सातवां-प्रवचन-(धर्म मनुष्य-केंद्रित हो)
हजारों वर्षों से धर्म के नाम पर खोज चलती है। किसकी खोज चलती है? परमात्मा की खोज चलती है, मोक्ष की खोज चलती है, लेकिन हजारों साल के बाद भी न तो परमात्मा का कोई पता है, न आत्मा का कोई पता है, न मोक्ष का कोई पता। मेरे देखे यह खोज ही गलत हो गई। यह खोज वैसे ही गलत हो गई है जैसे कोई अंधा आदमी प्रकाश की खोज करे। यह खोज इसलिए गलत नहीं हो गई है कि प्रकाश नहीं है। प्रकाश तो है, लेकिन अंधा आदमी प्रकाश की खोज कैसे करे? और अंधा आदमी अगर प्रकाश की खोज में पड़ जाए, तो एक बात निश्चित है कि अंधे को प्रकाश नहीं मिल सकता है। अंधे आदमी को प्रकाश की बात ही नहीं करनी चाहिए। अंधे आदमी को आंख की खोज करनी चाहिए। आंख होगी तो प्रकाश होगा, आंखें नहीं होंगी तो प्रकाश नहीं होगा। प्रकाश हो और आंख न हो तो भी प्रकाश नहीं है। धर्म की खोज को ईश्वर की दिशा में लगाने से ही धर्म जगत में विकसित नहीं हो पाया। असली सवाल ईश्वर नहीं है, असली सवाल मनुष्य है। मनुष्य की खोज धर्म का आधार बनानी चाहिए। जिस दिन मनुष्य अपने को खोज लेता है, जिस दिन मनुष्य अपने को जान लेता है, उस दिन ईश्वर अनजाना नहीं रह जाता है। उस दिन मोक्ष भी अपनाया नहीं रह जाता। धर्म का केंद्र मनुष्य होना चाहिए, ईश्वर नहीं। Continue reading “घाट भुलाना बाट बिनु-(प्रवचन-07)”