बहुतेरे हैं घाट-(प्रवचन-04) 

चौथा प्रवचन

अंतिम स्वर्ण सोपान: परम मौन

पहला प्रश्नः

न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः

वृद्धाः न ते ये न वदन्ति धर्मम्।

नासो धर्मो यत्र न सत्यमस्ति

न तत्सत्यं यच्छलेलानुविद्धम्।।

‘जिसमें वृद्ध नहीं हैं वह सभा नहीं है; जो धर्म को नहीं बतलाते वे वृद्ध नहीं हैं।

 जिसमें सत्य नहीं है वह धर्म नहीं है; जिसमें छल मिला हुआ है वह सत्य नहीं है।’

महाभारत के इस सुभाषित पर कुछ कहने की कृपा करें।

 

सहजानंद, वृद्ध होना तो बहुत आसान है। कुछ न करो तो भी वृद्ध हो ही जाओगे। अधार्मिक भी वृद्ध हो जाता है, धार्मिक भी वृद्ध हो जाता है; पापी भी, पुण्यात्मा भी; साधु भी, असाधु भी। वृद्ध होना कोई कला नहीं है। पशु-पक्षी भी वृद्ध होते हैं, वृक्ष भी वृद्ध होते हैं, पहाड़-पर्वत भी वृद्ध होते हैं। Continue reading “बहुतेरे हैं घाट-(प्रवचन-04) “

बहुतेरे हैं घाट-(प्रवचन-03) 

तीसरा प्रवचन

रसो वै सः की धूम

प्रश्न:

पहला प्रश्नः कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः।

उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन्।।

चरैवेति। चरैवेति।।

‘जो सो रहा है वह कलि है, निद्रा से उठ बैठने वाला द्वापर है,

उठ कर खड़ा हो जाने वाला त्रेता है, लेकिन जो चल पड़ता है

वह कृतयुग, सतयुग, स्वर्ण-युग बन जाता है।

इसलिए चलते रहो, चलते रहो।’

ऐतरेय ब्राह्मण के इस सुभाषित का अभिप्राय समझाने का अनुग्रह करें।

 

नित्यानंद, यह सूत्र मेरे अत्यंत प्यारे सूत्रों में से एक है। जैसे मैंने ही कहा हो। मेरे प्राणों की झनकार है इसमें। सौ प्रतिशत मैं इससे राजी हूं। इस सूत्र के अतिरिक्त सतयुग की, द्वापर की, त्रेता की, कलियुग की जो भी परिभाषाएं शास्त्रों में की गईं, सभी गलत हैं। यह अकेला सूत्र है जो सम्यक दिशा में इशारा करता है। Continue reading “बहुतेरे हैं घाट-(प्रवचन-03) “

बहुतेरे हैं घाट-(प्रवचन-02) 

दूसरा प्रवचन

प्रेम : ध्यान की ज्योति

पहला प्रश्न :

अथ यदि वे कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्,

ये तत्र ब्राह्मणाः संदर्शिनो युक्ता आयुक्ता अलूसा धर्मकामाः स्युः,

यथा ते तक्र वर्तेरन तथा तत्र वर्तेथाः।।

‘यदि कभी आपको अपने कर्म या आचरण के संबंध में

संदेह उपस्थित हो तो जो विचारशील, तपस्वी,

कर्तव्यपरायण, शांत स्वभाव, धर्मात्मा विद्वान हों, उनकी

सेवा में उपस्थित होकर अपना समाधान करिए और

उनके आचरण और उपदेश का अनुसरण कीजिए।’

तैत्तरीय उपनिषद की इस सूक्ति पर प्रकाश डालने की अनुकंपा करें। Continue reading “बहुतेरे हैं घाट-(प्रवचन-02) “

बहुतेरे हैं घाट-(प्रवचन-01) 

बहुतेरे हैं घाट-(प्रश्नोत्तर)

पहला प्रवचन

सत्संग : हृदय का हृदय से मौन मिलन

 

पहला प्रश्नः आज आपके संबोधि दिवस उत्सव पर एक नयी प्रवचनमाला प्रारंभ हो रही हैः बहुतेरे हैं घाट। संत पलटू के इस सूत्र को हमें समझाने की अनुकंपा करेंः जैसे नदी एक है, बहुतेरे हैं घाट।

 

आनंद दिव्या, मनुष्य का मन मनुष्य के भीतर भेद का सूत्र है। जब तक मन है तब तक भेद है। मन एक नहीं, अनेक है। मन के पार गए कि अनेक के पार गए। जैसे ही मन छूटा, विचार छूटे, वैसे ही भेद गया, द्वैत गया, दुई गई, दुविधा गई। फिर जोशेष रह जाता है वह अभिव्यक्ति योग्य भी नहीं है। क्योंकि अभिव्यक्ति भी विचार में करनी होगी। विचार में आते ही फिर खंडित हो जाएगा। मन के पार अखंड का साम्राज्य है। मन के पार ‘मैं’ नहीं है, ‘तू’ नहीं है। मन के पार हिंदू नहीं है, मुसलमान नहीं है, ईसाई नहीं है। मन के पार अमृत है, भगवत्ता है, सत्य है। और उसका स्वाद एक है। Continue reading “बहुतेरे हैं घाट-(प्रवचन-01) “

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