धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-10)

दसवां-प्रवचन-(प्रेम ही परमात्मा है)

सागर के तट पर एक मेला भरा था। बड़े-बड़े विद्वान इकट्ठे थे उस सागर के किनारे। और स्वभावतः उनमें एक चर्चा चल पड़ी कि सागर की गहराई कितनी होगी? और जैसी कि मनुष्य की आदत है, वे सब सागर के किनारे बैठ कर विवाद करने लगे कि सागर की गहराई कितनी है? उन्होंने अपने शास्त्र खोल लिए। उन सबके शास्त्रों में गहराई की बहुत बातें थीं। कौन सही है, निर्णय करना बहुत मुश्किल हो गया। क्योंकि सागर की गहराई तो सिर्फ सागर में जाने से पता चल सकती है, शास्त्रों के विवाद में नहीं, शब्दों के जाल में नहीं। विवाद बढ़ता गया। और जितना विवाद बढ़ा, उतना निर्णय मुश्किल होता चला गया। असल में निर्णय लेना हो तो विवाद से बचना जरूरी है। निर्णय न लेना हो तो विवाद से ज्यादा सुगम और कोई रास्ता नहीं। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-10)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(जीवन की वीणा का संगीत)

मेरे प्रिय आत्मन्!

जैसे कोई बड़ा बगीचा हो, बहुत पौधे हों, लेकिन फूल एक भी न खिले, ऐसा ही मनुष्य का समाज हो गया है। मनुष्य बहुत हैं, लेकिन सौंदर्य के, सत्य के, प्रार्थना के कोई फूल नहीं खिलते। पृथ्वी आदमियों से भरती चली जाती है, लेकिन दुर्गंध से भी, सुगंध से नहीं। घृणा से, क्रोध से, हिंसा से, लेकिन प्रेम और प्रार्थना से नहीं। कोई तीन हजार वर्षों में आदमियों ने पंद्रह हजार युद्ध लड़े। ऐसा मालूम पड़ता है कि सिवाय युद्ध लड़ने के हमने और कोई काम नहीं किया। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध बहुत होते हैं। प्रतिवर्ष पांच युद्धों की लड़ाई। और अगर किसी एक संबंध में विकास हुआ है, तो वह यही कि हमने आदमियों को मारने की कला में अंतिम स्थिति पा ली है। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-09)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(रहस्य का द्वार)

एक फकीर को एक सम्राट ने फांसी दे दी थी। और उस देश का रिवाज था कि नदी के किनारे फांसी के तख्ते को खड़ा करके फांसी दे देते थे। और उस लटकते हुए आदमी को वहीं छोड़ कर लौट जाते थे। उसकी लाश नदी में गिर जाती और बह जाती। लेकिन कुछ भूल हो गई, और फकीर के गले में जो फंदा लगाया था वह बहुत मजबूत नहीं था, फकीर जिंदा ही फंदे से छूट कर नदी में गिर गया। पर किसी को पता न चला, फांसी लगाने वाले लौट चुके थे।

दस साल बाद उस फकीर को फिर फांसी की सजा दी गई। और जब उसे फांसी के तख्ते पर चढ़ाया जा रहा था और सूली बांधी जा रही थी, तो उस फकीर ने कहा कि मित्रो, जरा एक बात का ध्यान रखना कि फंदा ठीक से लगाना। पिछली बार मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया था। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-08)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(प्राणों की प्यास)

शायद हम जीवन के बरामदे में ही जी लेते हैं और जीवन का भवन अपरिचित ही रह जाता है। हम अपने से बाहर ही जी लेते हैं, मंदिर में प्रवेश ही नहीं हो पाता है। मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ा आश्चर्य शायद यही है कि वह अपने से ही अपरिचित, अनजान, अजनबी जी लेता है। शायद सबसे कठिन ज्ञान भी वही है। और सब कुछ जान लेना बहुत सरल है। एक अपने को ही जान लेना बहुत कठिन पड़ जाता है। होना तो चाहिए सबसे ज्यादा सरल, अपने को जानना सबसे सुगम होना चाहिए। लेकिन सबसे कठिन हो जाता है।

