा क्यों न हो, समाधि का ही दावा क्यों न हो! इसलिए तो उपनिषद कहते हैं कि जो कहे, मैंने जान लिया है, उससे सावधान रहना; उसने अभी जाना न होगा। जो कहे, मैं नहीं जानता हूं, उसके पास बैठना। शायद उसे पता हो। क्यों? क्योंकि जहां दावा है वहां अहंकार पीछे खड़ा मजा ले रहा है। मैं तुमसे कहूंगाः

लोग जिस हाल में मरने की दुआ करते हैं

मैंने उस हाल में जीने की कसम खाई है

तुम कहो कि परमात्मा जैसे रखेगा, जिस हाल में रखेगा, वैसे ही रहूंगा। मैं कौन हूं जो निर्णय करे? मैं कौन हूं जो कहे, ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए। जब मेरी पात्रता होगी, वह उतरेगा। और जब तक मेरी पात्रता नहीं है तब तक मेरे चीखने-चिल्लाने से कुछ भी न होगा। इतनी बात सदा खयाल रखो, इसी का नाम श्रद्धा है–कि जब मैं पात्र होऊंगा, तो क्षण भर भी चूक नहीं होगी।

श्रद्धा का और क्या अर्थ है? श्रद्धा का इतना ही अर्थ है कि जीवन सदा ही न्याय संगत है। जो जिस चीज को पाने के योग्य होता है वह उसे मिलती ही है। नहीं मिलती तो उसका एक ही अर्थ होता है कि अभी मेरी पात्रता नहीं। पात्रता होते ही मिलती है, तत्क्षण मिलती है।

श्रद्धा का यही अर्थ है कि मुझे जीवन पर भरोसा है। कि जब मौसम आ जाएगा तो बीज टूटेगा, अंकुरित होगा। जब वसंत आएगा तो फूल खिलेंगे, हवाएं सुवासित होंगी। जब रात बीत जाएगी तो सूरज निकलेगा। जो जब होना है तब होगा। और तभी होना चाहिए। हर चीज पकने में समय लेती है। और कोई चीज कच्ची घट जाए तो महंगी पड़ती है।

जैसे कोई पांच वर्ष का बच्चा यौन-दृष्टि से जवान हो जाए तो अड़चन में पड़ जाएगा। जैसे कोई नब्बे साल का बूढ़ा कामवासना की दृष्टि से जवान रह जाए तो अड़चन में पड़ जाएगा। सब चीजें अपने समय पर। सब चीजें अपने मौसम में, अपनी ऋतु में।

ऋतु का यह भरोसा ही धर्म का भरोसा है। जगत एक अपूर्व नियम से चल रहा है। वहां अन्याय नहीं है। तुमने कहावत सुनी न! कहते हैं देर हो, अंधेर नहीं है। देर भी नहीं है। हमें देर लगती है क्योंकि हमें बड़ी जल्दी पड़ी है। देर भी नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे आम के गुही को जमीन में गड़ा आते हैं। सांझ गड़ा देते हैं, सुबह उखाड़ कर देखते हैं कि अभी तक आम नहीं हुआ? अब तक वृक्ष पैदा नहीं हुआ? अब तक फल नहीं लगे? कहीं पत्ते भी नहीं दिखाई पड़ते, हो क्या रहा है? जमीन में गड़ी गुही को फिर निकाल कर देख लेते हैं, अभी तक कुछ नहीं हुआ; फिर गड़ा देते हैं। ऐसा अगर रोज-रोज उखाड़ कर देखा तो वृक्ष कभी पैदा नहीं होगा। वृक्ष को पैदा होने का मौका ही नहीं मिलेगा।

जरूरत है, भरोसा करो। बीज को जमीन में डाल दिया है, अब प्रतीक्षा करो। ठीक समय पर, ठीक मुहूर्त में अचानक एक दिन जमीन को तोड़ कर अंकुर आ जाएगा। तुम पानी दो, प्रतीक्षा करो। ऐसे आग्रह मत करो कि मैं अब जीना भी नहीं चाहता हूं।

कहते होः ‘मेरा प्रभु से मिलन करवा दें या जीवन से छुटकारा।’

मैं से छुटकारा करवाता हूं मैं। जीवन से तो छुटकारा कभी होता ही नहीं। यहां रहोगे, कहीं और रहोगे, रहोगे जरूर। मृत्यु तो एक झूठी बात है, एक भ्रम है। मृत्यु न कभी घटी है और न कभी घटती है। मृत्यु घट ही नहीं सकती है। यह सारा अस्तित्व अमृत से भरा है। अमृतरस-घट है यह अस्तित्व। रसो वै सः। वही बह रहा है। इसमें मृत्यु कहां?

जिसको तुम मृत्यु कहते हो वह बहुत से बहुत रूप का परिवर्तन है, देह का बदल लेना है। जैसे कोई आदमी घर बदल लेता है। एक पड़ोस से घर बदल लिया, दूसरे पड़ोस में चले गए। इस पड़ोस के लोग सोचते हैं, शायद सज्जन मर गए। वे कहीं मरते-धरते नहीं, वे किसी दूसरी जगह रहने लगे। यात्रा चलती जाती है, देहें बदलती हैं, वस्त्र बदलते हैं।

इसलिए कृष्ण ने कहा है, जैसे जीर्ण वस्त्र बदल जाते हैं, बस ऐसे ही अर्जुन, मृत्यु नहीं है, जीर्ण वस्त्रों का गिर जाना है। और फिर नये वस्त्रों की शुरुआत है। इधर मरे नहीं कि उधर जन्मे नहीं। तुम जब तक मरघट ले जाते हो किसी को, तब तक तो वह पैदा भी हो चुका। तुम्हें जितनी देर मरघट पहुंचने में लगती है…और हो सकता है वहां क्यूं लगी हो, बड़ी बस्तियों में क्यूं लगी होती है। तुम्हें जब तक मुर्दे को जलाने का मौका आए, तब तक जिन सज्जन को तुम विदा करने गए हो, वह पुनः जीवित हो उठे। उन्होंने कोई गर्भ धारण कर लिया। उन्होंने फिर श्वासें लेनी शुरू कर दीं। उन्होंने नये घर में वास कर लिया है। वे किसी और पड़ोस में बस गए, किसी और रंग में, किसी और ढंग में।

जीवन का कोई अंत नहीं है। यही थोड़े ही जीवन है, जो तुम आज जी रहे हो! कल जो तुम जीते थे वह भी जीवन था। जन्म के पहले तुम जीते थे वह भी जीवन था। मृत्यु के बाद तुम जीओगे वह भी जीवन होगा। और ध्यान रखना, जो मुक्त हो गए हैं, जिनको हम जीवन मुक्त कहते हैं, वे भी वस्तुतः जीवन से मुक्त नहीं हो गए हैं, इस तथाकथित जीवन से मुक्त हो गए हैं। बुद्ध अब भी हैं, महावीर अब भी हैं। अब रूप में नहीं हैं, अब रंग में नहीं हैं, अब आकार में नहीं हैं, अब निराकार में हैं। अब विश्वसत्ता के साथ एक हो गए हैं। अब उन्होंने अपना भेद छोड़ दिया है। मिट्टी का घड़ा गल गया है और जल जल से मिल गया है।

जीवन से छुटकारा नहीं है।

तुम जीवन हो; छुटकारा कैसे होगा? सिर्फ एक छुटकारा हो सकता है–खयाल रखना, इसे बहुत खयाल में ले लेना, सिर्फ उसी से छुटकारा हो सकता है जो तुम वस्तुतः नहीं हो। झूठ से छुटकारा हो सकता है; सत्य से कोई छुटकारा नहीं हो सकता। इसीलिए तो उसे सत्य कहते हैं जिससे छुटकारा न हो सके, जो शाश्वत हो। उसे झूठ कहते हैं, जो क्षणभंगुर हो। अभी है, अभी नहीं हो जाए। जिससे छुटकारा हो सकता हो, वही झूठ है।

इस जगत में दो झूठ हैं, और दोनों जुड़े हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उन्हें तुम समझ लो। इस जगत के दो झूठ हैं बड़े। एक झूठ है अहंकार–कि मैं हूं; और दूसरा झूठ है मृत्यु। और दोनों संयुक्त हैं। इस मैं के कारण ही मृत्यु का भाव पैदा होता है। यह मैं झूठ है इसलिए एक दिन इसे मरना पड़ता है। इसलिए मैं घबड़ाया रहता है कि मर न जाऊं। मैं सदा कंपा रहता है कि मृत्यु आती है। आती ही होगी। मैं को कभी भरोसा नहीं आता कि मैं जीवित हूं। मैं इतना बड़ा झूठ है!

मैं का अर्थ होता है, मैं इस विराट अस्तित्व से अलग-थलग हूं। एक क्षण को भी अलग-थलग नहीं हो। श्वास ले रहे हो और देखते नहीं कि अस्तित्व तुम्हारे भीतर जाता है, बाहर जाता है। एक क्षण को अलग नहीं हो। और एक क्षण को अलग होकर देखो और तुम पाओगे कितनी चिंता पैदा हो जाती है।

एक युवक मेरे पास आया, उसने पूछा कि मुझे बड़ी चिंता रहती है। मैं क्या करूं? मैंने उससे कहा कि पहले तू यह सोच, कि तू क्या करता है जिसके कारण चिंता रहती है। कुछ कर रहा होगा। क्योंकि वृक्षों को कोई चिंता नहीं है, पौधों को कोई चिंता नहीं है, पक्षियों को कोई चिंता नहीं है, तुझे चिंता है? तू एक छोटा सा काम कर। मैंने उससे कहा कि तू श्वास को, भीतर है उसको भीतर ही रोक ले। उसने कहा, फिर क्या होगा? मैंने कहा, फिर तू आंख बंद करके भीतर देख कि क्या होता है।

मिनट भी बीतना मुश्किल हो गया। उसने एकदम आंख खोल दी–उसने कहा कि बहुत घबड़ाहट होती है। श्वास को रोकोगे तो घबड़ाहट तो होगी ही। तो मैंने कहा, अब तू श्वास को बाहर रोक दे। भीतर देख लिया, घबड़ाहट होती है, अब बाहर रोक दे। उसने कहा, उससे क्या होगा? मैंने कहा, तू भीतर आंख बंद करके देख। उसने सांस को बाहर रोक दिया, मिनट भी मुश्किल हो गया, पसीना-पसीना हो गया। आंख खोल दी, कहा कि आप मुझे मार डालेंगे। बड़ी घबड़ाहट पैदा होती है।

तो मैंने कहा तूने देखा, चिंता पैदा करने का उपाय क्या है? अस्तित्व से अपने को तोड़ लो और चिंता पैदा हो जाती है। तूने सांस भीतर रख ली, टूट गया; बाहर रख दी, टूट गया। दोनों के बीच का सेतु टूट गया। चिंता पैदा हो गई। अब तू अपनी चिंताओं को गौर से देख। जहां-जहां तूने अस्तित्व से अपने को तोड़ लिया होगा, वहीं-वहीं चिंता पैदा होती है। इसलिए तो हम धार्मिक व्यक्ति को निश्चिंत पाते हैं। अगर न पाओ निश्चिंत तो वह धार्मिक नहीं है। कहा न मलूकदास ने!

