निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-15

पंद्रहवां—प्रवचन

निर्वाण रहस्‍य अर्थात स्‍म्‍यक संन्‍यास, ब्रह्म जैसी चर्या और सर्व देहनाश

ब्रह्मचर्य शांति संग्रहणम्।

ब्रह्मचर्याश्रमैऽधीत्य वानप्रस्थाश्रमेऽधीत्य स सर्वविन्यासं संन्यासम्।

अते ब्रह्माखंडाकारम् नित्यं सर्व देहनाशनम्।

एतन्निर्वाणदर्शन शिष्य विना पुत्र विना न देयम।

              इत्युपनिषत्।

ब्रह्मचर्य और शांति जिनकी संपत्ति या संग्रह है।

ब्रह्मचर्याश्रम में, फिर वानप्रस्थाश्रम में अध्ययन से फलित सर्व त्याग ही संन्यास है।

            अंत में जहां समस्त शरीरों का नाश हो जाता है Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-15”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-14

चौदहवां प्रवचन

भ्रांति भंजन,कामादि वृत्‍ति दहन, अनाहत मंत्र और अक्रिया में प्रतिष्‍ठा

निस्त्रैगुण्य स्वरूपानुसंधानम् समय भ्रांति हरणम्।

                        कामादि वृत्ति दहनम्।

                        काठिन्य दृढ़ कौपीनम्।

                           चिराजिनवास:।

                   अनाहत मंत्रम् अक्रिययैव जुष्टम्।

                    स्वेच्छाचार स्वस्वभावो मोक्ष:।

                              इति स्मृते:।

                        परब्रह्म प्लव वदाचरणम्।

त्रयगुणरहित स्वरूप के अनुसंधान में तथा भ्रांति के भंजन में समय व्यतीत करना।

                  कामवासना आदि वृत्तियों का दहन करना। Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-14”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-13

तेरहवां—प्रवचन

असार बोध, अहं विसर्जन और तुरीय तक यात्रा—चैतन्‍य और साक्षीत्‍व से

शिवम्तुरीयं यज्ञोपवीतं तन्‍यता शिखा।

                चिन्‍मयं चौत्‍सृष्‍टिदंड्म संतताक्षि कमंडलूम।

                        कर्म निर्मूलनं कन्‍था।

                मायाममताहकार दहन श्मशाने अनाहतागी।

तुरीय ब्रह्म उनका यज्ञोपवीत है और वही शिखा है।

      चैतन्यमय होकर संसार—त्याग ही दंड है, ब्रह्म का नित्य दर्शन कमंडलु है।

            और कर्मों का निर्मूल कर डालना कन्धा है। Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-13”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-12

बारहवां—प्रवचन

 सम्‍यक त्‍याग, निर्मल शक्‍ति और परम अनुशासन मुक्‍ति में प्रवेश

भय मोह शोक क्रोध त्‍यागस्‍त्‍याग:।

                       परावरैक्य रसास्वादनम्।

                     अनियामकत्व निर्मल शक्ति:।

            स्वप्रकाश ब्रह्मतत्त्वे शिवशक्ति समुटित प्रपंचच्छेदनम्।

                  तथा पत्राक्षाक्षिक कमंडलु: भावाभावदहनम्।

                        विम्रत्याकाशाधारम्।

भय, मोह, शोक और क्रोध का छोडना, यही उनका त्याग है।

            परब्रह्म के साथ एकता के रस का स्वाद ही वे लेते हैं। Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-12”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-11

ग्‍यारहवां—प्रवचन

अंतर—आकाश में उड़ान, स्‍वतंत्रता का दायित्‍व और शक्‍तियां प्रभु—मिलन की और

पांडरगगनम् महासिद्धांत:।

 शमदमादि दिव्यशक्लाचरणे क्षेत्र पात्र पटुता।

 परात्पर संयोग: तारकौपदेश:।

 अद्वैतसदानंदो देवता नियम:।

 स्वान्तरिन्द्रिय निग्रह:।

शुद्ध परमात्मा उनका आकाश है। यही महासिद्धांत है।

            शम—दम आदि दिव्य शक्तियों के आचरण में क्षेत्र और

                  पात्र का अनुसरण करना ही चतुराई है।

                  परात्पर से संयोग ही उनका तारक उपदेश है। Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-11”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-10

दसवां—प्रवचन

आनंद और आलोक की अभीप्‍सा, उन्‍मनी गति और परमात्‍मा–आलंबन

योगेनसदानदस्वरूप दर्शनम्।

आनंद भिक्षाशी।

महाश्मशानेऽप्यानंद वने वास:।

एकांतस्थान मठम्।

उनमन्यवस्था शारदा चेष्टा।

उन्मनी गति:।

निर्मलगात्रम् निरालंब पीठम्।

अमृतकल्लोलानंद क्रिया।

        योग द्वारा वे सदैव आनंद—स्वरूप का दर्शन करते हैं।

                  आनंद—रूप भिक्षा का भोजन करते हैं।

         महाश्मशान में भी आनंददायक वन के समान निवास करते हैं। Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-10”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-09

नौवां—प्रवचन

साधक के लिए शून्‍यता, सत्‍य योग, अजपा गायत्री और विकार—मुक्‍ति का महत्‍व

शून्यं न संकेत:।

परमेश्वर सत्

सत्यसिद्धयोगो मठ:।

अमरपदं न तत् स्वरूपम्।

आदिब्रह्म स्व—संवित्।

अजपागायत्री विकारदंडो ध्येय:।

मनोनिरोधिनी कन्‍था।

                        शून्य संकेत नहीं है।

                        परमेश्वर की सत्ता है।

            सच्चा और सिद्ध हुआ योग (संन्यासी का ) मठ है।

               उस आत्मस्वरूप के बिना अमरपद नहीं है।

                        आदि ब्रह्म स्व—चेतन है। Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-09”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-08

आठवां—प्रवचन

स्‍वप्‍न—सर्जन मना विसर्जन और नित्‍य सत्‍य की उपलब्‍धि

अनित्यं ज्जगद्यज्जनित स्वप्‍न  जगअगजादि तुल्यम

तथा देहादि संघातम् मोह गणजाल कलितम्।

तद्रब्यूस्वप्‍न वत् कल्पितम्।

विष्णु विध्यादि शताभिधान लक्ष्यम्।

 अंकुशो मार्ग:।

जगत अनित्य है, उसमें जिसने जन्म लिया है, वह स्वप्‍न के संसार जैसा और आकाश के    हाथी जैसा मिथ्या है। वैसे ही यह देह आदि समुदाय मोह के गुणों से युक्त है। यह सब रस्सी             

में भ्रांति से कल्पित किए गए सर्प के समान मिथ्या है।

            विष्णु, ब्रह्मा आदि सैकड़ों नाम वाला ब्रह्म ही लक्ष्य है।

                        अंकुश ही मार्ग है।

स्‍वप्‍न—सर्जक मन का विसर्जन और नित्य सत्य की उपलब्धि

जगत अनित्य है।

अनित्य का अर्थ होता है, जो है भी और प्रतिक्षण नहीं भी होता रहता है। अनित्य का अर्थ नहीं होता कि जो नहीं है। जगत है, भलीभांति है। उसके होने में कोई संदेह नहीं है। क्योंकि यदि वह न हो, तो उसके मोह में, उसके भ्रम में भी पड़ जाने की कोई संभावना नहीं। और अगर वह न हो, तो उससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं।

जगत है। उसका होना वास्तविक है। लेकिन जगत नित्य नहीं है, अनित्य है। अनित्य का अर्थ है, प्रतिपल बदल जाने वाला है। अभी जो था, क्षणभर बाद वही नहीं होगा। क्षणभर भी कुछ ठहरा हुआ नहीं है।

इसलिए बुद्ध ने कहा है : जगत क्षण सत्य है। बस, क्षणभर ही सत्य रह पाता है। हेराक्लतु ने यूनान में कहा है, यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन द सेम रिवर, एक ही नदी में दो बार उतरना संभव नहीं है। नदी बही जा रही है। ठीक ऐसे ही कहा जा सकता है, यू कैन नाट लुक ट्वाइस द सेम वर्ल्ड, एक ही जगत को दोबारा नहीं देखा जा सकता। इधर पलक झपकी नहीं कि जगत दूसरा हुआ जा रहा है।

इसलिए बुद्ध ने तो बहुत अदभुत बात कही है। बुद्ध ने कहा कि है शब्द गलत है। है का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। सभी चीजें हो रही हैं। है की अवस्था में तो कोई भी नहीं है। जब हम कहते हैं, यह व्यक्ति जवान है, तो है का बड़ा गलत प्रयोग हो रहा है। बुद्ध कहते थे, यह व्यक्ति जवान हो रहा है। गति है, प्रोसेस है। स्थिति कहीं भी नहीं है। एक आदमी को हम कहते हैं, यह का है। कहने से ऐसा लगता है कि का होना कोई स्थिति है, जो ठहर गई है, स्टेगनेंट है। नहीं, बुद्ध कहते थे, यह आदमी का हो रहा है। है की कोई अवस्था ही नहीं होती। सब अवस्थाएं होने की हैं।

पहली बार जब बाइबिल का अनुवाद बर्मी भाषा में किया जा रहा था, तो बहुत कठिनाई हुई। क्योंकि बर्मी भाषा बर्मा में बौद्ध धर्म के पहुंचने के बाद धीरे—धीरे विकसित हुई है, तो बौद्ध चिंतन की जो आधारशिलाएं हैं, वे बर्मी भाषा में प्रवेश कर गईं। तो बर्मी भाषा में ‘है’ शब्द के लिए कोई ठीक—ठीक शब्द नहीं है। जो भी शब्द हैं, उनका मतलब होता है, हो रहा है। अगर कहें नदी है, तो बर्मी भाषा में उसका जो रूपांतरण होगा, वह होगा कि नदी हो रही है। और सब तो ठीक था, लेकिन बाइबिल के अनुवाद करने में ईश्वर का क्या करें? गॉड इज, ईश्वर है। बर्मी भाषा में करें, तो उसका हो जाता है कि ईश्वर हो रहा है। बड़ी अड़चन थी।

