तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-80)-ओशो

पूर्णता एवं शून्यता का एक ही अर्थ है-

प्रवचन-अस्सीवां 

प्रश्नसार:

1-यदि भीतर शून्य है तो इसे आत्मा क्यों कहते है?

2-बुद्ध पुरूष निर्णय कैसे लेता है?

3-संत लोग शांत जगहों पर क्यों रहते है?

4-आप कैसे जानते है कि चेतना शाश्वत है?

5-मेरे बुद्धत्व से संसार में क्या फर्क पड़ेगा?     Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-80)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-78)-ओशो

अंत: प्रज्ञा से जीना-

प्रवचन-अट्ठहत्रवां 

प्रश्नसार:

1-कुछ विधिया बहुत विकसित लोगों के लिए लगती है।

2-अंतविंवेक को कैसे पहचानें?

3-क्या अंत:प्रज्ञा से जीने वाला व्यक्ति बौद्धिक रूप से कमजोर होगा?

 पहला प्रश्न :

इन एक सौ बारह विधियों में से कुछ विधियां ऐसे लगती हैं जैसे विधियां परिणाम हो, जैसे कि जागतिक चेतना बन जाओ’ या ‘यही एक हो रहो’ आदि। ऐसा लगता है जैसे इन विधियों को उपलब्ध होने के लिए भी हमें विधियों की जरूरत है। क्या ये विधियां बहुत विकसित लोगों के लिए थीं जो कि इंगित मात्र से ही ब्रह्मांडींय बन सकते थे? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-78)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-77)-ओशो

चेतना का विस्तार-तंत्र-सूत्र-5

प्रवचन-छियत्रवां 

सारसूत्र:

106-हर मनुष्य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्मचिंता को त्यागकर प्रत्येक प्राणी हो जाओ।

107-यह चेतना ही प्रत्येक प्राणी के यप में है, अन्य कुछ भी नहीं है।

108-यह चेतना ही प्रत्येक प्राणी की मार्गदर्शक सत्ता है, यही हो रहो।

अस्तित्व स्वयं में अखंड है। मनुष्य की समस्या मनुष्य की स्व-चेतना के कारण पैदा होती है। चेतना सबको यह भाव देती है कि वे पृथक हैं। और यह भाव, कि तुम अस्तित्व से भिन्न हो, सब समस्याओं का निर्माण करता है। मूलत: यह भाव झूठा है, और जो कुछ भी झूठ पर आधारित होगा वह संताप पैदा करेगा, समस्याएं, उलझनें निर्मित करेगा। और तुम चाहे जो भी करो, यदि वह इस झूठी पृथकता पर आधारित है तो गलत ही होगा। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-77)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-76)-ओशो

काम-उर्जा ही जीवन-ऊर्जा है

प्रवचन-छियत्रवां 

प्रश्नसार:

1-तंत्र की विधियां काम से ज्यादा संबंधित नहीं लगती है।

2-ज्ञान ओर अज्ञान आपस में किस प्रकार संबंधित है?  

3-कृष्ण मूर्ति विधियों के विरोध में क्यों है ?

4-व्यवस्था के हानि-लाभ क्या है?

पहला प्रश्न :

हमने सदा यहीसुना है कि तंत्र मूल रूप से काम-ऊर्जा तथा काम-केंद्र की विधियों से संबंधित है, लेकिन आप कहते हैं कि तंत्र में सब समाहित । यदि पहले दृष्टिकोण में कोई सच्चाई है तो विज्ञान भैरव तंत्र में अधिकांश विधियां अतांत्रिक मालूम होती हैं।
क्या यह सच है ? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-76)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-75)-ओशो

विपरीत ध्रुवों में लय की खोज

प्रवचन-पिच्हत्रवां 

सारसूत्र:

102-अपने भीतर तथा बाहर एक साथ आत्मा की कल्पना करो, जब तक कि संपूर्ण अस्तित्व आत्मवान न हो जाए।

103-अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही, जानों।

104-हे शक्ति, प्रत्येक आभार सीमित है, सर्वशक्तिमान में विलीन हो रहा है।

104-सत्य में रूप अविभक्त हैं। सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानों।

महाकवि वाल्ट व्हिटमैन ने कहा है, ‘मैं अपना ही विरोध करता हूं क्योंकि मैं विशाल हूं। मैं अपना ही विरोध करता हूं क्योंकि में सब विरोधों को समाहित करता हूं, क्योंकि मैं सब कुछ हूं।’  शिव के संबंध में, तंत्र के संबंध में भी यही कहा जा सकता है। तंत्र है विरोधों के बीच, विरोधाभासों के बीच लय की खोज। विरोधाभासी, विरोधी दृष्टिकोण तंत्र में एक हो जाते हैं। इसे गहराई से समझना पड़ेगा, तभी तुम समझ पाओगे कि इसमें इतनी विरोधाभासी, इतनी भिन्न विधियां क्यों हैं। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-75)-ओशो”

मन का दर्पण-(प्रवचन-04)

मन का दर्पण-(विविध)

प्रवचन-चौथा-(ओशो)

प्रभु तो द्वार पर ही खड़ा है

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक बहुत बड़े मंदिर में बहुत पुजारी थे। विशाल वह मंदिर था। सैकड़ों पुजारी उसमें सेवारत थे। एक रात एक पुजारी ने स्वप्न देखा कि कल संध्या जिस प्रभु की पूजा वे निरंतर करते रहे थे, वह साक्षात मंदिर में आने को है। दूसरा दिन उस मंदिर में उत्सव का दिन हो गया। दिन भर पुजारियों ने मंदिर को स्वच्छ किया, साफ किया। प्रभु आने को थे, उनकी तैयारी थी। संध्या तक मंदिर सज कर वैभव की भांति खड़ा हो गया। मंदिर के कंगूरे-कंगूरे पर दीये जल रहे थे। धूप-दीप, फूल-सुगंध–मंदिर बिलकुल नया हो उठा था। Continue reading “मन का दर्पण-(प्रवचन-04)”

मन का दर्पण-(प्रवचन-03)

मन का दर्पण-(विविध)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

असंग की खोज

एक तो संगठनों पर मेरी कोई भी आस्था नही है, क्योंकि संगठन सभी अंततः खतरनाक सिद्ध होते हैं। और सभी संगठन अनिवार्यरूपेण संप्रदाय बनते हैं। तो एक तो संगठन कोई नहीं बनाना है। जीवन जागृति केंद्र एक बिलकुल मित्रों के मिलने का स्थल भर है, कोई संगठन नहीं है। ऐसा कोई संगठन नहीं है कि उसकी सदस्यता से कोई बंधता हो। न ऐसा कोई संगठन कि वह कोई किसी विशेष विचारधारा को मान कर उसका अनुयायी बनता हो।

अगर ठीक से मेरी बात समझें, तो मैं किसी विचार को नहीं फैलाना चाहता, विचार करने की प्रक्रिया को भर फैलाना चाहता हूं। यानी मैं कोई आइडियालाॅजी या कोई सिद्धांत नहीं देना चाहता किसी को। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति सोचने-समझने, स्वयं सोचने-समझने में कैसे समर्थ हो, इसकी व्यवस्था देना चाहता हूं। Continue reading “मन का दर्पण-(प्रवचन-03)”

मन का दर्पण-(प्रवचन-02)

मन का दर्पण-(विविध)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

स्वयं को जानना सरलता है

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं कौन हूं? इस प्रश्न का उत्तर शायद मनुष्य के द्वारा पूछे जाने वाले किसी भी प्रश्न से ज्यादा सरल है, और साथ ही और जल्दी से यह भी कह देना जरूरी है कि इस प्रश्न से ज्यादा कठिन किसी और प्रश्न का उत्तर भी नहीं है। सरलतम भी यही है और कठिनतम भी। सरल इसलिए है कि जो हम हैं अगर उसका प्रश्न भी हल न हो सके, अगर उसका उत्तर पाना भी सरल न हो, तो फिर इस जगत में किसी और प्रश्न का उत्तर पाना सरल नहीं हो सकता। जो मैं हूं, अगर मैं उसे भी न जान सकूं, तो मैं और किसे जान सकूंगा? Continue reading “मन का दर्पण-(प्रवचन-02)”

मन का दर्पण-(प्रवचन-01)

मन का दर्पण-(विविध)

पहला-प्रवचन-(ओशो)

एक नया द्वार

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य का जीवन रोज-रोज ज्यादा से ज्यादा अशांत होता चला जाता है और इस अशांति को दूर करने के जितने उपाय किए जाते हैं उनसे अशांति घटती हुई मालूम नहीं पड़ती और बढ़ती हुई मालूम पड़ती है। और जिन्हें हम मनुष्य के जीवन में शांति लाने वाले वैद्य समझते हैं वे बीमारियों से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध होते चले जाते हैं। ऐसा बहुत बार होता है कि रोग से भी ज्यादा औषधि खतरनाक सिद्ध होती है। अगर कोई निदान न हो, अगर कोई ठीक डाइग्नोसिस न हो, अगर ठीक से न पहचाना गया हो कि बीमारी क्या है, तो इलाज बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो तो आश्चर्य नहीं है। Continue reading “मन का दर्पण-(प्रवचन-01)”

भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-05)

भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

भारत के भटके युवक

मेरे प्रिय आत्मन्!

हमारी चर्चाओं का अंतिम दिन है, और बहुत से प्रश्न बाकी रह गए हैं। तो मैं बहुत थोड़े-थोड़े में जो जरूरी प्रश्न मालूम होते हैं, उनकी चर्चा करना चाहूंगा।

एक मित्र ने पूछा है कि कहा जाता है कि भारत का जवान राह खो बैठा है। उसे सच्ची राह पर कैसे लाया जा सकता है?

पहली तो यह बात ही झूठ है कि भारत का जवान राह खो बैठा है। भारत का जवान राह नहीं खो बैठा है, भारत की बूढ़ी पीढ़ी की राह अचानक आकर व्यर्थ हो गई है, और आगे कोई राह नहीं है। एक रास्ते पर हम जाते हैं और फिर रास्ता खत्म हो जाता है, और खड्डा आ जाता है। आज तक हमने जिसे रास्ता समझा था वह अचानक समाप्त हो गया है, और आगे कोई रास्ता नहीं है। और रास्ता न हो तो खोने के सिवाय मार्ग क्या रह जाएगा? Continue reading “भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-05)”

भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-04)

भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

चौथा-वचन-(ओशो)

पूंजीवाद की अनिवार्यता

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि क्या आप बता सकते हैं कि हमारे देश की वर्तमान परिस्थिति के लिए कौन जवाबदार है?

