महावीर वाणी-(प्रवचन-54)

संन्यास प्रारंभ है, सिद्धि अंत—(प्रवचन—सत्ताइसवां)

दिनांक 11 सितम्बर, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,

पाटकर हाल, बम्बई

मोक्षमार्ग-सूत्रः 4

जया सव्वत्तणं नाणं दंसणं चाभिगच्छइ।

तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली। ।

जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली।

तया जोगे निरुंभित्ता सेलेसिं पडिवज्जइ। ।

जया जोगे निरुंभित्ता सेलेसिं पडिवज्जइ।

तया कम्मं खवित्ताणं सिद्धिं गच्छइ नीरओ। । Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-54)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-53)

अंतस-बाह्य संबंधों से मुक्ति—(प्रवचन—छब्बीसवां)

दिनांक 10 सितम्बर, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,

पाटकर हाल, बम्बई

मोक्षमार्ग-सूत्र : 3

जया निव्विंदए भोए जे दिव्वे जे य माणुसे।

तया चयइ संजोगं, सब्भिन्तरं बाहिरं।।

जया चयइ संजोगं, सब्भिन्तरं बाहिरं।

तया मुण्डे भवित्ताणं, पव्वयइ अणगारियं।।

जया मुण्डे भवित्ताणं, पव्वयइ अणगारियं।

तया संवरमुक्किट्ठं धम्मं फासे अणुत्तरं।। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-53)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-52)

संयम है संतुलन की परम अवस्था—(प्रवचन—पच्चीसवां)

दिनांक 9 सितम्बर, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,

पाटकर हाल, बम्बई

मोक्षमार्ग-सूत्रः 2

जो जीवे वि न जाणे, जीवे वि न जाणइ।

जीवा जीवे याणंतो, कहं सो नाहिइ संजमं।।

जो जीवे वि वियाणाइ, जीवे वि वियाणइ।

जीवा जीवे वियाणंतो, सो हु नाहिइ संजमं।।

जया गइं बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ।

तया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं च जाणइ।।

जया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं च जाणइ।

तया निव्विंदए मोए जे दिव्वे जे य माणुसे।। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-52)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-51)

पहले ज्ञान, बाद में दया—(प्रवचन—चौबीसवां)

दिनांक 8 सितम्‍बर, 1973; तृतीय पर्युषण व्‍याख्‍यानमाला,

पाटकर हाल, बम्‍बई।

 मोक्षमार्ग-सूत्र : 1

कहं चरे? कहं चिट्ठे? कहमासे? कहं सए? कहं भुजलो भासन्तो पाव कम्म न बंधइ?

जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए। जयं भुजलो भासन्तो पावै कम्म न बन्धइ।।

सब्बभूयप्पभूयस्स, सम्म भयाइं पासओ। पिहियासवस्स दलस्म पावै कम्म न बंधइ।।

पडमं नाण तओ दया, एवं चिहुइ सब्बसंजए। अन्नाणी कि काही, कि वा नाहिइ छेय-पावगं?

सोच्चा जाणइ कल्लाण सोच्चा जाणइ पाशा। उभय पि जाणइ सोच्चा, जै छेयं तं समायरे।। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-51)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-50)

कल्याण-पथ पर खड़ा है भिक्षु—(प्रवचन—तेईसवां)

दिनांक 7 सितम्बर, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,

पाटकर हाल, बम्बई

भिक्षु-सूत्र : 4

न परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पेज्ज न तं वएज्जा।

जाणिय पत्तेयं पुण्ण-पावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू।।

न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्ते।

मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्झाणरए जे स भिक्ख।।

पवेयए अज्जपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-50)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-49)

भिक्षु कौन?—(प्रवचन—बाईसवां)

दिनांक 6 सितम्बर, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,

पाटकर हाल, बम्बई

भिक्षु-सूत्रः 3

उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंछं पुलनिप्पुलाए।

कयविक्कयसन्निहिओ विरए, सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू।।

अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्धेउंछं चरे जीविय नाभिकंखे।

इडिंढ़ च सक्कारण-पूयणं च,  चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू।।

जो अपने संयम-साधक उपकरणों तक में भी मूर्च्छा (आसक्ति) नहीं रखता, जो लालची नहीं है, जो अज्ञात परिवारों के यहां से भिक्षा मांगता है, जो संयम-पथ में बाधक होनेवाले दोषों से दूर रहता है, जो खरीदने-बेचने और संग्रह करने के गृहस्थोचित धन्धों के फेर में नहीं पड़ता, जो सब प्रकार से निःसंग रहता है, वही भिक्षु है। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-49)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-48)

अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु—(प्रवचन—इक्कीसवां)

दिनांक 5 सितम्बर, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,

पाटकर हाल, बम्बई

भिक्षु-सूत्रः

जो सहइ हु गामकंटए,  अक्कोस-पहारत्तज्जणाओ य।

भय-भेरव-सद्द-सप्पहासे, समसुह-दुक्खसहे अ जे स भिक्खू

हत्थसंजए पायसंजए,वायसंजए संजइन्दिए।

अज्झप्परए सुसमाहिअप्पा,सुत्तत्थं च वियाणइ जे स भिक्खू

जो कान में कांटे के समान चुभने वाले आक्रोश-वचनों को, प्रहारों को, तथा अयोग्य उपालंभो (तिरस्कार या अपमान) को शांतिपूर्वक सह लेता है, जो भयानक अट्टहास और प्रचण्ड गर्जनावाले स्थानों में भी निर्भय रहता है, जो सुख-दुख दोनों को समभावपूर्वक सहन करता है, वही भिक्षु है। जो हाथ, पांव, वाणी और इंद्रियों का यथार्थ संयम रखता है, जो सदा अध्यात्म-चिंतन में रत रहता है, जो अपने आपको भली भांति समाधिस्थ करता है, जो सूत्रार्थ को पूरा जाननेवाला है, वही भिक्षु है। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-48)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-47)

भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक 4 सितम्बर, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,

पाटकर हाल, बम्बई

भिक्षु-सूत्र : 1

रोइय-नायपुत्त-वयणे, अप्पसमे मन्नेज्ज छप्पि काए।

पंच य फासे महव्वयाइं, पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ।।

सम्मदिट्ठि सया अमूढे, अत्थि हु नाणे तवे संजमे य।

तवसा धुणइ पुराणपावगं,

मण-वय-कायसुसंवुडे जे स भिक्खू ।। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-47)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-46)

वर्णभेद जन्म से नहीं, चर्या से—(प्रवचन—उन्नीसवां)

दिनांक 3 सितम्बर, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,

पाटकर हाल, बम्बई

ब्राह्मण—सूत्र : 3

न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो ।

न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण ण तावसो ।।

समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो।

नाणेण उ मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ।।

कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ ।

वइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ।।

एवं गुणसमाउत्ता, जे भवन्ति दिउत्तमा ।

ते समत्था समुद्धत्तुंपरमप्पाणमेव चे ।। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-46)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-45)

अलिप्तता है ब्राह्मणत्व—(प्रवचन—अठारहवां)

दिनांक 2 सितम्बर, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

ब्राह्मण-सूत्र : 2

दिव्व-माणुसत्तेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं। मणसा काय-वक्केणं, तं वयं बूम माहणं ।।

जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तं कामेहिं, तं वयं बूम माहणं ।।

आलोलुयं मुहाजीविंअणगारं अकिंचणं। असंसत्तं गिहत्थेसुतं वयं बूम माहणं ।।

जो देवता, मनुष्य तथा तियच संबंधी सभी प्रकार के मैथुन का मन, वाणी और शरीर से कभी सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-45)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-44)

राग, द्वेष, भय से रहित है ब्राह्मण—(प्रवचन—सत्रहवां)

दिनांक 1 सितम्बर, 1973;  तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

ब्राह्मण-सूत्र : 1

जो न सज्जइ आगन्तुं, पव्वयन्तो न सोयई। रमइ अज्जवयणम्मि, तं वयं बूम माहणं ।।

जायरुवं जहामट्ठं, निद्धन्तमल-पावगं। राग-दोस-भयाईयं, तं वयं बूम माहणं ।।

तवस्सियं किसं दन्तं, अवचियमंससोणियं। सुव्वयं पत्तनिव्वाणं,

तं वयं बूम माहणं ।।

जो आनेवाले स्नेही-जनों में आसक्ति नहीं रखता, जो उनसे दूर जाता हुआ शोक नहीं करता, जो आर्य-वचनों में सदा आनन्द पाता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-44)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-43)

कौन है पूज्य?—(प्रवचन—सोलहवां)

दिनांक 31 अगस्त, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

पूज्य-सूत्र:

आयारमट्ठा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं। 

जहोवइट्ठं अभिकंखमाणो, गुरुं तु नासाययई स पुज्जो ।।

अन्नायउंछं चरई विसुद्धं, जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं।

अलद्धुयं नो परिदेवएज्जा, लद्धुं न विकत्थई स पुज्जो ।।

संथारसेज्जासणभत्तपाणे अपिच्छाया अइलाभे वि सन्ते।

जो एवमप्पाणभितोसएज्जा, संतोसपाहन्नरए स पुज्जो ।।

गुणेहि साहू अगुणेहि साहू, गिण्हाहि साहू गुण मुंच साहू।

वियाणिया अप्पगमप्पएणंजो रागदोसेहिं समो स पूज्जो ।। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-43)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-42)

पांच समितियां और तीन गुप्तियां—(प्रवचन—पंद्रहवां) 

दिनांक 30 अगस्त, 1976; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

लोकतत्व-सूत्र : 6

अट्ठ पवयणमायाओ, समिई गुत्ती तहेव य। पंचेव य समिईओ, तओ गुत्तीओ आहिया ।।

इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय। मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती य अट्ठमा।।

एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणे बुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो।।

एसा पवयणमाया, जे सम्मं आयरे मुणी। से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए।।

पांच समिति और तीन गुप्ति–इस प्रकार आठ प्रवचन-माताएं कहलाती हैं।

ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उच्चार या उत्सर्ग–ये पांच समितियां हैं। तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति–ये तीन गुप्तियां हैं। इस प्रकार दोनों मिलकर आठ प्रवचन-माताएं हैं।

पांच समितियां चारितरय की दया आदि प्रवृत्तियों में काम आती हैं, और तीन गुप्तियां सब प्रकार के अशुभ व्यापारों से निवृत्त होने में सहायक होती हैं।

जो विद्वान मुनि उक्त आठ प्रवचन-माताओं का अच्छी तरह आचरण करता है, वह शीघ्र ही अखिल संसार से सदा के लिए मुक्त हो जाता है।

साधना के आठ सूत्र महावीर ने इन वचनों में कहे हैं। जीवन के दो पहलू हैं। एक उसका विधायक रूप है–सक्रिय, एक उसका निषेधक रूप है–निष्‍क्रिय। जीवन में जो हम करते हैं, जीवन में जो हम होते हैं, उसमें दोनों का हाथ होता है। पुण्य भी किया जा सकता है सक्रिय होकर, और पुण्य किया जा सकता है निष्‍क्रिय होकर भी। पाप भी किया जा सकता है सक्रिय होकर, और पाप किया जा सकता है निष्‍क्रिय होकर भी।

साधारणतः हम सोचते हैं कि पाप या पुण्य सक्रिय होकर ही किए जा सकते हैं। एक व्यक्ति लूटा जा रहा है। जो लूट रहा है वह पाप कर रहा है, लेकिन आप खड़े होकर देख रहे हैं, कुछ भी नहीं कर रहे हैं, तो भी महावीर कहते हैं पाप हो गया; आप नकारात्मक रूप से सहयोगी हैं। आप रोक सकते थे, नहीं रोक रहे हैं; आप पाप कर नहीं रहे हैं; लेकिन पाप होने दे रहे हैं। वह होने देना भी आपकी जिम्मेदारी है।

तो जो आप पाप करते हैं, वे तो आपके पाप हैं ही–जो पाप दूसरे करते हैं, और आप होने देते हैं–उनकी जिम्मेदारी भी आपके ऊपर है।

इस पृथ्वी पर कहीं भी कोई पाप हो रहा है, तो हम सब भागीदार हो गये, क्योंकि हम चाहते तो उसे रोक सकते थे–निष्‍क्रिय भागीदार। वे जो पाप करनेवाले लोग हैं, इसीलिए पाप कर पा रहे हैं–इसलिए नहीं कि दुनिया में बहुत पापी हैं–बल्कि इसलिये कि दुनिया में बहुत नकारात्मक पापी हैं; वे जो पाप को होने देंगे।

दुनिया में बुरे लोग ज्यादा नहीं हैं, यह सुनकर हैरानी होगी। निश्चित ही दुनिया में बुरे लोग ज्यादा नहीं हैं, लेकिन दुनिया में निष्‍क्रिय बुरे लोग ज्यादा हैं, जो बुरा करते नहीं, लेकिन बुरा होने देते हैं–जो बुरे को होने से रोकने की तत्परता नहीं दिखाते।

महावीर इन सूत्रों में दो हिस्से कर रहे हैं साधना के, एक विधायक और निषेधक। पांच विधायक तत्व हैं साधक के लिए, और तीन निषेधक तत्व हैं। इन आठ के बीच जो जीने की कला सीख लेता है, उसे धर्म का स्वरूप उपलब्ध हो जाता है। और जिसे धर्म की स्वयं की अनुभूति हुई हो, वही धर्म के संबंध में कुछ बोल सकता है। इसलिए महावीर ने इन्हें “प्रवचन-माताएं’ कहा है। इन आठ को जो उपलब्ध नहीं है, उसके बोलने का कोई भी मूल्य नहीं है। खतरा भी हो सकता है; क्योंकि जो हम नहीं जानते उस संबंध में कुछ भी कहना खतरनाक है।

जीवन बड़ी सूम और जटिल बात है। अनजाने, बिना जाने अज्ञान में दी गई सलाह जहर हो जाती है। शुभ इच्छा से भी दी गई सलाह जहर हो जाती है, अगर आपको ठीक-ठीक सत्य का पता न हो। दुनिया में अधर्म कम हो सकता है, यदि वे लोग जिन्हें धर्म का स्वयं अनुभव नहीं है, बोलना बंद कर दें, लेकिन वे बोले चले जाते हैं।

बोलना बहुत कारणों से पैदा हो सकता है। अकसर तो अहंकार को रस मिलता है। जब कोई बोलता है और कोई सुनता है, तो बड़ी अनूठी घटना घट रही है। बोलनेवाला बिना जाने भी बोल सकता है, क्योंकि और भी रस हैं। जब कोई बोलता है और कोई सुनता है, तो जो बोलता है वह मालिक हो गया और सुननेवाला गुलाम हो गया; जो बोलता है वह ऊपर हो गया, जो सुननेवाला है वह नीचे हो गया; जो बोलता है वह हिंसक हो गया और सुननेवाला हिंसा का शिकार हो गया।

जब कोई बोल रहा है तो आप पर हमला कर रहा है, आप पर हावी हो रहा है, आपके मस्तिष्क पर सवार हो रहा है। इसमें रस है। गुरु होने में बड़ा मजा है। उस मजे के कारण बिना इसकी चिंता किये कि मैं जानता हूं या नहीं जानता–लोग बोले चले जाते हैं, लिखे चले जाते हैं, समझाये चले जाते हैं।

सलाह की कोई कमी नहीं, मार्ग-र्निदेशक सब जगह खड़े हैं। जिनका खुद का भी कोई मार्ग नहीं है, वे भी मार्ग-र्निदेश कर सकते हैं; क्योंकि र्निदेश करने में अहंकार को बड़ी तृप्ति है। खुद अपनी तरफ सोचें तो आपको खयाल आएगा। कोई आपसे पूछे–सलाह बिना पूछे आप देते हैं–कोई पूछे तब तो रुकना बहुत मुश्किल है ! तब तो टेम्पटेशन, तब तो उत्तेजना बहुत हो जाती है, फिर आप सलाह देते ही हैं !

