स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन-(पूछें–मैं कौन हूं?)

मैं किस संबंध में आपसे बात करूं? मैं कोई उपदेशक नहीं हूं, और न किसी धर्म के प्रचार की मेरे मन में कोई संभावना है। न ही आप अपने जीवन को कैसा निर्मित करें, इस संबंध में कोई सलाह मैं आपको दूंगा। न ही यह बताना चाहता हूं कि किसी मनुष्य को किन आदर्शों के अनुकूल जीना चाहिए। क्योंकि मेरी दृष्टि में मनुष्य की आज तक की पूरी संस्कृति एक ही बात से अभिशप्त रही हैै, और वह यह है कि हमने हमेशा मनुष्य के जीवन के लिए एक ढांचा और एक आदर्श देने की कोशिश की है। उसका परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य का विवेक उसकी आत्मा निरंतर परतंत्र से परतंत्र होती गई है। और जो विवेक स्वतंत्र नहीं है, उसका आचरण चाहे कितना ही ऊ पर से शुद्ध हो, उसका व्यवहार चाहे ऊ पर से कितना ही नीतियुक्त हो, उसके जीवन में चाहे कितनी ही सभ्यता और संस्कृति का प्रदर्शन हो, उसकी आत्मा विकृति के, पाप के, पीड़ा के ऊपर नहीं उठ सकती है। मनुष्य का विवेक स्वतंत्र न हो तो उसके ठीक आचरण का कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि वैसा आचरण उसके जीवन में कोई आनंद की सुगंध नहीं ला सकेगा। लेकिन निरंतर हमें यह सिखाया गया है और हम इस ढांचे के भीतर पले हैं और बड़े हुए हैं, और यह कोई एक-दो दिन की बात नहीं, हजारों वर्ष से मनुष्य के ऊपर ढांचे और आदर्श थोपे गए हैं। Continue reading “स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-07)”

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-(भार क्या है?)

मेरे प्रिय आत्मन्!

किस संबंध में आपसे बात करूं, इस पर विचार करता हूं। सबसे पहली बात जो मेरे खयाल में आती है, वह यह इधर मनुष्य के जीवन में निरंतर पीड़ा, दुख और अशांति बढ़ती गई है। बढ़ती जा रही है। जीवन के रस का अनुभव, आनंद का अनुभव विलीन होता जा रहा है। जैसे एक भारी बोझ पत्थर की तरह हमारे मन और हृदय पर है, हम जीवन भर उसमें दबे-दबे जीते हैं, उसी बोझ के नीचे समाप्त हो जाते हैं। लेकिन किसलिए यह जीवन था, किसलिए हम थे, कौन सा प्रयोजन था? इस सबका कोई अनुभव नहीं हो पाता। यह कौन सा बोझ है जो हमारे चित्त पर बैठ कर हमारे जीवन रस को सोख लेता है? कौन सा भार है, जो हमारे प्राणों पर पाषाण बन कर बोझिल हो जाता है? इस संबंध में ही आपसे थोड़ी बात कहूं। इससे पहले कि मैं अपनी बात शुरू करूं, एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे मेरी बात भी जो मैं कहना चाहता हूं खयाल में आ सकेगी। Continue reading “स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-06)”

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(जागो और देखो)

मेरे प्र्रिय आत्मन्!