सदा से हम यही पूछते रहे हैं कि कौन जवाबदार है। इससे ऐसी भ्रांति पैदा होती है कि कोई और हमारे सिवाय जवाबदार होगा। इस देश की परिस्थिति के लिए हम जवाबदार हैं। यह बहुत ही क्लीव और नपुंसक विचार है कि सदा हम किसी और को जवाबदार ठहराते हैं। जब तक हम दूसरों को जवाबदार ठहराते रहेंगे तब तक इस देश की परिस्थिति बदलेगी नहीं क्योंकि दूसरे को जवाबदार ठहरा कर हम मुक्त हो जाते हैं और बात वहीं की वहीं ठहर जाती है। Continue reading “भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-04)”

भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-03)

भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

राष्ट्रभाषा और खंडित देश

मेरे प्रिय आत्मन्!

प्रश्नों के ढेर से लगता है कि भारत के सामने कितनी जीवंत समस्याएं होंगी। करीब-करीब समस्याएं ही समस्याएं हैं और समाधान नहीं हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि क्या भारत में कोई राष्ट्रभाषा होनी चाहिए? यदि हां, तो कौन सी?

राष्ट्रभाषा का सवाल ही भारत में बुनियादी रूप से गलत है। भारत में इतनी भाषाएं हैं कि राष्ट्रभाषा सिर्फ लादी जा सकती है और जिन भाषाओं पर लादी जाएगी उनके साथ अन्याय होगा। भारत में राष्ट्रभाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। भारत में बहुत सी राष्ट्रभाषाएं ही होंगी और आज कोई कठिनाई भी नहीं है कि राष्ट्रभाषा जरूरी हो। रूस बिना राष्ट्रभाषा के काम चलाता है तो हम क्यों नहीं चला सकते। आज तो यांत्रिक व्यवस्था हो सकती है संसद में, बहुत थोड़े खर्च से, जिसके द्वारा एक भाषा सभी भाषाओं में अनुवादित हो जाए। Continue reading “भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-03)”

भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-02)

भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

गरीबी और समाजवाद

बहुत सी समस्याएं हैं और बहुत सी उलझने हैं। लेकिन ऐसी एक भी उलझन नहीं जो मनुष्य हल करना चाहे और हल न कर सके। लेकिन यदि मनुष्य सोच ले कि हल हो ही नहीं सकता तब फिर सरल से सरल उलझन भी सदा के लिए उलझन रह जाती है। इस देश का दुर्भाग्य है कि हमने बहुत सी उलझनों को ऐसा मान रखा है कि वे सुलझ ही नहीं सकती हैं। और एक बार कोई कौम इस तरह की धारणा बना ले तो उसकी समस्याएं फिर कभी हल नहीं होती हैं। Continue reading “भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-02)”

भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-01) 

भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

पहला-प्रवचन-(ओशो)

समस्याओं के ढेर

भारत समस्याओं से और प्रश्नों से भरा है। और सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि हमारे पास उत्तरों की और समाधानों की कोई कमी नहीं है। शायद जितने प्रश्न हैं हमारे पास, उससे ज्यादा उत्तर हैं और जितनी समस्याएं हैं, उससे ज्यादा समाधान हैं। लेकिन एक भी समस्या का कोई समाधान हमारे पास नहीं है। समाधान बहुत हैं, लेकिन सब समाधान मरे हुए हैं और समस्याएं जिंदा हैं। उनके बीच कोई तालमेल नहीं है। मरे हुए उत्तर हैं और जीवंत प्रश्न हैं। जिंदा प्रश्न हैं और मरे हुए उत्तर हैं। Continue reading “भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-01) “

भारत का भविष्य-(प्रवचन-17)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

(नोट-इस प्रवचन का आडियों टेप अब उपलब्ध नहीं है)

सत्रहवां-प्रवचन-(ओशो)

क्या भारत को क्रांति की जरूरत है?

क्या भारत को क्रांति की जरूरत है? यह प्रश्न वैसा ही है जैसे कोई किसी बीमार आदमी के पास खड़ा होकर पूछे कि क्या बीमार आदमी को औषधि की जरूरत है? भारत को क्रांति की जरूरत ऐसी नहीं है, जैसी और चीजों की जरूरत होती है, बल्कि भारत बिना क्रांति के अब जी भी नहीं सकेगा। इस क्रांति की जरूरत कोई आज पैदा हो गई है, ऐसा भी नहीं है। भारत के पूरे इतिहास में कोई क्रांति कभी हुई ही नहीं। आश्चर्यजनक है यह घटना कि एक सभ्यता कोई पांच हजार वर्षों से अस्तित्व में है लेकिन वह क्रांति से अपरिचित है। निश्चित ही जो सभ्यता पांच हजार वर्षों से क्रांति से अपरिचित है वह करीब-करीब मर चुकी होगी। हम केवल उसके मृत बोझ को ही ढो रहे हैं और हमारी अधिकतम समस्याएं उस मृत बोझ को ही ढोने से ही पैदा हुई हैं। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-17)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-16)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

सोलहवां-प्रवचन-(ओशो)

भारत का दुर्भाग्य

मेरे प्रिय आत्मन्!

भारत के दुर्भाग्य की कथा बहुत लंबी है। और जैसा कि लोग साधारणतः समझते हैं कि हमें ज्ञात है कि भारत का दुर्भाग्य क्या है, वह बात बिल्कुल ही गलत है। हमें बिल्कुल भी ज्ञात नहीं है कि भारत का दुर्भाग्य क्या है। दुर्भाग्य के जो फल और परिणाम हुए हैं वे हमें ज्ञात हैं। लेकिन किन जड़ों के कारण, किन रूट्स के कारण भारत का सारा जीवन विषाक्त, असफल और उदास हो गया है? वे कौन से बुनियादी कारण हैं जिनके कारण भारत का जीवन-रस सूख गया है, भारत का बड़ा वृक्ष धीरे-धीरे कुम्हला गया, उस पर फूल-फल आने बंद हो गए हैं, भारत की प्रतिभा पूरी की पूरी जड़, अवरुद्ध हो गई है? वे कौन से कारण हैं जिनसे यह हुआ है? Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-16)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-15)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

पंद्रहवां-प्रवचन'(ओशो)

भारत का भविष्य

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। बहुत पुराने दिनों की घटना है, एक छोटे से गांव में एक बहुत संतुष्ट गरीब आदमी रहता था। वह संतुष्ट था इसलिए सुखी भी था। उसे पता भी नहीं था कि मैं गरीब हूं। गरीबी केवल उन्हें ही पता चलती है जो असंतुष्ट हो जाते हैं। संतुष्ट होने से बड़ी कोई संपदा नहीं है, कोई समृद्धि नहीं है। वह आदमी बहुत संतुष्ट था इसलिए बहुत सुखी था, बहुत समृद्ध था। लेकिन एक रात अचानक दरिद्र हो गया। न तो उसका घर जला, न उसकी फसल खराब हुई, न उसका दिवाला निकला। लेकिन एक रात अचानक बिना कारण वह गरीब हो गया था। आप पूछेंगे, कैसे गरीब हो गया? उस रात एक संन्यासी उसके घर मेहमान हुआ और उस संन्यासी ने हीरों की खदानों की बात की और उसने कहा, पागल तू कब तक खेतीबाड़ी करता रहेगा? पृथ्वी पर हीरों की खदानें भरी पड़ी हैं। अपनी ताकत हीरों की खोज में लगा, तो जमीन पर सबसे बड़ा समृद्ध तू हो सकता है। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-15)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-14)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

चौदहवां-प्रवचन-(ओशो)

सादगी का कभी-कभी मजाक करते हैं तो ऐसा नहीं है कि गांधी जी ने इस देश का निरीक्षण किया, पर्यटन किया और करुणा की वजह से उन्होंने जीवन में जो जरूरी थी उतनी चीजों से चला कर वह सादगी का अंगीकार किया था, वह करुणा की वजह से किया नहीं है वह?

करुणा की वजह से हो या न हो, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। मेरे लिए यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि गांधी जी ने किस वजह से सादगी अख्तियार की। मेरे लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि सादगी का रुख मुल्क को गरीब बनाता है। मेरे लिए वह महत्वपूर्ण नहीं है। वह गांधी जी की व्यक्तिगत बात है कि वे करुणा से सादे रहे हैं, या उनको कोई ऑब्सेशन है इसलिए सादे रहे हैं, या दिमाग खराब है इसलिए सादे रहे हैं। इससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। वह गांधी जी की निजी बात है। मेरे लिए प्रयोजन जिस बात से है वह यह है कि जो मुल्क सादगी को प्रतिष्ठा देता है वह मुल्क संपन्न नहीं हो सकता। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-14)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-13)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

तेरहवां-प्रवचन-(ओशो)

एक नये भारत की ओर

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक नये भारत की ओर? इस संबंध में थोड़ी सी बातें मैं आपसे कहना चाहूंगा।

पहली बात तो यह कि भारत को हजारों वर्ष तक यह पता ही नहीं था कि वह पुराना हो गया है। असल में पुराने होने का पता ही तब चलता है जब हमारे पड़ोसी नये हो जाएं। पुराने के बोध के लिए किसी का नया हो जाना जरूरी है।

भारत को हजारों वर्ष तक यह पता नहीं था कि वह पुराना हो गया है। इधर इस सदी में आकर हमें यह प्रतीति होनी शुरू हुई है कि हम पुराने हो गए हैं। इस प्रतीति को झुठलाने की हम बहुत कोशिश करते हैं। क्योंकि यह बात मन को वैसे ही दुख देती है जैसे किसी बूढ़े आदमी को जब पता चलता है कि वह बूढ़ा हो गया है तो दुख शुरू होता है। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-13)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-12)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

बारहवां-प्रवचन-(ओशो)

एक बहुत पुराने नगर में उतना ही पुराना एक चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था कि उस चर्च में भीतर जाने में भी प्रार्थना करने वाले भयभीत होते थे। उसके किसी भी क्षण गिर पड़ने की संभावना थी। आकाश में बादल गरजते थे तो चर्च के अस्थि-पंजर कंप जाते थे। हवाएं चलती थीं तो लगता था चर्च अब गिरा, अब गिरा।

ऐसे चर्च में कौन प्रवेश करता? कौन प्रार्थना करता? धीरे-धीरे उपासक आने बंद हो गए। चर्च के संरक्षकों ने कभी दीवाल का पलस्तर बदला, कभी खिड़की बदली, कभी द्वार रंगे। लेकिन न द्वार रंगने से, न पलस्तर बदलने से, न कभी यहां ठीक कर देने से, वहां ठीक कर देने से, वह चर्च इस योग्य न हुआ कि उसे जीवित माना जा सके। वह मुर्दा ही बना रहा। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-12)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-11)

भारत का भविष्य-–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

ग्यारहवां-प्रवचन-(ओशो)

मेरे प्रिय आत्मन्!

बीती दो चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न आए हैं। कुछ मित्रों ने पूछा है कि भारत सैकड़ों वर्षों से दरिद्र है, तो इस दरिद्रता में, इस दरिद्रता में तो गांधीवाद का हाथ नहीं हो सकता है? वह क्यों दरिद्र है इतने वर्षों से?

गांधीवाद का हाथ तो नहीं है, लेकिन गांधीवाद जैसी ही विचारधाराएं इस देश को हजारों साल से पीड़ित किए हुए हैं। उन विचारधाराओं का हाथ है। नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उन विचारधाराओं को हम क्या नाम देते हैं। दो विचारधाराओं पर ध्यान दिलाना जरूरी है। एक तो भारत में कोई तीन-चार हजार वर्षों से संतोष की, कंटेंटमेंट की जीवन धारणा को स्वीकार किया है। संतुष्ट रहना है, जितना है उसमें संतोष कर लेना है। जो भी है उसमें ही तृप्ति मान लेनी है। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-11)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-10)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

दसवां-प्रवचन-ओशो

ए रेडियो टॉक बाई ओशो

…अंत तक अमल नहीं करते।

पर मैं तो बहुत कुछ करना भी चाह रही हूं बीबी जी।

सच!

हां।

यह सच फिर वही बात की आपने, आप करना चाह रही हैं या कुछ कर रही हैं? मैं तो यह जानना चाहती हूं।

बीबी देखिए, देश-विवाह हमारा पहला कर्तव्य है, पहला धर्म है, बस इसी के लिए हम कुछ योजनाएं बना रहे हैं।

हां-हां, यानी और भी कुछ लोग हैं आपके पास?

हां, मेरी कुछ पड़ोसनें भी अपना सहयोग दे रही हैं। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-10)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-09)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

नौवां प्रवचन-(ओशो)

शिक्षा और समाज

व्यक्ति के अतिरिक्त और कोई जगह है नहीं। समाज और झूठ, जो बड़े से बड़ा झूठ है। समाज का झूठ दिखाई नहीं पड़ता। लगता ऐसा है कि वही सत्य है, और व्यक्ति तो कुछ भी नहीं। झूठ अगर बहुत पुराना हो, पीढ़ी दर पीढ़ी, लाखों साल में हमने उसे स्थापित किया हो, तो ख्याल में नहीं आता।

लेकिन ख्याल में आना शुरू हुआ है और दुनिया को यह धीरे-धीरे रोज अनुभव होता जा रहा है कि समाज के नाम से की गई कोई भी क्रांति सफल नहीं हुई। और समाज के नाम से हमने जो भी आज तक किया है उससे हमारी मुसीबत समाप्त नहीं हुई। मुसीबत बदल गई हो, यह हो सकता है। एक मुसीबत छोड़ कर हमने दूसरी मुसीबत पा लिए हों, यह तो हुआ है, मुसीबत समाप्त नहीं हो सकी। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-09)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-08)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

आठवां-प्रवचन-(ओशो)

डिक्टेटरशिप व्यक्ति की नहीं; विचार की

(प्रारंभ का मैटर उपलब्ध नहीं। )

…और दो बच्चे के बाद अनिवार्य आपरेशन। समझाने-बुझाने का सवाल नहीं है यह। जैसे हम नहीं समझाते हैं हत्यारे को कि तुम हत्या मत करो, हत्या करना बुरा है। हम कहते हैं, हत्या करना कानूनन बंद है। हत्या से भी ज्यादा खतरनाक आज संख्या बढ़ाना है। तो एक तो अनिवार्य संतति-नियमन। जो लोग बिल्कुल बच्चे पैदा न करें, उनको तनख्वाह में बढ़ती, सिनयारिटी, जो बिल्कुल बच्चे पैदा न करें, एक भी बच्चा पैदा न करें, उनको इज्जत, सम्मान, उनको जितनी सुविधाएं दे सकते हैं उनको सुविधाएं दी जानी चाहिए। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-08)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-07)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)

आध्यात्मिक दृष्टि

मोरार जी भाई देसाई ने कहा कि गांधी जी की आलोचना आर्थिक सोच-विचार करने वाले लोग करते थे, अब आध्यात्मिक लोगों ने भी इनकी आलोचना करनी शुरू कर दी है। शायद मोरार जी भाई को पता नहीं कि गांधी न तो आर्थिक व्यक्ति थे और न राजनैतिक। गांधी मूलतः आध्यात्मिक व्यक्ति थे। और इसलिए गांधी को समझने में न तो आर्थिक समझ के लोग उपयोगी हो सकते हैं और न राजनैतिक बुद्धि के लोग उपयोगी हो सकते हैं। गांधी को समझने में केवल वे ही लोग समर्थ हो सकते हैं जिनकी कोई आध्यात्मिक दृष्टि है। और जब तक गांधी पर आध्यात्मिक दृष्टि के लोग विचार नहीं करेंगे तब तक गांधी के संबंध में सत्य का उदघाटन असंभव है। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-07)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-06)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

छठवां-प्रवचन-(ओशो)

पुराने और नये का समन्वय

एक सवाल पूछा गया है, और वह सवाल वही है जो आपके प्राचार्य महोदय ने भी कहा। सरल दिखाई पड़ती है सैद्धांतिक रूप से जो बात, उसको आचरण में लाने पर तत्काल कठिनाइयां शुरू हो जाती हैं।

कठिनाइयां हैं, लेकिन असंभावनाएं नहीं हैं। डिफिकल्टीज हैं, इंपासिबिलिटीज नहीं हैं। कठिनाइयां तो होंगी हीं, क्योंकि सवाल बहुत बड़ा है। और अगर हम सोचते हों कि कोई ऐसा हल मिल जाएगा जिसमें कोई कठिनाई नहीं होगी, तो ऐसा हल कभी भी नहीं मिलेगा। कठिनाइयां हैं लेकिन कठिनाइयों से कोई सवाल हल होने से नहीं रुकता, जब तक कि असंभावनाएं न खड़ी हो जाएं।

तो एक तो मैं यह कहना चाहता हूं कि कठिनाइयां निश्चित हैं। थोड़ी नहीं, बहुत हैं। लेकिन हल की जा सकती हैं। क्योंकि कठिनाइयां ही हैं और कठिनाइयां हल करने के लिए ही होती हैं। लेकिन अगर हम कठिनाइयों को गिनती करके बैठ जाएं, घबड़ा जाएं, तो फिर एक कदम आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-06)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-05)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

भारत किस ओर?

मेरे प्रिय आत्मन्!

विदर इंडिया? भारत किस ओर? यह सवाल भारत के लिए बहुत नया है। कोई दस हजार वर्षों से भारत की दिशा सदा निश्चित रही है, उसे सोचना नहीं पड़ा है। दस हजार सालों से भारत एक अपरिवर्तित, अनचेंजिंग सोसाइटी रहा है। जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता रहा। एक स्टैग्नेंट, ठहरा हुआ समाज रहा है। जैसे कोई तालाब होता है, ठहरा हुआ, चारों तरफ से बंद, तो हम तालाब से नहीं पूछते किस ओर? उसकी कोई गति नहीं होती। नदी से पूछते हैं, किस ओर? उसकी गति होती है। भारत की जिंदगी और भारत का मनुष्य आज तक एक तालाब की भांति रहा है। उसके आस-पास यह सवाल कभी नहीं उठा, किस ओर? Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-05)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-04)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

चौथा-प्रवचन-(ओशो)

खोज की दृष्टि

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं)

यह सवाल एकदम जरूरी और महत्वपूर्ण है। यह बात ठीक है कि एक इंजीनियर के पास रोटी न हो, कपड़ा न हो, खोज की सुविधा न हो, काम न हो, तो वह क्या करे? लेकिन अगर पूरे देश के पास ही रोटी न हो, रोजी न हो, कपड़ा न हो, तो देश क्या करे? और इंजीनियर को कहां से रोटी, रोजी और कपड़ा दे?

जब हम यह बात कहते हैं कि अगर मेरे पास रोटी-रोजी-कपड़ा नहीं तो मैं कैसे कुछ करूं। तो हमें यह भी जानना चाहिए, इस पूरे मुल्क के पास भी रोजी-रोटी-कपड़ा नहीं है। ये आपको कहां से दे? Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-04)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-03)

भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

भारत की समस्याएं..कारण और निदान

मेरे प्रिय आत्मन्!

यह देश शायद अपने इतिहास के सबसे ज्यादा संकटपूर्ण समय से गुजर रहा है। संकट तो आदमी पर हमेशा रहे हैं। ऐसा तो कोई भी क्षण नहीं है जो क्राइसिस का, संकट का क्षण न हो। लेकिन जैसा संकट आज है, ठीक वैसा संकट मनुष्य के इतिहास में कभी भी नहीं था। इस संकट की कुछ नई खूबियां हैं, पहले हम उन्हें समझ लें तो आसानी होगी।

मनुष्य पर अतीत में जितने संकट थे, वे उसके अज्ञान के कारण थे। जिंदगी में बहुत कुछ था जो हमें पता नहीं था और हम परेशानी में थे। वह परेशानी एक तरह की मजबूरी थी, विवशता थी। नये संकट की खूबी यह है कि यह अज्ञान के कारण पैदा नहीं हुआ है, ज्यादा ज्ञान के कारण पैदा हुआ है। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-03)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-02)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

नये के लिए पुराने को गिराना आवश्यक

मेरे प्रिय आत्मन्!

सुना है मैंने, एक गांव में बहुत पुराना चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था कि आज गिरेगा या कल, कहना मुश्किल था। हवाएं जोर से चलती थीं तो गांव के लोग डरते थे कि चर्च गिर जाएगा। आकाश में बादल आते थे तो गांव के लोग डरते थे कि चर्च गिर जाएगा। उस चर्च में प्रार्थना करने वाले लोगों ने प्रार्थना करनी बंद कर दी थी। चर्च के संरक्षक, चर्च के ट्रस्टियों ने एक बैठक बुलाई, क्योंकि चर्च में लोगों ने आना बंद कर दिया था। और तब विचार करना जरूरी हो गया था कि चर्च नया बनाया जाए। वे ट्रस्टी भी चर्च के बाहर ही मिले। उन्होंने अपनी बैठक में चार प्रस्ताव पास किए थे। वे मैं आपसे कहना चाहता हूं। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-02)”

भारत का भविष्य-(प्रवचन-01)  

भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

पहला-प्रवचन-(ओशो)

भारत को जवान चित्त की आवश्यकता

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरु करना चाहूंगा।

सुना है मैंने कि चीन में एक बहुत बड़ा विचारक लाओत्सु पैदा हुआ। लाओत्सु के संबंध में कहा जाता है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ। यह बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है। लाओत्सु के संबंध में यह बड़ी हैरानी की बात कही जाती रही है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ। इस पर भरोसा आना मुश्किल है। मुझे भी भरोसा नहीं है। और मैं भी नहीं मानता कि कोई आदमी बूढ़ा पैदा हो सकता है। लेकिन जब मैं इस हमारे भारत के लोगों को देखता हूं तो मुझे लाओत्सु की कहानी पर भरोसा आना शुरू हो जाता है। ऐसा मालूम होता है कि हमारे देश में तो सारे लोग बूढ़े ही पैदा होते हैं। Continue reading “भारत का भविष्य-(प्रवचन-01)  “

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-74)-ओशो

संवेदनशीलता ओर आसक्ति-

प्रवचन-चौहत्ररवां 

प्रश्नसार:

1-संवेदनशील होते हुए भी विरक्त कैसे हुआ जाए?

2-आप अपने ही शरीर को ठीक क्या नहीं कर सकते?

3-स्वयं श्रम करें या आप पर सब छोड़ दें?

4-क्या सच में जीसस को पता नहीं था कि पृथ्वी गोल है?    Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-74)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-73)-ओशो

रूपांतरण का भय-

प्रवचन-तिहत्ररवां 

सारसूत्र:

100-वस्तुओं ओर विषयों का गुणधर्म ज्ञानी व अज्ञानी के लिए समान ही होता है।

ज्ञानी की महानता यह है कि वि आत्मगत भाव में बना रहता है, वस्तुओं में नहीं।

101-सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी मानो।

बहुत लोग ध्यान में उत्सुक दिखाई पड़ते हैं लेकिन वह उत्सुकता बहुत गहरी नहीं हो सकती, क्योंकि इतने थोड़े से लोग ही उससे रूपांतरित हो पाते हैं। यदि रस बहुत गहरा हो तो वह अपने आप में ही एक आग बन जाता है। वह तुम्हें रूपांतरित कर देता है। बस उस गहन रस के कारण ही तुम बदलने लगते हो। प्राणों का एक नया केंद्र जगता है। तो इतने लोग उत्सुक दिखाई पड़ते हैं लेकिन कुछ भी नया उनमें जगता नहीं, कोई नया केंद्र जन्म नहीं लेता, किसी क्रिस्टलाइजेशन की उपलब्धि नहीं होती। वे वैसे के वैसे ही बने रहते हैं। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-73)-ओशो”

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)

प्रेम है द्वार प्रभु का

मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण निरंतर ही परमात्मा को पाने के लिए आतुर हैं। लेकिन किस परमात्मा को, कैसे परमात्मा को? उसका कोई अनुभव, उसका कोई आकार, उसकी कोई दिशा मनुष्य को ज्ञात नहीं है। सिर्फ एक छोटा सा अनुभव है जो मनुष्य को ज्ञात है और जो परमात्मा की झलक दे सकता है। वह अनुभव प्रेम का अनुभव है। और जिसके जीवन में प्रेम की कोई झलक नहीं है उसके जीवन में परमात्मा के आने की संभावना नहीं है। न तो प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंचा सकती हैं, न धर्मशास्त्र पहुंचा सकते हैं, न मंदिर, मस्जिद पहुंचा सकते हैं, न कोई संगठन हिंदू और मुसलमानों के, ईसाइयों के, पारसियों के पहुंचा सकते हैं। Continue reading “प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-07)”

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(ओशो)

अहंकार

एक पूर्णिमा की रात में एक छोटे से गांव में, एक बड़ी अदभुत घटना घट गई। कुछ जवान लड़कों ने शराबखाने में जाकर शराब पी ली और जब वे शराब के नशे में मदमस्त हो गए और शराब गृह से बाहर निकले तो चांद की बरसती हुई चांदनी में यह ख्याल आ गया कि नदी पर जाए और नौका विहार करें। रात बड़ी सुंदर थी और नशे से भरी हुई थी। वे गीत गाते हुए नदी के किनारे पहुंच गए। नाव वहां बंधी थी। मछुवे नाव बांध कर घर जा चुके थे। रात आधी हो गयी थी। सुबह की ठंडी हवाओं ने उन्हें सचेत किया। उनका नशा कुछ कम हुआ और उन्होंने सोचा कि हम न मालूम कितने दूर निकल आए हैं। आधी रात से हम नाव चला रहे हैं, न मालूम किनारे और गांव से कितने दूर आ गए हैं। उनमें से एक ने सोचा कि उचित है कि नीचे उत्तर कर देख लें कि हम किस दिशा में आ गए हैं। लेकिन नशे में जो चलते हैं उन्हें दिशा का कोई भी पता नहीं होता है कि हम कहां पहुंच गए हैं और किस जगह हैं। उन्होंने सोचा जब तब हम इसे न समझ लें तब तक हम वापस भी कैसे लौटेंगे। और फिर सुबह होने के करीब है, गांव के लोग चिंतित हो जाएंगे। Continue reading “प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-06)”