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम

दास मलूका कह गए सबके दाता राम

अब मलूक को चिंता नहीं हो सकती। क्या चिंता? सबके दाता राम! डोरा उसके हाथ! अब क्या चिंता है? सब भांति अपने को जोड़ दिया। जिलाए तो जीएंगे, मारे तो मरेंगे। चलाए तो चलेंगे, बिठाए तो बैठेंगे। उठाए तो उठेंगे। अपने को बीच से हटा ही लिया।

अब तुम इसे एक और तरह से भी देखो। हर बच्चे के जीवन में एक वक्त आता है। कोई तीन-चार साल, पांच साल की उम्र में, जब बच्चा अचानक आज्ञा का खंडन करना शुरू करता है। और हर बात में नहीं कहने लगता है। तुमने खयाल किया? हर बच्चे की जिंदगी में वह घड़ी आती है। जब वह हां कहना कम कर देता है और ना कहना ज्यादा कर देता है। ना कहने में रस लेने लगता है। तुम कहो यह काम मत करना तो वह जरूर करेगा। तुम कहो कि उधर मत जाना तो वह जरूर जाएगा। यही तो ईसाइयों की मूल कथा है आदमी के पतन की। कि ईश्वर ने कहा था, ज्ञान के वृक्ष के फल को मत खाना अदम, और अदम ने खाया। यह घटना हर एक के जीवन में घटती है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह बच्चे के अहंकार की शुरुआत है। जिस दिन बच्चा कहता है नहीं, उस दिन बच्चे का अहंकार जन्मा। यह थोड़ा सोचने जैसा मामला है।

अहंकार नहीं के साथ जन्मता है। अहंकार का स्वर नकार का है। इसलिए जितना अहंकारी आदमी हो, उतना नास्तिक होता है। वह आखिरी नकार है–कि ईश्वर नहीं है; उससे बड़ा कोई नकार नहीं है। इसलिए जो सदी बहुत अहंकारी होती है वह उतनी ही नास्तिक हो जाती है।

अगर अहंकार नहीं के साथ पैदा होता है तो फिर अहंकार के विसर्जन का क्या उपाय है? हां का जन्म–वही आस्तिकता है। आस्तिक का अर्थ यह है, वह कहता है, हां। जैसी मर्जी! प्रभु जैसा रखें, रहेंगे। हर हाल में हां कहेंगे। नहीं निकलेगा ही नहीं। यह जो हां का जन्म है, यही आस्तिकता है। इसका परम रूप है कि ईश्वर है। ईश्वर ही है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। मैं नहीं हूं, ईश्वर है, यह आस्तिकता; मैं हूं, ईश्वर नहीं है, यह नास्तिकता।

नास्तिक अति चिंतित हो जाता है। इसलिए जो देश जितना नास्तिक होता है उतने ही मानसिक रोगों से ग्रस्त होता है। जो देश जितना आस्तिक होता है, उतने ही मानसिक रोगों से मुक्त होता है। और कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि जिनको बहुत मानसिक रोग होने चाहिए–भूखे हैं, गरीब हैं, दीन हैं, बीमार हैं, वे मानसिक रूप से बीमार नहीं दिखाई पड़ते। मानसिक रूप से स्वस्थ मालूम होते हैं। और जिनके पास धन है, पद है, प्रतिष्ठा है, सब साधन हैं, सुविधाएं हैं, वे एकदम मानसिक रूप से रुग्ण मालूम पड़ते हैं। मामला क्या है? असल में धन, पद, प्रतिष्ठा पाने वाला आदमी अहंकारी होता है। अहंकारी होता है तभी तो धन, पद प्रतिष्ठा की दौड़ में दौड़ता है। फिर अहंकार की छायाएं हैं मानसिक रोग।

अगर पश्चिम मानसिक रोगों से बहुत ग्रस्त है तो अकारण नहीं। पश्चिम ने ना कह दिया है परमात्मा को। नीत्शे का वचन हैः गाॅड इ.ज डेड एण्ड मैन इ.ज फ्री। आदमी ने घोषणा कर दी कि ईश्वर मर चुका है, और मनुष्य स्वतंत्र है। अब मनुष्य की स्वतंत्रता उसे पागल बनाए दे रही है, विक्षिप्त किए दे रही है। इस देश के मनीषियों की क्या घोषणा है? उनकी घोषणा ठीक उलटी हैः वे कहते हैं, मैं मर गया, तू है। नीत्शे कहता है, मैं हूं, तू मर गया।

मैं को इस विराट के समक्ष खड़ा करना चिंता लेना है। जीवन तो तुम्हारा उसके साथ है, उसमें है। उसकी ही सांस तुममें आती-जाती है। वही तुममें प्राणों को डालता है। वही फूंकता है। तुम उसकी ही भावभंगिमा हो। उसका ही एक ढंग हो।

इसलिए यह तो पूछो ही मत कि जीवन से छुटकारा हो जाए; मैं से छुटकारा हो जाए यह पूछो। तुम उलटी बात पूछ रहे हो। तुम मैं को तो बचाना चाहते हो और जीवन से छुटकारा चाहते हो। जीवन को बचाओ, जीवन बचेगा। जीवन ही बचता है। मैं को जाने दो, पिघलो! याद करो उसकी। पुकारो उसे। प्रार्थना करो उसकी।

यह बता दे कि तुझे दिल से भुलाऊं कैसे

तेरी यादों के चिरागों को बुझाऊं कैसे

आना तेरा मुहाल है, यह तो मुझे खयाल है

दर पे जमी हुई है यह अपनी नजर को क्या करूं

आना तेरा मुहाल है, यह तो मुझे खयाल है

दर पे जीम हुई है यह अपनी नजर को क्या करूं

परमात्मा की प्रार्थना में डूबो। प्रतीक्षा करो, द्वार पर नजर को अटकाओ। जानते हुए, कि आना तेरा मुहाल है, यह तो मुझे खयाल है। आना तेरा मुश्किल है। मेरी पात्रता कहां?

दर पे जमी हुई है यह अपनी नजर को क्या करूं

लेकिन फिर भी नजर तो लगाए हूं। नजर लगाए रखूंगा। कभी तो पात्रता होगी, कभी तो कृपा होगी, कभी करुणा होगी, कभी मेरे भाग्य भी खुलेंगे। और आस्था रखो। अब तक नहीं आया है तो भी आस्था रखो, आएगा।

मैं उसके वादे का अब भी यकीन करता हूं

हजार बार जिसे आजमा लिया मैंने

और तुमने बहुत बार पुकारा है और नहीं आना हुआ। लेकिन यही आस्था धीरे-धीरे तुम्हारी रग-रग में समा जाएगी। जब तुम्हारे भीतर जरा भी अनास्था का कोई कण न बचेगा उसी क्षण क्रांति घटती है; उसी क्षण वह उतर आता है। अभी याद करो, फिर जल्दी ही याद इतनी सघन हो जाएगी कि भुलाए भी न भूलेगी।

भूलने की जो मैंने कोशिश की

सांस बन-बन के उनका नाम आया।

फिर तो भूल भी न सकोगे। अभी याद करना कठिन, फिर भूलना कठिन हो जाएगा। ये दो कदम हैं प्रार्थना केः पहले याद करना कठिन, फिर भूलना कठिन। फिर उठो-बैठो, चलो-फिरो, मगर याद बनी ही रहती है। जस पनिहार धरे सिर गागर।

देखा न! पनिहारिन सिर पर गागर रख कर चलती है, हाथ का सहारा भी नहीं देती। सहेलियों से बात भी करती है, राह में कोई मिल जाता है, हंसी-ठिठोली भी कर लेती है, गपशप भी कर लेती है। और सिर पर गागर सम्हली है। और भीतर बोध है गागर का। यह सब चलता है–बातचीत चलती है, गाना-गीत चलता है, सखियों से गुफ्तगू चलती है, हंसी-ठिठोली चलती है, यह सब चलता है। जस पनिहार धरे सिर गागर। लेकिन भीतर मन, सुरति गागर में लगी रहती है। गागर को सम्हाले रखती है। गागर गिर नहीं जाती।

ऐसे ही धीरे-धीरे तुम्हारी प्रार्थना चैबीस घंटे सम्हली रहेगी। बाजार में बैठोगे, दुकान पर बैठोगे, काम करोगे, धंधा करोगे, घर सम्हालोगे–जस पनिहार धरे सिर गागर।

मगर इस तरह की वासना को जन्म ना दो। हालांकि तुम्हारी बात मैं समझता हूं। तुम्हारी पीड़ा समझता हूं, तुम्हारी प्यास समझता हूं। जानता हूं कि जब झलकें मिलनी शुरू होती हैं तो मन में भाव उठता है कि अब पूरा हो जाए। अब पूरा ही हो जाए। अधूरा-अधूरा क्या! यह बूंद-बूंद आती है तो और तरसाती है। इससे तो प्यासे ही भले थे, जब स्वाद नहीं लगा था। अब यह रस की जो बूंद-बूंद आनी शुरू हुई है, इससे और कठिनाई खड़ी होती है। अब लगता है कि रस है। आशा बंधती है। और पूरे सागर को पाने की आकांक्षा जन्मती है। लेकिन उस आकांक्षा को अगर तुमने वासना बना लिया तो वही वासना ध्यान का खंडन हो जाएगी। वे जो झलकें आनी शुरू हुई थीं वे भी खो जाएंगी। जल्दी ही तुम भूल जाओगे कि वे झलकें आईं थीं। सावधानी बरतो।

ध्यान को किसी भी स्थिति में वासना मत बनाना। ध्यान चाहा नहीं जा सकता। जब कोई चाह नहीं होती तब घटता है। परमात्मा मांगा नहीं जा सकता। जब कोई मांग नहीं होती तब उतरता है।

 

तीसरा प्रश्नः आपने कहा है कि ध्यान अंतर्यात्रा है। क्या भक्ति भी अंतर्यात्रा है? ध्यान की अंतर्यात्रा और भक्ति की अंतर्यात्रा में क्या आधारभूत भिन्नता है, समझाने की अनुकंपा करें।

॰ ध्यान भी अंतर्यात्रा है, प्रार्थना भी। लेकिन दोनों के यात्रा पथ भिन्न हैं।

प्रार्थना, प्रेम या भक्ति, पर से होकर आती है। ध्यान सीधा-सीधा स्वयं में जाता है। जो व्यक्ति अपनी आंख बंद कर लेता है और अपने भीतर डुबकी मार लेता है, जिसको परमात्मा को भी बीच में लेने की जरूरत नहीं पड़ती, जो प्रेम-पात्र को बीच में नहीं लेता डुबकी लगाने के लिए, वह ध्यान कर रहा है। जो प्रेम-पात्र को बीच में लेता है–परमात्मा को, उस परम प्रेमी को, उस परम प्यारे को, और उसके द्वारा डुबकी लगाता है, वह भक्ति कर रहा है। डुबकी तो भीतर ही लगती है, लेकिन एक में सहारा है और एक में सहारा नहीं है। एक में आलंबन है, एक में आलंबन नहीं है। भक्ति आलंबन सहित ध्यान है और ध्यान निरालंब भक्ति है।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं, क्योंकि दुनिया में स्त्रियां हैं और पुरुष हैं। स्त्री से मेरा अर्थ हैः जिसका हृदय प्रधान है। हृदय सीधी डुबकी नहीं मार सकता। उसे आलंबन की जरूरत है। हृदय को ऐसे ही आलंबन चाहिए, जैसे तुम्हें अपना चेहरा देखना हो तो दर्पण चाहिए। हृदय प्रेम के संबंध को दर्पण बनाता है और अपने को देखता है। हृदय सीधा नहीं जा सकता। वह मार्ग वर्तुलाकार है। वह दूसरे से होकर जाता है। इसलिए रसपूर्ण भी है।

अकेला व्यक्ति नीरस होता है, इसलिए ध्यानी को तुम नीरस पाओगे। ध्यानी को तुम सूखा-सूखा पाओगे। ध्यानी में तुम्हें फूल खिलते नहीं मालूम पड़ेंगे। और न ध्यानी में नाच उठता दिखाई पड़ेगा। इसलिए बुद्ध नहीं नाचते, मीरा नाचती है। इसलिए महावीर नहीं नाचते, चैतन्य नाचते हैं। क्योंकि महावीर ध्यानी हैं, बुद्ध ध्यानी हैं। उन्होंने दूसरे का आलंबन नहीं लिया। बिना दूसरे के आलंबन के रसधार नहीं बहती। ज्ञान की घटना घट जाती है–रूखी-रूखी, सूखी-सूखी, मरुस्थल जैसी।

मरुस्थल का भी अपना सौंदर्य है। जिसको पसंद है उसको पसंद है। तुम कभी मरुस्थल गए? विशाल मरुस्थल, दूर-दूर तक एक रेत ही रेत! सन्नाटा ही सन्नाटा! मरुस्थल में रात का सन्नाटा, अपूर्व सुंदर है। मरुस्थल में आकाश के तारे अपूर्व सुंदर हैं। पर मरुस्थल में न तो फूल लगते, न वृक्ष हरे लगते, न जलधार बहती है।

