जीवन की कला-(प्रवचन-13)

तेरहवां-प्रवचन-(अहंकार का बोध)

……..इसमें पत्थर का कोई हाथ न था। यह पत्थर का स्वभाव है। यह कांच का स्वभाव है। ये दोनों स्वभावतः टकराएं तो कांच चूर-चूर हो जाता है। इट जस्ट हेपंस। यह कोई करना नहीं है। कोई पत्थर उपाय नहीं करता कांच को चूर-चूर करने में। कांच बस चूर-चूर हो जाता है। यह कांच और पत्थर के स्वभाव के मिलने का सहज परिणाम है। इसमें पत्थर का कहीं भी कोई हाथ नहीं है। लेकिन कांच के टुकड़े क्या कहते और क्या इनकार करते हो गए थे चूर-चूर। इसलिए मान लेना पड़ा कि पत्थर ठीक ही कहता है। नीचे पड़े हुए पत्थरों की आंखों में और कांच के टुकड़ों में यह बात देखकर कि जो मैंने कहा है, वह स्वीकृत हो गया। पत्थर को स्वीकृति भी मिल गई। वह प्रमाणीभूत हो गया कि मैं हूं। फिर वह गिरा नीचे कालीन पर जहां और बहुमूल्य कालीन बिछे थे। गिरते ही उसने राहत की सांस ली और कहा मालूम होता है शायद इस भवन के लोग बड़े शिष्ट और संस्कारी हैं। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-13)”

जीवन की कला-(प्रवचन-12)

बहारवां-प्रवचन-(जीवन का आमूल परिवर्तन)

मेरे प्रिय आत्मन्!

जीवन तो सभी को मिलता है। लेकिन फिर भी जीवित बहुत थोड़े लोगों को कहा जा सकता है। अधिक लोग ऐसे ही जीते हैं कि जैसे वे जीते ही न हों। जीवन का न कोई अर्थ, ऐसे जीते हैं, जैसे मजबूरी में एक व्यर्थ बोझ उठाना पड़ रहा हो। ऐसे जीने को जीना कहना शब्दों के साथ खिलवाड़ करना है। जीने की संभावना सबको मिलती है लेकिन उस संभावना को वास्तविक रूप से बहुत थोड़े लोग जान पाते हैं। और जीवन के साथ हम जो करते हैं, अवसर तो जैसा मैं एक कहानी कहता हूं–एक सम्राट था और उसके तीन बेटे थे। वह चिंतित था कि इन तीनों में से किसको साम्राज्य सौंपू। कौन है इस योग्य जो साम्राज्य का मालिक बन सकेगा। तीनों एक जैसे थे। कैसे जानूं कि कौन योग्य है। उसने एक फकीर को पूछा। फकीर ने रास्ता बताया। और सम्राट ने संध्या को तीनों लड़कों को बुलाया और कहा कि एक हजार रुपये लो और बस कल तक एक हजार में जो भी सामान ला सको, लाकर महल को भर दो। बस केवल हजार रुपये खर्च करने हैं और महल अधिक से अधिक भर जाए। ऐसा आयोजन करें। कल संध्या मैं आऊंगा और तुम्हारी परीक्षा इसी से हो जाएगी कि तुममें से साम्राज्य का मालिक कौन बनेगा। जो सफल होगा वही सम्राट बनेगा। इसलिए सोच कर, समझ कर, इस कार्य को पूरा करो। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-12)”

जीवन की कला-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां-प्रवचन-(जीवन की अनंतता)

मेरे प्रिय!

नये मनुष्य के जन्म के लिए तभी विचार संभव है जब पुराने मनुष्य को गलत समझने की भावना साफ और स्वीकृत हो। अब तक तो हमारी धारणा यही रही है कि पुराना मनुष्य ठीक, सय था। निरंतर आज के नेता के लिए हम अतीत का अनुकरण किए चले जाते हैं। रोज-रोज यह बात दोहराई जाती है कि अब सब कुछ विकृत हो गया है। पहले सब ठीक था। लेकिन कोई भी यह नहीं पूछता है कि बीते हुए दिन अगर ठीक थे तो आज कहां से पैदा हो गया है। अगर कल ठीक था तो आज का जन्म कहां से हुआ है। जो आज है वह कल से निःस्पंद हुआ है। वह कल से निकला है और दुनिया अगर रोज-रोज विकृत होती चली जाती हो तो यह समझ लेना आवश्यक है, कि इस विकृति के बीज हमेशा से मौजूद रहे हैं। हो सकता है कि उस विकृति की अभिव्यक्ति रोज-रोज ज्यादा प्रकट और स्पष्ट होती चली जाती है। लेकिन आमतौर से हम यह समझ लेते हैं कि आज विकृत हो गया है। आज का आदमी कुछ खराब है, कलियुग है या कुछ और। पहले सब ठीक था तो आज अचानक सब गलत हो जाना कोई कारण नहीं। जीवन एक सतत अविछिन्न धारा है। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-11)”

जीवन की कला-(प्रवचन-10)

दसवां-प्रवचन-ृ(अहंकार का बोध)

(वारणासी उत्तर प्रदेश)

…इसमें पत्थर का कोई हाथ न था। यह पत्थर का स्वभाव है। यह कांच का स्वभाव है। ये दोनों स्वभावतः टकराएं तो कांच चूर-चूर हो जाता है। इट जस्ट हेपंस। यह कोई करना नहीं है। कोई पत्थर उपाय नहीं करता कांच को चूर-चूर करने में। कांच बस चूर-चूर हो जाता है। यह कांच और पत्थर के स्वभाव के मिलने का सहज परिणाम है। इसमें पत्थर का कहीं भी कोई हाथ नहीं है। लेकिन कांच के टुकड़े क्या कहते और क्या इनकार करते हो गए थे चूर-चूर। इसलिए मान लेना पड़ा कि पत्थर ठीक ही कहता है। नीचे पड़े हुए पत्थरों की आंखों में और कांच के टुकड़ों में यह बात देखकर कि जो मैंने कहा है, वह स्वीकृत हो गया। पत्थर को स्वीकृति भी मिल गई। वह प्रमाणीभूत हो गया कि मैं हूं। फिर वह गिरा नीचे कालीन पर जहां और बहुमूल्य कालीन बिछे थे। गिरते ही उसने राहत की सांस ली और कहा मालूम होता है शायद इस भवन के लोग बड़े शिष्ट और संस्कारी हैं। मेरे आने के पहले ही ज्ञात होता है कि खबर मिल गई। कालीन इत्यादि बिछा रखे हैं। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-10)”

जीवन की कला-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(जीवन का आमूल परिवर्तन)

(वारणासी उत्तर प्रदेश)

मेरे प्रिय आत्मन्!

जीवन तो सभी को मिलता है। लेकिन फिर भी जीवित बहुत थोड़े लोगों को कहा जा सकता है। अधिक लोग ऐसे ही जीते हैं कि जैसे वे जीते ही न हों। जीवन का न कोई अर्थ, ऐसे जीते हैं, जैसे मजबूरी में एक व्यर्थ बोझ उठाना पड़ रहा हो। ऐसे जीने को जीना कहना शब्दों के साथ खिलवाड़ करना है। जीने की संभावना सबको मिलती है लेकिन उस संभावना को वास्तविक रूप से बहुत थोड़े लोग जान पाते हैं। और जीवन के साथ हम जो करते हैं, अवसर तो जैसा मैं एक कहानी कहता हूं–एक सम्राट था और उसके तीन बेटे थे। वह चिंतित था कि इन तीनों में से किसको साम्राज्य सौंपू। कौन है इस योग्य जो साम्राज्य का मालिक बन सकेगा। तीनों एक जैसे थे। कैसे जानूं कि कौन योग्य है। उसने एक फकीर को पूछा। फकीर ने रास्ता बताया। और सम्राट ने संध्या को तीनों लड़कों को बुलाया और कहा कि एक हजार रुपये लो और बस कल तक एक हजार में जो भी सामान ला सको, लाकर महल को भर दो। बस केवल हजार रुपये खर्च करने हैं और महल अधिक से अधिक भर जाए। ऐसा आयोजन करें। कल संध्या मैं आऊंगा और तुम्हारी परीक्षा इसी से हो जाएगी कि तुममें से साम्राज्य का मालिक कौन बनेगा। जो सफल होगा वही सम्राट बनेगा। इसलिए सोच कर, समझ कर, इस कार्य को पूरा करो। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-09)”