कभी आपने सोचा है कि जो सलाह आप दे रहे हैं, वह आपका निश्चित अपना अनुभव है, या सिर्फ एक आदमी की मजबूरी का लाभ उठा रहे हैं ! क्योंकि वह परेशानी में है, आप सलाहकार बन सकते हैं ! इसलिए दुनिया में सलाह मुफ्त मिलती है, जरूरत से ज्यादा मिलती है, हालांकि कोई उसे मानता नहीं।

दुनिया में शिष्यों की बजाय गुरु सदा ज्यादा हैं। और वह जो शिष्य है, वह भी शायद इसीलिये शिष्य है कि गुरु होने की तैयारी कर रहा है। और गुरु को भी सलाह दिये बिना आप बचते नहीं ! उसको भी आप सलाह देंगे ही !

आदमी का अहंकार तृप्त होता है इस प्रतीति से कि मैं जानता हूं, दूसरा नहीं जानता है। दूसरे को अज्ञानी सिद्ध करने में बड़ा मजा है। यह बड़ा सूम संघर्ष है। एक सूम पहलवानी है, जिसमें दूसरे को गलत सिद्ध करके अपने को सही सिद्ध करने का अहंकार पुष्ट होता है।

महावीर ने कहा है : जो इन आठ सूत्रों की साधना से न गुजर जाए उसे बोलने का हक भी नहीं है। महावीर खुद बारह वर्ष तक मौन रह गये। बहुत मौके आए जब सलाह देने की तीव्र वासना उठी होगी, लेकिन उसे उन्होंने रोक लिया। एक ही बात सदा ध्यान रखी कि जब तक मैं पूरा मौन नहीं हो जाता, तब तक शब्द पर मेरा कोई अधिकार नहीं है।

यह बड़ा उल्टा दिखाई पड़ेगा। जो मौन हो जाता है, वही शब्द का अधिकारी है; जो शून्य हो जाता है, वही प्रवचन का हकदार है। जो भीतर शब्दों से भरा है, वह जो भी बोल रहा है, वह बोलना वमन है, उल्टी है। वह इतना भरा है कि उसे निकालने की उसे जरूरत है। आप सिर्फ एक पात्र हैं, जिसमें वह वमन कर देता है। लेकिन आपकी जरूरत का सवाल नहीं है कि आपको क्या चाहिए, असली जरूरत बोलनेवाले की है कि उसे क्या अपने से निकालना है।

आप खुद भी जानते हैं कि अगर कुछ आप पढ़ लें सुबह अखबार में, तो बेचैनी शुरू हो जाती है कि जल्दी किसी को जाकर कहें। कोई कुछ खबर दे दे, किसी की अफवाह सुना दे, किसी की बदनामी कर दे, किसी की निंदा कर दे–तो फिर आपसे रुका नहीं जाता, जल्दी ही इस संवाद को, इस सुखद समाचार को आप दूसरे को देना चाहते हैं। और निश्चित ही देते वक्त आप थोड़ी कल्पना का भी  उपयोग करते हैं। आप भी थोड़े कवि हैं, आप उसमें कुछ जोड़ते हैं; उसको सजाते हैं; संवारते हैं। सुबह की अफवाह शाम अगर उसी आदमी के पास वापस लौट आए, जिसने शुरू की थी, तो वह पहचान नहीं सकेगा कि यह बात मैंने ही कही थी। इतने लोगों के हाथ से निखर जायेगी। सुबह पांच रुपये की चोरी हुई हो तो सांझ तक पांच लाख की हो जाना कुछ अड़चन की बात नहीं है।

मन में कुछ आया कि आप जल्दी उसे देना चाहते हैं; क्यों? क्योंकि फिर आप हल्के हो जाएंगे; जब तक नहीं देते, तब तक मन पर बोझ बना रहता है। इसलिए किसी बात को गुप्त रखना बड़ा कठिन है। और जो लोग किसी बात को गुप्त रख सकते हैं, बड़ी गहरी क्षमता है उनकी। और जब आप शब्द तक को गुप्त नहीं रख सकते, तो और क्या गुप्त रखेंगे। इसलिए गुरुमंत्र का नियम है : मंत्र में कुछ भी न हो, लेकिन उसे गुप्त रखना है। गुप्त रखने में ही सारी साधना है, मंत्र उतना मूल्यवान नहीं है। क्योंकि कहने का मन इतना नैसर्गिक है, इतना स्वाभाविक है कि किसी चीज को रोकना बिलकुल अस्वाभाविक मालूम होता है। आप किसी न किसी भांति किसी न किसी से कह देना चाहते हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन के पास कोई आया, और आकर उसने कहा, “मैंने सुना है कि तुम्हें जीवन के रहस्य की कुंजी मिल गई है, वह कुंजी तुम मुझे दे दो।’ नसरुद्दीन ने कहा कि “वह बड़ी गुप्त बात है, बड़ा सीक्रेट है।’ उस आदमी ने कहा कि “मैं भी उसे गुप्त रखने की कोशिश करूंगा।’ नसरुद्दीन ने कहा कि “तू पक्की कसम खा कि उसे गुप्त रखेगा।’ उस आदमी ने कसम खाई; उसने कहा, “मैं गुप्त रखूंगा,’ नसरुद्दीन ने कसम सुनने के बाद कहा, “अब जा।’ पर उसने कहा, “अभी आपने मुझे वह कुंजी बताई नहीं।’ नसरुद्दीन ने कहा कि “जब तू गुप्त रख सकता है तो मैं गुप्त नहीं रख सकता? और जब मैं ही न रख सकूंगा तो तेरा क्या भरोसा?’

कठिन है, अति अप्राकृतिक है कि कोई बात आपके मन में चली जाये और आप उसे न कहें। एक ही उपाय है कि वह बात शब्द न रह जाये, खून बन जाये, हड्डी हो जाये, पच जाये, मांस-मज्जा हो जाये, तो ही गुप्त रह सकती है। इसलिए गुप्त रखने की एक कला है। उस कला के माध्यम से जो शब्द आपके भीतर जाते हैं, उनको आप बाहर नहीं फेंकते, ताकि वे पच जायें–वे समय लेंगे। आप बाहर फेंक देते हैं, इसलिए मैंने कहा–वमन, उल्टी, कय हो गई। जो आपने खाया था, वह वापस मुंह से फेंक दिया गया। वह पच नहीं पाया। मौन पचायेगा–और तभी बोलेगा, जब इतनी शांति गहन हो जायेगी भीतर कि अब कोई अशांति नहीं है, जिसे किसी पर फेंकना है; अब किसी को शिकार नहीं बनाना है।

मौन व्यक्ति ही सहयोगी हो सकता है, मार्ग-र्निदेशक हो सकता है। हिंदुओं ने अपने संन्यासी को “स्वामी’ कहा, इस अर्थ में कि वह अपना मालिक हो गया। बुद्ध ने अपने संन्यासी को “भिक्षु’ कहा, इस अर्थ में कि इस दुनिया में सभी अपने को मालिक समझ रहे हैं–और गलत। कोई अपने को भिक्षु नहीं समझता, कोई अपने को अंतिम नहीं समझता। मेरा संन्यासी अपने को अंतिम समझेगा, भिखारी समझेगा, ताकि महत्वाकांक्षा की दौड़ से टूट जाए।

महावीर ने अपने साधु को “मुनि’ कहा। इस कारण से मुनि कहा कि महावीर का मौन पर सर्वाधिक जोर है। और महावीर कहते हैं, जो मौन को उपलब्ध नहीं हो जाता, मुनि नहीं हो जाता, उससे सत्य की कोई किरण प्रगट नहीं हो सकती।

ये आठ सूत्र बड़े अनूठे हैं। इनमें, एक-एक सूत्र पर हम क्रमशः विचार करें।

“पांच समिति और तीन गुप्ति–इस प्रकार आठ प्रवचन-माताएं हैं।’ जो आपको बोलने के योग्य बना सकेंगी। बोलते तो आप हैं, लेकिन बोलने की कोई योग्यता नहीं है। बोलना आपकी एक बीमारी है, एक रोग है। इसलिए बोलकर आप अपने को हल्का अनुभव करते हैं, बोझ उतर जाता है। दूसरे से प्रयोजन नहीं है–अगर आपको कोई बोलने को न मिले तो आप अकेले में भी बोलेंगे। अगर आपको बंद कर दिया जाए एक कोठरी में, और कोई न मिले, तो थोड़ी ही देर में आप अकेले बोलना शुरू कर देंगे।

अभी भी रास्ते पर अगर आप खड़े हो जाएं तो कई लोग आपको दिखाई पड़ेंगे, जो अपने से बातचीत करते चले जा रहे हैं। कोई हाथ हिला रहा है, कोई जवाब दे रहा है–किसी को जो मौजूद नहीं है। उसके ओंठ हिल रहे हैं, उसकी आंखें कंप रही हैं–वह किसी के साथ है। पागलखाने में जाकर देखें, लोग अपने से बातें कर रहे हैं।

आप में भी बहुत फर्क नहीं है। जब आप दूसरे से बात कर रहे हैं तो दूसरा तो केवल बहाना है, बात आप अपने से ही कर रहे हैं। इसलिये दो लोगों की बातचीत सुनें, शांत मौन होकर, तो आप हैरान होंगे कि वे एक-दूसरे से बातचीत नहीं कर रहे–दोनों अपना-अपना बोझ फेंक रहे हैं। न उसको प्रयोजन है, न इसको प्रयोजन है। दूसरे से कोई संबंध नहीं है, दूसरा खूंटी की तरह है। आप आये अपना कोट खूंटी पर टांग दिया। कोई खूंटी से मतलब नहीं है, कोट टांगने से मतलब है। कोई भी खूंटी काम दे देगी। तो जो भी मिल जाये, जो भी अभागा आपके हाथ में पड़ जाये, उस पर आप फेंक रहे हैं !

महावीर कहते हैं : बोलने का अधिकार उसको ही है, जो न बोलने की कला को उपलब्ध हो गया। लेकिन न बोलने की कला एक गहन प्रक्रिया है। पूरे जीवन की धारणा, दृष्टि, आधार बदलने पड़ेंगे। उन आधार को बदलनेवाली ये आठ वैज्ञानिक प्रक्रियाएं हैं : पांच समिति और तीन गुप्ति।

समितियां है विधायक–पाजिटिव, और गुप्तियां हैं निगेटिव–नकारात्मक। समिति में खयाल रखना है उसका जो आप करते हैं, और गुप्ति में खयाल रखना है उसका जो आप नहीं करते हैं। और, विधायक और नकार दोनों संभल जायें तो आप दोनों के पार हो जाते हैं।

“ईर्या, भाषा, एषणा, आदान और उच्चार–ये पांच समितियां हैं।’

“ईर्या’ का अर्थ है : साधक जो भी प्रवृत्ति करे, उसमें सावधानी रखे। महावीर ने कहा है : उठो, बैठो, चलो–होशपूर्वक, अवेयरनेस। कोई भी प्रवृत्ति करो, वह बेहोशी से न हो, इसका नाम “ईर्या-समिति’ है।

हम जो भी कर रहे हैं, बेहोशी में कर रहे हैं। चलते हैं, लेकिन चलने से कोई मतलब नहीं, मन कुछ और करता रहता है। और जब मन कुछ और करता रहता है, तो चलने में हम बेहोश हो जाते हैं। भोजन करते हैं, मन कुछ और करता रहता है–तो भोजन करने में बेहोश हो जाते हैं। किसी से बात भी आप कर रहे हैं तो भी बात ऊपर चल रही है, भीतर आपका मन कुछ और कर रहा है–तो आप बात में भी बेहोश हो जाते हैं।

महावीर ने कहा है कि साधक का प्राथमिक चरण है, उसकी सारी क्रियाएं होशपूर्वक हो जायें। जिसको गुरजिएफ ने “सेल्फ-रिमेम्बरिंग’ कहा है, और जिस पर गुरजिएफ ने अपने पूरे साधना का आधार रखा है, या जिसको कृष्णमूर्ति “अवेयरनेस’ कहते हैं, उसे महावीर ने “ईर्या-समिति’ कहा है। वह उनका पहला तत्व है, अभी सात तत्व और हैं। लेकिन पहला इतना अदभुत है कि अगर उसे कोई पूरा साधने लगे तो सात के बिना भी सत्य तक पहुंच सकता है।

जो भी आप कर रहे हैं, करते वक्त क्रिया के साथ आपकी चेतना संयुक्त होनी चाहिये। कठिन है, क्योंकि चौबीस घंटे आप कुछ-न-कुछ कर रहे हैं। हजार तरह की क्रियाएं हो रही हैं। उन सारी क्रियाओं में अगर आप बोध रखें तो आप चकित हो जाएंगे, एक सेकंड भी बोध रखना मुश्किल मालूम पड़ेगा। तब आपको पहली दफे पता चलेगा कि आप अब तक बेहोशी में जी रहे थे। एक सेकंड भी आप चलने का खयाल रखकर चलें कि आपकी चेतना पूरी चलने की क्रिया पर अटकी रहे। बायां पैर उठा तो उसके साथ चेतना उठे, बायां पैर नीचे गया और दायां उठा तो उसके साथ चेतना उठे। आप पायेंगे, एक-आध सेकंड मुश्किल से यह हो पाता है–कि चेतना खो गई, पैर अपने-आप उठने लगे, मन कहीं और चला गया, कुछ और सोचने लगा। तब आपको फिर खयाल आयेगा–मैं सो गया !

