आनहद में विसराम-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन-(सत्य की उदघोषणा)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 20, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न:

भगवान, श्री दत्ताबाल आपसे बहुत बुरी तरह जल-भुन गए हैं। लगता है कि उन्हें पहले से ही आपसे व्यक्तिगत रूप से जलन थी। और अब उन्हें विवेकानंद का बहाना मिल गया है। उन्होंने कहा है कि आचार्य रजनीश चरस, गांजा, भांग खिला-पिला कर लोगों को समाधि दिलाते हैं, जब कि विवेकानंद सिर्फ छूकर ही समाधि दिला देते थे!

उन्होंने और भी निम्न बातें आपके संबंध में कही हैं, कृपया प्रकाश डालें।

पहली कि आचार्य रजनीश स्वघोषित भगवान हैं।

दूसरी कि आचार्य रजनीश अज्ञानी हैं।

तीसरी कि आचार्य रजनीश का व्यक्तित्व अत्यंत महत्वहीन है।

चौथी कि आचार्य रजनीश ने हिंदू देवताओं को कामी और भोगी कह कर हिंदू धर्म का अपमान किया है। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-10)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन-(पहले ध्यान–फिर सेवा)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 19, नवम्बर, सन् 1980,  ओशो आश्रम,  पूना।

पहला प्रश्न:

भगवान, मैं एक विचारशील युवक हूं, जिसे अपने देश के मौजूदा हालात बिलकुल पसंद नहीं। यह अंधविश्वासों तथा दकियानूसी विचारों से दबा हमारा भारत बिलकुल नरक बन गया है। मेरा खून खौल-खौल उठता है इसकी सड़ी-गली स्थिति देख कर और इस अभागे देश के लिए कुछ करने के लिए अधीर हो उठता हूं।

भगवान, एक व्यक्ति के नाते इस देश के प्रति मेरा क्या कर्तव्य है? मैं क्या करूं कि इस देश की दीन-हीनता, भुखमरी, पाखंड, काहिलता और सड़ांध मिट जाए?

 निर्मल घोष!

पहली बात, अकेले विचारशील होने से कुछ भी न होगा। अंधेरा हो, तो रोशनी के विचार से मिटता नहीं। रोशनी चाहिए! बीमारी हो, तो स्वास्थ्य का कितना ही चिंतन करो, कुछ हाथ न लगेगा। औषधि चाहिए! विचार तो नपुंसक है।

विचारशीलता कोई बहुत महत्वपूर्ण बात नहीं। ध्यान चाहिए! Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-09)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन-(चिंतन नहीं–मौन अनुभूति)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 18, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      उत्तमा तत्त्वचिंतैव मध्यम शास्त्रचिंतनम्।

           अधमा तंत्रचिंता च तीर्थ भ्रांत्यधमाधमा।।

      अनुभूतिं विना मूढ़ो वृथा ब्रह्मणि मोदते।

             प्रतिबिंबितशाखाग्रफलास्वादनमोदवत।।

तत्व का चिंतन उत्तम है, शास्त्र का चिंतन मध्यम है, तंत्र की चिंता अधम है और तीर्थों में भटकना अधम से भी अधम है। जैसे कोई पेड़ की छाया में प्रतिबिंबित फल को खाकर प्रसन्न हो, वैसे ही वास्तविक अनुभव के बिना मूढ़ मनुष्य ब्रह्म का आनंद पाने की व्यर्थ कल्पना करता है।

भगवान, हमें मैत्रेयी उपनिषद के इन दो सूत्रों का अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें।

 पूर्णानंद!

तत्व का चिंतन उत्तम है, क्योंकि तत्व का चिंतन हो ही नहीं सकता। तत्व का चिंतन असंभव है। तत्व वस्तु नहीं है, विषय नहीं है। तत्व तो तुम्हारी जीवन-ऊर्जा है, तुम्हारा स्वरूप है, तुम्हारी चेतना है। तत्व का चिंतन नहीं होता, तत्व की चेतना होती है।

तत्व का अनुभव ही तब होता है, जब सब चिंतन छूट जाता, सब चिंता छूट जाती, सब विचार शून्य हो जाते। जहां कोई तरंग नहीं होती चित्त पर, जहां चित्त निस्तरंग होता है, वहीं अनुभूति है तत्व की।

इसलिए मैत्रेयी उपनिषद का यह सूत्र महत्वपूर्ण है, इशारा कर रहा है। लेकिन शब्दों में इशारा करना असंभव नहीं तो कठिन तो है ही। उन्हीं शब्दों का उपयोग करना होता है जो उपलब्ध हैं। और सभी शब्द आदमी के गढ़े हुए हैं, और तत्व तो आदमी का गढ़ा हुआ नहीं है। इसलिए किसी शब्द में तत्व समाता नहीं।

एक होटल में मुल्ला नसरुद्दीन ने प्रवेश किया। गर्मी के दिन हैं, सूरज से आग बरसती है। थका-मांदा, पसीना-पसीना आकर होटल में बैठा।

मैनेजर ने आकर कहा कि क्या आपकी सेवा करें?

मैनेजर था कुछ दार्शनिक वृत्ति का व्यक्ति। फुरसत के समय में दर्शन पढ़ा करता था।

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, कुछ और नहीं। सबसे पहले तो पानी का एक गिलास!

मैनेजर ने कहा, क्षमा करें। कांच का गिलास तो दे सकता हूं; पानी का गिलास कहां से लाऊं?

पानी का गिलास होता ही नहीं। कहते हम सब हैं, पानी का गिलास। काम चल जाता है, समझने वाला समझ लेता है। ऐसे ही समझना इस सूत्र के प्रारंभ को, पानी के गिलास की भांति। इस पर अटक मत जाना।

“उत्तमा तत्त्वचिंतैव–उत्तम है तत्व का चिंतन।’

ऐसा मत सोच लेना कि तत्व का कोई चिंतन होता है। तत्व का कोई चिंतन होता ही नहीं; तत्व का तो अनुभव होता है। और अनुभव भी तब होता है, जब चिंतन शून्य हो जाता है।

लेकिन किसी भी शब्द का उपयोग करो, कठिनाई खड़ी हो जाती है। अगर कहो, तत्व का ध्यान। उपद्रव शुरू हुआ, क्योंकि ध्यान भी तो तुम किसी विषय का करते हो। धन का लोभी धन का ध्यान करता है। काम से पीड़ित काम का ध्यान करता है। तत्व का कैसे ध्यान होगा? ध्यान भी तो विषय का होता है।

मेरे पास लोग आकर पूछते हैं, किसका ध्यान करें? राम का, कृष्ण का, बुद्ध का, महावीर का–किसका ध्यान करें? कौन सा ध्यान सार्थक होगा?

शब्द ने भरमाया। शब्द ने खूब भरमाया है, सदियों से उलझाया है। जंगलों में भटके लोग तो कभी न कभी घर लौट आते हैं, शब्दों में भटके लोग जन्मों-जन्मों तक भटकते रहते हैं। फिर शब्दों में और-और शब्द लगते चले जाते हैं। शब्दों में और नई-नई शाखाएं निकल आती हैं, नए-नए पत्ते, नए-नए फूल। शब्दों की शृंखला का कोई अंत ही नहीं है।

यह पूछना कि किसका ध्यान करें, बुनियादी रूप से गलत सवाल है। मगर मैं उनकी मजबूरी समझता हूं। वे हमेशा बाहर की भाषा में ही सोच सकते हैं, क्योंकि सारी भाषा ही बाहर के लिए है। भीतर तो मौन है। भीतर की तो कोई भाषा होती नहीं। भीतर तो भाषा की कोई जरूरत भी नहीं। भाषा का उपयोग ही तब है, जब हम किसी और से बोल रहे हों। भाषा संवाद है। जहां मैं और तू हैं, वहां भाषा की उपादेयता है। जहां दो हैं, वहां भाषा है। और जहां एक ही बचा, वहां कैसी भाषा! वहां तो मौन रह जाता है। इसलिए मैं कहता हूं, परमात्मा की तो एक ही भाषा है, मौन। वहां बोल कर चूक जाओगे। न बोले, पा जाओगे। वहां एक शब्द भी उठ गया, तो जमीन और आसमान का फासला हो जाएगा। वहां बोलना ही मत।

पश्चिम के बहुत बड़े विचारक, यहूदी दार्शनिक मार्टिन बूबर ने अपनी प्रसिद्धतम पुस्तक में लिखा है…। पुस्तक का नाम है: मैं और तू–आई एंड दाऊ। इस सदी में लिखी गई महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण किताबों में एक है। लेकिन बूबर एक दार्शनिक हैं, ऋषि नहीं। विचारक हैं, मनीषी नहीं। सोचा है, समझा है; जाना नहीं, पहचाना नहीं, अनुभव नहीं, स्वाद नहीं, पीया नहीं। प्यास वैसी की वैसी है।

शब्दों से प्यास बुझ भी नहीं सकती है। किसी को प्यास लगी हो और तुम सिर्फ पानी की बातें करो, सुंदर-सुंदर बातें करो; वर्षा के गीत गाओ, मेघ मल्हार छेड़ो; तो भी प्यास न बुझेगी। भूख लगी हो, तो पाक-शास्त्र किसी काम के नहीं हैं। रूखी-सूखी रोटी भी ज्यादा उपयोगी है। लेकिन परमात्मा के संबंध में हम पाक-शास्त्रों में उलझे हैं।

और क्या हैं वेद? और क्या हैं कुरान? और क्या हैं पुराण? और क्या हैं बाइबिलें? ब्रह्म की भूख है, सत्य की भूख है, और शब्दों के थाल सजे रखे हैं! सुंदर-सुंदर थाल! तुम भूखे बैठे हो, और रंगीन से रंगीन छपा हुआ मेनू भी तुम्हारे हाथ में पकड़ा दिया जाए, तो क्या करोगे? उलटोगे-पलटोगे, पेट तो न भरेगा! मेनू से तो कभी किसी का पेट भरा नहीं।

वैसी ही स्थिति दार्शनिक की, चिंतक की होती है। बूबर ने किताब तो बड़ी महत्वपूर्ण लिखी। लिखा है कि परमात्मा और व्यक्ति के बीच जो प्रार्थना का संबंध है, वह मैं और तू का संवाद है। लेकिन जहां मैं हो और तू हो, वहां संवाद होता है? वहां तूत्तू मैं-मैं होती है, वहां विवाद होता है। संवाद तो वहां है, जहां मैं और तू मिल कर एक हो जाते हैं। जहां मैं मैं नहीं, तू तू नहीं; जहां दोनों गए; जहां अद्वय बचा।

लेकिन फिर वहां, जब विवाद नहीं है, तो संवाद भी कहां! संवाद की भी क्या जरूरत! मौन में ही बात कह दी गई, मौन में ही बात समझ ली गई। परमात्मा की भाषा मौन है।

बूबर जिस प्रार्थना की बात कर रहे हैं, वह प्रार्थना सच्ची नहीं। मैं और तू का संवाद, वह कहते हैं, प्रार्थना है। मैं तुमसे कहता हूं, मैं और तू जब तक है तब तक कहां प्रार्थना?

जहां मैं नहीं तू नहीं, जहां दोनों गए, जहां कोई नहीं, जहां घर में सन्नाटा हो गया; जहां विवाद क्षीण, जहां संवाद क्षीण, जहां शून्य का साम्राज्य स्थापित हो गया; उस शून्य में जो संगीत बज उठता है, जो हृदयतंत्री कंपित हो उठती है, जो शब्द-शून्य, जो मौन गदगद अवस्था होती है–आंखें आनंद से गीली हो आती हैं; प्राण आनंद से पुलक उठते हैं; एक नृत्य घेर लेता है–उस घड़ी का नाम प्रार्थना है। उसी घड़ी का नाम ध्यान है। ये शब्द ही अलग-अलग हैं। प्रार्थना प्रेमी का शब्द है। ध्यान ज्ञानी का शब्द है। प्रार्थना–मीरा का, चैतन्य का, राबिया का, जीसस का, जरथुस्त्र का। ध्यान–पतंजलि का, लाओत्सु का, महावीर का, बुद्ध का। शब्द का ही भेद है, लेकिन अर्थ? अर्थ तो एक ही है। अर्थ में जरा भी अंतर नहीं है।

एक जर्मन सेनापति दूसरे महायुद्ध के बाद अपने मित्र अंग्रेज सेनापति से बातें कर रहा था। और उसने कहा कि पता नहीं हम क्यों हारे? यह बात राज ही बनी रहेगी। यह रहस्य कभी खुलेगा या नहीं! क्योंकि शक्ति हमारे पास ज्यादा थी। वैज्ञानिक, तकनीकी दृष्टि से हम तुमसे ज्यादा संपन्न थे। फिर भी हम हारे और तुम जीत गए! यह बात गणित में बैठती नहीं!

अंग्रेज सेनापति मुस्कुराया और उसने कहा, उसका राज मैं तुम्हें बताए देता हूं। राज छोटा है। बात छोटी है, मगर गहरी है। हम इसलिए जीते कि हर युद्ध के दिन की शुरुआत में हम प्रार्थना करते थे। हम परमात्मा की प्रार्थना करके ही युद्ध में उतरते थे। माना कि तकनीकी दृष्टि से, वैज्ञानिक दृष्टि से हम तुमसे पीछे थे, मगर परमात्मा जब साथ हो, तो फिर किसी और चीज की जरूरत नहीं है। इसलिए हम जीते और तुम हारे।

जर्मन सेनापति ने कहा, यह बात तो और भी उलझा देती है मामले को, सुलझाती नहीं। क्योंकि प्रार्थना तो हम भी करते थे, रोज करते थे, नियम से करते थे। प्रार्थना के बाद ही युद्ध पर जाते थे। अगर प्रार्थना से ही निर्णय होना था, तो हमारी प्रार्थना तुमसे कुछ कमजोर न थी!

अंग्रेज सेनापति तो खिलखिला कर हंस पड़ा। उसने कहा, तुम समझते नहीं बात। तुम प्रार्थना किस भाषा में करते थे?

स्वभावतः, जर्मन ने कहा कि हम जर्मन भाषा में करते थे!

अंग्रेज ने कहा, बस बात साफ हो गई। अरे, भगवान जर्मन भाषा समझता है? हम अंग्रेजी में करते थे! इसलिए हमारी बात पहुंच गई और तुम्हारी बात नहीं पहुंची।

हंसो मत इस पर। सेनापति तो बुद्धू होते हैं। बुद्धू न हों तो सेनापति न हों! सेनापतियों को माफ किया जा सकता है, लेकिन तुम्हारे पंडित-पुरोहित भी तो यही कहते रहे। वे कहते हैं, संस्कृत देव-भाषा है! वह ईश्वर की अपनी भाषा है। संस्कृत में बोलोगे तो समझेगा। और जैन कहते हैं, प्राकृत में बोलोगे तो समझेगा। और बौद्ध कहते हैं, पाली में बोलोगे तो समझेगा। और यहूदी कहते हैं, हिब्रू के सिवाय उसे कोई भाषा आती नहीं। और मुसलमान कहते हैं, अरबी ही बस उसकी भाषा है। और सब तो आदमियों की ईजादें हैं! अगर अरबी उसकी भाषा न होती, तो कुरान अरबी में क्यों उतरता?

सारी भाषाएं आदमी की हैं। उसकी कोई भाषा नहीं। मौन ही उसकी भाषा है। और चिंतन मौन का अभाव है। तत्व को जानना हो तो शून्य होना होता है।

इसलिए इस पहली बात को ठीक से समझ लो: “उत्तमा तत्त्वचिंतैव।’

तत्व के चिंतन को उत्तम कहता है ऋषि, क्योंकि तत्व का चिंतन चिंतन ही नहीं होता। तत्व का चिंतन अर्थात चिंतन से रिक्त हो जाना, अचिंत्य हो जाना। तत्व का चिंतन अर्थात निर्विचार, निर्विकल्प, निर्बीज। इसलिए उत्तम। उत्तम होने का कारण? क्योंकि जहां शून्य है, वहां पूर्ण है। तुम शून्य हुए, और पूर्ण उतरा। पूर्ण उतरता ही शून्य में है। घड़े को भरना हो, तो पहले उसे कूड़े-करकट से तो खाली कर लेना होगा न! घड़ा खाली हो, तो ही भर सकता है।

इस प्रकृति का एक नियम है कि यह खालीपन को पसंद नहीं करती। यह खालीपन को तत्क्षण भर देती है। तुमने कभी देखा, नदी की जलधार में अंजुलि बना कर पानी को भरा है! और जैसे ही अंजुलि को ऊपर उठाया है, वैसे ही चारों तरफ से जल दौड़ा है और अंजुलि में भरे जल के कारण जो थोड़ा सा गङ्ढा पैदा हो गया था, वह फिर भर गया है। तत्क्षण भर जाता है। देर ही नहीं लगती। ऐसे ही तुम जरा शून्य तो होओ! और तुम पाओगे, तुम्हारे शून्य होने से चारों तरफ से परमात्मा की ऊर्जा दौड़ पड़ती है; तुम्हारी तरफ प्रवाहित होने लगती है। तुम्हें भर देती है। तुम्हें ऐसा भर देती है कि तुम कभी भी न भरे थे।

लेकिन यह भराव तुम्हारे मैं का भराव नहीं है। इस भराव में तुम तो गए, तुम तो मिटे, परमात्मा बचा। यह भराव यूं है जैसे कोई बांसुरी में गीत को बजाए, जैसे कोई बांसुरी में सुर छेड़ दे। बांसुरी तो खाली है, और इसीलिए तो स्वर उससे प्रवाहित हो पाते हैं।

तत्व के चिंतन को उत्तम कहा, क्योंकि तत्व का चिंतन चिंतन ही नहीं है।

मैं आप अपनी तलाश में हूं, मेरा कोई रहनुमा नहीं है।

वो क्या दिखाएंगे राह मुझको, जिन्हें कुछ अपना पता नहीं है।

मसर्रतों की तलाश में है, मगर यह दिल जानता नहीं है,

अगर गमे-जिंदगी न हो, तो जिंदगी में मजा नहीं है।

शऊर-ए-सज्दा नहीं है मुझको, तू मेरे सज्दों की लाज रखना,

यह सर तेरे आस्तां से पहले, किसी के आगे झुका नहीं है।

ये इनके मंदिर, ये इनकी मस्जिद, ये जरपरस्तों की सज्दागाहें,

अगर ये इनके खुदा का घर है, तो इनमें मेरा खुदा नहीं है।

बहुत दिनों से मैं सुन रहा था, सजा वो देते हैं हर खता पर,

मुझे तो इसकी सजा मिली है, कि मेरी कोई खता नहीं है।

ये इनके मंदिर, ये इनकी मस्जिद, ये जरपरस्तों की सज्दागाहें,

अगर ये इनके खुदा का घर है, तो इनमें मेरा खुदा नहीं है।

यह सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है। इस सूत्र में बड़ी आग है। जल सको, तो नए हो जाओ। जल सको इसमें, तो नया जीवन मिल जाए।

“उत्तमा तत्त्वचिंतैव।’

उत्तम है तत्व का चिंतन।

“मध्यम शास्त्रचिंतनम्।’

और शास्त्र का चिंतन मध्यम; नंबर दो का।

क्यों? क्योंकि शास्त्र के चिंतन का अर्थ होता है: उधार, बासा; किसी और ने जाना, किसी और ने जीया, तुमने तो सिर्फ सुना। किसी ने स्वाद लिया, तुम्हारे हाथ तो सिर्फ शब्द पड़े। किसी ने अमृत पीया और अमृत हुआ, और तुम्हारे हाथ में तो बस यह कोरी बात रह गई। जैसे कोई नदी के तट पर चलता है, तो रेत पर पदचिह्न बन जाते हैं। आदमी तो गुजर जाता है, पदचिह्न पड़े रह जाते हैं। शास्त्र पदचिह्न हैं–समय की रेत पर बुद्धों के पैरों के चिह्न।

मगर समय की इस रेत पर बुद्धू भी चलते हैं! और बुद्धों के और बुद्धुओं के पैरों के चिह्नों में कुछ बहुत भेद नहीं होता। एक तो बुद्धों के भी पैरों के चिह्न ही हैं वे, उन पर अगर चले भी तो भी तुम न पहुंच पाओगे। क्योंकि दो व्यक्ति एक जैसे नहीं होते। इसलिए जिसने भी किसी दूसरे व्यक्ति का अनुसरण करने की चेष्टा की, उसने अपने भाग्य में हार लिख ली, उसने अपने को बर्बाद करने का इंतजाम कर लिया।

सुनना सबकी, गुनना अपनी। समझो, बुद्धों ने जो कहा हो; मगर लकीर के फकीर न हो जाना। और शास्त्रों का अध्येता लकीर का फकीर हो जाता है। उसकी आंखों पर शास्त्रों के चश्मे चढ़ जाते हैं। और इतने शास्त्रों के शब्द उसकी आंखों पर इकट्ठे हो जाते हैं कि उसे दिखाई ही पड़ना बंद हो जाता है। शास्त्रों ने जितने लोगों को अंधा किया है, उतना किसी और चीज ने नहीं। इस दुनिया में शास्त्रीय अंधों की भीड़ है, जमघट है! अलग-अलग शास्त्रों के कारण अंधे हैं! मगर किताबों को आंखों पर रख लोगे, तो देखोगे कैसे?

और फिर किताबें एकाध-दो हों, तो भी ठीक। बहुत किताबें हैं! और किताबों पर किताबें हैं! पहाड़ खड़े हो जाते हैं तुम्हारी आंखों पर सिद्धांतों के, शब्दों के जालों के। और फिर तुम उन्हीं शब्दों के जालों को गुनते-बुनते रहते हो। फिर तुम्हें वह नहीं दिखाई पड़ता जो है, जो सामने खड़ा है, जो चारों तरफ से तुम्हें घेरे हुए है; जो तुम्हारे भीतर भी है और जो तुम्हारे बाहर भी है; जिसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है; वह तत्व फिर तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता।

शास्त्र का चिंतन मध्यम है, नंबर दो का। जिसकी हिम्मत न हो तत्व में उतरने के लिए, उस कायर के लिए शास्त्र हैं। चलो, कुछ न बने, तो बुद्धों के वचन ही दोहराते रहो। हालांकि कितना ही दोहराओ, तुम तोते ही रहोगे। तोते कितना ही राम-नाम जपें, तो भी परमात्मा की अनुभूति को उपलब्ध न हो जाएंगे। और तुमने सुना ही है कि वाल्मीकि तो राम का उलटा नाम जप कर भी परमात्म-अनुभव को पा लिए! मरा-मरा जपा, और पहुंच गए। और तोते तो शुद्ध राम-राम जपते हैं, फिर भी नहीं पहुंचते! क्या है बात?

सवाल, तुम क्या जपते हो, इसका नहीं है। भाव का है, प्रगाढ़ता का है, तन्मयता का है, तल्लीनता का है, ओत-प्रोत होने का है, डूबने का है, रंग जाने का है। तोता कहता तो राम-राम है, मगर बस कह ही रहा है।

मैंने सुना, आधी रात एक व्यक्ति थका-मंदा एक होटल के द्वार को खटखटाया। मैनेजर ने कहा, आधी रात है, तुम्हें लौटाऊं, यह भी अच्छा नहीं लगता। थके-मांदे, दूर से आए हो, भूखे-प्यासे हो, यह मैं देख सकता हूं चेहरे से। लेकिन सब कक्ष तो भरे हुए हैं। इतना ही कर सकता हूं, अगर तुम राजी होओ, एक कक्ष में दो बिस्तर हैं, लेकिन एक यहूदी धर्मगुरु, एक रबाई उसमें ठहरा हुआ है। आदमी भला है, इसलिए इनकार न करेगा, तुम भी सो सकते हो।

वह युवक इतना थका-मांदा था कि उसने कहा कि मुझे सिर्फ सोना ही है। कुछ थोड़ा खाने-पीने को दे दो, और फिर मैं जाकर सो जाऊं।

वह ऊपर कमरे में पहुंचाया गया। देख कर हैरान हुआ, थोड़ा चिंतित भी हुआ, थोड़ा किंकर्तव्यविमूढ़ भी मालूम पड़ा। क्योंकि रबाई, यहूदी धर्मगुरु अपने पलंग के बगल में घुटने टेके परमात्मा की प्रार्थना में लीन था। दो पलंग थे कमरे में। कौन सा पलंग मैं चुनूं? उस युवक के मन में सवाल उठा। धर्मगुरु से पूछ लेना जरूरी है, क्योंकि वह पहले से यहां रुका हुआ है। और पता नहीं उसने कोई बिस्तर चुन ही रखा हो! मगर वह कर रहा है प्रार्थना, टोकूं भी तो कैसे टोकूं! और पता नहीं यह प्रार्थना कितनी देर चलेगी, क्योंकि वह ऐसा लीन मालूम हो रहा है कि जल्दी तो टूटने वाली नहीं मालूम होती।

सो उसने सोचा, हिम्मत की, और उसने कहा कि परम पूज्य, बाधा तो नहीं देनी चाहिए आपकी प्रार्थना में, लेकिन मजबूरी है। सिर्फ इतना इशारा कर दें कि कौन सा बिस्तर मैं चुनूं!

डरते-डरते ही पूछा था। लेकिन धर्मगुरु ने प्रार्थना भी जारी रखी और हाथ से इशारा भी कर दिया कि वह दूसरा बिस्तर तुम चुन लो।

युवक निश्चिंत हुआ। बिस्तर ठीक-ठाक करके लेटने जा रहा था, फिर उसके मन में थोड़ी परेशानी हुई। प्यास लगी थी। क्या उठ कर खटर-पटर करे, पानी पी ले? प्रार्थना में बाधा पड?गी। पूछ लेना उचित है।

उसने कहा, परम पूज्य, प्यास लगी है जोर से। क्या पानी पी सकता हूं?

धर्मगुरु ने प्रार्थना जारी रखी और हाथ से इशारा किया कि हां-हां, पीओ!

तब जरा युवक की हिम्मत भी बढ़ी और उसने कहा कि महामहिम, इतनी और बता दें कि क्या मैं अपनी लड़की को भी, प्रेयसी को भी ला सकता हूं?

धर्मगुरु ने प्रार्थना जारी रखी और हाथ से इशारा किया कि दो ले आना!

प्रार्थना चल रही है और यह सब कारबार भी चल रहा है! अब कितनी ही शुद्ध प्रार्थना पढ़ी जाए, बिलकुल हिब्रू में पढ़ी जाए, तो भी क्या होगा! यह प्रार्थना कंठ तक भी नहीं जा रही है, हृदय तो बहुत दूर। इस प्रार्थना में कुछ भीग ही नहीं रहा है। यह तो व्यर्थ की बकवास है।

शास्त्रों को तुम दोहरा सकते हो, कंठस्थ कर सकते हो, लेकिन काश इतना आसान होता कि हम औरों के शब्दों को सीख कर सत्य को जान लेते, तो दुनिया ने कभी का सत्य जान लिया होता! सारे लोगों ने जान लिया होता। एक भी अज्ञानी न बचता। इस पृथ्वी पर सब चलते हुए दीए होते। दीवाली मनाई जा रही होती। हर फूल खिला होता। सुगंध ही सुगंध होती। हर वीणा बजती होती। संगीत ही संगीत होता। अनाहत नाद होता। अनहद में विश्राम होता।

शास्त्र तो सभी जानते हैं। हिंदू गीता पढ़ रहा है, मुसलमान कुरान पढ़ रहा है, ईसाई बाइबिल पढ़ रहे हैं। लेकिन कहीं कुछ भीगता नहीं। हृदय कहीं डुबकी नहीं मारता। शब्दों में डुबकी लगाओगे भी कैसे? अंधेरे कमरे में दीए की तस्वीर टांग भी लो, तो रोशनी तो नहीं हो जाएगी! लाख सुंदर तस्वीर हो, तो भी तस्वीर तस्वीर है।

और शास्त्रों के साथ बहुत खतरा है। खतरा यह कि जब कोई व्यक्ति प्रबुद्धता को उपलब्ध होता है, तो अनुभूति होती है मौन में। और जब वह उस अनुभूति को शब्दों में उतारता है, तभी विकृत हो जाती है, तभी बहुत कुछ खो जाता है। बूंदाबांदी रह जाती है। कहां सागर और कहां बूंद! और फिर जब वह बोलता है, तो और भी कुछ बचा होता है, वह भी खो जाता है। बूंद का भी हजारवां हिस्सा नहीं रह जाता। फिर जब दूसरा सुनता है, तब कुछ अगर बचा भी हो थोड़ा-बहुत, वह भी खो जाता है। क्योंकि दूसरा अपने हिसाब से सुनता है। उसकी अपनी धारणाएं हैं, अपने पूर्व से ही लिए गए निष्कर्ष हैं। वह उनके आधार से सुनता है।

और अक्सर दूसरों ने शास्त्र लिखे हैं। कृष्ण ने गीता बोली, लिखी नहीं। जीसस ने पर्वत का प्रवचन दिया, लिखा नहीं। बुद्ध बोले, लिखा नहीं। आज तक समस्त सदगुरुओं की यह प्रक्रिया रही कि उन्होंने बोला, लिखा नहीं।

क्यों? क्योंकि बोलने में थोड़ी सी संभावना है कि अगर सुनने वाला प्रीतिपगा हो, अगर सुनने वाला भावाविष्ट हो, अगर सुनने वाले ने अपने हृदय के द्वार खोल रखे हों, अगर सुनने वाला गुरु के पास बैठने की कला जानता हो–उपसीदन की कला, उपनिषद की कला, उपासना की कला; अगर गुरु के पास बैठना उसे आता हो–मौन में, चुप्पी में, अहोभाव में, आनंद में, मस्ती में; अगर वह किसी बुद्ध-ऊर्जा-क्षेत्र का हिस्सा हो; किन्हीं रिंदों की जमात में सम्मिलित हो गया हो; किन्हीं दीवानों से उसका संग-साथ हो गया हो; किन्हीं परवानों के साथ परवाना हो गया हो और चल पड़ा हो किसी ज्योति में मर मिटने को–तो शायद गुरु जो कह रहा है, वह तो शब्द ही होगा, लेकिन गुरु की भाव-भंगिमा, उसकी मुद्रा, उसकी आंखें, उसका उठना, उसका बैठना, उसकी सांसों की धड़कन उसके शब्दों के साथ-साथ लिपटी श्रोता के, द्रष्टा के, मन्ता के भीतर पहुंच जाएगी।

लेकिन लिखा हुआ शब्द तो मुरदा होता है, बिलकुल मुरदा होता है। उसमें न तो गुरु की उपस्थिति होती है, न गुरु की भाव-भंगिमा होती है, न गुरु का उठना-बैठना होता है। उसमें तो गुरु की दूर की भी कोई छाप नहीं होती। छापेखाने की छाप होती है, स्याही होती है कागज पर फैली। लाश होती है। जीवंत कुछ भी नहीं होता।

इसलिए सारे गुरुओं ने सदा से बोलने के माध्यम को चुना है, क्योंकि बोलने में थोड़ी सी संभावना है कि शायद शब्दों के आस-पास लिपटी कोई किरण पहुंच जाए। कोई लेने वाला ले ले।

कबीर कहते हैं, है कोई लेवनहारा! है कोई लेवनहारा!

अगर है कोई लेने वाला तो शायद उसकी आंखों में झांक कर ही बात हो जाए। शायद उसका हाथ हाथ में लेकर ही बात हो जाए। शायद वह गुरु के चरणों पर सिर रख दे और बात हो जाए। जो नहीं कही जा सकती, वह कह दी जाए।

शास्त्र तो सदगुरुओं ने लिखे नहीं; जिन्होंने सुने हैं, उन्होंने लिखे हैं। इसलिए बौद्धों के सारे शास्त्र बड़े ठीक ढंग से शुरू होते हैं। बौद्धों के सारे शास्त्रों का जो प्रथम वचन होता है, वह यह: ऐसा मैंने सुना है। यह किसी शिष्य की टिप्पणी है। ऐसा मैंने सुना है कि भगवान आम्रकुंज में विचरते थे; कि निरंजना के तट पर रुके थे; कि फलां-फलां नगर में ठहरे थे; कि श्रावस्ती में उनका वर्षाकाल व्यतीत होता था। ऐसा मैंने सुना है। फिर वे जो बोले, वह मैं लिखता हूं। वह मैं अपनी सामर्थ्य से लिखता हूं। वे बोले थे अपनी सामर्थ्य से, मैं लिखता हूं अपनी सामर्थ्य से। फर्क तो बहुत हो जाने वाला है, बहुत हो जाने वाला है!

तुमने कभी देखा, एक सीधी लकड़ी के डंडे को पानी में डाला; और तुम तब चकित होकर देखोगे, पानी में पहुंचते ही डंडा तिरछा दिखाई पड़ने लगता है! तिरछा हो नहीं जाता। खींच कर देखो, सीधा का सीधा है! फिर पानी में डालो, फिर तिरछा दिखाई पड़ने लगता है। पानी उतनी विकृति तो ले आता है, सीधा डंडा तिरछा हो जाता है।

बुद्धों के सीधे-सीधे वचन भी तुम्हारे भीतर जाकर बहुत तिरछे हो जाते हैं, आड़े हो जाते हैं, कुछ के कुछ हो जाते हैं!

तो शास्त्रों की बात तो दोयम है, नंबर दो।

“मध्यम शास्त्रचिंतनम्, अधमा तंत्रचिंता।’

और उससे भी अधम है तंत्र, मंत्र, यंत्र की चिंता। विधि-विधान, यज्ञ-हवन-कुंड, पूजा-पत्री, ये धर्म के नाम पर जो क्रियाकांड चलते हैं, उन सबका नाम तंत्र। यह तो बिलकुल ही गई-बीती बात हो गई। यह तो बिलकुल तृतीय कोटि की बात हो गई।

लेकिन दुनिया इस तीसरी कोटि में उलझी है। कोई सत्यनारायण की कथा करवा रहा है। कोई विश्व-शांति के लिए यज्ञ करवा रहा है।

अभी किसी तांत्रिक ने चंडीगढ़ में विश्व-शांति के लिए यज्ञ करवाया। और यज्ञ हो जाने के बाद घोषणा कर दी कि यज्ञ सफल हुआ; विश्व में शांति हो गई! और पंद्रह दिन बाद फिर दूसरा यज्ञ दिल्ली में करवाने लगे वे। जब खबर मुझे मिली, तो मैंने कहा, अब किसलिए करवा रहे हो? दुनिया में तो शांति हो चुकी! वह तो चंडीगढ़ में यज्ञ जब हुआ तभी हो गई। अब यह कौन सी दूसरी दुनिया है जिसमें शांति करवानी है? मगर फिर शांति करवा रहे हैं वे।

और यहीं खतम नहीं हो जाएगा। उन्होंने कसम खाई है कि वे एक सौ बीस यज्ञ करवा कर रहेंगे। मतलब एक सौ बीस बार दुनिया में शांति करवा कर रहोगे! बहुत ज्यादा शांति हो जाएगी। आदमी को जिंदा रहने दोगे कि मार ही डालोगे? मरघट हो जाएगा! एक सौ बीस बार शांति होती ही चली गई, होती ही चली गई, तो लोगों की सांसें निकल जाएंगी! शोरगुल ही बंद हो जाएगा! बोलचाल ही खो जाएगा!

मगर यह क्रियाकांड है। मैत्रेयी उपनिषद का यह वचन कहता है: “अधमा तंत्रचिंता।’

अधम है तंत्र की चिंता। अब तो चिंतन भी न रहा, चिंता हो गई! पहला तो था अचिंत्य, तत्व का अनुभव। शास्त्र का चिंतन होता है; वह नीचे गिरना हुआ। और अब तो बात और बिगड़ गई। अब तो चिंतन से भी गिरे। अब तो चिंतन भी न बचा। अब तो चिंता हो गई। अब तो परेशानी और बेचैनी आ गई। अब तो लोभ-मोह का व्यापार शुरू हुआ। यह पा लूं, वह पा लूं! गंडेत्ताबीज की दुनिया आ गई।

और तीर्थों में भटकना अधम से भी अधम!

“च तीर्थ भ्रांत्यधमाधमा।’

और तीर्थों में भटकने को तो मैत्रेयी उपनिषद कहता है, यह तो अधम से भी अधम! इसके पार तो गिरना ही नहीं हो सकता।

कोई काशी जा रहा है। कोई काबा जा रहा है। कोई कैलाश, कोई गिरनार। क्या पागलपन है! परमात्मा भीतर बैठा है, और तुम कहां जा रहे? जिसे तुम खोजने निकले हो, वह खोजने वाले के भीतर छिपा है। और जब तक तुम उसे कहीं और खोजते रहोगे, खोते रहोगे। जिस दिन सब खोज छोड़ दोगे और अपने भीतर ठहरोगे, अनहद में विश्राम करोगे, उस क्षण पा लोगे।

खोया तो उसे है ही नहीं। वह तो तुम्हारे भीतर मौजूद ही है। एक क्षण को नहीं खोया है। सिर्फ भूल गए हो, विस्मरण किया है। स्मरण भर की कोई आवश्यकता है। और यह स्मरण शायद किसी सदगुरु के सत्संग में तो मिल जाए, लेकिन तीर्थों में क्या है!

तीर्थ बने कैसे? कभी कोई सदगुरु वहां था, तो तीर्थ बन गए। लेकिन सदगुरु तो जा चुका कभी का!

बुद्ध कभी बोधगया में थे, तो तीर्थ बन गया। अब सारी दुनिया से बौद्ध आते हैं बोधगया की यात्रा करने। क्या पागलपन है!

कोई समझाए यह क्या रंग है मैखाने का,

आंख  साकी  की  उठे  नाम  हो  पैमाने  का।

वह तो किसी साकी की आंख थी, जिससे नशा छा गया था, खुमारी आ गई थी।

कोई समझाए यह क्या रंग है मैखाने का,

आंख साकी की उठे नाम हो पैमाने का।

गर्मिए-शम्मा का अफसाना सुनाने वालो,

रक्स देखा ही नहीं तुमने अभी परवाने का।

किसको मालूम थी पहले से खिरद की कीमत,

आलमे-होश पर एहसान है दीवाने का।

चश्मे-साकी मुझे हर गाम पे याद आती है,

रास्ता भूल न जाऊं कहीं मैखाने का।

अब तो हर शाम गुजरती है उसी कूचे में,

यह नतीजा हुआ नासेह तेरे समझाने का।

मंजिले-गम से गुजरना तो है आसां “इकबाल’

इश्क है नाम खुद अपने से गुजर जाने का।

बात तो अपने से गुजर जाने की है। हां, किसी बुद्धपुरुष की आंख में शायद झलक मिल जाए। मगर तीर्थों में क्या रखा है? तीर्थ तो मजार हैं।

कोई समझाए यह क्या रंग है मैखाने का,

आंख साकी की उठे नाम हो पैमाने का।

गर्मिए-शम्मा का अफसाना सुनाने वालो,

रक्स  देखा  ही  नहीं  तुमने  अभी  परवाने  का।

तुम्हें तो मस्तों की कोई महफिल खोजनी चाहिए। अगर रक्स ही देखना हो, अगर नाच ही देखना हो, तो परवाने का देखना चाहिए।

हां, जब कोई बुद्ध मौजूद होता है, तो मधुशाला जीवित होती है। तो वहां झरने फूटते हैं शराब के। वहां पियक्कड़ इकट्ठे होते हैं। कभी काबा में इकट्ठे हुए थे। वह काबा के पत्थर की बात न थी, वह मोहम्मद की मौजूदगी थी। मोहम्मद की मौजूदगी में काबा का पत्थर भी लोगों को नशा देने लगा था। आंख साकी की थी और नाम पैमाने का हो गया! तीर्थ यूं बन जाते हैं, और फिर सदियों तक लोग तीर्थों में भटकते रहते हैं!

सूत्र ठीक कहता है:

अधमा तंत्रचिंता च तीर्थ भ्रांत्यधमाधमा।।

अनुभूतिं विना मूढ़ो वृथा ब्रह्मणि मोदते।

प्रतिबिंबितशाखाग्रफलास्वादनमोदवत।।

प्यारी बात है: “जैसे कोई पेड़ की छाया में प्रतिबिंबित फल को खाकर प्रसन्न हो…।’

पेड़ के नीचे बैठो। छाया में फल दिखाई पड़ता हो–छाया में! आम लगे हों वृक्ष पर, और छाया में भी आम दिखाई पड़ेंगे। और उन्हीं को, छाया के आमों को खा-खा कर कोई जैसे प्रफुल्लित होता रहे, ऐसे तुम पागल हो–अगर शास्त्रों में उलझे हो, अगर तीर्थों में उलझे हो, अगर तंत्रों और मंत्रों में उलझे हो।

“वास्तविक अनुभव के बिना सिर्फ मूढ़ मनुष्य ही कल्पना करता रहता है ब्रह्म को पा लेने की।’

अनुभव हो सकता है अभी और यहीं। अनुभव के लिए एक क्षण भी ठहरने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अनुभव होगा–उत्तमा तत्त्वचिंतैव–अनुभव तो उत्तम बात है, श्रेष्ठतम शिखर है। वह तो ध्यान में होगा, शून्य में होगा, मौन में होगा।

आंख से सारे पर्दे हटाओ। बाहर से आंख बंद करो, भीतर आंख खोलो। ठहरो चुप्पी में, मौन में, शून्य में। भीतर जब सारा जल ठहर जाए, तरंग भी न उठे, तो प्रतिफलित होगा परमात्मा। सारा अस्तित्व अपने सारे सौंदर्य के साथ तुम्हारे भीतर झलक उठेगा। वह झलक, बस एक झलक! और काफी है। जन्मों-जन्मों की भूली-बिसरी याद फिर आ जाती है। जिसे कभी खोया नहीं था, वह फिर मिल जाता है।

दूसरा प्रश्न: भगवान, डोंगरे महाराज अपने प्रवचन के बाद श्रोताओं को लस्सी-बूंदी इत्यादि प्रसाद वितरित करवाते हैं। कृपया समझाएं कि ब्रह्मचर्चा और लस्सी-बूंदी में क्या संबंध है।

 सुभाष सरस्वती!

संबंध जरूर है। मैं रोज जब वापस लौटता हूं प्रवचन-स्थल से, तो सुभाष रास्ते में खड़े दिखाई पड़ते हैं। बिलकुल उदास! तभी मैं सोचता हूं कि लस्सी-बूंदी की जरूरत है। सुभाष ऐसे खड़े रहते हैं, जैसे प्राण-पखेरू कभी के उड़ चुके हों! सारे संसार का भार लिए हुए! बोझ इतना कि उनकी गर्दन तक आड़ी रहती है।

तब मैं भी सोचने लगता हूं कि प्रवचन के बाद लस्सी और बूंदी बंटनी चाहिए। ये बेचारे सुभाष को देखो!

प्रसाद का तो बड़ा मूल्य है।

मेरे गांव में एक कबीरपंथी महंत थे, साहबदास जी! महामूढ़ थे। मतलब यह कि डोंगरे महाराज वगैरह कुछ भी नहीं उनके सामने! मगर थे वे महंत, और बड़ा उनका अखाड़ा था, बड़ी जमीन-जायदाद थी। सो लोग मानते थे उन्हें। और मैं इसका लाभ उठाता था। लाभ यह था कि गांव में कोई भी सभा हो, मैं उनको निमंत्रित कर आता। मुझे उनके व्याख्यान में बहुत आनंद आता था। वे ऐसी-ऐसी गजब की बातें कहते थे कि न कभी आंखों देखी, न कभी कानों सुनी! वे क्या चले गए संसार से, संसार में वह बात ही न रही! मैं आमतौर से किसी के मरने पर दुखी नहीं होता, मगर साहबदास जब मरे तो मैं दुखी हुआ।

उनको मैं निमंत्रण कर आता था। कोई भी सभा हो, किसी तरह की सभा हो–राजनीति की सभा हो, साहित्य की सभा हो, धर्म की सभा हो–मैं चला जाता, उनको निमंत्रित कर आता कि आपको आना ही है, बोलना ही है! वे बोलने को बड़े उत्सुक भी रहते थे। कभी-कभी मुझसे पूछते थे कि तू सभी सभाओं का इंतजाम करता है? कोई भी सभा हो, संयोजक तू ही?

मैंने कहा, क्या करूं! गांव के लोग मानते नहीं। वे कहते हैं कि सम्हालो, तो सम्हालना पड़ता है। और आपके बिना तो सभा यूं जैसे दूल्हे के बिना बारात! आपको तो आना ही होगा।

और पक्का कर लेने के लिए कि वे आ ही जाएंगे…। वे तो आ ही जाते; वे तो हमेशा ही आ जाते थे; फिर भी मैं किसी व्यक्ति को भेज देता कि तुम मौजूद ही रहना; देर-अबेर न हो। क्योंकि उनके बिना सभा बेकार है।

और जो भी सभा करते, वे मुझसे डरते। वे मेरे पास हाथ-पैर जोड़ कर खबर पहुंचाते कि आप साहबदास जी को मत बुला लाना। कि हम आपके हाथ जोड़ते हैं, आपके पैर पड़ते हैं, साहबदास जी को भर मत बुला लाना! नहीं तो वे सब खराब कर देंगे। क्योंकि वे कुछ-कुछ बोलते हैं, जिसका कोई मतलब ही नहीं है। और उनसे कोई कुछ कह भी नहीं सकता।

मगर मैं उनको निमंत्रण दे ही आता। और वे जैसे ही आते, मैं मंच के पास ही खड़ा रहता और कहता, साहबदास जी आइए! विराजिए-विराजिए! सो उनको भी भरोसा रहता कि मैं संयोजक हूं। और उनके डर के मारे, क्योंकि थे तो वे महंत बड़े, कोई यह भी नहीं कह सकता था कि भई तुम कौन हो? तुम क्यों उनको बिठाते हो मंच पर जब हमने इनको बुलाया ही नहीं?

सो ऐसे दोनों के बीच में बात चल जाती थी। उनसे कोई कह नहीं सकता था कि आप क्यों मंच पर चढ़ रहे हो? मुझसे कोई कह नहीं सकता था उनके सामने कि तुम क्यों उन्हें मंच पर बिठाल रहे हो? सो उनको भी भ्रांति रहती कि मैं संयोजक हूं और लोगों को भी पक्का था कि मैं बुला कर लाऊंगा, मैं बिना उनके सभा होने नहीं दूंगा।

और फिर मैं अपने पांच-सात विद्यार्थियों को रखता। उनसे चिटें लिखवा कर पहुंचाने लगता कि साहबदास जी का भाषण होना चाहिए! बीच-बीच में मैं खड़ा हो जाता कि अब बहुत हो गई बकवास, साहबदास जी का भाषण होना चाहिए! यह जनता की मांग है! और जनता दुखी होती, मगर करो क्या! साहबदास जी का व्याख्यान होना चाहिए!

जयशंकर प्रसाद की जन्म-जयंती मनाई जा रही थी। मैं उनको बुला लाया। जब मैंने उनको निमंत्रण दिया, उन्होंने कहा, यह प्रसाद है कौन? अरे, मैंने कहा, प्रसाद यानी प्रसाद! अब आप नहीं जानते प्रसाद? मतलब हर सभा के बाद जो बंटता है वही!

उन्होंने कहा, फिर ठीक। फिर मैं बोलूंगा।

फिर आकर उन्होंने जो प्रसाद की महिमा गाई, जनता सिर ठोंके! कि जयशंकर प्रसाद की तो यह जयंती हो रही है और उसमें बूंदी और लस्सी की चर्चा चल रही है! और वे समझा रहे कि बिना प्रसाद के कोई सभा पूरी होती ही नहीं।

वही तो डोंगरे महाराज कहते हैं। और लाभ तो है ही।

तुमने डोंगरे महाराज का अभी कुछ ही दिन पहले तो वक्तव्य देखा कि पहले शक्ति चाहिए। लस्सी और बूंदी के बिना कहीं शक्ति होती है? अरे पंजाबी में जो शक्ति होती है, वह लस्सी के ही कारण तो होती है! जब पूरा पंजाबी गिलास भर कर लस्सी पीओगे, तब शक्ति उतरती है। और फिर उसके ऊपर से बूंदी भी होनी चाहिए। क्योंकि लस्सी में थोड़ी सी खटास होती है। कहीं बुद्धि बिलकुल खट्टी न हो जाए। तो थोड़ी मिठास भी चाहिए।

वही तो उन्होंने समझाया कि शक्ति के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। शक्ति से होती भक्ति! भक्ति से होता ध्यान! डोंगरे महाराज समझाते हैं।

इसलिए तो मैंने तुमसे कहा कि–जैसे मेरी संन्यासिनी है, मां प्रेम शक्ति। अब उसकी शिष्याएं भी हो गईं। राज भारती की पत्नी नीलम उसकी शिष्या हो गई! और नीलम ने मुझे पत्र लिखा है कि भगवान, मुझे ऐसा लगता है कि शक्ति से मेरे जन्मों-जन्मों के संबंध हैं!

अरे, होने ही चाहिए। शक्ति के बिना कहीं भक्ति? भक्ति के बिना ज्ञान? कुछ भी नहीं। और जब नीलम शक्ति की भक्ति हो गई, तो राज भारती भी चले आए दो दिन बाद। वे भी दिखाई पड़ रहे हैं! अरे, जब पत्नी ही भक्ति हो गई, तो अब राज भारती भी क्या करें! पति को तो हमेशा पत्नी का अनुसरण करना पड़ता है। अब शक्ति का प्रचार हो रहा है!

तो उस शक्ति को बढ़वाने के लिए बेचारे मेहनत करते हैं। लस्सी बंटवाते हैं। बूंदी खिलवाते हैं। और प्रसाद की तो महिमा है। प्रसाद के बिना कहीं कोई प्रवचन पूरा होता है!

इसीलिए तो मेरे प्रवचन धार्मिक नहीं हैं, क्योंकि इनमें प्रसाद होता ही नहीं। और लोग जाते ही क्यों हैं धार्मिक प्रवचन में? प्रसाद के लिए! असली चीज तो प्रसाद है। धार्मिक प्रवचन तो मजबूरी है, सुनना पड़ता है; क्योंकि नहीं तो प्रसाद कहां से मिलेगा!

सरदार बिचित्तर सिंह ट्रेन में सफर कर रहे थे। पोपटलाल गुजराती और उसकी पत्नी भी उसी डिब्बे में थे। पोपटलाल की पत्नी ने पोपटलाल से कहा, पप्पू के पिता, गर्मी लग रही है, खिड़की खोल दें!

अब पोपटलाल बेचारे गुजराती! न पी कभी लस्सी, न खाई कभी बूंदी। पोपटलाल ने बड़ी कोशिश की, पर खिड़की सख्त थी, सो न खुली। न खुली सो न खुली।

सरदार बिचित्तर सिंह यह देख रहे थे और मुस्कुरा रहे थे। फौरन उठे और एक क्षण में खिड़की खोल दी। और पोपटलाल से बोले कि लाला, लस्सी पीओ!

पोपटलाल को दुख तो बहुत हुआ कि कमबख्त सरदार! मगर करें भी क्या! और जब उसने खिड़की खोल दी, तो यह भी समझ में आ गया कि इससे झंझट लेना खतरे से खाली भी नहीं। खुद तो खिड़की नहीं खोल पाए थे, यह और भीतर तक की खिड़कियां खोल देगा। सो चुप ही रहे।

थोड़ी देर बाद पोपटलाल की पत्नी को ठंड लगने लगी। सो उसने पति से कहा कि पप्पू के पिता, अब खिड़की बंद कर दो!

सख्त होने के कारण खिड़की पोपटलाल से बंद नहीं हुई। फिर बिचित्तर सिंह उठे और उठ कर खिड़की बंद कर दी। और बोले, लाला, लस्सी पीओ!

