तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-10

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-दसवां-(केवल एक स्मरण ही)

दिनांक 10 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

      पहला प्रश्न:

      प्यारे ओशो!

ऐसा क्यों हैं? जब कभी भी मैं आपके प्रवचन के बाद आपको छोड़कर जाता हूं, तो जो कुछ आपको सुनते हुए मुझे सुंदर और प्रभावी लगा था, वह मुझे शीघ्र ही निराशा करने लगता है। क्योंकि मैं स्वयं को उन आदर्शों को जी पाने में, जो आपके अपने प्रवचन में सामने रखे थे अपने को असमर्थ पाता हूं।

तुम किसके बारे में बात कर रहे हो? आदर्शों के? ठीक यही वह चीज़ है जो मैं नष्ट किये चले जाता हूं। मैं तुम्हारे सामने कोई भी आदर्श नहीं रख रहा हूं। मैं तुम्हें भविष्य के बारे में कोई कल्पनाएं और कथाएं नहीं दे रहा हूं, मैं तुम्हें किसी भी प्रकार का कोई भी भविष्य गारंटी नहीं दे रहा हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि भविष्य वर्तमान को स्थगित करने की एक तरकीब है। यह तुम्हें स्वयं से बचाने की एक तरकीब है, यह स्वयं से पलायन कर जाने का एक तरीका है। कामना करना एक धोखा है और आदर्श, कामनाएं सृजित करते हैं। मैं तुम्हें कोई भी ‘चाहिए’ अथवा कोई भी ‘नहीं चाहिए’ नहीं दे रहा हूं। मैं न तो तुम्हें कुछ विधायक दे रहा हूं और न नकारात्मक। मैं सामान्य रूप से तुमसे सभी आदर्शों को छोड़ने और होने के लिए कह रहा हूं।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-09

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-नौवां-(अमन ही द्वारा है)

दिनांक 09 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

सरहा के सूत्र

एक बार पूरे क्षेत्र में जब वह पूर्णानन्द छा जाता है

तो देखने वाला मन समृद्ध बन जाता है।

सबसे अधिक उपयोगी होता है।

जब भी वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है

वह स्वयं से पृथक से पृथक बना रहता है।

प्रसन्नता और आनंद की कलियां

तथा दिव्य सौंदर्य और दीप्ति के पत्ते उगते हैं।

यदि कहीं भी बाहर कुछ भी नहीं रिसता है

तो मौन परमानंद फल देगा ही।

जो भी अभी तक किया गया है

और इसलिए स्वयं में उससे जो भी होगा

वह कुछ भी नहीं है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-08

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-आठवां-(प्रेम कोई छाया निर्मित नहीं करता है)

दिनांक 08 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

      पहला प्रश्न:

      प्यारे ओशो!

कल जब आप बुद्धिमत्ता को ध्यान बनाने के संबंध में बोले, तब वहां मेरे अंदर बहुत वेग से दौड़ भाग हो रही थी। ऐसा अनुभव हुआ जैसे मानो मेरे ह्रदय में विस्फोट हो जायेगा। वह ऐसा था, जैसे मानो आपने कुछ ऐसी चीज़ कहीं जिसे सुनने की मैं प्रतीक्षा कर रहा था। क्या आप इसे विस्तारपूर्वक स्पष्ट कर सकते है?

बुद्धिमत्ता जीवन की सहज स्वाभाविक प्रवृति है। बुद्धिमत्ता जीवन का एक स्वाभाविक गुण है। ठीक जैसे कि अग्नि उष्ण होती है। वायु अदृश्य होती है और जल नीचे की और बहता है। ठीक इसी तरह जीवन में भी बुद्धिमत्ता होती है।

बुद्धिमत्ता कोई उपलब्धि नहीं है, तुम बुद्धि के साथ ही जन्म लेते हो। अपनी तरह से वृक्ष भी बुद्धिमान हैं, उनके पास अपने जीवन के लिए प्रर्याप्त बुद्धिमत्ता होती है। पक्षी बुद्धिमान हैं और इसी तरह से पशु भी। वास्तव में, धर्मों का परमात्मा से जो अर्थ है वह केवल यह है कि पूरा ब्रह्माण्ड ही बुद्धिमान है। वहां हर कहीं बुद्धिमत्ता छिपी हुई है, और तुम्हारे पास देखने के लिए आंखें हैं, तो तुम उसे हर कहीं देख सकते हो।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-07

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-सातवां-(बुद्धिमत्ता ही ध्यान है )

दिनांक 07 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

सरहा के सूत्र-

मन, बुद्धि और मन के ढांचें की सभी अंर्तवस्तुएं,

इसी तरह यह संसार भी, और वह सभी कुछ जैसा प्रतीत होता है,

वे सभी वस्तुएं जिनका मन के द्वारा अनुभव किया जा सकता है,

और वह जानने वाला भी, जड़ता, द्वेष, घृणा, कामना और बुद्धत्व भी,

जो ‘वह’ है, उससे भिन्न है।

अध्यात्म के अनजाने अंधकार में जा एक दीपक के समान प्रकाशित है,

वह मन के सारे अंधकार और धूमिलता को दूर करता है।

बुद्धि का एक बम्ब की भांति विस्फोट होने से जितनी टुकड़े,

इधर-उधर बिखर जाते हैं, उनसे क्या प्राप्त होता है?

स्वयं कामना विहीन के होने की कौन कल्पना कर सकता है?

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-06

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-छठवां-(मैं अकेला हूं)

दिनांक 06 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न :

प्यारे ओशो! जब आप मुझसे बोलते हैं तो मेरी आवाज़ को न जाने क्या हो जाता है? यह खेल आखिर क्या है?

जब तुम वास्तव में मेरे साथ संवाद में होते हो तो तुम बोल नहीं सकते। जब तुम वास्तव में मुझे सुन रहे हो, तो तुम अपनी आवाज़ खो दोगे, क्योंकि उस क्षण में मैं तुम्हारी आवाज़ होता हूं। जो अंतर्तम संवाद मेरे और तुम्हारे मध्य होता है, वह दो व्यक्तियों के मध्य नहीं होता है। वह कोई तर्क-वितर्क नहीं हे, वह एक संवाद भी नहीं है। अंर्तसंवाद केवल तभी घटता है, जब तुम खो जाते हो, जब तुम वहां नहीं होते हो। सर्वोच्च शिखर पर यह ‘मैं-तू’ का भी संबंध नहीं होता। यह किसी भी प्रकार से कोई संबंध होता ही नहीं मैं नहीं हूं, और तुम्हारे लिए भी एक क्षण ऐसा आता है, जब तुम नहीं होते हो। उस क्षण में दो शून्यता एक दूसरे में लुप्त हो जाती हैं।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-03

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-तीसरा-(चार मुद्राओं अर्थात चार तालों को तोड़ना)

दिनांक 03 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

सूत्र-

वो अपने अंदर जो भी अनुभव करते हैं,

उसे वे उच्चतम सचेतनता की स्थिति बतलाते हुए,

उसकी ही शिक्षा वे देते हैं,

वे उसकी को मुक्ति कह कर पुकारेंगे,

एक हरे रंग कम मूल्य का कांच का टुकड़ा ही

उसके लिए पन्ने-रत्न जैसा ही होगा।

भ्रम में पड़कर वे यह भी नहीं जानते है

कि अमूल्य रत्न को कैसा होना चहिए?