जीवन की कला-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(जीवन की अनंतता)

(वारणासी उत्तर प्रदेश)

मेरे प्रिय!

नये मनुष्य के जन्म के लिए तभी विचार संभव है जब पुराने मनुष्य को गलत समझने की भावना साफ और स्वीकृत हो। अब तक तो हमारी धारणा यही रही है कि पुराना मनुष्य ठीक, सय था। निरंतर आज के नेता के लिए हम अतीत का अनुकरण किए चले जाते हैं। रोज-रोज यह बात दोहराई जाती है कि अब सब कुछ विकृत हो गया है। पहले सब ठीक था। लेकिन कोई भी यह नहीं पूछता है कि बीते हुए दिन अगर ठीक थे तो आज कहां से पैदा हो गया है। अगर कल ठीक था तो आज का जन्म कहां से हुआ है। जो आज है वह कल से निःस्पंद हुआ है। वह कल से निकला है और दुनिया अगर रोज-रोज विकृत होती चली जाती हो तो यह समझ लेना आवश्यक है, कि इस विकृति के बीज हमेशा से मौजूद रहे हैं। हो सकता है कि उस विकृति की अभिव्यक्ति रोज-रोज ज्यादा प्रकट और स्पष्ट होती चली जाती है। लेकिन आमतौर से हम यह समझ लेते हैं कि आज विकृत हो गया है। आज का आदमी कुछ खराब है, कलियुग है या कुछ और। पहले सब ठीक था तो आज अचानक सब गलत हो जाना कोई कारण नहीं। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-08)”

जीवन की कला-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(आध्यात्मिक और लौकिक जीवन)

(वारणासी उत्तर प्रदेश)

एक भाई ने पूछा कि क्या आध्यात्मिक और लौकिक जीवन भिन्न-भिन्न हैं या एक हैं?

ये अब भिन्न-भिन्न माने गए हैं, बल्कि विरोधी माने गए हैं। जो लौकिक को छोड़े वही आध्यात्मिक हो सकता है। लेकिन यह मान्यता बिलकुल ही शत-प्रतिशत भ्रांत और गलत है। आध्यात्मिक और लौकिक जीवन विरोधी तो हैं ही नहीं, भिन्न-भिन्न भी नहीं। आध्यात्मिकता लौकिक जीवन को सम्यक रूप से जीने से उपलब्ध होने वाला गुण है। वह कोई जीवन नहीं है। वह जो लौकिक जीवन को ठीक से जीना सीख जाता है उसे आध्यात्मिकता उपलब्ध होती है। जो लौकिक जीवन को ठीक से नहीं जी पाता है, उसे गैर आध्यात्मिकता उपलब्ध होती है। आध्यात्मिकता सुगंध है, लौकिक जीवन ठीक से विकसित हो तो अनिवार्यतः आ जाती है। इसलिए आध्यात्मिकता को कोई जीवन न समझे। वह लौकिक जीवन की ठीक से जीने की निष्पत्ति है। वह उसका फल है, विरोध तो बिलकुल नहीं है। लेकिन विरोध माना गया है और उसके कारण आध्यात्मिक जीवन पैदा भी नहीं हो सका। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-07)”

जीवन की कला-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(जीवन की कला के तीन सूत्र)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं।

