कृष्‍ण-स्‍मृति-(प्रवचन–11)

मानवीय पहलूयुक्त भगवत्ता के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 30 सितंबर, 1970;  संध्‍या, मनाली (कुल्लू)

“भगवान श्री, कृष्णा अर्थात द्रौपदी के चरित्र को लोग बड़ी गर्हित दृष्टि से देखते हैं, तथा कृष्ण का उससे वृहत अनुराग है। इस सब की चर्चा करें और आज के संदर्भ में द्रौपदी का चरित्र स्पष्ट करें।’

पुरुषों के व्यक्तित्व में जैसे कृष्ण को समझना उलझन की बात है, वैसे ही स्त्रियों के व्यक्तित्व में द्रौपदी को समझना भी उलझन की बात है। और लोगों को जो गर्हित दिखाई पड़ता है, उनके दिखाई देने में वे अपने संबंध में ज्यादा खबर देते हैं, द्रौपदी के संबंध में कम। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह हमारे संबंध में खबर होती है। हम वही देख पाते हैं, जो हम हैं। हम अपने अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख पाते हैं। Continue reading “कृष्‍ण-स्‍मृति-(प्रवचन–11)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-19)

पलटू फूला फूल–(प्रवचन–उन्‍नीसवां)

दिनांक 29 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

वृच्छा फरैं न आपको, नदी न अंचवै नीर।

परस्वारथ के कारने, संतन धरै सरीर।।

बड़े बड़ाई में भुले, छोटे हैं सिरदार।

पलटू मीठो कूप-जल, समुंद पड़ा है खार।।

हिरदे में तो कुटिल है, बोलै वचन रसाल।

पलटू वह केहि काम का, ज्यों नारुन-फल लाल।।

सब तीरथ में खोजिया, गहरी बुड़की मार।

पलटू जल के बीच में, किन पाया करतार।।

पलटू जहवां दो अमल, रैयत होय उजाड़।

इक घर में दस देवता, क्योंकर बसै बजार।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-19)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-18)

कस्मै देवाय हविषा विधेम—(प्रवचन—अट्ठारवां)

दिनांक 28 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार

।–कविता को एक नई विधा, एक नया आयाम देने वाले श्री गिरजाकुमार माथुर, मेरे गांव अशोकनगर के निवासी हैं। इन दिनों भी वहीं रहते हैं। आप में उनकी रुचि है। कुछ किताबें भी पढ़ी हैं, टेप-प्रवचन में भी रुचि दिखाते हैं। कहते हैं–एक बार साक्षात्कार की उत्सुकता तो है, परंतु उनका व्यक्तित्व विवादास्पद होने के कारण घबड़ाता हूं। उचित समझें तो कुछ कहने की कृपा करें।

2—जीवन इतना उलटा-उलटा क्यों मालूम होता है? सभी कुछ अस्तव्यस्त है।

इसमें परमात्मा की क्या मर्जी है?

3—कोई दस हजार वर्ष पहले वेद के ऋषियों ने एक प्रश्न पूछा था–कस्मै देवाय हविषा विधेम? हम किस देव की स्तुति व उपासना करें? क्या यह प्रश्न आज भी प्रासंगिक नहीं है? क्या इस पर पुनः कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-18)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-17)

कारज धीरे होत है—(प्रवचन—सत्ररहवां)

दिनांक 27 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

सोई सिपाही मरद है, जग में पलटूदास।

मन मारै सिर गिरि पड़ै, तन की करै न आस।।

ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।

करत करावत आपु है, पलटू पलटू सोर।।

पलटू हरिजन मिलन को, चलि जइए इक धाप।

हरिजन आए घर महैं, तो आए हरि आप।।

वृच्छा बड़ परस्वारथी, फरैं और के काज।

भवसागर के तरन को, पलटू संत जहाज।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-17)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-16)

एस धम्मो सनंतनो—(प्रवचन—सोलहवां)

दिनांक 26 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार :

1—मैं निपट अज्ञानी! जब भी आंख बंद की, महा-अंधकार ही दिखता है। क्या कभी प्रकाश की किरण भी पा सकूंगा?

