शून्य समाधि-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(अनौपचारिक दृष्टि)

मेरे प्रिय आत्मन्!

बीते तीन दिनों में जीवन के तीन सूत्रों पर हमने विचार किया।

आश्चर्य, आनंद और अद्वैत। आज अंतिम सूत्र पर सुबह हमने बात की है। उस संबंध में जो प्रश्न पूछे गए हैं, उन पर अभी हम विचार करेंगे।

कुछ मित्रों ने पूछा है कि अद्वैत भाव की सिद्धि के लिए किस भांति चित्त को निर्दिष्ट किया जाए, किस भांति, किस मार्ग पर जीवन को गतिमान किया जाए? अद्वैत कैसे फलित हो सकता है?

 

इस संबंध में कुछ बात समझ लेनी उपयोगी होगी। पहली बातः अद्वैत की उपलब्धि कोई फिलॅासफी, कोई तत्वज्ञान की उपलब्धि नहीं है। इसलिए घर में बैठ कर वेदांत और तत्वदर्शन के शास्त्रों को पढ़ लेने से उस दिशा में कोई भी कदम नहीं उठता है, न उठ सकता है। अद्वैत की उपलब्धि तो एक विशिष्ट अनुभव की दिशा में, अनुभूति की दिशा में, जीवंत अनुभूति की दिशा में चलने से संभव हो सकती है। उस जीवंत अनुभूति की तरफ पहला चरण होगा..क्या होगा पहला चरण? कैसा होगा? कैसे हम पहली सीमा तोड़ेंगे द्वैत की और अद्वैत की तरफ बढ़ेंगे? Continue reading “शून्य समाधि-(प्रवचन-05)”

शून्य समाधि-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन-(जीवन एक अनंत निरंतरता है)

मेरे प्रिय आत्मन्!

पहले दिवस की चर्चा में विस्मय-विमुग्धता पर, पहले सूत्र पर हमने विचार किया था। कल बीते दिन की चर्चा में आनंद-विभोर होने के सूत्र पर, दूसरे सूत्र पर हमने बात की थी। और आज तीसरे सूत्रः अभेद-भाव या अद्वैत पर, तीसरे सूत्र पर बात करेंगे।

जिसके चित्त की भूमिका विस्मय से प्रारंभ होती है, आनंद के लोक को पार करती है, वह सहज ही अद्वैत के जगत में प्रविष्ठित हो जाता है। लेकिन जिसने पहले दो सूत्रों पर कोई ध्यान न दिया हो, उसे तीसरी बात समझ में आनी कठिन हो सकती है।

एक आदमी ने एक पक्षी को, एक बूढ़े पक्षी को एक जंगल में पकड़ लिया था। उस बूढ़े पक्षी ने कहा: मैं किसी भी तो काम का नहीं हूं, देह मेरी जीर्ण-जर्जर हो गई, जीवन मेरा समाप्त होने के करीब है, न मैं गीत गा सकता हूं, न मेरी वाणी में मधुरता है, मुझे पकड़ कर करोगे भी क्या? लेकिन यदि तुम मुझे छोड़ने को राजी हो जाओ, तो मैं जीवन के संबंध में तीन सूत्र तुम्हें बता सकता हूं। Continue reading “शून्य समाधि-(प्रवचन-04)”

शून्य समाधि-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-(जीवन में तीव्रता)

मेरे प्रिय आत्मन्!

जीवन-साधना के दूसरे सूत्र ‘आनंद-भाव’ पर आज सुबह हमने बात की। उस संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। उन पर अभी हम विचार करेंगे।

एक मित्र ने पूछा है: कि मैंने आनंद-भाव के लिए समझाते समय यह कहा कि आज तक की परंपरा की दृष्टि दुख की रही है। क्या सारी परंपरा ही गलत है? उन्होंने ऐसा पूछा है।

 

परंपरा गलत है या सही, यह बहुत जरूरी सवाल नहीं है, जरूरी सवाल यह है कि परंपरा को पकड़ने वाले लोग गलत होते हैं या सही? परंपरा को पकड़ लेने की, क्लिंगिंग की जो आदत है, वह गलत है। उससे व्यक्ति निज के अनुभव और सत्य को कभी भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। मुझसे पहले, आपसे पहले, हजारों वर्षों में हजारों लोगों ने प्रेम किया है। लेकिन जब मैं या आप प्रेम करने की यात्रा पर गतिमान होते हैं, तो प्रेमियों की परंपरा से हम क्या सीखते हैं? कुछ भी नहीं सीखते हैं। उन प्रेमियों के शब्दों को सीखते हैं? उन प्रेमियों के गीतों को सीखते हैं? उन प्रेमियों से हम क्या सीखते हैं? कुछ भी नहीं। हमारे प्रेम का अपना ही आविर्भाव होता है। Continue reading “शून्य समाधि-(प्रवचन-03)”

शून्य समाधि-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(जीवन में आनंद की खोज)

मेरे प्रिय आत्मन्!

कल सुबह और सांझ की चर्चा में प्रभु के द्वार की पहली सीढ़ी पर हमने बात की। उस पहली सीढ़ी को मैंने विस्मय का भाव कहा। ज्ञान की जड़ता नहीं, विस्मय की तरलता चाहिए। ज्ञान का बोझ नहीं, विस्मय की निर्बोझ चित्त-दशा चाहिए। ज्ञान का अहंकार नहीं, विस्मय की निर्दोष सरलता चाहिए। इस संबंध में कल मैंने आपसे बात की। आज दूसरे सूत्र पर मुझे आपसे बात करनी है।

एक छोटी सी कहानी से मैं उसे शुरू करना चाहूंगा। Continue reading “शून्य समाधि-(प्रवचन-02)”

शून्य समाधि-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(विस्मय का भाव)

मेरे प्रिय आत्मन्!

सुबह की चर्चा में जीवन के सत्य की ओर मनुष्य का कदम उठ सकेगा, इसके पहले सूत्र की हमने बात की है। उस संबंध में एक मित्र ने पूछा है कि मैं विस्मय को, आश्चर्य को, क्यों पहली सी.ढ़ी मानता हूं?

इसलिए पहली सीढ़ी मानता हूं, इसलिए पहला सूत्र मानता हूं, क्योंकि जो विस्मय-विमुग्ध हो जाता है उसकी विस्मय-विमुग्धता, उसके आश्चर्य का भाव सारे जगत को एक रहस्य में, एक मिस्ट्री में परिणित कर देता है। भीतर विस्मय है, तो बाहर रहस्य उत्पन्न हो जाता है। भीतर रहस्य न हो, भीतर विस्मय न हो, तो बाहर रहस्य के उत्पन्न होने की कोई संभावना नहीं है। जो भीतर विस्मय है, वही बाहर रहस्य है। और जिसके प्राणों में रहस्य की जितनी प्रतिछवि अंकित होती है, वह उतना ही परमात्मा के निकट पहुंच जाता है। लोग कहते हैं, परमात्मा एक रहस्य है। और मैं आपसे कहना चाहूंगा, जहां रहस्य है वहीं परमात्मा है। रहस्य ही परमात्मा है। वह जो मिस्टीरियस है, वह जो जीवन में अबूझ है, वह जो जीवन में अव्याख्य है, वह जिसे जीवन में समझाना और समझना असंभव है, जो बुद्धि की समस्त सीमाओं को पार करके, बुद्धि की समस्त सामथ्र्य से दूर रह जाता है, अतीत रह जाता है, वह जो ट्रांसेडेंटल है, वह जो भावातीत है, वही प्रभु है। Continue reading “शून्य समाधि-(प्रवचन-01)”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें