तेरहवां-प्रवचन-(अहंकार का बोध)
……..इसमें पत्थर का कोई हाथ न था। यह पत्थर का स्वभाव है। यह कांच का स्वभाव है। ये दोनों स्वभावतः टकराएं तो कांच चूर-चूर हो जाता है। इट जस्ट हेपंस। यह कोई करना नहीं है। कोई पत्थर उपाय नहीं करता कांच को चूर-चूर करने में। कांच बस चूर-चूर हो जाता है। यह कांच और पत्थर के स्वभाव के मिलने का सहज परिणाम है। इसमें पत्थर का कहीं भी कोई हाथ नहीं है। लेकिन कांच के टुकड़े क्या कहते और क्या इनकार करते हो गए थे चूर-चूर। इसलिए मान लेना पड़ा कि पत्थर ठीक ही कहता है। नीचे पड़े हुए पत्थरों की आंखों में और कांच के टुकड़ों में यह बात देखकर कि जो मैंने कहा है, वह स्वीकृत हो गया। पत्थर को स्वीकृति भी मिल गई। वह प्रमाणीभूत हो गया कि मैं हूं। फिर वह गिरा नीचे कालीन पर जहां और बहुमूल्य कालीन बिछे थे। गिरते ही उसने राहत की सांस ली और कहा मालूम होता है शायद इस भवन के लोग बड़े शिष्ट और संस्कारी हैं। Continue reading “जीवन की कला-(प्रवचन-13)”