कारण हैं कुछ। सबसे बड़ा कारण तो यही है कि हम यह मान कर ही चल पड़ते हैं कि जैसे हम स्वयं को जानते हैं। और जैसे कोई बीमार समझ ले कि स्वस्थ है, ऐसे ही हम अज्ञानी समझ लेते हैं कि ज्ञानी हैं। अपने को जानते ही हैं, इस भ्रांति से जीवन में अज्ञान के टूटने की संभावना ही समाप्त हो जाती है। सिर्फ वही आदमी अपने को जानने को निकलेगा, जो कम से कम इतना जानता हो कि मैं अपने को नहीं जानता हूं। परमात्मा की खोज तो बहुत दूर है। जिन्होंने अपनी ही खोज नहीं की, वे परमात्मा को कैसे खोज सकेंगे? Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-07)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-06)

छटवां-प्रवचन-(अमृत की उपलब्धि)

मेरे प्रिय आत्मन्!

सुना है मैंने, एक पूर्णिमा की रात्रि कुछ मित्र एक शराबखाने में इकट्ठे हो गए। देर तक उन्होंने शराब पी। और जब वे नशे में नाचने लगे और उन्होंने आकाश में पूरे चांद को देखा, तो किसी ने कहा, अच्छा न हो कि हम नदी पर नौका-विहार को चलें? और वे नदी की तरफ चले। मांझी अपनी नौकाएं बांध कर जा चुके थे। वे एक नाव में सवार हो गए, उन्होंने पतवारें उठा लीं, उन्होंने पतवारें चलानी शुरू कर दीं। और वे बहुत रात गए तक पतवारें चलाते रहे, नाव को खेते रहे। और जब सुबह की ठंडी हवाएं आईं और उनका नशा उतरा, तो उन्होंने सोचा..हम न मालूम कितने दूर निकल आए हों और न मालूम किस दिशा में निकल आए हों, कोई नीचे उतर कर देख ले। एक व्यक्ति नीचे उतरा और हंसने लगा और उसने कहा कि आप भी नीचे उतर आएं। हम कहीं भी नहीं गए। हम रात भर वहीं खड़े रहे हैं! Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-06)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-05)

पांचवा-प्रवचन-(मनुष्य के अज्ञान का आधार)

आश्चर्य की बात है कि मनुष्य अपने अनुभव से कुछ भी नहीं सीखता है। और जो आश्चर्य की बात है वही मनुष्य के अज्ञान का भी आधार है। मनुष्य अनुभव से कुछ भी नहीं सीखता है।

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात समझाना चाहूं।

मैंने सुना है, एक आदमी के घर में एक अंधेरी रात एक चोर घुस गया। उसकी पत्नी की नींद खुली और उसने अपने पति को कहा, मालूम होता है घर में कोई चोर घुस गया है। उस पति ने अपने बिस्तर पर से ही पड़े-पड़े पूछा, कौन है? उस चोर ने कहा, कोई भी नहीं। वह पति वापस सो गया। रात चोरी हो गई। सुबह उसकी पत्नी ने कहा कि चोरी हो गई और मैंने आपको कहा था! तो पति ने कहा, मैंने पूछा था, अपने ही कानों से सुना कि कोई भी नहीं है, इसलिए मैं वापस सो गया। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-05)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(तीन सूत्रः बहना, मिटना, सर्व-स्वीकार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

ध्यान के संबंध में दो-तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। सबसे कठिन और सबसे जरूरी बात तो यह समझना है कि जैसा शब्द से मालूम पड़ता है तो ऐसा लगता है कि ध्यान भी कोई क्रिया होगी, कोई डूइंग होगी, कुछ करना पड़ेगा। मनुष्य के पास जो भी शब्द हैं वे सभी शब्द बहुत ऊंचाइयों पर जाकर अर्थपूर्ण नहीं रह जाते हैं। तो ध्यान से ऐसा ही लगता है कि कुछ करना पड़ेगा। जब कि वस्तुतः ध्यान कोई करने की बात नहीं है। ध्यान हो जाने की बात है। आप ध्यान में हो सकते हैं, ध्यान कर नहीं सकते।

इसे ऐसा समझिए कि जैसे हम प्रेम शब्द का उपयोग करते हैं तो उसमें भी यही भ्रांति होती है, समझ में आता है कि प्रेम भी करना पड़ेगा। आप प्रेम नहीं कर सकते हैं, प्रेम में हो सकते हैं। और होने और करने में बहुत फर्क है। अगर आप प्रेम करेंगे तो वह झूठा हो जाएगा। किए हुए प्रेम में सच्चाई कैसे होगी? किया हुआ प्रेम अभिनय और एक्टिंग हो जाएगा। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-04)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(परमात्मा की खोज)

