अमृत द्वार-(प्रवचन-10)

दसवां-प्रवचन-(नाचो–क्रांति है नाच)

एक गुरु अपने शिष्य के कमरे के बाहर रोज आता है और एक ईंट को पत्थर पर घिसता है। शिष्य वहीं ध्यान करता है और ईंट के घिसने से, रोज-रोज घिसने से नाराज होता है। एक रोज तो उसे बहुत गुस्सा आया कि यह और कोई कर रहा हो तो ठीक है, यह मेरा गुरु ही आकर मुझे परेशान करता है, ईंट घिसता है। आंख खोली और कहाः आप यह क्या पागलपन करते हैं? क्यों मुझे परेशान कर रहे हैं? उसने कहाः तुझे मैं परेशान नहीं कर रहा। मैं ईंट को घिस-घिस कर आईना बनाना चाहता हूं। वह हंसने लगा, उसने कहाः तुम पागल हो गए हो। ईंट को कितना ही घिसो, आईना कभी नहीं हो सकती। तो उसके गुरु ने कहाः अगर मैं मेहनत करूंगा तो भी नहीं बनेगी क्या? मैं पूरी मेहनत करूंगा, मैं जीवन भर घिसता रहूंगा, फिर तो बनेगा?

जीवन भर भी घिसोगे, तो भी नहीं बनेगा। ईंट घिसने से आईना नहीं बनती। उसके गुरु ने कहाः तू भी बहुत घिस रहा है, लेकिन मेरी दृष्टि में ईंट घिस रहा है और आईना बनाना चाहता है। और सोचता है, मेहनत करूंगा तो हो जाएगा। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-10)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-09)

नौवा-प्रवचन-(नाचो–शून्यता है नाच)

(नोटः सोलह मिनट का (अननोन नंबर 2)आॅडियो मिल गया है–इसकी टेप चेकिंग होनी है।)

एक बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है।

पूछा हैः श्रद्धा के बिना शास्त्र का अध्ययन नहीं, अध्ययन के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना आत्मा का अनुभव नहीं होगा।

‘श्रद्धा के बिना शास्त्र का अध्ययन क्यों नहीं होगा?’

हमारी धारणा ऐसी है कि या तो हम श्रद्धा करेंगे या अश्रद्धा करेंगे। हमारी धारणा ऐसी है कि या तो हम किसी को प्रेम करेंगे या घृणा करेंगे। तटस्थ हम हो ही नहीं सकते। जो श्रद्धा से शास्त्र का अध्ययन करेगा वह भी गलत, जो अश्रद्धा से शास्त्र का अध्ययन करेगा वह भी गलत है। शास्त्र का ध्यान तटस्थ होकर करना होगा। तटस्थ होकर ही कोई अध्ययन हो सकता है। श्रद्धा का अर्थ हैः आप पक्ष में पहले से मान कर बैठ गए, पक्षपात से भरे हैं। अश्रद्धा का अर्थ हैः आप पहले से ही विपरीत मान कर बैठ गए, आप पक्षपात से भरे हैं। पक्षपातपूर्ण चित्त अध्ययन क्या करेगा? पक्षपातपूर्ण चित्त तो पहले से पक्ष तय कर लिया। वह शास्त्र में अपने पक्ष के समर्थन में दलीलें खोज लेगा और कुछ नहीं करेगा। पक्षपात शून्य होकर ही कोई अध्ययन कर सकता है। इसलिए मुझे श्रद्धा भी व्यर्थ मालूम होती है, अश्रद्धा भी व्यर्थ। असल में श्रद्धा अश्रद्धा दोनों ही अश्रद्धाएं हैं। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-09)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(नाचो–समग्रता है नाच)

धर्म हमारा सर्वग्राही नहीं है। वह जवान को आकर्षित ही नहीं करता है। जब आदमी मौत के करीब पहुंचने लगे तभी हमारा धर्म उसको आकर्षित करता है।इसका मतलब यही है कि धर्म हमारा मृत्योन्मुखी है। मृत्यु के पार का विचार करता है, जीवन का विचार नहीं करता है। तो जो लोग मृत्यु के पार जाने की तैयारी करने लगे वे उत्सुक हो जाते हैं। ठीक है उनको उत्सुक हो जाना। उसके लिए भी धर्म होना चाहिए। धर्म में मृत्यु के बाद का जीवन भी सम्मिलित है लेकिन इस पार का जीवन भी सम्मिलित है और उसकी कोई दृष्टि नहीं है।

और ऐसे ही मैं मान नहीं सकता कि बच्चों के लिए वही धर्म काम का हो सकता है जो बूढ़ों और वृद्धों के लिए है। बच्चों का तो जो धर्म होगा वह इतना गंभीर नहीं हो सकता है। वह तो खेलता, कूदता, हंसता हुआ होता है। बच्चों का ऐसा धर्म चाहिए जो उनको खेलने के साथ धर्म आ जाए, वह उनकी प्लेफुलनेस का हिस्सा हो। वह मंदिर में जाते हैं और बच्चे, वह तो वहां भी शोरगुल करना चाहते हैं। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-08)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(नाचो–प्रेम है नाच)

दान मैत्री और प्रेम से निकलता है तो आपको पता भी नहीं चलता है कि आपने दान किया। यह आपको स्मरण नहीं आती कि आपने दान किया। बल्कि जिस आदमी दान स्वीकार किया, आप उसके प्रति अनुगृहीत होते हैं कि उसने स्वीकार कर लिया। लेकिन अब दान का मैं विरोध करता हूं, जब वह दान दिया जाता है तो अनुगृहीत वह होता है जिसने लिया। और देने वाला ऊपर होता है। और देने वाले को पूरा बोध है कि मैंने दिया, और देने का पूरा रस है और आनंद। लेकिन प्रेम से जो दान प्रकट होता है वह इतना सहज है कि पता नहीं चलता कि दान मैंने किया। और जिसने लिया है, वह नीचा नहीं होता, वह ऊंचा हो जाता है। बल्कि अनुगृहीत देने वाला होता है, लेने वाला नहीं। इन दोनों में बुनियादी फर्क है। दान हम दोनों के लिए शब्द का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन दान उपयोग होता रहा है उसी तरह के दान के लिए, जिसका मैंने विरोध किया। प्रेम से जो दान प्रकट होगा, वह तो दान है ही। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-07)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-06)

छट्ठठा- प्रवचन-(नाचो–जीवन है नाच)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहता हूं।

एक महानगरी में सौ मंजिल एक मकान के ऊपर सौवीं मंजिल से एक युवक कूद पड़ने की धमकी दे रहा था। उसने अपने द्वार, अपने कमरे के सब द्वार बंद कर रखे थे। बालकनी में खड़ा हुआ था। सौवीं मंजिल से कूदने के लिए तैयार, आत्महत्या करने को उत्सुक। उससे नीचे की मंजिल पर लोग खड़े होकर उससे प्रार्थना कर रहे थे कि आत्महत्या मत करो, रुक जाओ, ठहर जाओ, यह क्या पागलपन कर रहे हो? लेकिन वह किसी की सुनने को राजी नहीं था। तब एक बूढ़े आदमी ने उससे कहाः हमारी बात मत सुनो, लेकिन अपने मां-बाप का खयाल करो कि उन पर क्या गुजरेगी? उस युवक ने कहाः न मेरा पिता है, न मेरी मां है। वे दोनों मुझसे पहले ही चल बसे। बूढ़े ने देखा कि बात तो व्यर्थ हो गई। तो उसने कहाः कम से कम अपनी पत्नी का स्मरण करो, उस पर क्या बीतेगी? उस युवक ने कहाः मेरी कोई पत्नी नहीं, मैं अविवाहित हूं। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-06)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-05)

 

प्रवचन-पांचवां-(नाचो समग्रता है नाच)

पत्रकार-वार्ता, बंबई, दिनांक २१ सितंबर १९६८

धर्म हमारा सर्वग्राही नहीं है। वह जवान को आकर्षित ही नहीं करता है। जब आदमी मौत के करीब पहुंचने लगे तभी हमारा धर्म उसको आकर्षित करता है।इसका मतलब यही है कि धर्म हमारा मृत्योन्मुखी है। मृत्यु के पार का विचार करता है, जीवन का विचार नहीं करता है। तो जो लोग मृत्यु के पार जाने की तैयारी करने लगे वे उत्सुक हो जाते हैं। ठीक है उनको उत्सुक हो जाना। उसके लिए भी धर्म होना चाहिए। धर्म में मृत्यु के बाद का जीवन भी सम्मिलित है लेकिन इस पार का जीवन भी सम्मिलित है और उसकी कोई दृष्टि नहीं है। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-05)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-04)

 

प्रवचन-चौथा-(नाचो प्रेम है नाच)

