धर्म की यात्रा-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(जीवन के तथ्यों से भागें नहीं)

कैसे विरोध में, कैसी जड़ता में ग्रस्त है उस संबंध में कल हमने थोड़ी सी बातें कीं। किन कारणों से मन की, मनुष्य की, पूरी संस्कृति की ये दुविधा है उस संबंध में थोड़ा सा विचार किया। दो-तीन बातें मैंने कल आपसे कहीं। पहली बात तो मैंने आपसे ये कही कि हम जब तक भी जीवन की समस्याओं को सीधा देखने में समर्थ नहीं होंगे और निरंतर पुराने समाधानों से, पुराने समाधानों, पुराने सिद्धांतों से अपने मन को जकड़े रहेंगे, तब तक कोई हल, कोई शांति, कोई आनंद या कोई सत्य का साक्षात असंभव है।

आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति इसके पहले कि जीवन सत्य की खोज में निकले, अपने मन को समाधानों और शास्त्रों से मुक्त कर ले। उनका भार मनुष्य के चित्त को ऊध्र्वगामी होने से रोकता है, इस संबंध में थोड़ा सा मैंने आपसे कहा। इन समाधानों से अटके रहने के कारण दुविधा पैदा होती है। और दूसरी बात हम अत्यधिक आदर्शवाद से भरे हों तो जीवन में पाखंड को जन्म मिलता है। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-09)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(खुद को खोने का साहस)

एक छोटी सी कहानी से मैं आज चर्चा शुरू करना चाहूंगा। अंतिम चर्चा है यह। पिछली तीन चर्चाओं में जो मैंने आपसे कहा है, जो भूमिका और जो पात्रता बनाने को कहा है, उस भूमिका के अंतिम तीन चरण आज मैं आपसे कहने को हूं, उसके पहले एक छोटी सी कहानी।

एक बहुत पुरानी कथा है। एक सम्राट का बड़ा वजीर मर गया था। उस राज्य का यह नियम था कि बड़े वजीर की खोज साधारण नहीं, बहुत कठिन थी। देश से सबसे बड़े बुद्धिमान आदमी को ही वजीर बनाया जाता था। …… बुद्धिमान आदमी की खोज में बहुत सी परीक्षाएं हुईं, बहुत सी प्रतियोगिताएं हुईं, बहुत सी प्रतिस्पर्धाएं हुईं और फिर अंतिम रूप से तीन आदमी चुने गए, उन तीनों को राजधानी बुलाया गया। वे देश के सबसे बुद्धिमान लोग थे। फिर उनकी परीक्षा हुई और उसमें से एक व्यक्ति चुना गया। और वह देश का वजीर बना । Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-08)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(समाज अनैतिक क्यों है?)

मेरे प्रिय आत्मन्!

तीन दिनों की चर्चाओं के कारण बहुत से प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। उनमें जो प्रश्न केंद्रीय हैं या जो प्रश्न बहुत-बह‏ुत लोगों ने पूछे हैं, उन पर आज अंतिम दिन मैं विचार कर सकूंगा। बहुत लोगों ने यह पूछा है कि देश में, समाज में समाज सुधारक हैं, साधु हैं, नेता हैं। वे सब तरह का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन समाज की नैतिकता सुधर नहीं रही; भ्रष्टाचार सुधर नहीं रहा, समाज का जीवन ऊपर नहीं उठ रहा। इसका क्या कारण है?

एक छोटी सी कहानी से मैं कारण समझाने की कोशिश करूं।

एक गांव में एक स्कूल में, सुबह ही सुबह स्कूल का निरीक्षण करने के लिए इंस्पेक्टर का आगमन हुआ। सुबह ही थी अभी। इंस्पेक्टर आया निरीक्षण को। स्कूल की जो सबसे बड़ी कक्षा थी उसमें वह गया। और उसने जाकर विद्यार्थियों से कहा कि मैं निरीक्षण करने आया हूं। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-07)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(जीवन के प्रेमी बनो, निंदक नहीं)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी बात की चर्चा आज मैं इस बात पर करना चाहता हूं। एक गांव था और उस गांव के द्वार पर ही अभी जब सुबह का सूरज निकलता है, एक बैलगाड़ी आकर रूकी। एक बूढ़ा उस गांव के बाहर बैठा हुआ है द्वार पर। उस बैलगाड़ी के मालिक ने गाड़ी रोक कर पूछा कि क्या इस गांव के संबंध में मुझे कुछ बता सकेंगे कि इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं उस गांव की तलाश में निकला हूं जहां के लोग अच्छे हों। क्योंकि मैं कोई नया गांव खोज रहा हूं।।बस जाने के लिए। इस गांव के लोग कैसे हैं क्या आप मुझे बता सकेंगे? मैं अच्छे लोगों की तलाश में निकला हूं, किसी अच्छे गांव की। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-06)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(स्वयं को जानना कौन चाहता है?)

अब वह कर्म-योग को भी मानने वाले लोग ऐसा समझते हैं और इस मुल्क में ढेरों उनके व्याख्याकार हैं, वे करीब-करीब ऐसे व्याख्याकार हैं जिनका कहना यह है कि कर्म करते रहो, आसक्ति मत रखो तो कर्म-योग हो जाएगा। ये बिलकुल झूठी बात है। अब मेरा कहना ये है कि कर्म में आसक्ति रखना और अनासक्ति रखना आपके बस की बात नहीं है। अगर आपको आत्म-ज्ञान थोड़ा सा है तो कर्म में अनासक्ति होगी; अगर आत्म-अज्ञान है तो कर्म में आसक्ति होगी। यानी आसक्ति रखना और न रखना आपके हाथ में नहीं है। अगर आत्म-ज्ञान की स्थिति है तो कर्म में अनासक्ति होती है और अगर आत्म-अज्ञान की स्थिति है तो कर्म में आसक्ति होती है। आप आसक्ति को अनासक्ति में नहीं बदल सकते हैं, अज्ञान को ज्ञान में बदल सकते हैं। वह मेरा मामला तो वही का वह है, वह मैं कहीं से भी कोई बात हो। मामला मेरा वही का वह है। बात मैं वही, एक ही है। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-05)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(सुख की कामना दुख लाती है)

खोज, क्या जीवन में आप पाना चाहते हैं? खयाल आया उसी संबंध में थोड़ी आपसे बातें करूंगा तो उपयोगी होगा।

मेरे देखे, जो हम पाना चाहते हैं उसे छोड़ कर और हम सब पाने के उपाय करते हैं। इसलिए जीवन में दुख और पीड़ा फलित होते हैं। जो वस्तुतः हमारी आकांक्षा है, जो हमारे बहुत गहरे प्राणों की प्यास है, उसको ही भूल कर और हम सारी चीजें खोजते हैं। और इसलिए जीवन एक वंचना सिद्ध हो जाता है। श्रम तो बहुत करते हैं और परिणाम कुछ भी उपलब्ध नहीं होता; दौड़ते बहुत हैं लेकिन कहीं पहुंचते नहीं हैं। खोदते तो बहुत हैं; पहाड़ तोड़ डालते हैं, लेकिन पानी के कोई झरने उपलब्ध नहीं होते। जीवन का कोई स्रोत नहीं मिलता है। ऐसा निष्फल श्रम से भरा हुआ हमारा जीवन है। इस पर ही थोड़ा विचार करें। इस पर ही थोड़ा विचार आपसे मैं करना चाहता हूं। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-04)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(क्या आपका जीवन सफल है?)