महावीर ने कहा है : मैं उसी को साधु कहता हूं, जो जागा हुआ है; असाधु उसको कहता हूं, जो सोया हुआ है। सुत्ता अमुनि, असुत्ता मुनि–जो जागा हुआ है, असोया हुआ है वह “मुनि’, जो सोया हुआ है वह “अमुनि’।

तो आप क्या करते हैं, यह बड़ा सवाल नहीं है। कैसे करते हैं? होशपूर्वक या बेहोशी में। यह भी हो सकता है कि दान करनेवाला असाधु हो, अगर बेहोशी से कर रहा है; और चोरी करनेवाला साधु हो जाये, अगर होशपूर्वक कर रहा है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप जाकर होशपूर्वक चोरी करें। मैं यह कह रहा हूं इतनी दूर तक संभावना है होश की, कि अगर होशपूर्वक कोई चोरी करे तो भी साधु होगा, और बेहोशी से कोई दान दे तो भी असाधु होगा। सचाई तो यह है कि होशपूर्वक चोरी हो नहीं सकती और न बेहोशी में दान हो सकता है। बेहोशी का दान झूठा है, उसके प्रयोजन दूसरे हैं। होश में चोरी असंभव है, क्योंकि चोरी के लिए बेहोशी अनिवार्य तत्व है। जो भी बुरा है जीवन में, उसके लिए मूर्छा चाहिए।

इसलिए जब भी आप बुरा करते हैं, तब आप मूर्छित होते हैं। जब भी आप मूर्छित हो जाते हैं, बुरा करने की संभावना प्रगाढ़ हो जाती है। हिंसा में, हत्या में, झूठ में, चोरी में, पाप में, वासना में आप होश में नहीं होते, आप बेहोश हो जाते हैं। कुछ भीतर आपके सो जाता है। आप पछताते हैं बहुत बार, जब जागते हैं, जब क्षणभर को होश वापिस लौटता है, तो खयाल आता है–“यह मैंने क्या किया? यह मुझे नहीं करना था ! और यह मैं जानता था कि यह नहीं करना है ! न मालूम कितनी बार निर्णय किया था कि नहीं करूंगा, फिर भी हो गया !’ कैसे हुआ आपसे यह? निश्चित ही बीच में किसी धुएं ने घेर लिया, आपका चित्त खो गया निद्रा में।

महावीर कहते हैं–साधु ईर्या से चले, उठे-बैठे, प्रवृत्ति करे। जो भी करे, क्षुद्रतम प्रवृत्ति भी होशपूर्वक हो। क्यों? क्योंकि प्रवृत्ति दूसरे से जोड़ती है। बेहोश आदमी के संबंध हिंसात्मक होंगे। वह दूसरे को चोट पहुंचा देगा। जैसे कोई आदमी नशे में यहां से चले और आपके पैर पर पैर रख दे, तो आप क्या कहेंगे? कहेंगे कि यह आदमी नशे में है। लेकिन हम ऐसे ही जीवन में चल रहे हैं–नशे में।

नशे बहुत तरह के हैं, तरहत्तरह के हैं। हर आदमी का अपना-अपना नशा है। कोई आदमी धन के नशे में चल रहा है। देखें–जब किसी के पास धन होता है, तो उसकी चाल अलग होती है। आपके खीसे में भी जब पैसे ज्यादा होते हैं तो आपकी चाल वही नहीं होती। आप अनुभव करना। जब खीसे में पैसा नहीं होता तो आप और ढंग से चलते हैं। नशा ही नहीं है। चाल में जान नहीं मालूम पड़ती। जब खीसे में पैसे होते हैं, तब रीढ़ सीधी हो जाती है ! कुंडलिनी जागृत हो जाती है ! आप बहुत अकड़कर चलते हैं।

राजनीतिज्ञ जब पद पर होता है, तब उसकी चाल देखें; जैसे कपड़े पर नया-नया कलफ किया गया हो ! और जब पद से उतर जाता है, तब उसकी चाल देखें; जैसे रातभर उन्हीं कपड़ों को पहनकर सोया हो ! सब अस्त-व्यस्त हो जाता है। सब चमक चली जाती है। सब शान चली जाती है। धनी निर्धन हो जाये तो देखें। स्वस्थ आदमी बीमार हो जाये तो देखें।

नशे हैं। कोई ज्ञान के नशे में है–तब ज्ञान की अकड़ होती है कि मैं जानता हूं। हजार तरह के नशे हैं। नशा उसको कहते हैं, जिससे आप अकड़ते हैं, और बेहोश होते हैं, और होशपूर्वक नहीं चल पाते।

साधना का अर्थ ही है कि नशों को तोड़ना। जहां-जहां चीजें हमें बेहोश करती हैं, उन-उन से संबंध विच्छिन्न करना, और एक ऐसी सरल स्थिति में आ जाना जहां सिर्फ चेतना हो और किसी तरह की बेहोशी के तत्व से संबंध न रहा हो।

धन में खतरा नहीं है। धन से जो नशे से भर जाते हैं, उसमें खतरा है। तो निर्धन होने से काम न चलेगा; क्योंकि आदमी इतना चालाक है कि निर्धन होने का भी नशा हो सकता है।

सुकरात से मिलने एक फकीर आया। उस फकीर ने चीथड़े पहन रखे थे, जिनमें छेद थे। उस फकीर का नियम था कि अगर कोई नया कपड़ा भी उसको दे दे तो वह नया कपड़ा नहीं पहनता था। फकीर–वह पहले उसमें छेद कर लेता, कपड़े को गंदा करता, फाड़ता–तब पहनता ! गुदड़ी बना लेता, तब कपड़े का उपयोग करता !

फटे-पुराने, गंदे कपड़े पहने हुए फकीर आया सुकरात से मिलने। सुकरात ने उससे कहा कि “तुम कितने ही फटे कपड़े पहनो, तुम्हारे छिद्रों से तुम्हारा अहंकार ही झांकता है। तुम्हारे छिद्र भी तुम्हारे अहंकार का हिस्सा हैं; वे भी तुम्हें भर रहे हैं। तुम जिस अकड़ से चल रहे हो, सम्राट भी नहीं चलता!’ क्योंकि वह आदमी, समझ रहा है, “मैं फकीर हूं, त्यागी हूं!’  त्यागियों को देखें ! उनकी अकड़ देखें! जैसे सब क्षुद्र हो गये हैं उनके सामने। भोगी को वे ऐसे देखते हैं, जैसे कीड़ा-मकोड़ा–पाप में गिरा हुआ, पाप की गर्द में गिरा हुआ। उनके ऊपर बोझ है कि आपको पाप से उठायें। अब नरक आपका निश्चित है। जब भी वे आपको देखते हैं तो उनको लगता है–बेचारा ! नरक में सड़ेगा ! लेकिन उन्हें खयाल नहीं आता कि नरक में सड़ाने का यह खयाल बड़े गहरे अहंकार का खयाल है।

त्याग नशा दे रहा है। तो त्यागी और ढंग से उठता है, और ढंग से बैठता है। उसकी अकड़–उसकी अकड़ मजेदार है। वह कहता है, “मैंने रुपयों पर लात मार दी, तिजोरी को ठुकरा दिया; पत्नी सुन्दर थी, आंख फेर ली! तुम अभी तक पाप में पड़े हो!’ वह अपनी हर प्रक्रिया से–“मैं कुछ ज्यादा हूं, कुछ महत्वपूर्ण हूं, कुछ खास हूं’, इसकी कोशिश कर रहा है।

और आदमी ने खास होने की इतनी कोशिशें की हैं कि जिसका हिसाब नहीं। आदमी कोई भी नालायकी कर सकता है, अगर खास होने का मौका मिले। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अधिक लोग अपराध की तरफ इसलिए प्रवृत्त हो जाते हैं कि अपराधी होकर वे खास हो जाते हैं। हजारों अपराधियों का अध्ययन करके इस नतीजे पर पहुंचा गया है कि अगर उनके अहंकार को तृप्त करने का कोई और रास्ता खोजा गया होता तो उन्होंने अपराध न किये होते। अनेक हत्यारों ने वक्तव्य दिये हैं, और वक्तव्य बड़े गहरे हैं कि वे सिर्फ अखबार में अपना नाम छपा एक दफा देखना चाहते थे। जब उन्होंने किसी की हत्या कर दी तो अखबार में सुर्खियों में नाम छप गया।

हमारे अखबार भी हत्याओं में सहयोगी हैं। आप किसी को बचा लें, कोई अखबार में कोई खबर न छापेगा; किसी को मार डालें, अखबार में खबर छप जायेगी। ऐसा लगता है कि बुरा करना प्रसिद्ध होने के लिए बिलकुल आवश्यक है। शुभ की कोई चर्चा नहीं होती। शुभ जैसे प्रयोजन ही नहीं है !

मनसविद कहते हैं कि जब तक हम अशुभ को मूल्य देंगे, तब तक कुछ लोग अशुभ से अपने अहंकार को भरते रहेंगे।

खास होने का मजा है। राबर्ट रिप्ले ने लिखा है कि वह जवान था, और प्रसिद्ध होना चाहता था। जवानी में सभी प्रसिद्ध होना चाहते हैं–स्वाभाविक है, जवानी इतनी पागल है, इतनी बेहोश है। चिंता तो तब होती है, जब बुढ़ापे में कोई उसी पागलपन में पड़ा रहता है।

तो रिप्ले प्रसिद्ध होना चाहता था, लेकिन कोई उसे उपाय नहीं सूझता था, कैसे प्रसिद्ध हो जाये।

दुनिया इतनी बड़ी है अब, और इतनी करीब आ गई है कि प्रसिद्धि के मौके कम हो गये हैं। दुनिया में, मनसविद कहते हैं कि मानसिक रोग बढ़ते जाते हैं, क्योंकि प्रसिद्धि के मौके कम होते जाते हैं। पुरानी दुनिया में हर गांव अपने में एक दुनिया था। गांव का कवि “महान-कवि’ था, क्योंकि दूसरे गांव से कोई तुलना नहीं थी। गांव का चमार भी “महान-चमार’ था, क्योंकि उस जैसे जूते बनानेवाला कोई भी नहीं था। गांव में सैकड़ों लोगों का अहंकार तृप्त हो रहा था। अब पूरे मुल्क में जब तक आप “राषट्ररीय-चमार’ न हो जायें, “राष्‍ट्र-कवि’ न हो जायें, तब तक आपकी कोई कीमत नहीं है। हजारों कवि हैं, हजारों चमार हैं, हजारों दुकानदार हैं, हजारों कोई पूछनेवाला नहीं है इस संख्या में। और दुनिया सिकुड़ती जाती है। जब तक विश्व-कवि न हो जायें, तब तक बहुत मजा नहीं, जब तक नोबल प्राइज न मिल जाए तब तक कुछ मजा नहीं। कठिन होता जाता है; अधिक लोगों के अहंकार तृप्त नहीं हो पाते। अधिक लोगों की मूर्च्छा तृप्त नहीं हो पाती तो बीमार हो जाते हैं, रुग्ण हो जाते हैं।

रिप्ले जवान था और प्रसिद्ध होना चाहता था। तो जब उसे कुछ नहीं सूझा तो उसने एक आदमी से सलाह ली। जिससे सलाह ली वह एक सर्कस का मालिक था। उसने कहा, “यह भी कोई खास बात है, बिलकुल सरल बात है। तू आधी खोपड़ी के बाल काट दे, आधी दाढ़ी काट दे, आधी मूंछ काट दे–और सड़क से सिर्फ गुजर, कुछ मत बोल किसी से। लोगों को देखने दे, कोई कुछ पूछे तो मुस्कुरा।’

रिप्ले ने कहा, “इससे क्या होगा’? उसने कहा कि “तीन दिन के बाद तू आना।’

तीन दिन बाद आने की जरूरत न रही, सारे अखबारों में खबरें छप गइ। जगह-जगह लोग खड़े होकर देखने लगे। नाम व पता उसने अपनी छाती पर लिख रखा था। लोग उससे पूछते कि “आप कौन हैं?’ तो वह सिर्फ मुस्कुराता। सड़कों पर सिर्फ घूमता रहता। तीन दिन में वह न्यूयार्क में प्रसिद्ध हो गया। तीन महीने के भीतर पूरी अमेरिका उसको जानती थी। तीन साल के भीतर दुनिया में बहुत कम लोग थे जो उसको नहीं जानते थे। फिर तो उसने जिन्दगीभर इस तरह के काम किए। और इस जमीन पर कम ही लोग इतने प्रसिद्ध होते हैं, जैसा राबर्ट रिप्ले हुआ। फिर तो वह इसी तरह के उल्टे-सीधे काम में लग गया।

मगर प्रसिद्धि मिलती है, अहंकार तृप्त होता है, अगर आप सिर्फ खोपड़ी के बाल काट लें आधे तो। जिसको आप साधु कहते हैं, वह जो साधु नाम का जीव है, उनमें से सौ में से निन्यानबे लोग खोपड़ी के आधे बाल काटे हुए हैं ! मगर उससे प्रसिद्धि मिलती है, सम्मान मिलता है, आदर मिलता है, मूर्च्छा तृप्त होती है।

मूर्च्छा के लिए अहंकार भोजन है। अहंकार के लिए मूर्च्छा सहयोगिनी है।

महावीर कहते हैं, “ईर्या-समिति’ पहली समिति है। व्यक्ति जो भी करे, होशपूर्वक करे। करने की फिक्र छोड़ दे कि वह क्या कर रहा है, इसकी फिक्र करे कि मैं होशपूर्वक कर रहा हूं कि नहीं।

हम सब की चिंता होती है कि “हम क्या कर रहे हैं?’–गलत तो नहीं कर रहे हैं, सही तो कर रहे हैं। चोरी तो नहीं कर रहे हैं, दान कर रहे हैं। हिंसा तो नहीं कर रहे, अहिंसा कर रहे हैं।

“क्या कर रहे हैं’–इस पर हमारा जोर है। महावीर का सारा जोर इस पर है कि वह जो कर रहा है, वह जागकर कर रहा है या सोकर कर रहा है?

