सातवां प्रवचन-(पूछें–मैं कौन हूं?)
मैं किस संबंध में आपसे बात करूं? मैं कोई उपदेशक नहीं हूं, और न किसी धर्म के प्रचार की मेरे मन में कोई संभावना है। न ही आप अपने जीवन को कैसा निर्मित करें, इस संबंध में कोई सलाह मैं आपको दूंगा। न ही यह बताना चाहता हूं कि किसी मनुष्य को किन आदर्शों के अनुकूल जीना चाहिए। क्योंकि मेरी दृष्टि में मनुष्य की आज तक की पूरी संस्कृति एक ही बात से अभिशप्त रही हैै, और वह यह है कि हमने हमेशा मनुष्य के जीवन के लिए एक ढांचा और एक आदर्श देने की कोशिश की है। उसका परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य का विवेक उसकी आत्मा निरंतर परतंत्र से परतंत्र होती गई है। और जो विवेक स्वतंत्र नहीं है, उसका आचरण चाहे कितना ही ऊ पर से शुद्ध हो, उसका व्यवहार चाहे ऊ पर से कितना ही नीतियुक्त हो, उसके जीवन में चाहे कितनी ही सभ्यता और संस्कृति का प्रदर्शन हो, उसकी आत्मा विकृति के, पाप के, पीड़ा के ऊपर नहीं उठ सकती है। मनुष्य का विवेक स्वतंत्र न हो तो उसके ठीक आचरण का कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि वैसा आचरण उसके जीवन में कोई आनंद की सुगंध नहीं ला सकेगा। लेकिन निरंतर हमें यह सिखाया गया है और हम इस ढांचे के भीतर पले हैं और बड़े हुए हैं, और यह कोई एक-दो दिन की बात नहीं, हजारों वर्ष से मनुष्य के ऊपर ढांचे और आदर्श थोपे गए हैं। Continue reading “स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-07)”