यह प्रश्न उठता है कि आपसे पूछूं, आपको जीवन का अनुभव हुआ है? यह प्रश्न उठता है आपसे पूछूं, आपको जीवन में आनंद का अनुभव हुआ है? यह प्रश्न उठता है आपसे पूछूं, आपको अमृत का, आलोक का।।किसी प्रकार की दिव्य और अलौकिक शांति का कोई अनुभव हुआ है? ऐसे बहुत से प्रश्न उठते हैं। लेकिन मैं उनके पूछने की हिम्मत नहीं कर पाता, क्योंकि उनका उत्तर करीब-करीब मुझे ज्ञात है।

कोई आनंद मुझे नहीं दिखाई पड़ता, कोई आलोक, कोई शांति, कोई प्रकाश, कोई जीवन में दिव्यता का बोध, न ही कोई कृतज्ञता, कोई कृतार्थता, कोई सार्थकता।।नहीं मालूम होती। इसलिए डर लगता है किसी से पूछना अशोभन न हो जाए। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-03)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(व्यक्ति की महिमा को लौटाना है)

मेरा सौभाग्य है कि थोड़ी सी बातें आपसे कह सकूंगा। विचार जैसी कोई बात देने को मेरे पास नहीं है। और विचार का मैं कोई मूल्य भी नहीं मानता। वरन विचार के कारण ही मनुष्य पीड़ित है और दुखी। आपके मन पर इतने विचार इकट्ठे हैं, आपकी चेतना इतने विचारों से दबी है और पीड़ित है और परेशान है कि मैं भी उसमें थोड़े से विचार जोड़ दूं तो आपका भार और बढ़ जाएगा, उस भार से आपको मुक्ति नहीं होगी। इसलिए विचार कोई आपको देना नहीं चाहता हूं। वरन आकांक्षा तो यही है कि किसी भांति आपके सारे विचार छीन लूं।

अगर आपके सारे विचार छीने जा सकें तो आपमें ज्ञान का जन्म हो जाएगा। यह जान कर आपको आश्चर्य होगा कि विचार अज्ञान का लक्षण है, विचार ज्ञान का लक्षण नहीं है। एक अंधे आदमी को इस भवन के बाहर जाना हो तो वह विचार करेगा कि दरवाजा कहां है? और जिसके पास आंखें हैं वह विचार नहीं करता कि दरवाजा कहां है? दरवाजा उसे दिखाई पड़ता है। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-02)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-01)

धर्म की यात्रा-(विविध)-ओशो

पहला-प्रवचन-(दूसरा कोई उत्तर नहीं दे सकता)

बहुत से प्रश्न आए हैं, बहुत से प्रश्न आए हैं। प्रश्नों का पैदा होना बड़ी अर्थपूर्ण बात है। प्रश्न पैदा होने लगें तो विचार और खोज का कारण हो जाते हैं। दुर्भाग्य तो उन्हीं लोगों का है जिनके भीतर प्रश्न पैदा ही नहीं होते, और उतना ही दुर्भाग्य नहीं है। कुछ लोग तो ऐसे हैं जिनके भीतर उत्तर इकट्ठे हो गए हैं, और प्रश्नों की अब कोई जरूरत नहीं रही। बहुत लोग ऐसे हैं जिनके भीतर उत्तर तो बहुत हैं, प्रश्न बिल्कुल नहीं हैं। और होना यह चाहिए कि उत्तर तो बिलकुल न हों, और प्रश्न रह जाएं।

लेकिन प्रश्नों का उत्तर दूं उसके पहले आपको यह कह दूं कि मेरा उत्तर, आपका उत्तर नहीं हो सकता है। इसलिए कोई इस आशा में न हो कि मैं जो उत्तर दूंगा, वह आपका उत्तर बन सकता है। प्रश्न आपका है तो उत्तर आपको खोजना होगा। प्रश्न आपका हो और उत्तर मेरा हो; तो आपके भीतर द्वंद्व, कांफ्लिक्ट पैदा होगी, आपके भीतर समाधान नहीं आएगा। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-01)”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें