प्रवचन पांचवां-(प्रेम के पंख)
सत्य को या परमात्मा को जानना कोई बौद्धिक ऊहापोह, कोई विचार मात्र करने की बात नहीं है, वरन वे ही व्यक्ति सत्य से परिचित हो पाते हैं, जो अपने भीतर सत्य को ग्रहण करने की क्षमता, पात्रता या ग्राहकता पैदा कर लेते हैं। हम केवल उतने ही अर्थों में जानते हैं, जितनी जानने की क्षमता हममें पैदा होती है और इसलिए स्मरण रखें कि जो हमारा ज्ञान है, वही सत्य की सीमा कभी भी नहीं है। हमारे ज्ञान से सत्य हमेशा बड़ा है। क्यों? क्योंकि जितना हम जानते हैं, उससे बहुत ज्यादा जानने को सदा शेष है। जो हमारा ज्ञान है, वही सत्य नहीं है। सत्य हमारे ज्ञान से सदा बड़ा है। क्यों? क्योंकि हमारी जानने की क्षमता पूर्ण नहीं है। वह मनुष्य जो अपने ज्ञान को ही सत्य की सीमा समझ लेता है, रुक जाता है, ठहर जाता है। संसार में भी जो हम जानते हैं, वह हमारी इंद्रियों के द्वारा सीमित है। यदि किसी व्यक्ति के पास आंख न हो, तो उसे इस जगत में प्रकाश जैसी कोई भी चीज नहीं होगी। अगर एक ऐसा समाज हो अंधों का, जहां किसी के पास आंख न हो, तो उस समाज के भीतर प्रकाश के संबंध में कोई धारणा नही होगी। Continue reading “सत्य का अन्वेषण-(प्रवचन-05)”