तो आप अहिंसा कर सकते हैं–सोये-सोये, और दूसरी तरफ हिंसा जारी रहेगी।

कलकत्ते में, एक घर में मैं मेहमान था। बहुत बड़े धनपति हैं। सांझ को मैंने देखा कि बाहर कुछ खाटें लगा रखी हैं। तो पूछा कि “यह क्या मामला है?’ उन्होंने कहा कि “अहिंसा के कारण। खटमल पैदा हो गये हैं खाट में, मार तो सकते नहीं, लेकिन उनको धूप में डाल देंगे तो वे मर ही जायेंगे। तो रात को नौकरों को उन पर सुला देते हैं। नौकरों को दो रुपये रात दे देते हैं सोने के लिये।’

अब यह बड़ा मजेदार मामला हुआ। अहिंसक होने की कोशिश चल रही है–“खटमल न मर जाये!’ लेकिन दो रुपये देकर जिस आदमी को सुलाया है, उसको रातभर खटमल खा रहे हैं! पर उसको दो रुपये मैंने दे दिए हैं, इसलिए कोई अड़चन नहीं मालूम होती! सब मामला साफ हो गया, सुथरा हो गया !

एक तरफ अहिंसा करो, अहिंसा करने की कोशिश होगी, दूसरी तरफ हिंसा होती चली जायेगी। क्योंकि भीतर से चेतना तो बदल नहीं रही, सिर्फ कृत्य का रूप बदल रहा है; भीतर से आदमी तो बदल नहीं रहा, सिर्फ उसका व्यवहार बदल रहा है। जो व्यवहार को बदलने की कोशिश करेंगे वे पायेंगे कि जो चीज उन्होंने बदली है, वह दूसरी तरफ से भीतर प्रवेश कर गई।

बड़े आश्चर्य की बात है कि शिकारी, जिनको हम शुद्धतम हिंसक कहें, हमेशा मिलनसार और अच्छे लोग होते हैं। अगर आपको किसी शिकारी से दोस्ती है, तो आप चकित होंगे कि वह कितना मिलनसार है–है हत्यारा ! लेकिन अहिंसा की चेष्टा करनेवाला व्यक्ति, जिसने अपनी चेतना को नहीं बदला, अकसर मिलनसार नहीं होगा–दुष्ट मालूम पड़ेगा, कठोर मालूम पड़ेगा। उसे आप झुका नहीं सकते। वह झुकेगा भी नहीं, मिलने आयेगा भी नहीं।

भभक्या कारण है कि शिकारी इतने मिलनसार होते हैं, जो हिंसा कर रहे हैं! उनकी हिंसा शिकार में निकल जाती है, आदमी की तरफ निकलने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जो सब तरफ से हिंसा को रोक लेता है, उसकी हिंसा आदमी की तरफ निकलनी शुरू हो जाती है। अगर अहिंसा को माननेवाले जैनों ने इस देश में किसी भी दूसरे समाज के मुकाबले ज्यादा पैसा इकठठा किया है, तो उसका कारण है। क्योंकि हिंसा का सारा रुख बाकी तरफ से तो बच गया, हिंसा और कहीं तो निकल न सकी, सिर्फ धन की खोज में, धन को खींचने में निकल सकी।

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है, जो मैं कह रहा हूं कि आपकी वृत्तियां अगर एक तरफ से रोक दी जायें तो दूसरी तरफ से निकलती हैं। आप जानकर हैरान होंगे कि अगर कोई दौड़नेवाला, तेज दौड़नेवाला प्रतियोगी पंद्रह दिन दौड़ने के पहले संभोग न करे तो उसकी दौड़ की गति ज्यादा होती है, अगर संभोग कर ले तो कम हो जाती है। अगर परीक्षार्थी सुबह परीक्षा दे और रात संभोग कर ले, तो उसकी बुद्धि की तीणता कम हो जाती है; अगर परीक्षा के समय में संभोग न करे तो उसकी बुद्धि की तीणता ज्यादा होती है। सैनिकों को पत्नियां नहीं ले जाने दिया जाता, क्योंकि अगर वे संभोग कर लें तो उनकी लड़ने की क्षमता कम हो जाती है। उनको वासना से दूर रखा जाता है, ताकि वासना इतनी इकट्ठी हो जाए कि छुरे में प्रवेश कर जाये। जब वे किसी की हत्या करें तो हत्या काम-वासना का कृत्य बन जाये।

यह जानकर आप चकित होंगे कि जब भी कोई समाज समृद्ध हो जाता है तो उसके हार के दिन करीब आ जाते हैं, क्योंकि उसके सैनिक भी आराम से रहने लगते हैं। जब कोई समाज दीन-दरिद्र होता है तो उसके हारने के दिन नहीं होते। कभी भी अत्यंत दरिद्र समाज अगर समृद्ध समाज से टक्कर में पड़ जाये, तो समृद्ध को हारना पड़ता है। यह भारत इस अनुभव से गुजर चुका है। तीन हजार साल निरंतर भारत पर हमले होते रहे। और जो भी हमलावर था इस मुल्क पर–वह हमेशा गरीब था, दीन था, दुखी था, परेशान था। लेकिन उसकी परेशानी इतनी ज्यादा थी कि हिंसा बन गई। हम यहां बिलकुल सुखी थे, खाते-पीते थे, प्रसन्न थे, आनंदित थे, हमारी कुछ इतनी वासना इकट्ठी नहीं थी कि हिंसा बन जाये।

आप देखें, अगर आप दो-चार दिन ब्रह्मचर्य का साधन करें तो आप पायेंगे, आपका क्रोध बढ़ गया है। बड़े मजे की बात है। क्रोध बढ़ना नहीं चाहिए ब्रह्मचर्य के साधने से, घटना चाहिए। लेकिन आप अगर पंद्रह दिन ब्रह्मचर्य का साधन करें, आपका क्रोध बढ़ जायेगा; क्योंकि जो शक्ति इकट्ठी हो रही है, अब वह दूसरा मार्ग खोजेगी। जब तक आपको ध्यान का मार्ग न मिल जाये, तब तक ब्रह्मचर्य खतरनाक है; क्योंकि ब्रह्मचारी आदमी दुष्ट हो जायेगा। आप दो-चार दिन उपवास करके देखें, आप बंद ही हो जायेंगे, क्रोधी हो जायेंगे।

सभी को अनुभव है कि घर में एक-आध आदमी धार्मिक हो जाये तो पूरे घर में उपद्रव हो जाता है; क्योंकि वह धार्मिक आदमी सबको सताने की तरकीबें खोजने लगता है। उसकी तरकीबें भली होती हैं, इसलिये उनसे बचना भी मुश्किल है। वह तरकीबें भी ऐसी करता है कि आप यह भी नहीं कह सकते कि “तुम गलत हो।’ क्योंकि वह इतना अच्छा है, उपवास करता है, ब्रह्मचर्य साधता है, सुबह से उठकर योगासन करता है–बुराई तो उसमें आप खोज ही नहीं सकते। न सिगरेट पीता है, न शराब पीता है, न होटल में जाता है, न सिनेमा देखता है; घर में ही बैठकर गीता, रामायण पढ़ता रहता है। मगर वह जितना इकट्ठा कर रहा है उतना निकालेगा, चिड़चिड़ा हो जायेगा। बहुत मुश्किल है धार्मिक आदमी पाना, जो चिड़चिड़ा न हो। जब धार्मिक आदमी चिड़चिड़ा न हो तो समझना कि ठीक धार्मिक आदमी है। लेकिन धार्मिक आदमी चिड़चिड़ा होगा, सौ में निन्यानबे मौके पर; क्योंकि जो उसने रोका है, वह कहीं से निकलेगा। वह चिड़चिड़ाहट बन जायेगा उपद्रव !

आप अहिंसा को थोप सकते हैं, फिर हिंसा नई तरफ से बहने लगेगी।

यह जानकर आप चकित होंगे कि पूरा जीवन एक इकानामिक्स है, शक्ति का एक अर्थशास्त्र है। आप इस अर्थशास्त्र को सीधा नहीं बदल सकते, जब तक कि भीतर का मालिक न बदल जाये तब तक एक तरफ से झरने को रोकते हैं, दूसरी तरफ से बहना शुरू हो जाता है।

महावीर का जोर कृत्य पर नहीं है, कर्ता पर है। आप क्या करते हैं, यह बात बहुत विचारणीय नहीं है। आप होशपूर्वक करें, बस इतना ही विचारणीय है। और मजे की बात यह है कि होशपूर्वक करने पर जो बुरा है, वह होता ही नहीं; क्योंकि बुरे की अनिवार्य शर्त है, बेहोशी। यह गणित है। होशपूर्वक करने पर वही होता है, जो शुभ है, जो ठीक है; क्योंकि होश से गैर-ठीक निकलता ही नहीं। इसलिए महावीर ने “ईर्या’ पहली समिति कही–होशपूर्वक प्रवृत्ति।

“भाषा’–होशपूर्वक भाषा का व्यवहार, संयमपूर्वक भाषा का व्यवहार। यह संयम उस सीमा तक जाना चाहिए, जहां भाषा मौन हो जाये।

“ईर्या’ जागरूकता बन जाये, इतना होश हो जाये कि उसका होश न रखना पड़े–कि उसकी अलग से चेष्टा न करनी पड़े कि होश रखूं। होश सहज हो जाये तो “ईर्या’ पूरी हुई। भाषा की पूर्णता या भाषा का बोध और भाषा की समिति तब पूरी होती है, जब मौन सहज हो जाये। भाषा का उपयोग तभी हो जब अत्यंत जरूरी संवाद हो, आवश्यक हो कि बोलना जरुरी है। और जब बोलें तब भाषा का उपयोग हो, जब न बोलें तब भीतर भाषा न चलती रहे। अभी आप नहीं भी बोलते तो भी भीतर भाषा चलती रहती है; भीतर तो आप बोलते ही रहते हैं। बाहर कभी-कभी चुप रहते हैं, भीतर तो कभी चुप नहीं रहते। सपने तक में चर्चा चलती रहती है।

यह जो भीतर चलनेवाली भाषा है, यह जीवन की ऊर्जा को पिये जा रही है, सोखे जा रही है। आपका मस्तिष्क विक्षिप्त है–ऐसा ही, जैसे कि आप बैठे हैं और पैर चला रहे हैं। कुछ लोग बैठकर चलाते रहते हैं। चलते वक्त पैर का चलाना ठीक है, क्योंकि पैर के चलने की जरूरत है। लेकिन कुस पर बैठकर पैर क्यों हिला रहे हैं? अनावश्यक है। लेकिन आमतौर से अगर कोई कहेगा कि व्यर्थ है तो आपको खयाल में आ जायेगा। जब आप बोल रहे हैं तब भाषा की जरूरत है, जब आप चुप बैठे हैं तब भीतर भाषा क्यों चल रही है? पैर का हिलना क्यों चल रहा है?

महावीर भी बारह वर्ष तक निरंतर मौन में डूबे रहे, सिर्फ भाषा-समिति को उपलब्ध होने को–कि मालिक हो जायें शब्द के, शब्द मालिक न रहे।

अभी शब्द आपका मालिक है। आप चाहें भी कि भाषा को बंद करें, वह नहीं होती, वह चलती ही जाती है। आप कहें भी अपने मन से कि चुप हो जा, वह आपकी सुनता नहीं। आप कितना ही कसते रहें, पर वह बोले ही चला जाता है। अंततः आप थक जाते हैं, और कहते हैं कि “ठीक है, चलने दो।’ धीरे-धीरे आप भूल ही जाते हैं कि आप गुलाम हो गये हैं, और मन मालिक हो गया है। मन की मालकियत तोड़ने का उपाय मौन है, और कोई उपाय नहीं है।

मन की मालकियत तोड़ने का एक ही ढंग है कि आप भीतर चलते शब्दों से अपना सहयोग हटा लें, को-आपरेशन अलग कर लें। भीतर शब्द चलता भी हो तो भी आप उसमें रस न लें। भीतर शब्द चलता भी हो तो आप ऐसा ही समझें कि कहीं और दूर चल रहा है, मेरा कोई प्रयोजन नहीं है–तटस्थ हो जायें। जब धीरे-धीरे आप रस लेना बंद कर देंगे, भाषा गिरने लगेगी, बीच में अंतराल आने लगेंगे, कभी-कभी मौन आकाश आ जायेगा। और मौन-आकाश इतना अदभुत अनुभव है कि जीवन की पहली झलक तभी मिलती है।

दूसरे से बात करने के लिए भाषा, अपने से बात करने के लिए मौन। दूसरे से जुड़ने के लिए भाषा का सेतु चाहिए, और अपने से जुड़ने के लिए भाषा का सेतु खत्म हो जाना चाहिये। मौन की धारा पैदा हो जानी चाहिए। खुद से जुड़ने के लिए बोलने की क्या जरूरत है? लेकिन बोलना इतना रुग्ण हो गया है कि आप खुद को दो हिस्सों में तोड़ लेते हैं।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन पर एक मुकदमा था। वकीलों से परेशान आ गया था तो उसने अदालत से कहा कि “मैं अपनी वकालत खुँद ही करना चाहता हूं।’ चोरी का मामला था, चोरी का इलजाम था; कानून में कोई बाधा नहीं थी। मजिसटरेट ने कहा कि “ठीक है, अगर तुम खुद ही कर सकते हो तो खुँद ही करो।’ तो मुल्ला खड़ा होता कटघरे में, कटघरे से बाहर निकलता, वकील की तरह खड़ा होता। एक काला कोट ले आया था, काला कोट पहनकर बाहर खड़े होकर कटघरे की तरफ देखता और पूछता–“नसरुद्दीन, तेरह तारीख की रात तुम कहां थे? क्या तुमने चोरी की? क्या तुम उस घर में घुसे?’ फिर कोट उतारकर, भागकर कटघरे में जाकर खड़ा होता और कहता–“क्या मतलब, तेरह तारीख की रात? मुझे तो कुछ पता ही नहीं! किसकी चोरी हुई? क्या हुआ?’वह जवाब-सवाल कर रहा है!

आप चौबीस घंटे यही कर रहे हैं। अपने को बांट लेते हैं ताकि बातचीत आसान हो जाये। बेटा अपनी तरफ से भी बोल रहा है, बाप की तरफ से भी बोल रहा है जवाब भी दे रहा है! पत्नी अपनी तरफ से भी बोल रही है; पति क्या कहेगा, वह भी बोल रही है–जवाब-सवाल भीतर चल रहे हैं!