और बुद्ध कहते थे, कुछ भी नहीं है, सब हो रहा है। और ठीक कहते थे। यह वृक्ष आप देखते हैं; हम कहेंगे, वृक्ष है। जब तक आप कह रहे हैं, तब तक वृक्ष हो गया कुछ और। एक नई कोंपल निकल आई होगी। एक पुरानी कोंपल और पुरानी पड़ गई होगी। एक फूल थोड़ा और खिल गया होगा। एक गिरता फूल गिर गया होगा। जड़ों ने नए पानी की बूंदें सोख ली होंगी, पत्तों ने सूरज की नई किरणें पी ली होंगी। जब आप कहते हैं, वृक्ष है, जितनी देर आपको कहने में लगती है, उतनी देर में वृक्ष कुछ और हो गया। है जैसी कोई अवस्था जगत में नहीं है। सब हो रहा है—जस्ट ए प्रोसेस।

उपनिषद यही कह रहे हैं।

उपनिषद का ऋषि कह रहा है, जगत अनित्य है

नित्य कहते हैं उसे, जो है, सदा है। जिसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं, जिसमें कोई रूपांतरण नहीं होता। जो वैसा ही है, जैसा सदा था और वैसा ही रहेगा।

निश्चित ही, जगत ऐसा नहीं है। जगत है अनित्य। लगता है कि है, और बदला जा रहा है, भागा जा रहा है। जगत एक दौड़ है—एक गत्यात्मकता, एक क्षणभंगुरता। लेकिन भ्रांति बहुत पैदा होती है। भ्रांति बहुत पैदा होती है, सभी चीजें लगती हैं, है। शरीर लगता है, है। वह भी एक धारा है, प्रवाह है।

अगर वैज्ञानिक से पूछें, तो वह कहता है, सात साल में आपके शरीर में एक टुकड़ा भी नहीं बचता वही जो सात साल पहले था। सात साल में सब बह जाता है, शरीर नया हो जाता है। जो आदमी सत्तर साल जीता है, वह दस बार अपने पूरे शरीर को बदल लेता है। एक—एक सेल बदलता जाता है —प्रतिपल।

आप सोचते हैं कि आप एक दफा मरते हैं, आपका शरीर हजार दफे मर चुका होता है। एक—एक शरीर का कोष्ठ मर रहा है, निकल रहा है शरीर के बाहर। भोजन से रोज नए कोष्ठ निर्मित हो रहे हैं। पुराने कोष्ठ बाहर फेंके जा रहे हैं—मल के द्वारा, और—और मार्गों से शरीर अपने मरे हुए कोष्ठों को बाहर फेंक रहा है।

आपने खयाल नहीं किया होगा, नाखून काटते हैं, दर्द नहीं होता; बाल काटते हैं, दर्द नहीं होता। आपने खयाल नहीं किया होगा कि ये डेड पार्ट्स हैं, इसलिए दर्द नहीं होता। अगर ये शरीर के हिस्से होते, तो काटने से तकलीफ होती। ये मरे हुए हिस्से हैं।

शरीर के भीतर जो कोष्ठ मर गए हैं, उनको फेंका जा रहा है बाहर—बालों के द्वारा, नाखूनों के द्वारा, मल के द्वारा, पसीने के द्वारा। प्रतिपल शरीर अपने मरे हुए हिस्सों को बाहर फेंक रहा है और भोजन के द्वारा नए हिस्सों को जीवन दे रहा है। शरीर एक सरिता है, लेकिन भ्रम तो यह पैदा होता है कि शरीर है।

आज से तीन सौ साल पहले तक पता भी नहीं था कि शरीर के भीतर खून गति करता है। तीन सौ साल पहले तक खयाल था कि शरीर के भीतर खून भरा हुआ है। क्योंकि शरीर के भीतर जो खून की गति है, उसका हमें पता तो चलता ही नहीं। और शरीर में खून नदी की तेज धार की तरह चल रहा है। जो आपके पैर में था, वह क्षणभर बाद आपके सिर में पहुंच जाता है। तीव्र परिभ्रमण चल रहा है खून का। उस परिभ्रमण का भी उपयोग यही है कि वह आपके मरे हुए सेल्स को शरीर के बाहर निकालने के लिए स्रोत का काम करता है, धारा का काम करता है। वह मरे हुए हिस्सों को बाहर फेंकने की कोशिश में लगा रहता है।

इस जगत में भ्रांति भर पैदा होती है कि चीजें हैं। इस जगत में कोई चीज क्षणभर भी वही नहीं है, जो थी। सब बदला चला जा रहा है। इस परिवर्तन को ऋषि ने कहा है, अनित्यता।

इस अनित्यता को कहने का कारण है, क्योंकि अगर हमें यह स्मरण आ जाए कि जगत का स्वभाव ही अनित्य है, तो हम जगत में कोई भी ठहरा हुआ मोह निर्मित न करें। अगर जगत का स्वभाव ही अनित्य है, अगर सब चीजें बदल ही जाती हैं, तो हम आग्रह छोड़ देंगे चीजों को ठहराए रखने का। जवान फिर यह आग्रह न करेगा कि मैं जवान ही बना रहूं, क्योंकि यह असंभव है। यह हो ही नहीं सकता। असल में जवानी सिर्फ के होने की तरफ एक रास्ता है, और कुछ नहीं। जवानी सिर्फ बूढ़े होने की कोशिश है, और कुछ भी नहीं। जवानी बुढ़ापे के विपरीत नहीं, उसी की धारा का अंग है। दो कदम पहले की धारा है, बुढ़ापा दो कदम बाद की। उसी सरिता में जवानी का घाट भी आता है, उसी सरिता में बुढ़ापे का घाट भी आ जाता है।

अगर हमें यह खयाल में आ जाए कि इस जगत में सभी चीजें प्रतिपल मर रही हैं, तो हम जीने का जो आग्रह है पागल, वह भी छोड़ दें। क्योंकि जिसे हम जन्म कहते हैं, वह मृत्यु का पहला कदम है। असल में जिसे मरना नहीं है, उसे जन्मना नहीं चाहिए। उसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। जन्मे, कि मरेंगे। जन्मे, उसी दिन मरने की यात्रा शुरू हो गई। द फस्ट स्टेप हैज बीन टेकन। जन्म मृत्यु का पहला कदम है, मृत्यु जन्म का आखिरी कदम है। अगर इसे प्रवाह की तरह देखेंगे, तो कठिनाई न होगी। अगर स्थितियों की तरह देखेंगे, तो जन्म अलग है, मौत अलग है। जवानी अलग है, बुढ़ापा अलग है।

लेकिन ऋषि कहता है, जगत एक अनित्य प्रवाह है। यहां जन्म भी मृत्यु से जुड़ा है और जवानी भी बुढ़ापे से जुडी है। यहां सुख दुख से जुड़ा है। यहां प्रेम घृणा से जुड़ा है। यहां मित्रता शत्रुता से जुड़ी है। और जो भी चाहता है कि चीजों को ठहरा लूं वह दुख और पीड़ा में पड़ जाता है।

आदमी की चिंता यही है कि जहा कुछ भी नहीं ठहरता, वहां वह ठहराने का आग्रह करता है। अगर मुझे यश है, तो मैं सोचता हूं मेरा यश ठहर जाए। अगर मेरे पास धन है, तो मैं सोचता हूं मेरे पास धन ठहर जाए। अगर मेरे पास जो भी है, मैं चाहता हूं वह ठहर जाए। अगर मुझे कोई प्रेम करता है, तो मैं चाहता हूं यह प्रेम चिर हो जाए। सभी प्रेमी की यही आकांक्षा  है कि प्रेम शाश्वत हो जाए। इसलिए सभी प्रेमी दुख में पड़ते हैं। क्योंकि इस जगत में कुछ भी शाश्वत नहीं हो सकता, प्रेम भी नहीं।

यहां सभी बदल जाता है। जगत का स्वभाव बदलाहट है। इसलिए जिसने भी चाहा कि कोई चीज ठहर जाए वह दुख में पड़ेगा। क्योंकि हमारी चाह से जगत नहीं चलता। जगत का अपना नियम है। वह अपने नियम से चलता है।

अब हम बैठ गए एक वृक्ष के नीचे और सोचने लगे कि यह हरी पत्ती सदा हरी रह जाए तो हम मुश्किल में पड़ेंगे, इसमें पत्ती का कोई कसूर नहीं। इसमें वृक्ष का कोई हाथ नहीं। इसमें जगत की व्यवस्था ने कुछ भी नहीं किया। हमारी चाह ही हमें दिक्कत में डाल देती है कि पत्ती सदा हरी रह जाए। पत्ती तो हरी है ही इसीलिए कि कल वह सूखेगी। उसका हरा होना सूखने की तरफ यात्रा है, सूखने की तैयारी है।

अगर हम हरी पत्ती में सूखी पत्ती को भी देख लें, तब हमें पता चलेगा कि जगत अनित्य है। अगर हम पैदा होते बच्चे में भी मरते हुए के को देख लें, तब हमें पता चलेगा कि जगत अनित्य है। अगर हम जगते हुए प्रेम में उतरता हुआ प्रेम भी देख लें, तब हमें समझ में आएगा कि जगत अनित्य है। सब चीजें ऐसी ही हैं। लेकिन हम क्षण में जीते हैं, क्षण को देख लेते हैं और उसको थिर मान लेते हैं, आगे—पीछे को भूल जाते हैं। वह आगे—पीछे को भूल जाने से बड़ा कष्ट, बड़ी चिंता पैदा होती है।

हमारी चिंता, मनुष्य की चिंता का मूल आधार यही है कि जो रुक नहीं सकता, उसे हम रोकना चाहते हैं। जो बंध नहीं सकता, उसे हम बाधना चाहते हैं। जो बच नहीं सकता, उसे हम बचाना चाहते हैं। मृत्यु जिसका स्वभाव है, उसे हम अमृत देना चाहते हैं। बस, फिर हम चिंता में पड़ते हैं। एंग्जाइटी, चिंता यही है कि मैं जिसे प्रेम करता हूं वह प्रेम कल भी ठहरेगा या नहीं! कल जिसे मैंने प्रेम किया था, वह आज बचा है कि नहीं बचा! कल जिसने मुझे आदर दिया था, वह आज भी मुझे आदर देगा कि नहीं देगा! कल जिन्होंने मुझे भला माना था, वे आज भी मुझे भला मानेंगे कि नहीं मानेंगे! बस, चिंता यही है।

