गीता दर्शन-(प्रवचन-162)

अकस्‍मात विस्‍फोट की पूर्व—तैयारी—

(प्रवचन—बारहवां)  अध्‍याय—13

सूत्र—

यथा प्रकाशयत्‍येक: कृत्‍स्‍नं लोकमिमं रवि:।

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्‍स्‍नं प्रकाशयति भारत।। 33।।

स्थ्यैज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचमुवा।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्‍तरं च ये विदुर्यान्‍ति ते परम्।। 34।।

है अर्जुन, जिस प्रकार एक ही सूर्य इस संपूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्‍मा संपूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-162)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-161)

साधना और समझ—

(प्रवचन—ग्‍यारहवां)  अध्‍याय—13

सूत्र—

अनादित्वान्‍निर्गुणत्वात्परमात्मायमब्यय:।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करौति न लिप्‍यते।। 31।।

यथा सर्वगतं सौक्ष्‍म्यादास्काशं नोयलिप्‍यते।

सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्‍यते।। 32।।  

है अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ थी वास्तव में न करता है और न लिपायमान होता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-161)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-160)

कौन है आँख वाला—

(प्रवचन—दसवां)  अध्‍याय—13

सूत्र—

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।

विनश्यत्‍स्‍वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।। 27।।

समं पश्यीन्ह सर्वत्र अमवीस्थतमीश्वरम्।

न हिनस्मात्मनात्मानं ततो याति पंरा गतिम् ।। 28।।

प्रकृत्यैव च कर्मीणि क्रियमाणानि सर्वशः।

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं ग़ पश्यति।। 29।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-160)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-159)

पुरूष में थिरता के चार मार्ग—

(प्रवचन—नौवां) अध्‍याय—13

सूत्र—

ध्यानेनात्‍मनि पश्‍यान्ति केचिदात्‍मानमात्‍मना।

अन्ये सांख्‍येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।। 24।।

अन्ये त्वेवमजानन्‍त: श्रुत्‍वान्‍येभ्‍य उपासते।

तउपि चातितरन्‍त्येव मृत्‍यु श्रुतिपरायणा:।। 25।।

यावत्‍संजायते किंचित्‍सत्‍वं स्‍थावरजड्गमम्।

क्षेत्रक्षत्रज्ञसंयोत्‍तद्विद्धि भरतर्षभ।। 26।।

और है अर्जुन उस परम पुरुष को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्‍म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हदय में देखते हैं तथा अन्य कितने ही ज्ञान— योग के द्वारा देखते हैं तथा अन्य कितने ही निष्काम कर्म— योग के द्वारा देखते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-159)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-158)

गीता में समस्‍त मार्ग है—

(प्रवचन—आठवां)  अध्‍याय—13

सूत्र—

पुरूष प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजानुाणान्।

कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्यसु।। 21।।

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता म्हेश्वर:।

परमात्‍मेति चाप्‍युक्‍तो देहेउस्‍मिन्‍पुरूष: यर:।। 22।।

य एवं वेत्ति पुरूष प्रकृति च गुणै सह।

सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।। 23।।

परंतु प्रकृति में स्थित हुआ ही पुरूष प्रकृति मे उत्पन्न हुए त्रिगुणत्मक सब पदाथों की भोगता है। और इन गुणों का संग ही ड़सके अच्छी— बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है। वास्तव में तो यह पुरूष इस देह में स्थित हुआ भी पर ही है, Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-158)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-157)

पुरूष—प्रकृति—लीला—

(प्रवचन—सातवां) अध्‍याय—13

सूत्र—

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्‍तं समासत:।

मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्यावायोपयद्यते।। 18।।

प्रकृतिं पुरूषं चैव विद्यनादी उभावपि।

क्किारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्।। 19।।

कार्यकरणकर्तृन्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।

पुरुष: सुखदुखानां भोक्‍तृत्‍वे हैतुरूच्‍यते।। 20।।

हे अर्जुन, इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान अर्थात ज्ञान का साधन और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप से कहा गया, इसको तत्व से जानकर मेरा भक्त मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-157)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-156)

स्‍वयं को बदलो—(प्रवचन—छठवां)

गीता दर्शन—भाग—6

सूत्र—

बहिरन्तश्चइ भूतानामचरं चरमेव च।

सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थ चान्‍तिके च तत्।। 15।।

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तीमव च स्थितम्।

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रीअष्णु प्रभविष्णु च।। 16।।

ज्योतिषामयि तज्जयोतिस्तमस: परमुच्‍यते।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं ह्रदि सर्वस्य विष्ठितम्।। 17।।

तथा वह परमात्मा बराबर अब भूतों के बाहर— भीतर परियूर्ण है और चर— अचर रूप भी की है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है अर्थात जानने में नहीं आने वाला है। तथा अति समीप में और अति दूर में भी स्थित वही है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-156)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-155)

