प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्रनोंत्तर)-ओशो
दिनांक 13 जून सन् 1967 अहमदाबाद-चांदा
प्रवचन-छट्ठवां-(जीवन है द्वार)
मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं–एक मित्र ने पूछा है कि हमारे देश की क्या यह सबसे बड़ी बीमारी नहीं रही कि हमने बहुत ऊंचे विचार किए, लेकिन व्यवहार बहुत नीचा किया। सिद्धांत ऊंचे और कर्म बहुत नीचा। इसीलिए बहुत बड़े-बड़े व्यक्ति तो पैदा हो सके, लेकिन, भारत में एक बड़ा समाज नहीं बन सका?
इस संबंध में दो तीन बातें समझनी उपयोग की होंगी। पहली बात तो यह–यदि विचार श्रेष्ठ हो तो कर्म अनिवार्यरूपेण श्रेष्ठ हो जाता है। इस भ्रम में रहने की कोई जरूरत नहीं है कि विचार हमारे श्रेष्ठ थे और फिर कर्म हमारा निकृष्ट रहा। श्रेष्ठ विचार अनिवार्यरूपेण श्रेष्ठ कर्म के जन्मदाता बनते हैं। Continue reading “प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रवचन-06)”