इसलिए जब—जब दुनिया में पदार्थवाद का आग्रह बढ़ जाता है, तो चिंता बढ़ जाती है। पश्चिम अगर आज ज्यादा चिंतित है पूरब की बजाय, तो उसका और कोई कारण नहीं है।

पूरब में परेशानी ज्यादा है— भूख है, गरीबी है, अकाल है, बाढ़ है, सब है। पश्चिम में अकाल भी खो गया, बीमारी भी कम हो गई, उम्र भी लंबी मालूम पड़ती है, धन भी ज्यादा है, सुविधा भी है स्वास्थ्य भी है, लेकिन चिंता ज्यादा है। होना तो यही चाहिए था कि पश्चिम में चिंता कम हो जाती, पूरब में चिंता ज्यादा होती। गणित से तो यही लगता है कि ऐसा होना चाहिए था। भुखमरी नहीं रही, बीमारी नहीं रही, सुविधा हो गई। कोई आदमी काम न करे, तो भी जी सकता है।

बीस—पच्चीस साल बाद पश्चिम में कोई काम नहीं करेगा, क्योंकि सारे यंत्र आटोमेटिक हुए चले जाते हैं। और प्रत्येक मुल्क, जहां आटोमेटिक यंत्र काम करने लगेंगे, अपने विधान में यह नियम बना लेगा, जैसा हम कहते हैं कि स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है, ठीक बीस साल के भीतर पश्चिम के विधानों में, कास्टीट्यूशस में यह सूत्र आ जाएगा कि धन प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है बिना श्रम के। तो जन्मसिद्ध अधिकार होना भी चाहिए! जब धन बहुत होगा, तो उसका क्या मतलब है? और जब धन मशीनें पैदा कर देंगी, तो आदमी बिना श्रम के धन पा सके, यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार हो जाने वाला है।

लेकिन चिंता बढ़ती चली जाती है। और मैं मानता हूं जिस दिन मशीनें सारा काम ले लेंगी, उस दिन आदमी इस मुश्किल में पड़ जाएगा—कम से कम पश्चिम में—कि उस आदमी को बचाना मुश्किल हो जाएगा। कारण क्या है? कारण एक है कि पश्चिम की दृष्टि पदार्थ पर है, और वह सोचता है कि पदार्थ के जगत में घिरता मिल जाए। वह थिरता मिल नहीं सकती। वह मिल नहीं सकती, वह असंभव है।

ऋषि कहते हैं, जगत अनित्य है। इसलिए जगत में नित्य को बनाने की चेष्टा पागलपन है। अनित्यता की स्वीकृति समझ है, प्रज्ञा है। और जो व्यक्ति यह जान ले कि जगत अनित्य है, जान ले, सुनकर नहीं, पढ़कर नहीं; अनुभव की पाठशाला से सीख ले कि जगत अनित्य है..। और चारों तरफ पाठशाला खुली है। सब तरफ अनित्यता है और आदमी अदभुत है कि वह नित्य मानकर जी रहा है। कुछ भी नहीं बचता, सब बदल जाता है। फिर भी अंधापन अदभुत है। आंखें  हम बंद किए बैठे हैं। जहा चारों तरफ प्रवाह चल रहा है, वहां हम सपने संजोए बैठे हैं बीच में कि सब बच रहेगा, सब बच रहेगा। ऋषि कहता है, आंख खोलो और तथ्य को देखो।

जगत अनित्य है। उसमें जिसने जन्म लिया वह स्वप्त के संसार जैसा है

स्वप्न और जगत को साथ—साथ रखना भारतीय मनीषा की खोजों में से एक है। दुनिया में किसी ने भी कहने की ठीक—ठीक हिम्मत नहीं की है कि जगत स्वप्‍नवत है—जस्ट ए ड्रीम। कहना मुश्किल भी है। कोई भी बता सकता है कि गलत कह रहे हैं आप। एक पत्थर उठाकर आपकी खोपड़ी पर मार दे, तो पता चल जाएगा कि जगत स्वप्‍नवत नहीं है। इसके लिए कोई बहुत तर्क देने की जरूरत नहीं है। एक पत्थर उठाकर खोपड़ी पर मार देना जरूरी है कि जो आदमी कह रहा था, जगत स्वप्‍नवत है, वह लट्ठ लेकर आ जाएगा कि आप यह। खून बहने लगेगा, खोपड़ी में दर्द शुरू हो जाएगा। अगर जगत स्वप्‍नवत है, तो क्यों परेशान हो रहे हैं?

बड़े हिम्मतवर लोग थे, जिन्होंने कहा, जगत स्वप्‍नवत है। और कहा तो कुछ जानकर कहा।

दों—तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। पहली बात तो यह कि स्वप्‍नवत  जब हम किसी चीज को कहते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि जो नहीं है। यह गलत है। स्वप्न भी है—ऐज मच प्ले एनीथिग। स्वप्न भी है, स्वप्‍न का भी अस्तित्व है, स्वप्‍न एक्सिस्टेंशियल है। स्वप्न नहीं है, ऐसा नहीं, स्वप्‍न भी है। स्वप्न का भी स्थान है। स्वप्न का भी होना है। स्वप्‍न  का नान—एक्सिस्टेंस नहीं है, उसका अन—अस्तित्व नहीं है, वह भी है।

और स्वप्‍न  की एक खूबी है कि जब वह होता है, तो प्रतीत होता है कि सत्य है। स्वप्‍न  का स्वभाव है कि जब होता है, तो प्रतीत होता है कि सत्य है। कभी आपको स्वप्‍न  में पता चला कि जो मैं देख रहा हूं वह स्वप्न है? अगर किसी दिन आपको पता चल जाए, तो आप ऋषि हो गए। स्वप्न में पता चलता है कि जो मैं देख रहा हूं वह सत्य है। ही, स्वप्‍न टूट जाता है, तब पता चलता है कि वह स्वप्न था। स्वप्न के भीतर कभी पता नहीं चलता कि वह स्वप्न है। अगर पता चल जाए, तो स्वप्‍न  उसी वक्त टूट जाएगा। अगर पता चल जाए, तो स्वप्न उसी वक्त टूट जाएगा। स्वप्न के चलने की अनिवार्य शर्त यही है कि आपको पता चले कि जो आप देख रहे हैं, वह सत्य है। नहीं तो स्वप्‍न  नहीं चल सकता। स्वप्न का प्राण इसमें है कि जो है, वह सत्य है।

जब आप रात स्वप्न देखते हैं—बड़े एब्सर्ड सपने आदमी देखते हैं—बड़े बेहूदे स्वप्न, लेकिन फिर भी शक नहीं आता।

लियो टाल्सटाय ने लिखा है कि मैं एक ही सपना हजार दफे कम से कम देख चुका। जागता हूं तब मैं कहता हूं कैसा बेहूदा! यह हो कैसे सकता है! लेकिन जब मैं फिर सोता हूं फिर किसी दिन वही सपना देखता हूं र तो सपने में बिलकुल याद नहीं रहता। सपने में बिलकुल ठीक मालूम पड़ता है।

लियो टाल्सटाय ने लिखा है कि मैं एक सपना देखता हूं कि एक बड़ा रेगिस्तान है। और यही सपना बार—बार दोहरता है। उस रेगिस्तान में दो जूते चलते चले जा रहे हैं—सिर्फ जूते! पैर नहीं हैं, आदमी नहीं है! और टाल्सटाय कहता है, मैं इतनी दफे देख चुका हूं यह, फिर भी जब देखता हूं तो वह शक भी नहीं पैदा होता, नो डाउट—बिलकुल ठीक लगता है कि जूते चल रहे हैं। सुबह जागकर बड़ी बेचैनी होती है कि ये जूते चल कैसे सकते हैं, जब आदमी भीतर नहीं है। और मन में बहुत घबड़ाहट भी होती है कि यह मामला क्या है? यह स्वप्न बार—बार दोहरता क्यों है? और वे चलते ही चले जाते हैं, और अंतहीन रेगिस्तान है और वे दो जूते हैं, और कोई भी नहीं है। और वे चलते ही चले जाते हैं। तो टाल्सटाय जब बिलकुल घबड़ा जाता है, घबड़ा जाता है उनको देख—देखकर, तो नींद टूट जाती है। बहुत बार देखने के बाद भी जब फिर देखता है, तो फिर वह सत्य ही मालूम होता है।

जब स्वप्न में आप होते हैं, तो स्वप्‍न  नहीं होता वह, वह सत्य ही होता है। और अगर आपको स्मरण आ जाए कि यह स्वप्न है, उसी क्षण फिल्म टूट जाएगी। सफेद पर्दा हो जाएगा। आप बाहर आ गए। जागकर सुबह पता चलता है कि वह स्वप्‍न  था।

लेकिन ऋषि कहते हैं कि वह छोड़ो, वह तो स्वप्‍न  था ही—जागकर सुबह जो दिखाई पड़ता है, वह भी स्वप्‍नवत  है। हम कहते हैं, यह तो कम से कम मत कहो। यह तो काफी सच मालूम पड़ता है। यह मकान, यह परिवार, यह मित्र, यह पत्नी, यह बेटे, यह धन—यह सब एकदम सत्य मालूम पड़ता है। इसको तो स्वप्न मत कहो!