समस्‍त विपरीतताओं का विलय—परमात्‍मा में—

(प्रवचन—पांचवां) अध्‍याय—13

सूत्र—

ज्ञेयं यत्‍तत्‍प्रवक्ष्यामि यजज्ञात्‍वामृतमश्‍नुते।

अनादिमत्‍परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्‍यते।। 12।।

सर्वत: पाणियादं तत्‍सर्वतोउक्षिशिरोमखम्।

सर्वत: श्रुतिमल्‍लेके सर्वमावृत्य तिष्‍ठति।। 13।।

सर्वोन्द्रयगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।

असक्‍तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभक्‍तृ च।। 14।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-155)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-154)

समत्‍व और एकीभाव—

प्रवचन—चौथा अध्‍याय—13 

सूत्र—

असक्‍तिरभिष्‍वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु।

नित्यं च समीचत्‍तत्‍वमिष्टानिष्टोययीत्तषु।। 9।।

मयि चानन्ययोगेन भाक्तईरव्यभिचारिणी।

विविक्तदेशसोईख्वमरतिर्जनसंसदि।। 10।।

अध्यात्‍मज्ञाननित्यन्वं तत्‍वज्ञानार्थदर्शनम् ।

एतज्ज्ञानीमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोउन्यथा।। 11।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-154)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-153)

रामकृष्‍ण की दिव्‍य बेहोशी—

(प्रवचन—तीसरा) अध्‍याय—13

सूत्र—

अमानित्‍वमदम्भिन्वमीहंसा क्षान्तिरार्जवम्।

आचार्योयासनं शौचं स्थैर्यमविनिग्रह:।। 7।।

हन्द्रियाथेषु वैराग्यमनहंकार एव च।

जन्ममृत्‍युजराव्‍याधिदु:खदौषानुदर्शनम्।। 8।।

और हे अर्जुन, श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दंभाचरण का अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन—वाणी की सरलता, श्रद्धा— भक्ति सहित गुरु की सेवा— उपासना, बाहर— भीतर की शुद्धि, अंतःकरण की स्थिरता, मन और इंद्रियों सहित शरिर का निग्रह तथा इस लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों में आसक्‍ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव एवं जन्म, मृत्य्र, जरा और रोग आदि में दोषों का बारंबार दर्शन करना, ये सब ज्ञान के लक्षण हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-153)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-152)

क्षेत्रज्ञ अर्थात निर्विषय, निर्विकार चैतन्‍य—

(प्रवचन—दूसरा) अध्‍याय—13

गीता सूत्र:

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दौभिर्विविधै: पृथक।

ब्रह्मसूत्रदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै:।। 4।।

महाभूतान्‍हंकारो बुद्धिरव्‍यक्‍तमेव च।

हन्द्रियाणि दशैकं च पंज्च चेन्दियगोचरा:।। 5।।

इच्छा द्वेष: सुखं दुख संघलश्चेतना धृति:।

एतत् क्षेत्रं समासैन सधिकारमुदहतम्।। 6।।

यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और नाना कार के छंदों से विभागपूर्वक कहा गया है तथा अच्छी प्रकार निश्चय किए हुए युक्‍ति—युक्‍त बह्मसूत्रों के पदों द्वारा भी वैसे ही कहा गया है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-152)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-151)

दुःख से मुक्‍ति का मार्ग: तादात्‍म’‍य का विसर्जन—

(प्रवचन—पहला) अध्‍याय—13

सार—सूत्र:

 श्रीमद्भगवद्गीता अथ त्रयौदशोऽध्याय:

श्री भगवानुवाच:

ड़दं शरीर कौन्तेय क्षेत्रीमित्यीभधीयते।

एतद्यो वेत्ति तं पाहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्धिद:।। 1।।

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोज्ञनिं यतज्ज्ञानं मतं मम।। 2।।

तत्‍क्षेत्रं यच्च यादृक्‍च यद्विकारि यतश्च यत्।

स च यो यत्‍प्रभावश्च तत्‍समासेन मे श्रेृणु।। 3।।

उसके उपरांत श्रीकृष्‍ण भगवान बोले है अर्जुन, यह शरीर क्षेत्र है, ऐसे कहा जाता है। और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्र ऐसा उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। और हे अर्जुन तू अब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मेरे को ही जान। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-151)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-150)

आधुनिक मनुष्‍य की साधना—

(प्रवचन—गयारहवां) अध्‍याय—12

सूत्र—

तुल्यनिन्दास्तुतिमौंनी संतुष्‍टो थेन केनचित्।

अनिकेत: स्थिरमतिभक्‍तिमान्मे प्रियो नर:।। 19।।

ये त धर्म्‍यामृतमिदं यथोक्‍तं पर्युयासते।

श्रहधाना मत्यरमा भक्तास्‍तउतीव मे प्रिया:।। 20।।

तथा जो निंदा— स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है, एवं जिस—किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने मैं सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित ह्रै वह स्थिर बुद्धि वाला भक्‍तिमान पुरुष मेरे को प्रिय है।

