नये समाज की खोज-(प्रवचन-03)

जीवन-क्रांति का प्रारंभः  -(प्रवचन-तीसरा)

भय के साक्षात्कार से

मेरे प्रिय आत्मन्!

“नये समाज की खोज’, इस संबंध में तीन सूत्रों पर मैंने बात की है। आज चौथे सूत्र पर बात करूंगा और पीछे कुछ प्रश्नों के उत्तर।

मनुष्य का मन आज तक भय के ऊपर निर्मित किया गया है। सारी संस्कृति, सारा धर्म, जीवन के सारे मूल्य भय के ऊपर खड़े हुए हैं। जिसे हम भगवान कहते हैं, वह भी भगवान नहीं है, वह भी हमारे भय का ही भवन है। है कहीं कोई भगवान, लेकिन उसे पाने के लिए भय रास्ता नहीं है। उसे पाना हो तो भय से मुक्त हो जाना जरूरी है।

भय जीवन में जहर का असर करता है, विषाक्त कर देता है सब। लेकिन अब तक आदमी को डरा कर ही हमने ठीक करने की कोशिश की थी। आदमी तो ठीक नहीं हुआ, सिर्फ डर गया है। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-03)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-02)

नये समाज की खोज -(प्रवचन-दूसरा)

सुख की नींव पर

मेरे प्रिय आत्मन्!

“नये समाज की खोज,’ इस संबंध में तीसरे सूत्र के बाबत पहले कुछ कहूंगा। पीछे आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा।

आज तक मनुष्य-जाति क्षणिक का विरोध करती रही है और शाश्वत को आमंत्रण देती रही है, क्षुद्र का विरोध करती रही है और विराट को पुकारती रही है। और जीवन का आश्चर्य यह है कि जो विराट है वह क्षुद्र में मौजूद है और जो शाश्वत है वह क्षणिक में निवास करता है। क्षणिक के विरोध ने क्षणिक को भी नष्ट कर दिया है और शाश्वत को भी निकट नहीं आने दिया है। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-02)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-01)

नये समाज की खोज-(प्रवचन-पहला)

का आधार : नया मनुष्य

मेरे प्रिय आत्मन्!

“नये समाज की खोज’ नयी खोज नहीं है, शायद इससे ज्यादा कोई पुरानी खोज न होगी। जब से आदमी है तब से नये की खोज कर रहा है। लेकिन हर बार खोजा जाता है नया, और जो मिलता है वह पुराना ही सिद्ध होता है। क्रांति होती है, परिवर्तन होता है, लेकिन फिर जो निकलता है वह पुराना ही निकलता है। शायद इससे बड़ा कोई आश्चर्यजनक, इससे बड़ी कोई अदभुत घटना नहीं है कि मनुष्य की अब तक की सारी क्रांतियां असफल हो गई हैं। समाज पुराना का पुराना है। सब तरह के उपाय किए गए हैं, और समाज नया नहीं हो पाता। समाज क्यों पुराना का पुराना रह जाता है? नये समाज की खोज पूरी क्यों नहीं हो पाती? Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-01)”

नये भारत की खोज-(प्रवचन-08)

नये भारत की खोज-(आठवां प्रवचन)

अच्छे लोग और अहित

प्रश्नकर्ताः आप जो विस्फोटक बातें देश के जीवन और गांधी जी के संबंध में कह रहे हैं, उससे तो लोग आपसे दूर चले जाएंगे।

उत्तरः मैं इसके लिए जरा भी ध्यान नहीं रखता हूं कि लोग मेरे करीब आएंगे या मुझसे दूर जाएंगे। वह मेरा प्रयोजन भी नहीं है। जो ठीक है और सच है, उतना ही मैं कहना चाहता हूं। सत्य का क्या परिणाम होगा, इसकी मुझे जरा भी चिंता नहीं है। अगर वह सत्य है तो लोगों को उसके साथ आना पडेगा, चाहे वह आज दूर जाते हुए मालूम पडे। और लोग पास आएं इसलिए मैं असत्य नहीं बोल सकता हूं। फिर, सत्य जब भी बोला जाएगा, तभी प्राथमिक परिणाम उसका यही होगा कि लोग भागेंगे। क्योंकि हजारों वर्ष से जिस धारणा में वे पले हैं, उस पर चोट पडेगी। सत्य का हमेशा ही यही परिणाम हुआ है। सत्य हमेशा डेवेस्टेटिंग है, एक अर्थों में..कि वह जो हमारी धारणा है, उसको तो तोड डालो। और अगर धारणा तोडने से हम बचना चाहें, तो हम सत्य नहीं बोल सकते। जान कर मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाह रहा हूं, डेलिब्रेटलि मैं किसी को चोट पहुंचाना नहीं चाहता हूं। लेकिन सत्य जितनी चोट पहुंचाता है, उसमें मैं असमर्थ हूं, उतनी चोट पहुंचेगी; उसको बचा भी नहीं सकता। फिर मैं कोई राजनितिक नेता नहीं हूं कि इसकी फिकर करूं कि लोग मेरे पास आएं। कि मैं इसकी फिकर करूं कि पब्लिक ओपीनियन क्या है? Continue reading “नये भारत की खोज-(प्रवचन-08)”

नये भारत की खोज-(प्रवचन-07)

नये भारत की खोज-(सातवां प्रवचन)

६ मई १९६९, पूना)

…इसमें कोई श्रद्धा-विश्वास की जरूरत नहीं, मैं पांच मील चल सकता हूं। होना चाहिए कि मैं एक घंटे में पांच मील चल सकता हूं। इसमें कोई श्रद्धा-विश्वास की जरूरत नहीं, मैं पांच मील चल सकता हूं। मुझे अपनी शक्तियों का ज्ञान होना चाहिए। और मैं विश्वास करूं कि मैं पच्चीस मील चल सकता हूं, तो मरूंगा, झंझट में पडूंगा। जबरदस्ती कर लिया तो झंझट में पड़े, क्योंकि वह सीमा के बाहर हो जाएगा। और कम किया तो भी नुकसान में पड़ जाएंगे, क्योंकि वह सीमा के नीचे हो जाएगा।

इसलिए मैं कहता हूं, आत्मज्ञान होना चाहिए हमें अपनी सारी शक्तियों का। हम क्या कर सकते हैं, क्या नहीं कर सकते हैं, वह सबका हमें पता होना चाहिए। और उस पता होने पर, उस ज्ञान के होने पर, हम उसके अनुसार जीते हैं। आत्मज्ञान होना चाहिए और आत्मज्ञान अपने आप श्रद्धा बन जाता है। जो आदमी जानता है, मैं पांच मील चल सकता हूं, वह पांच मील चलने के लिए हमेशा तैयार है, उसे कोई भय नहीं है इसका। लेकिन होता क्या है, होता क्या Continue reading “नये भारत की खोज-(प्रवचन-07)”

नये भारत की खोज-(प्रवचन-06)

नये समाज की खोज-प्रवचन-छठवां

छठवां प्रवचन (६ मई १९६९, पूना, रात्रि)

हिंसक राजनीतिज्ञ

इन तीन दिनों की चर्चाओं के आधार पर बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि क्या सारा अतीत ही गलत था, क्या सारा अतीत ही छोड़ देने योग्य है? क्या अतीत में कुछ भी अच्छा नहीं है?