एक महानगरी में एक नया मंदिर बन रहा था। हजारों श्रमिक उस मंदिर को बनाने में संलग्न थे, पत्थर तोड़े जा रहे थे, मूर्तियां गढ़ी जा रही थीं, दीवालें उठ रही थीं। एक परदेशी व्यक्ति उस मंदिर के पास से गुजर रहा था। पत्थर तोड़ रहे एक मजदूर से उसने पूछाः मेरे मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने क्रोध से अपनी हथौड़ी नीचे पटक दी, आंखें ऊपर उठाईं जैसे उन आंखों में आग की लपटें हों, ऐसे उस मजदूर ने उस अजनबी को देखा और कहाः अंधे हैं, दिखाई नहीं पड़ता है, पत्थर तोड़ रहा हूं, यह भी पूछने और बताने की जरूरत है। और वापस उसने पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-06)”

जीवन की कला-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(नये मनुष्य का जन्म)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं एक छोटी सी कहानी से अपनी आज की बात प्रारंभ करूंगा।

एक बहुत काल्पनिक कहानी आपसे कहूं और उसके बाद आज की बात आपसे कहूंगा। एक अत्यंत काल्पनिक कहानी से प्रारंभ करने का मन है। कहानी तो काल्पनिक है लेकिन मनुष्य की आज की स्थिति के संबंध में, मनुष्य की आज की भाव-दशा के संबंध में उससे ज्यादा सत्य भी कुछ और नहीं हो सकता।

मैंने सुना है कि परमात्मा ने यह देख कर कि मनुष्य रोज से रोज विकृत होता जा रहा है, उसकी संस्कृति और संस्कार नष्ट हो रहे हैं। उसके पास शक्ति तो बढ़ रही है लेकिन शांति विलीन हो रही है। उसके पास बाहर की समृद्धि तो रोज बढ़ती जाती है लेकिन साथ ही भीतर की दरिद्रता भी बढ़ती जा रही है और यह देख कर कि मनुष्य इन सारी घातक स्थिति में उलझ कर कहीं स्वयं का नाश न कर ले, दुनिया के तीन बड़े राष्ट्रों को अपने पास बुलाया–यह मैंने कहा, बिलकुल काल्पनिक कहानी है। कोई परमात्मा इस भांति बुलाने को नहीं, लेकिन फिर भी इस कहानी में कुछ है, जिसकी वजह से आपसे कहना चाहता हूं। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-05)”

जीवन की कला-(प्रवचन-04)

चौथा-वचन -(आकाश का आनंद)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं अत्यंत आनंदित हूं, लायंस इंटरनेशल के इस सम्मेलन में कि शांति के संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कर सकूंगा। इसके पहले कि मैं अपने विचार आपके सामने रखूं, एक छोटी सी घटना मुझे स्मरण आती है, उसे से मैं शुरू करूंगा।

मनुष्य-जाति के अत्यंत प्राथमिक क्षणों की बात है। अदम और ईव को स्वर्ग के बगीचे से बाहर निकाला जा रहा था। दरवाजे से अपमानित होकर निकलते हुए अदम ने ईव से कहा, तुम बड़े संकट से गुजर रहे हैं। यह पहली बात थी, जो दो मनुष्यों के बीच संसार में हुई, लेकिन पहली बात यह थी कि हम बड़े संकट से गुजरे रहे हैं। और तब से अब तक कोई बीस लाख वर्ष हुए, मनुष्य-जाति और बड़े और बड़े संकटों से गुजरती रही है। यह वचन सदा के लिए सत्य हो गया। ऐसा कोई समय न रहा, जब हम संकट में न रहे हों, और संकट रोज बढ़ते चले गए हैं। एक दिन अदम को स्वर्ग के राज्य से निकाला गया था, धीरे-धीरे हम कब नर्क के राज्य में प्रविष्ट हो गए, उसका भी पता लगाना कठिन है। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-04)”