और जो मेरे को परायण हुए श्रद्धायुक्‍त पुरुष इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम भाव से सेवन करते है, वे भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-150)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-149)

सामूहिक शक्‍तिपात ध्‍यान—

(प्रवचन—दसवां) अध्याय—12

सूत्र:

जीवन उतना ही नहीं है, जितना आप उसे जानते हैं। आपको जीवन की सतह का भी पूरा पता नहीं है, उसकी गहराइयों का, अनंत गहराइयों का तो आपको स्वप्न भी नहीं आया है। लेकिन आपने मान रखा है कि आप जैसे हैं, वह होने का अंत है।

अगर ऐसा आपने मान रखा है कि आप जैसे हैं, वही होने का अंत है, तो फिर आपके जीवन में आनंद की कोई संभावना नहीं है। फिर आप नरक में ही जीएंगे और नरक में ही समाप्त होंगे।

जीवन बहुत ज्यादा है। लेकिन उस ज्यादा जीवन को जानने के लिए ज्यादा खुला हृदय चाहिए। जीवन अनंत है। पर उस अनंत को देखने के लिए बंद आंखें काम न देंगी। जीवन विराट है और अभी और यहीं जीवन की गहराई मौजूद है। लेकिन आप अपने द्वार बंद किए बैठे हैं। और अगर कोई आपके द्वार भी खटखटाए, तो आप भयभीत हो जाते हैं। और भी मजबूती से द्वार बंद कर लेते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-149)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-148)

भक्‍ति और स्‍त्रैण गुण—

(प्रवचन—नौवां)  अध्याय—12

सूत्र

वो ह्रष्यति द्वेष्टि शोचति कांक्षति।

शुभाशुभयीरत्यागी भक्तिमान्य: मे प्रिय:।। 17।।

सम: शत्रौ मित्रे तथा मानायमानयो:

शीतोष्णसुखदुःखेषु सम: संगविवर्जित:।। 18।।

और जो कभी हर्षित होता है, द्वेष करता है, सोच करता है, कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों के कम का त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मेरे को प्रिय है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-148)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-147)

उद्वेगरहित अहंशून्‍य भक्‍ति—

(प्रवचन—आठवां) अध्‍याय—12

सूत्र—

यस्माब्रोद्धिजते लोको लोकान्‍नोद्वोजते च य:।

हषीमर्बभयोद्वेगैर्मुक्‍तो यः स च मे प्रिय:।। 15।।

अनयेक्ष: शू्चिर्दर्थ्य उदासीनो ग्लव्यथ:।

सर्वारम्भयश्त्यिगी यो मद्यक्त: स मे प्रिय:।। 16।।

तथा जिससे काई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादिकों से रहित है, वह भक्त मेरे को प्रिय है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-147)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-146)

परमात्‍मा का प्रिय कौन—

(प्रवचन—सांतवां)  अध्‍याय—12

सूत्र—

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र:—— करुण एव च।

निर्ममो निरहंकार: समदुःखसुखः शमी।। 13।।

संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढीनश्चय:।

मय्यर्पितमनोबुद्धियों मद्भक्तः स मे प्रिय:।। 14।।

इस प्रकार शांति को प्राप्त हुआ जो पुरूष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित एवं स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार से रहित और सुख— दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने धर्मो को भी अभय देने वाला है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-146)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-145)

कर्म—योग की कसौटी—

(प्रवचन—छठवां) अध्‍याय—12

सूत्र—

अथैतदष्यस्थ्योऽसि कर्तुं मद्योगमख्सि।

सर्क्कर्मकलत्यागं न: कुरु यतक्ष्मवान्।। 11।।

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासत् ज्ञानद्धयानं विशिष्यते ।

ध्यानात्कर्मफलत्‍याग: त्यागाव्छान्तिरनन्तरम्।। 12।।

और यदि हमको भी करने के लिए असमर्थ है, तो जीते हुए मन वाला और मेरी प्राप्‍तिरूप योग के शरण हुआ सब कर्मों के कल का मेरे लिए त्याग कर। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-145)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-144)

अहंकार घाव है—

(प्रवचन—पांचवां)  अध्‍याय—12

सूत्र—

अथ चित्‍तं समाधातुं न शक्‍नोषि मयि स्‍थिरम्।

अभ्यातयोगेन नो मामिच्‍छाप्तुं धनंजय।। 9।।

अभ्यासेऽध्यसमर्थोऽसि मत्कर्मयरमो भव।

मदर्थमीय कमगॅण कुर्वीन्सघ्रईमवाप्स्यीस।। 10।।

और तू यदि मन को मेरे में अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो है अर्जुनु अभ्यासरूप— योग से मेरे को प्राप्त होने के लिए इच्छा कर।