नीत्शे ने कहा है: गॅाड इ.ज डेड, ईश्वर मर गया है। लेकिन जिसके लिए ईश्वर मर गया हो उसकी जिंदगी में पागलपन के सिवाय और कुछ भी बच नहीं सकता है। नीत्शे पागल होकर मरा। अब दूसरा डर है कि कहीं पूरी मनुष्यता पागल होकर न मरे! क्योंकि जो नीत्शे ने कहा था, वह करोड़ों लोगों ने स्वीकार कर लिया।

आज रूस के बीस करोड़ लोग समझते हैं..गॅाड इ.ज डेड, ईश्वर मर चुका है। चीन के अस्सी करोड़ लोग रोज इस बात को गहराई से बढ़ाए चले जा रहे हैं..गॅाड इ.ज डेड, ईश्वर मर गया है। यूरोप और अमरीका की नई पीढ़ियां, भारत के जवान भी, ईश्वर मर गया है, इस बात से राजी होते जा रहे हैं। और मैं यह कहना चाहता हूं कि नीत्शे पागल होकर मरा, कहीं ऐसा न हो कि पूरी मनुष्यता को भी पागल होकर मरना पड़े। क्योंकि ईश्वर के बिना न तो नीत्शे जिंदा रह सकता है स्वस्थ होकर और न कोई और जिंदा रह सकता है। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-03)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ध्यान में मिटने का भय)

रवींद्रनाथ ने एक गीत में कहा है कि मैं परमात्मा को खोजता था। कभी किसी दूर तारे पर उसकी एक झलक दिखाई पड़ी, लेकिन जब तक मैं उस तारे के पास पहुंचा, वह और आगे निकल चुका था। कभी किसी दूर ग्रह पर उसकी चमक का अनुभव हुआ, लेकिन जब तक मैंने वह यात्रा की, उसके कदम कहीं और जा चुके थे। ऐसा जन्मों-जन्मों तक उसे खोजता रहा, वह नहीं मिला। एक दिन लेकिन अनायास मैं उस जगह पहुंच गया जहां उसका भवन था, निवास था। द्वार पर ही लिखा था: परमात्मा यहीं रहते हैं। खुशी से भर गया मन कि जिसे खोजता था जन्मों से वह मिल गया अब। लेकिन जैसे ही उसकी सीढ़ी पर पैर रखा कि ख्याल आया..सुना है सदा से कि उससे मिलना हो तो मिटना पड़ता है। और तब भय भी समा गया मन में..चढूं सीढ़ी, न चढूं सीढ़ी? क्योंकि अगर वह सामने आ गया तो मिट जाऊंगा! अपने को बचाऊं या उसे पा लूं? फिर भी हिम्मत की और सीढ़ियां चढ़ कर उसके द्वार पर पहुंच गया, उसके द्वार की सांकल हाथ में ले ली। फिर मन डरने लगा..बजाऊं या न बजाऊं? Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-02)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-01)

धर्म साधना के सूत्र-(विविध)-ओशो

पहला-प्रवचन-(धर्म परम विज्ञान है)

प्रश्नः मैंने धर्मयुग में शायद, देर हो गई, एक आर्टिकल आपका पढ़ा था। उसमें आपने कहा कि आवागमन को न मानें, ऐसा मुझे लगा; कि कर्म और प्रारब्ध है, इसमें हमें नहीं पड़ना चाहिए। जब कि हिंदू धर्म में जो आवागमन है वह एक बेसिक बात है और जो आवागमन को नहीं मानता, हम समझें कि उसको हिंदू धर्म में फेथ नहीं है। इसके बारे में आपका क्या विचार है?

दो बातें हैं। एक तो आवागमन गलत है, ऐसा मैंने नहीं कहा है। आवागमन को मानना गलत है, ऐसा मैंने कहा है। और मानना सब भांति का गलत है। धर्म का संबंध मानने से है ही नहीं। धर्म का संबंध जानने से है। और जो मानता है, वह जानता नहीं है, इसीलिए मानना पड़ता है। और जो जानता है, उसे मानने की कोई जरूरत नहीं है। जानता ही है, तो मानने की कोई जरूरत नहीं है। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-01)”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें