प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-06)

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्रनोंत्तर)-ओशो

दिनांक 13 जून सन् 1967 अहमदाबाद-चांदा

प्रवचन-छट्ठवां-(जीवन है द्वार)

मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं–एक मित्र ने पूछा है कि हमारे देश की क्या यह सबसे बड़ी बीमारी नहीं रही कि हमने बहुत ऊंचे विचार किए, लेकिन व्यवहार बहुत नीचा किया। सिद्धांत ऊंचे और कर्म बहुत नीचा। इसीलिए बहुत बड़े-बड़े व्यक्ति तो पैदा हो सके, लेकिन, भारत में एक बड़ा समाज नहीं बन सका?

इस संबंध में दो तीन बातें समझनी उपयोग की होंगी। पहली बात तो यह–यदि विचार श्रेष्ठ हो तो कर्म अनिवार्यरूपेण श्रेष्ठ हो जाता है। इस भ्रम में रहने की कोई जरूरत नहीं है कि विचार हमारे श्रेष्ठ थे और फिर कर्म हमारा निकृष्ट रहा। श्रेष्ठ विचार अनिवार्यरूपेण श्रेष्ठ कर्म के जन्मदाता बनते हैं। Continue reading “प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-06)”

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-05)

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 10 जून 1969, शाम अहमदाबाद-चांदा।

प्रवचन-पांचवा-(साक्षी भाव है द्वार)

मेरे प्रिय आत्मन,

पिछली चर्चाओं के आधार पर मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं एक मित्र ने पूछा है कि आप गांधीजी की भांति हरिजनों के घर में क्यों नहीं ठहरते हैं?

एक छोटी सी कहानी से समझाऊं। जर्मनी का सबसे बड़ा पादरी आर्च प्रीस्ट एक छोटे-से गांव के चर्च का निरीक्षण करने गया था। नियम था कि जब वह किसी चर्च की निरीक्षण करने जाए तो चर्च कि घंटियां उसके स्वागत में बजाई जाती थीं। लेकिन उस गांव के चर्च की घंटियां न बजीं। जब वह चर्च के भीतर पहुंचा तब उसने उस चर्च के पादरी को पूछा कि मेरे स्वागत में घंटियां बजती हैं हर चर्च की। Continue reading “प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-05)”

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-04)

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 10 जून 1969; सुबह अहमदाबाद-चांदा ।

प्रवचन—चौथा-(ध्यान है द्वार)

संदेह पूर्ण हो तो संदेह से मुक्ति हो जाती है। विचार पूर्ण हो तो विचार से भी मुक्ति हो जाती है। असल में जो भी पूर्ण हो जाए उससे ही मुक्ति हो जाती है। सिर्फ अधूरा बांधता है। अर्द्व बांधता है। पूर्ण कभी भी नहीं बांधता है। लेकिन संदेह पूर्ण नहीं हो पाता और विचार भी पूर्ण नहीं हो पाता। जो संदेह भी करते हैं वे भी पूरा संदेह नहीं करते हैं। जो संदेह करते हुए मालूम होते हैं,उनकी भी आस्थाएं हैं। उनकी भी श्रद्धाएं है। उनका भी अंधापन है। और जो विचार करते हैं वे भी पूरा विचार नहीं करते। वे भी कुछ चीजों का बिना विचारे ही स्वीकार कर लेते हैं। Continue reading “प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-04)”

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-03)

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 09 जून, 1969 रात्रि अहमदाबाद-चांदा

प्रवचन-तीसरा-(तुलना रहितता है द्वार)

बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि मेरे विचार एम. एन. राय के विचारों से नहीं मिलते हैं? एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि मैं माओ के विचार से सहमत हूं। एक तीसरे मित्र ने पूछा है कि क्या कृष्णमूर्ति और मेरे विचारों के बीच कोई समानता है? और इसी तरह के कुछ और प्रश्न भी मित्रों ने पूछे हैं।

इस संबंध में कुछ बात समझ लेनी उपयोगी होगी। पहली बात तो यह कि मैं किसी से प्रभावित होने में या किसी भी प्रभावित करने में विश्वास नहीं करता हूं। प्रभावित होने और प्रभावित करने दोनों को Continue reading “प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-03)”

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-02)

प्रभु मंदिर के द्वार-(अहमदाबाद-चांदा)-ओशो

दिनांक 09 जून सन् 1969

प्रवचन-दूसरा-(प्रवाह शीलता है द्वार)

विश्वास अंधा द्वार है। अर्थात विश्वास द्वार नहीं है, केवल द्वार का मिथ्या आभास है। मनुष्य जो नहीं जानता है उसे इस भांति मान लेता है, जैसे जानता हो। मनुष्य के पास जो नहीं है, उसे वह इस भांति समझ लेता है वह उसके साथ हो। और तब खोज बंद हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है।

मैंने सुना है, एक अंधेरी रात में एक जंगल से दो संन्यासी गुजरते थे। एक वृद्ध संन्यासी है, एक युवा संन्यासी है। अंधेरी रात है। बियावान जंगल है। अपरिचित रास्त है, गांव कितनी दूर है, कुछ पता नहीं। Continue reading “प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-02)”

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-01)

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

दिनांक 08 जून सन् 1969 अहमदाबाद-चांदा 

प्रवचन-पहला-(समग्रता है द्वार)

मेरे प्रिय आत्मन,

सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि क्या ईश्वर है, जिसकी हम खोज करें? और भी दो तीन मित्र ने ईश्वर के संबंध में ऐसे ही प्रश्न पूछे हैं कि क्या आप ईश्वर को मानते हैं, क्या अपने ईश्वर का दर्शन किया है? कुछ मित्रों ने संदेह किया है कि ईश्वर तो नहीं है, उसको खोजें ही क्यों?

इसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी होगा। मैं जब परमात्मा का, प्रभु का, या ईश्वर शब्द का प्रयोग करता हूं तो मेरा प्रयोजन है, उससे जो है। दैट, व्हिच इज। जो है। जीवन है। अस्तित्व है। हम नहीं थे तब भी अस्तित्व था। हम नहीं होंगे, तब भी अस्तित्व होगा। हमारे भीतर भी अस्तित्व है। जीवन है। जीवन की यह समग्रता, यह टोटलिटी ही परमात्मा है। इस जीवन का हमें कुछ भी पता नहीं, किया क्या है? स्वयं के भीतर भी जो जीवन है उसका भी हमें कोई पता नहीं कि वह क्या है? Continue reading “प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-01)”

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