सीमित बुद्धि के विचारों के कारण,

वे तांबे को भी स्वर्ण की भांति लेते हैं,

और मन के शूद्र-विचारों को वे अंतिम सत्य की तरह सोचते हैं।

वे शरीर और मन के सपनों जैसे सुखमय अनुभवों को ही

सर्वोच्च अनुभव मानकर वहीं बने रहते है,

और नाशवान शरीर और मन के अनुभवों को ही शाश्वत आनंद कहते है।

‘इवाम’ जैसे मंत्रों को दोहराते हुए वे सोचते हैं कि वे आत्मोपलब्ध हो रहे हैं।

जब कि विभिन्न स्थितियों से होकर गुजरने के लिए चार

मुद्राओं को तोड़ने की जरूरत होती है,

वे अपनी इच्छानुसार सृजित की गई सुरक्षा की चार दीवारी

तक वे स्वयं तक पहुंच जाना कहते है,

लेकिन यह केवल दर्पण में प्रतिबिम्बों को देखा जैसा है।

जैसे मरूस्थल में भ्रमवश जल समझ कर हिरणों का झुंड उसके पीछे भागेगा

वैसे ही दर्पण में झूठा प्रतिबिम्ब देखकर वे मृगतृष्णा के जल की भांति

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-02

प्रवचन-दूसरा-(स्वतंत्रता है उच्चतम मूल्य)

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-दूसरा-(स्वतंत्रता है उच्चतम मूल्य)

दिनांक 02 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्न सार:

पहला प्रश्न: प्यारे ओशो!

      मेरे अंदर प्रेम का होना बाहर के संसार पर आश्रित है। इसी समय इसके साथ मैं देखता और समझता हूं कि आप, स्वयं तो हमें अंदर पूर्ण रूप से बने रहने के बारे में भी कहते हैं। ऐसे प्रेम के साथ क्या होता है, यदि वहां पर न कोई भी चीज़ हो और न कोई भी व्यक्ति हो जो उसे पहचान सके और उसका स्वाद ले सके?

बिना शिष्यों के आपका क्या अस्तित्व हैं?

पहली बात: इस जगह दो तरह के प्रेम हैं। सी. एस. लेविस ने प्रेम को दो किस्मों में विभाजित किया हैं—‘जरूरत का प्रेम’ और ‘उपहार का प्रेम’। अब्राहम मैसलो भी प्रेम को दो किस्मों में बांटता है। पहले को वह जरूरी प्रेम अथवा कमी अखरने वाला प्रेम कहता है, और दूसरे तरह के प्रेम को ‘आत्मिक प्रेम’ कहता है। यह भेद अर्थपूर्ण है और इसे समझना है। जरूरत का प्रेम और कमी अखरने वाला प्रेम दूसरे पर आश्रित होता है। यह एक अपरिपक्व प्रेम होता है। वास्तव में यह सच्चा प्रेम न होकर एक जरूरत होती है। तुम दूसरे व्यक्ति का प्रयोग करते हो, तुम दूसरे व्यक्ति का एक साधन की भांति प्रयोग करते हो; तुम उसका शोषण करते हो, तुम उसे अपने अधिकार में रखकर उस पर नियंत्रण रखते हो। लेकिन दूसरा व्यक्ति आधीन होता है और लगभग मिट जाता है; और दूसरे के द्वारा भी ठीक ऐसा ही समान व्यवहार किया जाता है। वह भी तुम्हें नियंत्रण में रखते हुए तुम्हें अपने अधिकार में रखना चाहता है और तुम्हारा उपयोग करना चाहता है। किसी दूसरे मनुष्य को उपयोग करना बहुत ही अप्रेम पूर्ण है। इसलिए वह केवल प्रेम जैसा प्रतीत होता है, लेकिन यह एक नकली सिक्का है। लेकिन ऐसा ही लगभग निन्यानवे प्रतिशत लोगों के साथ होता है, क्योंकि प्रेम का यह प्रथम पाठ तुम अपने बचपन में ही सीखते हो।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-02)-प्रवचन-01

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)

प्रवचन-पहला-(तंत्र का मानचित्र)

दिनांक 01 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।

सरहा के सूत्र:

          स्त्री और पुरूष एक दूसरे का चुम्बन लेकर

          रस-रूप और स्पर्श का इन्द्रिय सुख

पाने की लालसा के लिए

एक दूसरे को धोखा देकर भ्रमित कर रहे हैं

वे इन्द्रियों के विषय-सुख को ही

प्रमाणिक र्स्वोच्च परमआनंद मान कर

उसे पाने की उच्च घोषणा कर रहे हैं।

वह व्यक्ति उस पुरूष की भांति है,

जो अपने अंदर स्थित स्त्री और पुरूष के मिलन

अपने अंतरस्थ रूपी घर को छोड़कर,

इन्द्रिय रूपी द्वारों पर बाहर खड़ा है।

और बाहर की स्त्री से विषय भोग के आनंद की चर्चा करते हुए

उससे विषय सुख के बारे में आग्रह पूर्वक पूंछ रहा है।

जो योगी शून्यता के अंतराल में रहते हुए मन के पर्दे पर

जैविक उर्जाओं से आंदोलित होकर कल्पना में अनेक तरीको से

विकृत सुखों को सृजित करके उनका प्रक्षेपण करते हैं;

ऐसे योगी काल्पनिक वासना से प्रलोभित होकर

अपनी शक्ति खोकरकष्ट भोगते है,

           वे अपने दिव्य स्थान से पतित होते हैं।

जैसे ब्राह्मण जो यज्ञ की अग्नि की लपटों में

अन्न और घी की आहुति देकर

मंत्रो चार आदि का अनुष्ठान करता है

कामना करता है कि वह स्वर्ग में स्थान पा जाएगा

और वह स्वप्न देखते हुए, कल्पना में पुण्य रूपी पात्र को सृजित करता है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-06

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत)-भाग-पहला  

छठवां—प्रवचन (मैं एक विध्वंसक हूं)  

(दिनांक 26 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

पहला प्रश्न: ओशो, मैंने इधर हाल ही में संबोधि के विषय में दिव्य-स्वप्न देखने शुरू किए हैं, जो कि प्रेम व प्रसिद्धि के दिव्य-स्वप्नों से भी अधिक मनोरम हैं। क्या आप दिव्य-स्वप्न देखने के ऊपर कुछ कहेंगे?

यह प्रश्न प्रेम पंकज का है। जहां तक प्रेम और प्रसिद्धि का संबंध है, दिव्य-स्वप्न देखना पूर्णता सही है–वे स्वप्न-संसार के ही अंग है। तुम जितने चाहो स्वप्न देख सकते हो। प्रेम एक स्वप्न है, ऐसे ही प्रसिद्धि भी, वे स्वप्न के विपरीत नहीं हैं। सच तो यह है कि जब स्वप्न देखना बंद हो जाता है, तो वे भी गायब हो जाते है। उनका असित्व उसी आयाम में है, सपनों के आयम में।

सपना तो अंधकार की भांति है। यह तभी तक रहता है जब तक कि प्रकाश नहीं होता है। जब प्रकाश फे लता है, अंधकार बस वहां से विलीन हो जाता है, वह पल भर भी वहां रह नहीं सकता। सपना इसलिए है क्योंकि जीवन अंधकार पूर्ण, फीका और उदासीन है। सपना तो तुम्हारी एक पूरकता जैसा होता है। क्योंकि असली प्रसन्नता तो हमारे पास है ही नहीं। इसलिए उसके विषय में हम केवल सपना ही तो देख सकते है। क्योंकि सच में हमारे पास जीवन में कुछ है ही नहीं, यह सत्य हमें बड़ी पीड़ा देता है, तब इस सत्य को हम कैसे सहन कर पाएगे? यह एकदम असहनीय हो जाता है। सपने इसे सहनीय बना देते है। सपने हमारी सहायता करते है। वे हमसे कहते हैं, ‘ठहरो! जरा आज सब कुछ ठीक नहीं है? परंतु तुम चिंता मत करो, कल देखना हर चीज ठीक हो जाएगी। हर कार्य तुम्हारी सोच की तरह से होगा। बस कुछ तुम्हें प्रयत्न करना होगा, शायद अभी उतना प्रयास न किया जितना की करना चाहिए था, चलों कोई बात नहीं, तुम्हारे भाग्य ने तुम्हारा साथ न दिया होगा। कुछ परिस्थियां तुम्हारे विपरित रही होंगी। परंतु तुम घबड़ाओ मत, सदा तो ऐसा नहीं होगा। और देखना ईश्वर बड़ा करुणावान है, दयालु है, संसार के सभी धर्म कहते है कि ईश्वर बड़ा दयालु है, बड़ा करुणावान है। यह आशा की धुंधलका तुम्हें घेरे ही रहता है। तुम उससे बाहर देख ही नहीं सकते।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-04

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत)-भाग-पहला

चौथा-प्रवचन-(प्रेम एक मृत्यु है)  

(दिनांक 24 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

पहला प्रश्न: ओशो, आप में वह सब-कुछ हैं जो मैंने चाहा था, या जो मैंने कभी चाही या मैं कभी चाह सकती थी। फिर मुझ में आपके प्रति इतना प्रतिरोध क्यों है?

शायद इसी कारण–यदि तुममें मेरे प्रति गहन प्रेम है तो गहन प्रतिरोध भी होगा। वे एक-दूसरे को संतुलित करते हैं। जहां कहीं पर प्रेम है, वहां प्रतिरोध तो होगा ही। जहां कहीं भी तुम बहुत अधिक आकर्षित होते हो, तुम उस स्थान से, उस जगह से भाग जाना भी चाहोगे–क्योंकि अत्यधिक आकर्षित होने का अर्थ है कि तुम अतल गहराई में गिरोगे, जो तुम स्वयं हो वह फिर न रह सकोगे।

प्रेम खतरनाक है। प्रेम एक मृत्यु है। यह स्वयं मृत्यु से भी बड़ा घातक है, क्योंकि मृत्यु के बाद तो तुम बचते हो लेकिन प्रेम के बाद तुम नहीं बचते। हां, कोई होता है परंतु वह दूसरा ही होता है, आपमें कुछ नया पैदा होता है। परंतु तुम तो चले गए इसलिए भय है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision -भाग-01)-प्रवचन-02

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision: (सरहा के गीत) भाग-पहला

दूसरा प्रवचन-The goose is out!-(हंस बाहर है)

(दिनांक 22 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

प्रश्नचर्चा-

पहला प्रश्न: ओशो, शिव का मार्ग भाव का है, हृदय का है। भाव को रूपांतरित करना है। प्रेम को रूपांतरित करना है ताकि यह प्रार्थना हो जाए। शिव के मार्ग में तो भक्त और मूर्ति रहते हैं, भक्त और भगवान रहते हैं। आत्यंतिक शिखर पर वे दोनों एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं। इसे ध्यान से सून लो: जब शिव का तंत्र अपने आत्यंतिक आवेग में पहुंचता है, ‘मैं’ ‘तू’ में विलीन हो जाता है, और ‘तू- मैं’ में विलीन हो जाता है–वे साथ-साथ होते हैं, वे एक इकाई हो जाते हैं।

जब सरहा का तंत्र अपने आत्यंतिक शिखर पर पहुंचता है, तब यह पता चलता है: न तुम हो, न तुम सत्य हो, न तुम्हारा अस्तित्व है, न तुम सही हो, न तुम्हारा अस्तित्व है, और न ही मेरा, दोनों ही वहां विलीन हो जाते हैं। दो शून्य मिलते हैं–मैं नही, तू नहीं, न तू न मैं। दो शून्य, दो रिक्त आकाश एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि सरहा के मार्ग पर सारा प्रयास यही है, कि विचार को कैसे विलीन किया जाए, और मैं और तू दोनों विचार के ही अंग हैं।

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36-गूलाल-(ओशो)

36-गूलाल-भारत के संत

झरत दसहुं दिस मोती-ओशो

आंखें हों तो परमात्मा प्रति क्षण बरस रहा है। आंखें न हों तो पढ़ो कितने ही शास्त्र, जाओ काबा, जाओ काशी, जाओ कैलाश, सब व्यर्थ है। आंख है, तो अभी परमात्मा है..यहीं! हवा की तरंग-तरंग में, पक्षियों की आवाजों में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के पत्तों में!

परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। हो भी नहीं सकता। परमात्मा एक अनुभव है। जिसे हो, उसे हो। किसी दूसरे को समझाना चाहे तो भी समझा न सके। शब्दों में आता नहीं, तर्को में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, गाओ कितने ही गीत, छूट-छूट जाता है। फेंको कितने ही जाल, जाल वापस लौट आते हैं। उस पर कोई पकड़ नहीं बैठती। Continue reading “36-गूलाल-(ओशो)”

35-दुल्हन-(ओशो)

35-दुल्हन-भारत के संत

प्रेम रस रंग औढ चदरियां-ओशो

मनुष्य तो बांस का एक टुकड़ा है–बस, बांस का! बांस की एक पोली पोंगरी । प्रभु के ओंठों से लग जाए तो अभिप्राय का जन्म होता है, अर्थ का जन्म होता है, महिमा प्रगट होती है। संगीत छिपा पड़ा है बांस के टुकड़े में, मगर उसके जादुई स्पर्श के बिना प्रकट न होगा। पत्थर की मूर्ति भी पूजा से भरे हृदय के समक्ष सप्राण हो जाती है। प्रेम से भरी आंखें प्रकृति में ही परमात्मा का अनुभव कर लेती हैं।

सारी बात परमात्मा से जुड़ने की है। उससे बिना जुड़े सब है और कुछ भी नहीं है। Continue reading “35-दुल्हन-(ओशो)”

34-यारि-(ओशो)

34-यारि-भारत के संत

विरहिनी मंदिर दियान बार-ओशो

एक बुद्धपुरुष का जन्म इस पृथ्वी पर परम उत्सव का क्षण है। बुद्धत्व मनुष्य की चेतना का कमल है। जैसे वसंत में फूल खिल जाते हैं, ऐसे ही वसंत की घड़ियां भी होती हैं पृथ्वी पर, जब बहुत फूल खिलते हैं, बहुत रंग के फूल खिलते हैं, रंग-रंग के फूल खिलते हैं। वैसे वसंत आने पृथ्वी पर कम हो गए, क्योंकि हमने बुलाना बंद कर दिया। वैसे वसंत अपने-आप नहीं आते, आमंत्रण से आते हैं। अतिथि बनाए हम उन्हें तो आते हैं। आतिथेय बनें हम उनके तो आते हैं। Continue reading “34-यारि-(ओशो)”

33-सरहपा-तिलोमा-(ओशो)

33-सरहपा-तिलोमा-भारत के संत

सहज-योग-ओशो

वसंत आया हुआ है। द्वार पर दस्तक दे रहा है। लेकिन तुम द्वार बंद किये बैठे हो।

जिस अपूर्व व्यक्ति के साथ हम आज यात्रा शुरू करते हैं, इस पृथ्वी पर हुए अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तियों में वह एक है। चौरासी सिद्धों में जो प्रथम सिद्ध है, सरहपा उसके साथ हम अपनी यात्रा आज शुरू करते हैं।

सरहपा के तीन नाम हैं, कोई सरह की तरह उन्हें याद करता है, कोई सरहपाद की तरह, कोई सरहपा की तरह। ऐसा प्रतीत होता है सरहपा के गुरु ने उन्हें सरह पुकारा होगा, सरहपा के संगी-साथियों ने उन्हें सरहपा पुकारा होगा, सरहपा के शिष्यों ने उन्हें सरहपाद पुकारा होगा। मैंने चुना है कि उन्हें सरहपा पुकारूं, क्योंकि मैं जानता हूं तुम उनके संगी-साथी बन सकते हो। तुम उनके समसामयिक बन सकते हो। सिद्ध होना तुम्हारी क्षमता के भीतर है। Continue reading “33-सरहपा-तिलोमा-(ओशो)”

32-बाबा गोरखनाथ—(ओशो)

32-बाबा गोरखनाथ—भारत के संत

मरो हे जोगी मरो-ओशो

महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन बारह लोग हैं–मेरी दृष्टि में–जो सबसे चमकते हुए सितारे हैं? मैंने उन्हें यह सूची दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखें बंद कर लीं, सोच में पड़ गये…।

सूची बनानी आसान भी नहीं है, क्योंकि भारत का आकाश बड़े नक्षत्रों से भरा है! किसे छोड़ो, किसे गिनो?…वे प्यारे व्यक्ति थे–अति कोमल, अति माधुर्यपूर्ण, स्त्रैण…। वृद्धावस्था तक भी उनके चेहरे पर वैसी ही ताजगी बनी रही जैसी बनी रहनी चाहिए। वे सुंदर से सुंदरतर होते गये थे…। मैं उनके चेहरे पर आते-जाते भाव पढ़ने लगा। उन्हें अड़चन भी हुई थी। कुछ नाम, जो स्वभावतः होने चाहिए थे, नहीं थे। राम का नाम नहीं था! उन्होंने आंख खोली और मुझसे कहा: राम का नाम छोड़ दिया है आपने! मैंने कहा: मुझे बारह की ही सुविधा हो चुनने की, तो बहुत नाम छोड़ने पड़े। Continue reading “32-बाबा गोरखनाथ—(ओशो)”

31-वाजिद शाह-(ओशो)

31-वाजिद शाह-भारत के संत

कहे वाजिद पूकार-ओशो

वाजिद–यह नाम मुझे सदा से प्यारा रहा है–एक सीधे-सादे आदमी का नाम, गैर-पढ़े-लिखे आदमी का नाम; लेकिन जिसकी वाणी में प्रेम ऐसा भरा है जैसा कि मुश्किल से कभी औरों की वाणी में मिले। सरल आदमी की वाणी में ही ऐसा प्रेम हो सकता है; सहज आदमी की वाणी में ही ऐसी पुकार, ऐसी प्रार्थना हो सकती है। पंडित की वाणी में बारीकी होती है, सूक्ष्मता होती है, सिद्धांत होता है, तर्क-विचार होता है, लेकिन प्रेम नहीं। प्रेम तो सरल-चित्त हृदय में ही खिलने वाला फूल है।

वाजिद बहुत सीधे-सादे आदमी हैं। एक पठान थे, मुसलमान थे। जंगल में शिकार खेलने गए थे। धनुष पर बाण चढ़ाया; तीर छूटने को ही था, छूटा ही था, कि कुछ घटा–कुछ अपूर्व घटा। भागती हिरणी को देखकर ठिठक गए, हृदय में कुछ चोट लगी, और जीवन रूपांतरित हो गया। तोड़कर फेंक दिया तीर-कमान वहीं। चले थे मारने, लेकिन वह जो जीवन की छलांग देखी–वह जो सुंदर हिरणी में भागता हुआ, जागा हुआ चंचल जीवन देखा–वह जो बिजली Continue reading “31-वाजिद शाह-(ओशो)”

30-संत चरण दास-(ओशो)