पोपटलाल को बहुत बुरा लगा। गुजराती थे, सहनशील थे, शांति रखी। गांधीवादी थे, अहिंसा में भरोसा करते थे। भीतर ही भीतर अहिंसा परमो धर्मः का विचार भी किया। मगर चोट तो बहुत लगी, कि लस्सी पीओ! यह कमबख्त सरदार बार-बार लस्सी पीओ! लस्सी पीओ! इसने समझ क्या रखा है? और फिर पत्नी के सामने ही बेइज्जती हो रही है! एकांत भी होता, पत्नी न होती, तो भी ठीक था। पत्नी पर भी बिचित्तर सिंह का असर पड़ रहा है। वह भी बिचित्तर सिंह की तरफ आंखें फाड़-फाड़ कर देख रही है। अरे, मर्द बच्चा मालूम होता है! पोपटलाल वैसे ही छोटे, और छोटे हुए जा रहे हैं!

पोपटलाल को बहुत बुरा लगा। बदला लेने का इरादा किया। रास्ता ढूंढ़ने लगे। अहिंसावादी कोई रास्ता होना चाहिए, जिसमें झगड़ा-झांसा भी न हो, क्योंकि यह आदमी खतरनाक है। और वहां कोई और है भी नहीं। पत्नी है, पोपटलाल हैं, और बिचित्तर सिंह है। पिटेंगे भी और पत्नी भी हाथ से जाएगी। क्योंकि पत्नी इतने गौर से देख रही है बिचित्तर सिंह को! वह जंजीर खींचने का झूठ-मूठ बहाना करने लगा। पोपटलाल ने तरकीब निकाली, गांधीवादी तरकीब! झूठ-मूठ जंजीर खींचने का बहाना करने लगा।

पोपटलाल से जंजीर न खिंचते देख कर बिचित्तर सिंह ने आव देखा न ताव, थे तो सरदार ही, आ गए चक्कर में, सटाक से जंजीर खींच दी! और पोपटलाल से बोले, लाला, मैंने कहा न कि लस्सी पीओ!

झटके के साथ ट्रेन रुक गई। गार्ड आया। बिना किसी कारण जंजीर खींचने के कारण बिचित्तर सिंह को पांच सौ रुपए का जुर्माना भरना पड़ा।

पोपटलाल प्रसन्न हैं कि क्या मारा! चारों खाने चित्त कर दिया। इशारे से चित्त कर दिया। न हल्दी लगी न फिटकरी, रंग चोखा हो गया। सीना फुला कर गौर से पत्नी की तरफ देख कर मुस्कुरा रहे हैं, कि देखा पप्पू की मां! क्या लस्सी पिलाई सरदार को! अब बोलने की बारी स्वभावतः पोपटलाल की थी। बोले, सरदार जी, लस्सी के साथ थोड़ी-थोड़ी बूंदी भी खाया करो! क्योंकि बूंदी में मिठास होती है। और ज्ञान मीठा होता है। सो थोड़ा ज्ञान भी चाहिए। शक्ति तो चाहिए, मगर ज्ञान भी चाहिए।

इसलिए सुभाष! बेचारे डोंगरे महाराज लस्सी भी बंटवाते हैं, बूंदी भी खिलवाते हैं, जिससे कि शक्ति भी रहे और भक्ति भी रहे। लस्सी से शक्ति! बूंदी से भक्ति!

अरे, कबीरदास जी कह ही गए हैं: समुंद में बुंद समाना, सो कत हेरी जाई! और बुंद में समुंद समाना, सो कत हेरी जाई! अरे, बूंदी में तो समुंद समाया हुआ है, जरा खोजो।

और सुभाष, तुम्हें दोनों चीजों की जरूरत है। तुम लस्सी भी पीओ और बूंदी भी खाओ। लस्सी से थोड़ा सरदारीपन तुममें आएगा। वह जो तुम गर्दन तिरछी करके खड़े रहते हो, वह सीधी हो जाएगी। और बूंदी से तुम्हारा ज्ञान भी थोड़ा बढ़ेगा। नहीं तो अज्ञानी के अज्ञानी रह जाओगे! और तुम्हारी अवस्था पोपटलाल की है; क्योंकि पत्नी सुभाष की गुजराती है! सो तुम पत्नी का भी खयाल रखो। अगर लस्सी न पी लाला, तो हमारे कोई संत महाराज तुम्हारी पत्नी को ले भागेंगे! पहले से ही सावधान कर देना उचित है।

आखिरी सवाल: भगवान, मेरे पिताजी आप पर बहुत नाराज हैं। आपके विचारों से तो सहमत हैं। यहां तक कि संन्यास भी लेना चाहते हैं। नाराजगी का कारण है, आपके चंदूलाल मारवाड़ी के लतीफे। मेरे पिताजी मारवाड़ी हैं और उनका नाम चंदूलाल है!

 विजय!

यह तो बड़ा तुमने अच्छा किया, याद दिला दी। यह आठ-दस दिन से मैं चंदूलाल को बिलकुल भूला ही हुआ था। और तुम्हारे पिताजी हैं, सो तो स्वभावतः अब कभी नहीं भूलूंगा। तुम्हारे पिताजी के लिए कुछ लतीफे।

न्यायाधीश ने अदालत के कठघरे में खड़े सेठ चंदूलाल से कहा, इतनी छोटी सी बात के आधार पर, सेठ, तलाक नहीं दिया जा सकता। क्या तुम्हारे पास कोई ठोस प्रमाण भी हैं जिनसे पता चले कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारे प्रति वफादार नहीं?

चंदूलाल ने कहा, एक नहीं हजारों प्रमाण हैं, माई लार्ड! कल की ही रात की बात है। यह रात को तीन घंटे गायब रही। और पूछने पर सफाई पेश करने लगी कि मैं अपनी सहेली गुलजान के साथ सिनेमा देखने गई थी।

जज ने पूछा, मगर तुम्हें यह कैसे पता चला कि तुम्हारी पत्नी झूठ बोल रही थी?

चंदूलाल ने कहा, क्योंकि कल रात को मैं तो खुद ही गुलजान के साथ सिनेमा देखने गया था! अब आप स्वयं सोचिए कि यह औरत मेरे साथ सरासर धोखा कर रही है या नहीं!

तुम्हारे पिताजी हैं तो मैं क्या करूं विजय, आदमी वे गजब के हैं!

फजलू अपने साथ पढ़ने वाली रीता नामक एक लड़की पर फिदा हो गया। एक दिन यह पता लगा कर कि वह किस मोहल्ले में रहती है, फजलू वहां जा पहुंचा। अब मुश्किल यह थी कि उसका घर कैसे ढूंढा जाए! फजलू ने सामने से चले आ रहे एक वृद्ध सज्जन से पूछा, दादा जी, क्या आपको पता है कि रीता कहां रहती है? मैं उसका भाई हूं। लेकिन पांच-छह सालों के बाद इस शहर में आया हूं। अतः पहचान नहीं पा रहा हूं कि उसका मकान कौन सा है। सब बदला-बदला नजर आ रहा है!

उस बूढ़े आदमी ने फजलू के कंधे पर हाथ रख कर कहा, तुमसे मिल कर बड़ी प्रसन्नता हुई बेटे। मैं रीता का बाप सेठ चंदूलाल मारवाड़ी हूं!

एक मोटा व्यक्ति समुद्रतट पर बैठा सामने की ओर देख रहा था, जहां जवान लड़कियां अल्प वस्त्रों में व्यायाम कर रही थीं। पास से गुजरते हुए दूसरे मोटे व्यक्ति ने कहा, आपका क्या खयाल है सेठ चंदूलाल! क्या इससे वजन घटता है?

चंदूलाल ने जवाब दिया, क्यों नहीं! इसी दृश्य को देखने के लिए तो मैं रोज सुबह तीन मील चल कर आता हूं! अरे, वजन क्यों नहीं घटेगा? घटता है।

सेठ चंदूलाल मारवाड़ी ने अपने दोस्त ढब्बूजी को बताया कि मेरी पत्नी कपड़ों के पीछे दीवानी है। जब देखो तब कपड़ों की मांग करती रहती है। सुबह से शाम तक एक ही रट लगाए रखती है कि नए कपड़े चाहिए। मैं तो यह सुन-सुन कर घनचक्कर हुआ जा रहा हूं। शादी को बीस साल हो गए, एक दिन ऐसा नहीं होता, जब वह कपड़ों की रट न लगाती हो। बस कपड़े! कपड़े! कपड़े!

ढब्बूजी बोले, आश्चर्य की बात है! आखिर वह इतने कपड़ों का करती क्या है?

चंदूलाल ने कहा, मुझे क्या पता! मैंने तो आज तक एक भी कपड़ा खरीद कर दिया नहीं। अरे, जब दहेज में मिले वस्त्रों में सब आराम से चल रहा है, तो नए कपड़ों में भला क्यों पैसा व्यर्थ किया जाए! कल फिर मुझसे कहने लगी कि अब तो कपड़े नाम-मात्र को ही बचे हैं। पड़ोस के छोकरे खिड़की में से झांक-झांक कर तमाशा देखते हैं! अब तो कुछ करो, मोहल्ले भर में हंसी होती है!

ढब्बूजी ने पूछा, तो फिर तुमने कुछ किया?

सेठ चंदूलाल बोले, और भला क्या करता! यही किया कि एक पुरानी साड़ी का पर्दा बना कर खिड़की पर लटका दिया।

पहुंचे हुए व्यक्ति हैं तुम्हारे पिताजी, विजय!

नसरुद्दीन आफिस गया था और फजलू स्कूल। गुलजान घर में अकेली थी। दोपहर को नसरुद्दीन के दोस्त सेठ चंदूलाल आए और धीरे-धीरे बातों ही बातों में एक हजार रुपए के बदले में गुलजान को अपना स्त्रीत्व बेचने के लिए फुसलाने लगे। कुछ समय तक आनाकानी करने के बाद गुलजान तैयार हो गई। चंदूलाल ने उसे नगद एक हजार रुपयों का बंडल थमा दिया।

शाम को नसरुद्दीन ने आफिस से आते ही पूछा, अरे, आज क्या मेरा दोस्त चंदूलाल आया था? उसकी छड़ी वहां कोने में टिकी है। लगता है छड़ी भूल गया!

गुलजान को तो पसीना छूट गया। मगर अब क्या कर सकती थी, कोने में छड़ी टिकी तो थी। बोली, हां, आज दोपहर को आया था।

मुल्ला ने कहा, गजब हो गया। मारवाड़ी से ऐसी आशा न थी। क्या वह पूरे एक हजार रुपए दे गया?

यह सुन कर तो गुलजान पर जैसे बिजली गिर पड़ी हो। घबड़ाहट में उसके मुंह से निकल गया, हां, पूरे एक हजार।

नसरुद्दीन ने खुशी से उछलते हुए कहा, मान गया मैं भी कि मारवाड़ी भी वायदे के पक्के होते हैं। पिछले महीने उसने एक हजार रुपए उधार लिए थे और वचन दिया था कि ठीक एक माह में आज की ही तारीख को लौटा दूंगा!

तुम घबड़ाओ मत विजय, अपने पिताजी को घर लौट कर कहना कि मैं तो चंदूलाल के लतीफे कहना बंद नहीं कर सकता, एक तरकीब है आसान। वे आ जाएं और संन्यासी हो जाएं। उनका नाम बदल दूंगा।

आज इतना ही।

आनहद में विसराम-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन-(गुरु तीर्थ हैं)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 17, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      बलं वाव विज्ञानाद् भूयः;

      अपि ह शतं विज्ञानवतां

      एको बलवान आकंपयते।

      स यदा बली भवति, अथोत्थाता भवति, उत्तिष्ठन परिचारिता भवति,

      परिचरन उपसत्ता भवति, उपसीदन द्रष्टा भवति,

      श्रोता भवति, मन्ता भवति,

      बुद्धा भवति,र् कत्ता भवति, विज्ञाता भवति।।

विज्ञान से बल श्रेष्ठ है, क्योंकि एक बलवान मनुष्य सौ विद्वानों को डराता है। बलवान होने पर ही मनुष्य उठ कर खड़ा होता है; उठने पर वह गुरु की सेवा करता है; सेवा करने से वह गुरु के पास बैठने लायक बनता है; पास बैठने से द्रष्टा बनता है, श्रोता बनता है, मनन करने वाला बनता है, बुद्ध बनता है, कर्ता बनता है, विज्ञानी बनता है।

भगवान, छांदोग्य उपनिषद के इस अजीब से सूत्र का आशय क्या है, यह हमें विशद रूप से समझाने की अनुकंपा करें।

 सहजानंद! Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-07)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-(ऋषि पृथ्वी के नमक हैं)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 16, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      लौकिकानां हि साधूनामर्थ वागनुवर्तते।

      ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति।।

लौकिक साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है; लेकिन जो आदि ऋषि थे, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता था।

भगवान, वसिष्ठ के इस सूत्र को समझाने की अनुकंपा करें। क्या आदि ऋषि वास्तव में इतने ही श्रेष्ठ थे?

 योग प्रतीक्षा!

साधु, और लौकिक! वह बात ही विरोधाभासी है। फिर साधु और असाधु में भेद क्या रहा? असाधु वह, जो लौकिक; जिसकी दृष्टि पदार्थ के पार नहीं देख पाती, पदार्थ में ही अटक जाती है; अंधा है जो। क्योंकि पदार्थ को ही देखने से बड़ा और क्या अंधापन होगा!

अस्तित्व परमात्मा से भरपूर है–सौंदर्य से, सत्य से, आनंद से; और तुम्हें केवल पदार्थ ही दिखाई पड़ता हो! एक बात जाहिर होती है उससे कि तुम्हारे पास सूक्ष्म को देखने की दृष्टि नहीं; सिर्फ स्थूल तुम्हारी पकड़ में आता है।

असाधु वह, जो स्थूल को ही पहचानता है। इतना ही नहीं, जो अपने अहंकार की रक्षा के लिए सूक्ष्म को इनकार भी करता है। क्षमा किया जा सकता है वह व्यक्ति, जो कहे कि मैं क्या करूं, अभी तो मुझे स्थूल ही दिखाई पड़ता है! हो सकता है, सूक्ष्म भी हो। खोजूंगा, तलाशूंगा, जिज्ञासा करूंगा। मैंने अपने चित्त के द्वार बंद नहीं कर लिए हैं। लेकिन वह व्यक्ति क्षमा नहीं किया जा सकता, जो कहता हो, पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। क्योंकि उसने सूक्ष्म के प्रवेश का मार्ग ही अवरुद्ध कर दिया। अब उसे व्यर्थ ही दिखाई पड़ेगा, सार्थक की कोई प्रतीति नहीं होगी।

इसलिए वसिष्ठ के इस सूत्र में पहला आक्षेप तो मुझे यह है कि वे कहते हैं: “लौकिकानां हि साधूनामर्थ वागनुवर्तते। वह जो लौकिक साधु है, उसकी वाणी अर्थ का अनुसरण करती है।’

लौकिक साधु जैसी कोई घटना ही नहीं होती। और अगर होती है, तो फिर उसे साधु न कहो। जिसको परमात्मा की जरा सी झलक भी न मिलती हो, उसे साधु कहोगे? जिसे किरण भी दिखाई न पड़ती हो, उसे आंख वाला कहोगे? जिसे सौंदर्य का बोध ही न होता हो, उसे कवि कहोगे? सौंदर्य-मर्मज्ञ कहोगे? जिसके जीवन में प्रेम की बूंदा-बांदी भी न हुई हो, उसे प्रेमी कहोगे?

लौकिक साधु तो सिर्फ पाखंडी है। यद्यपि यह सच है–और शायद इसीलिए वसिष्ठ ने यह सूत्र कहा–कि सौ साधुओं में से निन्यानबे लौकिक साधु हैं। ऐसा लगता है, वसिष्ठ कठोर नहीं होना चाहते होंगे, इसलिए बात को मिठास से कह दिया। कबीर जैसे न रहे होंगे।

कबीर ने कहा है: कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।

कि कबीर बाजार में खड़ा है, लट्ठ हाथ में लिए हुए।

कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।

जो  घर  बारै  आपना,  चलै  हमारे  साथ।।

हो हिम्मत घर को जलाने की, तो आ जाओ, चलो हमारे साथ। लट्ठ लिए, कबीर कहते हैं, मैं खड़ा हूं बाजार में!

कबीर सीधी चोट करते हैं। उस चोट में कहीं कोई समझौता नहीं होता। वसिष्ठ सत्य को भी कहते हैं, तो लीप-पोत देते हैं। उसको भी थोड़ी सी मिठास, थोड़ी सी चासनी दे देते हैं!

लौकिक साधु? ऐसी कोई बात ही नहीं होती। लौकिक होगा, तो साधु नहीं। साधु होगा, तो लौकिक नहीं। यह तो विपरीत को एक साथ जोड़ देना हो गया। यह तो यूं हुआ, जैसे कोई कहे, अंधेरा दिन! यह तो आधी रात ऊगा हुआ सूरज हो गया!

लेकिन एक अर्थ में वसिष्ठ ठीक कहते हैं कि निन्यानबे साधु, सौ में से, ऐसे ही हैं। नाम-मात्र के साधु! साधु का वेश है, साधु की आत्मा नहीं। साधु का आवरण है, साधु का अंतस नहीं। और आवरण बड़ी सस्ती बात है। आचरण भी बड़ी सस्ती बात है। कोई कठिनाई नहीं है साधु के आचरण में। थोड़े अभ्यास की बात है। दो बार भोजन न किया, एक बार भोजन किया। यह न खाया, वह न पीया। या जैसा कल डोंगरे महाराज ने बताया कि पानी पीओ, तो पहले प्रभु का स्मरण करो। पानी भी पीओ, तो प्रभु का स्मरण करो। भोजन करो, तो प्रभु का स्मरण करो। अगर अन्न बिना प्रभु के स्मरण के खाया, तो पाप खाया! पानी बिना प्रभु के स्मरण के पीया, तो पाप पीया!