तुम जान कर यह चकित होओगे कि बहुत से ईसाई फकीरों ने मरुस्थल चुना था ध्यान के लिए। ध्यान के लिए मरुस्थल ही ठीक है। ध्यान और मरुस्थल का मेल है। सूखे पहाड़ ध्यानियों के लिए योग्य मालूम पड़े। तुमने खयाल किया, भारत में जैनों के जितने तीर्थ हैं, वे सब पहाड़ों पर। हिंदुओं के जितने तीर्थ हैं, सब नदियों के किनारे। वह भक्ति और ध्यान का भेद है।

ध्यान पत्थर जैसा है। यह आकस्मिक नहीं है कि जैनों और बौद्धों ने ही सबसे पहले पत्थर की मूर्तियां बनाईं। यह आकस्मिक नहीं है। पत्थर में कुछ गुण हैं, जो ध्यान से मेल खाता है। बुद्ध वस्तुतः जैसे बैठे थे उसमें और बुद्ध की संगमरमर की मूर्ति में ज्यादा फर्क नहीं है। लेकिन मीरा की मूर्ति कैसे बनाओगे? नाच की मूर्ति बनाना मुश्किल है। मीरा की मूर्ति बनानी हो तो किसी फव्वारे में बनानी पड़े, पत्थर में नहीं बन सकती। जलधार में बन सकती है शायद। मीरा की मूर्ति में नृत्य तो होना ही चाहिए। अब पत्थर कैसे नाचेगा? नाचता हुआ भी खड़ा कर दो पत्थर को, तो भी पत्थर नाचता नहीं, पत्थर जड़ है।

बुद्ध के साथ तालमेल है पत्थर का! बुद्ध की इतनी मूर्तियां बनीं कि उर्दू में जो शब्द है बुत, वह बुद्ध का ही रूप है। इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध का मतलब ही मूर्ति हो गया। सारी दुनिया में बुद्ध की सर्वाधिक मूर्तियां हैं। कारीगरों को आसानी पड़ी। बुद्ध की मूर्ति बनाना सबसे सुगम बात थी। क्योंकि बुद्ध का अंतस्तल और मूर्ति में तालमेल था।

मीरा की मूर्ति बनाना मुश्किल। शायद अब बना सकते हैं हम। किसी फव्वारे में, या बिजली की कौंध में मूर्ति बन सकती है मीरा की, लेकिन पत्थर में नहीं। पत्थर का तो तालमेल नहीं होगा। पत्थर नाचेगा कैसे? हां, कोई वीणा बजती हो तो स्वर-ताल में शायद मीरा की मौजूदगी अनुभव हो जाए। कोई घूंघर बांध कर नाचता हो तो शायद घूंघर की आवाज में मीरा की मौजूदगी अनुभव हो जाए।

यह प्रेम का मार्ग है। इसमें दूसरा जरूरी है। दो के मिलन से वैविध्य पैदा होता है, रस धार बहती है। पुरुष अकेला बच्चे को जन्म नहीं दे सकता है। स्त्री अकेली बच्चे को जन्म नहीं दे सकती है। बच्चे को जन्म देने के लिए इन दोनों विपरीत का मिलना जरूरी है। हां, पुरुष चाहे तो चित्र बना सकता है, पेंटिंग कर सकता है अकेला, स्त्री चाहे तो मूर्ति बना सकती है अकेली, लेकिन बच्चे को जन्म नहीं दे सकती।

भक्ति के लिए दो का होना जरूरी है। भक्ति दो के बीच घटी एकता है। और ज्ञान एक का अनुभव है। दोनों में अंततः एक बचता है इसलिए दोनों अंततः एक ही जगह ले जाते हैं। मगर ज्ञान शुरू से ही एक को मान कर चलता है। ज्ञान अद्वैतवादी है। भक्ति मौलिक रूप से द्वैत को स्वीकार करती है। भक्ति का हृदय बड़ा है। भक्ति कहती है दो को चलो, मानेंगे; फिर मिला लेंगे। भक्ति को भरोसा है मिलन का। दो के बीच सेतु बन सकता है, इस आस्था का नाम भक्ति है।

इसलिए जैनों में भगवान की कोई जगह नहीं है, परमात्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। बुद्ध को भी परमात्मा में कुछ लेना-देना नहीं है। पतंजलि ने भी परमात्मा को स्वीकार किया है तो न के बराबर। इतना ही कहा है कि यह भी एक उपाय है। परमात्मा कोई अस्तित्व नहीं है, ध्यान और समाधि को पाने का एक उपाय है। बहुत उपायों से समाधि पाई जा सकती है, परमात्मा का मानना भी उन उपायों में एक उपाय है; एक आलंबन, डिवाइस। उसका कोई सत्य नहीं है परमात्मा का।

ऐसे ही एक उपाय है जैसे बच्चे को हम सिखाते हैं, ग गणेश का। इसमें कोई सत्य नहीं है; ‘ग’ गधे का भी है। यह तो सिर्फ उपाय है। बच्चे की किताब होती है तो आ आम का; और आम, बड़ा आम–किताब में रखना पड़ता है। क्योंकि बच्चा अभी आम शब्द को नहीं समझ सकता। लेकिन आम चित्र को समझ सकता है। फिर जब समझ जाएगा तो चित्र किताबों से हट जाएंगे। जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बड़ी होगी वैसे-वैसे किताबों में चित्र छोटे होते जाएंगे। फिर रंगीन नहीं रह जाएंगे। फिर छोटे होते-होते समाप्त हो जाएंगे। विश्वविद्यालय पहुंचते-पहुंचते किताब में चित्र नहीं रह जाएंगे। लेकिन पहले दिन चित्र ही चित्र थे। शब्द तो बहुत थोड़े थे। उपाय था।

पतंजलि कहते हैं, ईश्वर भी एक अवधारणा है, एक उपाय है। इसके माध्यम से भी समाधि पाई जा सकती है। लेकिन इसकी कोई अनिवार्यता नहीं है। इसके बिना भी पाई जा सकती है। समस्त ज्ञानी निरीश्वरवादी हुए हैं। सांख्य निरीश्वरवादी हैं, जैन निरीश्वरवादी हैं, बौद्ध निरीश्वरवादी हैं। क्यों? क्या ईश्वर नहीं है? नहीं, उनके ईश्वर को जानने का ढंग और है। उनके लिए परमात्मा आत्मा की तरह जाना जाता है। वह दूसरे की तरह नहीं, बाहर नहीं, वहां नहीं, यहां। बाहर तो वे कहते हैं, नेति-नेति। यह भी नहीं, यह भी नहीं। बाहर तो वे इनकार करते चले जाते हैं। जब सब इनकार हो जाता है और सिर्फ भीतर की शुद्ध चेतन अवस्था रह जाती है, उसको वे कहते हैं, यही भगवत्ता है।

इसलिए मजे की बात है, जैन भगवान को नहीं मानते लेकिन महावीर को भगवान कहते हैं। बुद्ध भगवान को नहीं मानते लेकिन बुद्ध को भगवान कहते हैं। आस्तिकों को बड़ी चिंता होती है कि मामला क्या है? जब भगवान है ही नहीं तो फिर बुद्ध भगवान कैसे? बुद्ध फिर भी भगवान हैं। यह भगवान को पाने का ध्यानी का ढंग है। अपने भीतर पाया जाता है। उसकी घोषणा है, अहं ब्रह्मास्मि। मैं ही ब्रह्म हूं। भक्त कहता है, तू ही है, मैं नहीं हूं। ज्ञानी कहता है, मैं ही हूं, तू नहीं है। ये दो रास्ते हैं। मगर दोनों का अंतिम अर्थ तो अंतर्यात्रा ही है।

भक्त भगवान के सहारे अपने तक पहुंचता है। आता अपने तक ही है। ज्ञानी भी अपने तक आता है। लेकिन बीच में कोई सहारा नहीं लेता। बेसहारा आता है। तुम्हारी मर्जी। जैसी तुम्हारी इच्छा हो।

अगर तुम्हारे भीतर पुरुष-चित्त हो तो सहारे की जरूरत नहीं है। लेकिन स्त्री-चित्त बिना सहारे के नहीं चल सकता। कुछ भूल भी नहीं है, कुछ गलती भी नहीं है। वृक्ष बिना सहारे खड़ा हो जाता है, बेला को सहारे की जरूरत होती है। वह वृक्ष का सहारा लेती है।

और ध्यान रखना, सभी पुरुषों के पास पुरुष-चित्त नहीं होता। और सभी स्त्रियों के पास स्त्री-चित्त नहीं होता। इसलिए विभाजन सिर्फ जैविक नहीं है, बायोलाजिकल नहीं है। कि हमने देख लिया कि यह स्त्री है तो यह भक्ति के मार्ग से जाएगी और यह पुरुष है तो ज्ञान के मार्ग से जाएगा। इतना सुगम नहीं है मामला। क्योंकि चैतन्य भक्ति के मार्ग से गए और कश्मीर में हुई एक परम ध्यानी–लल्ला, वह ध्यान के मार्ग से गई। लल्ला अकेली स्त्री है दुनिया में जो नग्न होकर रही। महावीर जैसे नग्न रहने वाले तो बहुत पुरुष हुए। लेकिन लल्ला अकेली स्त्री है फकीरों में, जो नग्न होकर रही।

साधारणतः स्त्री अपने को छिपाती है। वह स्त्री का गुण है। वह उसका माधुर्य है, लज्जा है, मर्यादा है। वह अपने को अवगुंठन में छिपाती है। घूंघट आकस्मिक नहीं है, स्त्री का स्वभाव है।

स्त्री से घूंघट छीन लो तो कुछ उसका स्वाभाविक गुण नष्ट हो जाता है। इसलिए पश्चिम की स्त्रियां उतनी स्त्रैण नहीं मालूम होतीं जितनी पूरब की स्त्रियां स्त्रैण मालूम होती हैं। पूरब की स्त्री में जो एक प्रसाद है, एक लावण्य है, वह पश्चिम की स्त्री में नहीं होता। पश्चिम की स्त्री पुरुष के बहुत करीब आ गई। उसने पुरुष के रंग-ढंग सीख लिए। वह पुरुष के ढंग से उठती है, बैठती है, चलती है। उसकी देह भी धीरे-धीरे, धीरे-धीरे पुरुष जैसी होती जा रही है। उसके कपड़े भी पुरुष जैसे होते जा रहे हैं। उसका व्यवहार, उसकी भाषा भी पुरुष जैसी हो रही है, होती जा रही है। भेद टूट रहा है।

और भेद टूटने का परिणाम बुरा हो रहा है। जितनी ही स्त्री पुरुष जैसी होती जा रही है उतना ही पुरुष का रस उसमें कम होता जा रहा है। क्योंकि रस विपरीत में होता है। स्त्री का स्वाभाविक भाव है, छिपा ले अपने को। वह इस दुनिया में चल रहे खेल का अंग है। वह छिपा ले तो पुरुष खोजे। पुरुष खोजी है। वह छिपे, तो पुरुष खोजे। यह छिया-छी है।

स्त्री बिना प्रेम-पात्र के सोच ही नहीं सकती कि कोई जीवन में क्रांति घट सकती है। उसका सारा भाव प्रेमी से जुड़ा होता है। अगर परमात्मा भी उसके जीवन में आएगा तो प्रेमी की तरह आएगा। वह परमात्मा के आस-पास नाचेगी, वह परमात्मा की सेवा करेगी, उसके चरण धोएगी, उसके लिए भोजन बनाएगी, उसके लिए भोग लगाएगी। वह परमात्मा के लिए खटोला बनाएगी। उसे सुलाएगी, जगाएगी, उठाएगी। और इसी में डूबेगी। और इसी में डूबते-डूबते अपने भीतर उतर जाएगी। लेकिन इसी बहाने उतरेगी। इस सीढ़ी से उसे गुजरना ही होगा।

ध्यान भी अंतर्यात्रा है, सीधी-सीधी। भक्ति भी अंतर्यात्रा है, सीधी-सीधी नहीं, परोक्ष। भक्ति का अपना सौंदर्य है, ध्यान का अपना सौंदर्य है। जो जिसको रुचे।

 

चैथा प्रश्नः आपने कहा कि किसी और बुद्धपुरुष के पास जाना गुरु में श्रद्धा का अभाव है। यह बात समझ में तो आती है, परंतु भगवान, हम तो साधारण जन ही हैं, अभी तो साधारण से स्त्री-पुरुष से, नाटक-फिल्म और संगीत से मिलने वाले सुख के पार भी नहीं हो पाए हैं। उसके लिए भी कामचोरी करते हैं।

॰ मैंने यह कहा नहीं कि बुद्धपुरुष के पास जाना, किसी और बुद्धपुरुष के पास जाना अपने गुरु में श्रद्धा का अभाव है। यह मैंने कहा नहीं। मैंने सिर्फ इतना ही कहा कि अभी तुम्हें गुरु मिला नहीं। अगर गुरु मिल गया तो फिर कहीं आना-जाना नहीं। फिर अभी गुरु की तलाश चल रही है। श्रद्धा का अभाव तो मैंने कहा ही नहीं। गुरु में श्रद्धा का अभाव तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि गुरु बनता ही श्रद्धा के भाव से है। नहीं तो वह संबंध ही नहीं है।

इसको समझने की कोशिश करना। किसी व्यक्ति के और तुम्हारे बीच गुरु-शिष्य का संबंध बनता कैसे है? वह तो श्रद्धा होती है तो ही बनता है। श्रद्धा न हो तो न वह गुरु है तुम्हारा, न तुम शिष्य हो उसके। इसलिए गुरु-शिष्य में श्रद्धा के अभाव का तो कोई अर्थ ही नहीं होता। संबंध ही न रहा। बात ही खतम हो गई।

यही मैंने तुमसे कहा कि अगर तुम्हें तुम्हारा गुरु मिल गया हो तो फिर सब आवागमन छूट जाएगा। फिर कहां जाना है? जाने में कहीं भीतर खोज चल रही है। कृष्णमूर्ति का कोई भक्त मेरे पास आ जाता है तो मैं उससे पूछता ही हूं निश्चित कि क्यों? क्या जरूरत यहां आने की? कृष्णमूर्ति मिले, सब नहीं मिला?

