आंखों देखी सांच-(भुमिका)

आंखों देखी सांच-(भूमिका)

‘कानों सुनी सो झूठ सब, आंखों देखी सांच।

दरिया देखे जानिये, यह कंचन यह कांच।’

ओशो ने अपने आध्यात्मिक अभियान के शुरुआती दौर में घूम-घूम कर अपने क्रांतिकारी वचनों से, अपनी आंतरिकता में अपने-आप को पाने की प्यास लिए, लोगों को खोज-खोज कर पुकार। वास्तविक जीवन की खोज को सही दिशा में ले जाने के लिए उस दौर में (10, 11) अप्रैल, (10, 11, 12) जून और (19) सितम्बर माह, सन् 1966 में ओशो द्वारा दिये गये सात अमृत प्रवचनों को आंखों देखी सांच नामक शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में संकलित किया गया था। Continue reading “आंखों देखी सांच-(भुमिका)”

आंखों देखी सांच-(प्रवचन-07)

प्रवचन-सातवां-(जीवन और धर्म)

फर्गुसन कालेज, पूना, दिनांक 15 सितम्बर, 1966, सुबह

इधर सोचता था- अभी बैठे-बैठे मुझे यह ख्याल आया, और जहां भी धर्म के उत्सव होते हों, जहां भी धर्म की आराधना होती हो, जहां भी धर्म के लिए लोग इकट्ठे हुए हों, वहां निरंतर मुझे यही ख्याल आता है- यह ख्याल आता है कि धर्म से हमारा कोई भी संबंध नहीं है। फिर यह धर्म की स्मृति में हम इकट्ठे क्यों होते हैं? धर्म से हमारा कौन-सा संबंध है? हमारे जीवन का, हमारे प्राणों का कौन-सा नाता है? हमारी जड़ें तो धर्म से बहुत दिन हुए टूट गयी हैं, लेकिन फिर भी हम पत्तों को सम्हालने चले जाते हैं। Continue reading “आंखों देखी सांच-(प्रवचन-07)”

आंखों देखी सांच-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(स्वतंत्रता, सरलता, शून्यता)

कल दो दिनों में थोड़ी बातें मैंने आपसे की हैं। पहले दिन..मनुष्य का जीवन असार में, स्वप्न में छाया में नष्ट हो सकता है; अधिक लोगों का नष्ट हो जाता है। उस संबंध में थोड़े से विचार आपसे कहे थे। दूसरे दिन..कौन सा जीवन छाया का और असार जीवन है, वासना का, तृष्णा का, कुछ होने की दौड़ का, उसके संबंध में, उस आधार के संबंध में हमने सोचा। आज मैं आपसे कहना चाहूंगा, किस मार्ग से, किस क्रांति से असार जीवन की तरफ दौड़ती हुई हमारी चेतना धारा सार्थक, सत्य और सारी की ओर उन्मुख हो सकती है। इसके पहले कि मैं उसकी चर्चा करूं, एक छोटी सी कहानी आपसे कहना चाहूंगा। Continue reading “आंखों देखी सांच-(प्रवचन-06)”

आंखों देखी सांच-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन–(प्रश्न-शून्य चित्त

बहुत प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। यह प्रश्नों की जो भीड़ है, यह हमारे मन की भीड़ की सूचना है। जैसे वृक्षों के पत्ते लगते हैं, वैसे बीमार मन में प्रश्न लगते हैं। रुग्ण चित्त हो, अवस्था चित्त हो तो बहुत प्रश्न पैदा होता तो हैं। जैसे-जैसे चित्त स्वस्थ होता जाता है वैसे-वैसे प्रश्न गिरते जाते हैं। स्वस्थ चित्त का लक्षण निष्प्रश्न हो जाना है। मन में बहुत सी बातें उठती हैं, उनमें से कुछ आपने पूछी हैं। जो बहुत आधारभूत प्रश्न हैं, जिनसे जीवन का संबंध है, उन पर थोड़ी सी अंतिम बात आज आपसे कहूंगा।

प्रश्न दो प्रकार के होते हैं..थोड़ा इस संबंध में आपसे कहूं, फिर आपके प्रश्नों को लूं। एक तो वे प्रश्न हैं जो शास्त्रों द्वारा पैदा हो जाते हैं और एक वे प्रश्न हैं जो जीवन से पैदा होते हैं। शास्त्रों से जो प्रश्न पैदा होते हैं उन्हें हल करने में जो लगा है, वह अपने समय को व्यर्थ खो रहा है। Continue reading “आंखों देखी सांच-(प्रवचन-05)”

आंखों देखी सांच-(प्रवचन-04)

चैथा प्रवचन-(सत्य का बोध)