ऐसे एक महापुरुष से मेरा मिलना हो गया था। मैं आगरा से गुजर रहा था; जयपुर से लौटता था, आगरा में कोई छह घंटे का समय था गाड़ी बदलने में। एक मित्र बहुत दिन से पत्र लिखते थे कि कभी आगरा से गुजरें–और आप जरूर गुजरते होंगे, क्योंकि जयपुर की खबरें मिलती हैं; और यहां छह घंटे स्टेशन पर रुकना ही होता होगा, तो मेरे घर को ही पवित्र करें।

तो मैंने कहा, ठीक। उन्हें खबर कर दी।

जानता तो नहीं था, पहचानता तो नहीं था; पत्र से ही मुलाकात थी। जो सज्जन लेने आए थे, उन्होंने आते ही से कहा कि बस, जल्दी करिए! कहीं मेरे बड़े भाई न आ जाएं!

मैंने पूछा कि आप ही मुझे पत्र लिखते थे?

उन्होंने कहा कि नहीं, पत्र तो मेरे बड़े भाई लिखते हैं। मगर मेरी और उनकी जानी दुश्मनी है। यह मौका मैं नहीं दे सकता कि आपका स्वागत वे करें। सो मैं पहले से ही हाजिर हूं! बंटवारा हो गया है। आधे मकान में वे रहते हैं, आधे में मैं रहता हूं। और आपको तो मेरा ही आतिथ्य-ग्रहण स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि मैं ही पहले आया हूं!

मैंने कहा, मुझे क्या फर्क पड़ता है! और आधा घर तुम्हारा, आधा बड़े भाई का! चलो, तुम्हारे साथ ही चल पड़ता हूं; तुम आ गए।

उनको लेकर बीच रास्ते पर ही पहुंचा था कि बड़े भाई आ गए! एकदम भागे हुए चले आ रहे थे! आते ही से बोल, ओम! मैंने पत्र लिखा था, उन्होंने कहा, और यह छोटा भाई आपको कहां ले जा रहा है? यह दुष्ट यहां भी आ गया! चलिए, बैठिए मेरे तांगे में!

छोटे भाई ने कहा कि देखिए, मैंने पहले ही कहा था कि जल्दी करिए। अगर बड़ा भाई आ गया, तो बस मुश्किल हो जाएगी!

और बड़ा भाई था भी पहलवान-छाप! छोटे भाई थे भी दुबले-पतले। तो बड़े भाई ने आव देखा न ताव, उन्होंने तो सामान ही उतार कर मेरा भी हाथ पकड़ कर अपने तांगे में ही बिठा लिया! लेकिन एक उनकी खूबी थी कि कोई भी काम करते थे, तो पहले ओम कहते थे! मेरा हाथ पकड़ कर उतारा, तो ओम! मेरा बिस्तर उतारा, तो ओम! हालांकि कर रहे थे बिलकुल गलत काम। क्योंकि वह छोटा भाई बेचारा चुपचाप खड़ा था। अब क्या कहे! और मैं देख रहा था कि अगर वे उसकी पिटाई भी करेंगे, तो पहले, ओम! और वही हुआ।

उनके घर पहुंच गया। बंटवारा कर लिया था घर का, लेकिन एक कक्ष बीच का, बड़ा कमरा था, वह खाली छोड़ रखा था; वह बांटा नहीं था। उसमें दोनों आ-जा सकते थे। बाकी तो प्रवेश असंभव था एक-दूसरे के घर में, मगर एक कमरा छोड़ रखा था। तो जैसे ही मैं बड़े भाई के घर में प्रविष्ट हुआ, दरवाजे पर ही उन्होंने कहा, ओम। आइए भीतर!

छोटे भाई ने अपने दरवाजे से कहा कि देखिए, आप इतनी कृपा करिए कि कम से कम बीच के कमरे में रुकिए, वहां मैं भी आ सकता हूं, बड़े भाई भी आ सकते हैं। अगर आप उनके ही घर में रुके, तो मैं नहीं आ सकूंगा। मेरे घर में रुके, तो वे नहीं आ सकेंगे!

मैंने कहा, यह बात तो ठीक है।

लेकिन बड़े भाई ने कहा, ओम! और सामान उठा कर वे तो अपने घर में ही ले गए!

बड़े भाई फोटोग्राफर थे। सो उन्होंने कहा, इसके पहले कि छोटा भाई उपद्रव करे, और यह आएगा बार-बार दरवाजे पर और कहेगा कि मेरे घर आइए, और भोजन करिए; यह करिए, वह करिए; मैं आपकी तस्वीर उतार लूं। इसी के लिए असल में मैंने आपको पत्र लिखा था। यही एक आकांक्षा थी।

मैंने कहा, जैसी मर्जी! अब आपके हाथ में हूं, छह घंटे जो करना हो, करिए!

तस्वीर भी क्या उतारी! हर चीज में ओम! बिलकुल डोंगरे महाराज के भक्त थे! प्लग भी लगाएं, तो ओम! प्लग निकालें, तो ओम! मुझे कुर्सी पर बिठालें, तो ओम! कैमरा घुमाएं, तो ओम! प्लेट लगाएं, तो ओम! ओम से ही सब चीज शुरू हो!

एक कंघी ले आए और मेरे बाल बनाने लगे, और बोले, ओम!

मैंने कहा, देखें, मैं जैसा हूं, तुम मुझे वैसा ही छोड़ो!

एकदम नाराज हो गए। आदमी तो गुस्सेबाज थे ही। कहा, जैसी मर्जी! ओम कह कर कंघी फेंक दी और मेरे बाल एकदम छितरा दिए!

जब यह सब चल रहा था, तभी पड़ोस के एक सज्जन आ गए। उनको भी खबर मिल गई कि मैं आया हूं, तो आकर बैठ गए। यह फोटो उतर जाए, तो फिर वे मुझसे कुछ बात करना चाहते थे। तभी बड़े भाई की नौकरानी निकली, और उन सज्जन ने कहा कि बाई, एक गिलास पानी! गरमी के दिन थे। बस, एकदम बोले, ओम! अरे, मर्द बच्चा होकर शर्म नहीं आती स्त्री से पानी मांगते हो! नल सामने लगा है, भर लो और पी लो! मर्द होकर और स्त्री से पानी मांगना! फिर मेरी तरफ धीरे से बोले, ओम! यह मेरे भाई का दोस्त है। साले को ठीक किया!

ओम भी कहते जाते हैं!

ये जो तुम्हारे तथाकथित साधु हैं, ये ओम का उच्चार भी करते रहेंगे और ओम के भीतर क्या-क्या नहीं भरा होगा! क्या-क्या नहीं उपद्रव होंगे! आचरण भी साध लेंगे, मगर ठीक आचरण से विपरीत इनका भीतर का जीवन होगा–ठीक विपरीत।

दो दिगंबर जैन मुनियों में मार-पीट हो गई। होनी तो असंभव ही चाहिए यह बात। एक तो दिगंबर जैन मुनि, जिसने सब छोड़ दिया, कपड़े भी छोड़ दिए, अब क्या मार-पीट को बचा! लोग कहते हैं: जर, जोरू, जमीन, झगड़े की जड़ तीन! वे तो तीनों ही छूट गईं! मगर गजब के लोग हैं, फिर भी झगड़ा निकाल लिया! न जर है, न जोरू है, न जमीन है। कुछ भी नहीं है। दिगंबर जैन मुनि–कपड़े भी नहीं हैं, लंगोटी भी नहीं है–अब झगड़े का क्या उपाय है!

उसी दिन मुझे पता चला कि वह सूत्र पर्याप्त नहीं है। अरे, झगड़ा ही करना हो तो आदमी कर लेगा। जर, जोरू, जमीन की कोई जरूरत नहीं। जर, जोरू, जमीन तो बहाने हैं, खूंटियां हैं। झगड़ा टांगना है, कहीं भी टांग दो। खूंटी हुई, खूंटी पर टांग दो। न हुई, तो खीली पर टांग दो। खीली न हुई, तो खिड़की पर टांग दो, कुर्सी पर टांग दो। नहीं तो अपने ही कंधे पर टांग लो। मगर टांग लोगे। कुछ न कुछ उपाय…!

झगड़ा कहां हुआ? दोनों गए थे सुबह मल-विसर्जन को। एकांत में झगड़ा हो गया। एक-दूसरे की पिटाई कर दी। पिटाई काहे से की? और तो कुछ था नहीं; पिच्छी रखते हैं जैन मुनि। पिच्छी रखी जाती है कि कोई चींटी भी न मर जाए। पिच्छी में ऊन का बना हुआ गुच्छा होता है। छोटी सी डंडी होती है, ऊन का गुच्छा होता है। तो जैन मुनि कहीं बैठे, तो पहले पिच्छी से वह जगह को साफ कर ले। ऊन का गुच्छा इसलिए ताकि पिच्छी की चोट भी न लगे। अगर चींटी भी हो, तो ऊन के धक्के से उसे कोई चोट न लगे, हटा दी जाए; फिर बैठे। स्थान को साफ करके बैठे।

वही पिच्छी थी उनके पास। उसमें डंडा भी होता है लेकिन पिच्छी में! यह महावीर ने सोचा ही न होगा कि पिच्छी तो ठीक है कि चींटी बच जाएंगी, मगर डंडा! कभी मौका आ गया, तो काम आ जाएगा। आ गया उस दिन काम। एक-दूसरे ने पिच्छी से पिटाई कर दी! वह डंडे का उपयोग हो गया!

कुछ गांव के ग्रामीण लोगों ने पकड़ लिया उनको एक-दूसरे को मारते हुए। वे पुलिस थाने ले गए। बामुश्किल उनको बचाया गया। जैनियों में बड़ी हड़कंप मची, क्योंकि उनके जैन मुनि इस तरह का व्यवहार करें, जो निरंतर आत्मज्ञान की बात करते हैं! जो जीवन को तपाते, तपश्चर्या करते, साधना करते!

और इनके झगड़े का कारण क्या? जब पुलिस ने पूछताछ की, तो जो झगड़े का कारण था वह और भी बड़ा मजेदार था! वह जो पिच्छी का डंडा था, बांस का डंडा, उसको भीतर से पोला करके उसमें सौ-सौ के नोट भरे हुए थे! वह उनका बटुआ था, वह जो डंडा था!

अगर जैन मुनियों की पिच्छी देखो, तो डंडा जरूर गौर से देख लेना! क्योंकि वही है उनके पास। और कोई उपाय नहीं है मगर। आदमी इतना होशियार है कि उसको डंडे को पोला करके अंदर उसमें गिड्डियों पर गिड्डियां उन्होंने भर रखी थीं! झगड़ा यह हो गया कि बंटवारा, जो बड़े मुनि थे वे ज्यादा चाहते थे छोटे मुनि से। सीनियारिटी का सवाल था! और छोटे मुनि भी बराबर चाहते थे; नहीं तो, वे कहते थे, हम पोल-पट्टी उखाड़ देंगे! षडयंत्र में कहीं कोई सीनियर-जूनियर होता है! यह कोई सरकारी दफ्तर थोड़े ही है!

इसी पर झगड़ा हुआ। इसी पर मार-पीट हो गई। रुपए भी पकड़े गए। और जैनियों ने किसी तरह रिश्वत खिला कर मामले को दबाया कि कहीं यह पता न चल जाए सबको! मेरे पास आए कि क्या करना चाहिए?

मैंने कहा कि अखबारों में खबर देनी चाहिए! फोटो छापने चाहिए!

उन्होंने कहा, आप क्या कहते हो! अरे, हम यह पूछने आए हैं कि इसको किस तरह रफा-दफा करना! क्योंकि मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है। उसमें हमारे धर्म की भी प्रतिष्ठा का सवाल है।

मैंने कहा कि मेरे लिए भी धर्म की प्रतिष्ठा का सवाल है और मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है। निन्यानबे इस तरह के मुनि उस एक मुनि को डुबाए दे रहे हैं, जो सच्चा होगा। उसको बचाना है कि इन निन्यानबे को बचाना है!

लेकिन लोग निन्यानबे को बचाने में लगे हैं; एक डूबे तो डूब जाए! संख्या का मूल्य है। हर जगह संख्या का मूल्य है।

तो वसिष्ठ इस अर्थों में, प्रतीक्षा, ठीक कहते हैं कि लौकिकानां हि साधूनामर्थ वागनुवर्तते। वे जो लौकिक साधु हैं…!

लौकिक अर्थात जो साधु नहीं हैं, बस दिखाई पड़ते हैं; नाम-मात्र को हैं। लेबिल साधु का है, भीतर कुछ और है। भीतर तो लोक ही है। अभी अलोक से कोई संबंध नहीं हुआ; अलौकिक से कोई नाता नहीं हुआ।

मगर यही तो तुम्हें मिलेंगे। फिर चाहे मुक्तानंद हों, चाहे अखंडानंद हों, और चाहे स्वरूपानंद हों, यही तुम्हें मिलेंगे। लौकिक साधु ही तुम्हें मिलेंगे। और तब यह सूत्र बड़ा सार्थक है। लौकिक साधु की बात को तुम ठीक से खयाल में ले लो, तो सूत्र में बड़ी सार्थकता है।

सूत्र कहता है, ऐसे साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है।

ऐसे साधुओं के पास अपनी कोई अंतरवाणी तो होती नहीं। अपना कोई अनुभव तो होता नहीं। ऐसी तो कोई प्रतीति होती नहीं कि जिस शब्द को छू दें, वह जीवित हो जाए। ऐसा कोई जादू तो होता नहीं कि मिट्टी को छुएं और सोना हो जाए।

तो ऐसे व्यक्तियों की वाणी तो शास्त्रों का अनुसरण करेगी। शास्त्र में उनका अर्थ है; जीवन में उनके कोई अर्थ नहीं है। अर्थ गीता में है, वेद में है, कुरान में है, बाइबिल में है, धम्मपद में है। अर्थ स्वयं में नहीं है। और जो अर्थ स्वयं में नहीं है, वह अनर्थ है। उसे अर्थ कहो ही मत। क्योंकि गीता में जो अर्थ है, वह कृष्ण का अर्थ होगा, वह कृष्ण का अनुभव होगा। वह अर्जुन का भी नहीं बन सका! तो तुम्हारा क्या बनेगा?

कभी सोचो इस बात को। कितना सिर मारा कृष्ण ने, तभी तो गीता बनी! काफी सिर मारा! मगर अर्जुन भी बचाव करता गया। वह भी दांव-पेंच लगाता रहा। बड़ी देर तक यह मल्लयुद्ध चला। और अर्जुन ने जब अंततः यह कहा कि मेरे सब संदेह गिर गए; निरसन हो गया मेरे संदेहों का; तो भी मुझे भरोसा नहीं आता! मुझे तो यही लगता है कि वह घबड़ा गया कि बकवास कब तक करनी! मतलब यह आदमी मानेगा नहीं। यह खोपड़ी खाए चला जाएगा। यहां से बचाऊंगा, तो वहां से हमला करेगा।

तर्क उसका हार गया, वह स्वयं नहीं हारा। क्योंकि महाभारत की कथा इस बात को प्रकट करती है कि जब पांडव मरे और उनका स्वर्गारोहण हुआ, तो सब गल गए रास्ते में ही; अर्जुन भी गल गया उसमें! सिर्फ युधिष्ठिर और उनका कुत्ता, दो पहुंचे स्वर्ग के द्वार तक। अगर अर्जुन को कृष्ण की बात समझ में आ गई थी और जीवन रूपांतरित हो गया था, तो गल नहीं जाना चाहिए था। महाभारत की कथा इस बात की सूचना दे रही है कि अर्जुन को भी अनुभव नहीं हुआ। मान लिया, कि अब कब तक तर्क करो! कब तक प्रश्न करो! इससे बेहतर है निपट ही लो। उठाओ गांडीव, जूझ जाओ युद्ध में। मरो, मारो, झंझट खत्म करो। इस आदमी से बचाव नहीं है! इस आदमी के पास प्रबल तर्क हैं।

मगर तर्क से कोई रूपांतरित नहीं होता। अर्जुन भी रूपांतरित नहीं हुआ। कृष्ण का अर्थ अर्जुन का भी अर्थ नहीं बन सका, जो कि आमने-सामने थे; जिनमें मैत्री थी, संबंध था, एक-दूसरे के प्रति सदभाव था। तो तुम्हारे और कृष्ण के बीच तो पांच हजार साल का फासला हो गया। तुम क्या खाक कृष्ण के अर्थ को अपना अर्थ बना पाओगे! तुम्हें तो अपना अर्थ खुद खोजना होगा।

हां, यह बात जरूर सच है, तुम अगर अपना अर्थ खोज लो, तो तुम्हें कृष्ण का अर्थ भी अनायास मिल जाएगा। क्योंकि सत्य के अनुभव अलग-अलग नहीं होते। सत्य को मैं जानूं, कि तुम जानो, कि कोई और जाने; अ जाने, कि ब जाने, कि स जाने; सत्य का अनुभव तो एक होता है। सत्य का अनुभव हो जाए, तो बाइबिल और वेद और जेन्दावेस्ता, सब के अर्थ एक साथ खुल जाएंगे।

लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?

अब जैसे यह सूत्र मैंने इसके पहले कभी पढ़ा ही नहीं। यह वसिष्ठ का सूत्र भी है, यह भी मुझे पक्का नहीं। यह तो जो प्रश्न पूछा है प्रश्नकर्ता ने, उसको मान कर मैं उत्तर दे रहा हूं। मैंने यह सूत्र कभी पढ़ा नहीं। पढ़ने की कोई जरूरत नहीं।

लोग मुझसे पूछते हैं, क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?

पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। एक शास्त्र मैंने पढ़ा–अपने भीतर। और उसको पढ़ लेने के साथ ही सारे शास्त्रों के अर्थ प्रकट हो गए। अब तुम कोई भी शास्त्र उठा लाओ, मेरे पास अपनी रोशनी है जिसमें मैं उसका अर्थ देख लूंगा। इससे क्या फर्क पड़ता है! मेरे पास दीया जला हुआ है, तुम वेद लाओगे, तो वेद उस दीए की रोशनी में झलकेगा। और तुम कुरान लाओगे, तो कुरान झलकेगी। और तुम धम्मपद लाओगे, तो धम्मपद झलकेगा। तुम जो भी ले आओगे, उस रोशनी में झलकेगा। दीए को क्या फर्क पड़ता है कि वेद सामने रखा है, कि कुरान, कि बाइबिल! दीए की रोशनी तो पड़ेगी सब पर समान, सम-भाव से।

तो मैं तो यह भी नहीं कह सकता कि यह वसिष्ठ का सूत्र ही है। हो या न हो, इतना साफ है कि वह जो लौकिक साधु है, जिसको वसिष्ठ ने लौकिक साधु कहा है, उसके पास कोई अपनी अनुभूति की संपदा नहीं होती। भीतर तो वह बिलकुल थोथा होता है। ईश्वर को मानता है, जानता नहीं। और जब तक जाना नहीं, तब तक मानने में कुछ मूल्य है? तब तक मानना असत्य है, बेईमानी है, पाखंड है। जो जाना है, बस उसको मानना। और जो न जाना हो, तब तक साफ रहे कि मैंने नहीं जाना है, तो कैसे मानूं? कम से कम ईमानदारी तो मत गंवा देना। धार्मिक होने के लिए कम से कम ईमानदारी तो अनिवार्य है।

और तुम्हारे तथाकथित विश्वासियों ने उतनी निष्ठा भी नहीं बरती। कोई हिंदू बन गया, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन। किसी ने जाना नहीं। यहां तक कि जो नास्तिक बना बैठा है, उसने भी कुछ जाना नहीं; उसने नास्तिकता उधार ले ली है। किसी ने आस्तिकता उधार ले ली है! तुम्हारा सारा जीवन उधार है!

स्वभावतः, तुम्हारी वाणी किसी और के अर्थ का अनुसरण करेगी। तुम किसी और का गीत गाओगे। गीत तो गा लोगे, मगर वह थोथा होगा। उसमें कोई गहराई न होगी, ऊपर-ऊपर होगा। शब्द ही शब्द होंगे, शब्दों के भीतर कोई संपदा न होगी। बुझे हुए दीयों की कतार होगी, मगर एक भी दीया जला हुआ नहीं होगा। क्योंकि अगर एक दीया भी जला हो, तो पूरी कतार ही जलाई जा सकती है, सारी दीपावली मनाई जा सकती है।

तो यूं सूत्र ठीक है; सिर्फ लौकिक साधु शब्द पर मेरा एतराज है। उसे साधु नहीं कहना चाहिए। समय आ गया कि हम उसे साधु न कहें। उसकी दृष्टि लौकिक है, तो क्यों साधु कहना? हां, यह हो सकता है, घर छोड़ कर चला गया हो। लेकिन घर छोड़ कर गया, वह भी लौकिकता है।

कैसा मजा है! एक तरफ तो ये तुम्हारे साधु कहते हैं: संसार माया। और दूसरी तरफ कहते हैं: संसार त्याग करो! माया का भी त्याग हो सकता है? जो है ही नहीं, उसका भी त्याग हो सकता है? यह क्या पागलपन की बात है!

रात तुमने सपना देखा कि तुम सम्राट थे। बड?ा तुम्हारा साम्राज्य था। स्वर्ण तुम्हारे महलों में ढेरों से भरा था। हीरे-जवाहरात के अंबार लगे थे। और सुबह तुम्हारी आंख खुली; तुम जाग गए। और तुमने पाया कि वह सपना था! फिर क्या तुमसे यह कहना होगा कि भैया, सपने का अब त्याग करो! छोड़ो सपने को; वह सपना था! और क्या तुम यह कहोगे, छोड़ेंगे भाई। धीरे-धीरे छोड़ेंगे। अभी कैसे छोड़ें! शास्त्र के अनुसार छोड़ेंगे। पचहत्तर वर्ष की उम्र में संन्यास लेंगे, तब छोड़ेंगे! अभी कैसे छोड़ दें! अभी तो भोग लेने दो थोड़ा। अभी तो यह स्वर्ण-महल, ये हीरे-जवाहरात, यह साम्राज्य, यह मजा-मौज, अभी तो भोग लेने दो! अभी तो मैं जवान हूं। अभी छोड़ने की बात न करो। माना कि तुम जो कहते हो, ठीक ही कहते हो; ठीक ही कहते होओगे। क्यों तुम गलत कहोगे! क्यों तुम मुझे भरमाओगे! तुम साधु पुरुष हो! नमन करता हूं; चरण छूता हूं। तुम्हारी पूजा करूंगा, और याद रखूंगा। मगर समय पकने दो। जब पचहत्तर साल का हो जाऊंगा, तब इस सपने का बिलकुल त्याग कर दूंगा। अरे, छोड़ना तो है ही। संसार माया है। कौन नहीं जानता है! मगर अभी नहीं। अभी समय नहीं। अभी समय आया नहीं। क्या तुम ऐसा कहोगे?

सपने को सपने की तरह जानने में ही सपना छूट गया। इसलिए मैं अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कहता। मैं कहता हूं, जब सपना ही है, तो छोड़ना क्या!

छोड़ना नहीं है, जागना है। भागना नहीं है, जागना है।

सदियों से तुम्हें भगोड़ापन सिखाया गया है। और भागने का अर्थ है, मूल्य बदलते नहीं; मूल्य वही के वही रहते हैं। कुछ लोग धन की तरफ दौड़े जा रहे हैं। उनका मूल्य भी धन है–कितना इकट्ठा कर लें! और फिर कुछ लोग हैं जो धन छोड़ कर भागे जा रहे हैं। उनका मूल्य भी धन है; उनकी कसौटी भी धन है–कितना छोड़ दें! तुम त्यागियों को भी नापते हो, तो तराजू वही। राकफेलर को और बिड़ला को और टाटा को भी नापते हो, तो तराजू वही। और महावीर को और बुद्ध को नापते हो, तो भी तराजू वही! असली सवाल तराजू का है।

जैन शास्त्र वर्णन करते हैं, इतने हाथी, इतने घोड़े, इतना धन, इतना महल, सब महावीर ने छोड़ दिया! यह हाथी-घोड़ों की गिनती, ये धन के अंबार, इनकी चर्चा शास्त्र इतने रस से करते हैं कि बात जाहिर है, वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हमारे महावीर कोई छोटे-मोटे साधु नहीं थे; बड़े साधु थे! महासाधु थे! देखो, कितना छोड़ा!

मापदंड क्या है? इसीलिए तो कोई गरीब आज तक, न तो हिंदुओं ने उसे अवतार माना, न बौद्धों ने उसे बुद्ध माना, न जैनों ने उसे तीर्थंकर माना! क्योंकि कसौटी ही पूरी नहीं होती। सवाल यह है, छोड़ा क्या? कितना छोड़ा? अब तुम कहो, हमने एक लंगोटी छोड़ दी। तो वे कहेंगे, भाग जाओ यहां से! लंगोटी छोड़ कर और तीर्थंकर होने के इरादे रख रहे हो! राजपाट कहां है? हाथी-घोड़े कितने हैं?

अब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी भविष्य में। तीर्थंकर होने ही मुश्किल हो जाएंगे, क्योंकि राजपाट न रहे। अब तो सिर्फ इंग्लैंड में ही तीर्थंकर हो सकते हैं! या ताश के पत्तों में! कहते हैं, बस पांच ही राजा बचेंगे दुनिया में: चार तो ताश के पत्तों के और एक इंग्लैंड का। और इंग्लैंड का राजा ताश के पत्तों से भी गया-बीता है। ताश के पत्तों में भी कुछ अकड़ होती है; इंग्लैंड के राजा में वह भी नहीं! वह सिर्फ नाम-मात्र का!

तो अब तो इंग्लैंड में ही आशा समझो कि बुद्ध पैदा हों; तीर्थंकर पैदा हों; अवतार पैदा हों। भारत में तो असंभव। अब तो राजपाट रहे नहीं। अब साम्राज्य नहीं, हाथी-घोड़े नहीं, छोड़ोगे क्या? क्या कहोगे कि मैंने एक साइकिल छोड़ दी! कम से कम घोड़ा तो हो! क्या छोड़ोगे? और साइकिल छोड़ कर दावा करोगे तीर्थंकर होने का! लोग कहेंगे, लाज-संकोच न आई! अरे, शरम खाओ! है क्या तुम्हारे पास?

इसीलिए तो कोई कबीर को तीर्थंकर नहीं कहता। हालांकि कबीर में क्या कमी है किसी तीर्थंकर से! मगर कैसे कबीर को तीर्थंकर कहो? जुलाहे! छोड़ने वगैरह को कुछ है ही नहीं। पकड़ने को ही नहीं है; छोड़ने को कहां से लाओ! रोज बुन लेते हैं कपड़ा, रोज बेच लेते हैं। बस, किसी तरह खाना-पीना चल जाए। वह भी पूरा नहीं चल पाता; उसमें भी बड़ी झंझटें आ जाती हैं। बड़ी अदभुत कहानी है; सत्य वेदांत ने लिख कर मुझे भेजी है। बहुत प्यारी है। खूब सोचने जैसी है। और सिर्फ कबीर जैसे आदमी की जिंदगी में हो सकती है। कबीर की कीमत आंकनी मुश्किल है।

कहानी यह है कि कबीर को तो जो भी घर में आ जाए–और सुबह से बहुत से लोग आ जाते! कबीर की मस्ती में कौन न डूबना चाहे! कबीर के आनंद में कौन भागीदार न होना चाहे! दूर-दूर से लोग आ जाते। सुबह से कीर्तन छिड़ जाता। नाच होता, गीत होता। भीतर की शराब बहती। लोग मदमस्त होकर पीते। फिर भोजन का समय हो जाता, तो कबीर की आदत थी, वे लोगों से कहते कि भैया, यूं ही मत चले जाना। अरे, भोजन तो कर जाओ। अब आ ही गए, तो भोजन कर जाओ।

कभी दो सौ आदमी, कभी तीन सौ आदमी, कभी पांच सौ आदमी। गरीब कबीर की हैसियत क्या! बामुश्किल दिन भर कपड़ा बुन कर कितना बुनोगे? उधारी चढ़ती जाती! पत्नी परेशान, बेटा परेशान! एक दिन यह हालत हो गई कि जब पत्नी बाजार गई और दुकानदार से उसने भोजन के लिए प्रार्थना की कि घर में दो सौ आदमी बैठे हैं और मेरे पति ने निमंत्रण दे दिया है! मैं पीछे के दरवाजे से भाग कर आई हूं! जल्दी से कुछ चावल दो, घी दो, आटा दो।

उस दुकानदार ने कहा, अब बहुत हो गया। पहले का कर्ज चुकाओ। यह कर्ज बढ़ता ही जा रहा है। यह चुकेगा कैसे? मेरी दुकान तुम डुबा दोगे! यह कबीर का तो भजन चले और मेरा भंडा फूटा जा रहा है। कबीर तो हर किसी को निमंत्रण दे देते हैं! कबीर को पता है कि बर्बादी मेरी हो रही है! यह चुकेगा कैसे? कर्ज इतना हो गया है कि अब मैं और नहीं दे सकता।

पत्नी ने कहा, कुछ भी करो, आज तो देना ही होगा; इज्जत का सवाल है। मैं किस मुंह से जाकर कहूं! लोग बैठे हैं। भोजन तो कराना ही होगा।

उस दुकानदार की बहुत दिन से कबीर की पत्नी पर नजर थी। कबीर की पत्नी थी, सुंदर रही होगी। कबीर जैसे व्यक्ति की पत्नी हो, असुंदर भी रही होगी तो सुंदर हो गई होगी। कबीर का संग-साथ मिला होगा, रंग-रूप निखर आया होगा, प्रसाद उतर आया होगा। जहां चौबीस घंटे कबीर के आनंद की वर्षा हो रही थी, वहां कोई कुरूप कैसे रह जाएगा! सुंदर थी, बहुत सुंदर थी। नजर तो दुकानदार की बहुत दिन से थी, आज मौका देख लिया उसने कि आज यह फंस गई। उसने कहा कि अगर तेरी सच में ही ऐसी निष्ठा है, तो वायदा कर कि आज रात मेरे पास सोएगी। तो सारा कर्ज समाप्त कर दूंगा।

पत्नी ने कहा, जैसी मर्जी। भोजन तो कराना ही होगा।

कबीर की ही पत्नी थी। कोई साधारण लौकिक साधु की पत्नी नहीं थी। कबीर की ही पत्नी थी। यह कबीर के ही योग्य थी बात। उसने कहा, ठीक है। अगर तुझे इससे ही हल हो जाता हो, तो ठीक है। यह निपटारा हुआ। और यह अच्छा रास्ता मिल गया। तूने पहले ही क्यों न कहा! यह रोज-रोज की परेशानी कभी की मिट गई होती। ठीक है, सांझ मैं आ जाऊंगी।

वह तो ले आई। उसने सब को भोजन करवाया। सांझ वर्षा होने लगी। बड़े जोर से वर्षा होने लगी। वह सजी-संवरी बैठी। कबीर ने पूछा, कहीं जाना है या क्या बात है? तू सजी-संवरी बैठी है। बरसा जोर से हो रही है।

उसने कहा, जाना है, और जरूर जाना है। तुमसे क्या छिपाना है!

इसको प्रेम कहते हैं। तुमसे क्या छिपाना है!

पूरी कहानी कह दी कि यूं-यूं मामला है। कर्ज बहुत बढ़ गया है। आज दुकानदार देने को राजी न था। उसने तो कहा, आज रात अगर तू मेरे पास आकर रुक जाए पूरी रात, तो सारा कर्ज माफ कर दूंगा। तो कुंजी हाथ लग गई। अब कोई चिंता नहीं। अब तुम जितनों को निमंत्रण देना हो दो। यह मूरख इतने दिन तक बोला क्यों नहीं! यह बोल देता, तो कभी की बात ही खतम हो जाती। यह रोज-रोज की अड़चन तो न होती। तो मुझे जाना है।

कबीर ने कहा कि बरसा बहुत जोर की हो रही है। मैं तुझे छोड़ आता हूं!

यह सिर्फ कबीर ही कह सकते हैं। कबीर ने छाता लिया, पत्नी को छाते में छिपाया, उसे ले गए। और कहा कि तू भीतर जा, मैं बाहर बैठा हूं, क्योंकि बरसा बंद हो नहीं रही। जब निपट चुके, तो मैं तुझे घर वापस ले चलूंगा। रात भी अंधेरी है; बरसा भी जोर की है; तो मैं यहां बाहर छप्पर में बैठा रहूंगा!

कबीर छप्पर में बैठ रहे। पत्नी ने दरवाजे पर दस्तक दी। दुकानदार वैसे तो बड़ी उत्सुकता से राह देख रहा था, लेकिन डर भी रहा था। डर इसलिए रहा था कि पत्नी ने इतनी सहजता से हां भर दी थी कि उसे भरोसा ही न आ रहा था! कि एक दफे भी इनकार न किया! अरे, कोई सती-सावित्री होती, तो फौरन चप्पल निकाल लेती! जो चप्पल निकाले, समझ लेना कि यह सती-सावित्री नहीं है! वह चप्पल निकालना ही जाहिर कर रहा है कि लंपट है।

एकदम हां भर दिया! भरोसा नहीं आ रहा था। और कबीर की पत्नी ऐसा हां भर दे! न लाज, न संकोच, न विरोध! एक चेहरे पर बदली भी न आई! जैसे कोई खास बात ही न हो। आएगी भी कि नहीं, यह भरोसा नहीं था। सोचता था कि धोखा दे गई। सोचता था कि ले गई सामान, आने-वाने वाली नहीं है।

लेकिन जब द्वार पर उसने दस्तक दी और दरवाजा खोला और पत्नी सामने खड़ी थी! सज-बज कर आई थी। जो भी घर में सुंदर था, पहन कर आई थी। घबड़ा गया; दुकानदार घबड़ा गया! पसीना छूट गया! सोचा न था कि पत्नी आ जाएगी। एक दफा तो आंख पर भरोसा न आया। और दूसरी बात देख कर और हैरान हुआ कि इतनी धुआंधार बरसा हो रही है, मूसलाधार, और पत्नी बिलकुल भीगी नहीं है!