लेकिन ऋषि कहते हैं, एक और जागरण है—विवेक लभ्यम्—वह जो विवेक से उपलब्ध होता है। एनादर अवेकनिंग; एक और जागरण है। जब तुम उसमें जागोगे, तब तुम पाओगे कि वह जो तुम जागकर देख रहे थे, वह भी एक स्वप्‍न  था।

स्वप्‍न—स्वप्‍न  है, यह जानने के लिए अवस्था बदलनी चाहिए तभी तो कंपेरिजन, तुलना हो सकती है। रात सपना देखते हैं, सत्य मालूम होता है; सुबह जागकर पता चलता है, असत्य था। सुबह जागकर जिसे देखते हैं, ऋषि कहते हैं, हम एक और जागरण तुम्हें बताते है, वहा जागकर तुम्हें पता चलेगा, वह भी स्वप्‍नवत  था।

स्वप्‍नवत कहने का अर्थ है, एक तुलना। यह नहीं है इसका मतलब कि सिर में लट्ठ मार देंगे, तो नहीं फूटेगा, खून नहीं बहेगा। सपने में भी सिर में लट्ठ मारने से सिर टूट जाता है और खून बहता है—सपने में भी। सपने में भी कोई छाती पर चढ़ जाता है, छुरा भोंकने लगता है, तो छाती कंपने लगती है, रक्तचाप बढ़ जाता है, हृदय धड़कने लगता है और सपने से जागने के बाद भी थोड़ी देर तक धड़कता रहता है। पता भी चल जाता है कि यह सब सपना था, कोई छाती पर चढ़ा नहीं, तकिया ही रखे हुए थे अपना। जाग गए हैं, लेकिन अभी भी हृदय की धड़कन तेज है और खून की गति तेज है, रक्तचाप बढ़ा हुआ है। सपने में कोई मर गया था—रो रहे थे जार—जार होकर। सपना टूट गया, पता चल गया कि जो मर गया वह सपने में था, लेकिन आंखें  अभी भी आंसू बहाए चली जाती हैं।

इतना गहरा घुस जाता है सपना भी! लेकिन पता चलता है अवस्था—परिवर्तन पर, नहीं तो पता नहीं चलता। तुलना चाहिए पता चलने के लिए।

आइंस्टीन कहा करता था मजाक में कि सारा जगत रिलेटिव—मजाक में तो कहता ही था, उसका अनुभव भी यही था—कि जगत एक रिलेटिविटी है, एक तुलना है। जब भी आप कुछ कहते हैं, तो उसका अर्थ है तुलना। सीधी कोई बात नहीं कही जा सकती है। आप कहते हैं, फला आदमी लंबा है। इसका कोई मतलब नहीं है, जब तक आप यह नहीं बताते, किससे लंबा। यह बिलकुल बेमानी है, इस वक्तव्य में कोई अर्थ नहीं हैं। आप कहते हैं, फलां आदमी गोरा है। यह वक्तव्य बिलकुल बेकार है, जब तक आप यह नहीं बताते, किससे।

मुल्ला नसरुद्दीन निकल रहा है रास्ते से। एक मित्र मिल गया है। उसने पूछा कि ठीक तो हो नसरुद्दीन? तो नसरुद्दीन ने पूछा, विद द्य इन कंपेरिजन? किसकी तुलना में? किस तुलना में पूछते हैं? वह आदमी तो हैरान हुआ, क्योंकि साधारण सा सवाल था सुबह का कि कैसे हैं! कहना था, अच्छा हूं। लेकिन नसरुद्दीन ने कहा, किसकी तुलना में? क्योंकि गांव में मुझसे भी ज्यादा अच्छी हालत में लोग हैं, मुझसे भी बुरी हालत में लोग हैं, पूछ किसकी तुलना में रहे हो?

सारे वक्तव्य इस जगत में तुलनात्मक हैं, रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं। जब हम कहते हैं, यह आदमी मर गया, तब भी असल में हमें पूछना चाहिए, किस हिसाब से? क्योंकि मुर्दे के भी नाखून बढ़ते हैं और बाल बड़े होते हैं। कब में रखे हुए मुर्दे के नाखून बड़े हो जाते हैं और बाल बड़े हो जाते हैं। सिर घुटाकर रखो, तो फिर बाल बढ़ जाते हैं। अगर बाल बढ़ने को कोई जीवन का लक्षण समझता हो, तो यह आदमी मरा नहीं है अभी। अगर आप सोचते हों कि इसके शरीर में प्राण हो, तो मरा हुआ नहीं है।

एक—एक आदमी के शरीर में कोई सात करोड जीवाणु हैं। जब आप मरते हैं, तो जीवाणुओं की संख्या एकदम बढ़ जाती है। अगर उनके प्राण का हम हिसाब रखें, तो यह आदमी अब और भी ज्यादा जीवन से भरा है, जितना पहले था। पहले सात ही करोड़ थे, मरते से ही सड़ना शुरू होता है, जीवाणु और बढ़ जाते हैं। अगर हम उन जीवाणुओं से पूछें कि तुम जिस बस्ती में रहते थे, वह मर गई? तो वे कहेंगे, क्या कह रहे हैं! बढ़ गई, मर नहीं गई। संख्या बढ़ रही है जीवन की। उन कोष्ठों को, जो आपके भीतर हैं, उनको आपका तो पता ही नहीं है।

गुरजिएफ एक बहुत अदभुत बात कहा करता था। वह कहता था, यह हो सकता है कि जैसे हमारे शरीर में सात करोड़ कोष्ठ, जीवित कोष्ठ बसे हुए हैं और उन्हें हमारा कोई पता नहीं, ऐसा हो सकता है कि मनुष्य का पूरा समाज भी किसी और एक वृहत्तर शरीर में सिर्फ एक जीव—कोष्ठ की तरह बसा हो और हमें उसका कोई पता नहीं। इसकी संभावना हो सकती है।

गुरजिएफ यह भी कहता था—और वह बहुत समझदार लोगों में एक था इन पचास सालों में—वह यह भी कहता था, यह भी हो सकता है कि जैसे जीव—कोष्ठ हमारे भीतर बसा है, तो वी आर जस्ट फूड टु दोज सेल्स, वह जो हमारे भीतर कोष्ठ हैं, उनके लिए हम भोजन से ज्यादा नहीं हैं। हम उनके लिए क्या हैं, सिर्फ भोजन। वे हमारा भोजन करते हैं और जीते हैं। गुरजिएफ कहता था, यह हो सकता है कि हम इस पृथ्वी पर जहां बसे हुए हैं—और इस पृथ्वी को हम भोजन से ज्यादा तो कुछ समझते नहीं—हों सकता है, हम सिर्फ एक पृथ्वी की बड़ी काया के शरीर में जीव—कोष्ठ हों और हमें इस पृथ्वी की आत्मा का कोई भी पता न हो, और हमें इस पृथ्वी के व्यक्तित्व का और चेतना का कोई भी पता न हो।

गुरजिएफ यह भी कहता था कि हर चीज किसी के लिए भोजन होती है, तो आदमी के साथ अपवाद क्यों हो? हर चीज किसी के लिए भोजन है, आदमी भी किसी का भोजन होना चाहिए। तो वह तो बहुत मजेदार बात कहता था। वह कहता था, आदमी चांद का भोजन है। इधर जब आदमी मरता है, तो हम समझते हैं मर गया, सिर्फ चांद उसका भोजन कर लेता है।

वह तो मजाक में कहता था। लेकिन यह बात सच है, हो सकती है, क्योंकि इस जगत में सभी चीज भोजन है। एक फल लगता है वृक्ष पर, आपका भोजन बन जाता है। एक जानवर दूसरे जानवर का भोजन कर लेता है। तो आदमी किसी और वृहत्तर जीवन का भोजन तो नहीं है?

किस हिसाब से हम कह रहे हैं, इस पर सब निर्भर करेगा। सारे वक्तव्य सापेक्ष हैं। इस सापेक्षता से भरे हुए जगत में कोई चीज नित्य नहीं हो सकती, ऐब्सल्युट नहीं हो सकती। सब बदलता हुआ है।

आइंस्टीन कहता था कि अगर हम सारे के सारे लोग एक साथ लंबे हो जाएं, सारी चीजें एक साथ लंबी हो जाएं, मैं छह फीट का हूं मैं जिस वृक्ष के पास खड़ा हूं वह साठ फीट का है, मैं बारह फीट का हो जाऊं, वृक्ष एक सौ बीस फीट का हो जाए, पहाड़ भी दुगना लंबा हो जाए, आसपास जितना है, वह सब एक क्षण में दुगना हो जाए किसी जादू के असर से, तो किसी को भी पता नहीं चलेगा कि कुछ भी बदलाहट हो गई। क्योंकि अनुपात थिर रहेगा, प्रपोर्शन पुराना रहेगा। पता ही नहीं चलेगा। पता इसलिए चल सकता है कि मैं लंबा हो जाऊं और वृक्ष उतना ही रहे, पहाड़ उतना ही रहे, पास में खड़ा हुआ आदमी उतना ही रहे। तो पता चलेगा, नहीं तो पता नहीं चलेगा। पता ही चलता है इसलिए कि अनुपात डांवाडोल हो जाता है, नहीं तो पता नहीं चलता।

हमारे बीच जो लोग जाग जाते हैं विवेक में, उनको पता चलता है। बड़ी अड़चन हो जाती है उन्हें कि ये सारे लोग सोए हुए चल रहे हैं, सपने में जी रहे हैं। मगर उन्हें पता चलता है, हमें पता नहीं चलता। हम सब सपने में एक से ही जी रहे हैं। इसलिए हमारे बीच जब भी कोई व्यक्ति जागता है, तो हमें बड़ी बेचैनी पैदा होती है। हम घसीट—घसीटकर उसको भी सुलाने की पूरी कोशिश करते हैं कि तुम भी सो जाओ। हम उसे भी समझाते हैं कि सपने बड़े मधुर हैं, बड़े मीठे हैं।

बुद्ध घर छोड्कर गए, तो अपने पिता का राज्य छोड्कर चले गए। क्योंकि पिता के राज्य में उपद्रव होगा, आज नहीं कल पीछा किया जाएगा। तो वे पड़ोसी के राज्य में चले गए। पड़ोसी सम्राट को पता चला कि मित्र का बेटा संन्यासी हो गया है, उसे बड़ी पीड़ा हुई। वह खोज—पता लगाकर आया। वह बुद्ध के पास बैठा और उसने कहा कि देखो, अभी तुम जवान हो, अभी तुम्हें जीवन का अनुभव नहीं। यह तुम क्या पागलपन कर रहे हो? कोई फिक्र नहीं, अगर पिता से नाराज हो या कोई और अड़चन है, मेरे घर चलो। अपनी बेटी से तुम्हारा विवाह किए देता हूं और आधा राज्य दिए देता हूं।

बुद्ध ने कहा, मैं यही सोचकर वहा से भागा कि कोई मेरा पीछा न करे। आप यहा भी मौजूद हैं। जैसा कि कहना चाहिए था, उस वृद्ध को, उसने कहा, तू अभी नासमझ है, अभी तुझे जिंदगी का कोई पता नहीं है। वापस लौट चल।

बुद्ध जहां—जहा गए, वहीं पीछा किया गया। कोई न कोई समझदार जरूर आ जाता और कहता कि चलो, सो जाओ। हम इंतजाम किए देते हैं।