इस संबंध में दोत्तीन बातें समझ लेनी चाहिए।

पहली बात, पिता मर जाते हैं, हम उन्हें इसलिए नहीं दफनाते हैं कि वे बुरे थे, इसलिए दफनाते हैं कि वे मर गए हैं। और कोई भी यह कहने नहीं आता कि पिता बहुत अच्छे थे, तो उन्हें दफनाना नहीं चाहिए, उनकी मरी हुई लाश को भी घर में रखना जरूरी है। अतीत का अर्थ है: जो मर गया, जो अब नहीं है। लेकिन मानसिक रूप से हम अतीत की लाशों को अपने सिर पर ढो रहे हैं। उन लाशों से दुर्गंध भी पैदा होती है, वे सड़ती भी हैं। और उन लाशों के बोझ के कारण नये का जन्म असंभव और कठिन हो जाता है। अगर किसी घर के लोग ऐसा तय कर लें कि जो भी मर Continue reading “नये भारत की खोज-(प्रवचन-06)”

नये भारत की खोज-(प्रवचन-05)

नये भारत की खोज-(पांचवा-प्रवचन)

पांचवां प्रवचन (६ मई १९६९, पूना, प्रातः)

आत्मघाती आदर्शवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!

बीते दो दिनों में भारत की समस्याएं और हमारी प्रतिभा, इस संबंध में कुछ बातें मैंने कहीं। पहले दिन पहले सूत्र पर मैंने यह कहा कि भारत की प्रतिभा अविकसित रह गई है, पलायन, एस्केपिज्म के कारण।

जीवन से बचना और भागना हमने सीखा है, जीवन को जीना नहीं। और जो भागते हैं, वे कभी भी जीवन की समस्याओं को हल नहीं कर सकते।

भागना कोई हल नहीं है। समस्याओं से पीठ फेर लेना और आंख बंद कर लेना कोई समाधान नहीं है। समस्याओं को ही इनकार कर देना, झूठा कह देना, माया कह देना, समस्याओं से आंख बंद कर लेना तो है, लेकिन इस भांति समस्याओं से मुक्ति नहीं मिलती। मन को राहत मिलती है कि समस्याएं हैं ही नहीं, लेकिन समस्याएं जीवित रहती Continue reading “नये भारत की खोज-(प्रवचन-05)”

नये भारत की खोज-(प्रवचन-04)

नये भारत की खोज-(चौथा प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है, सुबह मैंने कहा, सब आदमी नकली हैं, उन मित्र ने पूछा है कि नकली कौन है? असली कौन है? हम कैसे पहचानें?

पहली तो बात यह है, दूसरे के संबंध में सोचें ही मत कि वह असली है या नकली है। सिर्फ नकली आदमी ही दूसरे के संबंध में इस तरह की बातें सोचता है। अपने संबंध में सोचें कि मैं नकली हूं या असली? और अपने संबंध में सोचना ही संभव है और जानना संभव है।

इसलिए पहली बात है, हमारा चिंतन निरंतर दूसरे की तरफ लगा होता है, कौन दूसरा कैसा है? नकली आदमी का एक लक्षण यह भी है, स्वयं के संबंध में नहीं सोचना और दूसरों के संबंध में सोचना। असली सवाल यह है कि मैं कैसा आदमी हूं? और इसे जान लेना बहुत कठिन नहीं है, क्योंकि सुबह से सांझ तक, जन्म से लेकर मरने तक मैं अपने साथ जी रहा हूं। और अपने आपको भलीभांति जानता हूं। न केवल में दूसरों को धोखा दे रहा हूं, अपने को भी धोखा दे रहा हूं। मेरी जो असली शक्ल है, वह मैंने छिपा रखी है। और जो मेरी शक्ल नहीं है, वह मैं दिखा रहा हूं, वह मैंने बना रखी है। दिन भर में हजार बार हमारे चेहरे बदल जाते हैं। असली आदमी तो वही होगा, सुबह भी सांझ भी। हर खड़ी वही होगा, जो है। लेकिन हम? हम हर घड़ी वही होते हैं, जो हम नहीं हैं। Continue reading “नये भारत की खोज-(प्रवचन-04)”

नये भारत की खोज-(प्रवचन-03)

नये भारत की खोज-(तीसरा प्रवचन)

तीसरा प्रवचन (५ मई १९६९, पूना, प्रातः)

आत्मघाती परंपरावाद

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से आज की बात मैं शुरू करना चाहूंगा। वह कहानी तो आपने सुनी होगी, लेकिन अधूरी सुनी होगी। अधूरी ही बताई गई है अब तक। पूरा बताना खतरनाक भी हो सकता है। इसलिए पूरी कहानी कभी बताई ही नहीं गई। और अधूरे सत्य असत्यों से भी ज्यादा घातक होते हैं। असत्य सीधा असत्य होता है, दिखाई पड़ जाता है। आधे सत्य सत्य दिखाई पड़ते हैं और सत्य होते नहीं। क्योंकि सत्य कभी आधा नहीं हो सकता है। या तो होता है या नहीं होता है। और बहुत से अधूरे सत्य मनुष्य को बताए गए हैं, इसलिए मनुष्य असत्य से मुक्त नहीं हो पाता है। असत्य से मुक्त हो जाना तो बहुत आसान है। अधूरे सत्यों से मुक्त होना बहुत कठिन हैं। क्योंकि वे सत्य होने का भ्रम देते हैं और सत्य होते भी नहीं हैं। ऐसी ही यह आधी कहानी भी बताई गई है। Continue reading “नये भारत की खोज-(प्रवचन-03)”

नये भारत की खोज-(प्रवचन-02)

नये भारत की खोज-(दूसरा)

दूसरा प्रवचन (४ मई १९६९ पूना, रात्रि)

वैज्ञानिक चिंतन की हवा

मेरे प्रिय आत्मन्!

सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।

एक मित्र ने पूछा है: पश्चिम से पढ़ कर आए हुए युवक विज्ञान और तकनीक की नई से नई शिक्षा लेकर आए हुए युवक भी भारत में आकर विवाह करते हैं तो दहेज मांगते हैं। तो उनकी वैज्ञानिक शिक्षा का क्या परिणाम हुआ?

पहली तो बात यह है, जब तक कोई समाज अरेंज-मैरीज, बिना प्रेम के और सामाजिक व्यवस्था से विवाह करना चाहेगा, तब तक वह समाज दहेज से मुक्त नहीं हो सकता। दहेज से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि युवकों और युवतियों के बीच मां-बाप खड़े न हों, अन्यथा दहेज से नहीं बचा जा सकता। प्रेम के अतिरिक्त विवाह का और कोई भी कारण होगा, तो दहेज किसी न किसी रूप में जारी रहेगा। Continue reading “नये भारत की खोज-(प्रवचन-02)”

नये भारत की खोज-(प्रवचन-01)

नये भारत की खोज-(पहला)

पहला प्रवचन (४ मई १९६९ पूना, प्रातः)

आत्मघाती पलायनवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक अंधेरी रात में आकाश तारों से भरा था और एक ज्योतिषी आकाश की तरफ आंखें उठा कर तारों का अध्ययन कर रहा था। वह रास्ते पर चल भी रहा था और तारों का अध्ययन भी कर रहा था। रास्ता कब भटक गया, उसे पता नहीं, क्योंकि जिसकी आंख आकाश पर लगी हो, उसे जमीन के रास्तों के भटक जाने का पता नहीं चलता। पैर तो जमीन पर चलते हैं, और अगर आंखें आकाश को देखती हों तो पैर कहां चले जाएंगे, इसे पहले से निश्चित नहीं कहा जा सकता। वह रास्ते से भटक गया और रास्ते के किनारे एक कुएं में गिर पड़ा। जब कुएं में गिरा, तब उसे पता चला। आंखें तारे देखती रहीं और पैर कुएं में चले गए। वह बहुत चिल्लाया, अंधेरी रात थी, गांव दूर था। पास के एक खेत से एक बूढ़ी औरत ने आकर बामुश्किल उसे कुएं के बाहर निकाला। उस ज्योतिषी ने उस बुढ़िया के पैर छुए और कहा, मां, तूने मेरा जीवन बचाया, शायद तुझे पता नहीं मैं कौन हूं। मैं एक बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं। और अगर तुझे आकाश के तारों के संबंध में कुछ भी समझना हो तो तू मेरे पास आ जाना। सारी दुनिया से बड़े-बड़े ज्योतिषी मेरे पास सीखने आते हैं। उनसे मैं बहुत रुपया फीस में लेता हूं, तुझे मैं मुफ्त में बता सकूंगा। Continue reading “नये भारत की खोज-(प्रवचन-01)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-23)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-23) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-33

ब्रह्म के दो रूप

अभी विगत पंद्रह वर्षों की गहन खोज ने विज्ञान को एक नयी धारणा दी है- ‘एक्सपैंडिंग युनिवर्स’ की, फैलते हुए विश्व की। सदा से ऐसा समझा जाता था कि विश्व जैसा है, वैसा है। नया विज्ञान कहता है, विश्व उतना ही नहीं है जितना है- रोज फैल रहा है, जैसे कि कोई गुब्बारे में हवा भरता चला जाए और गुब्बारा बड़ा होता चला जाए! यह जो विस्तार है जगत का, यह उतना नहीं है, जितना कल था। यह निरंतर फैल रहा है।  ये जो तारे रात हमें दिखायी पड़ते हैं, ये एक-दूसरे से प्रतिपल दूर जा रहे हैं- ‘एक्सपैंडिंग युनिवर्स’, फैलता हुआ विश्व! इसके दो अर्थ हुए : कि एक क्षण ऐसा भी रहा होगा, जब यह विश्व इतना सिकुड़ा रहा होगा कि शून्य केंद्र पर रहा होगा- आप पीछे लौटें! समय में जितने पीछे लौटेंगे, विश्व छोटा होता जाएगा, सिकुड़ता जाएगा। एक क्षण ऐसा जरूर रहा होगा, जब यह सारा विश्व बिंदु पर सिकुड़ा रहा होगा- फिर फैलता चला गया, आज भी फैल रहा है परिधि बड़ी होती चली जाती है रोज! Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-23)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-22)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-22) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-32

जागते- जागते — चार खंडों में

1..परमात्मा की चाह नहीं हो सकती

मन मांगता रहता है संसार को, वासनाएं दौड़ती रहती हैं वस्तुओं की तरफ, शरीर आतुर होता है शरीरों के लिए, आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए। हमारा जीवन आग की लपट है, वासनाएं जलती हैं उन लपटों में- आकांक्षाएं, इच्छाएं जलती हैं। गीला इऋधन जलता है इच्छा का, और सब धुआं-धुआं हो जाता है। इन लपटों में जलते हुए कभी-कभी मन थकता भी है, बेचैन भी होता है, निराश भी, हताश भी होता है।  हताशा में, बेचैनी में कभी-कभी प्रभु की तरफ भी मुड़ता है। दौड़ते-दौड़ते इच्छाओं के साथ कभी-कभी प्रार्थना करने का मन भी हो जाता है। दौड़ते-दौड़ते वासनाओं के साथ कभी-कभी प्रभु की सन्निधि में आंख बंदकर ध्यान में डूब जाने की कामना भी जन्म लेती है। बाजार की भीड़-भाड़ से हटकर कभी मंदिर के एकांत, मस्जिद के एकांत कोने में डूब जाने का ख्याल भी उठता है।  लेकिन वासनाओं से थका हुआ आदमी मंदिर में बैठकर पुनः वासनाओं की मांग शुरू कर देता है। बाजार से थका आदमी मंदिर में बैठकर पुनः बाजार का विचार शुरू कर देता है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-22)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-21)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-21) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-31