पिछले वर्ष कृष्णमूर्ति बोल रहे थे बंबई में। तो मेरे कुछ संन्यासी वहां होंगे। उन्होंने कहा भी इन गैरिक वस्त्रधारियों को देख कर, कि तुम्हें तो तुम्हारा गुरु मिल गया है, फिर यहां क्या कर रहे हो?

उसका सिर्फ एक ही अर्थ होता है कि तुमने कामचलाऊ नाता बना लिया होगा। तुम धोखे में हो। तुम सोचते हो कि तुम गुरु को पा लिए, लेकिन तुम्हें मिला नहीं। तुम अभी तलाश रहे हो। तुम चोरी-छिपे अभी भी देख रहे हो कि शायद इससे बेहतर कोई व्यक्ति मिल जाए। शायद कहीं कोई और भी जल्दी से परमात्मा से मिला देने वाला हो।

अभी श्रद्धा जन्मी ही नहीं है, अभाव का तो सवाल ही कहां है! अभी पैदा ही नहीं हुई है। और श्रद्धा, ध्यान रखना, कम ज्यादा नहीं होती। होती है या नहीं होती। श्रद्धा के खंड नहीं होते कि बीस परसेंट श्रद्धा है, कि तीस परसेंट है, कि पचास परसेंट है, कि साठ परसेंट है। श्रद्धा होती है तो सौ प्रतिशत या शून्य प्रतिशत। इसमें खंड नहीं होते। तुम यह नहीं कह सकते किसी से कि मुझे आप में थोड़ी-थोड़ी श्रद्धा है। थोड़ी-थोड़ी श्रद्धा का कोई अर्थ ही नहीं होता। या तो आदमी जिंदा होता है या मरा होता है; थोड़ा थोड़ा जिंदा नहीं होता–कि यह आदमी थोड़ा-थोड़ा जिंदा है। वह जो थोड़ा-थोड़ा जिंदा है वह भी पूरा जिंदा है। ऐसी जिंदगी बंटती नहीं।

जिसे गुरु मिल गया उसकी ये सब बेचैनियां मिट जाती हैं। अगर ये बेचैनियां जारी हों तो इतना ही समझना चाहिए कि गुरु नहीं मिला।

और मैंने तुमसे यह नहीं कहा है कि तुम जाओ मत। मैंने तुमसे सिर्फ इतना ही कहा है कि सजग हो जाओ कि तुम्हें गुरु नहीं मिला है। फिर खोजो। मगर खोज फिर सचेतन होनी चाहिए। फिर बेईमानी की नहीं होनी चाहिए, धोखेधड़ी की नहीं होनी चाहिए। ऐसा भी मानते रहो कि मुझे मेरा गुरु मिल गया, फिर भी थोड़ा यहां-वहां देख आते हैं, चले जाते हैं। सिर्फ मैंने तुम्हें स्थिति को स्पष्ट किया है।

मैंने तुमसे कुछ कहा नहीं है, ध्यान रखना, कोई मैंने आदेश नहीं दिया है। मैंने तुमसे कहा नहीं है कि तुम किसी और बुद्धपुरुष के पास मत जाओ। तुम्हें बुद्धुओं के पास जाना हो, वहां जाओ। मुझे क्या लेना-देना है? मगर जानते हुए जाओ। कहीं इस धोखे में मत रहना कि तुम्हें गुरु भी मिल गया है और यहां थोड़े बहुत मनोरंजन के लिए यहां-वहां चले जाते हैं। इस धोखे में मत रहना। तुम्हें गुरु नहीं मिला है। इतना साफ हो तो फिर ठीक से खोजो।

जिंदगी की सारी उलझन यही है कि हम कुछ का कुछ माने बैठे रहते हैं। तो जो करना चाहिए वह नहीं कर पाते। अगर गुरु नहीं मिला है तो खोजना ही चाहिए। फिर जाना ही चाहिए। फिर एक के पास क्या, जहां कहीं खबर मिले वहां जाना चाहिए। जब तक गुरु न मिल जाए तब तक तो खोज जारी रखनी ही पड़ेगी। लेकिन जब गुरु मिल जाए तो आ गया विश्राम का स्थल। फिर वहां पूरे समर्पित हो जाना चाहिए। जहां तुम्हें मिल जाए।

तुम भूल कर भी यह मत सोचना कि मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम यहां समर्पित हो जाओ। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि कहीं भी समर्पित हो जाओ, लेकिन जहां समर्पित हो जाओ फिर वहां समर्पित हो ही जाना। फिर बचाना मत; फिर अपने को थोड़ा-बहुत बचा कर मत रखना कि शायद फिर कभी कोई और बेहतर गुरु मिल जाए।

गुरु बेहतर और गैर बेहतर होते ही नहीं। यह तो प्रेम का आत्यंतिक संबंध है। यह तो अतुलनीय है। एक गुरु मिल गया कि तुम्हें सब गुरु उसी में मिल गए। उसी में तुम्हारा बुद्ध है, उसी में तुम्हारा महावीर है, उसी में तुम्हारे क्राइस्ट, उसी में तुम्हारे कृष्ण, उसी में तुम्हारा सब कुछ पूरा हो गया। और जब तक ऐसा व्यक्ति न मिल जाए जिसमें तुम्हारी सब आकांक्षाएं प्रकाश को देखने की पूरी हो गईं तब तक समझना, अभी गुरु नहीं मिला। जल्दी क्या है? खोजो।

और इंदिरा ने कहा है कि हम तो साधारण जन हैं। मजे से साधारण जन रहो। इससे ऊपर उठना है कभी या नहीं? अगर साधारण जन ही रहना है तो मुझे कोई अड़चन नहीं तुम्हारे साधारण जन रहने से। मुझे क्या अड़चन हो सकती है? तुम साधारण जन मजे से रहो। लेकिन आदमी गुरु की तलाश में निकलता इसीलिए है कि यह जो साधारण जीवन है, यह जो दो कौड़ी का जीवन है इससे पार उठ जाए। इससे पार होने के लिए तुम मेरे पास हो। और जब मैं तुमसे पार होने को कहूं तो तुम यह दलील नहीं दे सकते कि हम साधारण जन हैं, हम कैसे उठें पार? हम तो साधारण जन हैं; साधारण ही रहेंगे। तो फिर मेरे पास क्या कर रहे हो? फिर यहां प्रयोजन क्या है? फिर इतनी बड़ी दुनिया है, वहां सब साधारण जन रह रहे हैं, तुम भी वहीं रहो।

यहां कोई अनूठा प्रयोग हो रहा है जिसमें तुम्हें पार ले जाने की चेष्टा चल रही है। जिसमें तुम्हें नाव दी जा रही है कि उस किनारे चले जाओ। नाव को भी पकड़े हो, नाव में सवार भी हो, और जब नाव चलती है तो चिल्लाते हो; कहते हो, हम तो साधारण जन हैं, हम तो इसी किनारे रहेंगे। फिर नाव में किसलिए चढ़े हो?

जिंदगी को साफ-सुथरा करो। जिंदगी के गणित को व्यर्थ उलझाओ मत। वैसे ही बहुत उलझन है। मैं तुमसे कह नहीं रहा कि तुम सिनेमा मत जाओ, नाटक मत देखो, फिल्म में मत जाओ, मैं कुछ कह नहीं रहा। मैं तो तुमसे इतना ही कह रहा हूं कि जो भी तुम करो, सोच-विचार कर करो कि क्या कर रहे हो। वेश्यालय जाओ, शराबघर जाओ, बस समझ कर जाओ कि यह मैं कर रहा हूं। और यही मैंने अपने जीवन को माना है और इससे ऊपर मुझे जाना नहीं है। यहीं मुझे रह जाना है। तुम मालिक हो अपने।

मेरे पास अगर तुम हो तो इसीलिए हो कि तुम इसके ऊपर जाना चाहते हो। गिरोगे बहुत बार, मगर फिर भी ऊपर जाने की चेष्टा, उठने की चेष्टा–फिर-फिर उठोगे, गिर-गिर कर उठोगे। गिरने को तुम स्वीकार न कर लोगे। गिरने को तुम अंगीकार न कर लोगे। तुम कहोगे, चेष्टा जारी रहेगी। कितना ही फिसलूं और कितना ही गिरूं, लेकिन उठने की चेष्टा जारी रहेगी। इस उठने की चेष्टा का नाम ही संन्यास है। उत्तिष्ठित, जाग्रत, वरान्निबोधत। उठो, जागो।

अब सामान्यता का यहां आकर तुम आग्रह करो तो यहां होने की कोई जरूरत नहीं है। और ध्यान रखना, मैं कठोर नहीं हूं। मैं सिर्फ तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम्हारी जिंदगी है, उसको व्यर्थ मत उलझाओ। सिनेमा देखना हो तो सिनेमा देखो, मंदिर में मत बैठो। अक्सर लोग यह कर रहे हैं बैठे मंदिर में हैं, देखना सिनेमा चाहते हैं। कुछ लोग मंदिर में न बैठ कर सिनेमा में बैठे हैं, होना चाहते हैं मंदिर में।

दो युवक एक सांझ घूमने निकले। राम की कथा चलती थी। एक ने कहा कि भई, राम की कथा सुनें। कहते हैं, कथा के श्रवण से तो आदमी के सब दुख हट जाते हैं। भवसागर से आदमी पार हो जाता है। दूसरे ने कहाः तुम्हारी मर्जी, तुम्हें सुनना हो, सुनो। मैं तो गांव में एक वेश्या आई है, उसका नृत्य देखने जा रहा हूं।

एक वेश्या का नृत्य देखने चला गया, एक राम की कथा सुनने बैठ गया। जिसने वेश्या का नृत्य देखा उसने बार-बार सोचा वेश्या का नृत्य देख कर कि यह भी मैं कहां आ गया! पता नहीं वहां कैसे आनंद की वर्षा हो रही हो–राम-कथा में! प्रभु का स्मरण होता होगा। एक मैं अभागा कि इस बदशक्ल सी औरत के ऊधम को देख रहा हूं। मैं वहीं रुक गया होता तो अच्छा था। और उस युवक ने, जो वहां रुक गया था, उसने सोचा मैं भी क्या यह वही पुरानी पिटी-पिटाई कथा–कि राम और उनकी सीता चोरी चली गईं और रावण, और यही सब–वही मूढ़ता, यह हनुमान! मैं कहां पड़ गया, बैठ गया! मेरा मित्र न मालूम कितने मजे कर रहा होगा! कैसा आनंद न ले रहा होगा! पता नहीं कैसी सुंदर हो स्त्री। पता नहीं कैसा नाच हो रहा हो। मैं भी बुद्धू!

