विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन-(नया मनुष्य)

मेरे प्रिय आत्मन्!

बीसवीं सदी नये मनुष्य की जन्म की सदी है। इस संबंध में थोड़ी सी बात आपसे करना चाहूंगा। इसके पहले कि हम नये मनुष्य के संबंध में कुछ समझें, यह जरूरी होगा कि पुराने मनुष्य को समझ लें। पुराने मनुष्य के कुछ लक्षण थे। पहला लक्षण पुराने मनुष्य का था कि वह विचार से नहीं जी रहा था, विश्वास से जी रहा था। विश्वास से जीना अंधे जीने का ढंग है। माना कि अंधे होने की भी अपनी सुविधाएं हैं। और यह भी माना कि विश्वास के अपने संतोष और अपनी सांत्वनाएं हैं। और यह भी माना कि विश्वास की अपनी शांति और अपना सुख है। लेकिन यदि विचार के बाद शांति मिल सके और संतोष मिल सके, विचार के बाद यदि सांत्वना मिल सके और सुख मिल सके, तो विचार के आनंद का कोई भी मुकाबला विश्वास का सुख नहीं कर सकता है। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-11)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन-(धर्म को वैज्ञानिकता देनी जरूरी है)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं छोटी सी कहानी से अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।

एक अमावस की रात्रि में एक अंधा मित्र अपने किसी मित्र के घर मेहमान था। आधी रात ही उसे वापस विदा होना था। जैसे ही वह घर से विदा होने लगा, उसके मित्रों ने कहा कि साथ में लालटेन लेते जाएं तो अच्छा होगा। रात बहुत अंधेरी है और आपके पास आंखें भी नहीं हैं। उस अंधे आदमी ने हंस कर कहा कि मेरे हाथ में प्रकाश का क्या अर्थ हो सकता है? मैं अंधा हूं, मुझे रात और दिन बराबर हैं। मुझे दिन का सूरज भी वैसा है, रात की अमावस भी वैसी है। मेरे हाथ में प्रकाश का कोई भी अर्थ नहीं है। लेकिन मित्र का परिवार मानने को राजी न हुआ। और उन्होंने कहा कि तुम्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन तुम्हारे हाथ में प्रकाश देख कर दूसरे लोग अंधेरे में तुमसे टकराने से बच जाएंगे, इसलिए प्रकाश लेते जाओ। यह तर्क ठीक मालूम हुआ और वह अंधा आदमी हाथ में लालटेन लेकर विदा हुआ। लेकिन दो सौ कदम भी नहीं जा पाया था कि कोई उससे टकरा गया। वह बहुत हैरान हुआ, और हंसने लगा, और उसने कहा कि मैं समझता था कि वह तर्क गलत है, आखिर वह बात ठीक ही हो गई। दूसरी तरफ जो आदमी था, उससे कहा कि मेरे भाई, क्या तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता कि मेरे हाथ में लालटेन है? तुम भी क्या अंधे हो? उस टकराने वाले आदमी ने कहाः मैं तो अंधा नहीं हूं, लेकिन आपके हाथ की लालटेन बुझ गई है। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-10)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन-(विज्ञान स्मृति है और धर्म ज्ञान)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक बहुत घने अंधकार में, एक बहुत घनी पीड़ा में, एक बहुत दुख से भरे हुए समय में हम हैं। और मनुष्य के भीतर मनुष्य की हृदय की वीणा पर कोई संगीत, कोई गीत, कोई आनंद उपस्थित नहीं है। मैं आपके भीतर देखता हंू, तो मुझे ऐसा लगता है जैसे कोई वीणा जो अलौकिक संगीत पैदा कर सकती थी, किसी अंधेरे खंडहर में व्यर्थ ही पड़ी है और उससे कोई संगीत पैदा नहीं हो रहा है। मैं आपको देखता हूं, तो मुझे लगता है कि कोई दीपक जो अंधकार में प्रकाश कर सकता था, किसी खंडहर में बिना जला हुआ पड़ा है। और मैं आपको देखता हूं, तो मुझे लगता है कि ऐसे बीज जो फूल बन सकते थे और जिनसे सारा जगत सुगंध से और सुवास से भर सकता था, वे बीज भूमि को न पाने के कारण व्यर्थ हुए जा रहे हैं। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-09)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन-(विधायक विज्ञान)

मैं सोचता था क्या आपको कहूं? मनुष्य का जैसा जीवन है, मनुष्य की आज जैसी स्थिति है, मनुष्य का जैसा आज रूप हो गया है, आज जैसी विकृति हो गई है, आज जैसा मनुष्य खंड-खंड होकर टूट गया है, उसको स्मरण रख कर, उस संबंध में ही कुछ कहूं, ऐसा मुझे खयाल आया। मैं आपको देखता हूं और पूरे देश में अनेक लोगों को देखता हूं। लाखों आंखों में झांकने का मुझे मौका मिला। इसे दुर्भाग्य कहूं और दुख कहूं कि कोई ऐसी आंख दिखाई नहीं पड़ती जो शांत हो। कोई ऐसी आंख नहीं दिखाई पड़ती जिसमें जीवन की गहराई और सत्य प्रकट होता हो। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई पड़ता जिसका जीवन संगीत से और आनंद से भरा हुआ हो। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-08)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन-(धर्म और विज्ञान का समन्वय)

मनुष्य के जीवन की सारी यात्रा, जो अज्ञात है उसे जान लेने की यात्रा है। जो नहीं ज्ञात है उसे खोज लेने की यात्रा है। जो नहीं पाया गया है उसे पा लेने की यात्रा है। जो दूर है उसे निकट बना लेने की। जो कठिन है उसे सरल कर लेने की। जो अनुपलब्ध है उसे उपलब्ध कर लेने की। मनुष्य की इस यात्रा ने स्वभावतः दो दिशाएं ले ली हैं। एक दिशा मनुष्य के बाहर की ओर जाती है, दूसरी मनुष्य के भीतर की ओर।

एक फकीर औरत थी, राबिया। एक सुबह उसका एक मित्र फकीर उसके झोपड़े के बाहर आकर उसे बुलाने लगा और कहने लगा, राबिया, तू भीतर क्या कर रही है? बाहर आ। सूरज निकल रहा है। और बड़ी सुंदर सुबह का जन्म हुआ है। इतना सुंदर प्रभात मैंने कभी नहीं देखा। तू भीतर द्वार बंद किए क्या करती है? Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-07)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-(मृत्यु का बोध)

बहुत से प्रश्न हैं। बहुत मूल्यवान प्रश्न हैं। एक-एक प्रश्न पर बहुत सी बातें कहूं, ऐसा उन्हें पढ़ कर मेरा मन हुआ। फिर भी सभी प्रश्नों के उत्तर शायद संभव नहीं हो पाएंगे। कुछ प्रश्न समान हैं, थोड़ी भाषा के भेद होंगे, लेकिन बात एक ही पूछी है, इसलिए उनका इकट्ठा उत्तर दे दूंगा। कुछ प्रश्न शेष रह जाएंगे, उन पर कल चर्चा हो सकेगी। सबसे पहले तीन-चार प्रश्न पूछे गए हैं।

मैंने उपवास के संबंध में कुछ कहा, पूछा हैः क्या उपवास से मेरा विरोध है? पूछा हैः क्या उपवास के द्वारा इंद्रियां शिथिल नहीं होतीं और विरक्ति नहीं आती। पूछा है कि क्या उपवास के माध्यम से ही महावीर ने, बुद्ध ने और दूसरे लोगों ने साधना नहीं की है? इस तरह बहुत से प्रश्न उपवास से संबंधित हैं। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-06)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(प्रेम और अपरिग्रह

अगर किसी भवन में आग लगी हो और उसके भीतर बैठ कर हम विचार करते हों, तो विचार करने में जैसा संकोच होगा, वैसा आज के मनुष्य और आज की मनुष्यता के सामने कुछ विचार रखने में संकोच होना चाहिए। मनुष्य बहुत संकट में है। और शायद विचार करने की उतनी बात नहीं, जितनी कुछ करने की बात है। जैसे हम सारे लोग एक बड़े आग से लगे हुए भवन के बीच घिर गए हैं। और यदि कुछ बहुत शीघ्र नहीं किया जा सका, तो शायद मनुष्य के बचने की कोई संभावना नहीं रह जाएगी। यही कारण है कि जहां धर्म का सवाल उठता हो, तो मैं ईश्वर की, आत्मा की, स्वर्ग की और नरक की बातें करना अर्थहीन मानता हूं। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-05)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा -(निर्विचार होने की कला)

मेरे प्रिय आत्मन्!