जब भी कोई आदमी जागने की दिशा में चलेगा, चारों तरफ से पंजे पड़ जाएंगे, आक्टोपस की तरह। सब तरफ से हाथ उसको पकड़ने लगेंगे कि सो जाओ। सब तरह के प्रलोभन इकट्ठे हो जाएंगे, वे कहेंगे, सो जाओ। क्यौंकि जब भी कोई आदमी हमारे बीच जागता है, तो हमें बड़ी बेचैनी होती है, क्योंकि वह नई वैल्‍यूज, नए मूल्य हमारे बीच उतारना शुरू कर देता है। वह कहता है, तुम सपने में हो। वह कहता है, तुम सोए हो। वह कहता है, तुम होश में नहीं हो। वह कहता है, यह अनित्य है संसार। यह सब खो जाने वाला है। यह सब मिट जाने वाला है।

अब कोई आदमी, जो मकान बना रहा है, उससे कहो अनित्य है यह संसार, तो उसकी जान निकालते रहे हो। वह मानने को राजी नहीं हो सकता कि जो इतने खंडहर पड़े हैं, ऐसा ही उसका मकान भी किसी दिन खंडहर की तरह पड़ा रह जाएगा। वह मानने को राजी नहीं हो सकता।

मैं पिछले दो—तीन वर्ष पहले मांडू में था। एक साधना—शिविर था वहां। पूछा तो पता चला कि मांडू की आबादी सिर्फ छह सौ साल पहले सात लाख थी; और अब, मोटर स्टैंड पर जो तख्ती लगी है, उसमें नौ सौ तेरह। मैं बहुत हैरान हुआ। सात लाख की आबादी का नगर, और सात लाख की आबादी के खंडहर फैले पड़े हैं। एक—एक मस्जिद है, जिसमें दस—दस हजार लोग एक साथ नमाज पढ़ सकें। आज तो दस आदमी भी पढ़ने वाले नहीं हैं। इतनी बड़ी धर्मशालाएं हैं कि दस—दस हजार लोग इकट्ठे ठहर सकें। नौ सौ तेरह आदमी उस बस्ती में हैं! चारों तरफ खंडहर फैले हुए हैं, लेकिन जो आदमी उस बस्ती में अपना झोपड़ा बना रहा है, वह नहीं देखता कि पीछे बड़े भारी महल का खंडहर पड़ा है। वह इस झोपड़े को इसी रस से बना रहा है कि सदा बना रहेगा।

जागा हुआ आदमी आपको वे बातें याद दिलाने लगता है, जो दुखद मालूम पड़ती हैं। दुखद इसलिए मालूम पड़ती हैं कि उन बातों को समझकर आप जैसे जीते थे, वैसे ही जी नहीं सकते। आपको अपने को बदलना ही पड़ेगा। और बदलाहट कष्ट देती मालूम पड़ती है। हम बदलना नहीं चाहते। हम जैसे हैं, वैसे ही रहना चाहते हैं। क्योंकि बदलने में श्रम पड़ता है और जैसे हैं, वैसे बने रहने में कोई श्रम नहीं है।

ऋषि कहते हैं, जगत अनित्य है उसमें जिसने जन्म लिया, वह स्वप्त में जन्म लिया स्वप्न के संसार जैसा आकाश के हाथी जैसा।

जैसे कभी आकाश में बादल घिर जाते हैं, आप जो चाहें, बादल में बना लें, चाहे हाथी देख लें। छोटे बच्चे चांद में देखते रहते हैं, बुढ़िया चर्खा कात रही है। आपकी मर्जी, आप जो प्रोजेक्ट कर लें। चाहें तो आकाश में रथ चलते देखें, हाथी देखें, सुंदरियां देखें, अप्सराएं देखें, जो आपको देखना हो। बादलों में कुछ भी नहीं है। आपकी आंखों में सब कुछ है। बादल तो सिर्फ निपट बादल हैं। आप उनमें जो भी बना लें।

पश्चिम में मनोविज्ञान ने इस प्रोजेक्यान, इस प्रक्षेपण के बाबत बहुत सी नई खोजें की हैं। मनोविज्ञान को जो थोड़ा भी समझते हैं, उन्होंने अगर मनोविज्ञान की किताबें देखी हों, तो वहां स्याही के कई धब्बे भी चित्रों में देखे होंगे। मनोवैज्ञानिक उन धब्बों का उपयोग करते हैं। वे लोगों को—सिर्फ स्याही के धब्बे, जिनमें कुछ नहीं है, कुछ बनाए नहीं गए, सिर्फ स्याही के धब्बे हैं, जैसे कि ब्लाटिंग पेपर पर बन जाते हैं—वह दे देते हैं मरीज को और उससे कहते हैं, देखो इसमें किसका चित्र है! मरीज उसमें कोई चित्र खोज लेता है। तो वह उसकी खोज मरीज के बाबत खबर देती है, वह चित्र कुछ नहीं है।

कहते हैं, मुल्ला नसरुद्दीन भी एक मनोवैज्ञानिक के पास गया। मन बेचैन था, अशांत था। सलाह लेने गया था। तो मनोवैज्ञानिक ने जानना चाहा कि उसकी बेचैनी, अशांति जिस मन से पैदा हो रही है, उसके बीज क्या हैं। तो उसने उसे कई धब्बों के चित्र दिए। एक धब्बे का चित्र दिया, कहा कि जरा गौर से देखो, क्या दिखाई पड़ता है? उसने कहा, एक स्त्री मालूम पड़ती है। रखो। मनोवैज्ञानिक उत्सुक हो गया, क्योंकि रस्ते पर बात पकड़ गई। क्योंकि आदमी की अधिक बीमारी स्त्री, स्त्री की अधिक बीमारी पुरुष। और तो कोई ज्यादा बीमारियां नहीं हैं। पकड़ गया, रस्ते पर है आदमी, ठीक जवाब दिया है।

दूसरा ब्लाटिंग पेपर दिया धब्बों वाला। पूछा, क्या है? उसने कहा कि अरे, यह स्त्री तो बिलकुल नग्न मालूम पड़ती है। मनोवैज्ञानिक.. बिलकुल ट्रेक पर है आदमी, जल्दी रस्ता निकल आएगा। तीसरा दिया। कहा, क्या मालूम पड़ता है? नसरुद्दीन ने कहा, क्या कहना पड़ेगा? यह स्त्री कुछ न कुछ गड़बड़ काम कर रही है—समथिंग नैस्टी।

मनोवैज्ञानिक ने कहा कि तुम्हारी बीमारी पकड़ में आ गई। तुम्हारे दिमाग में क्या चल रहा है, वह मुझे पता चल गया। नसरुद्दीन ने कहा, मेरे दिमाग में? ये चित्र तुम्हारे हैं कि मेरे? ये तुमने बनाए हैं कि मैंने? तुम्हारा दिमाग खराब मालूम पड़ता है। नसरुद्दीन ने कहा कि आज तो मैं जल्दी में हूं कल फिर आऊंगा। लेकिन, कैन यू लेड मी दीज पिक्चर्स फार ए डे? क्या एक दिन के लिए दे सकते हो उधार? जरा रात को देखेंगे और मजा लेंगे।

आकाश में देखे गए हाथियों जैसा है यह संसार। खाली बादल हैं, स्याही के धब्बे, उनमें जो हम देखना चाहें, वह देख लेते हैं। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह है नहीं। वह हम देखते हैं। वह हम अपने ही भीतर से फैलाते हैं। वह हमारे ही मन का फैलाव है। और हम पर ही निर्भर है सब।

जिस जगत में हम रहते हैं, वह हमारी सृष्टि है, हमारा सृजन है। और हमें उस जगत का तो कोई पता ही नहीं है, जो हमारे मन के पार, हम से भिन्न, हमारे सृजन के बाहर है। वह तो केवल उसे ही पता चलता है, जिसका मन मिट जाता है। क्योंकि जब तक मन है, तब तक प्रोजेक्टर है। वह भीतर से काम करता रहता है।

एक व्यक्ति के चेहरे में आप सौंदर्य देख लेते हैं। आपको पता है, उसी के चेहरे में कुरूपता देखने वाले लोग मौजूद हैं? एक व्यक्ति में आप सब गुण देख लेते हैं। और आपको पता है कि उसके भी दुश्मन हैं और सब दुर्गुण देखने वाले मौजूद हैं? जो आप देख रहे हैं, वह व्यक्ति तो सिर्फ निमित्त है, आकाश के बादलों जैसा, जो आप देख रहे हैं वह आपका फैलाव है। फिर रोज दुख होता है, क्योंकि वह व्यक्ति जैसा है वैसा ही है। आपके फैलाव के अनुसार जी नहीं सकता। अब आपने कुछ मान रखा है, वह आज नहीं कल टूटेगा। फिर झंझट शुरू होगी। आप एक्सपेक्टेशस बना लेते हैं।

एक आदमी मुस्कुराकर मेरे पास आता है, प्रशंसा की बातें कहता है। मैं सोचता हूं? बहुत भला आदमी है। फिर रात को वह मेरे पैसे लेकर नदारद हो जाता है। मैं सोचता हूं कि एक भला आदमी और ऐसा काम क्यों किया? अब उसकी मुस्कुराहट, उसकी प्रशंसा पर मैंने कुछ आरोपित कर लिया। वह आरोपित की अपेक्षा शुरू हो गई। उस आदमी से मैं अपेक्षा नहीं करता कि वह चोरी करेगा। चोरी वह आदमी करेगा, वह उस आदमी के भीतर की बात है कि वह क्या करेगा। बादल में आपने हाथी देखा, कितनी देर तक वह हाथी रहेगा, कहना मुश्किल है। थोड़ी देर में बादल बिखरेगा, कुछ और बन जाएगा। तब आप रोते—चिल्लाते नहीं रहेंगे कि मैंने तो हाथी देखा था, यह बहुत धोखा हो गया।

सब हमारी अपेक्षाएं हमें धोखे में डाल देती हैं। क्योंकि वह आदमी तो वही है, जो है। हम कुछ सोच लेते हैं। और फिर हम परेशानी में पड़ते हैं, क्योंकि वैसा वह सिद्ध नहीं होता। इसलिए जब तक मन है, तब तक हमें गलत आदमी ही मिलते रहेंगे, क्योंकि हम गलत देखते ही रहेंगे। हम वह देखते रहेंगे, जो वहां है ही नहीं।

यह जो हम जाल फैला लेते हैं चित्त का, यही हमारा स्वप्‍नवत  संसार है। मन संसार है। मन के पार उठ जाना संसार के पार उठ जाना है। मन स्वप्न है। मन के पार उठ जाना स्वप्‍न  के पार उठ जाना है।

वैसे ही यह देह आदि समुदाय मोह के गुणों से युक्त है यह सब रस्सी में भ्रांति से कल्पित किए गए सर्प के समान मिथ्या है।

तद्रन्जुस्वप्‍नवत् कल्पितम्।

जैसे राह पर पड़ी हो रस्सी और कोई सांप देख ले। कठिन नहीं है सांप देखना रस्सी में। भयभीत आदमी तत्काल देख लेता है। भयभीत आदमी सांप के लिए तैयार रहता है कि कहीं दिख जाए। रस्सी दिखी कि वह भागा। लेकिन रस्सी में भी सांप दिखे, तो दौड़ तो लगवा ही देता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पसीना तो छूट ही जाता है। छाती तो धड़कने ही लगती है। घबड़ाहट तो फैल ही जाती है। हाथ—पैर तो कंपने ही लगते हैं। रस्सी में देखा गया सांप भी काम तो वही कर देता है, जो असली सांप करता है। क्या फर्क है?