2—आप कहते हैं कि कवि ऋषि के निकट है, लेकिन बड़ा आश्चर्य होता है कि इतने संवेदनशील हृदय वाले कवि-कलाकार भी, जो कि जीवन में सत्यम् शिवम् सुंदरम् की तलाश में निकले हैं, वे भी यहां आने से कतराते हैं! आप कहते हैं कि ध्यान संवेदनशीलता को और गहरा करता है। फिर इन कवि-कलाकारों का भय क्या है? क्या ध्यान और सृजन साथ-साथ संभव नहीं हैं?

3—मैं जब भी पूना आता था, पूज्य दद्दाजी का अनंत स्नेह मुझ पर बरसता था। वे चले गए। और आप भी जब प्रवचन और दर्शन से उठ कर वापस जाते हैं तो हृदय में टीस सी उठती है कि कहीं अगर इस सदगुरु का साथ छूट गया तो फिर हमारा क्या होगा? ऐसे बुद्ध सदगुरु तो सदियों में मिलते हैं। हम संन्यासियों पर फिर यह अमृत-वर्षा कौन करेगा? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-16)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-15)

मूरख अबहूं चेत—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक 25 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

संत संत सब बड़े हैं, पलटू कोउ न छोट।

आतम दरसी मिहीं है, और चाउर सब मोट।।

पलटू ऐना संत है, सब देखैं तेहि माहिं।

टेढ़ सोझ मुंह आपना, ऐना टेढ़ा नाहिं।।

पलटू यहि संसार में, कोऊ नाहीं हीत।

सोऊ बैरी होत है, जाकौ दीजै प्रीत।।

जो दिन गया सो जान दे, मूरख अबहूं चेत।

कहता पलटूदास है, करिले हरि से हेत।।

पलटू नरत्तन जातु है, सुंदर सुभग सरीर।

सेवा कीजै साध की, भजि लीजै रघुवीर।।

पलटू ऐसी प्रीति करूं, ज्यों मजीठ को रंग।

टूक-टूक कपड़ा उड़ै, रंग न छोड़ै संग।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-15)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-14)

अपना है क्या—लुटाओ—(प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक 24 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार :

1—संसार में संसार का न होकर रहना ही संन्यास है। मुझे यह असंभव सा क्यों लगता है?

2–पूज्य दद्दाजी मुझे बचपन से ही अपना जान कर, उन्मुक्त स्नेह और प्रेरणा देते रहे हैं। ढेर सारी स्मृतियों के बीच उनका सबके प्रति अपनापन, बालवत प्रेम, सब कुछ लुटा देने की तत्परता और सारे वातावरण को आनंद से भर देने वाला रूप मेरे भीतर भरता गया, भरता गया। वे मुझसे रोज किसी न किसी बहाने कहते थे: अपना है क्या–लुटाओ! अपना है क्या–लुटाओ!

उनके इस प्यारे वचन का आशय कृपा करके हमें कहें।

3—आप अक्सर कहा करते हैं कि अस्तित्व को जो दोगे वही तुम पर वापस लौटेगा; प्रेम दोगे, प्रेम लौटेगा; घृणा दोगे, घृणा मिलेगी।

आप तो प्रेम की मूर्ति हैं, आप प्रेम ही हैं, प्रेम ही बांट रहे हैं; फिर भी आपको इतनी गालियां क्यों मिलती हैं? क्या उपरोक्त नियम सच नहीं है? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-14)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-13)

ध्यान है मार्ग—(प्रवचन—तेरहवां)

दिनांक 23 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

माया तू जगत पियारी, वे हमरे काम की नाहिं।

द्वारे से दूर हो लंडी रे, पइठु न घर के माहिं।।

माया आपु खड़ी भई आगे, नैनन काजर लाए।

नाचै गावै भाव बतावै, मोतिन मांग भराए।।

रोवै माया खाय पछारा, तनिक न गाफिल पाऊं।

जब देखौं तब ज्ञान ध्यान में, कैसे मारि गिराऊं।।

रिद्धि-सिद्धि दोई कनक समानी, बिस्तु डिगन को भेजा।

तीन लोक में अमल तुम्हारा, यह घर लगै न तेजा।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-13)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-12)