30-संत चरण दास-भारत के संत-ओशो

नहीं सांझ नहीं भोरओशो

चरणदास उन्नीस वर्ष के थे, तब यह तड़प उठी। बड़ी नई उम्र में तड़प उठी।

मेरे पास लोग आते है, वे पूछते हैः क्यों आप युवकों को भी संन्यास दे देते हैं? संन्यास तो वृद्धों के लिए है। शास्त्र तो कहते हैंः पचहत्तर साल के बाद। तो शास्त्र बेईमानों ने लिखे होंगे, जो संन्यास के खिलाफ हैं। तो शास्त्र उन्होंने लिखें होंगे, जो संसार के पक्ष में हैं। क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर तो पचहत्तर साल के बाद तुम बचोगे ही नहीं। संन्यास कभी होगा ही नहीं; मौत ही होगी। और इस दुनिया में जहां जवान को मौत आ जाती हो, वहां संन्यास को पचहत्तर साल तक कैसे टाला जा सकता है? Continue reading “30-संत चरण दास-(ओशो)”

29-मीरा बाई-(ओशो)

29-मीरा बाई-भारत के संत

पद धूंधरू बांध मीरा नाची रे-ओशो

आओ, प्रेम की एक झील में नौका-विहार करें। और ऐसी झील मनुष्य के इतिहास में दूसरी नहीं है, जैसी झील मीरा है। मानसरोवर भी उतना स्वच्छ नहीं।

और हंसों की ही गति हो सकेगी मीरा की इस झील में। हंस बनो, तो ही उतर सकोगे इस झील में। हंस न बने तो न उतर पाओगे।

हंस बनने का अर्थ है: मोतियों की पहचान आंख में हो, मोती की आकांक्षा हृदय में हो। हंसा तो मोती चुगे! Continue reading “29-मीरा बाई-(ओशो)”

28-अष्ठावक्र –(ओशो)

28-अष्ठावक्र –भारत के संत

अष्ठावक्र महागीता-ओशो

एक अनूठी यात्रा पर हम निकलते हैं।

मनुष्य-जाति के पास बहुत शास्त्र हैं, पर अष्टावक्र-गीता जैसा शास्त्र नहीं। वेद फीके हैं। उपनिषद बहुत धीमी आवाज में बोलते हैं। गीता में भी ऐसा गौरव नहीं; जैसा अष्टावक्र की संहिता में है। कुछ बात ही अनूठी है!

सबसे बड़ी बात तो यह है कि न समाज, न राजनीति, न जीवन की किसी और व्यवस्था का कोई प्रभाव अष्टावक्र के वचनों पर है। इतना शुद्ध भावातीत वक्तव्य, समय और काल से अतीत, दूसरा नहीं है। शायद इसीलिए अष्टावक्र की गीता, अष्टावक्र की संहिता का बहुत प्रभाव नहीं पड़ा। Continue reading “28-अष्ठावक्र –(ओशो)”

27-संत रैैदास-(ओशो)

27-संत रैदास-भारत के संत-ओशो

मन ही पूजा मन ही धूप-रैदास

दमी को क्या हो गया है? आदमी के इस बगीचे में फूल खिलने बंद हो गए! मधुमास जैसे अब आता नहीं! जैसे मनुष्य का हृदय एक रेगिस्तान हो गया है, मरूद्यान भी नहीं कोई। हरे वृक्षों की छाया भी न रही। दूर के पंछी बसेरा करें, ऐसे वृक्ष भी न रहे। आकाश को देखने वाली आखें भी नहीं। अनाहत को सुनने वाले कान भी नहीं। मनुष्य को क्या हो गया है?

मनुष्य ने गरिमा कहां खो दी है? यह मनुष्य का ओज कहां गया? इसके मूल कारण की खोज करनी ही होगी। और मूल कारण कठिन नहीं है समझ लेना। जरा अपने ही भीतर खोदने की बात है और जड़ें मिल जाएंगी समस्या की। एक ही जड़ है कि हम अपने से वियुक्त हो गए हैं; अपने से ही टूट गए हैं अपने से ही अजनबी हो गए हैं! Continue reading “27-संत रैैदास-(ओशो)”

26-भगवान महावीर-(ओशो)

26-भगवान महावीर-भारत के संत

महावीर मेंरी दृष्टि में-ओशो प्रवचन-01

 महावीर से प्रेम

मैं महावीर का अनुयायी तो नहीं हूं, प्रेमी हूं। वैसे ही जैसे क्राइस्ट का, कृष्ण का, बुद्ध का या लाओत्से का। और मेरी दृष्टि में अनुयायी कभी भी नहीं समझ पाता है।

और दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं, साधारणतः। या तो कोई अनुयायी होता है, और या कोई विरोध में होता है। न अनुयायी समझ पाता है, न विरोधी समझ पाता है। एक और रास्ता भी है–प्रेम, जिसके अतिरिक्त हम और किसी रास्ते से कभी किसी को समझ ही नहीं पाते। अनुयायी को एक कठिनाई है कि वह एक से बंध जाता है और विरोधी को भी यह कठिनाई है कि वह विरोध में बंध जाता है। सिर्फ प्रेमी को एक मुक्ति है। प्रेमी को बंधने का कोई कारण नहीं है। और जो प्रेम बांधता हो, वह प्रेम ही नहीं है। Continue reading “26-भगवान महावीर-(ओशो)”

25-भगवान कृष्ण-(ओशो)

25-भगवान कृष्ण-भारत के संत

कृष्णस्मृति-ओशो

पूर्णता का नाम कृष्ण

जीवन एक विशाल कैनवास है, जिसमें क्षण-क्षण भावों की कूची से अनेकानेक रंग मिल-जुल कर सुख-दुख के चित्र उभारते हैं। मनुष्य सदियों से चिर आनंद की खोज में अपने पल-पल उन चित्रों की बेहतरी के लिए जुटाता है। ये चित्र हजारों वर्षों से मानव-संस्कृति के अंग बन चुके हैं। किसी एक के नाम का उच्चारण करते ही प्रतिकृति हंसती-मुस्काती उदित हो उठती है।

आदिकाल से मनुष्य किसी चित्र को अपने मन में बसाकर कभी पूजा, तो कभी आराधना, तो कभी चिंतन-मनन से गुजरता हुआ ध्यान की अवस्था तक पहुंचता रहा है। इतिहास में, पुराणों में ऐसे कई चित्र हैं, जो सदियों से मानव संस्कृति को प्रभावित करते रहे हैं। महावीर, क्राइस्ट, बुद्ध, राम ने मानव-जाति को गहरे छुआ है। इन सबकी बातें अलग-अलग हैं। कृष्ण ने इन सबके रूपों-गुणों को अपने आपमें समाहित किया है। Continue reading “25-भगवान कृष्ण-(ओशो)”

24-भगवान गौतमबुद्ध-(ओशो)

भगवान गौतम बुद्ध-भारत के संत

एस धम्मों सनंतनो-भाग-01 -ओशो

गौतम बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं, हिमाच्छादित पर्वत और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे। पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है, उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम-भगवत्ता उपलब्ध की है, उतनी किसी और के माध्यम से नहीं।