कोई फर्क नहीं है, जहा तक आपका संबंध है। रस्सी का जहा तक संबंध है, वहां तक रस्सी बेचैन हो सकती है कि यह आदमी कैसा है, देखकर भाग रहा है। हम सिर्फ रस्सी हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन गांव के बाहर जा रहा था। मित्रों ने कहा, उस रास्ते से न गुजरो। वहा डाकेजनी चलती है। रास्ता निर्जन हो गया है। और कोई जाता नहीं। लेकिन जाना जरूरी था। काम कुछ ऐसा था कि मुल्ला ने कहा, जाना तो पड़ेगा ही। लेकिन ज्यादा मैं कुछ लेकर नहीं जा रहा हूं। मैं और मेरा गधा, हम दोनों जा रहे हैं। पर उन लोगों ने कहा कि गधा भी छीना जा सकता है। तो मित्र ने एक तलवार दे दी कि तुम तलवार ले जाओ। कोई मौका आ जाए, काम पड़ जाए।

नसरुद्दीन तलवार लेकर चले। डरे हुए तो थे ही कि कोई गधा न छीन ले। इसका आदमी को डर कम होता है कि खुद न मर जाए। इसका ज्यादा डर होता है कि उसका ?उए गधा न छिन जाए मकान न छिन जाए, धन न छिन जाए। यह न हो जाए, वह न हो जाए। खुद के खोने का इतना डर नहीं होता, क्योंकि खुद की कीमत का कोई पता नहीं होता। मकान की कीमत का पक्का पता है, गधे की कीमत का पक्का पता है।

नसरुद्दीन अपनी नंगी तलवार लिए हुए बिलकुल तैयार कि जैसे ही कोई हमला करे…। देखा कि दूर से एक आदमी चला आ रहा है। समझ गया कि अब आई मुसीबत। रास्ता निर्जन है, कोई राहगीर निकलता नहीं। तो राहगीर तो हो नहीं सकता, डाकू ही हो सकता है। नसरुद्दीन के हाथ में नंगी तलवार देखकर उस आदमी ने भी अपनी तलवार खींचकर निकाल ली, क्योंकि वह भी डरा हुआ था। गाव वालों ने उससे भी कहा था कि तलवार ले जा, रास्ता खतरनाक है, निर्जन है ‘ जब उसने तलवार निकाली, नसरुद्दीन ने कहा, भाई, ठहर! मुझ पर दो चीजें हैं, यह गधा है और तलवार है। क्या तू चाहता है, लूट ले। हम खुद ही तुझे दिए देते हैं। उस आदमी ने सोचा कि.. उसने सोचा कि मुफ्त कुछ मिल रहा है, तो उसने सोचा, तलवार महंगी चीज है। कहा, गधा तुम्हीं रखो, तलवार मुझे दे दो। उसने कहा, तुम तलवार ले लो।

नसरुद्दीन ने तलवार दे दी। काम करके जब घर वापस लौटे, तो मित्र ने कहा, ठीक रहा, कोई दिक्कत तो नहीं आई? नसरुद्दीन ने कहा, तलवार बड़ी काम आई। पूछा, तलवार कहां है? कहा, वह तो काम आ गई। वह आदमी गधा छीनने के लिए बिलकुल तैयार था, तो मैंने तलवार उसको देकर अपना गधा बचा लिया।?

प्रोजेक्यांस हैं। चौबीस घंटे हम वह देख रहे हैं, जो हम देखना चाहते हैं। रस्सियों में सांप देख रहे हैं। और प्रोजेक्यान उलटे भी होते हैं। सांपों में भी रस्सी देखी जा सकती है। तुलसीदास की कहानी तो हम सबको पता है। ऐसा नहीं कि हम रस्सी में ही सांप देखते हैं, हम सांप में भी रस्सी देख लेते हैं। वक्त—वक्त की बात है। मन के प्रक्षेपण का सवाल है। और तुलसीदास भागे हुए चले जा रहे हैं पत्नी से मिलने। तीन दिन हो गए हैं, तीन दिन से नहीं मिले हैं, बड़े बेचैन हैं।

तो कथा कहती है कि नदी में उतर गए। बाढ़ की आई हुई नदी, वर्षा के दिन। एक लाश का सहारा लेकर, जो नदी में बह रही थी, पार हुए। यह सोचकर कि कोई लकड़ी का टुकड़ा बहा जा रहा है, इसके सहारे पार हो गए। लाश दिखाई न पड़ी होगी! पानी में सड़ गई लाश से दुर्गंध न आई होगी! पत्नी की सुगंध इतनी भरी होगी नाक में कि लाश की दुर्गंध बाहर रह गई होगी! पत्नी से मिलने की आतुरता इतनी तीव्र रही होगी कि क्या है हाथ में, इसे देखने की फुर्सत न मिली होगी! सामने के दरवाजे से तो जा न सकते थे, क्योंकि अभी तीन ही दिन तो पत्नी को अपने मायके गए हुए थे, लोग क्या कहते? पीछे के रास्ते से मकान में घुसे। देखा रस्सी लटकी है। पकड़ा और चढ़ गए। वह रस्सी नहीं थी, सिर्फ सांप लटकता था।

लेकिन मन कल्पना करता ही है। कल्पना ही मन की क्षमता है। इसलिए मन से कभी सत्य नहीं जाना जा सकता, केवल कल्पनाएं ही की जा सकती हैं। इस मन के द्वारा जो भी हम जानते हैं, वह रस्सी में देखे गए सर्प की भांति है। इसलिए जो नहीं है, वह दिखाई पड़ता है। जो नहीं है, वह सुनाई पड़ता है। जो नहीं है, उसका स्पर्श होता है। और हम जीए चले जाते हैं अपने ही भ्रमों को पाल—पोसकर, अपने चारों तरफ अपना ही भ्रम—जाल खड़ा करके हम जीए चले जाते हैं। सत्य से हमारा कोई संबंध नहीं हो पाता।

ऋषि कहते हैं, संन्यासी तो उसकी खोज पर निकला है जो है, वह नहीं जो उसका मन कहता है, है। दो में से एक ही चुनना पड़े। अगर जो है, दैट व्हिच इज, उसे जानना है, तो मन को छोड़ना पड़े। और अगर मन को पकड़ना है, तो कल्पनाओं के जाल के अतिरिक्त कुछ भी कभी नहीं जाना जाता। विष्णु ब्रह्मा आदि सैकड़ों नाम वाला ब्रह्म ही लक्ष्य है।

लक्ष्य है सत्य। उसे ही पाना है, जो है। क्योंकि जो है, उसे पाकर ही दुख का विसर्जन है, चिंता का अंत है, पीड़ा की समाप्ति है, दुख का निरोध है। जो है, उसे जानकर ही मुक्ति है, स्वतंत्रता है। जो है, उसे जानकर ही सत्य के साथ ही अमृत का अनुभव है, मृत्यु की समाप्ति है।

लेकिन उसे जो है, उसके अनेक नाम हो सकते हैं। होंगे ही। बिना नाम दिए हमारी बात चलनी मुश्किल हो जाती है।

इसलिए ऋषि कहता है कि शताभिधान लक्ष्यम्।

वह जो अनंत—अनंत नाम वाला है, सैकड़ों नाम वाला है—कोई उसे ब्रह्म कहता, कोई उसे ब्रह्मा कहता, कोई उसे विष्णु कहता, कोई राम कहता, कोई रहीम कहता, कोई कुछ और कहता, कोई कुछ और कहता—वह जो सैकड़ों नाम वाला सत्य है। नाम तो उसका कोई भी नहीं है, इसीलिए तो सैकड़ों नाम हो सकते हैं।

ध्यान रखें, अगर उसका कोई एक नाम हो, तो फिर सैकड़ों नाम नहीं हो सकते। नाम उसका कोई भी नहीं है इसलिए कोई भी नाम से काम चल जाता है। वह तो अनाम है। लेकिन मनुष्यों ने अलग—अलग भाषाओं में, अलग—अलग युगों में, अलग—अलग अनुभवों में बहुत—बहुत नाम उसे दिए हैं। इंगित उनका एक है। इशारा एक है। शब्द ही अलग—अलग हैं।

लेकिन बड़ा उपद्रव पैदा हुआ। बड़ा उपद्रव पैदा हुआ, क्योंकि नाम के आग्रह इतने गहन हो गए कि जिसका नाम था, उसकी हमें चिंता ही न रही। राम वाला उससे लड़ रहा है, जो कहता है, उसका नाम रहमान है। तलवारें चल जाती हैं। अल्लाह वाला उसकी हत्या कर रहा है, जो कहता है, उसका नाम भगवान है। असल में मन वाले लोग झूठे परमात्मा भी खड़े कर लेते हैं, रस्सी में सांप देखने लगते हैं, नाम में ही सत्य देखने लगते हैं।

नाम सिर्फ नाम है, इशारा है। और सब इशारे बेकार हो जाते हैं, जब वह दिख जाए, जिसकी तरफ इशारा है। अगर मैं उंगली उठाऊं और कहूं कि वह रहा चांद और आप मेरी उंगली पकड़ लें और कहें कि मिल गया चांद, तो वैसी झंझट हो जाएगी। उंगली बेकार है। इशारा पर्याप्त है। उंगली छोड़ दें, चांद को देखें। तो चांद को कोई देखता नहीं, उंगली पहले दिखाई पड़ती है। नाम पकड़ में आ जाते हैं।

लेकिन इस भूमि पर जिन्होंने जाना, उन्होंने बहुत पहले ही नामों के खतरे की घोषणा की। वह खतरा अभी भी दूसरे लोग नहीं समझ पाए। उन्होंने निरंतर यह कहा कि उसके सैकड़ों नाम हैं। सब नाम उसके हैं। सभी नाम उसके हैं। कोई भी नाम दे दो, चलेगा। कोई भी नाम पर्याप्त नहीं है और कोई भी नाम कामचलाऊ है, सहयोग दे सकता है।

यही वजह हुई कि हिंदू धर्म कन्यर्टिंग रिलीजन नहीं हो सका। यही वजह बनी कि हिंदू धर्म दूसरे धर्म के व्यक्ति को अपने धर्म में बदलने की चेष्टा से नहीं भर सका। कोई कारण नहीं था। क्योंकि जब सभी नाम उसके हैं, तो जो अल्लाह कहता है, वह भी वही कहता है, जो राम कहने वाला कहता है। जो कुरान से उसकी तरफ इशारा लेता है, वह भी वही इशारा लेता है, जो वेद से उसकी तरफ इशारा लेता हैं। इसलिए कुरान को प्रेम करने वाले को वेद के प्रेम की तरफ लाने की नाहक चेष्टा व्यर्थ है। अगर कुरान काम कर रहा है, तो पर्याप्त है। काम उसी का हो रहा है। अगर बाइबिल काम करती है, तो काम पर्याप्त है।

हिंदू—दृष्टि से ज्यादा उदार दृष्टि पृथ्वी पर पैदा नहीं हो सकी। लेकिन वही हिंदुओं के लिए मुसीबत बन गई। बन ही जाने वाली थी। इस सोए हुए जगत में जागे हुए लोगों की बात अगर सोए हुए लोग उपयोग में लाएं, तो बहुत मुसीबत बन सकती है।

सभी नाम उसके हैं। कोई संघर्ष नहीं, कोई विरोध नहीं। सभी इशारों से काम चल जाएगा। ऋषि कहता है, ब्रह्म कहो, विष्णु कहो, शिव कहो, जो भी कहो, लक्ष्य वह एक है, जो है। उसे जानना है, जो परिवर्तित नहीं होता, जो शाश्वत है, नित्य है। जो कल भी वही था, आज भी वही है, कल भी वही होगा। जो न नया है, न पुराना है। क्योंकि जो नया है, वह कल पुराना पड़ जाएगा। जो पुराना है, वह कल नया था। जो परिवर्तित होता है, उसे हम कह सकते हैं—नया, पुराना। लेकिन जो नित्य है, वह न नया है, न पुराना। वह पुराना नहीं पड़ सकता, इसलिए उसे नया कहने का कोई अर्थ नहीं है। वह सिर्फ है।

वह जो है मात्र, उसे जानना ही लक्ष्य है। लेकिन उसे जानने के लिए वह जो हम कल्पनाएं फैलाते हैं, उन्हें तोड़ देना पड़े, गिरा देना पड़े। हम सब भरी हुई आंखों से देखते हैं जगत को, खाली आंखों से देखना पड़े। हम सब भरे हुए मन से देखते हैं जगत को, खाली मन से देखना पड़े। हम धारणाएं लेकर पहुंचते हैं जगत के पास, विद कंसेपास, और उन धारणाओं के पर्दे में से देखते हैं। फिर जगत वैसा ही दिखाई पड़ने लगता है, जैसा धारणाएं उसे बताती हैं कि वह है।

अगर उसे देखना है—अस्तित्व को, सत्य को, जैसा है, तो शून्य होकर जाना पड़े, मौन होकर जाना पड़े। खाली होकर जाना पड़े, नग्न होकर जाना पड़े। सारे वस्त्र धारणाओं के त्याग कर देने पड़े। सारे वस्त्र विचारों के अलग कर देने पड़े। निर्विचार और मौन और शून्य जो खड़ा हो जाता है, वह सत्य के अनुभव को उपलब्ध हो जाता है—उस सत्य के, जो नित्य है, जो शाश्वत है, सनातन है।

और अंतिम सूत्र में ऋषि इसमें कहता है, अंकुशो मार्ग:। और अंकुश ही मार्ग है।

किस बात पर अंकुश? इस मन पर—जो फैलाव करता है, जो प्रक्षेपण करता है—इस पर अंकुश ही मार्ग है। इस मन को रोकना, इस मन को ठहराना, इस मन को न चलने देना, इस मन को गतिमान न होने देना, इस मन को सक्रिय न होने देना ही मार्ग है। बड़े छोटे सूत्रों में बड़ी अमृत सूचनाएं हैं।

अंकुशो मार्ग:।

इतना छोटा सा, दो शब्दों का सूत्र। इस मन पर, यह जो स्वप्‍नों को जन्माने वाला हमारे भीतर छिपा हुआ मन है, इस पर अंकुश ही मार्ग है। धीरे—धीरे, धीरे— धीरे इस मन को विसर्जित कर देना ही सिद्धि है। एक झेन फकीर हुआ लिंची। जब वह अपने गुरु के पास गया तो उसने कहा, मैं मन को कैसा बनाऊं कि सत्य को जान सकूं? तो गुरु बहुत हंसने लगा। उसने कहा, मन को तू कैसा भी बना, सत्य को तू न जान सकेगा। तो उसने पूछा कि क्या मैं सत्य को जान ही न सकूंगा? गुरु ने कहा, यह मैंने नहीं कहा। सत्य को तू जान सकेगा, लेकिन कृपा कर मन को छोड़। नो माइंड इज मेडिटेशन। मन का न हो जाना ध्यान है। तू मन को बनाने की कोशिश मत कर कि ऐसा बनाऊं, अच्छा बनाऊं, बुरा बनाऊं। यह रंग दूं वह रंग दूं। साधु का बनाऊं, संत का बनाऊं। किसका मन बनाऊं?

मन से नहीं होगा, क्योंकि मन कैसा भी होगा, तो प्रक्षेपण करेगा। अच्छा मन अच्छे प्रक्षेपण करेगा, बुरा मन बुरे प्रक्षेपण करेगा। लेकिन प्रक्षेपण जारी रहेगा। प्रोजेक्यान जारी रहेगा। मन ही न हो, तो हमारे और जगत के बीच, हमारे और सत्य के बीच जो—जो जाल है, वह तत्काल गिर जाता। हम वही देख पाते हैं, जो है।

जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं वह भी नो माइंड, अ—मन, वह भी मन को फेंक देना है, हटा देना है। अंकुशो मार्ग:। अंकुश से ही यात्रा शुरू करनी पड़ेगी पहले तो, धीरे—धीरे, धीरे—धीरे। वृक्ष के पास खड़े हैं, वृक्ष को देखें सब धारणाओं को छोड्कर। न तो मन को कहने दें, बड़ा सुंदर है, क्योंकि वह पुरानी धारणा है, उसको बीच में मत आने दें। न मन को कहने दें कि यह क्या कुरूप सा वृक्ष है। मन को न कहने दें। मन को कहें कि तू चुप रह, तू मौन रह, मुझे वृक्ष को देखने दे। तू बीच में मत आ।

बैठे हैं, धूप पड़ रही है। मन कहेगा, बड़ी तकलीफ हो रही है। मन को कहें कि तू चुप रह। मुझे जरा धूप को अनुभव करने दे कि क्या हो रहा है। मन कहेगा, बड़ा आनंद आ रहा है धूप में। तो कहना, तू जरा चुप रह, तू बीच में मत आ। धूप और मुझे सीधा मिलने दे। और तब बड़े फर्क पड़ेंगे। तब धूप में एक और ही बात शुरू हो जाएगी। तब धूप जैसी है, वैसी ही अनुभव में आएगी। तब यह बीच में मन व्याख्या न करेगा।

ये सारी व्याख्याएं हैं। और एक दफा फैशन बदल जाए, तो व्याख्याएं बदल जाती हैं। अभी पूरब में सफेद चमड़ी का भारी मोह है कि सफेद चमड़ा बड़ी सुंदर चमड़ी है। पश्चिम में सफेद चमड़ी बहुत है। तो जो बहुत ज्यादा है, उसका —मूल्य तो होता नहीं, न्यून का मूल्य होता है हर समय। जो कम है, उसका मूलन होता है। तो पश्चिम में सुंदरी वह है, जो चमड़ी पर थोड़ी सी श्यामलता ले आए। तो सुंदरियां लेटी हैं समुद्रों के तट पर, धूप ले रही हैं। थोड़ा सा चमड़ी में श्यामवर्ण प्रवेश कर जाए। बड़ा कष्ट धूप में लेटकर उठा रही हैं। लेकिन कष्ट नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि मन कह रहा है, सौंदर्य पैदा हो रहा है, धूप से सौंदर्य आ रहा है।

जिस चीज में मन रस ले—ले, वहां सौंदर्य मालूम पड़ने लगता है, सुख मालूम पड़ने लगता है। जिसमें विरस हो जाए, वहा तकलीफ शुरू हो जाती है। फैशन के बदलने के साथ सब बदल जाता है।

ऐसी कौमें हैं, जो स्त्रियों का सिर घुटवा देती हैं। वे कहती हैं, घुटा हुआ सिर बहुत सुंदर है। वे कहती हैं, जब तक सिर घुटा न हो, तब तक स्त्री के चेहरे का पूरा सौंदर्य पता ही नहीं चलता, बाल की वजह से सब ढंक जाता है। असली सौंदर्य तो तभी पता चलता है, जब सिर घुटा हुआ हो, साफ—सुथरा हो, स्वच्छ। बाल भी कहां की गंदगी! तो स्त्रियां सिर घुटाती हैं। ऐसी कौमें हैं, जो मानती हैं, बिना बाल के सौंदर्य नहीं हो सकता, तो स्त्रियां विग लगाती हैं, झूठे बाल ऊपर से लगा लेती हैं। इस वक्त विग का बड़ा धंधा है पश्चिम में, क्योंकि बाल!

