चिकलदरा शिविर-(प्रवचन-02)

चिकलदरा शिविर-प्रवचन-दूसरा

सबसे पहले एक प्रश्न पूछा हैः और उससे संबंधित एक-दो प्रश्न और भी पूछें हैं। पूछा है मन चंचल है। और बिना अभ्यास और वैराग्य के वह कैसे स्थिर होगा। यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है और जिस ध्यान की साधना के लिए हम यहां इकट्ठे हुए हैं, उस साधना को समझने में भी सहयोगी होगा। इसलिए मैं थोड़ी सूक्ष्मता से इस संबंध में बात करना चाहूंगा।

पहली बात तो यह कि हजारों वर्ष से मनुष्य को समझाया गया है कि मन चंचल है और मन की चंचलता बहुत बुरी बात है। मैं आपको निवेदन करना चाहता हूं, मन निश्चित ही चंचल है, लेकिन मन की चंचलता बुरी बात नहीं है। मन की चंचलता उसके जीवंत होने का प्रमाण है। जहां जीवन है वहां गति है, जहां जीवन नहीं है जड़ता है, वहां कोई गति नहीं है। मन की चंचलता आपके जीवित होने का लक्षण है जड़ होने का नहीं। मन की इस चंचलता से बचा जा सकता अगर हम किसी भांति जड़ हो जाएं। Continue reading “चिकलदरा शिविर-(प्रवचन-02)”

चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(निर्विचार)

बीते दो दिनों में मनुष्य के मन की दो स्थितियों पर विचार किया है। पहले दिन अविचार के संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। अविचार विश्वास और श्रद्धा से जन्म पाता है। और अविचार में जो अपने को बंद कर लेते हैं वे जीवन-सत्य को जानने से वंचित हो जाते हैं। कल विचार का जन्म कैसे हो, इस संबंध में हमने विचार किया। केवल उनके ही चित्त विचार को अविर्भाव दे पाते हैं जो विश्वासों, श्रद्धाओं और मान्यताओं से मुक्त होते हैं। जो इतना साहस करते हैं कि परंपराओं और समाजों के द्वारा दी गई अंधी धारणाओं को तोड़ने में अपने को समर्थ बना लेते हैं, केवल उनके भीतर ही उस विचार का जन्म होता है; जो स्वतंत्रता लाता है और सत्य की दिशा में गति देता है। Continue reading “चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-06)”

चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(विचारः एक आत्मानुभूति)

सबसे पहले विचार के संबंध में सुबह मैंने बोला है। पूछा हैः विचार किसी भी व्यक्ति या शास्त्र का हो, जब वह आत्मसात हो जाता है तो निजी का बन जाता है। यह बात बहुत बार कही जाती है कि जब कोई विचार आत्मसात हो जाए तो वह निजी का बन जाता है। लेकिन विचार के आत्मसात होने का क्या अर्थ है? और क्या कोई विचार आत्मसात हो सकता है?

मेरे देखे कोई विचार आत्मसात नहीं हो सकता है। हां, यह भ्रम हो सकता है कि विचार आत्मसात हुआ। यदि किसी विचार पर निरंतर आग्रहपूर्वक श्रद्धा की जाए, किसी विचार को निरंतर स्मरण किया जाए, किसी विचार को निरंतर दोहराया जाए, तो हम एक तरह का आत्मभ्रम पैदा कर सकते हैं कि वह विचार हमारे भीतर प्रविष्ट हो गया। Continue reading “चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-05)”

चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(विचार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

बीते दिवस और विचारों की स्थिति। सामान्यतः मनुष्य व अविचार में जीता है। एक तो वासनाओं की परतंत्रता है। और दूसरी श्रद्धा और विश्वास की। शरीर के तल पर भी मनुष्य परतंत्र है और मन के तल पर भी। शरीर के तल पर स्वतंत्र होना संभव नहीं है लेकिन मन के तल पर स्वतंत्र होना संभव है। इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कही थीं। मन के तल पर मनुष्य कैसे स्वतंत्र हो सकता है। कैसे उसके भीतर विचार का जन्म हो सकता है। उस संबंध में मैं आज आपसे बात करूंगा।

विचार का जन्म न हो तो मनुष्य के जीवन में वस्तुतः न तो कुछ अनुभूति हो सकती है न कुछ सृजन हो सकता है। तब हम व्यर्थ ही जीएंगे और मरेंगे, जीवन एक निष्फल श्रम होगा। Continue reading “चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-04)”

चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(स्वतंत्रता और आत्म-क्रांति)

इधर बहुत से प्रश्न मेरे सामने आए हैं। सुबह की चर्चा में स्वतंत्र विचार के लिए जो मैंने निवेदन किया, अधिक प्रश्न उससे ही संबंधित थे।

पूछा है कि यदि श्रद्धा न होगी तो सामान्य-जन का क्या होगा?

सामान्य-जन का बहुत विचार चलता है। सुबह भी मैं यहा से उठा और किसी ने मुझे कहा सामान्य-जनों का क्या होगा? ये तो भटक जाएंगे। जैसे कि सामान्य-जन अभी भटका हुआ नहीं है। जैसे कि सामान्य-जन अभी जहां है, ठीक है। यह बात स्वीकार ही कर ली है जैसे कि सामान्य-जन बहुत ठीक स्थिति में है। और अगर श्रद्धा डिक गई, विश्वास हट गया तो भटक जाएगा! मेरी दृष्टि में तो इससे ज्यादा भटकी हुई हालत और कोई नहीं हो सकती जिसमें हम हैं। ये भी पूछा है कि अगर श्रद्धा और विश्वास उठ गया तब तो पतन और अनाचार फैल जाएगा। Continue reading “चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-03)”

चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(अविचार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

कल रात्रि को मृत्यु के संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कही थीं। जीवन की खोज में मृत्यु से ही प्रारंभ किया जा सकता है। जीवन को जानना और पाना हो तो केवल वे ही सफल और समर्थ हो सकते हैं…जो मृत्यु के तथ्य से खोज को प्रारंभ करते हैं। ये देखने में उलटा मालूम पड़ता है। ये बात उलटी मालूम पड़ती है कि हमें जीवन को खोजना हो तो हम मृत्यु से प्रारंभ करें लेकिन ये बात उलटी नहीं होती। जिसे भी प्रकाश को खोजना हो उसे अंधेरे से ही प्रारंभ करना होगा। प्रकाश की खोज का अर्थ है कि हम अंधेरे में खड़े हैं और प्रकाश हमसे दूर है अन्यथा उसकी खोज ही क्यों करें। प्रकाश की खोज अंधकार से ही शुरू होती है और जीवन की खोज मृत्यु से। जीवन की हमारी खोज है इसका अर्थ है कि हम मृत्यु में खड़े हैं और जब तक इस तथ्य का स्पष्ट बोध न हो तब तक कोई कदम आगे नहीं बढ़ाए जा सकते। इसलिए कल प्रस्ताविक रूप से प्राथमिक रूप से मृत्यु के संबंध में थोड़ी सी बात मैंने आपसे कही। और निवेदन किया कि मृत्यु को पीछे न रखें सामने ले लें। मृत्यु से बचें नहीं उसका सामना करें। मृत्यु से भागें नहीं, उसे भुलाएं नहीं, उसकी सतत स्मृति ही सहयोगी हो सकती है। Continue reading “चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-02)”

चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-01)  

चित चकमक लागे नाहिं-(ध्यान-साधना)

पहला-प्रवचन-(जीवन की खोज)

मेरे प्रिय आत्मन्!

आने वाले तीन दिनों में जीवन की खोज के संबंध में थोड़ी सी बात मैं आपसे कहूंगा।

इससे पहले कि कल सुबह से मैं जीवन की खोज के संबंध में कुछ कहूं, प्रारंभिक रूप से यह कहना जरूरी है कि जिसे हम जीवन समझते हैं उसे जीवन समझने का कोई भी कारण नहीं है। और जब तक यह स्पष्ट न हो जाए, और जब तक हमारे हृदय के समक्ष यह बात सुनिश्चित न हो जाए कि हम जिसे जीवन समझ रहे हैं वह जीवन नहीं है तब तक सत्य जीवन की खोज भी प्रारंभ नहीं हो सकती। अंधकार को ही कोई प्रकाश समझ ले तो प्रकाश की खोज नहीं होगी और मृत्यु को ही कोई जीवन समझ ले तो जीवन से वंचित रह जाएगा। हम क्या समझे बैठे हुए हैं, अगर वह गलत है, तो हमारे सारे जीवन का फल भी गलत ही होगा। हमारी समझ पर निर्भर करेगा कि हमारी खोज क्या होगी? Continue reading “चित चकमक लागे नाहिं-(प्रवचन-01)  “

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