उसने पूछा कि इतनी मूसलाधार बरसा में मुझे भरोसा न था कि तू आएगी। मगर आई, यह ठीक। मगर यह चमत्कार क्या है कि तुझ पर तो बूंद भी नहीं पड़ी! तेरे कपड़े तो भीगे भी नहीं!

उसने कहा, भीगते कैसे! अरे, कबीर जो मुझे साथ लेकर आए; खुद भीगते रहे, छाते में मुझे छिपाए रहे। कहने लगे, मैं भीग जाऊं तो कोई बात नहीं, लेकिन तुझे तो अब उस दुकानदार के पास जाना है। उस बेचारे का क्या कसूर कि आज बरसा हो रही है!

वह तो दुकानदार और भी लड़खड़ा गया। उसने कहा, कबीर छोड़ गए! कबीर कहां हैं? गए कि यहीं हैं?

उसने कहा, गए नहीं। छप्पर में बैठे हैं। क्योंकि वे कहते हैं, तू निपट जाए, पता नहीं बरसा रुके न रुके, रात अंधेरी है, तो ले जाने के लिए बैठे हैं! तो जल्दी निपट लो, तुम्हें जो करना हो कर लो, क्योंकि उनको ज्यादा देर बिठाए रखना भी ठीक नहीं। सुबह ब्रह्ममुहूर्त में फिर उठ आना होता है, और फिर भजन-कीर्तन, और भक्त इकट्ठे होंगे!

पैरों पर गिर पड़ा वह दुकानदार। भागा; कबीर के पैर छुए। कबीर ने कहा कि तू समय खराब न कर। तू अपना काम निपटा; हमें अपना काम करने दे। तू इन बातों में मत उलझ। अरे, यह पैर छूना वगैरह पीछे हो लेगा। सुबह आ जाना; भजन-कीर्तन कर लेना; वहीं पैर भी छू लेना। मगर अभी तू अपना काम निपटा।

उसने कहा, आप कहते क्या हैं! और मुझे न मारो। और मुझे न दुत्कारो। और मुझे गर्हित न करो। और मुझे अपमानित न करो!

कबीर ने कहा, नहीं, तेरा हम कोई अपमान नहीं कर रहे हैं। इन बातों का मूल्य ही क्या है?

यह होगी ज्ञानी की दृष्टि। कबीर को मैं कहूंगा तीर्थंकर। मेरे लिए कबीर ने कितने घोड़े और कितने हाथी छोड़े, यह सवाल नहीं। एक बात देख ली कि यह संसार और इसके मूल्यों का कोई मूल्य नहीं। इसकी नीति कुछ नीति नहीं, इसकी अनीति कुछ अनीति नहीं। सब व्यावहारिक बातें हैं। और उस परम सत्य को कुछ भी नहीं छूता है। वह परम सत्य सदा कुंवारा है, अछूता है। वह जल में कमलवत है।

मगर कबीर को कौन तीर्थंकर माने? कौन अवतार माने? कौन कबीर को बुद्ध माने? वही मूल्य है। एक बंधा हुआ मूल्य है, धन का। तो जिनको तुम साधु भी कहते हो, उनको भी तुम साधु लौकिक कारणों से ही कहते हो। उन्होंने कुछ छोड़ दिया। जो तुम्हारे लिए बहुत मूल्यवान था, उन्होंने छोड़ दिया। बस, साधु हो गए!

मगर वसिष्ठ के सूत्र में बात कीमत की है। बात यह है कि ऐसे साधु की वाणी थोथी होगी। वह किसी और के अर्थ का अनुसरण करेगी। उसके पास अपना तो कोई अर्थ नहीं है; अपना कोई साक्षात्कार नहीं है। कहेगा कि मधु मीठा होता है, मगर यह उसका अपना स्वाद नहीं है।

और वसिष्ठ ने कहा: “ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति। और आदि ऋषि थे, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता था।’

प्रतीक्षा, इसमें आदि तूने कहां से जोड़ दिया? सूत्र तो सिर्फ इतना है, ऋषीणां! वे जो ऋषि हैं; वे जो ऋषि की अनुदशा को उपलब्ध हुए हैं। इसमें आदि का कोई सवाल नहीं है। लेकिन हम अनुवाद भी जब करते हैं, तो भी हमारी बुद्धि बीच-बीच में व्याघात उत्पन्न करती है। यह जिसने भी अनुवाद किया हो, उसने आदि ऋषि जोड़ दिया! क्योंकि हमारी धारणा यह है कि जो भी होना था श्रेष्ठ, पहले हो चुका। स्वर्णयुग तो बीत चुका; अब तो कलियुग चल रहा है। अब कहां ऋषि! इसलिए आदि ऋषि! हालांकि सूत्र में कुछ आदि का सवाल नहीं है।

सिर्फ सूत्र तो इतना कह रहा है: “ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति।’

वे जो ऋषि हैं, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। वे जो भी बोल देते हैं, वही सार्थक हो जाता है। वे जो भी बोल देते हैं…। वे बोलें तो, न बोलें तो; उनका मौन भी सार्थक होता है, उनकी वाणी भी सार्थक होती है। उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। उन्हें अपनी वाणी को किसी अर्थ के पीछे नहीं चलाना होता। वे तो बहते हैं, सरिता की भांति। अर्थ उनके साथ बहता है। इसलिए वे जो भी कहें, उसमें ही गरिमा होती है, गौरव होता है। वे जो भी कहें, उसमें ही सौंदर्य होता है।

ऋषि शब्द बड़ा प्यारा है। पहले उस शब्द को समझ लो। हमारे पास दो शब्द हैं–सिर्फ हमारे पास दो शब्द हैं सारी दुनिया में–कवि और ऋषि। दुनिया की सभी भाषाओं में कवि शब्द तो है, लेकिन ऋषि शब्द नहीं है। दोनों का अर्थ एक होता है, लेकिन थोड़े भेद से; जरा सा बारीक भेद, यूं बाल बराबर भेद, लेकिन जमीन और आसमान को अलग कर देता है।

कवि का अर्थ है, जिसे सत्य की कभी-कभी झलक मिलती है। और ऋषि का अर्थ है, जो सत्य में ही ठहर गया। कवि का अर्थ है, जो दूर से, बहुत दूर से हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों को देखता है–मगर दूर से। और ऋषि का अर्थ है, जिसने वहीं निवास बना लिया; वह जो हिमाच्छादित शिखरों पर रहने लगा।

कवि के लिए सत्य एक किरण की तरह आता है और चला जाता है; एक झलक की तरह; एक हवा का झोंका; यह आया, वह गया! मगर उस झोंके में भी कवि के भीतर फूल खिल जाते हैं। ऋषि स्वयं ही फूल हो गया। कवि का वसंत आता है, जाता है। ऋषि के लिए वसंत ही एकमात्र ऋतु है, चौबीस घंटे वसंत है। ऋषि का अर्थ है, जिसने ध्यान से सत्य को अनुभव किया; जिसकी आंखें खुल गईं, असली आंखें खुल गईं; जिसने पदार्थ में परमात्मा को देख लिया; जिसने संसार में मोक्ष को अनुभव कर लिया!

ऐसे ऋषि जो भी बोलें, साधारण से साधारण शब्द भी उनके हाथों में असाधारण अर्थ ले लेते हैं। और जिनको तुम साधु कहते हो, इनके हाथों में सुंदर से सुंदर शब्द भी बड़े कुरूप हो जाते हैं; अपंग हो जाते हैं।

सारी बात आदमी की है। शब्दों में कुछ नहीं होता, व्यक्तियों में होता है, व्यक्तियों की अनुभूतियों में होता है। अगर व्यक्ति के भीतर आह्लाद है, ईश्वर का उन्माद है, मोक्ष की मस्ती है, तो वह जो भी बोल दे, वही मंत्र है, वही श्लोक है, वही ऋचा है। और अगर व्यक्ति के भीतर वह परम उन्माद नहीं है, तो वह सुंदर-सुंदर शब्दों को बिठाता रहे, जमाता रहे–शायद कविता रच लेगा, भाषा के हिसाब से, व्याकरण के हिसाब से, छंद के हिसाब से, मात्रा के हिसाब से–लेकिन उसमें आत्मा नहीं होगी, वह लाश ही होगी।

लाश भी दिखाई पड़ सकती है बिलकुल आदमी जैसी; लाश को भी तुम खूब सजा सकते हो। पश्चिम में तो लाश को सजाने का धंधा होता है। पश्चिम में तो बड़ा भय है मृत्यु का। होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि ईसाइयत, यहूदी, मुसलमान–भारत के बाहर पैदा हुए तीनों धर्म–एक ही जीवन में भरोसा करते हैं। बस, एक ही जीवन; और कोई जीवन नहीं! तो घबड़ाहट स्वाभाविक है। यूं भी आदमी मौत से घबड़ाता है। यहां भी आदमी मौत से घबड़ाता है, जहां कि अनंत जीवनों का विश्वास है। पहले भी हम थे, आगे भी हम होंगे। मगर वह विश्वास ही है। घबड़ाहट तो भीतर होती है कि कौन जाने बचे न बचे! मगर पश्चिम में तो साफ ही है कि बचना नहीं है; एक ही जीवन है। बस, फिर दुबारा लौटना नहीं है। फिर तो कयामत की रात तक पड़े रहना है कब्र में। तो घबड़ाहट स्वाभाविक है।

जरा सोचो तो, कब आएगी कयामत! अनंत-अनंत काल तक कब्र में ही सड़ते रहोगे, सड़ते रहोगे, सड़ते रहोगे। गल जाओगे, हड्डी-हड्डी गल कर मिट्टी हो जाएगी, तब आएगी कयामत! पता नहीं, आएगी भी कि नहीं आएगी। और इतने काल तक तुम्हें पड़े रहना पड़ेगा कब्र में ही। घबड़ाहट है।

तो मृत्यु को झुठलाने का पश्चिम में बहुत उपाय होता है। इसलिए पश्चिम में एक धंधा ही हो गया है; पूरब में वैसा कोई धंधा नहीं है अभी। पश्चिम में धंधा है, मौत को सजाने वालों का धंधा! काफी लाभ वाला धंधा है। जब कोई मर जाता है, तो उस पर हजारों रुपए खर्च होते हैं। उसको सजाया जाता है। जैसे कि कोई अभिनेताओं को सजाता है नाटक में। अब यह नाटक का अंत ही हो रहा है, आखिरी सजावट कर ही लेनी चाहिए। पटाक्षेप हो रहा है। पर्दा गिरने को है। गिर ही चुका है।

तो उसके चेहरे को सुंदर बनाते हैं, रंगते हैं; लाली देते हैं उसके गालों को, उसके ओंठों को। उसकी आंखों को काजल देते हैं। उसके बालों को रंग देते हैं। अगर बाल न हों, तो झूठे बाल लगा देते हैं। अगर दांत गिर गए हों, तो झूठे दांत लगा देते हैं। सुंदर कपड़े पहनाते हैं। इत्र छिड़कते हैं। फूलों से सजा देते हैं। आदमी यूं लगने लगता है, जैसे दूल्हा हो! दूल्हा भी फीका लगे। आदमी यूं लगने लगता है, जैसे यह कोई मरघट नहीं जा रहा है; यह कोई बारात निकल रही है! फिर खूबसूरत से खूबसूरत ताबूत, कीमती से कीमती ताबूत, उनमें उसकी लाश को सजाया जाता है। धोखा! हर तरह का धोखा!

लेकिन लाख उपाय करो, तो भी जिंदा आदमी जिंदा आदमी है और मरा हुआ आदमी मरा हुआ आदमी है। कितना ही सुंदर लगे!

उतना ही भेद कविता में और ऋचा में है। उतना ही भेद कवि में और ऋषि में है। ऋषि है जीवंत। मात्रा का उसे पता नहीं। अब कोई मीरा की कविताओं में मात्राएं हैं, कि कोई छंद है! अगर भाषा और मात्रा और छंद के हिसाब से तौला जाए, तो कबीर और मीरा की गिनती कहीं भी नहीं होगी। तब तो तुलसीदास बड़े कवि मालूम होंगे। कहते भी हैं कि तुलसीदास महाकवि। हैं भी वे महाकवि। बस लेकिन कवि ही हैं, ऋषि नहीं। कबीर कवि नहीं हैं, ऋषि हैं। शब्द अटपटे हैं, लेकिन उन शब्दों के पीछे गहन अर्थ चला आ रहा है। शब्द जीवंत हैं; पंख हैं उनमें, यूं कि अभी उड़ जाएं! किन्हीं पिंजड़ों में बंद नहीं।

तुलसीदास के शब्द कितने ही सुंदर हों, पिंजड़ों में बंद हैं। लेकिन तुलसीदास की महिमा! क्योंकि लोग तो व्यर्थ से प्रभावित होते हैं, सार्थक से तो घबड़ाते हैं। क्योंकि सार्थक तो झकझोर देता है। सार्थक तो आता है झंझावात की तरह, धूल झाड़ देता है। और तुमने धूल को समझ रखा है बड़ी कीमती! सो जो तुम्हारी धूल को और जमा दे, वही प्यारा लगता है।

तुलसीदास महाकवि! कबीरदास तो अटपटे हैं। सधुक्कड़ी उनकी भाषा है। पंडित कहते हैं, सधुक्कड़ी। उसके लिए भाषा ही अलग रख लिया है नाम, सधुक्कड़ी भाषा! संध्या भाषा! उलटबांसी! सीधी बात ही नहीं करते, उलटी बांसुरी बजाते हैं! कुछ का कुछ कहते हैं!

मगर कारण? कारण यह है कि कबीर कोई पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं हैं, कबीर कोई शास्त्रीय व्यक्ति नहीं हैं, मगर सत्य को जाना है। इसलिए बोलचाल की भाषा ही बोलते हैं, मगर उसमें ही वह सारा रस भर दिया है कि फूल फीके पड़ जाएं, वह सारी रोशनी भर दी है कि चांदत्तारे फीके पड़ जाएं। छोटे-छोटे वचन, मगर बड़े से बड़े शास्त्रों का निचोड़ आ गया है।

इसलिए प्रतीक्षा, आदि ऋषि शब्द मत जोड़ो। आदि से क्या लेना-देना है? ऋषि का आदि से क्या संबंध? ऋषि तो आज भी होते हैं। जब भी सत्य को जाना, तभी ऋषि का जन्म हुआ।

ऋषि का अर्थ तो है, जिसे भीतर की देखने की आंख मिल गई। और तब यह बात सच है कि ऋषि की वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। वह अर्थ की चिंता नहीं करता, न व्याकरण की चिंता करता, न भाषा की चिंता करता। और इसलिए अनेक बार ऐसा हुआ है कि ऋषियों के बोलने के कारण नई भाषाएं पैदा हो गईं।

महावीर ने संस्कृत में नहीं बोला, प्राकृत में बोला। महावीर के बोलने के कारण प्राकृत बनी। संस्कृत में एक पांडित्य है, एक आभिजात्य है। महावीर ने संस्कृत का उपयोग नहीं किया, बोलचाल की भाषा में बोले। उसमें वह पांडित्य नहीं है, लेकिन जीवंतता है।

बुद्ध पाली में बोले। पाली बोलचाल की भाषा है, बेपढ़े-लिखे आदमी की भाषा है। मगर बड़ी प्यारी! जब लोग शब्दों का उपयोग करते हैं, तो शब्दों के किनारे घिस जाते हैं, शब्दों में गोलाई आ जाती है, सौंदर्य आ जाता है। लोगों के शब्द घिसते-घिसते बड़े प्यारे हो जाते हैं! और जब भी कभी लोगों पर ऊपर से भाषा थोपी जाती है, तो कभी उस भाषा में प्राण नहीं आते। जैसा इस देश में उपयोग किया गया।

स्वतंत्रता के बाद इस देश में जिन्होंने सबसे बड़ी हानि हिंदी को पहुंचाई, वे थे डाक्टर रघुवीर, सेठ गोविंददास। दोनों मेरे निकट से परिचित व्यक्ति थे। और दोनों को मैंने कहा था कि तुम दुश्मन हो हिंदी के! हालांकि दोनों समझे जाते थे कि हिंदी के सबसे बड़े समर्थक हैं। मगर उन्हीं ने नष्ट किया।

भाषाएं ऐसे ऊपर से नहीं थोपी जातीं। रघुवीर ने कैसी भाषा थोपने की कोशिश की! हालांकि गणित ठीक था उनका; व्याकरण ठीक थी उनकी; सब बातें ठीक थीं। मगर भाषाएं जन्मती हैं; ऐसी थोपी नहीं जातीं। भाषाएं कृत्रिम नहीं होतीं। जनता जब सैकड़ों वर्ष तक उपयोग करती है शब्दों का, तो उन शब्दों में एक रस आ जाता है, एक जीवंतता आ जाती है। निरंतर के चलन से उनमें गोलाई आ जाती है। जैसे नदी में बहते हुए पत्थर गोल हो जाते हैं, शंकरजी की पिंडी बन जाते हैं। ऐसे प्रत्येक शब्द में…।

रघुवीर के शब्दों में गोलाई नहीं है और बेहूदापन है। हालांकि हिसाब की दृष्टि से बिलकुल ठीक हैं। अब जैसे रेलगाड़ी। तो रेलगाड़ी शब्द का ठीक-ठीक अनुवाद भाषा में करना हो, तो रघुवीर ने बिलकुल ठीक किया, लोह-पथ-गामिनी!