भगवत-प्रेम

जगत में तीन प्रकार के प्रेम हैं- एक : वस्तुओं का प्रेम, जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर हम वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं। दूसरा : व्यक्तियों का प्रेम। कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं, सिर्फ इसलिए कि आपको अपने बचाने की सुविधा रहे कि मैं तो लाख में एक हूं ही। नहीं, इस तरह बचाना मत!  एक ह्लह्ल17प्रतिशतह्लह्लोंच चित्रकार सींजां एक गांव में ठहरा। उस गांव के होटल के मैनेजर ने कहा, यह गांव स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अच्छा है। यह पूरी पहाड़ी अद्भुत है। सींजां ने पूछा, इसके अद्भुत होने का राज, रहस्य, प्रमाण उस मैनेजर ने कहा, राज और रहस्य तुम रहोगे यहां तो पता चल जाएगा। प्रमाण यह है कि इस पूरी पहाड़ी पर रोज एक आदमी से ज्यादा नहीं मरता। सींजां ने जल्दी से पूछा, आज मरनेवाला आदमी मर गया या नहीं नहीं, तो मैं भागूं।  आदमी अपने को बचाने के लिए बहुत आतुर है। अगर मैं हूं, लाख में एक, तो आप कहेंगे बिल्कुल ठीक- छोड़ा अपने को! आपको भर नहीं छोड़ रहा हूं, ख्याल रखना। लाख में एक आदमी व्यक्ति के प्रेम को उपलींध होता है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-21)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-20)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-20) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-30

मृत्यु और परलोक

इस जगत में अज्ञान के अतिरिक्त और कोई मृत्यु नहीं है। अज्ञान ही मृत्यु है, ‘इग्नोरेंस इज़ डेथ’। क्या अर्थ हुआ इसका कि अज्ञान ही मृत्यु है अगर अज्ञान मृत्यु है, तो ही ज्ञान अमृत हो सकता है। अज्ञान मृत्यु है, इसका अर्थ हुआ कि मृत्यु कहीं है ही नहीं। हम नहीं जानते इसलिए मृत्यु मालूम पड़ती है। मृत्यु असंभव है। मृत्यु इस पृथ्वी पर सर्वाधिक असंभव घटना है जो हो ही नहीं सकती, जो कभी हुई नहीं, जो कभी होगी नहीं, लेकिन रोज मृत्यु मालूम पड़ती है।  हम अंधेरे में खड़े हैं, अज्ञान में खड़े हैं। जो नहीं मरता वह मरता हुआ दिखाई पड़ता है। इस अर्थ में अज्ञान ही मृत्यु है। और जिस दिन हम यह जान लेते हैं, उस दिन मृत्यु तिरोहित हो जाती है और अमृत ही, अमृत्व ही शेष रह जाता है- ‘इम्मारलिटी’ ही शेष रह जाती है।  कभी आपने ख्याल किया कि आपने किसी आदमी को मरते देखा आप कहेंगे, बहुत लोगों को देखा। पर मैं कहता हूं कि नहीं देखा! आज तक किसी व्यक्ति ने किसी को मरते नहींदेखा। मरने की प्रक्रिया आज तक देखी नहीं होगी। जो हम देखते हैं वह केवल जीवन के विदा हो जाने की प्रक्रिया है, मरने की नहीं।  जैसे बटन दबाया हमने, बिजली का बल्ब बुझ गया। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-20)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-19)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-19) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-29

जो बोएंगे बीज वही काटेंगे फसल

किसे हम कहें कि अपना मित्र है और किसे हम कहें कि अपना शत्रु है। एक छोटी-सी परिभाषा निर्मित की जा सकती है। हम ऐसा कुछ भी करते हों, जिससे दुःख फलित होता है तो हम अपने मित्र नहीं कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुःख के बीज बोनेवाला व्यक्ति अपना शत्रु है। और हम सब स्वयं के लिए दुःख का बीज बोते हैं। निश्चित ही बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है, इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं। अक्सर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के, न मालूम कैसा दुर्भाग्य – कि फल जहर के और विष के उपलींध हुए हैं!  लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी न मिलता है, न मिलने का कोई उपाय है। हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही पाते हैं, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहुंचते हैं जहां की हम यात्रा करते हैं। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-19)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-18)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-18) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-28

यह मन क्या है

एक आकाश, एक स्पेस बाहर है, जिसमें हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं- जहां भवन निर्मित होते हैं और खंडहर हो जाते हैं। जहां पक्षी उड़ते, शून्य जन्मते और पृथ्वियां विलुप्त होती हैं- यह आकाश हमारे बाहर है। किंतु यह आकाश जो बाहर फैला है, यही अकेला आकाश नहीं है- ‘दिस स्पेस इस नाट द ओनली स्पेस’- एक और भी आकाश है, वह हमारे भीतर है। जो आकाश हमारे बाहर है वह असीम है।  वैज्ञानिक कहते हैं, उसकी सीमा का कोई पता नहीं लगता। लेकिन जो आकाश हमारे भीतर फैला है, बाहर का आकाश उसके सामने कुछ भी नहीं है। कहें कि वह असीम से भी ज्यादा असीम है। अनंत आयामी उसकी असीमता है- ‘मल्टी डायमेंशनल इनफिनिटी’ है। बाहर के आकाश में चलना, उठना होता है, भीतर के आकाश में जीवन है। बाहर के आकाश में क्रियाएं होती हैं, भीतर के आकाश में चैतन्य है।  जो बाहर के ही आकाश में खोजता रहेगा वह कभी भी जीवन से मुलाकात न कर पाएगा। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-18)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-17)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-17) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-27

मैं मृत्यु सिखाता हूं

मैं प्रकाश की बात नहीं करता हूं, वह कोई प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न वस्तुतः आंख का है। वह है, तो प्रकाश है। वह नहीं है, तो प्रकाश नहीं है। क्या है वह, हम नहीं जानते हैं। जो हम जान सकते हैं, वही हम जानते हैं। इसलिए विचारणीय सत्ता नहीं, विचारणीय ज्ञान की क्षमता है। सत्ता उतनी ही ज्ञात होती है, जितना ज्ञान जाग्रत होता है।  कोई पूछता था- आत्मा है या नहीं है मैंने कहा- आपके पास उसे देखने की आंख है, तो है, अन्यथा नहीं ही है। साधारणतः हम केवल पदार्थ को ही देखते हैं। इंद्रियों से केवल वही ग्रहण होता है। देह के माध्यम से जो भी जाना जाता है वह देह से अन्य हो भी कैसे सकता है देह, देह को ही देखती है औैर देख सकती है। अदेही उससे अस्पर्शित रह जाता है। आत्मा उसकी ग्रहण-सीमा में नहीं आती है। वह पदार्थ से अन्य है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-17)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-16)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-16) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-26

