सातवां प्रवचन-(संकल्पों के बाहर)
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा है, यदि हम पूछें मैं कौन हूं तो पूछने वाला और प्रश्न दोनों एक ही तो हैं, दोनो अलग नहीं हैं। जो प्रश्न बन कर खड़ा है, वही तो उत्तर बनेगा। और तब कैसे कभी जाना जा सकता है कि मैं कौन हूं?
सच है यह बात। जो पूछ रहा है, वही उत्तर भी है। लेकिन पूछने के कारण उत्तर का पता नहीं चल पा रहा है। पूछना है। पूछने से उत्तर नहीं मिलेगा, लेकिन पूछते रहें, पूछते रहें। पूछते जाएं, सब उत्तर व्यर्थ होते चले जाएंगे। अंततः जब कोई उत्तर नहीं बचेगा तो प्रश्न भी व्यर्थ हो जाता है। और जब प्रश्न भी गिर जाता है–उत्तर तो मिलता ही नहीं! जब प्रश्न भी गिर जाता है और चित्त निष्प्रश्न होता है, तब हम उसे जान लेते हैं। जो प्रश्न भी पूछता था। और जो उत्तर भी है!
प्रश्न पूछने का प्रयोजन उत्तर खोज लेना नहीं है। प्रश्न पूछने का प्रयोजन, सब बंधे, सब सीखे उत्तरों को व्यर्थ कर देना है। और उस जगह पहुंच जाना है, जहां प्रश्न भी अंततः व्यर्थ हो जाता है। Continue reading “संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-07)”