पहला युवक जो वेश्यालय में बैठा रहा, वहां से लौटा तो बड़ा शांत होकर लौटा। क्योंकि राम का स्मरण चलता रहा पूरे समय। और दूसरा युवक, जो रामकथा सुनता था, बड़ा अशांत होकर लौटा। क्योंकि पूरे वक्त वेश्या का स्मरण चलता रहा।

ऐसी उलझनें हैं। मैं चाहता हूं तुम सुलझ जाओ। तुम्हारी जिंदगी में एक साफ-साफ दिशा हो। साधारण होना है, साधारण रहो। मेरे पूरे आशीर्वाद। साधारण होने से ऊपर उठना है तो फिर ऊपर उठने के संकल्प में समर्पित हो जाओ। तो फिर कुछ करो ऊपर उठने के लिए। ऊपर उठने की बातें करो और जब मैं ऊपर उठने को कहूं तो नीचे खिसको; कहो कि हम तो साधारण जन हैं, हम कहां ऊपर उठेंगे? तो फिर ऊपर उठने की बात ही मत करो। जीवन में अकारण तनाव पैदा नहीं करने चाहिए। तनाव रहित जीवन सुंदर होता है, स्वाभाविक होता है।

मेरे पास यहां हो तो उसका अर्थ ही यही होता है कि तुमने कुछ असाधारण की खोज की है, आकांक्षा की है कम से कम, जिज्ञासा की है। साधारण तुम हो, लेकिन साधारण नहीं रहना चाहते हो इस बात का सूत्रपात हुआ है। अब लौट-लौट कर पीछे मत गिरो, और साधारण होने की दुहाई मत दो।

अब इंदिरा ने कहा है कि आपने कहा है कि और किसी बुद्धपुरुष के पास जाना गुरु में श्रद्धा का अभाव है। यह बात समझ में तो आती है…

जरा भी समझ में नहीं आती। समझ में आ गई होती तो प्रश्न नहीं उठता। यह समझ झूठी है। यह सिर्फ चालबाजी की समझ है। यह सिर्फ दिखाने वाली समझ है। ये दिखाने के दांत हैं, ये असली दांत नहीं हैं। अगर समझ में बात आ गई तो आ गई समझ में, फिर क्या पूछने को है?

नहीं, समझ में नहीं आती लेकिन यह भी मानने की हिम्मत नहीं है कि मैं नासमझ हूं। इसलिए यह भी चलता है साथ-साथ कि समझ में भी आती है और, किंतु, परंतु। किंतु, परंतु शुभ लक्षण नहीं हैं। समझ में आ गई बात, समझ में आ गई। फिर कोई किंतु, परंतु नहीं होते। और किंतु, परंतु हों तो समझ में बात आती नहीं।

हमेशा साफ रहो। न समझ में आती हो तो जबरदस्ती दिखाओ मत कि समझ में आ गई। साफ-साफ कहो। मेरे पास इसीलिए तो हो कि समझ में आ सके। धोखा किसको देना है? किंतु, परंतु जोड़ो ही मत। साफ कह दो कि यह बात हमारी समझ में नहीं आई। तो मैं तुम्हें फिर से समझाऊं; तो तुम्हें हजार बार समझाऊं। लेकिन तुम यह भी नहीं कहते कि समझ में नहीं आई। तुम कहते हो, बात तो समझ में आ गई है, किंतु…!

अब यह किंतु बड़ा बेहूदा है। समझ में आ गई तो बात समाप्त हो जानी चाहिए। लेकिन हर किंतु बताता है कि समझ का अहंकार भी नहीं छोड़ा जाता और बात समझ में आई भी नहीं। तो तुम फिर दलीलें खोजते हो कि ऐसा हमने इसलिए किया कि हम तो साधारण जन हैं। ऐसा हमने इसलिए किया कि हमारे भीतर सत्य की जिज्ञासा है। ऐसा हमने इसलिए किया कि आप और वे कहते तो एक ही बात हैं। ऐसा हमने इसलिए किया कि सभी का अंतिम लक्ष्य तो एक ही है।

ये सारी की सारी बातें जो तुम लाते हो, अगर ये समझ में आ गईं हों तो तुम परम ज्ञानी हो गए। फिर तुम्हें शिष्य होने की जरूरत नहीं, तुम गुरु हो गए। लेकिन यह तुम्हें कुछ भी समझ में नहीं है। न तुम्हें यह पता है कि मेरी बात और उनकी बात एक है। तुम्हें क्या पता होगा! तुम्हें अभी यही पता नहीं है कि बात क्या है। दोनों बातें एक हैं यह तो तब पता चलेगा, जब बात क्या है यह पता चल जाए। और वह अनुभव से होगा। अभी तुम मान लेना चाहते हो कि दोनों की बात एक होनी ही चाहिए। मान लेना चाहते हो। क्योंकि तुम इस झंझट में भी नहीं पड़ना चाहते कि दोनों की बातें भिन्न हों तो तुम्हारे भीतर चिंता पैदा होगी।

यहां रोज यह होता है। रोज मेरे पास पत्र आते हैं। जो जिसको मानता है…कोई लिखता है कि आपकी बात तो बिलकुल ठीक रामकृष्ण परमहंस देव जैसी है। मैं उनका भक्त हूं। कोई कहता है, आपकी बात तो ठीक कृष्णमूर्ति जैसी है। मैं उनका भक्त हूं। कोई कहता है, आपकी बात तो ठीक वही है जो कुरान में लिखी है।

ये लोग क्या कह रहे हैं? न इन्हें कुरान का पता है, न रामकृष्ण का, न कृष्णमूर्ति का, न मेरा। इनकी अड़चन क्या है? इनकी अड़चन यह है, ये यह समझाना चाह रहे हैं अपने को, कि बात अलग नहीं होनी चाहिए, नहीं तो झंझट खड़ी होगी। फिर कौन ठीक है यह सवाल उठेगा। फिर कृष्णमूर्ति ठीक हैं कि रामकृष्ण ठीक हैं कि रमण ठीक हैं? कौन ठीक हैं? ये इतनी झंझट में नहीं पड़ना चाहते। ये इतना महंगा सौदा नहीं करना चाहते। ये कहते हैं, सभी ठीक हैं, इसलिए जो भी पकड़े हो ठीक ही पकड़े हो। अब कुछ फिर विचार करने की, पुनर्विचार करने की कोई जरूरत नहीं है।

तुम्हें दुनिया में जितने समन्वयवादी दिखाई पड़ें उनमें से सौ में से निन्यानबे सिर्फ बेईमान होते हैं, जो कहते हैं, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। वे सिर्फ यह कर रहे हैं कि कौन झंझट में पड़े! कि उसका नाम अल्लाह है कि ईश्वर है, कि क्या है। जो भी हो ठीक हो, लेना-देना क्या है? होगा, एक ही होगा। वे सिर्फ उपेक्षा कर रहे हैं। वह इतने भी–समादर नहीं है उनके भीतर कि इतनी शक्ति भी लगाएं कि तय कर लें कि क्या ठीक है।

अधिकतर लोग, सब धर्म एक ही बात कहते हैं, इसीलिए कहते हैं ताकि चुनाव करने की झंझट से बचा जा सके। इसलिए नहीं कि उन्हें पता हो गया कि सभी धर्म एक हैं। यह तो पता होता है उसको जिसने धर्म के सार को अनुभव किया; जो पहुंचा उस शिखर पर। यह रामकृष्ण को पता था कि सभी धर्म एक हैं। यह मुझे पता है कि सभी धर्म एक है। यह तुम्हें पता नहीं है। और अगर तुम ऐसा मान कर चले कि सभी धर्म एक हैं तो इसका कुल परिणाम इतना होगा कि तुम किसी धर्म की मान कर चल न सकोगे। तुम कहोगे, सभी एक हैं। चलना क्या है? हमें मालूम ही है। वही तो गीता कहती है, वही कुरान कहता है। न तुमने गीता पढ़ी है, न तुमने कुरान पढ़ा।

और गीता, कुरान पढ़ कर भी तुम हो सकता है सोच लो कि दोनों एक हैं। लेकिन तुम्हें उस एक का अभी पता ही नहीं है तो तुम गीता में भी उसे कैसे खोजोगे और कुरान में भी तुम उसे कैसे खोजोगे? मैंने ऐसी किताबें देखी हैं जो सिद्ध करती हैं कि गीत-कुरान एक हैं; हिंदुओं के द्वारा लिखी गईं। और ऐसी किताबें देखी हैं, जो सिद्ध करती हैं कि कुरान और गीता एक हैं; मुसलमानों के द्वारा लिखी गईं। और बड़ा मजा है, उन दोनों की किताबें बिलकुल अलग-अलग हैं।

जो आदमी गीता को ठीक मानता है वह कुरान में वे ही बातें खोज लेता है जो गीता में हैं। शेष को छोड़ देता है। उसकी किताब का अलग ही अर्थ निकलता है। जो आदमी कुरान को ठीक मानता है, वह गीता में वही बातें खोज लेता है जो कुरान में हैं। और उनको छोड़ देता है जो गीता में हैं और कुरान में नहीं हैं। उसकी किताब का बिलकुल ही अलग अर्थ निकलता है। वे दोनों बिलकुल भिन्न-भिन्न हो जाते हैं।

महात्मा गांधी ने भी यही कहा कि कुरान में वही बात है जो गीता में है; लेकिन कुरान के वे हिस्से उन्होंने बिलकुल छोड़ दिए जो वस्तुतः कुरान है। उन्होंने सिर्फ गीता की प्रतिध्वनियां पकड़ लीं। गीता तो ठीक है यह उनको पता है। अब कुरान में भी जो-जो गीता से मिलता है, ठीक होना चाहिए। होना ही चाहिए क्योंकि गीता ठीक है। मगर जो गीता से नहीं मिलता उसके संबंध में क्या कहोगे? और बहुत सी बातें हैं जो नहीं मिलतीं। और बहुत सी बातें हैं जो न केवल नहीं मिलतीं बल्कि विपरीत जाती हैं, उनके संबंध में क्या कहोगे?

वहां अड़चन खड़ी हो जाती है। उनके संबंध में तो वही आदमी कह सकता है जिसने सत्य को जाना। और यह जाना कि सत्य के अनेक पहलू हैं। और गीता एक पहलू कहती है और कुरान दूसरा पहलू कहता है। एक ही नहीं हैं। दोनों के दृश्य बड़े अलग-अलग हैं।

तुमने अपने कमरे की एक खिड़की खोली जो पूरब की तरफ खुलती है। और तुमने सूरज को ऊगते देखा। यह एक दृश्य है। हालांकि उसी सूरज का है, उसी आकाश का है, लेकिन यह एक दृश्य है। फिर तुमने पश्चिम की खिड़की खोली और वहां अभी कोई सूरज नहीं है। वहां तुमने दूसरे दृश्य देखे–पहाड़ देखे, आकाश में उड़ते पक्षी देखे। यह माना कि वही आकाश है, लेकिन यह दृश्य बिलकुल दूसरा है। अब पक्षी और सूरज एक नहीं हैं। पहाड़ और सूरज एक नहीं हैं।

अब जो व्यक्ति गीता और कुरान को एक करने में लगा है, वह सिद्ध करने की कोशिश करेगा कि पहाड़ का मतलब सूरज होता है। अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम। कि सूरज का मतलब पहाड़ होता है। होना तो चाहिए एक ही। पूरब की खिड़की पूरब का दृश्य देती है, पश्चिम की खिड़की पश्चिम का दृश्य देती है। दक्षिण की खिड़की दक्षिण का दृश्य देती है। उत्तर की खिड़की उत्तर का दृश्य देती है।

और सत्य के अनेक पहलू हैं। और एक धर्म एक ही पहलू की बात करता है। एक की ही कर सकता है। और सत्य के इतने पहलू हैं कि कुछ पहलू ऐसे हैं जो इस पहलू से ठीक विपरीत पड़ते हैं। वे बातें एक नहीं हैं। एक ही सत्य के संबंध में हैं लेकिन बातें बिलकुल अलग-अलग हैं।