अहिंसा का अर्थ

मैं उन दिनों का स्मरण करता हूं जब चित्त पर घना अंधकार था और स्वयं के भीतर कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ता था। तब की एक बात ख्याल में है। वह यह कि उन दिनों किसी के प्रति कोई प्रेम प्रतीत नहीं होता था। दूसरे तो दूर, स्वयं के प्रति भी कोई प्रेम नहीं था।  फिर, जब समाधि को जाना तो साथ ही यह भी जाना कि जैसे भीतर सोए हुए प्रेम से अनंत झरने अनायास ही सहज और सक्रिय हो गए हैं। यह प्रेम विशेष रूप से किसी के प्रति नहीं था। यह तो बस था, और सहज ही प्रवाहित हो रहा था। जैसे दीए से प्रकाश बहता है और फूलों से सुगंध, ऐसे ही वह भी बह रहा था। बोध के उस अद्भुत क्षण में जाना था कि वह तो स्वभाव का प्रकाश है। वह किसी के प्रति नहीं होता है। वह तो स्वयं की स्फुरणा है।  इस अनुभूति के पूर्व प्रेम को मैं राग मानता था। अब जाना कि प्रेम और राग तो भिन्न हैं। राग तो प्रेम का अभाव है। वह घृणा के विपरीत है, इसीलिए ही राग कभी भी घृणा में परिणत हो सकता है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-16)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-15)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-15) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-25

नीति, भय और प्रेम

मैं सोचता हूं कि क्या बोलूं मनुष्य के संबंध में विचार करते ही मुझे उन हजार आंखों का स्मरण आता है, जिन्हें देखने और जिनमें झांकने का मुझे मौका मिला है। उनकी स्मृति आते ही मैं दुःखी हो जाता हूं। जो उनमें देखा है, वह हृदय में कांटों की भांति चुभता है। क्या देखना चाहता था और क्या देखने को मिला! आनंद को खोजता था, पाया विषाद। आलोक को खोजता था, पाया अंधकार। प्रभु को खोजता था, पाया पाप। मनुष्य को यह क्या हो गया है उसका जीवन जीवन भी तो नहीं मालूम होता है। जहां शांति न हो, संगीत न हो, शक्ति न हो, आनंद न हो- वहां जीवन भी क्या होगा आनंदरिक्त, अर्थशून्य अराजकता को जीवन कैसे कहें जीवन नहीं, बस एक दुःस्वप्न ही उसे कहा जा सकता है- एक मूर्च्छा, एक बेहोशी और पीड़ाओं की एक लंबी श्रृंखला। निश्चय ही यह जीवन नहीं- बस एक लंबी बीमारी है जिसकी परिसमाप्ति मृत्यु में हो जाती है। हम जी भी नहीं पाते, और मर जाते हैं। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-15)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-14)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-14) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-24

प्रेम ही प्रभु है

मैं मनुष्य को रोज विकृति से विकृति की ओर जाते देख रहा हूं, उसके भीतर कोई आधार टूट गया है। कोई बहुत अनिवार्य जीवन-स्नायु जैसे नष्ट हो गए हैं और हम संस्कृति में नहीं, विकृति में जी रहे हैं।  इस विकृति और विघटन के परिणाम व्यक्ति से समष्टि तक फैल गए हैं, परिवार से लेकर पृथ्वी की समग्र परिधि तक उसकी बेसुरी प्रतिध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं। जिसे हम संस्कृति कहें, वह संगीत कहीं भी सुनाई नहीं पड़ता है।  मनुष्य के अंतस के तार सुव्यवस्थित हों तो वह संगीत भी हो सकता है। अन्यथा उससे बेसुरा कोई वाद्य नहीं है।  फिर जैसे झील में एक जगह पत्थर के गिरने से लहर-वृत्त दूर कूल-किनारों तक फैल जाते हैं, वैसे ही मनुष्य के चित्त में उठी हुई संस्कृति या विकृति की लहरें भी सारी मनुष्यता के अंतस्थल में आंदोलन उत्पन्न करती हैं। मनुष्य, जो व्यक्ति Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-14)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-13)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-13) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-23

मांगो और मिलेगा

मैं यह क्या देख रहा हूं यह कैसी निराशा तुम्हारी आंखों में है और क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है कि जब आंखें निराश होती हैं, तब हृदय की वह अग्नि बुझ जाती है और वे सारी अभीप्साएं सो जाती हैं, जिनके कारण मनुष्य मनुष्य है।  निराशा पाप है, क्योंकि जीवन उसकी धारा में निश्चय ही ऊर्ध्वगमन खो देता है।  निराशा पाप ही नहीं, आत्मघात भी है क्योंकि जो श्रेष्ठतर जीवन को पाने में संलग्न नहीं है, उसके चरण अनायास ही मृत्यु की ओर बढ़ जाते हैं।  यह शाश्वत नियम है कि जो ऊपर नहीं उठता, वह नीचे गिर जाता है, और जो आगे नहीं बढ़ता, वह पीछे धकेल दिया जाता है।  मैं जब किसी को पतन में जाते देखता हूं तो जानता हूं कि उसने पर्वत शिखरों की ओर उठना बंद कर दिया होगा। पतन की प्रक्रिया विधेयात्मक नहीं है। घाटियों में जाना, पर्वतों पर न जाने का ही दूसरा पहलू है। वह उसकी ही निषेध-छाया है।  और जब तुम्हारी आंखों में मैं निराशा देखता हूं तो स्वाभाविक ही है कि मेरा हृदय प्रेम, पीड़ा और Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-13)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-12)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-12) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-22

आनंद की दिशा

यह क्या हो गया है मनुष्य को यह क्या हो गया है मैं आश्चर्य में हूं कि इतनी आत्मविपन्नता, इतनी अर्थहीनता और इतनी घनी ऊब के बावजूद भी हम कैसे जी रहे हैं!  मैं मनुष्य की आत्मा को खोजता हूं तो केवल अंधकार ही हाथ आता है और मनुष्य के जीवन में झांकता हूं तो सिवाय मृत्यु के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है।  जीवन है, लेकिन जीने का भाव नहीं। जीवन है, लेकिन एक बोझ की भांति। वह सौंदर्य, समृद्धि और शांति नहीं है। और आनंद न हो, आलोक न हो तो निश्चय ही जीवन नाम-मात्र को ही जीवन रह जाता है।  क्या हम जीवन को जीना ही तो नहीं भूल गए हैं पशु, पक्षी और पौधे भी हमसे ज्यादा सघनता, समृद्धि और संगीत में जीते हुए मालूम होते हैं। लेकिन शायद कोई कहे कि मनुष्य की समृद्धि तो दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है- Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-12)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-11)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-11) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-21

अहिंसा क्या है

मैं अहिंसा पर बहुत विचार करता था। जो कुछ उस संबंध में सुनता था, उससे तृप्ति नहीं होती थी। वे बातें बहुत ऊपरी होती थीं। बुद्धि तो उनसे प्रभावित होती थी, पर अंतस अछूता रह जाता था। धीरे-धीरे इसका कारण भी दिखा। जिस अहिंसा के संबंध में सुनता था, वह नकारात्मक थी। नकार बुद्धि से ज्यादा गहरे नहीं जा सकता है। जीवन को छूने के लिए कुछ विधायक चाहिए। अहिंसा, हिंसा को छोड़ना ही हो, तो वह जीवनस्पर्श नहीं हो सकती है। वह किसी को छोड़ना नहीं, किसी की उपलिंध होनी चाहिए। वह त्याग नहीं, प्राप्ति हो, तभी सार्थक है।  अहिंसा शींद की नकारात्मकता ने बहुत भ्रांति को जन्म दिया है। वह शींद तो नकारात्मक है, पर अनुभूति नकारात्मक नहीं है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-11)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-10)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-10) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-20

जीवन की अदृश्य जड़ें

किस संबंध में आपसे बातें करूं- जीवन के संबंध में शायद यही उचित होगा, क्योंकि जीवित होते हुए भी जीवन से हमारा संबंध नहीं है। यह तथ्य कितना विरोधाभासी है क्या जीवित होते हुए भी यह हो सकता है कि जीवन से हमारा संबंध न हो यह हो सकता है! न केवल हो ही सकता है, बल्कि ऐसा ही है। जीवित होते हुए भी, जीवन भूला हुआ है। शायद हम जीने में इतने व्यस्त हैं कि जीवन का विस्मरण ही हो गया है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-10)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-09)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-9) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-19

समाधि योग

सत्य की खोज की दो दिशाएं हैं- एक विचार की, एक दर्शन की। विचार-मार्ग चक्रीय है। उसमें गति तो बहुत होती है, पर गंतव्य कभी भी नहीं आता। वह दिशा भ्रामक और मिथ्या है। जो उसमें पड़ते हैं, वे मतों में ही उलझकर रह जाते हैं। मत और सत्य भिन्न बातें हैं। मत बौद्धिक धारणा है, जबकि सत्य समग्र प्राणों की अनुभूति में बदल जाते हैं। तार्किक हवाओं के रुख पर उनकी स्थिति निर्भर करती है, उनमें कोई थिरता नहीं होती। सत्य परिवर्तित नहीं होता है। उसकी उपलिंध शाश्वत और सनातन में प्रतिष्ठा देती है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-09)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-08)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-8) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-18

जीवन-संपदा का अधिकार

मैं क्या देखता हूं देखता हूं कि मनुष्य सोया हुआ है। आप सोए हुए हैं। प्रत्येक मनुष्य सोया हुआ है। रात्रि ही नहीं, दिवस भी निद्रा में ही बीत रहे हैं। निद्रा तो निद्रा ही है, किंतु यह तथाकथित जागरण भी निद्रा ही है। आंखों के खुल जाने-मात्र से नींद नहीं टूटती। उसके लिए तो अंतस का खुलना आवश्यक है। वास्तविक जागरण का द्वार अंतस है। जिसका अंतस सोया हो, वह जागकर भी जागा हुआ नहीं होता, और जिसका अंतस जागता है वह सोकर भी सोता नहीं है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-08)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-07)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-7) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-17

शिक्षा का लक्ष्य

मैं आपकी आंखों में देखता हूं और उनमें घिरे विषाद और निराशा को देखकर मेरा हृदय रोने लगता है। मनुष्य ने स्वयं अपने साथ यह क्या कर लिया है वह क्या होने की क्षमता लेकर पैदा होता है और क्या होकर समाप्त हो जाता है! जिसकी अंतरात्मा दिव्यता की ऊंचाइयां छूती, उसे पशुता की घाटियों में भटकते देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी फूलों के पौधे में फूल न लगकर पत्थर लग गए हों और जैसे किसी दीये से प्रकाश की जगह अंधकार निकलता हो।

ऐसा ही हुआ है मनुष्य के साथ। इसके कारण ही हम उस सात्विक फ्रुल्लता का अनुभव नहीं करते हैं जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, और हमारे प्राण तमस के भार से भारी हो गए हैं। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-07)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-06)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-6) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-16

जीएं और जानें

मैं मनुष्य को जड़ता में डूबा हुआ देखता हूं। उसका जीवन बिल्कुल यांत्रिक बन गया है। गुरजिएफ ने ठीक ही उसके लिए मानव-यंत्र का प्रयोग किया है। हम जो भी कर रहे हैं, वह कर नहीं रहे हैं, हमसे हो रहा है। हमारे कर्म सचेतन और सजग नहीं हैं। वे कर्म न होकर केवल प्रतिक्रियाएं हैं।

मनुष्य से प्रेम होता है, क्रोध होता है, वासनाएं प्रवाहित होती हैं। पर ये सब उसके कर्म नहीं हैं, अचेतन और यांत्रिक प्रवाह हैं। वह इन्हें करता नहीं है, ये उससे होते हैं। वह इनका कर्ता नहीं है, वरन उसके द्वारा किया जाना है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-06)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-05)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-5) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-15

विचार के जन्म के लिएः विचारों से मुक्ति

विचार-शक्ति के संबंध में आप जानना चाहते हैं निश्चय ही विचार से बड़ी और कोई शक्ति नहीं। विचार व्यक्तित्व का प्राण है। उसके केंद्र पर ही जीवन का प्रवाह घूमता है। मनुष्य में वही सब प्रकट होता है, जिसके बीज वह विचार की भूमि में बोता है। विचार की सचेतना ही मनुष्य को अन्य पशुओं से पृथक भी करती है। लेकिन यह स्मरण रहे कि विचारों से घिरे होने और विचार की शक्ति में बड़ा भेद है- भेद ही नहीं, विरोध भी है।

विचारों से जो जितना घिरा होता है, वह विचार करने से उतना ही असमर्थ और अशक्त हो जाता है। विचारों की भीड़ चित्त को अंततः विक्षिप्त करती है। विक्षिप्तता विचारों की अराजक भीड़ ही तो है! Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-05)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-04)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-4) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-14

मनुष्य का विज्ञान

मैं सुनता हूं कि मनुष्य का मार्ग खो गया है। यह सत्य है। मनुष्य का मार्ग उसी दिन खो गया, जिस दिन उसने स्वयं को खोजने से भी ज्यादा मूल्यवान किन्हीं और खोजों को मान लिया।