और यदि तू ऊपर कहे हुए अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो। हस कार मेरे अर्थ कर्मो को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-144)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-143)

संदेह की आग—

(प्रवचन—चौथा) अध्‍याय—12

सूत्र-

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्यार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।। 7।।

मय्येव मन आधत्‍स्‍व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवीसष्यीस मय्येव अत ऊर्ध्व न संशय:।। 8।।

हे अर्जुन? उन मेरे में चित्त को लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु— रूप संसार— समुद्र से उद्धार करने वाला होता है। इसलिए है अर्जुन? तू मेरे में मन की लगा और मेरे में ही बुद्धि को लगा; हसके उपरांत तू मेरे में ही निवास करेगा

अर्थात मेरे को ही प्राप्त होगा? इसमें कुछ भी संशय नहीं है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-143)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-142)

पाप और प्रार्थना—

(प्रवचन—तीसरा) अध्‍याय—12

सूत्र—

क्लेशोऽम्मितरस्लेशमस्थ्यासक्लचेतसाम्।

अव्‍यक्‍ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्‍यते ।। 5।।

ये तु सवींणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्‍परा:।

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।। 6।।

किंतु उन सच्चिदानंदघन निरस्कार ब्रह्म में आसक्‍त हुए चित्त वाले पुरुषों के साधन में केश अर्थात परिश्रम विशेष है, क्योंकि देहाभिमानियों से अव्यक्त विषयक गति दुखपूर्वक प्राप्त की जाती है। अर्थात जब तक शरीर में अभिमान रहता ह्रै तब क शुद्ध सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में स्थिति होनी कठिन है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-142)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-141)

दो मार्ग: साकार और निराकार—

(प्रवचन—दूसरा) अध्‍याय—12

सूत्र—

ये त्‍वक्षरमनिर्दश्यमव्‍यक्‍तं यर्युयासते।

सर्वत्रगमचिन्‍त्‍यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।। 3।।

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबद्धय:।

ते प्राम्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।। 4।।

और जो पुरूष इंद्रियों के समुदाय को अच्छी प्रकार वश में करके मन— बुद्धि से परे सर्वव्यायी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्‍य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासते है, वे संपूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सब में समान भाव वाले योगी भी मेरे को ही प्राप्त होते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-141)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-140)

प्रेम का द्वार: भक्‍ति में प्रवेश—

(प्रवचन—पहला)  अध्‍याय—12

(श्रीमद्भगवद्गली अथ द्वद्वशोऽध्याय)

      अर्जन उवाच:

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्‍त्वां ययुंपासते।

ये चाप्यक्षरमक्तं तेषां के यीगीवत्तमा: ।।। 1।।

श्रॉभगवानवाच:

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्‍ता उपासते।

श्रद्धया यरयौयेतास्ते मे युक्ततमा मता:।। 2।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-140)”

गीता दर्शन-भाग-6 (ओशो)

गीता—दर्शन—(भाग—6)–(ओशो)

अध्‍याय—(12—13)

(ओशो द्वारा श्रीमद्भगवदगीता के अध्‍याय बारह ‘भक्‍तियोग’ एवं तेरह ‘क्षेत्र—क्षेत्रक—विभाग—योग’ पर दिए गए तेईस अमृत प्रवचनों का अर्पूव संकलन।)
जो शब्‍द अर्जुन से कहे थे, उन पर तो बहुत धूल जम गयी है; उसे हमें रोज बुहारना पड़ता है। और जितनी पुरानी चीज हो, उतना ही श्रम करना पड़ता है, ताकि वह नयी बनी रहे। इसलिए समय का प्रवाह तो किसी को भी माफ नहीं करता, पर अगर हम हमेशा समय के करीब खींच लाएं पुराने शास्त्र को, तो शास्त्र पुन: — पुन: नया हो जाता है। उसमें फिर अर्थ जीवित हो उठते हैं, नये पत्ते लग जाते हैं, नये फूल खिलने लगते हैं।
गीता मरेगी नहीं, क्योंकि हम किसी एक कृष्ण से बंधे नहीं हैं। हमारी धारणा में कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं हैं —सतत आवर्तित होने वाली चेतना की परम घटना हैं। इसलिए कृष्ण कह पाते हैं कि जब —जब होगा अंधेरा, होगी धर्म की ग्लानि, तब —तब मैं वापस आ जाऊंगा—सम्भवामि युगे युगे। हर युग में वापस आ जाऊंगा।
 
—ओशो

Continue reading “गीता दर्शन-भाग-6 (ओशो)”

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