अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-10)

दसवां-प्रवचन-(शाश्वत संगीत भीतर है)

प्रश्न-सार

01-॰ मैं सुखी होना चाहता हूं। अहंकार को मिटाने से तो मैं स्वयं ही मिट जाऊंगा; और मैं रहूंगा ही नहीं तो सुखी कैसे होऊंगा? अस्तित्व खोने की अपेक्षा दुखमय अस्तित्व ही क्यों न ठीक होगा?

02-॰ संतों में किसी ने उस परम अनुभूति को प्रकाश कहा है, किसी ने रंगों की होली, किसी ने अमृत का स्वाद। यह भेद क्यों?

03-॰ भगवान,

 जगजीवन के साथ मेरे जीवन का अंतिम मोड़ आ चुका है। आपके चरणों में लपटाई रहूं, यही प्रार्थना है। Continue reading “अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-10)”

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(यहि नगरी में होरी खेलौं री)

सारसूत्र:

रंगि-रंगि चंदन चढ़ावहु, सांईं के लिलार रे।।

मन तें पुहुप माल गूंथिकै, सो लैकै पहिरावहु रे।

बिना नैन तें निरखु देखु छवि, बिन कर सीस नवावहु रे।।

दुइ कर जोरिकै बिनती करिकै, नाम कै मंगल गावहु रे।

जगजीवन विनती करि मांगै, कबहुं नहीं बिसरावहु रे।। Continue reading “अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-09)”

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(गुरु है शमा, शिष्य परवाना)

प्रश्न-सार

01-॰ गुरु तो सदैव मुमुक्षु की आध्यात्मिक स्थिति जान सकते हैं, परंतु मुमुक्षु कैसे जाने कि गुरु सत्य को उपलब्ध है अथवा नहीं?

02-और क्या शिष्य दूसरे गुरु के पास जा सकता है?

03-॰ तेरे द्वार खड़ी भगवान,

 04-ओशो भर दे रे झोली!

05-॰ कृष्ण का नाम ही सुना है, शिव को जाना भी नहीं, किंतु कुंडलिनी ध्यान में ऐसा क्यों लगा कि यहीं शिव का नृत्य हो रहा है और यहीं की मधुर आवाज कृष्ण की बांसुरी की आवाज है? Continue reading “अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-08)”

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(साध से बड़ा न कोई)

सारसूत्र:

गऊ निकसि बन जाहीं। बाछा उनका घर ही माहीं।।

तृन चरहिं चित्त सुत पासा। गहि जुक्ति साध जग-बासा।।

साध तें बड़ा न कोई। कहि राम सुनावत सोई।।

राम कही, हम साधा। रस एकमता औराधा।।

हम साध, साध हम माहीं। कोउ दूसर जानै नाहीं।।

जन दूसर करि जाना। तेहिं होइहिं नरक निदाना।।

जगजीवन चरन चित लावै। सो कहिके राम समुझावै।। Continue reading “अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-07)”

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(अंतर्यात्रा है परमात्मा

प्रश्न-सार

01-॰ प्रभु की पुकार कैसे सुनाई दे?

02-॰ सत्यबोध और आत्मानुभूति हेतु साधना से कार्य-कारण-संबंध नहीं बनता, फिर पद्धतिबद्ध साधन-ध्यान करने की क्या आवश्यकता है?

03-॰ प्रवचन से पहले जगजीवन के पदों का पाठ किया गया तो अकस्मात मेरा दिल भर आया और सारे समय आंसू बहते रहे। पदों का पाठ रुका तो मेरे आंसू बंद हुए। इन पदों का मतलब मैं आपके प्रवचन के बाद समझा। भगवान, ऐसा क्यों हुआ?

04-॰ उठूं ऊपर या मनुहार करूं पता नहीं पाता हूं जितना मुट्ठी को कसता हूं दूर चला जाता हूं क्या करूं प्रभु? मार्ग दीजिए!