मनुष्य के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सार्थक वस्तु मनुष्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उसकी पहली खोज वह स्वयं ही हो सकता है। खुद को जाने बिना उसका सारा जानना अंततः घातक ही होगा।

अज्ञान के हाथों में कोई भी ज्ञान सृजनात्मक नहीं हो सकता, और ज्ञान के हाथों में अज्ञान भी सृजनात्मक हो जाता है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-04)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-03)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-3) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-13

विज्ञान की अग्नि में धर्म और विश्वास

मैं स्मरण करता हूं मनुष्य के इतिहास की सबसे पहली घटना को। कहा जाता है कि जब आदम और ईव स्वर्ग के राज्य से बाहर निकाले गए तो आदम ने द्वार से निकलते हुए जो सबसे पहले शब्द ईव से कहे थे, वे थे- ‘हम एक बहुत बड़ी क्रांंत से गुजर रहे हैं।’ पता नहीं पहले आदमी ने कभी यह कहा था या नहीं, लेकिन न भी कहा हो तो भी उसके मन में तो ये भाव रहे ही होंगे। एक बिल्कुल ही अज्ञात जगत में वह प्रवेश कर रहा था। जो परिचित था वह छूट रहा था, और जो बिल्कुल ही परिचित नहीं था, उस अनजाने और अजनबी जगत में उसे जाना पड़ रहा था। अज्ञात सागर में नौका खोलते समय ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। ये भाव प्रत्येक युग में आदमी को अनुभव होते रहे हैं, क्योंकि जीवन का विकास तो निरंतर अज्ञात से अज्ञात में ही है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-03)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-02)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-2) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-12

धर्म क्या है

मैं धर्म पर क्या कहूं जो कहा जा सकता है, वह धर्म नहीं होगा। जो विचार के परे है, वह वाणी के अंतर्गत नहीं हो सकता है। शास्त्रों में जो हैं, वह धर्म नहीं है। शब्द ही वहां हैं। शब्द सत्य की ओर जाने के भले ही संकेत हों, पर वे सत्य नहीं हैं। शब्दों से संप्रदाय बनते हैं, और धर्म दूर ही रह जाता है। इन शब्दों ने ही मनुष्य को तोड़ दिया है। मनुष्यों के बीच पत्थरों की नहीं, शब्दों की ही दीवारें हैं। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-02)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-01)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-1) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-11

मैं कौन हूं

एक रात्रि की बात है। पूर्णिमा थी, मैं नदी-तट पर था, अकेला आकाश को देखता था। दूर-दूर तक सन्नाटा था। फिर किसी के पैरों की आहट पीछे सुनाई पड़ी। लौटकर देखा, एक युवा साधु खड़े थे। उनसे बैठने को कहा। बैठे, तो देखा कि वे रो रहे हैं। आंखों से झर-झर आंसू गिर रहे हैं। उन्हें मैंने निकट ले लिया। थोड़ी देर तक उनके कंधे पर हाथ रखे मैं मौन बैठा रहा। न कुछ कहने को था, न कहने की स्थिति ही थी, किंतु प्रेम से भरे मौन ने उन्हें आश्वस्त किया। ऐसे कितना समय बीता कुछ याद नहीं। फिर अंततः उन्होंने कहा, ‘मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं। कहिए क्या ईश्वर है या कि मैं मृगतृष्णा में पड़ा हूं।’

मैं क्या कहता उन्हें और निकट ले लिया। प्रेम के अतिरिक्त तो किसी और परमात्मा को मैं जानता नहीं हूं। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-01)”

क्रांति सूत्र-(ओशो)

क्रांति सूत्र (23 अध्याय, 22 वां 4 खंड में)

क्रांति सूत्र (1) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-11, मैं कौन हूं

क्रांति सूत्र (2) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-12, धर्म क्या है

क्रांति सूत्र (3) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-13, विज्ञान की अग्नि में धर्म और विश्वास

क्रांति सूत्र (4) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-14, मनुष्य का विज्ञान

क्रांति सूत्र (5) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-15, विचार के जन्म के लिएः विचारों से मुक्ति

क्रांति सूत्र (6) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-16, जीएं और जानें

क्रांति सूत्र (7) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-17, शिक्षा का लक्ष्य

क्रांति सूत्र (8) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-18, जीवन-संपदा का अधिकार Continue reading “क्रांति सूत्र-(ओशो)”

उपनिषद का मार्ग-(प्रवचन-21)

उपनिषद का मार्ग-(इक्कीसवां प्रवचन)

भारत : एक अनूठी संपदा

(Note: Translated only first question from Talk #21 of Osho Upanishad given on 8 September 1986 pm in Mumbai. This is compiled in Mera Swarnim Bharat.)

प्रश्न- प्यारे ओशो!

भारत में आपके पास होना, दुनिया में और कहीं भी आपके सान्निध्य में होने से अधिक प्रभावमय है। प्रवचन के समय आपके चरणों में बैठना ऐसा लगता है जैसे संसार के केन्द्र में, हृदय-स्थल में स्थित हों। कभी-कभी तो बस होटल के कमरे में बैठे-बैठे ही आंख बंद कर लेने पर मुझे महसूस होता है कि मेरा हृदय आपके हृदय के साथ धड़क रहा है।

सुबह जागने पर जब आसपास से आ रही आवाजों को सुनती हूं, तो वे किसी भी और स्थान की अपेक्षा, मेरे भीतर अधिक गहराई तक प्रवेश कर जाती हैं। ऐसा अनुभव होता है कि यहां पर ध्यान बड़ी सहजता से, बिना किसी प्रयास के, नैसर्गिक रूप से घटित हो रहा है।

क्या भारत में आपके कार्य करने की शैली भिन्न है, अथवा यहां कोई ‘प्राकृतिक बुद्ध क्षेत्र’ जैसा कुछ है? Continue reading “उपनिषद का मार्ग-(प्रवचन-21)”

उपनिषद का मार्ग-(प्रवचन-01)

उपनिषद का मार्ग  (पहला प्रवचन)

रहस्य स्कूल- चमत्कार से एक भेंट

(केवल प्रथम प्रवचन 16.8.1986 बंबई, अंग्रेजी से अनुवादित)

प्यारे भगवान,

क्या आप कृपया समझाने की अनुकंपा करेंगे कि रहस्य-स्कूल का ठीक-ठीक कार्य क्या है?