जीवन की कला-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(सत्य की झलक)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक राजकुमार था बचपन से ही सुन रहा था कि पृथ्वी पर एक ऐसा नगर भी है जहां कि सभी लोग धार्मिक हैं। बहुत बार उस धर्म नगर की चर्चा, बहुत बार उस धर्म नगर की प्रशंसा उसके कानों में पड़ी थी। जब वह युवा हुआ और राजगद्दी का मालिक बना तो सबसे पहला काम उसने यही किया कि कुछ मित्रों को लेकर, यह उस धर्म नगरी की खोज में निकल पड़ा। उसकी बड़ी आकांक्षा थी, उस नगर को देख लेने की, जहां कि सभी लोग धार्मिक हों। बड़ा असंभव मालूम पड़ता था यह। बहुत दिन की खोज, बहुत दिन की यात्रा के बाद, वह एक नगर में पहुंचा, जो पड़ा अनूठा था। नगर में प्रवेश करते ही उसे दिखाई पड़े ऐसे लोग, जिन्हें देख कर वह चकित हो गया और उसे विश्वास भी न आया कि ऐसे लोग भी कहीं हो सकते हैं। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-03)”

जीवन की कला-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(दृष्टि का परिवर्तन

(अंतर की खोज)

मेरे प्रिय आत्मन्!

सत्य की यात्रा पर मनुष्य का सीखा हुआ ज्ञान ही बाधा बन जाता है, यह पहले दिन की चर्चा में मैंने कहा। सीखा हुआ ज्ञान दो कौड़ी का भी नहीं। और जो सीखे हुए, पढ़े हुए ज्ञान के आधार पर सोचता हो कि जीवन के प्रश्न को हल कर लेगा, वह नासमझ ही नहीं, पागल है। जीवन के ज्ञान को तो स्वयं ही पाना होता है किसी और से उसे नहीं सीखा जा सकता।

दूसरे दिन की चर्चा में मैंने आपसे कहा कि जिसका अहंकार जितना प्रबल है वह स्वयं के और परमात्मा के बीच उतनी ही बड़ी दीवाल खड़ी कर लेता है। मैं हूं, यही भाव, जो सबमें छिपा है उससे नहीं मिलने देता। अहंकार की बूंद जब परमात्मा के सागर में स्वयं को खोने को तैयार हो जाती है तभी उसे जाना जा सकता है जो सत्य है और सबमें है। यह मैंने दूसरे दिन आपसे कहा। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-02)”

जीवन की कला-(प्रवचन-01)

जीवन की कला-(विविध)-ओशो

पहला-प्रवचन-(विचार, चिंतन और विवेक

मेरे प्रिय आत्मन्!

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

यह भाव कि मैं हूं, अनिवार्यतया इस भाव से जुड़ा होगा कि ईश्वर नहीं है। ये दोनों संयुक्त घटनाएं हैं। जिस सदी में मनुष्यों को ऐसा लगेगा कि मैं हूं, उस सदी में उन्हें लगेगा ईश्वर नहीं है। जितना तीव्र प्रकाश अपने व्यक्तित्व के घरों में अहंकार का जलेगा, उतना ही परमात्मा के प्रकाश से हम वंचित हो जाएंगे। तो जब मैं कह रहा हूं, विचार को छोड़ दें; तो मैं कह रहा हूं, अपने भीतर, घर के भीतर जलती हुई टिमटिमाती मोमबत्ती को बुझा दें और फिर देखें। फिर जो मैं कह रहा हूं कोई इस वजह से नहीं कि मैं कहता हूं इसलिए मान लें; मैं कहता हूं, करें और देखें। यह कोई सैद्धांतिक बातचीत नहीं है, यह कोई फिलाॅसफी नहीं है, यह कोई तार्किक मामला नहीं है कि कोई लफ्फाजी तर्क से मैं सिद्ध कर रहा हूं। मैं तो एक अत्यंत प्रयोगात्मक, एक्सपेरिमेंटल, एक ऐसी व्यावहारिक बात कह रहा हूं–जिसे करें और देखें। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-01)”

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