भीतर आप खंड कर लिये हैं; खंड किये बिना बोलना बहुत मुश्किल हो जायेगा, पागलपन मालूम पड़ेगा। जरा भीतर देखें कि कैसा द्वंद्व आपने खड़ा कर लिया है। महावीर कहते हैं, मौन होगा तो द्वंद्व विसर्जित होगा। जब मौन होंगे तो आप एक हो जायेंगे। जब तक बोलेंगे, तब तक बटे रहेंगे। यह बंटाव हटना चाहिये।

भाषा-समिति का अर्थ है : जब दूसरे से बोलना हो, तभी बोलना–पहली बात। जब दूसरे से न बोलना हो तो बोलना ही बंद कर देना, भीतर चुप हो जाना। दूसरी बात–दूसरे से भी बोलना हो, तो दूसरे के हित को ध्यान में रखकर बोलना, मुझे बोलना है, इसलिए मत बोलना। दूसरा फंस गया है, सुनेगा ही–इसलिए मत बोलना। तीसरी बात–जो मैं बोल रहा हूं वह सत्य ही है, ऐसा पक्का हो तो ही बोलना, अन्यथा मत बोलना। क्योंकि जो बोला जा रहा है, वह दूसरे में प्रवेश कर रहा है और दूसरे के जीवन को प्रभावित करेगा–अनंत जन्मों तक प्रभावित करेगा। इसलिए खतरनाक बात है। दूसरे के जीवन को गलत मार्ग दे देना, उसे भटका देना पाप है।

इसलिये महावीर कहते हैं : जो पूर्णनिश्चय से स्वयं का अनुभव हो, वही बोलना। दूसरे के हित में हो तो ही बोलना। क्योंकि पूर्ण अनुभव भी हो आपको सत्य का, और दूसरे को उसकी जरूरत ही न हो, अभी वह घड़ी न आई हो जब वह सत्य को सुन सके, अभी वह समय न आया हो जब वह सत्य को समझ सके, अभी उसके ऊपर यह बोझ हो जाये और उसके जीवन को बोझिल कर दे–तो मत बोलना। और उतने शब्दों में बोलना, जिसमें एक भी शब्द ज्यादा न हो–टेलिग्राफिक बोलना। जो काम पांच शब्दों में हो सके वह पांच में ही करना, पचास में मत करना।

अगर भाषा पर कोई व्यक्ति इतना होश साध ले, तो ध्यान अपने-आप घटित होना शुरू हो जाये। भाषा की विक्षिप्तता ध्यान में बाधा है। और अगर आप भाषा से पीछे हट सकें तो आप बच्चे की तरह सरल हो जायेंगे। जैसे आप जन्मे थे–बिना भाषा के, बिना शब्दों के थे लेकिन कोई भी आवरण न था विचार का–वैसे ही आप फिर हल्के, ताजे, शुद्ध और नये हो जायेंगे।

ध्यानी पुनः बचपन को उपलब्ध हो जाता है, उसी निर्दोषता को। तीसरी समिति है–“एषणा।’

महावीर कहते हैं, जब तक शरीर है तब तक शरीर को संभालने की जरूरत होगी–संभालने की! सजाने की जरूरत नहीं है! लेकिन संभालने की जरूरत होगी। भोजन चाहिये, देना पड़ेगा; पानी चाहिए, देना पड़ेगा। वस्त्र चाहिए, देने पड़ सकते हैं। कहीं छाया की जरूरत होगी।

तो महावीर एषणा-समिति में कहते हैं कि जीवन को चलाने के लिए जो अत्यंत जरूरी हो उसका होशपूर्वक विचार करके, अत्यंत होश से उतना ही स्वीकार करना।

एषणा को, वासना को सीमित कर लेना अत्यंत आखिरी तल पर। अगर एक बार भोजन से जीवन पर्याप्त चल जाता हो, तो दो बार का भोजन व्यर्थ होगा, वासना हो जायेगी। अगर चार घंटे सोने से नींद पूरी हो जाती हो, शरीर ताजा हो जाता हो, जीवन चल जाता हो तो आठ घंटे की नींद भोग होगी; रोग पैदा करेगी। जितने से चल जाता हो, जीवन!

इस फर्क को समझ लें, हम जीवन को चलाने के लिए नहीं जीते, जीवन को चलाने के लिये नहीं भोगते–बल्कि भोगने के लिए ही जीते हैं। कितना भोग लें, कितना ज्यादा भोग लें उसके लिये ही जीते हैं। जीवन का जैसे लय ही एक है कि इंद्रियों को कितना भर लें।

महावीर कहते हैं, ऐसा व्यक्ति अपने ही हाथों अपनी ही वासनाओं में डूबकर नष्ट हो जाता है, अपनी ही दौड़-धूप में नष्ट हो जाता है। ऐसा नहीं कि उसे कोई सुख भी मिल पाता हो, कोई सुख नहीं मिल पाता। स्वस्थ भी नहीं हो पाता, सुख होना तो बहुत दूर है। जितना इन वासनाओं की दौड़ बढ़ती है, उतना टूटता जाता है, उतना बोझ से भरता जाता है।

यह बड़े मजे की बात है कि गरीब आदमी को तो शायद भोजन में रस भी आता हो; अमीर आदमी को भोजन में कुछ रस नहीं आता, सिर्फ और नई बीमारियों के दर्शन होते हैं। चिकित्सक कहते हैं कि दुनिया में भूख से कम लोग मरते हैं, भोजन से ज्यादा लोग मरते हैं। पचास प्रतिशत बीमारी तो ज्यादा भोजन से ही पैदा होती है। जितना आप खाते हैं, उस से आधे से आपका पेट भरता है, आधे से आपके डाक्टर का पेट भरता है। इससे कोई सुख तो उपलब्ध नहीं होता, स्वास्थ्य भी खो जाता है।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक गांव की सबसे गरीब गली में दज का काम करता था। इतना कमा पाता था मुश्किल से कि रोटी-रोजी का काम चल जाये, बच्चे पल जायें। मगर एक व्यसन था उसे कि हर रविवार को एक रुपया जरूर सात दिन में बचा लेता था लाटरी का टिकट खरीदने के लिये। ऐसा बारह साल तक करता रहा, न कभी लाटरी मिली, न कभी उसने सोचा कि मिलेगी। बस, यह एक आदत हो गई थी कि हर रविवार को जाकर लाटरी की एक टिकट खरीद लेनी है। लेकिन एक रात आठ-नौ बजे, जब वह अपने काम में व्यस्त था, काट रहा था कपड़े कि दरवाजे पर एक कार आकर रुकी। उस गली में तो कार कभी आती भी नहीं थी; बड़ी गाड़ी थी। कोई उतरा दो बड़े सम्मानित व्यक्तियों ने दरवाजे पर दस्तक दी। नसरुद्दीन ने दरवाजा खोला; उन्होंने पीठ ठोंकी नसरुद्दीन की और कहा कि “तुम सौभाग्यशाली हो, लाटरी मिल गई, दस लाख रुपये की!’

नसरुद्दीन तो होश ही खो बैठा! कैंची वहीं फेंकी, कपड़ों को लात मारी! बाहर निकला, दरवाजे पर ताला लगाकर चाबी कुएं में फेंकी! सालभर उस गांव में ऐसी कोई वेश्या न थी जो नसरुद्दीन के भवन में न आई हो; ऐसी कोई शराब न थी जो उसने न पी हो; ऐसा कोई दुष्कर्म न था जो उसने न किया हो। सालभर में दस लाख रुपये उसने बर्बाद कर दिए। और साथ ही, जिसका उसे कभी खयाल ही नहीं था, जो जिंदगी से उसके साथ था स्वास्थ्य–वह भी बर्बाद कर दिया। क्योंकि रात सोने का मौका ही न मिले–रातभर नाच-गान, शराब। सालभर बाद जब पैसा हाथ में न रहा, तब उसे खयाल आया कि मैं भी कैसे नरक में जी रहा था।

वापस लौटा; कुएं में उतरकर अपनी चाबी खोजी। दरवाजा खोला; दुकान फिर शुरू कर दी। लेकिन पुरानी आदतवश वह रविवार को एक रुपये की टिकिट खरीदता रहा। दो साल बाद फिर कार आकर रुकी; कोई दरवाजे पर उतरा–वही लोग। उन्होंने आकर फिर पीठ ठोंकी और कहा, “इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ, दोबारा तुझे लाटरी का पुरस्कार मिल गया, दस लाख रुपये का!’ नसरुद्दीन ने माथा पीट लिया। उसने कहा, “माई गाड हेव आई टु गो दैट हैल–थ्रो दैट, आल दैट हैल अगेन; क्या उस नरक से फिर मुझे गुजरना पड़ेगा?’

गुजरना पड़ा होगा, क्योंकि दस लाख हाथ में आ जायें तो करोगे भी क्या? लेकिन उसे अनुभव है कि वह एक वर्ष नरक हो गया।

धन स्वर्ग तो नहीं लाता, नरक के सब द्वार खुले छोड़ देता है। और जिनमें जरा भी उत्सुकता है, वे नरक के द्वार में प्रविष्ट हो जाते हैं।

एषणा का अर्थ है : लस्ट फार लाइफ, जीवन की एषणा। और जीवन की एषणा वासना बन जाती है।

महावीर कहते हैं कि जिन्हें परम जीवन जानना है, उन्हें अपनी ऊर्जा को खींच लेना होगा व्यर्थ की वासनाओं से। मिनिमम, जो न्यूनतम जीवन के लिए जरूरी है–उतना ही। उतना ही, जितने जीवन से साधना हो सके; उतना ही, जितना जीवन ध्यान बन सके। उतना ही, जितने से जीवन की ऊर्जा प्रवाहित रह सके और मोक्ष की तरफ बह सके।

महावीर यह नहीं कहते कि जीवन की धारा को तोड़ देना, लेकिन शुद्धतम कर लेना। अत्यंत अनिवार्य पर ले आना ही त्याग है। एषणा का अर्थ हुआ–उतना ही मांगना, उतना ही लेना, उतना ही साथ रखना जिससे रत्तीभर ज्यादा जरूरी न हो। संग्रह मत करना।

जीसस ने कहा है, अपने शिष्यों से–देखो पक्षियों की तरफ, वे कोई संग्रह नहीं करते; देखो लिली के फूलों की तरफ, उन्हें कल की कोई चिंता नहीं है। जिस दिन तुम भी पक्षियों की तरह संग्रह नहीं करोगे और फूलों की तरह कल की चिंता से मुक्त हो जाओगे, उस दिन तुम्हारे और परमात्मा के राज्य में कोई भी फासला नहीं होगा।

कल की चिंता वासनाग्रस्त व्यक्ति को करनी ही पड़ेगी, क्योंकि वासना के लिए भविष्य चाहिए। ध्यान करना हो तो अभी हो सकता है, भोग करना हो तो कल ही हो सकता है। भोग के लिए विस्तार चाहिए; समय चाहिये; तैयारी चाहिए; साधन चाहिए। किसी दूसरे को खोजना पड़ेगा, भोग अकेले नहीं हो सकता। ध्यान अभी हो सकता है।

लेकिन बड़ी अदभुत दुनिया है। लोग कहते हैं–ध्यान कल करेंगे, भोग अभी कर लें। भोग तो भविष्य में ही हो सकता है। जिन्होंने जीवन का परम सत्य जाना है, उनका कहना है कि समय की खोज ही वासना के कारण हुई है; वासना ही समय का फैलाव है। यह जो इतना भविष्य दिखलाई पड़ता है, यह हमारी वासना का फैलाव है; क्योंकि हमें इतने में पूरा होता नहीं दिखाई पड़ता। और कुछ लोग कहते हैं, और ठीक ही कहते हैं!

बुद्ध ने कहा है कि लोग अगले जन्म में भी इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि उन्हें पक्का पता है कि वासनाएं इतनी ज्यादा हैं कि इसी जन्म में पूरी नहीं हो पायेंगी। अगला जम्न चाहिए। है या नहीं यह सवाल नहीं है, लेकिन अगला जन्म चाहिए।

जब कोई दो व्यक्ति प्रेम में पड़ जाते हैं तो अकसर प्रेमी पुनर्जन्म में विश्वास करने लगते हैं। प्रेमी और पुनर्जन्म में विश्वास न करें, यह जरा मुश्किल है! मुसलमान प्रेमी भी, ईसाई प्रेमी भी, पुनर्जन्म में विश्वास करने लगते हैं। क्योंकि उसे लगता है कि प्रेम इतने से जीवन में पूरा कैसे हो सकता है; और जीवन चाहिए।

कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत प्रेमियों ने खोजा होगा; क्योंकि उनके लिए जीवन छोटा मालूम पड़ता है और वासना बड़ी मालूम पड़ती है। इतनी बड़ी वासना के लिए इतना छोटा जीवन तर्कहीन मालूम होता है, संगत नहीं मालूम होता। अगर दुनिया में कोई भी व्यवस्था है, तो जितनी वासना उतना ही जीवन चाहिए। इसलिए अनंत फैलाव है।

महावीर कहते हैं : तुम रुक जाना क्षण पर, कल की भी चिंता आज मत लेना, नहीं तो संसार निर्मित होता है। आज की चिंता आज काफी है। और आज की चिंता, चिंता नहीं होती।

तो महावीर तो, सुबह उठकर अपने पेट को देखेंगे कि भूख लगी है तो ही गांव में भिक्षा के लिए जायेंगे। ऐसा भी नहीं है कि आदतवश रोज भिक्षा के लिए जाना है ग्यारह बजे, तो रोज भिक्षा के लिए चले जायेंगे। महावीर के बारह वर्षों के साधना काल में कहा जाता है कि कुल तीन सौ पैंसठ दिन उन्होंने भिक्षा मांगी। मतलब बारह साल में एक साल भिक्षा मांगी। कभी महीना भीख मांगने नहीं गए, कभी दो महीना नहीं गये, कभी दस दिन, कभी आठ दिन, कभी चार दिन। कोई नियम नहीं था, कोई कसम भी नहीं थी, कोई व्रत भी नहीं लिया था। यह समझने-जैसी बात है–यह नहीं तय किया था कि दस दिन खाना नहीं खाऊंगा; क्योंकि वह दूसरी तरफ की ज्यादती है। महावीर प्रतीक्षा करेंगे, जब शरीर ही कहेगा कि अब भोजन चाहिए, तो वे उठेंगे। और उन्होंने एक और अदभुत सूत्र निकाला था, जो सिर्फ महावीर का है। जो दुनिया में किसी दूसरे सिद्ध पुरुष ने जिसकी बात नहीं कही। वह बहुत ही अनूठा है।

महावीर ने एक सूत्र निकाला था कि जब पेट में भूख लगती तो वे सोचते कि भूख लगती है, देखते, साक्षी बनते–भूख इतनी है कि भोजन की जरूरत है, तो भिक्षा मांगने जाते। लेकिन वे कहते; तय कर लेते वे सुबह ही कि ऐसी-ऐसी स्थिति में भिक्षा मिलेगी तो ही समझूंगा कि मेरे भाग्य में है, नहीं तो नहीं लूंगा।

जैसे–उस घर के सामने एक काली गाय खड़ी होगी; जो स्त्री भिक्षा देगी वह गर्भिणी होगी; कि एक बच्चे को अपनी गोदी में लिए होगी; कि दो आदमी दरवाजे पर लड़ रहे होंगे। कुछ तय कर लेते सुबह और फिर भिक्षा मांगने निकलते। अगर उस दिन उस जैसी कुछ स्थिति बन जाती, बड़ी संयोग की बात है–बन जाती तो भिक्षा ले लेते, नहीं बनती तो वापस लौट आते, कहते कि मेरे भाग्य में नहीं है। शरीर को भूख लगी जरूर, लेकिन मेरी नियति में नहीं है, मेरे पिछले कर्मों का हिस्सा नहीं है। भूख मेरी नियति में है तो आज मैं भूखा रहूंगा।

आश्चर्य है कि बारह वर्ष में तीन सौ पैंसठ बार भी मिल गई भिक्षा। लेकिन महावीर निश्चिंत लौट आते कि जो भाग्य में नहीं है, वह नहीं; जो नियति में नहीं है, वह नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि मैं अब कर्ता नहीं रहा, अब मैं भीख मांगने नहीं जा रहा हूं। अगर यह पूरा अस्तित्व मुझे जिलाये रखना चाहता है आज, तो भिक्षा का इंतजाम जुटा देगा, मेरी शर्त पूरी कर देगा। नहीं शर्त पूरी करता है तो इसका मतलब हुआ कि अस्तित्व को आज मुझे भोजन देने की कोई जरूरत नहीं है।

और बड़े आश्चर्य की बात है कि महावीर रुग्ण नहीं हुए; महावीर दीन-हीन नहीं हो गये इन बारह वर्षों में; सूख नहीं गये। इतना संतोषी व्यक्ति किसी और ही दिशा से भोजन को पाना शुरू कर देता है। इतने संतुष्ट व्यक्ति को, जिसने नियति पर सब छोड़ दिया–भोजन भी, जैसे पूरा अस्तित्व अपने हाथों में संभाल लेता है। और अगर अस्तित्व चांदत्तारों को चला सकता है, फूलों को खिला सकता है, वृक्षों को बड़ा कर सकता है, नदियों को बहा सकता है, अगर इतना बड़ा आयोजन अस्तित्व करता है, तो महावीर के छोटे-से पेट और शरीर की चिंता नहीं कर सकता, ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है।

तो महावीर कहते हैं कि अगर अस्तित्व चलाना चाहता है तो ही मैं चलने को हूं, मेरी कोई वासना चलने की नहीं है।

आप चलने की वासना से जब तक जीते हैं तब तक संसार को निर्मित करते हैं। जिस दिन आप ठहर जाते हैं; संसार की धारा जहां ले जाती है वहां जाते हैं, उस दिन आप मुक्त होने लगते हैं।

तो महावीर ने “एषणा’ : भोजन, वस्त्र, सुरक्षा सब को सीमित कर देना है अंतिम बिंदु पर–कि उसके पार मृत्यु है, उसके इस पार जीवन है–ठीक मध्य में।

चौथा–“आदान-निक्षेप’। लोग जो दें, उसमें भी सीमा रखनी, और होश रखना।

संन्यासी को अकसर लोग देने को उत्सुक हो जाते हैं। जिसके पास कुछ नहीं है, जिसने सब छोड़ा, एक अर्थ में सभी लोग उसको देने के लिये आतुर हो जाते हैं। तो महावीर ने कहा, आदान-निक्षेप : लोग दें सिर्फ इसलिए कि किसी ने दिया, मत ले लेना; सिर्फ इसलिए कि मिल रहा था, क्या करें–हमने तो कुछ मांगा न था, हमने कुछ कहा न था बिना कहे मिला, बिना मांगे मिला ! तो भी महावीर कहते हैं कि तुम्हारी जरूरत हो तो ही लेना, अन्यथा धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाना–मत लेना।

और पांचवां है–“उच्चार’ या “उत्सर्ग’ निक्षेप। यह बहुत बहुमूल्य है। महावीर ने कहा है कि मल-मूत्र, किसी को दुख हो, किसी को पीड़ा हो, दुग्ध आए, किसी जीव का जीवन नष्ट हो–ऐसी जगह मल-मूत्र मत छोड़ना। ऐसी जगह खोजना साफ सुथरी, सीधी-सपाट, देखकर होशपूर्वक कि कोई कीड़ा-मकोड़ा, कोई जीव-जन्तु आपके मल-मूत्र में दबकर तो नहीं मर जायेगा। ऐसी जगह खोजना कि किसी को आपके मल-मूत्र से कठिनाई तो न होगी; कोई देखकर पीड़ा तो अनुभव नहीं करेगा; कोई दुगध से तो परेशान नहीं होगा।

यह तो इसका मोटा अर्थ है, जो जैन साधु पकड़े हुए हैं; इसका सूम अर्थ बहुत गहरा है, जिस पर पकड़ खो गई है। मल-मूत्र ही केवल मल-मूत्र नहीं है, आप जो भी अपने बाहर छोड़ते हैं, वह सभी मल-मूत्र है। आपकी सभी इंद्रियों से जो व्यर्थ हो गया है, वह बाहर छूटता है। आपको पता नहीं कि आपकी आंख भी कचरा बाहर फेंकती है; आपके हाथ का स्पर्श भी कचरा बाहर फेंकता है; आपके कान, आपकी जीभ–सब कचरा बाहर फेंकते हैं। असल में जो भी आप भीतर लेते हैं, उस सब को किसी न किसी रूप में बाहर फेंकना पड़ता है।

जो भी बाहर से आया है, उसे बाहर फेंकना पड़ेगा। आपने भोजन किया, तो या तो वह पच जायेगा, खून बन जाएगा, मल होकर निकल जायेगा, नहीं पचा तो वमन हो जाएगी। लेकिन जो भी बाहर से लिया है, वह बाहर जायेगा। जो भीतर का है वही भीतर रहेगा, बाकी तो सब बाहर जायेगा। आपने शास्त्र पढ़ लिया, अगर पच गया तो आपका जीवन बन जायेगा, अगर नहीं पचा तो आप किसी की खोपड़ी पर उसे मल-मूत्र की तरह छोड़ेंगे। आपने कुछ भी भोगा, अगर पच गया तो ठीक, नहीं पचा तो आपका भोग भी कचरे की तरह चारों तरफ दिखाई पड़ेगा।

आप पूरे समय अपने से रेडिएट कर रहे हैं विद्युत की तरंगें, जो आपके भीतर कचरा हो गई हैं। तो महावीर कहते हैं कि अपने कचरे को, अपने मल-मूत्र को–इसमें सभी कुछ सम्मिलित है, जो आपके भीतर गया और जो बाहर फेंकना पड़ेगा। सभी कुछ सम्मिलित है : आपके शब्द, आपका शास्त्र, आपका ज्ञान; आपने आंखों से जो पिया, कानों से जो सुना, नाक से जो गंध ली–वह सब बाहर फेंकी जायेगी। इससे दूसरे को कोई भी पीड़ा और कष्ट न हो, इससे दूसरे की हिंसा न हो।

इसको महावीर ने “उच्चार समिति’ कहा है : जो भी बाहर जाए, उससे किसी को पीड़ा न हो।

अब यह बड़े मजे की बात है, और कई दफा कितनी जटिल हो जाती है। जैन-साधु किसी को छुएगा नहीं। मगर वह इसलिए नहीं छू रहा है कि कहीं दूसरे को छूने से वह अपवित्र न हो जाये! महावीर का प्रयोजन बिलकुल दूसरा है। दूसरों को मत छूना कि कहीं दूसरा तुम्हारी अपवित्रता से न भर जाये। मगर आदमी का अहंकार बड़ा कुशल है। उसमें से रास्ते निकाल लेता है। जैन साधु संभलकर चलता है, किसी को छू न ले। वह सोच रहा है कि वह अपवित्र न हो जाये कोई पापी को छू ले तो कोई अपवित्र न हो जाये।

नहीं, महावीर कहते हैं, दूसरे को छूते वक्त आपके हाथ से जो ऊर्जा जा रही है, शरीर से जो ऊर्जा जा रही है, वह दूसरे को दुख, कष्ट, हानि न पहुंचाये। ये हानियां कई तरह की हो सकती हैं।

जैन-साधु स्त्री को नहीं छुयेगा, इस कारण कि कहीं स्त्री की वासना उसमें प्रवेश न कर जाए। यह मूढ़तापूर्ण बात है। साधु को तो कम से कम इस स्थिति में होना चाहिए कि दूसरे उसे प्रभावित न कर सकें। कारण बिलकुल दूसरा है। महावीर की नजर बिलकुल दूसरी है। महावीर कहते हैं, स्त्री को मत छूना कि कहीं तुम्हारी वासना उसे सजग न कर दे, कहीं तुम्हारी वासना उसमें प्रविष्ट होकर उसे पीड़ा और हिंसा का कारण न बन जाये।

महावीर की पूरी चिंता एक है कि तुम्हारे कारण किसी को किसी तरह की हानि और दुख और पीड़ा का उपाय न हो–तुम अपने से जो भी छोड़ना हो, वह इस तरह छोड़ना।

यह अगर ठीक से पकड़ा जाये तो बहुमूल्य है, अगर क्षुद्रता से पकड़ा जाये तो इससे बड़ी मजाक की स्थिति पैदा हो जाती है, हास्यास्पद हो जाता है। जैन साधुओं का एक वर्ग है जो मुंह पर पट्टी बांधे हुए है। वह इसी उच्चार-समिति के कारण कि कहीं श्वास से कोई कीड़ा-मकोड़ा, कोई हवा का जीव-जन्तु न मर जाये।

बात तो ठीक है! बात तो ठीक है, लेकिन हास्यास्पद हो गई है। मजाक कर लिया, क्षुद्र पर ले आये चीजों को। तब तो हिलने-डुलने से भी कोई मर रहा है। श्वास लेने से भी कोई मर ही रहा है, एक श्वास में कोई एक लाख कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, महावीर के हिसाब से नहीं, विज्ञान के हिसाब से। वह तो नष्ट हो ही रहे हैं। कागज की या कपड़े की पट्टी उनको रोक नहीं सकती, वे इतने सूम हैं। वे इतने सूम हैं कि आंखों से देखे नहीं जा सकते, सिर्फ खुर्दबीन से देखे जा सकते हैं। इसीलिए तो लाखों एक श्वास में नष्ट हो जाते हैं। वे तो नष्ट हो ही रहे हैं, लेकिन एक मजाक कर लिया। लेकिन मुंह पर पट्टी बांधकर आदमी समझ रहा है, सब ठीक हो गया, समिति पूरी हो गई। समिति को बहुत क्षुद्र जगह ले आये।

बुरा नहीं है, बांध लेने में कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन बांध लेने को बड़ा गौरव समझ लेना नासमझी है। बांध लेना ठीक है, जितना कम हिंसा हो उतना ठीक है। लेकिन इसे साधना समझ लेना या सिद्धि समझ लेना; और समझ लेना कि कोई बहुत ऊंची बात हो गई; और जो नाक पर पट्टी नहीं बांधे हैं वे पापी हैं, नरक जाएंगेभ्रांति हो गई!

ये पांच समितियां हैं और तीन गुप्तियां है–मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति।

गुप्ति का अर्थ है : सिकोड़ना और गुप्त करना। “मनोगुप्ति’ का अर्थ है, अपने मन के फैलाव को सिकोड़ना। आपका मन बड़ा फैला हुआ है। यह आकाश भी छोटा है, इससे भी ज्यादा फैला हुआ है। आप फैलाते रहते हैं मन को। बम्बई में रहते होंगे, लेकिन मन न्यूयार्क में घूमता रहता है; कि लन्दन में घूमता रहता है कि कब यात्रा पर निकल जायें। मन फैलता चला जाता है।

जापान की एक कम्पनी १९७५ के लिए चांद पर जाने के टिकिट बेच रही है। काफी दाम हैं। लेकिन सभी लोगों को मिल नहीं रही, क्यू लग गया है। आदमी का मन! अभी १९७५ को देर है। आप बचेंगे कि नहीं बचेंगे। और चांद पर कुछ है नहीं, कुछ है भी नहीं देखने योग्य। लेकिन, फिर भी चांद पर जाने का मन है।

मन फैलना चाहता है। मन जितना फैल जाए उतना रस लेता है। तो महावीर कहते हैं, मन को सिकोड़ना। उसे इतना सिकोड़ लेना कि वह सिर्फ तुम्हारे हृदय में रह जाये, कहीं भी उसका फैलाव न हो। किसी वासना में, किसी इच्छा में, किसी एषणा में उसको मत फैलाना। खींचते जाना और जिस दिन मन शुद्ध हृदय में ठहर जाता है, उस दिन अदभुत आनंद का जन्म होता है।

नरक है हमारे मन का फैलाव, और आप फैलाये चले जाते हैं। शेखचिल्ली की कहानी आपने पढ़ी होगी, जो फैलाये चला जाता है और बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। दूध बेचने जा रहा है। सिर पर दूध की मटकी रखे हुए है; और खयाल आता है कि दूध अगर बिक गया तो चार आने मिलेंगे। और अगर ऐसा होता रहा तो आधे साल में एक भैंस अपनी खरीद लूंगा। अगर भैंस खरीद ली, उसके बच्चे होंगे। बढ़ता जायेगा धन, फिर शादी कर लूंगा। शादी हो जायेगी, बच्चे होंगे। छोटा बच्चा किलकारी मारेगा और गोदी में बैठेगा,

दाढ़ी खींचेगा और कहेगा, “बाबा!’

गिर न जाये, उसे संभालने को बच्चे को, उसने हाथ नीचे किया वह जो सिर पर मटकी थी, वह नीचे गिरकर फूट गई! वे चार आने भी हाथ से गये!

मगर ये शेखचिल्ली की कहानी नहीं है, आदमी के मन की कहानी है। मन शेखचिल्ली है। आपका सबका मन हिसाब लगा रहा है, ऐसा हो जायेगा, फिर ऐसा हो जायेगा, फिर ऐसा होता चला जायेगा। और डर यह है कि कहीं मटकी न फूट जाये। अकसर फूट जाती है। अंत में जीवन के आदमी पाता है कि मटकी फूट गई! चार आने हाथ के भी खो गये!

महावीर कहते हैं, मन को सिकोड़ना। जितना फैला हुआ मन उतना दुख, यह सूत्र है। जितना सिकुड़ा हुआ मन, उतना सुख। मन अगर बिलकुल शून्य पर आ जाये तो ध्यान हो जाता है। जब मन इतना सिकुड़ जाता है कि कुछ भी सिकोड़ने को नहीं बचता; बिलकुल सेंटर पर, केनदर पर आ गया; सब किरणें सिकुड़कर आ गइ वापिस; अपने ही घोंसले में लौट आया मन–उसको महावीर कहते हैं, “मनोगुप्ति।’

“वचनगुप्ति’शब्दों को भी मत फैलाना, क्योंकि शब्द जाल में डाल देते हैं। किसी से बोले कि उपद्रव शुरू हुआ, संबंध निर्मित हुआ। बोलने का अर्थ है दूसरे तक पहुंचे। बोलना एक सेतु है; दूसरे से संबंध निर्माण करना है। झंझट होगी। आपने अच्छी ही बात कही हो तो भी जरूरी नहीं कि दूसरा अच्छी ही तरह ले, दूसरा अपने ढंग से लेगा।

बोलकर उपद्रव बनता है। आप खयाल करें अपनी जिन्दगी में। आपने जितने उपद्रव, झगड़े-झांसे खड़े किये होंगे, वे सब बोलकर किये होंगे। काश, आप चुप रह जाते तो शायद जिंदगी और ढंग की होती। तो जब बोलना ऐसा लगे कि किसी के हित में नहीं है, तब रोक लेना। लेकिन हम चाहते हैं, बोले चले जाते हैं, कुछ भी कहे चले जाते हैं।

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में चल रहा है। पास में ही एक आदमी बैठा हुआ शांति से अपना अखबार पढ़ रहा है। लेकिन मुल्ला बेचैन है कि अखबार अलग करे तो कुछ बातचीत हो।

इसलिए ट्रेन में लोग जल्दी बातचीत शुरू कर देते हैं। और ऐसी बातें कह देते हैं अजनबियों से, जो उन्होंने अपने घर में अपनी पत्नी या अपने पति से भी न कही होतीं। अजनबियों से कन्फेशन शुरू कर देते हैं, क्योंकि बोलने की बेचैनी है। गाड़ी में बैठे-बैठे बेचैनी होती है।

नसरुद्दीन ने पूछा कि “आप, आप मुसलमान हैं क्या? मुसलमान मालूम होते हैं।’ उस आदमी ने सिर्फ अखबार से नजर उठाकर कहा कि “नहीं, मैं मुसलमान नहीं हूं।’ वह थोड़ा डरा भी कि यह आदमी मुसलमान दिखता है–मुसलमान हूं, ऐसा कहूं भी, या मुसलमान होता तो झंझट होती, ये फिर आगे बढ़ाता बात को। मामला खत्म हो गया। वह आदमी मुसलमान है भी नहीं। वह फिर अपना अखबार पढ़ने लगा। लेकिन नसरुद्दीन ने कहा कि “बिलकुल निश्चित, निश्चित ही मुसलमान नहीं हो?’

उस आदमी ने कहा कि “कह तो दिया आपसे, इसमें निश्चय की क्या बात है? मुसलमान नहीं हूं।’ नसरुद्दीन फिर थोड़ी देर में बोला, “एब्सोल्यूटली? बिलकुल पक्का?’ उस आदमी ने झंझट छुड़ाने के लिए, कि अखबार न पढ़ने देगा यह आदमी, कहा कि “हां भाई हूं, गलती हो गई जो कह दिया कि नहीं हूं। तो नसरुद्दीन ने कहा, “फनी, यू डोन्ट लुक लाइक ए मोहम्डन–मुसलमान जैसे दिखाई नहीं पड़ते।’

इसी ने उसको “मुसलमान हूं’–ऐसा कहलवा दिया और अब कह रहा है कि आप मुसलमान जैसे दिखाई नहीं पड़ते !

महावीर कहते हैं कि वचन व्यर्थ बाहर न जायें। और सार्थक कितने वचन हैं? अगर आप चौबीस घंटे देखेंगे, हिसाब रखेंगे तो आप पायेंगे कि मुश्किल से दस-पांच वाक्य से काम चल जाता है; गूंगे रहने से भी काम चल जाता है। लेकिन बोले जा रहे हैं; गूंगे तक बोले जाते हैं। गूंगों तक को भी चैन नहीं है।

मैंने सुना है कि एक फैक्टरी में गूंगी स्त्रियों को काम देने का मालिक ने इंतजाम किया। और एक दस-बारह स्त्रियों का मंडल, गूंगी स्त्रियों का काम ऐसा था कि हाथ से ही करने का था। लेकिन गूंगी स्त्रियां इशारे से एक दूसरे से बातचीत करती जाती हैं। फिर एक पुरुष को भी, जो गूंगा था, उसी डिपार्टमेन्ट में भेज दिया कि ठीक रहेगा–“वहां इतने गूंगे हैं, तुम भी उनके साथ रहो।’ उसने तीन दिन बाद आकर कागज पर लिखकर कहा कि “मेरा इस्तीफा स्वीकार कर लें।’ मालिक ने पूछा, “क्या बात है?’–“वे औरतें बहुत बातें करती हैं। मेरा सिर खा गई हैं।’ मालिक ने कहा, “लेकिन वे तो सब गूंगी हैं !’ तो उस गूंगे ने लिखा, “लेकिन गूंगी होने से क्या होता है? वे सब इशारा कर रही हैं एक-दूसरे को, मैं अकेला वहां फंस गया हूं।’

औरतें गूंगी हों तो भी क्या फर्क पड़ता है, औरतें ही हैं। उसने कहा, “वहां तो मेरी जान ही निकल जायेगी। और मैं तो समझता हूं उनके इशारे का मतलब क्या है, क्योंकि मैं भी गूंगा हूं।’

बड़ी बातचीत हो रही है। गूंगे तक बातचीत में लगे हैं।

तो हम जो बोलनेवाले हैं, महावीर कहते हैं, उनको धीरे-धीरे गूंगे होने की कला सीखनी चाहिये।

वचन को रोक लेना है, “वचनगुप्ति’। संभालना है भीतर; जल्दी नहीं करनी है। व्यर्थ को तो रोक ही लेना है–सार्थक को भी भीतर रोकना है, ताकि वह बीज की तरह भूमि में रुका रह जाये और अकुंरित हो सके। पर हम सार्थक-व्यर्थ सब फेंके जा रहे हैं, उलीचे जा रहे हैं।

और तीसरा महावीर कहते हैं, ” कायगुप्ति।’ शरीर को भी सिकोड़ना है : यह एक प्रक्रिया है महावीर की, खास। चलते, उठते, बैठते — ऐसे चलना है जैसे शरीर सिकुड़ता जा रहा है, छोटा होता जा रहा है।

आप जानकर हैरान होंगे कि शरीर का विस्तार आपकी वासना का विस्तार है; शरीर का विस्तार आपकी कल्पना पर निर्भर है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिन मुल्कों में लोग लंबे होते हैं, उनमें वे लंबे होते चले जाते हैं। उसका कारण वंशानुगत तो है ही, लेकिन आसपास लंबे लोगों को देखकर बच्चे को लंबे होने की कल्पना प्रगाढ़ होती है। जहां ठिगने लोग होते हैं वहां ठिगने होने की कल्पना प्रगाढ़ होती है।

बर्नार्ड शॉ मरने के पहले–कुछ वर्ष पहले लन्दन के आसपास के सब मरघटों में गया, यह देखने कि किस गांव में सबसे ज्यादा लम्बी उम्र तक लोग जीते हैं। आखिर उसने एक गांव खोज लिया, जिसमें एक कब्र पर पत्थर लगा हुआ था कि यह आदमी १७ वीं सदी में जन्मा, और १८ वीं सदी में, कम उम्र में ही, सौ वर्ष बाद मर गया। बर्नार्ड शॉ ने उसी गांव में रहने का तय कर लिया। उसके मित्रों ने पूछा, “तुम्हारा मतलब क्या है?’ उसने कहा, “जिस गांव में लोग सोचते हैं कि सौ वर्ष में मरना कम उम्र में मरना है, उस गांव में ज्यादा जीने का उपाय है, कल्पना को फैलाव है।’

अगर पुराने षि बच्चों को आशीर्वाद देते थे कि “शतायु हो! सौ वर्ष तक जीओ’– तो उनके आशीर्वाद से कोई सौ वर्ष तक नहीं जी सकता। लेकिन जहां सब बड़े-बूढ़े कह रहे हों कि सौ वर्ष तक जीओ, वहां बच्चे की कल्पना सौ वर्ष तक जीने की प्रगाढ़ हो जाती है। वह कल्पना शरीर को खींचती है।

कई बार ज्योतिषी आदमियों को मार देते हैं। वे कह देते हैं कि “बस, अब तो अंतिम समय आ गया है, दो ही साल में आपका मरना है।’ ज्योतिषी कह रहा है, ये इसलिए नहीं कि यह आदमी दो साल में मरने ही वाला था–बल्कि यह आदमी मर जायेगा दो साल में,

क्योंकि ज्योतिषी ने कहा है। अब यह दो साल सिर्फ सोचता ही रहेगा कि मरे, अब दिन करीब आ रहे हैं। वह सिकुड़ने लगेगा, भीतर से मरने लगेगा; मरने की तैयारी जुटाने लगेगा, यह मर भी जायेगा।

भविष्यवाणियां मृत्यु की सफल हो जाती हैं, क्योंकि भविष्यवाणियां कल्पना को गति दे देती हैं। आपका मन बड़ा शक्तिशाली है। तो महावीर कहते हैं, “कायगुप्ति’–शरीर को सिकोड़ना और शरीर को ऐसा अनुभव करना कि छोटा होता जा रहा है, छोटा होता जा रहा है।

दो प्रयोग हैं। एक प्रयोग ब्रह्मवादियों ने, शंकर ने, उपनिषद के षियों ने किया है। वे कहते हैं, “शरीर को फैलानाफैलाना फैलाना — इतना फैलाने की कल्पना करना कि सारा ब्रह्मांड शरीर में समा जाये। जिस दिन ऐसा अनुभव होने लगे कि चांद तारे मेरे भीतर चलने लगे, सूर्य मेरे भीतर उगने लगा, वृक्ष मेरे भीतर खिलने लगे, सारा जगत मेरे भीतर चल रहा है — उस दिन ब्रह्म का अनुभव हो जायेगा।

यह भी सच है। अगर इतना फैलाव हो जाये कि मैं ही बचूं और सब मेरे भीतर समा जाये, तो भी व्यक्ति सत्य को उपलब्ध हो जाता है; क्योंकि क्षुद्र अहंकार से मुक्त हो जाता है।

दूसरा उपाय है : मैं को इतना सिकोड़ते जाना; इतना सिकोड़ते जाना शरीर को संभालकर छोटा करते जाना छोटा करते जाना — शरीर इतना छोटा हो जाये कि मैं भी उसके भीतर न रह सकूं; इतना छोटा हो जाये, इतना एटामिक हो जाये कि मैं खुद भी उसके भीतर न रह सकूं; जगह ही न बचे और मैं उसके बाहर छिटक जाऊं।

महावीर कायगुप्ति का भरोसा करते हैं। ये दोनों प्रयोग एक से हैं विपरीत दिशाओं से। महावीर कहते हैं : छोटाछोटाशरीर को छोटा मानते जाना। एक ऐसी जगह आ जाती है, जहां शरीर इतना छोटा हो जाता है कि आपको बेचैनी लगेगी कि इसके भीतर मैं हो कैसे सकता हूं? अगर यह बेचैनी बढ़ गयी और शरीर को आप छोटा ही करते गये, एटामिक कर लिया, अणु की तरह हो गया–आप छिटककर बाहर हो जायेंगे; वही स्थिति उपलब्ध हो जायेगी जो विराट हो जाने पर होती है।

या तो शून्य की तरह छोटे हो जायें, या ब्रह्म की तरह विराट हो जायें।

भभमहावीर ने “पांच समितियां चरित्र, दया आदि प्रवृत्तियों के काम में आती हैं,’ ऐसा कहा, “और तीन गुप्तियां सब प्रकार के अशुभ व्यापारों से निवृत्त होने में सहायक होती हैं।’

“जो विद्वान मुनि उक्त आठ प्रवचन-माताओं का अच्छी तरह आचरण करता है, वह शीघ्र ही अखिल संसार से सदा के लिए मुक्त हो जाता है।’

मुक्ति के सूत्र हैं : जहां-जहां हम बंधे हैं, वहां-वहां से एक-एक शृंखला को तोड़ देने की प्रक्रियायें हैं। इन्हें थोड़ा प्रयोग करें और देखें क्योंकि मेरे कहने से समझ में नहीं आयेगा। कोई भी एक छोटा प्रयोग इन आठ में से करके देखें, अनूठा अनुभव होगा। इतना ही सोचने लगें कि शरीर छोटा होता जा रहा है। चलते, उठते, बैठते — शरीर छोटा होता जा रहा है; सोते शरीर छोटा होता जा रहा है। आप चकित हो जायेंगे कि शरीर के इस छोटे होने की धारणा के पैदा होते ही आपके शरीर के बहुत से व्यापार बदल जायेंगे; क्योंकि वे आपके शरीर की जो पुरानी धारणा थी, उसके साथ जुड़े थे। धारणा के गिरते ही वे व्यापार गिर जायेंगे।

अगर आप एक भी प्रयोग इन आठ में से करने में थोड़ा-सा स्वाद ले लें, तो बाकी सात भी आपको करने जैसे मालूम होने लगेंगे। कोई भी एक प्रयोग इक्कीस दिन के लिए चुन लें। शरीर को छोटा करने का प्रयोग बड़ा सरल है। खयाल करते जायें और आप पायेंगे कि शरीर की धारणा बदली, आप छोटे होने लगे, इतने छोटे होने लगे कि आप हैरान हो जायेंगे कि आपका व्यवहार लोगों से बदलने लगा।

अब एक आदमी आपको कहता है कि “तुम क्या हो, कुछ भी नहीं’–आपको बिलकुल ठीक जंचेगा। यही बात अगर इसने पहले कही होती कि “तुम क्या हो, कुछ भी नहीं; क्षुद्र, ना-कुछ–आप अकड़कर लड़ने खड़े हो गये होते। अगर आपका शरीर सिकुड़ रहा है तो आप कहेंगे, “बिलकुल ठीक कह रहे हो, ठीक ही कह रहे हो कि मैं बिलकुल क्षुद्र हूं।’ और अगर आप ऐसा कह सकें कि “मैं बिलकुल क्षुद्र हूं’, तो शायद वह आदमी भी धारणा बदलने को मजबूर हो जाये; क्योंकि जो क्षुद्र है वह कभी स्वीकार नहीं करता कि क्षुद्र है; जो छोटा है वह कभी स्वीकार नहीं करता कि मैं छोटा हूं। जो अज्ञानी है, वह राजी नहीं होता कि मैं अज्ञानी हूं; वह कहता है, मैं ज्ञानी हूं। हम सदा विपरीत की घोषणा करते हैं।

आप छोटे होते जायें, सिकुड़ते जायें शरीर के साथ-साथ, या मन को छोटा करें, सिकोड़ते जायें, मत फैलने दें–और आप पायेंगे कि धीरे-धीरे दुनिया दूसरी होने लगी; आपका आकार बदलने लगा और दुनिया की आकृति बदलने लगी।

दुनिया तो यही की यही रहती है–अमुक्त को, मुक्त को–लेकिन मुक्त बदल जाता है, इसलिए संसार बदल जाता है। संसार ही मोक्ष हो जाता है, अगर आप भीतर मुक्त हैं। जैसे आप हैं, अगर भूल-चूक से कहीं मोक्ष में प्रवेश कर जायें, कोई रिश्वत दे दें कहीं, किसी गुरु-कृपा से कहीं मोक्ष में आप घुस जायें, तो आपको वहां संसार के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। इसलिए मोक्ष में रिश्वत देकर जाने का कोई उपाय नहीं है। आप चले भी जायें तो आपको वहां संसार ही दिखाई पड़ेगा। आप वहां भी संसार निर्मित कर लेंगे। आप संसार हैं; आप मोक्ष हैं।

पांच मिनिट रुकें। कीर्तन करें और फिर जायें।

महावीर वाणी-(प्रवचन-41)

छह लेश्याएं : चेतना में उठी लहरे  (प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक 29 अगस्त, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

लोकतत्व-सूत्र : 5

किण्हा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य। सुक्कलेसा य छट्ठा य, नामाइं तु जहक्कमं।।

किण्हा नीला काऊ, तिण्णि वि एयाओ अहम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववज्जई।।

तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवोसुग्गइं उववज्जई।।

कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पदम और शुक्ल–ये लेश्याओं के क्रमशः छह नाम हैं।

कृष्ण, नील, कापोत–ये तीन अधर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है।

तेज, पदम और शुक्ल–ये तीन धर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव सदगति में उत्पन्न होता है। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-41)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-40)

पांच ज्ञान और आठ कर्म—(प्रवचन—तेरहवां) 

दिनांक 28 अगस्त, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

लोकतत्व—सूत्र : 4

तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं। ओहिनाणं तु तइयं, मणनाणं च केवलं।।

नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणं तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव च।।

नामकम्मं च गोत्तं चअंतरायं तहेव च। एवमेयाइं कम्माइंअट्ठेव उ समासओ।।

श्रुत, मति, अवधि, मन—पर्याय और कैवल्य —— इस भांति ज्ञान पांच प्रकार का है।

ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय —— इस प्रकार संक्षेप में ये आठ कर्म बतलाये हैं। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-40)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-39)

मुमुक्षा के चार बीज—(प्रवचन—बाहरवां) 

दिनांक 27 अगस्त, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

लोकतत्व-सूत्र : 3

नाणेण जाणइ भावेदंसणेण य सद्दहे। चरित्तेण निगिण्हाइतवेण परिसुज्झइ।।

नाणं च दंसणं चेवचरित्तं च तवो तहा। एयं मग्गमणुप्पत्ताजीवा गच्छंति सोग्गइं।।

मुमुक्षु-आत्मा ज्ञान से जीवादिक पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र्य से भोग-वासनाओं का निग्रह करता है, और तप से कर्ममलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है।

ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य और तप–इस चतुष्टय अध्यात्ममार्ग को प्राप्त होकर मुमुक्षु जीव मोक्षरूप सदगति पाते हैं। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-39)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-38)

आत्मा का लक्षण है ज्ञान—(प्रवचन—ग्‍याहरवां) 

दिनांक 26 अगस्त, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

लोकतत्व-सूत्र : 2

नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं ।।

सद्दंधयार उज्जोओ, पहा छायातवे इ वा ।। वण्ण-रस-गंध-फासा, पुग्गलाण तु लक्खणं ।।

जीवाजीवा य बन्धो य पुण्णं पावासवा तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो, सन्तेए तहिया नव ।।

तहियाणं तु भावाणं,सव्भावे उवस्सणं। भावेणं सद्दहन्तस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ।।

ज्ञान, दर्शन, चारितरय, तप, वीर्य और उपयोग अर्थात अनुभव–ये सब जीव के लक्षण हैं। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-38)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-37)

विकास की ओर गति है धर्म—(प्रवचन—दसवां) 

दिनांक 25 अगस्त, 1973; तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

लोकतत्व-सूत्र : 1

धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जन्तवो। एस लोगो त्ति पण्णतो, जिणेहिं वरदंसिहि।।

गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो। भायणं सव्वदव्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं।।

बत्तणालक्खणो कालोजीवो उवओगलक्खणो। नाणेणं दंसणेणं चसुहेणं य दुहेण य।।

धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुदगल और जीव—ये छह द्रव्य हैं। केवल दर्शन के धर्ता जिन भगवानों ने इन सबको लोक कहा है। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-37)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-36)

साधना का सूत्र : संयम (प्रवचन—नौवां) 

दिनांक 21 सितम्बर, 1972; द्वितीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

आत्म-सूत्र : 2

जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओचइज्ज देहं न हु धम्मसासणं।।

तं तारिसं नो पइलेन्ति इन्दियाउविंतिवाया व सुदंसणं गिरिं।।

सरीरमाहु नाव त्तिजीवो वुच्चई नाविओ।

संसारो अण्णवो वुत्तोजं तरन्ति महेसिणो।।

जिस साधक की आत्मा इस प्रकार दृढ़-निश्चयी हो कि देह भले ही चली जाये, पर मैं अपना धर्म-शासन नहीं छोड़ सकता, उसे इन्दिरयां कभी भी विचलित नहीं कर सकतीं। जैसे भीषण बवंडर सुमेरु पर्वत को विचलित नहीं कर सकता। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-36)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-35)

आप ही हैं अपने परम मित्र—(प्रवचन—अठवां)

दिनांक 20 सितम्बर, 1972; द्वितीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

आत्म-सूत्र : 1

अप्पा कत्ता विकात्त य,

दुक्खाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं चदुप्पट्ठि सुपट्ठिओ।।

पंचिन्दियाणि कोहंमाणं मायं तहेव लोहं च। दुज्जयं चेव अप्पाणंसव्वमप्पे जिए जियं।।

आत्मा ही अपने सुख और दुख का कर्ता है तथा आत्मा ही अपने सुख और दुख का नाशक है। अच्छे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा मित्र है और बुरे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा शत्रु।

पांच इन्‍दिरयां, क्रोध, मान, माया, और लोभ तथा सबसे अधिक दुर्जेय अपनी आत्मा को जीतना चाहिए। एक आत्मा को जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-35)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-34)

यह निःश्रेयस का मार्ग है—(प्रवचन—सातवां) 

दिनांक 19 सितम्बर, 1972; द्वितीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

पण्डित-सूत्र:

जे य कंते पिए भोएलद्वे विपिट्ठीकुव्वई। साहीणे चयइ भोएसे हु चाइ त्ति वुच्चई।।

वत्थगंधमलंकारंइत्थियो सयणाणि य। अच्छन्दा जे न भुंजंतिन से चाइ ति वुच्चई।।

तस्सेस मग्गो गुरु विद्धसेवाविवज्जणा बालजणस्स दूरा।

सज्झायएगन्तनिसेवणासुत्तत्थसंचिन्तणया धिई य।। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-34)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-33)

अकेले ही है भोगना—(प्रवचन—छठवां) 

दिनांक 18 सितम्बर, 1972; द्वितीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

अशरण-सूत्र:

जमिणं जगई पूढ़ो जगाकम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो।

सयमेव कडेहि गाहईनो तस्स मुच्चेज्ज पुट्ठयं।।

न तस्य दुक्खं विभयन्ति नाइओन भित्तवग्गा न सुया न बंधवा।

एक्को सयं पच्चणुहोई दुक्खंकत्तारमेव अणुजाइ कम्मं।।

संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब अपने कृतकर्मों के कारण ही दुखी होते हैं। अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो, उसका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता।

पापी जीव के दुख को न जातिवाले बंटा सकते हैं, न मित्र वर्ग, न पुत्र, और न भाई-बन्धु। जब दुख आ पड़ता है, तब वह अकेला ही उसे भोगता है। क्योंकि कर्म अपनेर् कत्ता के ही पीछे लगते हैं, अन्य किसी के नहीं। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-33)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-32)

ये चार शत्रु—(प्रवचन—पांचवां) 

दिनांक 17 सितम्बर, 1972; द्वितीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

कषाय-सूत्र:

कोहो य माणो य अणिग्गहीयामाया य लोभो य पवङ्ढमाणा।

चत्तारि एए कसिणा कसायासिंचन्ति भूलाइं पुण्णब्भवस्स।।

पुढवी साली जवा चेवहिरण्णं पसुभिस्सह।

पडिपुण्णं नालमेगस्सइह विज्जा तवंचरे।।

अनिगृहित क्रोध और मान तथा बढ़ते हुए माया और लोभ, ये चारों काले कुत्सित कषाय पुनर्जन्मरूपी संसार-वृक्ष की जड़ों को सींचते रहते हैं। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-32)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-31)

सारा खेल काम-वासना का—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 16 सितम्बर, 1972; द्वितीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

प्रमाद-स्थान-सूत्र : 02

रसा पगामं न निसेवियव्वापायं रसा दित्तिकरा नराणं।

दित्तं च कामा समभिद्दवन्तिदुमं जहा साउफलं व पक्खी।।

न कामभोगा समयं उवेन्तिन यावि भोगा विगइं उवेन्ति।

जे तप्पओसी य परिग्गही यसो तेसु मोहा विगइं उवेइ।।

दूध, दही, घी, मक्खन, मलाई, शक्कर, गुड़, खांड, तेल, मधु, मद्य, मांस आदि रसवाले पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे मादकता पैदा करते हैं और मत्त पुरुष अथवा स्त्री के पास वासनाएं वैसी ही दौड़ी आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फलवाले वृक्ष की ओर पक्षी। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-31)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-30)

एक ही नियम : होश—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 15 सितम्बर, 1972; द्वितीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

प्रमाद-स्थान-सूत्र : 01

पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं। तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा।।

दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहोमोहो हओ जस्स न होई तण्हा।

तण्हा हया जस्स न होई लोहोलोहो हओ जस्स न किंचणाइं।।

प्रमाद को कर्म कहा है और अप्रमाद को अकर्म अर्थात जो प्रवृत्तियां प्रमादयुक्त हैं वे कर्म-बंधन करनेवाली हैं और जो प्रवृत्तियां प्रमादरहित हैं, वे कर्म-बंधन नहीं करतीं। प्रमाद के होने और न होने से मनुष्य क्रमशः बाल-बुद्धि (मूर्ख) और पण्डित कहलाता है। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-30)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-29)

अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 14 सितम्बर, 1972; द्वितीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई

अप्रमाद-सूत्र : 02

वोच्छिन्द सिणेहमप्पणोकुमुयं सारइयं व पाणियं

से सव्वसिणेहवज्जिएसमयं गोयम! मा पमायए।।

तिण्णो हु सि अण्णवं महंकिं पुण चिट्ठसि तीरमागओ।

अभितुर पारं गमितएसमयं गोयम! मा पमायए।।

जैसे कमल शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता और अलिप्त रहता है, वैसे ही संसार से अपनी समस्त आसक्तियां मिटाकर सब प्रकार के स्नेहबंधनों से रहित हो जा। अतः गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-29)”

महावीर वाणी-(प्रवचन-28)

समय और मृत्‍यु का अंतर्बोध—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 13 सितम्‍बर, 1972 द्वितीय पर्युषण व्‍याखानमाला, पाटकर हाल , बम्‍बई।

अप्रमाद—सूत्र : 01

सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी,  न वीससे पंडिए आसुपन्ने।

घोरा मुहुता अवल शरीरंभारुंडपक्सी व चरप्पमत्ते।।

आशुप्रज्ञा पंडित पुरुष को मोह —निद्रा में सोये हुए संसारी मनुष्यों के बीच रहकर भी सब तरह से जागरूक रहना चाहिए और किसी का विश्वास नहीं करना चाहिए।

काल निर्दयी है और शरीर दुर्बल, यह जानकर भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त— भाव से विचरना चाहिए। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-28)”

महावीर वाणी-(भाग-02)-ओशो

महावीर वाणी भाग—2  (ओशो)

(द्वितीय एवं तृतीय पर्युषण व्‍याख्‍यानमाला के अंतर्गत दिनांक 13 सितम्‍बर से 21 सितम्‍बर 1972 एवं 25 अगस्‍त से 11 सितम्‍बर 1973 तक भगवान श्री द्वारा दिए गये 27 अमृत प्रवचनों का संकलन)

मैं यहां एक अनूठा प्रयोग कर रहा हूं, जैसा कभी नहीं किया गया है। यह मनुष्‍य जाति के इतिहास में पहली घटना है। जहां सारे धर्म एक साथ डूब रहे है। और बिना किसी प्रयास के यहां बैठकर हम दोहराते नहीं कि अल्‍लाह ईश्‍वर तेरा नाम, सबको सन्‍मति दे भगवान। यह हम दोहराते नहीं परंतु यहां ये घट रहा है। यहां अल्‍लाह और ईश्‍वर एक के ही नाम है। इसे कहने की जरूरत नहीं है। हुए जा रहे है एक। यहां किसी को पता नहीं चलता। कौन हिंदू है। कौन मुसलमान है, कौन ईसाई है, कौन यहूदी है, कौन सिख है। यहां सब इकट्ठे है। Continue reading “महावीर वाणी-(भाग-02)-ओशो”

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