गौतम बुद्ध की वाणी अनूठी है। और विशेषकर उन्हें, जो सोच-विचार, चिंतन-मनन, विमर्श के आदी हैं। Continue reading “24-भगवान गौतमबुद्ध-(ओशो)”

23-गुरू नानन देव-(ओशो)

गुरू नानन देव-भारत के संत

इक ओंकार सतिनाम –ओशो

एक अंधेरी रात। भादों की अमावस। बादलों की गड़गड़ाहट। बीच-बीच में बिजली का चमकना। वर्षा के झोंके। गांव पूरा सोया हुआ। बस, नानक के गीत की गूंज।

रात देर तक वे गाते रहे। नानक की मां डरी। आधी रात से ज्यादा बीत गई। कोई तीन बजने को हुए। नानक के कमरे का दीया जलता है। बीच-बीच में गीत की आवाज आती है। नानक के द्वार पर नानक की मां ने दस्तक दी और कहा, बेटे! अब सो भी जाओ। रात करीब-करीब जाने को हो गई।

नानक चुप हुए। और तभी रात के अंधेरे में एक पपीहे ने जोर से कहा, पियू-पियू। Continue reading “23-गुरू नानन देव-(ओशो)”

22-आदि शंकरा चार्य-(ओशो)

आदि शंकरा चार्य-भारत के संत

भजगोविंद मुढ़मते-ओशो

धर्म व्याकरण के सूत्रों में नहीं है, वह तो परमात्मा के भजन में है। और भजन, जो तुम करते हो, उसमें नहीं है। जब भजन भी खो जाता है, जब तुम ही बचते हो; कोई शब्द आस-पास नहीं रह जाते, एक शून्य तुम्हें घेर लेता है। तुम कुछ बोलते भी नहीं, क्योंकि परमात्मा से क्या बोलना है! तुम्हारे बिना कहे वह जानता है। तुम्हारे कहने से उसके जानने में कुछ बढ़ती न हो जाएगी। तुम कहोगे भी क्या? तुम जो कहोगे वह रोना ही होगा। और रोना ही अगर कहना है तो रोकर ही कहना उचित है, क्योंकि जो तुम्हारे आंसू कह देंगे, वह तुम्हारी वाणी न कह पाएगी। अगर अपना अहोभाव प्रकट करना हो, तो बोल कर कैसे प्रकट करोगे? शब्द छोटे पड़ जाते हैं। अहोभाव बड़ा विराट है, शब्दों में समाता नहीं, उसे तो नाच कर ही कहना उचित होगा। अगर कुछ कहने को न हो, तो अच्छा है चुप रह जाना, ताकि वह बोले और तुम सुन सको। Continue reading “22-आदि शंकरा चार्य-(ओशो)”

21-ऋषि नारद-(ओशो)

ऋषि नारद-भारत के संत

भक्ति सूत्र–ओशो

जीवन है ऊर्जा — ऊर्जा का सागर। समय के किनारे पर अथक, अंतहीन ऊर्जा की लहरें टकराती रहती हैं: न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत; बस मध्य है, बीच है। मनुष्य भी उसमें एक छोटी तरंग है; एक छोटा बीज है — अनंत संभावनाओं का।

तरंग की आकांक्षा स्वाभाविक है कि सागर हो जाए और बीज की आकांक्षा स्वाभाविक है कि वृक्ष हो जाए। बीज जब तक फूलों में खिले न, तब तक तृप्ति संभव नहीं है। Continue reading “21-ऋषि नारद-(ओशो)”

20-ऋषि शांडिल्य-(ओशो)

ऋषि शांडिल्य-भारत के संत

( अथातो भक्ति जिज्ञासा)–ओशो

इस जगत को पीने की कला है भक्ति। और जगत को जब तुम पीते हो तो कंठ में जो स्वाद आता है, उसी का नाम भगवान है। इस जगत को पचा लेने की कला है भक्ति। और जब जगत पच जाता है तुम्हारे भीतर और उस पचे हुए जगत से रस का आविर्भाव होता है–रसो वै सः–उस रस को जगा लेने की कीमियां है भक्ति।

शांडिल्य ने ठीक ही किया जो भगवान की जिज्ञासा से शुरू नहीं की बात। भगवान की जिज्ञासा दार्शनिक करते हैं। दार्शनिक कभी भगवान तक पहुंचते नहीं; विचार करते हैं भगवान का। जैसे अंधा विचार करे प्रकाश का। बस ऐसे ही उनके विचार हैं। अंधे की कल्पनाएं, अनुमान। उन अनुमानों में कोई भी निष्कर्ष कभी नहीं। निष्कर्ष तो अनुभव से आता है। Continue reading “20-ऋषि शांडिल्य-(ओशो)”

19-दरियाशाह (बिहार वाले)-ओशो

दरियाशाह (बिहार वाले)-भारत के संत

दरिया कहै शब्द निरबाना-(ओशो)

निर्वाण को शब्द में कहा तो नहीं जा सकता है। निर्वाण को भाषा में व्यक्त करने का कोई उपाय तो नहीं। फिर भी समस्त बुद्धों ने उसे व्यक्त किया है। जो नहीं हो सकता उसे करने की चेष्टा की है। असंभव प्रयास अगर पृथ्वी पर काई भी हुआ है तो वह एक ही है–उसे कहने की चेष्टा, जो नहीं कहा जा सकता। उसे बताने की व्यवस्था, जो नहीं बताया जा सकता।

और ऐसा भी नहीं है कि बुद्धपुरुष सफल न हुए हों। सभी के साथ सफल नहीं हुए, यह सच है। क्योंकि जिन्होंने न सुनने की जिद्द ही कर रखी थी, उनके साथ सफल होने का कोई उपाय ही न था। उनके साथ तो अगर निर्वाण को शब्द में कहा भी जा सकता होता तो भी सफलता की कोई संभावना न थी। क्योंकि वे वज्र-बधिर थे। Continue reading “19-दरियाशाह (बिहार वाले)-ओशो”

18-दरिया दास—(ओशो)

दरिया दास—भारत के संत

अमी झरत विगसत कंवल–ओशो 

मनुष्य-चेतना के तीन आयाम हैं। एक आयाम है–गणित का, विज्ञान का, गद्य का। दूसरा आयाम है–प्रेम का, काव्य का, संगीत का। और तीसरा आयाम है–अनिर्वचनीय। न उसे गद्य में कहां जा सकता, न पद्य में! तर्क  तो असमर्थ है ही उसे कहने में, प्रेम के भी पंख टूट जाते हैं! बुद्धि तो छू ही नहीं पाती उसे, हृदय भी पहुंचते-पहुंचते रह जाता है!

