मैं कौन हूं?-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन

मैं विज्ञान की भाषा में बोल रहा हूं

एक मित्र ने पूछा हैः साधु, संन्यासी, योगी, वर्षों गुफाओं में बैठ कर ध्यान को उपलब्ध होते रहे हैं। और आप कहते हैं कि चालीस मिनट में भी ध्यान संभव है। क्या ध्यान इतना सरल है?

इस संबंध में दो-तीन बातें समझने योग्य हैं। एक तो आज से दस हजार साल पहले आदमी पैदल चलता था। पांच हजार साल पहले बैलगाड़ी से चलना शुरू किया। अब वह जेट-यान से उड़ता है। जैसे हमने जमीन पर चलने में विकास किया है वैसे ही चेतना में जो गति है उसके साधन में भी विकास होना चाहिए। तो वह भी एक गति है। आज से पांच हजार साल पहले अगर किसी को ध्यान उपलब्ध करने में वर्षों श्रम उठाना पड़ता था, तो उसका कारण ध्यान की कठिनाई न थी। उसका कारण ध्यान तक पहुंचने वाले साधनों की–बैलगाड़ी चलने की या पैदल चलने की शक्ल थी। मनुष्य जिस दिन अंतरात्मा के संबंध में वैज्ञानिक हो उठेगा, उस दिन शायद क्षण भर में भी ज्ञान पाया जा सकता है। क्योंकि ध्यान को पाने का समय से कोई भी संबंध नहीं है। समय से संबंध हमेशा साधन का होता है, ध्यान का नहीं होता। आप जिस मंजिल पर पहुंचते हैं उस मंजिल पर पहुंचने का कोई संबंध समय से नहीं होता। संबंध होता है रास्ते पर किस साधन से आप यात्रा करते हों। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-11)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन–(जीने की कला)

जीवन को कैसे जीआ जाए, उसका प्रयोजन क्या है?

दो-तीन बातें समझने योग्य हैं। एक तो जो जीवन को किसी भांति जीने की कोशिश करेगा, वह जीवन से वंचित रह जाएगा। जीवन के ऊपर जो सिद्धांत आरोपित करेगा वह जीवन की हत्या करने वाला हो जाएगा। जीवन के ऊपर कोई पद्धति, कोई पैटर्न, कोई ढांचा होगा जीवन के पौधे को सही से विकसित नहीं होने देता। जीवन को जीने की पहली समझ इस बात से आती है कि हम जीवन को जितनी सहजता से स्वीकार करते हैं उतनी ही धन्यता को जीवन उपलब्ध होता है। सिद्धांतवादी कभी भी सहज नहीं हो पाता और जितना व्यक्ति असहज होगा उतना कृत्रिम उतना झूठा, उतना पाखंडी हो जाता है। जीवन को जीने की कला का पहला सूत्र है जीवन की सहज स्वीकृति। जैसा जीवन आता है उसे अंगीकार करने का अहोभाव टोटल एक्सेप्टेबिलिटी न केवल परिपूर्ण स्वीकृति बल्कि अनुग्रहपूर्वक स्वीकृति, एक्सेप्टेंस विद ग्रेटिट्यूड। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-10)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन

(सत्य शब्दों में व्यक्त नहीं हो सकता)

एक मित्र ने पूछा है कि क्या मनुष्य की श्रद्धा को तर्क से ललकारा जा सकता है?

श्रद्धा को तो किसी से भी नहीं ललकारा जा सकता है। लेकिन जिसे हम श्रद्धा कहते हैं वह श्रद्धा होती ही नहीं। वह होता है सिर्फ विश्वास और विश्वास को किसी से भी ललकारा जा सकता है। श्रद्धा और विश्वास के थोड़े से भेद को समझ लेना जरूरी है। विश्वास है अज्ञान की घटना। जो नहीं जानते उनकी मान्यता का नाम विश्वास है। श्रद्धा है ज्ञान की चरम परिणति, जो जानते हैं उनके जानने में श्रद्धा है। उसे किसी भी भांति नहीं ललकारा जा सकता। लेकिन जिसे हम श्रद्धा कहते हैं वह श्रद्धा नहीं है, वह तो विश्वास है, बिलीफ। और ध्यान रहे, क्योंकि जो विश्वास करता है वह श्रद्धा का कभी भी नहीं होता है। श्रद्धा तक पहुंचना हो तो विश्वास में संदेह का आ जाना बहुत जरूरी है। श्रद्धा तक पहुंचना हो तो अंधे होने की जगह आंख का खुला होना जरूर चाहिए। श्रद्धा तक पहुंचना हो तो कुछ भी मान लेने के बजाय जो है उसे खोजना जरूरी है। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-09)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन–(सौंदर्य के अनंत आयाम

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि सौंदर्य को देखते ही उसे भोगने की इच्छा पैदा होती है। सौंदर्य को देखते ही उसके मालिक बनने की इच्छा पैदा होती है। उसे पजेस करने का मन होता है। ऐसी स्थिति में साधारण मनुष्य क्या करे? अब तक साधारण मनुष्य को जो संदेश दिया गया है, वह दमन करने का है कि वह अपने को दबाए, अपने को रोके, संयम करे, वहां से आंख मोड़ लें जहां सौंदर्य हो। वहां से भाग जाए जहां डर हो। अभी एक स्वामी जी महाराज लंदन होकर वापस लौटे, लाखों रुपया उनके ऊपर खर्च किए गए थे कि कोई स्त्री उन्हें दिखाई न पड़ जाए। इतना भय सौंदर्य का जिस मन में हो उस मन की कामुकता और सेक्सुअलिटी का हम अंदाज लगा सकते हैं। और जो पुरुष स्त्री से इतना भयभीत हो उस पुरुष के भीतर कैसी वास्तविक वृत्तियां हमला कर रही हों, इसका भी अनुमान लगा सकते हैं। सौंदर्य में भी अगर सेक्स दिखाई पड़े और परमात्मा न दिखाई पड़ सके उसके दमन की कहानी बहुत स्पष्ट है। लेकिन हजारों साल से आदमी को यही सिखाया गया है कि अपने को दबाओ, दबाने से कोई मुक्त नहीं होता। दबाने से जहर और बढ़ता है। दबाने से बीमारी और बढ़ती है। तो साधारणतया दिखाई पड़ता है कि दबाओ मत तुम भोगो हो। एक रास्ता तो यह है कि स्त्री दिखाई न पड़े, आंख ही फोड़ लो अपनी, सूरदास हो जाओ। दूसरा रास्ता यह है कि स्त्री दिखाई पड़े तो चंगेज खां हो जाओ, कि फौरन उसे अपने हरम में पहुुंचाओ। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-08)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन–(शक्ति का तूफान)

मेरे प्रिय आत्मन्!

कल मैंने कहा कि ध्यान अक्रिया है। तो एक मित्र ने पूछा हैः वे समझ नहीं सके कि ध्यान अक्रिया कैसे है। क्योंकि जो हम करेंगे वह तो क्रिया ही होगी व अक्रिया कैसे होगी?

मनुष्य की भाषा के कारण बहुत भ्रम पैदा हो रहे हैं। हम बहुत सी अक्रियाओं को भी भाषा में क्रिया समझे हुए हैं। जैसे हम कहते, है फलां व्यक्ति ने जन्म लिया। सुनें तो ऐसा लगता है कि जैसे जन्म लेने में उसको भी कुछ करना पड़ा होगा। जन्म माने क्रिया। हम कहते है फलां व्यक्ति मर गया और ऐसा लगता है कि मरने में उसे कुछ करना पड़ा होगा। हम कहते हैं कोई सो गया तो ऐसा लगता है कि सोने में उसे कुछ करना पड़ा होगा। जन्म क्रिया नहीं है, मृत्यु क्रिया नहीं है लेकिन भाषा में वे क्रियाएं बन जाती हैं। आप भी कहते हैं कि मैं कल रात सोया लेकिन अगर कोई आप से पूछे कि कैसे सोए, सोने की क्रिया क्या है तो आप कठिनाई में पड़ जाएंगे। सोए आप बहुत, बाद में लेकिन सोने की क्रिया आप नहीं बता सकेगें कि सोए कैसे। हो सकता है कि कहीं पर तकिया लगाया, बिस्तर लगाया, कमरा अंधेरा किया लेकिन इन में से सोने की क्रिया कहीं भी नहीं है। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-07)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

श्वास का महत्व

मेरे प्रिय आत्मन्!

ध्यान अस्तित्व के साथ एक हो जाने का नाम है। हमारी सीमाएं हैं–उन्हें तोड़ कर असीम के साथ एक हो जाने का नाम। हम जैसे एक छोटी सी बूंद हैं और बूंद जैसे सागर में गिर जाए और एक हो जाए। ध्यान कोई क्रिया नहीं है बल्कि कहें अक्रिया है, क्योंकि क्रिया कोई भी हो उससे हम बच जाएंगे पर अक्रिया में ही मिट सकते हैं। ध्यान एक अर्थ में अपने ही हाथ से मर जाने की कला है। और आश्चर्य यही है कि जो मर जाने की कला सीख जाते हैं वही केवल जीवन के परम अर्थ को उपलब्ध हो पाते हैं।

आज की सुबह इस एक घंटे में हम अपने को खोकर वह जो हमारे चारों ओर विस्तार है उसके साथ एक होने का प्रयास करेंगे। भाषा में तो यह प्रयास ही मालूम पड़ेगा। लेकिन बहुत गहरे में भीतर प्रयास नहीं हो सकता। अपने को सम्भालेेंगे नहीं, छोड़ देंगे। इसके पहले कि मैं ध्यान की प्रक्रिया के लिए आपसे कहंू, केवल दो छोटी सी बातें खयाल कर लें। थोड़ेे से लोग हों उसमें बहुत सुखद है, और इसलिए मैनें कहीं सूचना भी नहीं की, ताकि थोड़े से ही लोग आ सकें। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-06)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

जंजीर तोड़ने के सूत्र

मेरे प्रिय आत्मन!

एक चर्च में एक फकीर को बोलने के लिए बुलाया हुआ था। उस चर्च के लोगों ने कहा था कि सत्य की खोज के संबंध में कुछ कहो। वह फकीर बोलने खड़ा हुआ। उसने बोलने से पहले कहा कि मैं एक प्रश्न इस चर्च में इकट्ठे लोगों से पूछना चाहता हूं। उसके बाद ही मैं बोलना शुरू करूंगा। उसने पूछा कि चर्च में जो लोग इकट्ठे हैं वे बाइबिल का अध्ययन करते हैं? सारे लोगों ने हाथ हिलाए। वे अध्ययन करते थे। उस फकीर ने कहा कि दूसरी बात मुझे यह पूछनी है कि बाइबिल में ल्यूक की पुस्तक है, ल्यूक की पुस्तक का उनहत्तरवां अध्याय आप लोगों ने पढ़ा है? जिन लोगों ने पढ़ा हो वे हाथ ऊपर उठा दें। उस चर्च में बड़ी भीड़ थी, सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर सारे लोगों ने हाथ ऊपर उठा दिए। वह फकीर बहुत हंसने लगा, उसने कहाः अब मैं सत्य के संबंध में कुछ कहूंगा, लेकिन उसके पहले मैं कह दूं, बाइबिल में ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय जैसा कोई अध्याय है ही नहीं। और उन सारे लोगों ने हाथ उठाए थे कि हम पढ़ते हैं, और उन्हत्तरवां अध्याय बाइबिल में ल्यूक का कोई है ही नहीं, वैसी कोई पुस्तक ही नहीं है। तो उस फकीर ने कहा कि अब सत्य की खोज के संबंध में जरूर मुझे कुछ कहना होगा, क्योंकि यहां जितने लोग इकट्ठे हैं उनमें सत्य से किसी का भी कोई संबंध नहीं है। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-05)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

अकेला होना बड़ी तपश्चर्या है

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक गांव में एक बहुत अजीब घटना घट गई थी। एक आदमी ने किसी बीमारी में अपनी छाया खो दी। ऐसा कभी न हुआ था। वह रास्ते पर चलता तो उसकी छाया न बनती, गांव के लोग उससे डरने लगे, परिवार के लोग उससे दूर रहने लगे। उसकी पत्नी ने भी उसका साथ छोड़ दिया। यह बड़ी अनहोनी घटना थी कि कोई अपनी छाया खो दे। और लोगों का भयभीत हो जाना स्वाभाविक था। उनकी समझ में आना मुश्किल हो गया कि आदमी किस प्रकार का है, जिसकी छाया न बनती हो? धीरे-धीरे अपने ही परिवार से वह निष्कासित हो गया, मित्रों ने साथ छोड़ दिया। और जिस दरवाजे पर भी पहुंचता, लोग द्वार बंद कर लेते थे। उसके भूखे मरने की नौबत आ गई। वह हाथ जोड़-जोड़ कर चिल्ला कर भगवान से कहने लगा कि मुझे मेरी छाया वापस दे दो। यह मेरी छाया क्या खो गई है, यह तो मेरा जीवन नष्ट हुआ जाता है। पता नहीं ऐसी घटना कभी घटी थी या नहीं घटी, लेकिन मैंने सुना है कि ऐसा कभी हुआ है। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-04)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