खाओ, पीओ और आनंद से रहो—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक 22 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

 प्रश्न—सार:

1—महाप्रयाण के कुछ दिनों पूर्व पूज्य दद्दाजी ने एक रात चर्चा करते हुए बताया कि वही है, और उसके अलावा कुछ और नहीं।

यह पूछने पर कि संसार को चलाने वाला कौन है? वे बोले, कोई नहीं। सब अपने आप चल रहा है। जो हो रहा है वह हो रहा है। कोई कुछ कर नहीं रहा है; सब हो रहा है।

कर्म के सिद्धांत से संबंधित प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा, वह सब बकवास है।

हमने पूछा, फिर हम क्या करें? वे बोले—खाओ, पीओ और आनंद से रहो। बस, इसके सिवाय संसार में कुछ और नहीं है।

कृपया उनकी इन उपदेशनाओं पर कुछ कहें।

2—धन और पद के संबंध में आपके क्या विचार हैं? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-12)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-11)

मन बनिया बान न छोड़ै—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 21 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र:

मन बनिया बान न छोड़ै।।

पूरा बांट तरे खिसकावै, घटिया को टकटोलै।

पसंगा मांहै करि चतुराई, पूरा कबहुं न तौले।।

घर में वाके कुमति बनियाइन, सबहिन को झकझोलै।

लड़िका वाका महाहरामी, इमरित में विष घोलै।।

पांचतत्त का जामा पहिरे, एंठा-गुइंठा डोलै।

जनम-जनम का है अपराधी, कबहूं सांच न बोलै।।

जल में बनिया थल में बनिया, घट-घट बनिया बोलै। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-11)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-10)

प्रेम तुम्हारा धर्म हो—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 20 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार:

1—प्रार्थना क्या है?

2—आदरणीय दद्दाजी की मृत्यु पर आपने अपने संन्यासियों को कहा कि वे उत्सव मनाएं, नाचें। लेकिन इस उत्सव और नृत्य के होते हुए भी रह-रह कर आंसू पलकों को भिगोए दे रहे थे। दद्दाजी के चले जाने के बाद हृदय को अभी भी विश्वास नहीं कि वे चले गए हैं। लगता है कि वे यहीं हैं। उन्होंने हमें जो प्रेम दिया वह अकथ्य है।

3—देश की स्थिति रोज-रोज बिगड़ती जाती है। आप इस संबंध में कुछ क्यों नहीं कहते हैं?

4—मैं विवाह करूं या नहीं? और स्वयं की पसंदगी से करूं या कि घरवालों की इच्छा से? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-10)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-09)

चलहु सखि वहि देस—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 19 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र:

चलहु सखी वहि देस, जहवां दिवस न रजनी।।

पाप पुन्न नहिं चांद सुरज नहिं, नहीं सजन नहीं सजनी।।

धरती आग पवन नहिं पानी, नहिं सूतै नहिं जगनी।।

लोक बेद जंगल नहिं बस्ती, नहिं संग्रह नहिं त्यगनी।।

पलटूदास गुरु नहिं चेला, एक राम रम रमनी।।

चित मोरा अलसाना, अब मोसे बोलि न जाई।।

देहरी लागै परबत मोको, आंगन भया है बिदेस।

पलक उघारत जुग सम बीते, बिसरि गया संदेस।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-09)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-08)

प्रेम एकमात्र नाव है—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 18 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार :

1—आपने कहा कि गणित या ज्ञान से उपजा वैराग्य झूठा है; प्रेमजनित वैराग्य ही वैराग्य है। लेकिन प्रेम तो राग लाता है; उससे वैराग्य कैसे फलित होगा?

2—आप कहते हैं कि जीवित बुद्ध ही तारते हैं। तब यह कैसी विडंबना है कि बुद्धों को जीते जी निंदा मिलती है और मरने पर पूजा? यह कैसा विधान है?

3—मैं परम आलसी हूं। क्या मैं भी परमात्मा को पा सकता हूं? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-08)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-07)

साहिब से परदा न कीजै—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 17 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

बनत बनत बनि जाई, पड़ा रहै संत के द्वारे।।

तन मन धन सब अरपन कै कै, धका धनी के खाय।

मुरदा होय टरै नहिं टारै, लाख कहै समुझाय।

स्वान-बिरति पावै सोई खावै, रहै चरन लौ लाय।

पलटूदास काम बनि जावै, इतने पर ठहराय।।

मितऊ देहला न जगाए, निंदिया बैरिन भैली।।

की तो जागै रोगी, की चाकर की चोर।

की तो जागै संत बिरहिया, भजन गुरु कै होय।।

स्वारथ लाय सभै मिलि जागैं, बिन स्वारथ न कोय। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-07)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-06)

क्रांति की आधारशिलाएं—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 16 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार:

1—मेरा खयाल है कि आपके विचारों में, आपके दर्शन में वह सामर्थ्य है, जो इस देश को उसकी प्राचीन जड़ता और रूढ़ि से मुक्त करा कर उसे प्रगति के पथ पर आरूढ़ करा सकती है। लेकिन कठिनाई यह है कि यहां के बुद्धिवादी और पत्रकार आपको अछूत मानते हैं और आपके विचारों को व्यर्थ प्रलाप बताते हैं। इससे बड़ी निराशा होती है। कृपा कर मार्गदर्शन करें।

2—आप तो कहते हैं, हंसा तो मोती चुगै। लेकिन आज तो बात ही दूसरी है। आज का वक्त तो कहता है: हंस चुनेगा दाना घुन का, कौआ मोती खाएगा। और इसका साक्षात प्रमाण है तथाकथित पंडित-पुरोहितों को मिलने वाला आदर-सम्मान और आप जैसे मनीषी को मिलने वाली गालियां। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-06)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-05)

बैराग कठिन है—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 15 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

जनि कोई होवै बैरागी हो, बैराग कठिन है।।

जग की आसा करै न कबहूं, पानी पिवै न मांगी हो।

भूख पियास छुटै जब निंद्रा, जियत मरै तन त्यागी हो।।

जाके धर पर सीस न होवै, रहै प्रेम-लौ लागी।

पलटूदास बैराग कठिन है, दाग दाग पर दागी हो।।

अब तो मैं बैराग भरी, सोवत से मैं जागि परी।।

नैन बने गिरि के झरना ज्यों, मुख से निकरै हरी-हरी। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-05)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-04)

मौलिक धर्म—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 14 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार :

1—बुनियादी रूप से आप धर्म के प्रस्तोता हैं–वह भी मौलिक धर्म के। आप स्वयं धर्म ही मालूम पड़ते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि अभी आपका सबसे ज्यादा विरोध धर्म-समाज ही कर रहा है! दो शंकराचार्यों के वक्तव्य उसके ताजा उदाहरण हैं। क्या इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?

2—मैं बुद्ध होकर मरना नहीं चाहती; मैं बुद्ध होकर जीना चाहती हूं।

3—आप कहते हैं कि जीवन में कुछ मिलता नहीं। फिर भी जीवन से मोह छूटता क्यों नहीं? समझ में बात आती है और फिर भी समझ में नहीं आती; समझ में आते-जाते छूट जाती है, चूक जाती है। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-04)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-03)

साजन-देश को जाना—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 13 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र:

जेकरे अंगने नौरंगिया, सो कैसे सोवै हो।

लहर-लहर बहु होय, सबद सुनि रोवै हो।।

जेकर पिय परदेस, नींद नहिं आवै हो।

चौंकि-चौंकि उठै जागि, सेज नहिं भावै हो।।

रैन-दिवस मारै बान, पपीहा बोलै हो।

पिय-पिय लावै सोर, सवति होई डोलै हो।।

बिरहिन रहै अकेल, सो कैसे कै जीवै हो।

जेकरे अमी कै चाह, जहर कस पीवै हो।।

अभरन देहु बहाय, बसन धै फारौ हो। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-03)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-02)