धर्म के संबंध में थोड़ी सी बातें कहने को मुझे कहा गया। लेकिन सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि धर्म के संबंध में कुछ भी कहना संभव नहीं। धर्म को जाना तो जा सकता है, कहा नहीं जा सकता। इसलिए एक बहुत विरोधाभासी बात आपसे कहना चाहूंगा सबसे पहले। और वह यह कि जो भी कहा जा सकता है वह धर्म नहीं होता; और जो धर्म है वह कहा नहीं जा सकता है। जीवन में जितनी गहरी अनुभूतियां हैं, वे कोई भी कही नहीं जा सकतीं। जीवन में जो बहुत क्षुद्र है, उस संबंध में ही हम बातचीत कर पाते हैं। जो गहरा है, वह बात के बाहर छूट जाता है। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-04)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-(सेवा स्वार्थ के ऊपर)

मेरे प्रिय आत्मन्!

सर्विस अबॅव सेल्फ, सेवा स्वार्थ के ऊपर। इतना सीधा-सादा सिद्धांत मालूम पड़ता है जैसे दो और दो चार। लेकिन अक्सर जो बहुत सीधे-सादे सिद्धांत मालूम होते हैं, वे उतने सीधे-सादे होते नहीं हैं। जीवन इतना जटिल है और इतना रहस्यपूर्ण और इतना कांप्लेक्स कि इतने सीधे-सादे सत्यों में समाता नहीं है। दूसरी बात भी प्रारंभ में आपसे कह दूं और वह यह कि शायद ही कोई व्यक्ति इस बात को इनकार करने वाला मिलेगा। इस सिद्धांत को अस्वीकार करने वाला आदमी जमीन पर खोजना बहुत मुश्किल है। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि बहुत लोग जिस सिद्धांत को चुपचाप स्वीकार करते हैं उसके गलत होने की संभावना बढ़ जाती है। वक्त था, जमीन चपटी दिखाई पड़ती है–है नहीं। हजारों साल तक करोड़ों लोगों ने माना कि जमीन चपटी है। क्यों? हजारों साल तक आदमी ने समझा कि सूरज जमीन का चक्कर लगाता है–लगाता नहीं। अब हमें पता भी चल गया, तब भी सनराइज और सनसेट शब्द मिटने बहुत मुश्किल हैं। सूरज उगता है, सूरज डूबता है; इससे ज्यादा गलत और कोई बात नहीं होगी, लेकिन भाषा में चलेगी। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-03)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(धर्म है बिलकुल वैयक्तिक)

एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहंूगा।

एक छोटे से गांव में, एक अंधेरी रात में, एक झोपड़े के भीतर से बहुत जोर से आवाज आने लगीः आग लगी है, मैं जल रही हंू, मुझे कोई बचाओ। आवाज इतनी तीव्र, इतनी करुण और दुख भरी थी कि सोए हुए पड़ोसी जाग गए और हाथों में बाल्टियां लेकर पानी भर कर उस झोपड़े की तरफ भागे। अंधेरी रात थी, लेकिन झोपड़ी के पास जाकर उन्होंने देखा, आग लगने का कोई भी चिह्न नहीं है। छोटी सी झोपड़ी है। भीतर से जोर से आवाजें आती हैंः आग लग गई है। लेकिन कोई आग लगने का चिह्न नहीं है। उन्होंने दरवाजे धकाए, वे दरवाजे भी खुले हुए थे। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-02)”

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(विज्ञान, धर्म और कला)

मेरे प्रिय आत्मन्!

विज्ञान है सत्य की खोज, धर्म है सत्य का अनुभव, कला है सत्य की अभिव्यक्ति। विज्ञान प्राथमिक है, पहला चरण है। और विज्ञान चाहे तो बहुत देर तक बिना धर्म के जी सकता है। क्योंकि सत्य की खोज ही उसका लक्ष्य है। मैंने कहा, बहुत देर तक बिना धर्म के जी सकता है। और आज तक बिना धर्म के विज्ञान जीया है। न केवल बिना धर्म के बल्कि विज्ञान धर्म को अस्वीकार करके जीया है। जी सकता है। कोई रास्ता चाहे तो बिना मंजिल के भी हो सकता है। लेकिन विज्ञान जैसे ही विकसित होगा–मनुष्य सिर्फ सत्य को जानना ही नहीं चाहेगा–सत्य होना भी चाहेगा। इसलिए बहुत देर तक विज्ञान भी धर्म के बिना नहीं रह सकता है। और उसके न रहने की संभावना रोज-रोज प्रकट होती चली जाती है। Continue reading “विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-01)”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें