सत्य की प्यास-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-अभय

मेरे प्रिय आत्मन्!

सत्य की खोज में पिछले तीन दिनों से कौन सी भूमिकाएं आवश्यक हैं, कौन सी शर्त पूरी करनी होगी, स्वतंत्रता, सरलता और शून्यता की तीन सीढ़ियों पर मैंने आपसे बात की। इस संबंध में बहुत से प्रश्न उठे हैं, कुछ प्रश्नों पर भी मैंने अपना विचार आपको कहा। अभी भी बहुत से प्रश्न बाकी हैं, उनमें से कुछ पर अभी आपसे चर्चा करूंगा।

मनुष्य का चित्त स्वतंत्र न हो, तो सत्य को कभी भी नहीं जान सकता है। इस संबंध में ही बहुत से प्रश्न आए हैं।

हमारी सोचने की जो गुलाम पद्धति है, सोचने का जो परतंत्र रास्ता है, हर चीज के लिए दूसरे की तरफ देखने की जो आदत है, उसके कारण ही ये सारे प्रश्न उठते हैं। मनुष्य साधारणतः उधार विचारों पर जीता है। बारोड, दूसरों से लिए हुए विचारों पर जीता है। उसके अपने कोई विचार नहीं होते, उसकी अपनी कोई मौलिक चिंतना नहीं होती। Continue reading “सत्य की प्यास-(प्रवचन-06)”

सत्य की प्यास-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-शून्यता

मेरे प्रिय आत्मन्!

सत्य की खोज में स्वतंत्रता और सरलता के दो अनिवार्य भूमिकाओं के बाबत थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं और आज शून्यता के संबंध में कुछ कहूंगा।

चित्त सरल हो, स्वतंत्र हो और शून्य हो तो ही उसे जाना जा सकता है जो जीवन का गूढ़तम रहस्य है। चाहे उसे परमात्मा कहें, चाहे कोई और नाम दें। शून्यता की दिशा में सबसे पहला चरण हैः न जानने की भाव-दशा, स्टेट ऑफ नॉट नोइंग। हम सभी जानते हुए मालूम होते हैं। हम सभी को यह भ्रम है कि हम जीवन को जानते हैं। जन्म ले लेने से कोई जीवन को जानता नहीं। और न ही श्वास ले लेने से कोई जीवन को जान लेता है। लेकिन जन्म के कारण श्वास चलती है इस वजह से, भूख लगती है, प्यास लगती है इस वजह से यदि हम सोच लेते हों कि हमने जीवन को जान लिया है तो हम भ्रांति में हैं। Continue reading “सत्य की प्यास-(प्रवचन-05)”

सत्य की प्यास-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

आत्म-विस्मरण नहीं, आत्म-स्मरण

मेरे प्रिय आत्मन्!

बहुत से प्रश्न मेरे सामने हैं, अभी तीन प्रश्न रखे गए हैं, इन तीन पर मैं पहले अपना विचार आपके सामने रखूं और फिर और प्रश्नों को लूंगा। सबसे पहले सबसे अंतिम प्रश्न लेता हूं तीसरा।

 

वैज्ञानिक अपने काम में खुद को डूबा देता है, उसे जो शांति मिलती है, क्या वह वही है जिस शांति की मैं बात कर रहा हूं?

 

नहीं, वह शांति बिल्कुल वही नहीं है। कवि भी अपने काव्य के निर्माण में खुद को डूबा देता है; नृत्यकार भी नाचता है तो भूल जाता है; संगीतज्ञ भी संगीत में डूब जाता है, लेकिन यह डूबना स्वयं को जानना नहीं है। और यह शांति वस्तुतः शांति नहीं है बल्कि केवल जीवन के दुख का विस्मरण है। यह एक मूर्च्छा है, ज्ञान नहीं। Continue reading “सत्य की प्यास-(प्रवचन-04)”

सत्य की प्यास-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-सरलता

मेरे प्रिय आत्मन्!

सत्य की खोज में या परमात्मा की खोज में स्वतंत्रता पहली शर्त है, इस संबंध में कल मैंने आपसे थोड़ी बातें कहीं। लेकिन स्वतंत्रता, स्वतंत्रता चिल्लाने से कुछ भी हल नहीं होता है। और सत्य की खोज में चले हुए लोग स्वतंत्रता की बातें करते हुए भी प्रतीत होते हों तो भी अपने ही हाथों से अपने ऊपर बंधन निर्मित करते चले जाते हैं।

एक तो ऐसी गुलामी होती है जो दूसरे हमारे ऊपर थोप देते हैं; एक ऐसी भी गुलामी होती है जिसे हम खुद अपने ऊपर थोप लेते हैं। वह गुलामी बहुत खतरनाक नहीं होती जो दूसरे हमारे ऊपर थोप दें; खतरनाक तो वही गुलामी होती है जिसे हम अपने हाथों से निर्मित करते हैं। क्योंकि जिसे हम खुद बनाते हैं उसे मिटाने में डर लगने लगता है, मिटाने में मोह होने लगता है और भय लगने लगता है। Continue reading “सत्य की प्यास-(प्रवचन-03)”

सत्य की प्यास-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

प्रार्थना का अर्थ

मेरे प्रिय आत्मन्!

सत्य की खोज में स्वतंत्रता से बड़ी और कोई भूमिका नहीं है। जिसका मन परतंत्र है, जिसका मन गुलाम है, वह सत्य के दर्शन को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता। और मन की गुलामी बहुत प्रकार की है। मन की दासता बहुत प्रकार की है। हमें ख्याल भी नहीं है कि मन कितने प्रकार से परतंत्र है। कितने-कितने रूपों में परतंत्रता की जड़ियों में मन बंधा है। इसका हमें ख्याल भी नहीं है। सुबह मैंने थोड़ी सी बातें इस संबंध में कही हैं एक बात को स्पष्ट करके, जो प्रश्न आए हैं उनके उत्तर दूंगा। सबसे पहले तो यह समझ लेना जरूरी है कि मन की गुलामी क्या है। हो सकता है, और ऐसा बताया गया है हजारों वर्षों से, जिस बात को मैं मन की गुलामी कहता हूं उसी बात को बहुत से लोग ज्ञान समझते रहे हैं और बताते रहे हैं।

तो जब मैं कहता हूं ज्ञान को छोड़ दें, तो बहुत से प्रश्न आए हैं कि ज्ञान को छोड़ देंगे तब क्या होगा? तब तो हमारा सहारा छूट जाएगा। तब तो हम भटक जाएंगे, तब तो मार्ग खो जाएगा। Continue reading “सत्य की प्यास-(प्रवचन-02)”

सत्य की प्यास-(प्रवचन-01) 

सत्य की प्यास-(विविध)

पहला प्रवचन

स्वतंत्रता–विचार की, विवेक की

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा को शुरू करना चाहूंगा।

बहुत वर्षों पहले की बात है, एक बूढ़ा व्यक्ति अंधा हो गया, उसकी आंखें चली गईं। उसकी उम्र सत्तर को पार कर चुकी थी। उसके आठ लड़के थे, आठ लड़कों की बहुएं थीं, पत्नी थी। उसके मित्रों ने, उसके परिवार के लोगों ने समझाया, आंखों का इलाज करवा लें। लेकिन उस बूढ़े आदमी ने कहा कि अब मेरी आंखों का उपयोग भी क्या, बूढ़ा हो गया हूं। फिर मेरे आठ लड़के हैं, उनकी सोलह आंखें हैं; मेरी आठ बहुएं हैं, उनकी सोलह आंखें हैं; मेरी पत्नी है; ऐसा मेरे घर में चौंतीस आंखें हैं। क्या चौंतीस आंखों से मेरा काम नहीं चल सकेगा? और मेरी दो आंखें न भी हुईं तो फर्क क्या पड़ता है! Continue reading “सत्य की प्यास-(प्रवचन-01) “

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