शून्य के पार-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा -(कर्मः सबसे बड़ा धर्म)

मेरे प्रिय आत्मन्!

कर्म-योग पर आज थोड़ी बात करनी है।

बड़ी से बड़ी भ्रांति कर्म के साथ जुड़ी है। और इस भ्रांति का जुड़ना बहुत स्वाभाविक भी है।

मनुष्य के व्यक्तित्व को दो आयामों में बांटा जा सकता है। एक आयाम है–बीइंग का, होने का, आत्मा का। और दूसरा आयाम है–डूइंग का, करने का, कर्म का। एक तो मैं हूं। और एक वह मेरा जगत है, जहां से कुछ करता हूं।

लेकिन ध्यान रहे, करने के पहले ‘होना’ जरूरी है। और यह भी खयाल में ले लेना आवश्यक है कि सब करना, ‘होने’ से निकलता है। करना से ‘होना’ नहीं निकलता। करने के पहले मेरा ‘होना’ जरूरी है। लेकिन मेरे ‘होने’ के पहले करना जरूरी नहीं है। Continue reading “शून्य के पार-(प्रवचन-04)”

शून्य के पार-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-(भक्तिः भगवान का स्वप्न-सृजन)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य के मन की बड़ी शक्ति है–भाव। लेकिन शक्ति बाहर जाने के लिए उपयोगी है, भीतर जाने के लिए बाधा। भाव के बड़े उपयोग हैं, लेकिन बड़े दुरुपयोग भी।

गहरे अर्थों में भाव का मतलब होता है–स्वप्न देखने की क्षमता। वह भावना है, जो हमारे भीतर स्वप्न निर्माण की प्रक्रिया है।

स्वप्न देखने के उपयोग हैं। स्वप्न देखने का सबसे बड़ा उपयोग तो यह है कि स्वप्न हमारी नींद को सुविधापूर्ण बनाता है, बाधा नहीं डालता। इसे थोड़ा समझना उपयोगी है। Continue reading “शून्य के पार-(प्रवचन-03)”

शून्य के पार-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(ज्ञानः मार्ग नहीं, भटकन है)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य को खंडों में तोड़ना और फिर किसी एक खंड से सत्य को जानने की कोशिश करना, अखंड सत्य को जानने का द्वार नहीं बन सकता है।

अखंड को जानना हो तो अखंड मनुष्य ही जान सकता है।

न तो कर्म से जाना जा सकता है, क्योंकि कर्म मनुष्य का एक खंड है। न ज्ञान से जाना जा सकता है, क्योंकि ज्ञान भी मनुष्य का एक खंड है। और न भाव से जाना जा सकता है, भक्ति से, क्योंकि वह भी मनुष्य का एक खंड है। Continue reading “शून्य के पार-(प्रवचन-02)”

शून्य के पार-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(कर्म, ज्ञान, भक्तिः मन के खेल

मेरे प्रिय आत्मन्!

अंधेरी रात हो तो सुबह की आशा होती है। आदमी भी एक अंधेरी रात है और उसमें भी सुबह की आशा की जा सकती है। कांटों से भरा हुआ पौधा हो तो उसमें भी फूल लगता है। आदमी भी कांटों से भरा हुआ एक पौधा है, उसमें भी फूल की आशा की जा सकती है। बीज हो तो अंकुरित हो सकता है, विकसित हो सकता है। आदमी भी एक बीज है और उसमें भी विकास के सपने देखे जा सकते हैं। Continue reading “शून्य के पार-(प्रवचन-01)”

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