मगर कौन इसका उपयोग करेगा? जिससे कहोगे, वही हंसेगा! किसी से कहोगे कि लोह-पथ-गामिनी से जा रहे हैं, तो वह पहले चौंक कर देखेगा, तुम होश में हो कि ज्यादा पी गए! क्या हो गया तुम्हें! लोह-पथ-गामिनी से जा रहे हो? तुम्हें जाने के लिए कुछ और उपाय न बचा? हालांकि लोह-पथ-गामिनी बिलकुल ठीक रेलगाड़ी का ही अनुवाद है। रेल का अर्थ होता है, लोह-पथ। और लोह-पथ पर जो दौड़ती है, वह गामिनी, गमन करती है। बिलकुल ठीक है, लोह-पथ-गामिनी!

इससे तो डाक्टर राममनोहर लोहिया बेहतर आदमी थे। उन्होंने जनता के शब्द चुनने की फिक्र की है। जैसे रिपोर्ट की जगह वे रपट लिखते थे। क्योंकि गांव का किसान जब कहता है, तो वह कहता है, भइया, रपट लिखवाई कि नहीं? रिपोर्ट घिस-घिस कर रपट हो गई! स्टेशन घिस-घिस कर टेशन हो गया! मगर जो टेशन में मजा है वह स्टेशन में नहीं। और जो रपट में बात है वह रिपोर्ट में नहीं। रपट में एक सचाई है। कबीर तो रपट लिखवाएंगे; रिपोर्ट नहीं लिखवाएंगे! कबीर टेशन जाएंगे, स्टेशन नहीं जा सकते!

अभी पांच सौ साल पहले ही नानक के कारण गुरमुखी भाषा पैदा हुई। सिर्फ नानक के कारण! क्योंकि नानक ने पंजाब की लोक-भाषा का उपयोग किया, और एक नई भाषा को जन्म दे दिया। मगर वह जन्म ऊपर से थोपा हुआ नहीं है; वह कोई कृत्रिम नहीं है। लोग जिस भाषा का उपयोग कर रहे थे सदियों से, उसी भाषा को छू दिया, और जादू हो गया!

ऋषि की वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। ऋषि फिक्र नहीं करता कि शब्द क्या हैं, किन्हीं भी शब्दों को चला देता है, चलते हुए शब्दों को उपयोग में ले आता है, और उनमें बड़े अर्थ के फूल खिल जाते हैं।

यह सूत्र उपयोगी है। लेकिन इसमें से दो बातें छोड़ देना। एक तो लौकिक साधु जैसा कोई व्यक्ति होता नहीं। या तो कोई साधु होता है, या लौकिक होता है।

और दूसरी बात, आदि ऋषि गलत अनुवाद है। ऋषि सदा होते रहे, आज भी हैं, कल भी होंगे। यह दुनिया उस दिन स्वाद खो देगी जिस दिन ऋषि पैदा न होंगे। जब तक ऋषि हैं, तब तक जमीन पर नमक है, तब तक जीवन में स्वाद है।

ऋषि का अर्थ केवल इतना ही है, जिसने देखा, अनुभव किया, जीया; जो जीकर बोला; जिसके बोलने में हृदय की धड़कन है।

 दूसरा प्रश्न: भगवान, मुंडकोपनिषद का लेखक कौन है?

 भोलेराम!

बाबा, क्या मुंडकोपनिषद के लेखक से नाराज हो गए? कि देखें, कौन है यह! कि इसको ठीक करें!

मैं डर रहा था कि कोई यह प्रश्न न पूछ ले! क्योंकि मुझे भी पता नहीं कि मुंडकोपनिषद के लेखक कौन हैं। असल में मैंने भी जब पहली दफा मुंडकोपनिषद पढ़ा था, तो यह सवाल मुझे उठा था। उम्र तब मेरी छोटी थी जब मेरे हाथ में पहली दफा मुंडकोपनिषद पड़ गया। घर में उसकी कापी पुराने दिनों से पड़ी थी। उठा कर मैंने देखा। पहला ही सवाल यह उठा कि मुंडकोपनिषद! यह भी कोई नाम हुआ! किसने लिखा? और क्या नाम दिया! अरे, कम से कम नाम तो ठीक दे देते!

लोग सड़ी-गली चीजों को भी क्या-क्या नाम देते हैं! रसमलाई! चमचम! रसगुल्ला! क्या-क्या नाम देते हैं!

मुंडकोपनिषद! मुझे लगा, हो न हो–मेरे मोहल्ले में एक पहलवान थे; उनका नाम था मुंडे पहलवान। हो न हो इसी आदमी ने लिखा है! थे भी गड़बड़ ही वे। और सभी चीजों में गुणी थे। भांग वे पीएं; गांजा वे पीएं; अफीम का सेवन वे करें; शराब वे पीएं। और जब नशे में होते थे, तो बड़ी ब्रह्मचर्चा करते थे! तो मैंने कहा, जरूर इसी आदमी ने पीनक में आकर मुंडकोपनिषद लिख दिया है! और मुंडे पहलवान, तो मुंडकोपनिषद नाम जंचता है! कि किसी मुंडे ने लिखा है!

मेरा उनसे दोस्ताना था। यूं तो उम्र में बहुत फासला था। दोस्ती हो जाने का कारण था कि मुझे भी एक शौक था और वही शौक उनको भी था, पतंग लड़ाने का शौक। उनको कोई काम-धाम नहीं था; दादागिरी उनका धंधा थी। कमाने वगैरह का कोई सवाल न था। सो वे पतंग लड़ाते थे। और मुझे भी पतंग लड़ाने का शौक था। और वे तो बड़े प्रसिद्ध लड़ाके थे पतंग के। लखनऊ तक पतंग लड़ाने जाते थे। गांव में तो कोई उनसे पतंग लड़ाने की हिम्मत ही नहीं कर सकता था। क्योंकि दिन भर मंजा लगाना! उनका काम ही यह था। सुबह से डंड-बैठक; फिर डट कर दूध-जलेबी; फिर मंजे पर उतर जाते वे। तो उनके शागिर्द घोंट रहे हैं कांच! फिर लुब्दी बनाई जा रही है! फिर मंजा चढ़ाया जा रहा है!

और मुझे भी पतंग लड़ाने का शौक उन्हीं को देख कर पैदा हो गया था। और मेरी उनसे दोस्ती इसलिए हो गई कि मैंने एक बार उनका पतंग काट दिया! उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, बेटा, आज तक मेरा पतंग कोई नहीं काट सका! पहली तो बात, कोई मुझसे पतंग लड़ाने की हिम्मत ही नहीं करता, क्योंकि लोग डरते हैं कि कोई झगड़ा-झांसा खड़ा न हो जाए! एक तो तूने पतंग लड़ाने की हिम्मत की…।

मैंने कहा, मुझे मालूम नहीं था कि पतंग आपका है। नहीं तो मैं भी इस झंझट में नहीं पड़ता।

और गजब कि तूने मेरा पतंग काट दिया!

मस्ती में थे। आशीर्वाद दे गए कि तू बड़ों-बड़ों के पतंग काटेगा! मैंने कहा, यह तो…।

तब से मैं वही काम कर रहा हूं! अब तो छोटे-बड़े का फर्क ही नहीं करता! समदृष्टि से काटता हूं! पतंग होना चाहिए–छोटे का हो, बड़े का हो; शंभु महाराज का हो, कि मोरारजी देसाई का हो, कि मुक्तानंद का हो, कि डोंगरेजी महाराज का हो–पतंग होना चाहिए! छोटे-बड़े का क्या भेद करना! समदृष्टि रखनी चाहिए। मगर वे क्या आशीर्वाद दे गए मुंडे पहलवान, वह काम अभी तक नहीं छूटा! और वह छूटने वाला भी नहीं है।

तो मैंने सोचा कि हो न हो, इन्होंने ही यह मुंडकोपनिषद लिखा है! और तो मैं कुछ समझा नहीं किताब में अंदर, लेकिन बस वह शब्द मुझे मुंडकोपनिषद पकड़ गया। सो सांझ को मैं उनके दरबार में हाजिर हुआ। पास में ही उनका अखाड़ा था। वे भंग चढ़ा कर–एक शागिर्द उनका पैर दबा रहा था, दूसरा शागिर्द उनकी चंपी कर रहा था–खाट पर लेटे हुए थे। मस्ती में कुछ गुनगुना रहे थे। मैं जाकर पास बैठ गया। मैं उनको काका कहता था, आदर के कारण।

मैंने कहा, काका, एक सवाल पूछूं?

उन्होंने कहा, पूछो बेटा, जरूर पूछो। अरे, पूछोगे नहीं, तो जानोगे कैसे!

जब वे पीनक में होते, तो बड़ी गजब की बातें कहते थे!

जरूर पूछो, कहने लगे, जिन खोजा तिन खोइयां, गहरे पानी पैठ।

मैंने कहा, आप कबीर को भी चारों खाने चित्त कर दिए!

जिन खोजा तिन खोइयां, गहरे पानी पैठ! अरे, पूछोगे नहीं, तो जानोगे कैसे! पूछो।

अंग्रेजी के वे दो शब्द बोलते थे। एक, व्हाय नाट!

वे एकदम से मुझसे बोले, व्हाय नाट! पूछो!

व्हाय नाट उनका तकिया कलाम था। किसी भी चीज में व्हाय नाट कह देते थे। जैसे उनसे जय रामजी करो: काका, जय रामजी! वे कहते, व्हाय नाट! जिसमें कोई संबंध ही नहीं होता था!

कि काका, कहां जा रहे हो?

वे कहते, व्हाय नाट!

उन्हें अर्थ का संबंध नहीं था। इसको कहते हैं ऋषि! जो शब्द बोलें, अर्थ उसके पीछे आता है!

वे मुझसे बोले, व्हाय नाट! पूछो, क्या पूछना है?

मैंने कहा कि एक किताब मेरे हाथ लग गई, मुंडकोपनिषद! यह सवाल उठता है कि यह किसने लिखी और किसने यह नाम दिया?

वे कुछ सोच-विचार में पड़ गए! उपनिषद वगैरह से उनका क्या नाता रहा! फिर मैंने ही उनसे कहा कि मुझे यह शक हुआ कि हो न हो, आपने ही लिखी होगी! क्योंकि मुंडे पहलवान, आप ही एक जाहिर आदमी हैं!

बड़े प्रेम से मुस्कुराए और बोले, बेटा, जवानी में आदमी से कई तरह की भूलें हो जाती हैं! अरे, लिख दी होगी! बीती ताहि बिसार दे! अब जो हुआ, सो हो गया। तू भी कहां की पुरानी बातें उखाड़ता है! अब जाने भी दे। जो हो गया, हो गया! तेरे हाथ में कहां से लग गई? लिख दी होगी! कई काम जवानी में कर गया, जो नहीं करने थे। मगर जवानी में कौन भूल-चूक नहीं करता!

मैंने कहा, व्हाय नाट!

मैं भी उनकी भाषा का धीरे-धीरे उपयोग करने लगा था। मुझे भी पता नहीं था कि व्हाय नाट का मतलब क्या होता है!

और दूसरा शब्द उनका अंग्रेजी का था, कि जैसे हम कहते हैं कि तबीयत बाग-बाग हो गई। वे कहते, तबीयत गार्डन-गार्डन हो गई!

जब उन्होंने मेरे मुंह से सुना व्हाय नाट, बोले, तबीयत गार्डन-गार्डन हो गई! क्या बात तूने कही! होनहार बिरवान के होत चीकने पात। वे मुझसे बोले कि तू जरूर कुछ करके दिखाएगा!

मैंने कहा कि देखें, आपका आशीर्वाद रहा, तो लिखूंगा कोई मुंडकोपनिषद!

भोलेराम, तुम पूछ रहे हो, “कौन लेखक था?’

मुझे पता नहीं! अब तो मुंडे पहलवान भी मर चुके!

उपनिषद किसी ने लिखे नहीं। उपनिषद कहे गए। सच में तो कोई ऋषि कभी कुछ नहीं लिखा। जिन्होंने जाना है, उन्होंने लिखा नहीं; और जिन्होंने लिखा है, उन्होंने जाना नहीं। जानने वाले बोले, लिखे नहीं। फिर शिष्यों ने लिख लिए। शिष्यों ने संक्षिप्त नोट्स लिख लिए, ताकि आने वाली सदियों के काम आ सकें।

ये उपनिषद लिखे गए शिष्यों के द्वारा; कहे गए ऋषियों के द्वारा।

ऋषि बोलते हैं, सिर्फ बोलते हैं। क्योंकि बोलने में शब्द जीवित होता है। और जीवित शब्द ही एक हृदय से दूसरे हृदय में प्रवेश कर सकता है। और जीवित शब्द ही मुक्तिदायी है।

आज इतना ही।

आनहद में विसराम-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(अंतःकरण का अतिक्रमण)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 15, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      यं यं लोकं मनसा संविभाति

           विशुद्धसत्वः कामयते यांश्च कामान्।

      तं तं लोकं जयते तांश्च कामां–

           स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चवेद भूतिकामः।।

जिसका अंतःकरण शुद्ध है, ऐसा आत्मवेत्ता, मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है और जिन-जिन कामनाओं की कामना करता है, वह उस-उस लोक को और उन-उन कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। इसलिए जो अपना कल्याण चाहता है, उसे आत्मवेत्ता की अर्चना करनी चाहिए। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-05)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन-(वर्तमान क्षण की धन्यता)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)  ओशो

दिनांक 14, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्राम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      भविष्यं नानुसंधत्ते नातीतं चिन्तयत्यसौ।

      वर्तमान   निमेषं   तु   हसन्नेवानुवर्तते।।

भविष्य का अनुसंधान नहीं, न अतीत की चिंता। हंसते हुए वर्तमान में जीना।

लगता है, योगवासिष्ठ का यह श्लोक आपकी देशना का संस्कृत अनुवाद है। इसे हमें फिर एक बार समझाने की कृपा करें।

 सहजानंद!

मन या तो अतीत होता है या भविष्य। वर्तमान में मन की कोई सत्ता नहीं। और मन ही संसार है; इसलिए वर्तमान में संसार की भी कोई सत्ता नहीं। और मन ही समय है; इसलिए वर्तमान में समय की भी कोई सत्ता नहीं। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-04)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-(तप, ब्रह्मचर्य और सम्यक ज्ञान)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 13, नवम्बर, सन् 1980,  ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा

           सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्।

      अंतःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो

             यं पश्यंति यतयः क्षीणदोषाः।।

यह आत्मा सत्य, तप, सम्यक ज्ञान और ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त किया जा सकता है। जिसे दोषहीन यति देखते हैं, वह शुभ्र आत्मा इसी शरीर के अंदर वर्तमान है।

भगवान, मुंडकोपनिषद के इस सूत्र को हमारे लिए बोधगम्य बनाने की कृपा करें।

 शरणानंद!

यह सूत्र तो सरल है, पर हजारों वर्षों की व्याख्याओं ने इसे बहुत जटिल कर दिया है। नासमझ सुलझाने चलते हैं तो और उलझा देते हैं! नीम-हकीम से सावधान रहना जरूरी है। बीमारी इतनी खतरनाक नहीं, जितना नीम-हकीम खतरनाक सिद्ध हो सकता है। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-03)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(नास्तिकता: अनिवार्य प्रक्रिया)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)   ओशो

दिनांक 12, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान, जीवन के चालीस वर्ष नास्तिक समाजवादी विचारधारा में गंवाने के बाद पिछले पंद्रह वर्षों से आपका संपर्क पाया। और जीवन में जो आनंद और उत्सव का अनुभव किया, उसका कैसे वर्णन करूं? और कैसे अपनी कृतज्ञता प्रकट करूं? शब्द बिलकुल ओछे पड़ गए हैं। आप क्या मिले, बस सब कुछ मिल गया! प्रभु, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

 अमृत बोधिसत्व!

आस्तिक होने के लिए नास्तिक होना अत्यंत अनिवार्य है। अभागे हैं वे जिन्होंने कभी नास्तिकता नहीं चखी, क्योंकि वे आस्तिकता का स्वाद न समझ पाएंगे। आस्तिकता उभर कर प्रकट होती है, नास्तिकता की पृष्ठभूमि चाहिए। जैसे ब्लैकबोर्ड पर लिखते हैं सफेद खड़िया से, अक्षर-अक्षर साफ दिखाई पड़ता है। यूं तो सफेद दीवाल पर भी लिख सकते हैं, मगर तब अक्षर दिखाई न पड़ेंगे। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-02)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(संसार पाठशाला है)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोत्तर)

दिनांक 11, नवम्बर, सन् 1980, ओशाो  आश्रम पूना। 

पहला प्रश्न: भगवान, विश्राम के लिए अनंत आकाश में उड़ने वाला पक्षी घास का छोटा सा घोंसला बनाता है। और विश्राम के लिए आदमी ने पहले गुफा खोजी, और फिर झोपड़ा और मकान बनाया। और आप आज अनहद में बिसराम की चर्चा शुरू कर रहे हैं।

भगवान, यह अनहद में बिसराम क्या है, यह हमें समझाने की कृपा करें।

आनंद मैत्रेय!

विश्राम के लिए पक्षी घोंसला बनाए, इसमें तो कुछ भी अड़चन नहीं। क्योंकि घोंसले में किया गया विश्राम, आकाश में उड़ने की तैयारी का अंग है। आकाश से विरोध नहीं है घोंसले का। घोंसला सहयोगी है, परिपूरक है। सतत तो कोई आकाश में उड़ता नहीं रह सकता। देह तो थकेगी। देह को विश्राम की जरूरत भी पड़ेगी। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-01)”

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