हमारी मौज है, हमारे मन का ही सारा खेल है। जैसा हम पकड़ लें, बस वैसा ही मालूम होने लगता है। ऋषि कहता है, इस मन पर अंकुश रखना पड़े, इस मन को धीरे—धीरे विसर्जित करना पड़े और वह क्षण लाना पड़े, जहां हम कह सकें, अब कोई मन नहीं। इधर रह गई चेतना, उधर रह गया सत्य। जहा मन नहीं, चेतना और सत्य का मिलन हो जाता है। वहीं आनंद है। और वहीं नित्य की प्रतीति और अनुभूति है।

आज इतना ही।

अब हम ध्यान की तैयारी में जाएंगे। दो—तीन बातें खयाल में ले लें।

मन को फेंक डालना है पूरा—अंकुशो मार्ग:। लेकिन मन तभी फेंका जा सकता है, जब आप पूरी त्वरा और पूरी शक्ति से उसको फेंकने में लगें।

दस मिनट श्वास ऐसी लेनी है कि सारे शरीर का रोआं—रोआं शक्ति से भर जाए और नाचने लगे। फिर दस मिनट नृत्य, नाचना—कूदना, आनंदित होना। वह भी ऐसा करना है कि बिलकुल पागल—पागल से कम में नहीं चलेगा।

फिर दस मिनट हू की हुंकार। वह भी ऐसी करनी है कि पूरी घाटी भर जाए हुंकार से।

और दूर—दूर फैल जाएं। जितने दूर फैल जाएंगे उतना सुखद है। और जिन लोगों को पता है कि वे तेजी से दौड़ते हैं, वे बिलकुल पीछे चले जाएं। दूसरों को धक्का देना उचित नहीं है। फिर पीछे लगे तो बात अलग, पर पहले से तो इंतजाम ऐसा करें कि दूसरे को कोई बाधा न पहुंचे।

शक्ति पूरी लगानी है। आंख बंद कर लें। कपड़े जिन्हें अलग करने हों अलग कर दें, बीच में भी खयाल आ जाए, तो तत्काल अलग कर दें। सब संकोच, सब मन के आवरण छोड्कर, हृदयपूर्वक सब शक्ति लगा देनी है।

आंख बंद कर लें। पट्टियां बांध ले। पट्टियां जिनके पास नहीं हैं, वे भी पट्टियां शीघ्र प्राप्त कर लें। क्योंकि वे अपना समय खराब कर रहे हैं, पूरा फायदा उन्हें नहीं होगा। आंख खुली नहीं रखनी है। और अगर पट्टी नहीं है तो आंख बंद कर लें, चालीस मिनट फिर खोलनी नहीं है चाहे कुछ भी हो।

शुरू करें!

ओशो

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-07

सातवां—प्रवचन

अखंड जागरण से प्राप्‍त–प्ररमानंदी तुरीयावस्‍था

शिवयोगनिद्रा च खेचरी मुद्रा च परमानंदी।

                              निर्गुण गुणत्रयम्।

                               विवेक लभ्यम्।

                              मनोवाग् अगोचरम्।

निद्रा में भी जो शिव में स्थित हैं और ब्रह्म में जिनका विचरण है, ऐसे वे परमानदीं हैं।

                        वे तीनों गुणों से रहित हैं।

                  ऐसी स्थिति विवेक द्वारा प्राप्त की जाती है।

                     वह मन और वाणी का अविषय है।

अखंड जागरण से प्राप्‍त—परमानंदी तुरीयावस्था Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-07”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-06

छठवां—प्रवचन

अनंत धैर्य, अचुनाव जीवन और परात्‍पर की अभीप्‍सा

धैर्य कन्‍था।

उदासीन कौपीनम्।

विचार दंड:।

ब्रह्ममावलोक योग पट्ट:।

श्रिया पादुका:।

परेच्छाचरणम्।

कुंडलिनी बंध:।

परापवाद मुक्तो जीवनमुका:।

                   धैर्य उनकी गुदड़ी (संन्यास की झोली ) है।

                        उदासीन वृत्ति लंगोटी है।

                              विचार दंड है।

                         ब्रह्म—दर्शन योग—पट्ट है।

                         संपत्ति उनकी पादुका है।

                  परात्पर की अभीप्सा ही उनका आचरण है। Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-06”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-05

पांचवां—प्रवचन

संन्‍यासी अर्थात जो जाग्रत है, आत्‍मरत है, आनंदमय है, परमात्‍म—आश्रित है

विवेक रक्षा।

करुणैव केलि:।

आनंद माला।

एकासन गुहायाम् मुक्‍तासन सुख गोष्ठी।

अकल्पित भिक्षाशी।

हंसाचार:।

सर्वभूतान्तर्वर्तीम् हंस इति प्रतिपादनम्।

                     विवेक ही उनकी रक्षा है।

                  करुणा ही उनकी क्रीड़ा, खेल है।

                     आनंद उनकी माला है।

      गुह्य एकांत ही उनका आसन है और मुक्त आनंद ही उनकी गोष्ठी है।

            अपने लिए नहीं बनाई गई भिक्षा उनका भोजन है।

                   हंस जैसा उनका आचार होता है।

सर्व प्राणियों के भीतर रहने वाला एक आत्मा ही हंस है—इसी को वे प्रतिपादित करते हैं। Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-05”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-04

चौथा—प्रवचन

पावन दीक्षी—परमात्‍मा से जुड़जाने की

निरालंब पीठ:।

                         संयोगदीक्षा।

                         वियोगोपदेश:।

                        दीक्षासंतोषपावनम् च।

                     द्वादश आदित्यावलोकनम्।

   आश्रयरहित उनका आसन है।

            (परमात्मा के साथ) संयोग ही उनकी दीक्षा है।

                     संसार से छूटना ही उपदेश है।

                     दीक्षा संतोष है और पावन भी।

                     बारह सूर्यों का वे दर्शन करते है।

पावन दीक्षा—परमात्मा से जुड़ जाने की Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-04”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-03

तीसरा—प्रवचन

यात्रा—अमृत की, अक्षय की—नि:संशयता, निर्वाण और केवल—ज्ञान का

गगन सिद्धान्त: अमृत कल्लोलनदी।

                  अक्षय निरंजनम्।

                  निसंशय ऋषि:।

                  निर्वाणो देवता।

                  निष्कुल प्रवृत्ति:।

                  निष्केवलज्ञानम्।

                  ऊर्ध्वामाय:।

उनका सिद्धांत आकाश के समान निर्लेप होता है,

अमृत की तरंगों से युक्त ( आत्मारूप ) उनकी नदी होती है।

            अक्षय और निर्लेप उनका स्वरूप होता है।

            जो संशय शून्य है वह ऋषि है।  Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-03”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-02

दूसरा—प्रवचन

निर्वाण उपनिषद—अव्‍याख्‍यकी व्‍याख्‍या का एक दुस्‍साहस

ऋतम् वदिष्यामि। सत्यम् वदिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतुमाम्। अवतु वक्तारमवतु वक्तारम्।

                  ओम शांति: शांति: शांति:।।

                  अथ निर्वाणोपनिषदम् व्याख्यास्याम:

                  परमहंस: सोऽहम्।

                  परिव्राजक? पश्चिम लिंगा:।

                  मन्मथक्षेत्रपाला:।

मैं ऋत भाषण करूंगा, सत्य भाषण करूंगा। मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। मेरी रक्षा करो, वक्ता की रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो।

                  ओम शांति, शांति, शांति।

            अब निर्वाण उपनिषद का व्याख्यान करते हैं। Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-02”

निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-01

पहला—प्रवचन

शांति पाठ का द्वार, विराट सत्‍य और प्रभु का आसरा:

शांति पाठ :

ओम वाङ्गमे मनसि प्रतिष्ठता, मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् आविरा: वीर्म एधिं वेदस्य म आणीस्थ: श्रुतम् मे माप्रहासीरनेन् आधीनेन अहोरात्रात् संदधामि।

ओम मेरी वाणी मन में स्थिर हो, मन वणी में स्थिर हो, हे स्वयंप्रकाश आत्मा! मेरे सम्मुख तुम प्रकट होओ। हे वाणी और मन! तुम दोनों मेरे वेद—ज्ञान के आधार हो, इसलिए मेरे वेदाभ्यास का नाश न करो। इस वेदाभ्यास में ही मैं रात्रि—दिन व्यतीत करता हूं।

बूंद चाहे भी कि सागर को बिना स्मरण किए सागर की खोज कर ले, तो भी वह खोज हो न सकेगी। और कोई दीया सोचता हो कि सूर्य को स्मरण किए बिना सूर्य को खोज लेगा, तो नासमझी है। Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-प्रवचन-01”

निर्वाण-उपनिषद-ओशो

निर्वाण उपनिषद–ओशो 

(ओशो जी द्वारा निर्वाण उपनिषाद पर दिये गए 15 अमृत प्रवचनों का संकलन जो उन्होंने 25-9-1971 सेसे2-10-1971 तक शिविर में दिये गये प्रवचनों को संकलन)

उपनिषद का अर्थ होता है, द सीक्रेट डाक्ट्रिन। उपनिषद का अर्थ होता है, गुह्य रहस्य। उपनिषद शब्द का अर्थ होता है, जिसे गुरु के पास चरणों में बैठकर सुना। और निर्वाण उपनिषद का नाम सून कर तो मानों मन गद्द-गद्द हो उठता है। एक मिश्री की मिठास तन-मन को घेर लेती है।

सारे उपनिषद मूलत: किसी भी धर्म की शिक्षा नहीं देते। ये इतने शुद्धतम व्यिक्तत्व है, कि इनके आगे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं होती। एक-एक उपनिषद अपने में पूर्णता को समाएँ हुए हे। उपनिषदों के सूत्र—कोई ऐसे नहीं है कि उन सून हो और पूर्ण हो जाओ। ये तुम्‍हे जागरूक करने के, साधना करने के, आप अंदर अमृत्‍व भरने के लिए उत्‍साहित करते है। इस लिए एक बात कितनी अजीब है किसी भी उपनिषद के रचयिता का कोई पता नहीं है। Continue reading “निर्वाण-उपनिषद-ओशो”

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