05-॰आप राजनेताओं का सदा मजाक क्यों उड़ाते हैं? और राजनेता चूड़ीदार पाजामा ही क्यों पहनते हैं? Continue reading “अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-06)”

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(गगन-मंदिल दृढ़ डोरि लगाव हु)

सारसूत्र:

अरी, मैं तो नाम के रंग छकी।।

जब तें चाख्या बिमल प्रेमरस, तब तें कछु न सोहाई।

रैनि दिना धुनि लागि रहीं, कोउ केतौ कहै समुझाई।।

नाम पियाला घोंटिकै, कछु और न मोहिं चही।

जब डोरी लागी नाम की तब केहिकै कानि रही।।

जो यहि रंग में मस्त रहत है, तेहि कैं सुधि हरना।

गगन-मंदिल दृढ़ डोरि लगावहु, जाहि रहौ सरना।

निर्भय ह्वैकै बैठि रहौं अब, मांगौं यह बर सोई।।

जगजीवन विनती यह मोरी, फिरि आवन नहिं होई।। Continue reading “अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-05)”

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(महासुखः फैलना और फैलते जाना)

प्रश्न-सार

01-॰ हम खुदा के तो कभी कायल न थे

तुम्हें देखा तो खुदा याद आया।

 शवूर सिजदा नहीं है मुझको, तू मेरे सिजदों की लाज रखना

यह सिर तेरे आस्तां से पहले, किसीके आगे झुका नहीं है।

02-॰ भगवान,

मेरी पत्नी के मन में कोई प्रश्न नहीं उठता! क्या कारण है? Continue reading “अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-04)”

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(तुम जानत तुम देत जनाई)

सारसूत्र:

जोगिन भइउं अंग भसम चढ़ाय।

कब मोरा जियरा जुड़इहौ आय।।

अस मन ललकै, मिलौं मैं धाय।

घर-आंगन मोहिं कछु न सुहाय।।

अस मैं ब्याकुल भइउं अधिकाय।।

जैसे नीर बिन मीन सुखाय।।

आपन केहि तें कहौं सुनाय।

जो समुझौं तौ समुझि न आय।।

संभरि-संभरि दुख आवै रोय।

कस पापी कहं दरसन होय।।

तन मन सुखित भयो मोर आय।

जब इन नैनन दरसन पाय।।

जगजीवन चरनन लपटाय।

रहै संग अब छूटि न जाय।। Continue reading “अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-03)”

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-02)

दूसरा–प्रवचन-(सत्संग सरोवर, भक्ति स्नान)

प्रश्न-सार

॰ मनुष्य क्या है?

॰ परमात्मा की पहली झलक क्या है? यह कब घटित होती है?

॰ क्या सत्संग और भक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं?

॰ प्रभु जग से नाता तोड़ी रे

मैं तुझसे नाता जोड़ी…

॰ यदि सब परमात्मा के हाथ में है, तो फिर व्यक्ति की स्वतंत्रता बेमानी हो जाती है। कृपया समझाएं। Continue reading “अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-02)”

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-01) 

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(जगजीवन दास)

पहला-प्रवचन-(चाहत खैंचि सरन ही राहत)

सारसूत्र:

साईं, जब तुम मोहि बिसरावत।

भूलि जात भौजाल-जगत मां, मोहिं नाहिं कछु भावत।।

जानि परत पहिचान होत जब, चरन-सरन लै आवत।

जब पहिचान होत है तुमसे, सूरति सुरति मिलावत।।

जो कोई चहै कि करौं बंदगी, बपुरा कौन कहावत।

चाहत खैंचि सरन ही राखत, चाहत दूरि बहावत।।

हौं अजान अज्ञान अहौं प्रभु, तुमतें कहिकै सुनावत।

जगजीवन पर करत हौ दाया, तेहिते नहिं बिसरावत।। Continue reading “अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-01) “

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