तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-10

तंत्रा-विजन—(भाग-एक)

दसवां—प्रवचन—(हिंगल डे जिबिटी डांगली जी)

दिनांक-30 मार्च 1977

पहला प्रश्न: यह प्रभा का प्रश्न है: प्रिय ओशो, हिंगल डे जे, विपिटी डांग जांग—डो रन नन, डे जुन बुंग।

हिंगल डे जिबिटी डांगली जी?  

     यह अत्यंत सुंदर है, प्रभा! यह सौन्दर्य पूर्ण है। यह बहुत बढियां है, बच्ची। मैं तुम्हें स्थिर बुद्धि बनाए जा रहा हूं। बस एक कदम और…और संबोधि

दूसरा प्रश्न: क्या प्रार्थना उपयोगी है? यदि हां, तो मुझे सिखादें कि कैसे करूं। मेरा तात्पर्य है, प्रार्थना ईश्वर के प्रेम को प्राप्त करने के लिए, उसके प्रसाद को अनुभव करने के लिए।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-09

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision—(सरहा के गीत)-भाग-पहला

नौवां—प्रवचन—(अपने में थिर निष्कलंक मन)

दिनांक-29 मार्च 1977 ओशो आश्रम पूना)  

सुत्र:

जब (शिशिर में) छेड़ता है निश्चल जल को समीर

बन हिम ग्रहण कर लेता है वह

आकृति और बनावट किसी चट्टान सी

जब होता मन व्यथित है व्याख्यात्म विचारों से

जो अभी तक था एक अनाकृत सौम्य सा

बन वही जाता है कितना ठोस और कठोर।

अपने में थिर निष्कलंक मन कभी नहीं होगा दूषित

संसार या निर्वाण की अपवित्रताओं से भी

कीचड़ में पड़ा एक कीमती रतन ज्यों

चमकेगा नही यद्यपि है उसमें कांति।

ज्ञान चमकता नहीं है अंधकार में,

पर अंधकार जब होता है प्रकाशित,

पीड़ा अदृश्य हो जाती है(तुरंत)

शाखाएं-प्रशाखएं उग आती है बीज से

पुष्प पल्वित होते नुतपात शाखाओं से।

जो कोई भी सोचता-विचारा है

मन को एक या अनेक, फेंक देता है

वह प्रकाश को और प्रवेश करता है संसार में

जो चलता है (प्रचण्ड) अग्नि मे खुली आंख

तब किस और होगी करूण की आवश्यकता अधिक।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-08

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision—(सरहा के गीत)-भाग-पहला

(आठवां—प्रवचन) प्रेम के प्रति सच्चे रहो

दिनांक-28 मार्च 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

सुत्र:

पहला प्रश्न: ओशो, मैं एक मेढक हूं: मैं जानता हूं कि मैं एक मेढक हूं, क्योंकि मैं धुंधले, गहरे पानी में तैरना और चिपचिपी कीचड़ में उछलना-कूदना पसंद करता हूं। और यह मधु क्या होता है? यदि एक मेढक अस्तित्व की एक अनादृत दशा में हो सके, क्या वह एक मधुमक्खी बन जाएगा?

निश्चय ही! मधुमक्खी बन जाना हर किसी की संभावना है। हर कोई मधुमक्खी हो जाने में विकसित हो सकता है। एक अनावृत, जीवंत, स्वस्फूर्त जीवन, क्षण-क्षण वाला जीवन, इसका द्वार है, इसकी कुंजी है। यदि कोई ऐसा जी सके कि वह जीना अतीत से न हो, तब वह मधुमक्खी है, और तब चारों तरफ मधु ही मधु है।

‘मेढक’ से सराह का तात्पर्य एक ऐसे व्यक्ति से है जो अतीत से जीता है, जो अपनी अतीत की स्मृतियों के पिंजड़े में कैद रहता है। जब तुम अतीत में जीते हो, तुम बस जीने का आभास मात्र देता है। वास्तव में तुम जीते नहीं हो। जब तुम अतीत में जीते हो, तुम एक यंत्र की भांति जीते हो। एक मनुष्य की भांति नहीं। जब तुम अतीत से जीते हो, यह जीना एक पुनरावृति होता है। एक नीरस पुनरावृति–तुम जीवन और अस्तित्व के आह्लाद से, आनंद से चूक रहे होते हो। वहीं तो ‘मधु’ है: जीवन का आनंद, बस यहां-अभी होने का माधुर्य, बस होने में समर्थ हो पाने की मधुरता। वह आनंद ही मधु है…और चारों तरफ लाखों फूल खिल रहे हैं। सारा अस्तित्व फूलों से भरा है।

मैं जानता हूं कि किसी मेढक को यह बात समझा पाना कठिन है। प्रश्न सही है: ‘और यह मधु क्या होता है?’ मेढक ने इसके विषय में कभी जाना नहीं होता। और वह ठीक उसी पौधे की जड़ के समीप रहता है, जहां कि फूल खिलते हैं, और मक्कियाँ मधु एकत्रित करती है, पर वह कभी उस आयाम में गया ही नहीं है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-07

तंत्रा-विजन-(सरहा के गीत)-भाग-पहला

सातवां प्रवचन-(सत्य न पवित्र है न अपवित्र)

(दिनांक 27 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

सूत्र:

यह है प्रारंभ में, मध्य में, और अंत में

फिर भी अंत व प्रारंभ हैं नहीं और कहीं

जिनके मन भ्रमित हैं, व्याख्यात्मक विचारों से

वह सब हैं दुविधा में, इसीलिए

शून्य और करूणा को वे दो समझते है।

मधु-मक्खियां जानती है, मधु मिलेगा फूलों में

कि नहीं हैं दो, संसार और निर्वाण

भ्रमित लोग समझेंगे पर कैसे यह

भ्रमित कोई जब झांकते हैं किसी दर्पण में

प्रतिविम्ब नहीं, देखते हैं, वे एक चेहरा

वैसे ही जिस मन ने सत्य को नकारा हो

भरोसा वह करता है उस पर जो नहीं है सत्य

यद्यपि छू सकता नहीं कोई सुगंध फूलों की

है यह सर्वव्यापी और एकदम अनुभवगम्य

वैसे ही अनाकृत मन स्वतः

पहचान जाते हैं रहस्यपूर्ण वृतों की गोलाई को

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-06

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत)-भाग-पहला  

छठवां—प्रवचन (मैं एक विध्वंसक हूं)  

(दिनांक 26 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

पहला प्रश्न: ओशो, मैंने इधर हाल ही में संबोधि के विषय में दिव्य-स्वप्न देखने शुरू किए हैं, जो कि प्रेम व प्रसिद्धि के दिव्य-स्वप्नों से भी अधिक मनोरम हैं। क्या आप दिव्य-स्वप्न देखने के ऊपर कुछ कहेंगे?

यह प्रश्न प्रेम पंकज का है। जहां तक प्रेम और प्रसिद्धि का संबंध है, दिव्य-स्वप्न देखना पूर्णता सही है–वे स्वप्न-संसार के ही अंग है। तुम जितने चाहो स्वप्न देख सकते हो। प्रेम एक स्वप्न है, ऐसे ही प्रसिद्धि भी, वे स्वप्न के विपरीत नहीं हैं। सच तो यह है कि जब स्वप्न देखना बंद हो जाता है, तो वे भी गायब हो जाते है। उनका असित्व उसी आयाम में है, सपनों के आयम में।

सपना तो अंधकार की भांति है। यह तभी तक रहता है जब तक कि प्रकाश नहीं होता है। जब प्रकाश फे लता है, अंधकार बस वहां से विलीन हो जाता है, वह पल भर भी वहां रह नहीं सकता। सपना इसलिए है क्योंकि जीवन अंधकार पूर्ण, फीका और उदासीन है। सपना तो तुम्हारी एक पूरकता जैसा होता है। क्योंकि असली प्रसन्नता तो हमारे पास है ही नहीं। इसलिए उसके विषय में हम केवल सपना ही तो देख सकते है। क्योंकि सच में हमारे पास जीवन में कुछ है ही नहीं, यह सत्य हमें बड़ी पीड़ा देता है, तब इस सत्य को हम कैसे सहन कर पाएगे? यह एकदम असहनीय हो जाता है। सपने इसे सहनीय बना देते है। सपने हमारी सहायता करते है। वे हमसे कहते हैं, ‘ठहरो! जरा आज सब कुछ ठीक नहीं है? परंतु तुम चिंता मत करो, कल देखना हर चीज ठीक हो जाएगी। हर कार्य तुम्हारी सोच की तरह से होगा। बस कुछ तुम्हें प्रयत्न करना होगा, शायद अभी उतना प्रयास न किया जितना की करना चाहिए था, चलों कोई बात नहीं, तुम्हारे भाग्य ने तुम्हारा साथ न दिया होगा। कुछ परिस्थियां तुम्हारे विपरित रही होंगी। परंतु तुम घबड़ाओ मत, सदा तो ऐसा नहीं होगा। और देखना ईश्वर बड़ा करुणावान है, दयालु है, संसार के सभी धर्म कहते है कि ईश्वर बड़ा दयालु है, बड़ा करुणावान है। यह आशा की धुंधलका तुम्हें घेरे ही रहता है। तुम उससे बाहर देख ही नहीं सकते।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-05

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत) भाग-पहला

पांचवां-प्रवचन-(मनुष्य एक कल्पना है)

(दिनांक 25 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

सूत्र:

सड़े मांस की गंध पर रीझने वाली मक्खी को

चंदन की सुगंध भी, जान पडती है दुर्गंध

प्राणी जो तज देते है निर्वाण

लोलुप हो जाते हैं क्षुद्र संसारिक विषयों के

जल से भरे ताल में बैल के पदचिंह

जल्दी ही हो जाते हैं शुष्क, वैसे ही वह दृढ़ मन

जो भरपूर है उन गुणों से जो है अपूर्ण

शुष्क हो जाएंगी ये अपूर्णताएं समय पर

समुद्र का नमकीन जल जैसे हो जाता है मधुर,

जब पी लेते है मेघ उसे

वैसे ही वह स्थिर मन, काम जो करता है

औरों के हेतु बना देता है अमृत

उन एंन्द्रिक-विषयों के विष को

यदि वर्णनातित घटे, कभी नहीं रहता कोई असंतुष्ट

यदि अकल्पनिय, होगा यह स्वयं आनंद ही

यद्यपि भय होता है मेघ से तड़ित का

फसलें पकती है जब यह बरसता है जल

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-04

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत)-भाग-पहला

चौथा-प्रवचन-(प्रेम एक मृत्यु है)  

(दिनांक 24 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

पहला प्रश्न: ओशो, आप में वह सब-कुछ हैं जो मैंने चाहा था, या जो मैंने कभी चाही या मैं कभी चाह सकती थी। फिर मुझ में आपके प्रति इतना प्रतिरोध क्यों है?

शायद इसी कारण–यदि तुममें मेरे प्रति गहन प्रेम है तो गहन प्रतिरोध भी होगा। वे एक-दूसरे को संतुलित करते हैं। जहां कहीं पर प्रेम है, वहां प्रतिरोध तो होगा ही। जहां कहीं भी तुम बहुत अधिक आकर्षित होते हो, तुम उस स्थान से, उस जगह से भाग जाना भी चाहोगे–क्योंकि अत्यधिक आकर्षित होने का अर्थ है कि तुम अतल गहराई में गिरोगे, जो तुम स्वयं हो वह फिर न रह सकोगे।

प्रेम खतरनाक है। प्रेम एक मृत्यु है। यह स्वयं मृत्यु से भी बड़ा घातक है, क्योंकि मृत्यु के बाद तो तुम बचते हो लेकिन प्रेम के बाद तुम नहीं बचते। हां, कोई होता है परंतु वह दूसरा ही होता है, आपमें कुछ नया पैदा होता है। परंतु तुम तो चले गए इसलिए भय है।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-03

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के राजगीत) (भाग-एक)

तीसरा प्रवचन—(मधु तुम्हारा है)  

(दिनांक 23 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।)  

एक मेध की तरह, जो उठता है समुंद्र से

अपने भीतर समाएं वर्षा को,

करती हो आलिंगन घरती जिसका,

वैसे ही, आकाश की भांति

समुंद्र भी उतना ही रहता है,

न बढ़ता, न घटता है।

अतः, उस स्वच्छंदता से जो कि है अद्वितीय

बुद्ध की पूर्णमाओं से भरपूर

जन्मती हैं चेतनाएं सभी

और आती है विश्राम हेतु वहीं

पर यह साकार है न निराकार है

वे करते हैं विचरण अन्य मार्गों पर

और गंवा बैठते हैं सच्चे आनंद को

उद्धीपक जो निर्मित करते है, खोज में उन सुखों की

मधु है उसके मुख में, इतना समीप…

पर हो जाएंगा अदृश्य, यदि तुरंत ही न करले वे उसका पान

पशु नहीं समझ पाते कि संसार है दुख,

पर समझते हैं वे विद्वान तो

जो पीते हैं इस स्वर्मिक अमृत को

जबकि पशु भटकते फिरते हैं

एंद्रिंक सुखों के लिए 

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision -भाग-01)-प्रवचन-02

तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision: (सरहा के गीत) भाग-पहला

दूसरा प्रवचन-The goose is out!-(हंस बाहर है)

(दिनांक 22 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 

प्रश्नचर्चा-

पहला प्रश्न: ओशो, शिव का मार्ग भाव का है, हृदय का है। भाव को रूपांतरित करना है। प्रेम को रूपांतरित करना है ताकि यह प्रार्थना हो जाए। शिव के मार्ग में तो भक्त और मूर्ति रहते हैं, भक्त और भगवान रहते हैं। आत्यंतिक शिखर पर वे दोनों एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं। इसे ध्यान से सून लो: जब शिव का तंत्र अपने आत्यंतिक आवेग में पहुंचता है, ‘मैं’ ‘तू’ में विलीन हो जाता है, और ‘तू- मैं’ में विलीन हो जाता है–वे साथ-साथ होते हैं, वे एक इकाई हो जाते हैं।

जब सरहा का तंत्र अपने आत्यंतिक शिखर पर पहुंचता है, तब यह पता चलता है: न तुम हो, न तुम सत्य हो, न तुम्हारा अस्तित्व है, न तुम सही हो, न तुम्हारा अस्तित्व है, और न ही मेरा, दोनों ही वहां विलीन हो जाते हैं। दो शून्य मिलते हैं–मैं नही, तू नहीं, न तू न मैं। दो शून्य, दो रिक्त आकाश एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि सरहा के मार्ग पर सारा प्रयास यही है, कि विचार को कैसे विलीन किया जाए, और मैं और तू दोनों विचार के ही अंग हैं।

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तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision -भाग-01)-प्रवचन-01

तंत्रा-विजन-(सरहा के गीत)-भाग-पहला

पहला-प्रवचन–(One whose arrow is shot) (जिसका एक तीर नीशाने पर)

(सरहा के पदों पर दिए गए ओशो के अंग्रेजी प्रवचनों का दिनांक 21 अप्रैल, 1977 ओशो सभागार, पूना में दिये गए बीस अमृत प्रवचनों में से पहले दस प्रवचनों तथा उसके शिष्यों द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के उत्तरों का हिंदी अनुवाद)

सूत्र:

महान मंजुश्री को मेरा प्रणाम,

प्रणाम हैं उन्हें

जिन्होंने किया सीमित को अधीन

जैसे पवन के आघात से

शांत जल में उभर आती है, उतंग तरंगें,

ऐसे ही देखते हो सरहा

अनेक रूपों में, हे राजन!

यद्यपि है वह एक ही व्यक्ति।

भेंगा है जो मूढ़

दिखते उसे एक नहीं, दो दीप,

जहां दृश्य और द्रष्टा नहीं दो,

अहा! मन करता संचालन

दोनों ही पदार्थगत सत्ता का।

गृहदीप यद्यपि प्रज्वलित,  जीते अंधेरे में नेत्रहिन,

सहजता से परिव्याप्त सभी,

निकट वह सभी के,

पर रहती सब परे मोहग्रस्त के लिए।

सहजता से परिव्याप्त सभी, निकट वह सभी के,

पर रहती सदा परे मोहग्रस्त के लिए।

सरिताएं हो अनेक, यद्यपि,

सागर मे मिल होती है एक,

हों झूठ अनेक परंतु

होगा सत्य एक, विजयी सभी पर।

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