जिसे अनिर्वचनीय का बोध हो वह क्या करें? कैसे कहे? अकथ्य को कैसे कथन बनाए? जो निकटतम संभावना है, वह है कि गाये, नाचे, गुनगुनाए। इकतारा बजाए कि ढोलक पर थाप दे, कि पैरों में घुंघरू बांधे, कि बांसुरी पर अनिर्वचनीय को उठाने की असफल चेष्टा करे। Continue reading “18-दरिया दास—(ओशो)”

17-संत भीखा दास-(ओशो)

संत भीखा दास—गुरू प्रताप साध की  संगत-(ओशो) 

भीख जब छोटा बच्‍चा था। लोग हंसते थे कि तू समझता क्‍या। शायद साधुओं के विचित्र रंग-ढंग को देखकर चला जाता है। शायद उनके गैरिक वस्‍त्र,दाढ़ियां उनके बड़े-बड़े बाल, उनकी धूनी उनके चिमटे, उनकी मृदंग, उनकी खंजड़ी,यह सब देखकर तू जाता होगा भीखा। लेकिन किसको पता था कि भीखा यह सब देख कर नहीं जाता। उसका सरल  ह्रदय उसका अभी कोरा

कागज जैसा ह्रदय पीने लगा है, आत्‍मसात करने लगा है। वह जो परम अनुभव प्रकाश का साधुओं की मस्‍ती है उसे छूने लगी है। उसे दीवाना करने लगी है। वह जो परम अनुभव प्रकाश का साधुओं के पास है, उससे वह आन्‍दोलित होने लगा है। वह जो साधुओं की मस्‍ती है उसे छूने लगी है, उसे दीवाना करने लगी है। वह भी पियक्‍कड़ होने लगा है। Continue reading “17-संत भीखा दास-(ओशो)”

16-सदाशिव स्‍वामी—(ओशो)

सदाशिव स्‍वामी—भारत के संत -(ओशो)

    दक्षिण भारत में एक अपूर्व संत हुआ जिसका नाम था–सदाशिव स्‍वामी। एक दिन अपने गुरु के आश्रम में एक पंडित को आया देख कर विवाद में उलझ गया। उसने उस पंडित के सारे तर्क तोड़ दिये। उसके एक-एक शब्‍द को तार-तार कर दिया। उसके सारे आधार जिन पर वह तर्क कर रहा था धराशायी कर दिये। उसकी हर बात का खंडन करता चला गया। उस पंडित की पंडिताई को तहस नहस कर डाला। पंडित बहुत ख्‍यातिनाम था। तो सदाशिव सोचते थे कि गुरु पीठ थपथपायेगा और कहेगा, कि ठीक किया, इसको रास्‍तेपर लगाया। लेकिन जब पंडित चला गया तो गुरु ने केवल इतना ही कहां: सदाशिव, अपनी वाणी पर कब संयम करोगे? क्‍यों व्‍यर्थ, व्‍यर्थ उलझते हो इस जंजाल में। ये तुम्‍हें स्‍वयं के भीतर तुम्‍हें न जाने देगी। हो सकता है तुम्‍हारा ज्ञान तुम्‍हारे अहं को पोषित करने लग जाये। ज्ञान तलवार की तरह है। और ध्‍यानी का ज्ञान तो दो धारी तलवार। जिसके दोनों तरफ धार होती है। पंडित को ज्ञान तो एक तरफ का होता है। इससे बच संभल। और देख अपने अंदर।    Continue reading “16-सदाशिव स्‍वामी—(ओशो)”

15-संत दादूदयाल-(ओशो)

15- दादूदयाल और सूंदरो—भारत के संत-(ओशो) 

कहो होत अधिर-पलटूदास 

दादू के चेले तो अनेक थे पर दो ही चेलों का नाम मशहूर है। एक रज्‍जब और दूसरा सुंदरो। आज आपको सुंदरो  कि विषय में एक घटना कहता हूं। दादू की मृत्‍यु हुई। तब दादू के दोनों चलो ने बड़ा अजीब व्यवहार किया। रज्‍जब ने आंखे बंध कर ली और पूरे जीवन कभी खोली ही नहीं। उसने कहां जब देखने लायक था वहीं चला गया तो अब और क्‍या देखना सो रज्‍जब जितने दिन जिया आंखे बंध किये रहा। और दूसरा सुंदरो—उधर दादू की लाश उठाई जा रही थी। अर्थी सजाई जारही थी। वह श्मशान घाट भी नहीं गया और दादू के बिस्‍तर पर उनका कंबल ओढ़ कर सो गया। फिर उसने कभी बिस्‍तर नहीं छोड़ा। बहुत लोगों ने कहा ये भी कोई ढंग है। बात कुछ जँचती नहीं।ये भी कोई जाग्रत पुरूषों के ढंग हुये एक ने आँख बंद कर ली और दूसरा बिस्‍तरे में लेट गया। और फिर उठा ही नहीं। जब तक मर नहीं गया। Continue reading “15-संत दादूदयाल-(ओशो)”

14-संत बाबा शेख फरीद-(ओशो)

संत बाबा शेख फरीद—भारत के संत-(ओशो) 

     शेख फरीद के पास कभी एक युवक आया। और उस युवक ने पूछा कि सुनते है कि हम जब मंसूर के हाथ काटे गये, पैर काटे गये। तो मंसूर को कोई तकलीफ न हुई। लेकिन विश्‍वास नहीं आता। पैर में कांटा गड़ जाता है, तो तकलीफ होती है। हाथ-पैर काटने से तकलीफ न हुई होगी? यह सब कपोल-काल्‍पनिक बातें है। ये सब कहानी किसे घड़े हुये से प्रतीत होते है। और उस आदमी ने कहां, यह भी हम सुनते है कि जीसस को जब सूली पर लटकाया गया,तो वे जरा भी दुःखी न हुए। और जब उनसे कहा गया कि अंतिम कुछ प्रार्थना करनी हो तो कर सकते हो। तो सूली पर लटके हुए, कांटों के छिदे हुए, हाथों में कीलों से बिंधे हुए, लहू बहते हुए उस नंगे जीसस ने अंतिम क्षण में जो कहा वह विश्‍वास के योग्‍य नहीं है। उस आदमी ने कहा, जीसस ने यह कहा कि क्षमा कर देना इन लोगों को, क्‍योंकि ये नहीं जानते कि ये क्‍या कर रहे है। Continue reading “14-संत बाबा शेख फरीद-(ओशो)”

13-संत भर्तृहरि-(ओशो)

संत भर्तृहरि—भारत के संत -(ओशो) 