तो कोई मेरे पास पत्र लिख कर भेज देता है कि हम तो सभी को सुनते हैं। आपको भी सुनते हैं, उनको भी सुनते हैं। मेरे को कोई एतराज नहीं है। मुझे भी सुनें, उन्हें भी सुनें। लेकिन चलेंगे कब? सुनते ही रहेंगे? सुनते-सुनते तो तुम्हारे कान वैसे ही पक गए हैं। और कब तक सुनते रहोगे? आदमी सुनता है गुनने के लिए, गुनता है करने के लिए। तुम सिर्फ सुन ही रहे हो। सुनते-सुनते ही तुम सोचते हो कुछ हो जाने वाला है? और फिर इसको भी सुन लिया, उसको भी सुन लिया।

तुम बड़े वणिक हो। तुम सोचते हो, पता नहीं किसके सुनने से मिल जाए! सभी को सुन लो, हर्ज क्या है! आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास भी चले गए और दवा ले आए और एलोपैथिक चिकित्सक के पास भी चले गए और दवा ले आए। और हकीम के भी पास चले गए और होमियोपैथ के पास भी चले गए। और सबकी दवाएं घोल-घाल कर पी गए। मरोगे! बीमारी तो मिटेगी नहीं, बीमार मिट जाएगा। और सब दवाएं ठीक हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि दवाओं में कुछ गलती है। मगर होमियोपैथी का अपना विश्लेषण है, वह अलग खिड़की है। और एलोपैथी का अपना विश्लेषण है, वह अलग दृश्य है। और जीवन को पकड़ने की उनकी शैली भिन्न है। अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, होमियोपैथी-एलोपैथी तेरे नाम–ऐसा मत करना।

अल्लाह का अपना ध्वनि शास्त्र है, राम का अपना ध्वनि शास्त्र है। राम के मंत्र की अलग प्रक्रिया है। अल्लाह के मंत्र की अलग प्रक्रिया है। अल्लाह का मंत्र अलग केंद्र से पैदा होता है तुम्हारे भीतर। राम का मंत्र अलग केंद्र से पैदा होता है। वे नक्शे अलग हैं। और उन नक्शों को मिला मत लेना। नहीं तो तुम राम से भी चूकोगे और अल्लाह से भी चूकोगे। कहीं ऐसा न हो कि बीमार तो मर जाए और बीमारी बनी रहे।

चिकित्सा शास्त्रों का कभी घोलमेल मत करना। ये सब चिकित्सा शास्त्र हैं। बुद्ध ने कहा है कि मैं वैद्य हूं। ये सब चिकित्सा शास्त्र हैं। और प्रत्येक शास्त्र की अपनी पूर्णता है, अपनी निजता है। प्रत्येक शास्त्र का अपना निदान है, अपना व्यक्तित्व है। उसे खराब मत कर देना। और जब तुम एक शास्त्र की मान कर चलो तो सारे शास्त्रों को भूल जाना। तभी तुम निमज्जित हो सकोगे, तभी तुम पूरे उसमें डूब सकोगे। इतना ही मैंने कहा है। तुम्हें जहां रुचि लगे, जहां प्रीति लगे, वहां पूरे डूब जाओ ताकि तुम पहुंच सको।

 

इसी संबंध में पांचवां प्रश्नः जिस भूल के लिए आपने उस दिन हमारी आलोचना की, उसका दोषी मैं भी हूं और हृदय से क्षमा मांगता हूं। आपकी कठोरता भी आपकी करुणा, आपके प्रेम से आती है ऐसा मेरा अनुमान है। जहां तक मैं समझता हूं, प्रेम और स्वतंत्रता आपकी देशना का आधार है। और मुझे लगा कि उस दिन प्रेम तो उभर कर ऊपर आया, लेकिन स्वतंत्रता थोड़ी खंडित हुई। क्या मैं भूल में हूं?

॰ स्वतंत्रता तभी संभव है जब स्व का आविर्भाव हो जाए। वही उस शब्द का अर्थ भी है। अभी तो स्व का भी तुम्हें पता नहीं है, स्वतंत्रता तो कैसे संभव होगी? स्व के बिना स्वतंत्रता नहीं हो सकती। अभी बीज नहीं बोया गया, तुम फसल काट रहे हो। पहले बोओ तो, फिर काटना भी। अगर मैं तुमसे कहूं कि अभी तुमने बीज नहीं बोए, तुम फसल काट रहे हो। तुम कहते हो, हमें आप फसल नहीं काटने देते। तुम्हारी मर्जी, काटो! मगर फसल है कहां? फसल होनी भी चाहिए।

स्वतंत्रता स्व की छाया है। इसलिए तो उसका नाम स्व-तंत्रता। वह स्व का तंत्र है। लेकिन स्व कहां है? अभी तुम स्वयं कहां हो? अभी तुमने जाना कहां उस बात को जो तुम्हारी स्वयं की निजता है? अभी तुमने आत्मा को पहचाना कहां? अभी तुम स्वतंत्रता की बातें करोगे, भटक जाओगे। गड्ढों में गिरोगे। और फिर मैं यह भी नहीं कह रहा हूं, मना भी नहीं कर रहा हूं। तुम्हें अगर स्वतंत्रता में ही रस हो, अभी रस हो बिना स्व के, तो तुम करो। सिर्फ परिणाम तुम्हें सचेत कर देना चाहता हूं। उसके परिणाम घातक होंगे।

यह ऐसा ही होगा जैसे छोटा बच्चा अपनी मां से कहे कि मुझे तो आग की तरफ जाना है। और मेरी स्वतंत्रता है, स्वतंत्रता तो सभी का अधिकार है। तो मैं उस बच्चे से कहूंगा कि तू मजे से जा लेकिन जलने की तैयारी रखना। अगर जल जाए तो फिर मां को दोषी मत ठहराना। लेकिन मजा यह है कि अगर बच्चा जल जाए तो वह मां को दोषी ठहराता है कि तुमने रोका क्यों नहीं? तुम तो जानती थीं कि आग जलाती है। खैर मैं तो अबोध हूं; तुमने क्यों नहीं रोका? और अगर मां रोके तो स्वतंत्रता में बाधा आती है।

मैं अगर तुम्हें रोकूं कुछ गलत करने से तो तुम्हारी स्वतंत्रता में बाधा आ जाती है। अगर मैं न रोकूं तो कल तुम मुझ ही को उत्तरदायी ठहराओगे कि आपने क्यों नहीं रोका? हम तो अंधे थे, आप तो अंधे नहीं थे। अगर हम दीवाल की तरफ जा रहे थे तो आपने कहा क्यों नहीं कि टकराओगे, चोट खाओगे? अगर हम जहर पीते थे तो चैंकाया क्यों नहीं हमें कि यह जहर है, अमृत नहीं?

तुम मेरी मुसीबत समझते हो? अगर तुम्हें रोकूं तो निश्चित तुम्हें लगता है, तुम्हारी स्वतंत्रता में बाधा पड़ी। अगर तुम्हें जाने दूं तो आज नहीं कल तुम कहोगे कि आपने गुरु होने का दायित्व नहीं निभाया। इसलिए मैं तुम्हें सिर्फ स्थिति साफ कर देना चाहता हूं, फिर तुम्हारी मर्जी।

सदा याद रखना कि मैं जो भी तुमसे कहता हूं, उपदेश है, आदेश नहीं। उपदेश आदेश का भेद खयाल में रखना। यह कोई सेना नहीं है, जहां कोई आदेश दिए जा रहे हैं, कि ऐसा करो, बाएं घूमो, दाएं घूमो। सिर्फ तुमसे वही कह रहा हूं जो तुम्हारे काम पड़ जाए। फिर अंततः निर्णय तुम्हारा है। अगर मैं तुमसे कहता हूं कि मत जाओ उस तरफ गड्ढा है, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम जा नहीं सकते। कि जाओगे तो सजा दूंगा। नहीं, सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि उस तरफ गड्ढा है, जाओगे तो गिरोगे, सजा पाओगे। मैं दूंगा ऐसा नहीं। वह गड्ढे में गिरने से सजा हो जाएगी। फिर भी तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि मत जाओ, इतना ही कह रहा हूं कि जानते हुए जाना। स्वीकार करते हुए जाना। अगर गड्ढे में गिरने की स्थिति को स्वीकार करने की हिम्मत हो तो मजे से जाना। लेकिन फिर लौट कर यह मत कहना कि मुझे रोका क्यों नहीं?

प्रेम और स्वतंत्रता के बीच कठिनाई है। वही तो सारे माता-पिताओं की कठिनाई है। वही तो सभी गुरुओं की कठिनाई है। अगर बच्चे को प्रेम करो तो वह स्वतंत्रता मांगता है। अगर उसे स्वतंत्रता दो तो मां-बाप का प्रेम प्रमाणित नहीं होता। अगर पूरी स्वतंत्रता दे दो तो तभी संभव है, जब मां-बाप को कोई प्रेम न हो। तब तुम कहोगे प्रेम खंडित हुआ। मां-बाप अपने बच्चे को पूरी स्वतंत्रता दे सकते हैं–पूरी, बेशर्त, तभी जब प्रेम न हो। तब बच्चा छत से गिर रहा हो तो वे मजे से खड़े देखते रह सकते हैं। यह उसकी स्वतंत्रता है, वह आग में जा रहा हो यह उसकी स्वतंत्रता है। जहर पी रहा हो यह उसकी स्वतंत्रता है। लेकिन इनको तुम मां-बाप कहोगे? इनके पास प्रेम नहीं है। और अगर ये प्रेम का उपयोग करें, और जगह-जगह उसे खींचें और आग में न जाने दें, और छत से न गिरने दें तो तुम कहोगे यह क्या हुआ! ये बच्चे को मार डालेंगे। उनकी स्वतंत्रता नष्ट हो रही है।

मां-बाप को देखना पड़ता है कि दोनों के बीच एक संतुलन बना रहे। प्रेम इतना ज्यादा न हो जाए कि बच्चे का जीवन नष्ट हो जाए। स्वतंत्रता इतनी ज्यादा न हो जाए कि बच्चे का जीवन कष्ट में पड़ जाए या नष्ट हो जाए। प्रेम और स्वतंत्रता के बीच एक संतुलन चाहिए। ठीक वैसा ही जैसे तुमने कभी किसी नट को रस्सी पर चलते देखा हो। हाथ में एक लकड़ी लिए रहता है, संतुलन के लिए। जब बाईं तरफ ज्यादा झुक जाता है तो जल्दी से दाईं तरफ झुक जाता है ताकि संतुलन बन जाए। जरा और गया होता कि गिरता। बाईं तरफ गिरने से बचना है तो दाईं तरफ झुक जाता है। और दाईं तरफ थोड़ी दूर तक झुकता है और फिर तत्क्षण बाईं तरफ झुक जाता है, नहीं तो दाईं तरफ गिर जाएगा। तब रस्सी पर चल पाता है। और जीवन रस्सी पर चलने जैसा है। उतना ही कठिन है। उतने ही गिरने की संभावना है। प्रेम और स्वतंत्रता के बीच ऐसी ही व्यवस्था साधनी होती है।

गुरु प्रेम भी करेगा और स्वतंत्रता भी देगा। लेकिन जब देखेगा कि प्रेम इतना ज्यादा हुआ जा रहा है कि स्वतंत्रता टूटने लगी, तो स्वतंत्रता की तरफ झुक जाएगा। और जब देखेगा स्वतंत्रता इतनी ज्यादा हुई जा रही है कि अब प्रेम की गर्दन कट जाएगी, तो प्रेम की तरफ झुक जाएगा। वही सदगुरु है, जो न तो प्रेम के लिए स्वतंत्रता को नष्ट होने दे, न स्वतंत्रता के लिए प्रेम को नष्ट होने दे। जो दोनों को साध ले वही सदगुरु।

उसी की कीमिया से गुजर कर तुम्हारे जीवन में दोनों पंख होंगे–स्वतंत्रता का भी और प्रेम का भी। तुम आकाश की गति कर पाओगे। एक पंख से कोई नहीं उड़ सकता। अकेला स्वतंत्रता का पंख काफी नहीं है। और अकेला प्रेम का पंख भी काफी नहीं है। प्रेमपूर्ण स्वतंत्रता–ये विरोधाभासी शब्द हैं। लेकिन यही जीवन का रसायन है।

 

आखिरी प्रश्नः मैं प्रेम के संबंध में बहुत सोचता हूं। आपकी बातें ठीक भी लगती हैं; कभी ठीक और कभी ठीक नहीं भी लगती हैं। मेरे लिए क्या मार्गदर्शन है?