मेरे प्रिय आत्मन्,

बहुत समय से भुला दिए गए, किसी भी भाषा के सर्वाधिक सुंदर शब्दों में से एक, अति जीवंत शब्द, “उपनिषद” का अर्थ है- सदगुरु के चरणों में बैठना। इसका और कुछ अधिक अर्थ नहीं है, बस गुरु की उपस्थिति में रहना, उसे अनुमति दे देना कि वह तुम्हें अपने स्वयं के प्रकाश में, अपने स्वयं के आनंद में, अपने स्वयं के संसार में ले जाए।

और ठीक यही कार्य रहस्य-विद्यालय का भी है।

गुरु के पास वह आनंद, वह प्रकाश है, और शिष्य के पास भी है परंतु गुरु को पता है और शिष्य गहन निद्रा में है।

रहस्य-विद्यालय का कुल कार्य इतना ही है कि शिष्य को होश में कैसे लाया जाए, उसे कैसे जगाया जाए, कैसे उसे स्वयं उसे होने दिया जाए, क्योंकि शेष सारा संसार उसे कुछ और बनाने की चेष्टा कर रहा है। Continue reading “उपनिषद का मार्ग-(प्रवचन-01)”

अमृृृत कण-(धर्म)-09

धर्म-ओशो

मैं आपको देखता हूं तो दुख अनुभव करता हूं, क्योंकि किसी भी भांति बिना सोचे विचारे, मूर्छित रूप से जिए जाना जीवन नहीं, वरन धीमी आत्महत्या है। क्या आपने कभी सोचा कि आप अपने जीवन के साथ क्या कर रहे हैं? क्या आप सचेतन रूप से जी रहे हैं? क्योंकि यदि हम अचेतन रूप से बहे जा रहे हैं और जीवन के अचेतन सृजन में नहीं लगे है, तो सिवाय मृत्यु की प्रतीक्षा के हम और क्या कर रहे हैं? जीवन तो उसी का है जो उसका सृजन करता है।  आत्मसृजन जहां नहीं, वहां आत्मघत है। मित्र, जन्म को ही जीवन मत मान लेना। यह इसलिए कहता हूं कि अधिक लोग ऐसा ही मान लेते हैं। जन्म तो प्रच्छन्न मृत्यु है। वह तो आरंभ है और मृत्यु उसका ही चरम विकास और अंत। वह जीवन नहीं, जीवन को पाने का एक अवसर भर है। लेकिन जो उस पर ही रुक जाता है, वह जीवन पर नहीं पहुंच पाता। जन्म तो जीवन के अनगढ़ पत्थर को हमारे हाथों में सौंप देता है। उसे मूर्ति बनाना हमारे हाथों में है। यहां कलाकार और कलाकृति और कला और कला के उपकरण सभी हम ही हैं। जीवन के इस अनगढ़ पत्थर को मूर्ति बनाने की अभीप्सा धर्म है।  धर्म जीवन से भिन्न नहीं है जो धर्म जीवन से भिन्न है, वह मृत है। मैं कैसे जीता हूं, वही मेरा धर्म है। यह मत पूछिए कि मेरा कौन सा धर्म है क्योंकि धर्म बस धर्म है। Continue reading “अमृृृत कण-(धर्म)-09”

अमृृृत कण-(स्वतंत्रता)-08

स्वतंत्रता-ओशो

मैं ऐसे गुलामों को जानता हूं, जो मानते हैं कि वे स्वतंत्र है। और उनकी संख्या थोड़ी नहीं है, वरन सारी पृथ्वी ही उनसे भर गई है। और चूंकि अधिक लोग उनके ही जैसे हैं, इसलिए उन्हें स्वयं की धारणा को ठीक मान लेने की भी सुविधा है, लेकिन मेरा हृदय उनके लिए आंसू बहाता है, क्योंकि गुलाम होते हुए भी उन्होंने अपने आपको स्वतंत्र मान रखा है। और इस भांति स्वयं ही अपने स्वतंत्र होने की प्राथमिक संभावना को ही समाप्त कर दिया है। धर्मों के नाम से संप्रदायों में कैद व्यक्ति ऐसी ही स्थिति में है।  इस भांति की परतंत्रता में निश्चय ही सुविधा है और सुरक्षा है। सुविधा है, स्वयं विचार करने के श्रम से बचने की और सुरक्षा है, सबके साथ होने की। और इसलिए ही जो कारागृह है, उन्हें नष्ट करने की तो बात ही दूर, कैदी गण ही उसकी रक्षा के लिए सदा प्राण देने को तत्पर रहते हैं! मनुष्य भी कैसा अदभुत है, वह चाहे तो अपने कारागृहों को ही मोक्ष भी मान सकता है! लेकिन इससे बदतर गुलामी कोई दूसरी नहीं हो सकती है।  स्वतंत्रता पाने के लिए सबसे पहले तो यही आवश्यक है कि हम जाने कि हमारा चित्त किसी गहरी दासता में है, क्योंकि जो यही नहीं जानता, वह स्वतंत्रता के लिए अभीप्सा भी अनुभव नहीं कर सकता। Continue reading “अमृृृत कण-(स्वतंत्रता)-08”

अमृृृत कण-(आत्म-विश्वास)-07

आत्म विश्वास-ओशो 

आत्म-विश्वास का अभाव ही समस्त अंधविश्वासों का जनम है। जो स्वयं में विश्वास नहीं करता, वह किसी और में विश्वास करके अपने अभाव की पूर्ति कर लेता है। यह पूर्ति बहुत आत्मघती है क्योंकि इस भांति व्यक्ति स्वयं के विकास और पूर्णता की दिशा से वंचित हो जाता है। जिसे स्वयं पर विश्वास नहीं, उसे सिवाय अनुकरण और किसी पर निर्भर होने के और उपाय ही क्या है?  पर निर्भरता हीनता लाती है और किसी की शरण पकड़ने से दीनता पैदा होती है। चित्त धीरे-धीरे एक भांति की दासता में बंध जाता है और दास चित्त कभी भी प्रौढ़ नहीं हो सकता। प्रौढ़ता आती है- स्वयं के पैरों पर खड़े होने से स्वयं की आंखों से देखने से और स्वयं के अनुभवों की कठोर चट्टान पर जीवन निर्मित करने से। स्वयं के अतिरिक्त स्वयं के सृजन का और कोई द्वार नहीं है।  मैं किसी और मैं श्रद्धा करने को नहीं कहता हूं। दूसरों में श्रद्धा करने के कारण ही सब भांति के पाखंड पैदा हुए है। वस्तुतः किसी को किसी का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि प्रत्येक किसी दूसरे जैसा नहीं, वरन स्वयं ही होने को पैदा हुआ है। Continue reading “अमृृृत कण-(आत्म-विश्वास)-07”

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