    भर्तृहरि ने घर छोड़ा। देखा लिया सब। पत्‍नी का प्रेम, उसका छलावा, अपने ही हाथों आपने छोटे भाई विक्रमादित्‍य की हत्‍या का आदेश। मन उस राज पाठ से वैभव से थक गया। उस भोग में केवल पीड़ा और छलावा ही मिला। सब कुछ को खूब देख परख कर छोड़ा। बहुत कम लोग इतने पककर छोड़ते है इस संसार को जितना भर्तृहरि ने छोड़ा है। अनूठा आदमी रहा होगा भर्तृहरि। खूब भोगा। ठीक-ठीक उपनिषद के सूत्र को पूरा किया: ‘’तेन त्‍यक्‍तेन भुंजीथा:।‘’ खूब भोगा।एक-एक बूंद निचोड़ ली संसार की। लेकिन तब पाया कि कुछ भी नहीं है। अपने ही सपने है, शून्‍य में भटकना है। Continue reading “13-संत भर्तृहरि-(ओशो)”

12-बाबा हरिदास-(ओशो)

फकीर संत  बाबा हरिदास—भारत के संत -(ओशो) 

अकबर ने एक दिन तानसेन को कहा, तुम्‍हारे संगीत को सुनता हूं, तो मन में ऐसा ख्‍याल उठता है कि तुम जैसा गाने वाला शायद ही इस पृथ्‍वी पर कभी हुआ हो और न हो सकेगा। क्‍योंकि इससे ऊंचाई और क्‍या हो सकेगी। इसकी धारणा भी नहीं बनती। तुम शिखर हो। लेकिन कल रात जब तुम्‍हें विदा किया था, और सोने लगा तब अचानक ख्‍याल आया। हो सकता है, तुमने भी किसी से सीखा है, तुम्‍हारा भी कोई गुरू होगा। तो मैं आज तुमसे पूछता हूं। कि तुम्‍हारा कोई गुरू है? तुमने किसी से सीखा है? Continue reading “12-बाबा हरिदास-(ओशो)”

11-धनी धर्मदास-(ओशो)

11-धनी धर्मदास-भारत के संत

का सोवे दिन रैन—जस पनिहार धरे सिर गागर-(ओशो)

धनी धरमदास की भी ऐसी ही अवस्था थी। धन था, पद थी, प्रतिष्ठा थी। पंडित-पुरोहित घर में पूजा करते थे। अपना मंदिर था। और खूब तीर्थयात्रा करते थे। शास्त्र का वाचन चलता था, सुविधा थी बहुत, सत्संग करते थे। लेकिन जब तक कबीर से मिलन न हुआ तब तक जीवन नीरस था। जब तक कबीर से मिलना न हुआ तब तक जीवन में फूल न खिला था। कबीर को देखते ही अड़चन शुरू हुई, कबीर को देखते ही चिंता पैदा हुई, कबीर को देखते ही दिखाई पड़ा कि मैं तो खाली का खाली रह गया हूं। ये सब पूजा-पाठ, ये सब यज्ञ-हवन, ये पंडित और पुरोहित किसी काम नहीं आए हैं। मेरी सारी अर्चनाएं पानी में चली गई हैं। मुझे मिला क्या? कबीर को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या? मिले हुए को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या? Continue reading “11-धनी धर्मदास-(ओशो)”

10-दयावाई-(ओशो)

दयावाई-भारत के संत

जगत तरैया भोर की-ओशो

संत का अर्थ है, प्रभु ने जिसके तार छेड़े। संतत्व का अर्थ है, जिसकी वीणा अब सूनी नहीं; जिस पर प्रभु की अंगुलियां पड़ीं। संत का अर्थ है, जिस गीत को गाने को पैदा हुआ था व्यक्ति, वह गीत फूट पड़ा; जिस सुगंध को ले कर आया था फूल, वह सुगंध हवाओं में उड़ चली। संतत्व का अर्थ है, हो गए तुम वही जो तुम्हारी नियति थी। उस नियति की पूर्णता में परम आनंद है स्वभावतः।

बीज जब तक बीज है तब तक दुखी और पीड़ित है। बीज होने में ही दुख है। बीज होने का अर्थ है, कुछ होना है और अभी तक हो नहीं पाए। बीज होने का अर्थ है, खिलना है और खिले नहीं; फैलना है और फैले नहीं; होना है और अभी हुए नहीं। बीज का अर्थ है, अभी प्रतीक्षा जारी है; अभी राह लंबी है; मंजिल आई नहीं। Continue reading “10-दयावाई-(ओशो)”

09-सहजो बाई-ओशो

सहजो बाई—भारत के संत 

बिन घन परत फुुहार-सहजो बाई

     अब तक मैं मुक्‍त पुरूषों पर ही बोला हूं। पहली बार एक मुक्‍त नारी पर चर्चा शुरू करता हूं। मुक्‍त पुरूषों पर बोलना आसान था। उन्‍हें में समझ सकता हूं-वे सजातीय है। मुक्‍त नारी पर बोलना थोड़ा कठिन है। वह थोड़ा अंजान, अजनबी रस्‍ता है। ऐसे तो पुरूष ओर नारी अंतरतम में एक ही है। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति बड़ी भिन्‍न-भिन्‍न है। उनके होने का ढंग उनके दिखाई पड़ने की व्‍यवस्‍था उनका व्‍यक्‍तित्‍व उनके सोचने की प्रक्रिया, न केवल भिन्‍न है बल्‍कि विपरीत भी है।

अब तक किसी मुक्‍त नारी पर न बोला। सोचा तुम थोड़ा मुक्‍त पुरूषों को समझ लो। तुम थोड़ा मुक्‍ति का स्‍वाद ले लो। तो मुक्‍त नारी को समझना थोड़ा आसान हो जाए। Continue reading “09-सहजो बाई-ओशो”

08-संत दादू दयाल-(ओशो)

08-दादू दयाल-भारत के संत

सबै सयाने एक मत-पिव-पिव लागी प्यास-(ओशो)

संकल्पवान परमात्मा को खोजेगा, फिर झुकेगा। पहले उसके चरण खोज लेगा, फिर सिर झुकाएगा। समर्पण से भरा हुआ व्यक्ति, भक्त, सिर झुकाता है; और जहां सिर झुका देता है, वहीं उसके चरण पाता है। गिर पड़ता है, आंखें आंसू से भर जाती हैं। रोता है, चीखता है, पुकारता है, विरह की वेदना उसे घेर लेती है। और जहां उसके विरह का गीत पैदा होता है, वहीं परमात्मा प्रकट हो जाता है।

तुम्हारी मर्जी! जैसे चलना हो। लेकिन दादू दूसरे मार्ग के अनुयायी हैं। उन्हें समझना हो तो एक शब्द है–समर्पण। उसे ही ठीक से समझ लिया तो दादू समझ में आ जाएंगे। Continue reading “08-संत दादू दयाल-(ओशो)”

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