॰ प्रेम का सोचने से क्या संबंध? करो! जीओ! जलो! सोचते-सोचते जीवन गंवा दोगे। अक्सर सोचने वाले प्रेम नहीं कर पाते। क्योंकि सोचना होता है मस्तिष्क में और प्रेम होता है हृदय में। वे दोनों अलग केंद्र हैं। उनके अलग आयाम हैं। सोचने वाला धन कमा सकता है, प्रेम गंवा देगा। प्रेम करने वाला प्रेम कमा लेगा, हो सकता है धन गंवा दे। वे दोनों अलग यात्राएं हैं। और व्यक्ति को साफ-साफ निर्णीत हो जाना चाहिए कि उसे प्रेम के मार्ग पर जाना है? जाना है तो सोचो मत।

प्रेम भाव है, विचार नहीं। क्या सोचोगे प्रेम के संबंध में? सोच-सोच कर भी क्या सोच पाओगे? यह ऐसा है जैसा अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में सोचे…सोचता रहे, सोचता रहे। क्या सोचेगा? आंख की चिकित्सा करवानी होगी, सोचने से कुछ भी न होगा। तुम प्रेम के संबंध में क्या सोचोगे? प्रेम की पीड़ा से गुजरना होगा।

और ध्यान रखना, तुम अगर तथाकथित सांसारिक प्रेम की पीड़ा से न गुजरे तो तुम ईश्वरीय प्रेम को भी न पा सकोगे। यह संसार सीढ़ी है। इस सीढ़ी पर चढ़ना होगा। इसी संसार के प्रेम में धीरे-धीरे तुम्हें उस प्रेम की भनक सुनाई पड़ती है। मैं इस संसार से भागने को नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं, इस संसार का पूरा उपयोग कर लो। यह एक अवसर है, महान अवसर है। यहां प्रेम के बहुत-बहुत मौके हैं। इन सब मौकों को ठीक-ठीक तलाश लो, खोज लो, इनका अनुभव ले लो, निचोड़ लो, इनका इत्र बना लो। यही इत्र तुम्हारी प्रार्थना में काम आएगा। आखिर तुम्हारी प्रार्थना में इन्हीं सबका तो रंग होगा!

जिसने कभी अपनी पत्नी को प्रेम नहीं किया उसका परमात्मा से प्रेम भी कुछ अधूरा रहेगा, कुछ कमी रहेगी। जिसने कभी अपने बेटे को नहीं चाहा, जिसने कभी अपने पति को नहीं चाहा, अपने पिता को नहीं चाहा उसके परमात्मा के प्रेम का क्या अर्थ होगा? कैसा होगा वह प्रेम? सोचो!

जीसस ने परमात्मा को पिता कहा है–अब्बा। अगर जीसस ने अपने पिता को प्रेम न किया हो तो जब वे परमात्मा को अब्बा कहेंगे, उसमें क्या अर्थ होगा? वह अब्बा शब्द कोरा होगा, खाली होगा। उसमें कुछ भी नहीं होगा। विषय वस्तु होगी ही नहीं। मीरा ने कृष्ण को प्रीतम कहा है। अगर अपने पति में, अपने प्रेमी में कभी कोई अनुभव न हुआ हो तो यह प्रीतम शब्द का क्या अर्थ होगा? इसका कुछ भी अर्थ नहीं होगा। यह अर्थहीन शब्द होगा।

सूफियों ने परमात्मा को अपनी प्रेयसी कहा है, अपनी प्यारी कहा है। लेकिन जिसने किसी स्त्री के प्रेम में आंसू न बहाए हों और जो किसी स्त्री के प्रेम में तड़पा न हो उसको क्या पता होगा? वह कैसे परमात्मा को प्रेयसी कहेगा? कैसे पुकारेगा प्राण प्यारी कह कर? उसके शब्द ओंठों पर होंगे, हृदय में नहीं होंगे। जिसने अपने बच्चे को प्रेम नहीं किया–जैसे सूरदास कृष्ण के बालपन की ऐसी प्यारी-प्यारी, मीठी-मीठी गीतिकाएं गाते हैं, जिसने अपने बच्चे को प्रेम नहीं किया वह कृष्ण के बालरूप को कैसे प्रेम कर पाएगा? क्या प्रेम कर पाएगा! वह कितना ही लाख गाए कि बाल गोपाल नाचते, कि उनकी पांवों की पैजनियां बजतीं। वह लाख करे, लेकिन उसके घर में जो गोपाल पांवों की पैजनियां बजा रहे हैं उनसे उसको कुछ लेना-देना नहीं है। असंभव है।

तुम्हारे शब्दों का अर्थ तुम्हारे जीवन से आता है। इस जीवन के प्रेम को ठीक-ठीक पहचानो। इस पर रुक मत जाना, यह जरूर सच है। मगर इसके अनुभव से तो गुजरना ही है। रुकना भी नहीं है इस पर और इससे बच कर भी नहीं निकल जाना है। सोचते क्या हो? जिंदगी हाथ से गुजरी जाती है।

मैं कल एक गीत देखता था–

सोचता हूं कि मोहब्बत से किनारा कर लूं

दिल को बेगाना-ए-तरगीबो-तमन्ना कर लूं

सोचता हूं कि मोहब्बत है जुनूने-रुसवा

चंद बेकार-से बेहूदा खयालों का हुजूम

एक आजाद को पाबंद बनाने की हवस

एक बेगाने को अपनाने की सअइ-ए-मौहूम

सोचता हूं कि मोहब्बत है सरूरो-मस्ती

इसकी तन्वीर से रौशन है फजाए-हस्ती

सोचता हूं कि मोहब्बत है वसर की फितरत

इसका मिट जाना, मिटा देना बहुत मुश्किल है

सोचता हूं कि मोहब्बत से है ताबिंदा हयात

आपसे ये शमा बुझा देना बहुत मुश्किल है

सोचता हूं कि मोहब्बत पे कड़ी शर्तें हैं

इस तमुद्दन में मसर्रत पर बड़ी शर्तें हैं

सोचता हूं कि मोहब्बत है एक अफसुर्दा-सी लाश

चादरे इज्जतो-नामूस में कफनाई हुई

दौरे-सरमाया की रौंदी हुई रुसवा हस्ती

दरगहे-मजहबो-इखलाक से ठुकराई हुई

सोचता हूं कि बशर और मुहब्बत का जुनूं

ऐसे बोसूदा तमुद्दन में है इक कारे-जबूं

सोचता हूं कि मोहब्बत न बचेगी जिंदा

पेश-अज-वक्त की सड़ जाए ये गलती हुई लाश

यही बेहतर है कि बेगाना-ए-उल्फत होकर

अपने सीने में करूं जज्बा-ए-नफरत की तलाश

और सौदा-ए-मोहब्बत से किनारा कर लूं

दिल को बेगाना-ए-तरगीबो-तमन्ना कर लूं

यह गीत शुरू होता है इस बात से कि–सोचता हूं मोहब्बत से किनारा कर लूं। हट जाऊं मोहब्बत से। क्योंकि मोहब्बत में बड़ी झंझटें हैं। बड़े रस भी हैं, बड़े फूल भी हैं, उतने ही बड़े कांटे भी हैं।

सोचने वाला तो सभी सोचेगा न! फूल भी, कांटे भी, दिन भी, रातें भी, सुख भी, दुख भी।

सोचता हूं कि मोहब्बत से किनारा कर लूं

दिल को बेगाना-ए-तरगीबो-तमन्ना कर लूं

अभिलाषाओं से हृदय को रिक्त कर लूं क्योंकि अभिलाषा कष्ट में ले जाती है। लेकिन अभी कष्ट में तुम गए नहीं। हां, बुद्धों ने कहा है, अभिलाषा कष्ट में ले जाती है। मगर यह जाकर कहा है, अनुभव से कहा है। तुम अभी गए नहीं। तुम सोचते हो, मोहब्बत से किनारा कर लूं। किनारा करके भागोगे कहां? जाओगे कहां? वंचित रह जाओगे एक अनुभव से। बुद्ध कभी न हो पाओगे। बुद्ध ने मोहब्बत की, और जाना। उस जानने से ऊपर उठे। किनारा नहीं किया, भागे नहीं, बचे नहीं, घाव सहे। कांटों से उनके हाथ लहूलुहान हुए। फूलों की पकड़ने की कोशिश की और कांटों से लहूलुहान हुए। लेकिन उसी से समझ आई। उसी से प्रौढ़ता आई।

सोचता हूं कि मोहब्बत से किनारा कर लूं

दिल को बेगाना-ए-तरगीबो-तमन्ना कर लूं

सोचता हूं कि मोहब्बत है जुनूने-रुसवा

क्योंकि मोहब्बत तो एक पागलपन मालूम होती है। जो मोहब्बत में नहीं गए उनको सभी को पागलपन मालूम होती है। जो मोहब्बत में गए और उसके ऊपर उठे उनको भी पागलपन मालूम होती है। लेकिन दोनों के मालूम होने में बड़ा भेद है। मालूम मालूम होने में बड़ा भेद है। जो गए नहीं उनको इसलिए मालूम होती है पागलपन क्योंकि उनकी बुद्धि कहती है, फायदा क्या, मिलेगा क्या? रखा क्या है? जो गए उनको भी पागलपन मालूम होती है, लेकिन क्यों? क्योंकि उनको अब और बड़ा पागलपन दिखाई पड़ने लगा–परमात्मा का प्रेम। उसके सामने यह छोटा पागलपन अब जंचता नहीं।

सोचता हूं कि मोहब्बत है जुनूने-रुसवा

चंद बेकार-से बेहूदा खयालों का हुजूम

एक आजाद को पाबंद बनाने की हवस

एक बेगाने को अपनाने की सअइ-ए-मौहूम

एक झूठा प्रयत्न है, भ्रमात्मक प्रयत्न है आदमी को उलझाने का, गुलाम बनाने का, दास बनाने का।

सोचता हूं कि मोहब्बत है सरूरो-मस्ती

इसकी तन्वीर से रोशन है फजाए-हस्ती

फिर कभी लगता है कि मोहब्बत तो सरूर है, मस्ती है। और इसी की रोशनी से तो सारा जगत झिलमिला रहा है। इसी प्रेम के कारण तो लोग जी रहे हैं। इसी प्रेम के कारण तो पिता मजदूर है, चट्टानें तोड़ रहा है। इसी प्रेम के कारण तो मां अपने को गला रही है। इसी प्रेम के कारण तो पति अपनी जिंदगी को दांव पर लगा रहा है। पत्नी है, अपना सब लुटा रही है। इसी प्रेम के कारण तो इस जगत में थोड़ी रोशनी दिखाई पड़ती है। थोड़े दीये जलते दिखाई पड़ते हैं। नहीं तो सब जगह मरघट हो।

जरा सोचो एक दिन को, कि प्रेम एकदम विदा हो जाए। एकदम प्रेम तय कर ले कि बहुत हो गया। जैसे तुम थक गए प्रेम से, एक दिन प्रेम तुम से थक जाए और कहे कि बहुत हो गया। अब विदा हो जाएं इस जगत से। अब यह जमीन रहने योग्य नहीं। फिर क्या होगा? जरा सोचो। चैबीस घंटे भी पृथ्वी टिक न सकेगी। सब टूट जाएगा, सब बिखर जाएगा। यहां सब धागे प्रेम के हैं। यहां सारी व्यवस्था प्रेम की है।

सोचता हूं कि मोहब्बत है वसर की फितरत

–फिर कभी सोच आता है कि आदमी का स्वभाव है।

इसका मिट जाना, मिटा देना बहुत मुश्किल है

सोचता हूं कि मोहब्बत से है ताबिंदा हयात

–यह जीवन उसी से तो रोशन है।

आपसे ये शमा बुझा देना बहुत मुश्किल है

सोचता हूं कि मोहब्बत पे कड़ी शर्तें हैं

बस, यह सोच ही सोच चलता है कि मोहब्बत पर बहुत शर्तें लगा रखी हैं लोगों ने; बड़ी झंझटें लगा रखी हैं। जो करे, मुश्किल में पड़ जाता है।

इस तमुद्दन में मसर्रत पर बड़ी शर्तें हैं

–और लोगों ने खुशी पर भी बड़ी शर्तें लगा रखी हैं। बड़ा महंगा हो गया है सौदा।

सोचता हूं कि मोहब्बत है एक अफसुर्दा-सी लाश

फिर कभी यह भी खयाल आता है कि यह तो बड़ी पुरानी चीज हो गई; मोहब्बत कोई नई चीज तो है नहीं। सदा से चली आ रही है, सड़ गई है, लाश है।

चादरे-इज्जतो-नामूस में कफनाई हुई

दौरे-सरमाया की रौंदी हुई रुसवा हस्ती

दरगहे-मजहबो-इखलाक से ठुकराई हुई

धार्मिकों ने, नीतिज्ञों ने, भले लोगों ने, संतों-साधुओं ने, सबने तो ठुकराया है इसे। यह ठुकराने ही योग्य है।

सोचता हूं कि बशर और मोहब्बत का जुनूं

ऐसे बोसीदा तमुद्दन में है इक कारे-जबूं

सोचता हूं कि मोहब्बत न बचेगी जिंदा

–यह तो मरेगी ही। इस मरी हुई या मरती हुई चीज से क्या संबंध जोड़ना!