मन है एक रिक्तता

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं कौन हूं? इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल और परसों मैंने आपसे की हैं। परसों मैंने कहा, ज्ञान नहीं वरन न जानने की अवस्था, न जानने का बोध, सत्य की ओर मार्ग प्रशस्त करता है। यह जान लेना कि मैं नहीं जानता हूं एक अपूर्व शांति में और मौन में चित्त को ले जाता है। यह स्मरण आ जाना कि सारा ज्ञान, सारे शब्द और सिद्धांत जो मेरी स्मृति पर छाए हैं, वे ज्ञान नहीं हैं, वरन जब स्मृति मौन और चुप होती है, और जब स्मृति नहीं बोलती, और जब स्मृति स्पंदित नहीं होती तब उस अंतराल में, उस रिक्त में जो जाना जाता है, वही सत्य है, वही ज्ञान है। इस संबंध में परसों थोड़ी सी बातें कहीं थी, और कल मैंने आपसे कहा कि वे नहीं जो अपने अहंकार में कठोर हो गए हैं, वे नहीं जो अपने अहंकार के सिंहासन पर विराजमान हैं, वे नहीं जिन्होंने अपनी संवेदना के सब झरोखे बंद कर लिए और जिनके हृदय पत्थर हो गए हैं। वरन वे, जो प्रेम में तरल हैं, और जिनके हृदय के सब द्वार खुले हैं, और जिन्हें अज्ञात स्पर्श करता है, और जिन्हें जीवन में चारों तरफ छाए हुए जीवन में रहस्य की प्रतीति होती है। ऐसे हृदय, ऐसे काव्य से, और प्रेम से, और रहस्य से भरे हृदय ही केवल सत्य को जानने में समर्थ हो पाते हैं। और आज सुबह एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा मैं शुरू करूंगा। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-03)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

स्वयं की असली पहचान

मैं कौन हूं? इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। ज्ञान नहीं बल्कि अज्ञान, जानकारी नहीं बल्कि न जानने की स्थिति, स्टेट ऑफ नॉट नोइंग के संबंध में थोड़ी सी बातें कहीं। यदि हम उस ज्ञान से मुक्त हो सकें, जो बाहर से उपलब्ध होता है, तो संभावना है उस ज्ञान के जन्म की, जो उपलब्ध नहीं होता बल्कि आविष्कृत होता है, उघड़ता है, भीतर छिपा है, और उसके परदे टूट जाते हैं, और द्वार खुल जाते हैं। इसलिए मैंने कहा ज्ञान से नहीं बल्कि इस सत्य को जानने से कि मैं नहीं जानता हूं, मैं नहीं जानता हूं, इस भाव-दशा में ही कुछ जाना जा सकता है। मैं नहीं जानता हूं, यह स्मरण, यह स्मृति, जैसे-जैसे घनीभूत और तीव्र होगी, वैसे-वैसे मन मौन होता चला जाता है, निस्तब्ध और निःशब्द होता चला जाता है। क्योंकि सारे शब्द और सारे विचार हमारे जानने के भ्रम से पैदा होते हैं। मैं कौन हूं? यह प्रश्न तो हो लेकिन कोई भी उत्तर स्वीकार न किया जाए उस निषेध में, उस निगेटिव माइंड में, उस मनःस्थिति में जो भीतर सोया है, वह जागृत होता है। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-02)”

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन

स्वयं की पहचान क्या?

मेरे प्रिय आत्मन!

एक छोटी सी कहानी से मैं तीन दिनों की इन चर्चाओं को शुरू करना चाहूंगा।

एक व्यक्ति बहुत विस्मरणशील था। छोटी-छोटी बातें भी भूल जाता था। बड़ी कठिनाई थी उसके जीवन में, कुछ भी स्मरण रखना उसे कठिन था। रात वह सोने को जाता तो अपने कपड़े उतारने में भी उसे कठिनाई होती, क्योंकि सुबह उसने टोपी कहां पहन रखी थी और चश्मा कहां लगा रखा था और कोट किस भांति पहन रखा था वह भी सुबह तक भूल जाता था। तो करीब-करीब कपड़े पहन कर ही सो जाता था ताकि सुबह फिर से स्मृति को कष्ट देने की जरूरत न पड़े। पास में ही एक चर्च था और चर्च के पुरोहित ने जब उसके विस्मरण की यह बात सुनी तो बहुत हैरान हुआ। और एक रविवार की सुबह जब वह आदमी चर्च आया तो उसे कहा कि एक किताब पर लिख रखो कि कौन सा कपड़ा कहां पहन रखा था, किस भांति पहन रखा था ताकि तुम रात में कपड़े उतार सको और सुबह उस किताब के आधार पर उन्हें वापस पहन सको। उस रात उसने कपड़े उतार दिए और किसी किताब पर सब लिख लिया। Continue reading “मैं कौन हूं?-(प्रवचन-01)”

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