मैं कल सुबह एक कहानी कह कर बहुत मुसीबत में पड़ गया। उसी से आज की शुरुआत भी करनी है। कल सुबह मैं बोला और मैंने तैमूरलंग और बादशाह बैजद के संबंध में एक छोटी सी कहानी कही। मैं सोचता था तैमूरलंग और बैजद बहुत समय हुआ मर चुके हैं, इसलिए कोई मैंने परेशानी अनुभव नहीं की। मुर्दों से कोई डर होने का कारण भी नहीं है। लेकिन मैं घर लौटा भोजन किया और सो गया। मैंने देखा कि तैमूरलंग और बैजद दोनों उपस्थित हैं और मुझ पर बहुत नाराज हैं। वे दोनों कहने लगे कि हमने सुना है कि आज सुबह हमारे संबंध में बहुत सी गलत बातें आपने कही हैं। आपने ऐसी कहानी कही है जिसमें हमारी बड़ी निंदा है। आप अपनी कहानी वापस ले लें और क्षमा मांग लें। मैंने उनसे कहा कि क्षमा मांगना तो असंभव है, कल सुबह की मीटिंग में तुम फिर आ जाना, मैं फिर वही कहानी कहूंगा। अभी जब मैं दरवाजे से घुसा तो देखा कि वे दोनों भी आ चुके हैं। जरूर कहीं न कहीं आकर बैठ गए होंगे, जहां तक तो मंच पर ही बैठे होंगे, क्योंकि उनकी आदत नीचे बैठने की नहीं है। Continue reading “स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-05)”

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन-(छोड़ें दौड़ और देखें)

मेरे प्रिय आत्मन्!

किस संबंध में आपसे बात करूं यह सोचता था, तो शायद क्या है कि आपके धर्म के दिन चल रहे हैं, हालांकि जिन लोगों के भी धर्म के दिन अलग और अधर्म के दिन अलग होते हैं, उनके जीवन में कोई धर्म के दिन नहीं होते। और न ही हो सकते हैं। यह कैसे संभव है? यह कैसे संभव है कि कुछ दिन धर्म के हों, बाकी दिन धर्म के न हों? यह भी कैसे संभव है कि दिन के किसी घड़ी में आदमी धार्मिक हो फिर बाकी घड़ियों में धार्मिक न हो?

धर्म ऐसी खंडित बात नहीं है। Continue reading “स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-04)”

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

सीखे हुए ज्ञान से मुक्ति

कुछ थोड़े से प्रश्नों पर थोड़ी सी बातें मैं आपसे कहूं, उसके पहले एक निवेदन कर देना उचित है, वह यह कि मेरे उत्तर आपके उत्तर नहीं हो सकते हैं। प्रश्न आपका है, तो अंततः आपको अपना ही उत्तर खोजना होगा। किसी दूसरे का उत्तर काम नहीं देगा। लेकिन हम उत्तर खोजने की तलाश में होते हैं, शास्त्रों में खोजते हैं, सिद्धांतों में खोजते हैं, गुरुओं में खोजते हैं, और यह आशा रखते हैं कि शायद उत्तर कहीं हमें मिल जाए। लेकिन कभी बाहर से कोई उत्तर नहीं मिलता है। सत्य के संबंध में, आत्मा के संबंध में, परमात्मा के संबंध में कोई उत्तर कभी बाहर से नहीं मिलता। आप कहेंगे कि कैसी मैं बात कहता हूं? शास्त्र भरे पड़े हुए हैं, उत्तरों से और पंडितों के मस्तिष्क भरे हुए हैं, और हम सब भी तो छोटे-मोटे पंडित तो हैं कि, थोड़ा बहुत जानते हैं; हम सबके मन में भी बहुत उत्तर हैं। लेकिन स्मरण रखें, उत्तर कितने भी इकट्ठे हो जाएं, प्रश्न समाप्त नहीं होगा। प्रश्न वहीं का वहीं बना रहेगा। उत्तरों का संग्रह हो जाएगा। प्रश्न को उत्तर स्पर्श नहीं करेंगे। इसलिए कोई कितना ही पढ़े, कितना ही सिद्धांतों को, थिरीज को, आइडियोलाॅजिस को समझ लें, इकट्ठा कर ले, सारे शास्त्रों को पी जाए फिर भी जीवन का उत्तर उसे उपलब्ध नहीं होता है। उत्तर बहुत हो जाते हैं उसके पास लेकिन कोई समाधान नहीं होता। समाधान न हो तो प्रश्न का अंत नहीं होता है। प्रश्न का अंत न हो तो चिंता समाप्त नहीं होती है। चिंता समाप्त न हो तो वह जो चित्त की अशांति है, जो केवल ज्ञान के मिलने पर ही उपलब्ध होती है, उपलब्ध नहीं की जा सकती। फिर भी मैं आपको उत्तर दे रहा हूं, यह जानते हुए भी कि मेरा उत्तर, आपका उत्तर नहीं हो सकता, फिर किसलिए उत्तर दे रहा हूं? Continue reading “स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-03)”