 बड़ौदा, दिनांक ८ सितंबर, १९६८

दान मैत्री और प्रेम से निकलता है तो आपको पता भी नहीं चलता है कि आपने दान किया। यह आपको स्मरण नहीं आती कि आपने दान किया। बल्कि जिस आदमी दान स्वीकार किया, आप उसके प्रति अनुगृहीत होते हैं कि उसने स्वीकार कर लिया। लेकिन अब दान का मैं विरोध करता हूं, जब वह दान दिया जाता है तो अनुगृहीत वह होता है जिसने लिया। और देने वाला ऊपर होता है। और देने को पूरा बोध है कि मैंने दिया, और देने का पूरा रस है और आनंद। लेकिन प्रेम से जो दान प्रकट होता है वह इतना सहज है कि पता नहीं चलता कि दान मैंने किया। और जिसने लिया है, वह नीचा नहीं होता, वह ऊंचा हो जाता है। बल्कि अनुगृहीत देने वाला होता है, लेने वाला नहीं। इन दोनों में बुनियादी फर्क है। दान हम दोनों के लिए शब्द का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन दान उपयोग होता रहा है उसी तरह के दान के लिए, जिसका मैंने विरोध किया। प्रेम से जो दान प्रकट होगा, वह तो दान है ही। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-04)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-03)

 

प्रवचन-तीसरा-(नाचो जीवन है नाच)

बिड़ला क्रीड़ा केंद्र बंबई  दिनांक ७ मई, १९६७ सुबह

मेरे प्रिय आत्मन,

एक छोटी सी घटा से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहता हूं,

एक महानगरी में, सौ मंजिल एक मकान के ऊपर, सौवीं मंजिल से एक युवक कूद पड़ने की धमकी दे रहा था। उसने अपने द्वार, अपने कमरे के सब द्वार बंद कर रखे थे। बालकनी में खड़ा था। सौवीं मंजिल से कूदने के लिए तैयार, आत्महत्या करने को। उसने नीचे की मंजिल पर खड़े होकर लोग उससे प्रार्थना कर रहे थे कि आत्महत्या मत करो, रुक जाओ, यह क्या पागलपन कर रहे हो? लेकिन वह किसी की सुनने को राजी नहीं। तब एक बूढ़े आदमी ने उससे कहा, हमारी बात मत सुनो, लेकिन अपने मां बाप का खयाल करो कि उन पर क्या गुजरेगी! Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-03)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-02)

 

प्रवचन-दूसरा-(नाचो धर्म है नाच)

मेरे प्रिय आत्मन,

अपना अनुभव ही सत्य है और इसके अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं है। जिस बोलने के साथ यह आग्रह होता है कि मैं कहता हूं, उस पर इसलिए विश्वास करो क्योंकि मैं कहता हूं। जिस बोलने के लिए श्रद्धा की मांग की जाती है–अंधी श्रद्धा की वह, बोलना उपदेश बन जाता है। मेरी न तो यह मांग है कि मैं कहता हूं उस पर आप विश्वास करें। मेरी तो मांग ही यही है कि उस पर भूलकर भी विश्वास न करें। न ही मेरा यह कहना है कि जो मैं कहता हूं वही सत्य है। इतना ही मेरा कहना है कि किसी के भी कहने के आधार पर सत्य को स्वीकार मत करना, और मेरे कहने के आधार पर भी नहीं। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-02)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-01)

 

प्रवचन-पहला-(नाचो अहोभाव है नाच)

दिनांक १५ मार्च, १९६८ सुबह पूना।

मेरे प्रिय आत्मन,

एक नया मंदिर बन रहा था उस मार्ग से जाता हुआ एक यात्री उस नव निर्मित मंदिर को देखने के लिए रुक गया। अनेक मजदूर काम कर रहे थे। अनेक कारीगर काम कर रहे थे। न मालूम कितने पत्थर तोड़े जा रहे थे। एक पत्थर तोड़ने वाले मजदूर के पास वह यात्री रुका और उसने पूछा कि मेरे मित्र, तुम क्या कर रहे हो? उस पत्थर तोड़ते मजदूर ने क्रोध से अपने हथौड़े को रोका और उस यात्री की तरफ देखा और कहा, क्या अंधे हो! दिखाई नहीं पड़ता? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। और वह वापस अपना पत्थर तोड़ने लगा। वह यात्री आगे बढ़ा और उसने एक दूसरे मजदूर को भी पूछा जो पत्थर तोड़ रहा था। उसने भी पूछा, क्या कर रहे हो? उस आदमी ने अत्यंत उदासी से आंखें ऊपर उठाई और कहा, कुछ नहीं कर रहा, रोटी-रोटी कमा रहा हूं। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-01)”

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