12-6-1966 फर्गुसन कालेज पूना।

सत्य के संबंध में कल थोड़ी सी बातें मैंने विचार कीं। मैंने आपको कहा, जिसे हम जीवन समझते हैं, जीवन मानते हैं, वह वास्तविक न होकर छाया का जीवन है। और जो व्यक्ति छाया का पीछा करेगा, उसकी उपलब्धि क्या होगी? पहली बात यह है कि छाया का हम कितना भी पीछा करें उसे कभी पकड़ नहीं सकेंगे। असंभव है कि हम छाया को पकड़ लें। और छाया को पकड़ भी लें तो भी हमारी मुट्ठी में क्या होगा, हमारे पास क्या होगा? Continue reading “आंखों देखी सांच-(प्रवचन-04)”

आंखों देखी सांच-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(छाया जगत का बोध)

15-9-1966 बिड़ला केंद्र मुम्बई ।

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा प्रारंभ करना चाहूंगा।

कहानियों से मुझे कुछ प्रेम है, इसलिए कि आदमी का जीवन भी कहानी से ज्यादा नहीं है और इसलिए उचित है कि मनुष्य के जीवन के संबंध में विचार किसी कहानी से शुरू हो।

मैंने सुना है, ईश्वर एक बार किसी देवता से बहुत नाराज हो गया। उस देवता को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया गया दंड के स्वरूप, और साथ ही सजा दी गई…देखने में सजा बहुत छोटी थी, और हमें भी लगेगा कि यह भी क्या कोई सजा है? उस देवता को भी लगा कि यह सजा नहीं है। वह प्रसन्नता से सजा को झेलने को तैयार हो गया। सजा थी कि उस देवता का, जहां भी वह चले, उठे, बैठे, उसकी कोई छाया नहीं पड़ेगी। अब यह कोई सजा न हुई, यह कोई दंड न हुआ। आपकी अगर छाया न पड़े तो इसमें कौन सी बड़ी सजा हो गई? वह देवता स्वर्ग से निकाल दिया गया। जमीन पर आया। धूप में चलता था, उसकी छाया नहीं बनती थी। सोचा इसमें क्या कठिनाई है? Continue reading “आंखों देखी सांच-(प्रवचन-03)”

आंखों देखी सांच-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(स्वयं की खोज)

घाटकोपर, बंबई, दिनांक 17 अप्रैल, 1966

बीते दो दिनों में स्वयं की खोज के लिए कुछ बातें मैंने आपसे कहीं। पहले दिन मैंने आपसे कहा, हमें इस बात का स्मरण भी नहीं है कि हम हैं। हमारी सत्ता का बोध भी हमें नहीं है। और जिसे यह भी पता न हो वह है, उसके जीवन, उसके भविष्य उसकी उपलब्धियों का यदि यह भी बोध नहीं हो कि मैं हूं तो जीवन में और क्या हो सकेगा? फिर तो कोई भी जीवन में गति और विकास नहीं हो सकता। सबसे पहली बात तो यह होगी कि मैं जानूं कि मैं हूं।

और मैं आपसे कहा, यह बहुत आश्चर्यजनक है कि हमें इसका स्मरण भी नहीं आता। जीवन बीत जाता है और हमें पता भी नहीं चलता कि हम थे। Continue reading “आंखों देखी सांच-(प्रवचन-02)”

आंखों देखी सांच-(प्रवचन-01)  

आंखों देखी सांच-(विविध) -ओशो

पहला-प्रवचन–(जीवन की खोज)

घाटकोपर, बंबई, दिनांक 16 अप्रैल, 1966

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं सोचता था, क्या आपसे कहूं? कौन सी आपकी खोज है? क्या जीवन में आप चाहते हैं? ख्याल आया, उसी संबंध में थोड़ी आपसे बात करूं तो उपयोगी होगा।

मेरे देखे, जो हम पाना चाहते हैं से छोड़ कर और हम सब पाने के उपाय करते हैं। इसलिए जीवन में दुख और पीड़ा फलित होते हैं। जो वस्तुतः हमारी आकांक्षा है, जो हमारे बहुत गहरे प्राणों की प्यास है, उसको ही भूल कर और हम सारी चीजें खोजते और इसीलिए जीवन एक वंचना सिद्ध हो जाता है। श्रम तो बहुत करते हैं, और परिणाम कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। दौड़ते बहुत हैं, लेकिन कहीं पहुंचते झरने उपलब्ध नहीं होते। जीवन का कोई स्रोत नहीं मिलता है। ऐसा निष्फल श्रम से भरा हुआ हमारा जीवन है। इस पर ही थोड़ा विचार करें। इस पर ही थोड़ा विचार मैं आपसे करना चाहता हूं। Continue reading “आंखों देखी सांच-(प्रवचन-01)  “

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