रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-09)

रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर) –ओशो

नौवां प्रवचन–(मन के मंदिर में ध्यान का दीया)

आज अंतिम चर्चा है। बहुत से प्रश्न मेरे पास इकट्ठे रह गए हैं। बहुत से आज व्यक्तिगत मिलन में पूछे गए हैं। उन सभी प्रश्नों के उत्तर देना संभव नहीं होगा और जरूरी भी नहीं है। जरूरी इसलिए नहीं है कि मैंने इन तीन दिनों में जो थोड़ी सी बातें आपसे की हैं, जिसको वे बातें समझ में पड़ी होंगी, उसे मेरा जीवन को देखने का कोण, जीवन को देखने की दृष्टि समझ में आ गई होगी। जो प्रश्न नहीं मैं उत्तर दे पाऊंगा समय के अभाव के कारण, अगर मेरी दृष्टि खयाल में आ गई है, तो उन प्रश्नों के उत्तर खुद भी समझे जा सकते हैं। Continue reading “रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-09)”

रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-08)

रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)–ओशो

आठवां-प्रवचन–(आदमी की एकमात्र कमजोरी–अहंकार)

सत्य की खोज या स्वयं की खोज या परमात्मा की खोज न तो ज्ञान से होती है, न भक्ति से; क्योंकि ज्ञान भी हमारे अहंकार के केंद्र पर इकट्ठा हो जाता है और भक्ति भी। मनुष्य का अहंकार जहां है, वहां कोई संभावना सत्य के द्वार खुलने की नहीं है। और मनुष्य जो कुछ भी करेगा, वह सभी उसके अहंकार का पोषण बन जाता है। मनुष्य जो कुछ भी करेगा उस सबके पीछे, मैं कर रहा हूं, इस भावना को छोड़ना असंभव है। वह चाहे समर्पण कर दे, तो भी मैंने किया है समर्पण, यह बोध पीछे खड़ा रह जाएगा। Continue reading “रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-08)”

रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-07)

रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)-ओशो

सातवां-प्रवचन-(दूसरे पर श्रद्धा आत्म-अश्रद्धा की घोषणा है)

एक मित्र ने पूछा है: सत्संग क्या है? कैसे किया जाए?

अब तक सत्संग के केंद्र में सदगुरु, कोई संत, कोई महात्मा रहा है; सत्संग के केंद्र में गुरु रहा है; कहीं जहां सत्य मिल सके वहां जाना चाहिए, ऐसा भाव रहा है। लेकिन मेरी दृष्टि में, सत्संग के केंद्र में गुरु नहीं, वरन शिष्य ही है। यह सवाल नहीं है कि किससे आप सीखने जाएं, सवाल यही है कि क्या आपमें सीखने की क्षमता विकसित हुई? यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि आप कहां जाएं, यह महत्वपूर्ण है कि आपके भीतर सीखने का दृष्टिकोण, एटिटयूड ऑफ लघनग है या नहीं? Continue reading “रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-07)”

रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-06)

रोम-रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)-ओशो

छठवां-प्रवचन–(धर्म है आत्म-स्मरण)

ज्ञान मार्ग नहीं है। ज्ञान ही रोक लेता है, अटका लेता है। ज्ञान का बोझ मन को इतना भारी कर देता है कि फिर सत्य तक की यात्रा करनी कठिन हो जाती है। ज्ञान के तट से जिनकी नाव बंधी है, वे सत्य के सागर में यात्रा नहीं कर सकेंगे। इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल सुबह मैंने आपसे कही थीं।

स्वभावतः, यदि ज्ञान मार्ग नहीं है, तो एक दूसरा विकल्प है जो सदियों से प्रस्तुत किया गया है। Continue reading “रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-06)”

रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-05)

रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर) –ओशो

पांचवां प्रवचन–(आध्यात्मिक विकास में चरित्र का स्थान)

किसी मित्र ने पूछा है: वैयक्तिक आध्यात्मिक विकास में चरित्र का कोई स्थान है या नहीं?

किसी और ने भी पूछा है कि ज्ञान छोड़ देना पड़ेगा, भक्ति छोड़ देनी पड़ेगी, तब भी नैतिकता को तो पकड़ना होगा, आचरण को तो पकड़ना होगा!

एक और मित्र ने भी, नीति और धर्म का क्या संबंध है, इस संबंध में पूछा है। Continue reading “रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-05)”

रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-04)

रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)–ओशो

चौथा प्रवचन–(झूठे धर्मों की विदाई–सच्चे धर्म का जन्म)

एक मित्र ने पूछा है कि क्या सभी धर्मों के समन्वय से वास्तविक धर्म का जन्म नहीं हो सकता है? क्या हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, सिक्ख, और सभी धर्म इकट्ठे हो जाएं और इन सब धर्मों के बीच कोई समन्वय, कोई सिंथीसिस खोजी जा सके? तो क्या वह सच्चा धर्म नहीं होगा?

एक छोटी सी कहानी कहूं और फिर इस संबंध में कुछ कहूंगा। Continue reading “रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-04)”

रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-03)

रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)–ओशो

तीसरा प्रवचन–(बच्चों को विश्वास नहीं, जिज्ञासा सिखाएं)

मेरे प्रिय आत्मन्!

क्या बच्चों को न बताएं कि ईश्वर है? क्या धर्म के संबंध में उन्हें कुछ भी न कहें? आत्मा के लिए कोई उन्हें विश्वास न दें? ऐसे कुछ प्रश्न पूछे हैं।

जिसे हम नहीं जानते हैं, उसे हम देना भी चाहेंगे तो क्या दे सकेंगे? और जो हमें ही ज्ञात नहीं है, क्या उस बात की शिक्षा, हमारे संबंध में, बच्चे के मन में आदर पैदा करेगी? क्या यह असत्य की शुरुआत न होगी? और क्या असत्य पर भी ईश्वर का ज्ञान कभी खड़ा हो सकता है? और क्या असत्य के ऊपर हम सोच सकते हैं कि बच्चा कभी धार्मिक हो जाएगा? Continue reading “रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-03)”

रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-02)

रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)–ओशो

दूसरा– प्रवचन-(अज्ञान का बोध)

एक बड़ी राजधानी में राजा की चोरी हो गई थी। सिपाही खोज-खोज कर थक गए थे और चोरी न पकड़ी जा सकी थी। जैसा कि अक्सर ही होता है, चोर हमेशा सिपाही से ज्यादा होशियार साबित होते हैं, वह चोर भी ज्यादा होशियार साबित हुआ। राजा परेशान हो गया, कुछ जरूरी चीज चोरी में चली गई थी, उसका वापस लौटना आवश्यक था। किसी वृद्ध ने कहा कि गांव में एक आदमी है, जो सभी कुछ जानता है। Continue reading “रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-02)”

रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-01)

रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर) ओशो

पहला प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी घटना से आज की बात मैं आपसे कहना चाहूंगा।

एक बहुत बड़े सम्राट की मृत्यु हो गई थी। उसकी अरथी निकाली जा रही थी। लाखों लोग उस अरथी को देखने रास्तों पर इकट्ठे हुए थे। एक बड़ी अजीब बात थी, अरथी के बाहर दोनों हाथ बाहर निकले हुए थे। जो भी देखा उसी के मन में प्रश्न उठा, ऐसी अरथी तो कभी देखी नहीं गई जिसमें लाश के हाथ दोनों बाहर हों। और कोई साधारण आदमी भी नहीं मरा था, एक सम्राट की मृत्यु हो गई थी। हर कोई पूछने लगा, क्या बात है? अरथी के बाहर हाथ क्यों निकले हुए हैं? Continue reading “रोम रोम रस पीजिए-(प्रवचन-01)”

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