संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन-(संकल्पों के बाहर)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है, यदि हम पूछें मैं कौन हूं तो पूछने वाला और प्रश्न दोनों एक ही तो हैं, दोनो अलग नहीं हैं। जो प्रश्न बन कर खड़ा है, वही तो उत्तर बनेगा। और तब कैसे कभी जाना जा सकता है कि मैं कौन हूं?

 

सच है यह बात। जो पूछ रहा है, वही उत्तर भी है। लेकिन पूछने के कारण उत्तर का पता नहीं चल पा रहा है। पूछना है। पूछने से उत्तर नहीं मिलेगा, लेकिन पूछते रहें, पूछते रहें। पूछते जाएं, सब उत्तर व्यर्थ होते चले जाएंगे। अंततः जब कोई उत्तर नहीं बचेगा तो प्रश्न भी व्यर्थ हो जाता है। और जब प्रश्न भी गिर जाता है–उत्तर तो मिलता ही नहीं! जब प्रश्न भी गिर जाता है और चित्त निष्प्रश्न होता है, तब हम उसे जान लेते हैं। जो प्रश्न भी पूछता था। और जो उत्तर भी है!

प्रश्न पूछने का प्रयोजन उत्तर खोज लेना नहीं है। प्रश्न पूछने का प्रयोजन, सब बंधे, सब सीखे उत्तरों को व्यर्थ कर देना है। और उस जगह पहुंच जाना है, जहां प्रश्न भी अंततः व्यर्थ हो जाता है। Continue reading “संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-07)”

संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-(अंधे मन का ज्वर)

मेरे प्रिय आत्मन्!

जीवन में दो भ्रम हैं। दोनों ही बहुत सत्य मालूम होते हैं! एक भ्रम तो पदार्थ का है, मैटर का और दूसरा भ्रम अहंकार का है, ईगो का। एक भ्रम बाहर है, एक भ्रम भीतर है। दोनों भ्रम एक साथ ही जीते हैं और एक साथ ही मरते भी–वे एक ही भ्रम के दो छोर हैं, एक ही इलूजन के!

पदार्थ दिखाई पड़ता है और खयाल में भी नहीं आता कि ऐसा भी हो सकता है कि पदार्थ न हो। बहुत ठोस मालूम होता है। पत्थर कितना ठोस है?

एक बहुत बड़ा विचारक जाॅनसन, बर्कले के साथ घूमने निकला था। और बर्कले कहता था, बाहर जो भी दिखाई पड़ता है, सब भ्रम है। तो जाॅनसन ने पत्थर उठा कर बर्कले के पैर पर पटक दिया। बर्कले पैर पकड़ कर बैठ गया! और बहुत चोट लग गई उसे, खून बहने लगा! जाॅनसन ने कहाः यह पत्थर भ्रम है, जिससे चोट लगी और खून बहता है? Continue reading “संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-06)”

संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(धारणाओं की आग)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि क्रोध को हम जानते हैं, पहचानते हैं, लेकिन फिर भी क्रोध मिटता नहीं है! और सुबह आपने कहा कि यदि हम देख लें, जान लें, पहचान लें, तो क्रोध मिट जाना चाहिए!

 

इस संबंध में दो-तीन बातें समझनी हैं। पहली तो बात यह क्रोध के विरोध में हमें इतनी बातें सिखाई गई हैं कि उन विरोधी बातों के कारण क्रोध को हम कभी भी सरलता से देखने में समर्थ नहीं हो पाते हैं।

जिससे हमारा विरोध है, उसे देखना मुश्किल हो जाता है।

जिसके संबंध में हमने पहले से ही निर्णय ले रखा है कि वह पाप है, बुरा है, नरक का द्वार है, उसे हम देख कैसे सकेंगे? देखते ही हमारे भीतर विरोध दौड़ जाता है। विरोध के कारण हमारे और क्रोध के बीच में एक दीवाल खड़ी हो जाती है, वह दीवाल देखने नहीं देती। Continue reading “संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-05)”

संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-04)

प्रवचन -चौथा -(अपना-अपना अंधेरा)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य का मन एक बोझ है–बोझ है अतीत का। लेकिन मनुष्य का मन एक तनाव भी है–तनाव है भविष्य का। अतीत के बोझ को हटा देने के लिए कल कुछ बातें की हैं। भविष्य के तनाव से मुक्त हो जाना भी उतना ही आवश्यक है। भविष्य भी बहुत बड़े तनाव की तरह मनुष्य के मन पर सदा मौजूद है। भविष्य का तनाव बहुत रूपों में हमारे मन को पकड़े है।