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

अंतर्यात्रा के सूत्र

परमात्मा को जानने के पहले स्वयं को जानना जरूरी है। और सत्य को जानने के पहले स्वयं को पहचानना जरूरी है। क्योंकि जो मेरे निकटतम है, अगर वही अपरिचित है तो जो दूरतम हैं, वह कैसे परिचित हो सकेंगे! तो इसके पहले कि किसी मंदिर में परमात्मा को खोजने जाए, इसके पहले कि किसी सत्य की तलाश में शास्त्रों में भटकें उस व्यक्ति को मत भूल जाना जो कि आप हैं। सबसे पहले और सबसे प्रथम उससे परिचित होना होगा जो कि आप हैं। लेकिन कोई स्वयं से परिचित होने को उत्सुक नहीं है। सभी लोग दूसरे से परिचित होना चाहते हैं। दूसरे से जो परिचय है, वही विज्ञान है, और स्वयं से जो परिचय है, वही धर्म है। जो स्वयं को जान लेता है, बड़े आश्चर्य की बात है, वह दूसरे को भी जान लेता है। लेकिन जो दूसरे को जानने में समय व्यतीत करता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है, दूसरे को तो जान ही नहीं पाता, धीरे-धीरे उसके स्वयं को जानने के क्षार भी बंद हो जाते हैं। ज्ञान की पहली किरण स्वयं से प्रकट होती है और धीरे-धीरे सब पर फैल जाती है। ज्ञान की पहली ज्योति स्वयं में जलती है और फिर समस्त जीवन में उसका प्रकाश, उसका आलोक दिखाई पड़ने लगता है।   Continue reading “प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-05)”

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(ओशो)

महायुद्ध या महाक्रांति

मनुष्य की आज तक की सारी ताकत जीने में नहीं, मरने और मारने में लगी है। पिछले महायुद्ध में पांच करोड़ की हत्या हुई। पहले महायुद्ध में कोई साढ़े तीन करोड़ लोग मारे गए। थोड़े से ही बरसों में साढ़े आठ करोड़ लोग हमने मारे हैं। लेकिन शायद मनुष्य को इससे कोई सोच विचार पैदा नहीं हुआ। हर युद्ध के बाद और नये युद्ध के लिए हमने तैयारियां की हैं। इससे यह साफ है कि कोई भी युद्ध हमें यह दिखाने में समर्थ नहीं हो पाया है कि युद्ध व्यर्थ हैं। पांच हजार वर्षों में सारी जमीन पर पंद्रह हजार युद्ध लड़े गए हैं। पांच हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध बहुत बड़ी संख्या है यानी तीन प्रति वर्ष हम करीब-करीब लड़ते ही रहे हैं। कोई अगर पांच हजार वर्षों का हिसाब लगाए तो मुश्किल से तीन सौ वर्ष ऐसे हैं जब लड़ाई नहीं हुई। यह भी इकट्ठे नहीं, एक-एक, दो-दो दिन जोड़कर। तीन सौ वर्ष छोड़कर हम पूरे वक्त लड़ते रहे हैं। Continue reading “प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-04)”

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

आनंद खोज की सम्यक दिशा

अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि जीवन में सत्य को पाने की क्या जरूरत है? जीवन इतना छोटा है उसमें सत्य को पाने का श्रम क्यों उठाया जाए? जब सिनेमा देख कर और संगीत सुन कर ही आनंद उपलब्ध हो सकता है, तो जीवन को ऐसे ही बिता देने में क्या भूल है?

यह प्रश्न इसलिए उठता है, क्योंकि हमें शायद लगता है कि सत्य और अलग अलग हैं। लेकिन नहीं, सत्य और आनंद दो बातें नहीं हैं। जीवन में सत्य उपलब्ध हो तो ही आनंद उपलब्ध होता है। परमात्मा उपलब्ध हो तो ही आनंद उपलब्ध होता है। आनंद, सत्य या परमात्मा एक ही बात को व्यक्ति करने के अलग अलग तरीके हैं। तब इस भांति न सोचें कि सत्य की क्या जरूरत है? Continue reading “प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-03)”

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

जीवन की कला

मैं अत्यंत आनंदित हूं। छोटे छोटे बच्चों के बीच बोलना अत्यंत आनंदपूर्ण होता है। एक अर्थ में अत्यंत सृजनात्मक होता है। बूढ़ों के बीच मुझे बोलना इतना सुखद प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उनमें साहस की कमी होती है, जिसके कारण उनके जीवन में क्रांति होना करीब करीब असंभव है। छोटे बच्चों में तो साहस अभी जन्म लेने को होता है। इसलिए उनके साहस को पुकारा जा सकता है और उनसे आशा भी बांधी जा सकती है। एक बिल्कुल ही नई मनुष्यता की जरूरत है। शायद उस दिशा में तुम्हें प्रेरित कर सकूं इसलिए मैं खुश हूं।

मैं थोड़ी सी बातें बच्चों से कहना चाहूंगा, कुछ अध्यापकों से और कुछ अभिभावकों से जो यहां मौजूद हैं, क्योंकि शिक्षा इन तीनों पर ही निर्भर होती है। Continue reading “प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-02)”

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