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

स्वयं की सत्ता ही सत्य है

स्वयं की सत्ता ही सत्य है, वही असंदिग्ध आधारभूमि है जो अनुभव हो सके। उस संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कहूं।

केंद्रीय रूप से यह आपसे मैंने कहना चाहा, हमें पूरा जीवन जो दिखाई पड़ रहा है, उसके पीछे भागते हैं और उसका विस्मरण हो जाता है, जो हमारे भीतर है और सारे दिखाई पड़ने वाले जगत को देख रहा है और अनुभव कर रहा है। जिसकी सत्ता है, वह विस्मरण हो जाता है, और सत्ता पर जो दृश्य घूमते हैं, केवल वे ही हमारे मन में बैठ जाते हैं। जैसे कोई नाटक देखने गया हो, और भूल जाए स्वयं को और नाटक में चलती हुई कथा के साथ एक हो जाए। और नाटक के बाद उसे स्मरण आए कि मैं भी था। वैसे ही मृत्यु के समय प्रत्येक को स्मरण आता है कि मैं भी था। और जो आंख के सामने दृश्य चलते थे, वो जो जीवन का प्रवाह था, उसमें अपने को भूल गया था, लेकिन तब कुछ भी किया नहीं जा सकता। जो भी किया जा सकता है, वह अभी किया जा सकता है। और यदि हम स्वयं का स्मरण न कर पाएं, तो जीवन दुख की और पीड़ा की एक लंबी कथा हो जाती है। फिर हम चाहे कुछ भी खोजें और कुछ भी पा लें, फिर चाहे हमारी कोई भी उपलब्धि हो, धन की, संपदा की, स्वास्थ्य की, पद की, यश की ; उस सारी उपलब्धि के पीछे दुख और पीड़ा मौजूद ही रहेंगी। Continue reading “स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-02)”

स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-01)

स्वयं की सत्ता-(विविध)-ओशो 

पहला प्रवचन

स्वयं की सत्ता का बोध

आपसे क्या कहूं, इस पर सोचता था। जो कहने का मन है, शायद उसे कहने को शब्द नहीं मिल पाते हैं। और आज तक मनुष्य के पूरे इतिहास में जिन लोगों ने कुछ जाना है, उन्हें कहना कठिन हो गया है। अनुभूतियां प्राणों की किसी गहराई में अनुभव होती हैं और शब्दों में उन्हें प्रकट करना मुश्किल और कठिन हो जाता है। ऐसा भी प्रतीत होता है कहने के बाद कि जो कहना चाहा था, वह पूरी तरह पहुंच नहीं पाया होगा। एक छोटी सी घटना मुझे स्मरण आती है, उससे ही अपनी बात को प्रारंभ करना चाहूंगा।

ऐसी ही किसी सांझ को किसी देश में बहुत से लोग किसी फकीर को सुनने को इकट्ठे हुए थे। फकीर आया और तो सामने खड़ा हुआ और थोड़ी देर मौन खड़ा रहा, और फिर उसने नाचना शुरू किया, थोड़ी देर नाचता रहा और फिर उसने लोगों से पूछा कुछ समझ में आया? अब नाचने से कुछ भी समझ में नहीं आ सकता। लेकिन उस फकीर ने कहा कि शब्दों से तो फिर और भी समझ में नहीं आएगा। Continue reading “स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-01)”

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