सोचता हूं कि मोहब्बत न बचेगी जिंदा

पेश-अज-वक्त कि सड़ जाए ये गलती हुई लाश

–इसके पहले कि यह सड़ जाए,

यही बेहतर है कि बेगाना-ए-उल्फत होकर

प्रेम से अपने को अलग करके–

अपने सीने में करूं जज्बा-ए-नफरत की तलाश

–इससे तो बेहतर यही है कि अपने हृदय में घृणा के भाव को खोजूं, बजाय प्रेम के।

यह बड़े मजे की कविता है। प्रेम से शुरू होती है, घृणा पर अंत होता है। अगर प्रेम इतना फिजूल है, झंझट का है तो फिर बेहतर यही है कि घृणा की तलाश की जाए।

यही बेहतर है कि बेगाना-ए-उल्फत होकर

अपने सीने में करूं जज्बा-ए-नफरत की तलाश

और सौदा-ए-मोहब्बत से किनारा कर लूं

दिल को बेगाना-ए-तरगीबो-तमन्ना कर लूं

और यह सत्य भी है बात। एडोल्फ हिटलर का जीवन तुम पढ़ो। पढ़ना चाहिए। जैसे महात्माओं के जीवन पढ़ने योग्य हैं वैसे ही इन महात्माओं के जीवन भी पढ़ने योग्य हैं। उससे भी बड़ी दृष्टियां मिलती हैं। एडोल्फ हिटलर प्रेम की तलाश करता रहा और नहीं पा सका। और तब उसने सारी जिंदगी घृणा से भर दी। बनना चाहता था चित्रकार, नहीं बन सका। तो सृजनात्मक की जगह विध्वंसात्मक हो गया।

और तुम जिनको तथाकथित महात्मा कहते हो उनको भी जरा गौर से देखना। उनके जीवन का सार-तत्व भी परमात्मा से प्रेम कम है, संसार से घृणा ज्यादा है। उन्होंने भी घृणा की तलाश कर ली है। इन दोनों बातों में बड़ा फर्क है।

कोई आदमी परमात्मा के प्रेम से भर कर नाचता है, ध्यान करता है, भक्ति करता है। और कोई आदमी केवल संसार की घृणा से भर कर मंदिर में जा बैठा है। ये दोनों एक जैसे आदमी नहीं हैं। इन दोनों के पहलू अलग, इनकी प्रेरणा अलग। एक रुग्ण है, एक स्वस्थ है।

जो आदमी संसार से घृणा करके मंदिर में जा बैठा है, इसके कारण मंदिर भी गंदा हो जाएगा। इसके जीवन का तत्व घृणा है। जो आदमी संसार के प्रेम को देखा, जाना, पहचाना और इसी प्रेम से धीरे धीरे उसे परमात्मा का सुराग मिला। इसी प्रेम के सहारे-सहारे उसे धीरे-धीरे यह समझ में आया कि यह सारा जगत प्रेम के तत्व से ही बना है। इस सारे जगत के पीछे कोई प्रेम का विराट तत्व खड़ा है। मैं उसी को खोज लूं। मैं छोटी छोटी बूंदों में क्यों जीऊं? मैं पूरे सागर को क्यों न पा लूं?

जो इस जगत के प्रेम को अनुभव करके परमात्मा की खोज में गया, यह आदमी जहां बैठ जाएगा वहां मंदिर बन जाएंगे। यह जहां बैठेगा वहीं तीर्थ होंगे, वहीं काबा, वहीं काशी, वहीं कैलाश। और जो आदमी संसार की घृणा से भर कर–न प्रेम कर पाया, न दे पाया, न ले पाया और धीरे-धीरे उद्विग्न हो गया, जिसकी ऊर्जा खट्टी हो गई, सड़ गई, जिसका प्रेम विकसित न हो पाया तो जहर हो गया, जिसकी सृजनात्मक शक्ति विध्वंसात्मक हो गई, यह आदमी अगर मंदिर और मस्जिद में जाकर बैठ जाएगा तो मंदिर और मस्जिद भी उदास हो जाएंगे।

तुम जरा देखो, तुम्हारे मंदिर, मस्जिद, चर्च कितने उदास हो गए हैं! किनके कारण उदास हो गए हैं? जो लोग वहां बैठे हैं, इन्होंने प्रेम की खोज की थी, सफल नहीं हो पाए, और घृणा की तलाश कर ली।

तुम कहते हो, ‘मैं सोचता हूं प्रेम के संबंध में बहुत। कभी आपकी बातें ठीक लगती हैं, कभी गलत।’

सोचोगे तो ऐसे ही बिगूचन में पड़े रहोगे–यह ठीक कि वह ठीक। जानो! जानने से निर्णय होता है। सोचने से निर्णय नहीं होता। अनुभव करो। जिंदगी तो ऐसे ही चली जाएगी, प्रेम ही कर लो। और मैं तुमसे कोई शर्त नहीं लगाता। कैसा भी प्रेम–मित्र से, गुरु से, पत्नी से, पति से, बेटे से, बेटी से। किसी से प्रेम कर लो।

यह बड़ी पुरानी कथा है कि एक आदमी नागार्जुन के पास आया और उसने कहा कि मुझे ध्यान करना है। नागार्जुन ने कहाः तेरा किसी से प्रेम है? वह आदमी बोला कि अब आपसे क्या छिपाना? मगर कहते संकोच लगता है। नागार्जुन ने कहाः फिर भी तू कह। उसने कहा, मुझे मेरी भैंस से…! ग्वाला था और एक ही भैंस थी। वही उसका भोजन, वही उसकी जीवनचर्या, वही उसका सब। वह उसको चराने ले जाता, चराता, नहलाता, घर लाता, दूध बेचता और मस्त था। उसने कहाः मुझे बड़ा संकोच होता है। आप भी क्या सोचेंगे कि भैंस से प्रेम? कुछ और न मिला तुझे करने को?

नागार्जुन ने कहाः कुछ फर्क नहीं पड़ता। पात्र से कुछ नहीं फर्क पड़ता, प्रेम से फर्क पड़ता है। तू फिकर न कर। तू यह सामने की गुफा में बैठ जा और अपनी भैंस का विचार कर। उसने कहा, आप भी क्या कह रहे हैं! भैंस का विचार? मैं तो सोचता था आप परमात्मा के विचार करने को कहेंगे। नागार्जुन ने कहाः तू बैठ उस सामने की गुफा में और भैंस का विचार कर। और इतना विचार कर कि धीरे-धीरे लवलीन हो जा।

उस आदमी को भरोसा तो न आया। सोचा कि कोई मजाक तो नहीं कर रहे हैं? लेकिन नागार्जुन कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। वह जाकर बैठ गया। नागार्जुन ने कहा कि जब तक तुझे ऐसा न लगने लगे कि मैं भैंस ही हो गया, तब तक जारी रखना। फिर मैं आऊंगा। मैं जब तक न पुकारूं तब तक तू निकलना भी मत। वह चला गया भीतर। एक दिन बीता, दो दिन बीते, तीन दिन बीत गए। तब नागार्जुन उसके द्वार पर जाकर दस्तक दिए। खुला दरवाजा था गुफा का। कहा कि अब तू बाहर निकल आ भाई। वह आदमी उठा, चारों हाथ पैर पर चला, और दरवाजे पर आकर अटक गया। नागार्जुन ने कहाः निकलता क्यों नहीं? उसने कहाः सींग फंसते हैं। तीन दिन तक एक ही भाव में तल्लीन रहा–भैंस, भैंस, भैंस! हो गया भैंस।

नागार्जुन ने कहाः तेरे हाथ में सूत्र आ गया। यहां लोग हैं, जो वर्षों से मेहनत कर रहे हैं और इस सत्य को अनुभव नहीं कर पाए कि ध्यान रूपांतरण है। जिसका करोगे वही हो जाओगे। तेरे हाथ में सूत्र आ गया। अब इसी सूत्र का तू परमात्मा पर प्रयोग कर लेना। अब तू परमात्मा का विचार करना शुरू कर। यही प्रेम उनमें डाल। प्रेम यही है; भैंस में डाला, भैंस हो गया। परमात्मा में डालें, परमात्मा हो जाएगा।

जिन्होंने घोषणा की अहं-ब्रह्मास्मि, उनमें और इस आदमी में कोई फर्क नहीं है। दोनों ने एक ही प्रक्रिया का अनुसरण किया है।

तुम प्रेम करो। तुम प्रेम से परिचित होओ। सोचे-सोचे जीवन मत गंवाओ। अनुभव की संपदा कमाओ। और फिर एक दिन जब तुम प्रेम को जान लो कि प्रेम क्या है, उसी प्रेम को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर देना। वही है असली फूल, जो परमात्मा के चरणों में चढ़ाया जाना है–तुम्हारा प्रेम का फूल। कहां खिला इसकी फिकर छोड़ो।

ध्यान रखना, कमल कीचड़ में ही खिलते हैं। तो यह मत सोचो कि कीचड़ में कैसे कमल को खिलाऊं! कमल कीचड़ में ही खिलते हैं। यह संसार की कीचड़ है, यहां कमल को खिला लो। प्रेम इसमें कमल है। और जब प्रेम का कमल खिल जाए, तो चढ़ा देना उसे परमात्मा के चरणों में। तुम निश्चित अंगीकार हो जाओगे। तुम पर प्रसाद की वर्षा अनिवार्य है।

 

आज इतना ही।

 

 

 

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन–हम सतनाम के वैपारी

सारसूत्र:

हम सतनाम के वैपारी।

कोई कोई लादे कांसा पीतल, कोई कोई लौंग सुपारी।

हम तो लाद्यो नाम धनी को, पूरन खेप हमारी।।

पूंजी न टूटे नफा चैगुना, बनिज किया हम भारी।

हाट जगाती रोक न सकिहै, निर्भय गैल हमारी।।

मोती बूंद घटहिं में उपजे, सुकिरत भरत कोठारी।

नाम-पदारथ लाद चला है, धरमदास वैपारी।। Continue reading “जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-03)”

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन–माधव जन्म तुम्हारे लेखे!

प्रश्न-सार

॰ शिष्यों का चोरी-छिपे दूसरे गुरु को सुनने जाना क्या है–जिज्ञासा, अवज्ञा या और अधिक खोज?

॰ आपकी बातें सीधी और साफ होने के बावजूद भी शिक्षाशास्त्रियों तथा राजनीतिज्ञों की समझ में क्यों नहीं आतीं?

॰ भगवान, मैं कितना भाग्यवान हूं कि मुझे आप मिले!

॰ सभी भक्त अपने-अपने धर्मगुरु की प्रशंसा में अतिशयोक्ति क्यों करते हैं? Continue reading “जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-02)”

जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन–गुरु मिले अगम के बासी

(दिनांक 31 जनवरी 1978 से 10 फरवरी 1979 तक ओशो आश्रम पूना)

सूत्र:

गुरु मिले अगम के बासी।।

उनके चरणकमल चित दीजै सतगुरु मिले अविनासी।

उनकी सीत प्रसादी लीजै छुटि जाए चैरासी।।

अमृत बूंद झरै घट भीतर साध संत जन लासी।

धरमदास बिनवे कर जोरी सार सबद मन बासी।।

वो नामरस ऐसा है भाई।। Continue reading “जस पनिहार धरे सिर गागर-(प्रवचन-01)”

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