अमृत में प्रवेश—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 12 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना।

प्रश्न-सार :

1—कोई तीस वर्ष पूर्व, जबलपुर में, किसी पंडित के मोक्ष आदि विषयों पर विवाद करने पर दद्दाजी ने कहा था कि शास्त्र और सिद्धांत की आप जानें, मैं तो अपनी जानता हूं कि यह मेरा अंतिम जन्म है।

एक और अवसर पर कार्यवश वे काशी गए थे। किसी मुनि के सत्संग में पहुंचे। दद्दाजी को अजनबी पा प्रवचन के बाद मुनि ने पूछा, आज से पूर्व आपको यहां नहीं देखा!

कहा, हां, मैं यहां का नहीं हूं।

पूछा, आप कहां से आए हैं और यहां से कहां जाएंगे?

कहा, निगोद से आया हूं और मोक्ष जाऊंगा।

पांच वर्ष पूर्व हृदय का दौरा पड़ने पर, मां को चिंतित पाकर उन्होंने कहा था, चिंता न लो। अभी पांच वर्ष मेरा जीवन शेष है।

उनकी इन उद्घोषणाओं के रहस्य पर प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

2—संत रज्जब, सुंदरो और दादू की मृत्यु की कहानी मेरे लिए बड़ी ही रोमांचक रही। परंतु मेरे गुरु और हमारे प्यारे दादा, जो मेरे मित्र भी थे, उनकी मृत्यु के समय की आंखों देखी घटना का अनुभव मेरे लिए उससे भी कहीं अधिक रोमांचकारी हुआ। इससे मेरी आंखें मधुर आंसुओं से भर जाती हैं। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-02)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-01)

पाती आई मोरे पीतम की—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 11 सितम्‍बर सन् 1979,  ओशो आश्रम पूना।

सूत्र:

पूरन ब्रह्म रहै घट में, सठ, तीरथ कानन खोजन जाई।

नैन दिए हरि—देखन को, पलटू सब में प्रभु देत दिखाई।।

कीट पतंग रहे परिपूरन, कहूं तिल एक न होत जुदा है।

ढूंढ़त अंध गरंथन में, लिखि कागद में कहूं राम लुका है।।

वृद्ध भए तन खासा, अब कब भजन करहुगे।।

बालापन बालक संग बीता, तरुन भए अभिमाना।

नखसिख सेती भई सफेदी, हरि का मरम न जाना।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-01)”

काहे होत अधीर-(संत पलटूदास)-ओशो

काहे होत अधीर—(संत पलटूदास)  ओशो

ओशो द्वारा पूना में संत पलटूदास की वाणीपर दिए गये (11—09—1979 से 30—10—1979) उन्‍नीस अमृत प्रवचनों का संकलन।)

संतों का सारा संदेश इस एक छोटी सी बात में समा जाता है कि संसार सराय है। और जिसे यह बात समझ में आ गई कि संसार सराय है, फिर इस सराय को सजाने में, संवारने में, झगड़ने में, विवाद में, प्रतिस्पर्धा में, जलन में, ईष्या में, प्रतियोगिता में—नहीं उसका समय व्यय होगा। फिर सारी शक्ति तो पंख खोल कर उस अनंत यात्रा पर निकलने लगेगी, जहां शाश्वत घर है।

पलटूदास के ये गीत तुम्हारे कानों पर पवन बन जाएं, तुम्हारी आंखों पर सूरज, तुम्हारे कानों पर पंछी के गीत—इस आशा में इन पर चर्चा होगी। यह चर्चा कोई पांडित्य की चर्चा नहीं है। यह चर्चा पलटूदास के काव्य की चर्चा नहीं है, न उनकी भाषा की। यह चर्चा तो पलटूदास के उस संदेश की चर्चा है जो सभी संतों का है; नाम ही उनके अलग हैं। Continue reading “काहे होत अधीर-(संत पलटूदास)-ओशो”

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