एक तो, हम आज जीते ही नहीं! हम सदा कल में जीते हैं! और कल में कोई भी नहीं जी सकता। जीना सदा आज है, अभी है।

एक सुबह युधिष्ठिर बैठे हैं अपने झोपड़े पर वनवास के दिनों में। और एक भिखारी ने भिक्षापात्र उनके सामने फैलाया है। युधिष्ठिर ने कहाः कल! कल ले लेना, कल आ जाना, कल दूंगा! Continue reading “संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-04)”

संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-(विपरीत ध्रुवों का समन्वय संगीत)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि यदि मेरे कहे अनुसार प्रत्येक व्यक्ति निष्क्रिय ध्यान में चला जाए तब तो दुनिया का काम बंद हो जाएगा। तब तो सारी क्रियाएं बंद हो जाएंगी, तब तो बहुत असुविधा होगी?

 

इस संबंध में पहली तो बात यह समझ लेनी जरूरी है कि क्रिया उतनी ही सफल और कुशल होती है, जितना व्यक्ति अक्रिया में होता है। अक्रिया में जाने से क्रियाएं बंद नहीं होतीं, सिर्फ कर्ता मिट जाता है। क्रियाएं तो जारी रहती हैं, सिर्फ यह भाव मिट जाता है कि मैं करने वाला हूं। और इस भाव के मिटने से दुनिया में असुविधा नहीं होगी, बहुत सुविधा होगी। इसी भाव के कारण दुनिया में बहुत असुविधा है।

प्रत्येक को खयाल है कि मैं कर रहा हूं! कर तो हम बहुत कम रहे हैं, कत्र्ता बहुत बड़ा खड़ा कर लेते हैं! उन कर्ताओं में, उनके अहंकारों में संघर्ष होता है। दुनिया में जितनी असुविधा है, वह अहंकारों के संघर्ष से पैदा होती है।

दूसरी बात, जितनी ही भीतर शांति होगी, निष्क्रिय चित्त होगा, मौन आत्मा होगी, उतनी ही वह मौन आत्मा शक्ति का स्रोत बन जाती है। Continue reading “संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-03)”

संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(चैतन्य का द्वार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य की तरफ देखने पर एक बहुत ही आश्चर्यजनक तथ्य दिखाई पड़ता है–वह यह कि मनुष्य का पूरा व्यक्तित्व एक तनाव, एक खिंचाव, एक बोझ, एक टेंशन है। कौन सा बोझ है मनुष्य के चित्त पर, किस पत्थर के नीचे आदमी दबा है? सूरज की किरणों की तरफ देखें या वृक्षों के हरे पत्तों की तरफ या आकाश की तरफ आंखें उठाएं–कहीं कोई बोझ नहीं है, सब जगह निर्भार, कहीं कोई तनाव नहीं है। मनुष्य के मन पर एक तनाव है!

सुना है मैंने, एक तेजी से दौड़ती हुई ट्रेन के भीतर एक आदमी बैठा हुआ था। जो भी उस आदमी के करीब से निकलता था, हैरानी से और गौर से उसे देखता था। उसने काम ही ऐसा कर रखा था। वह अपना बिस्तर, अपनी पेटी अपने सिर पर रखे हुए था! कोई भी उससे पूछता कि यह क्या कर रहें हैं मित्र! वह कुछ स्वयंसेवक किस्म का आदमी था। कुछ आदमी स्वयंसेवक किस्म के होते हैं! उन्हें यह खयाल होता है कि सब कुछ स्वयं ही कर लेना है। Continue reading “संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-02)”

संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(विरामहीन अंतर्यात्रा)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा राजमहल था। आधी रात उस राजमहल में आग लग गई। आंख वाले लोग बाहर निकल गए। एक अंधा आदमी भी उस राजमहल में था। वह द्वार-द्वार टटोलने लगा, बाहर निकलने का मार्ग खोजने लगा। लेकिन सभी द्वार बंद थे, सिर्फ एक द्वार खुला था। बंद द्वारों के पास हाथ फैला कर उसने खोज-बीन की, वे बंद थे, वह आगे बढ़ गया। हर बंद द्वार पर उसने श्रम किया, लेकिन द्वार बंद था। आग बढ़ती चली गई, जीवन संकट में बढ़ता चला गया। अंततः वह उस द्वार के निकट पहुंचा जो खुला था। लेकिन दुर्भाग्य कि उस द्वार के पास उसके सिर पर खुजली आ गई। वह अपनी खुजली खुजलाने लगा और उस द्वार के आगे निकल गया। फिर बंद द्वार थे, फिर वह बंद द्वारों पर भटकने लगा। Continue reading “संभावनाओं की आहट-(प्रवचन-01)”

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